________________
२००
परमार अभिलेख
संभवतः यह रचितं का छोटा रूप हो । परन्तु इसके बाद लेखक का नाम नहीं है । अभिलेख के नीचे बड़े अक्षरों में “अधि" शब्द है जिसके साथ श्री लगा है। इसका अर्थ अनिश्चित है । प्रस्तुत अभिलेख निश्चित रूप से परमार नरेश यशोवर्मन् का है जो नरवर्मन् का पुत्र था । वह ११३३ ई. में पिता की मृत्यु पर नरेश बना था ।
भौगोलिक स्थानों में देवलपाटक दो ग्रामों का संयुक्त नाम होना चाहिये । पश्चिमी निमाड़ जिले में भीकनगांव परगना के अन्तर्गत धरमपुरी से 5 कि. मी. उत्तर पश्चिम दिशा में देउल व पाडल्य ग्रामों से इनकी समता की जा सकती है। ठिक्करिका वर्तमान ठीकरी ग्राम है जो धरमपुरी से ११ कि. मी. दक्षिण में बंबई - आगरा मुख्य मार्ग पर स्थित है । लघुवैंगणपद्र आधुनिक वेगन्दा अथवा वेगन्दी है जो ठीकरी से दक्षिण-पूर्व में १० कि. मी. की दूरी पर है। ये सभी ग्राम नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित हैं। यह सारा प्रदेश परमार साम्राज्य में था ।
( मूलपाठ)
१. श्री मोमलदेवी-सांवत्सरि[क] (के) कल्पितत्वाद्भुज्यमान देवलपाटकाद् भूहलद्वयपरिवर्तन (ब्रह्मणमा [य]कीय भूहल
२. द्वयसम्व (ब) द्धे ठीकरिकाग्राम-विभाग- उभयजयद्वाभ्यां भूनिवर्त्तन- सप्तदशकोपेत-भूहलैकादशकसंवधे (बंद्धे) समस्त - उप
३. रिलिखित - लघु वैंगणपद्रग्रामस्तथा
ठिक्करिकाग्रामार्द्धश्च
स्वसीमा-तृण [यू] तिगोचरपर्यन्तः
सवृक्षमालाकुल:
४. सहिरण्य-भागभोगः सोपरिकरः सर्वादायसमेतश्च मातापित्रो - रात्मनश्च पुण्ययशोभिवृद्धये शासनेनोदक
५. पूर्व्वकतया प्रदत्तस्तन्मत्वा यथादीयमान भाग-भोगकर हिरण्यादिकमाज्ञा श्रवण-विधेयैर्भूत्वा सर्व्वमेताभ्यां समुप
६. नितव्यं । सामान्यं चैतत् पुण्यफलं वु (बु) द्ध्वाऽस्मद्वंश - जैरन्यैरपि भावि भोक्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्मादायोयम- नुमन्त
७. व्यः पालनीयश्च । उक्तं च ।
१०.
११.
१२.
Jain Education International
(a) हुभिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।१।। यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रद्दानानि धर्म्मार्थयशस्कराणि । निर्माल्यवान्ति प्रतिमानि तानि को नाम साधुः पुन
राददीत ॥२॥ अस्मत्कुल क्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं । लक्ष्म्यास्तद्विलयवुद्व (बुद्बु) दचं [च]
लाया दानं फलं परयशः परिपालनं च ॥३॥ सर्व्वानेतान्भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याचते रामभद्रः ।
सामा
न्योयं धर्म्मसेतुर्न पाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ॥ ४ ॥ इति कमलदलम्वु (म्बु ) विन्दुलोलां श्रीयमनुचि [त्य म]
नुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदाहृतं च बुध्वा ( बुद्ध वा ) न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्या ॥ ५॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org