________________
१४६
परमार अभिलेख
उनका जोड़ ३० अंक लिख कर प्रत्येक ९ पंक्तियों के पश्चात उनका जोड़ ९० अंक लिख कर, और अन्त में सभी पंक्तियों का कुल जोड़ १८० अंक लिख कर दर्शाया गया है । चतुष्कोण के निचले दाहिने भाग के अर्द्धगोलाकारों व उनके मध्य रिक्त स्थानों में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है ।
अभिलेख का तीसरा भाग २२ गोलाकार आकृतियों द्वारा निर्मित एक त्रिकोण के रूप में है । इन गोलाकार आकृतियों में धातु प्रत्यय दिये हुए हैं । त्रिकोण के मध्य 'तिन् प्रत्यय' लिखा हुआ है । इस दृष्टि से इनमें १० विकर्ण और १२ सनादि प्रत्यय होना चाहिये । परन्तु त्रिकोण के दाहिनी ओर बने गोले भग्न हो गये हैं । अतः ठीक स्थिति का ज्ञान कठिन ही है । फिर भी जो शेष है उसके आधार पर बहुत कुछ जाना जा सकता है। त्रिकोण की मुख्य भुजा पर बने सात गोलों में अ यन् नु न उ ना अय अक्षर खुदे हुए हैं । ये क्रमशः भवादि, दिवादि, स्वादि, रुधादि, तनादि, क्रयादि व चुरादि धातुओं के विकर्ण हैं। इनमें अदादि, जुहोत्यादि व तुदादि सम्मिलित नहीं है, क्योंकि प्रथम दो के विकर्ण तो छोड़ ही दिये हैं, व तुदादि का विकर्ण भवादि के समान ही है । त्रिकोण की दो भुजाओं पर सन् य अय् इयङ्ङ काम्य और आय लिखे हैं जो सनाद्यन्त क्रियाओं के रूप है । इनमें से दूसरा अर्थात य का प्रयोग क्यच् क्यङ् क्यष् rs और यक् के लिये भी होता है । प्रयोग के समय इनमें से केवल य ही रह जाता है, और शेष भाग लुप्त हो जाता है । तीसरा अय् वास्तव में णिङ और णिच् का ही छोटा रूप है । क्विप् का उल्लेख ही नहीं किया गया है क्योंकि क्रिया के अन्त में इसका लोप हो जाता है । इस प्रकार प्रस्तुत बंध में १२ सनादि प्रत्ययों में से केवल ६ का ही उल्लेख किया गया है । बाईं ओर के गोलों में तीन अन्य प्रत्ययों इच् यण् इन् का भी उल्लेख है, परन्तु क्रियाओं में इनके महत्व व प्रयोग के बारे में निश्चित ज्ञात नहीं है। इसी प्रकार कुछ प्रत्यय दाहिनी ओर के टूटे हुए गोलों में भी रहे होंगे ।
दूसरा वर्णनाग कृपाणिका बंध, जो बाईं ओर के केन्द्रीय स्तम्भ पर उत्कीर्ण है, उज्जैन व ऊन से प्राप्त बंधों के समान संस्कृत वर्णमाला युक्त है । यह बंध केवल एक नाग के घुमाव - दार लम्बे शरीर से बने चतुष्कोणों व लम्बी पूंछ द्वारा निर्मित है। जैसा कि पूर्व अभिलेख में दर्षाया जा चुका है, संपूर्ण वर्ण-माला सर्प के मुख्य शरीर वाले भाग में और संज्ञा के रूप व क्रियाओं के धातु पूंछ वाले भाग में वर्णित हैं । सर्प के मुख के ऊपर संभवतः क्ष अक्षर उत्कीर्ण है और इसके नीचे अ आ लिखे हैं । नीचे त्रिकोण की बाईं भुजा में रु यु उ लिखे हैं और आधार में उपघमावीय, जिह्वामूलीय, विसर्गीय दिये हुए हैं। इन सभी का अभिप्राय अनिश्चित है ।
(३२)
ऊन का नरवर्मन कालीन चौबारा डेरा मंदिर नागबंध प्रस्तर अभिलेख ( तिथि रहित )
प्रस्तुत अभिलेख ऊन में चौबाराडेरा व अन्य मंदिरों में उत्कीर्ण है । इसका प्रथम उल्लेख ए. रि. आ. स. ई., १९१८-१९, पृष्ठ १७ पर किया गया। इसके बाद भी समय-समय पर इसके सामान्य उल्लेख किये गये। के. एन. शास्त्री ने इसका विवरण एपि. इं., भाग ३१, पृष्ठ ३० पर दिया ।
वर्तमान में यह तीन खण्डों में है । प्रथम खण्ड एक खण्डित मंदिर की बाईं दीवार में लगे पत्थर पर उत्कीर्ण है। इसके ५ टुकड़े हो गये हैं । इस में उज्जैन व धार के समान वर्णनाग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org