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धार अभिलेख
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. यहां तिथि का अभाव है। श्लोकों में उदयादित्य व नरवर्मन के उल्लेख हैं। संभव है कि नरवर्मन ने अपने शासन के प्रारंभ में ही दोनों नागबंधों को कवियों एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के वक्ष पर आभूषण रूप से धारण करवाना शुरू कर दिया हो। तथा उन की प्रतिलिपि भोजशाला में स्तम्भों पर उत्कीर्ण करवा दी। नागबंध उसके पिता के नाम पर प्रचलित थे अत: नाम में परिवर्तन किया गया हो।
प्रत्ययमाला युक्त नागबंध में १० लकारों की १८० तिण विभक्तियां एवं १६ धातु प्रत्यय हैं। इस नागबंध के तीन भाग किये जा सकते हैं--ऊपर, मध्य एवं नीचे के भाग। ऊपर के भाग में अभिलेख काफी साफ है। वहां प्रारम्भिक शब्द कुछ धुंधला पड़ गया है। यह संभवतः 'अथ' है। के. एन. शास्त्री इसको 'अथ तिविभक्ति बंधः' मानते हैं, परन्तु डी. सी. सरकार उनसे सहमत नहीं हैं (एपि. इं., भाग ३१, पृष्ठ २९)। पी. टी. श्रीनिवास आयंगर (भोजराज, १९३१, मद्रास, पृष्ठ १०२) लिखते हैं कि नागयुगल के मुखों के पास 'अथ' शब्द तथा उनकी ग्रीवाओं के मध्य 'धातु' शब्द उत्कीर्ण हैं। नीचे के त्रिकोण में 'इन प्रत्यय' शब्द लिखे हैं। इस आधार पर अभिलेख का शीर्ष “अथ धातु प्रत्ययाः" माना जा सकता है।
मध्यवर्ती भाग एक वर्गाकार चतुष्कोण के रूप में है जो अपने एक कोण के सहारे खड़ा है। इसको एक ओर से १० समानन्तर व दूसरी ओर से प्रथम को काटती हुई १८ समानन्तर रेखाओं को काटने से १८० भागों में विभाजित किया हुआ है। पुनः प्रत्येक दो रेखाओं के जोड़ों को अन्त में अर्द्ध गोलाकार रेखाओं से इस प्रकार मिला दिया गया है कि सम्पूर्ण वर्गाकार चतुष्कोण ही लम्बाई व चौड़ाई के मान से आपस में एक दूसरी को बराबर काटती हुई दो वक्र रेखाओं से बना प्रतीत होता है। इस प्रकार चतुष्कोण के ऊपर बाईं ओर निर्मित ५ अर्द्ध गोलाकारों व इनके मध्य ५ रिक्त स्थानों में १० लकारों के विभिन्न रूपों के प्रथम अक्षर उत्कीर्ण हैं। ये क्रम के अनुसार व स वि ह्य अप स्व (श्व) आ भ और कृ (क्रि) अक्षर हैं जिनसे क्रमशः वर्तमान, संभावन, विधि, ह्यस्तन, अतीत, अतीत सामान्य, परोक्ष, श्वस्तन भविष्यत्, आशिष भविष्यत् और क्रियातिपत्ति अथवा क्रियातिक्रम का बोध होता है जो पाणिनि के अनुसार निम्नांकित दस लकारों को दर्षाते हैं--लट्, विधिलिङ, लोट्, लङ, लुङ, लिट्, लुट् आशीलिङ लुट् और लुङ । (चान्द्र व्याकरण में दस लकार अपने सार्वधूतक और आर्धधूतक विभागों के अनुसार विभक्त हैं। इस प्रकार प्रथम चार अर्थात् लट्, विधि लिङ, लोट् और लङ सार्वधूतक विभागीय हैं और शेष छहों आर्धधूतक विभागीय हैं। परन्तु पाणनीय सिद्धान्त के अनुसार वे अपने टित् व णित् विशेषताओं के अनुसार क्रमबद्ध होते हैं। प्रस्तुत बंध में चार लकार सिद्धान्त चन्द्रिका के अनुरूप क्रमबद्ध हैं। परन्तु यहां आर्धधूतक लकारों के क्रम में कुछ त्रुटि है। फिर भी लकारों का मूल विभाजन शुद्ध होने से इसमें विशेष अन्तर नहीं पड़ता है।) प्रत्येक लकार के नीचे क्रियाओं के १८ रूप दिये हुए हैं जिनमें से आधे परस्मैपदी व शेष आधे आत्मनेपदी हैं । यह तथ्य चतुष्कोण के निचले बायें भाग में बाहर की ओर परस्मै. व आत्मने-प्रथमार्द्ध शब्दों के लिखे होने से सामने आता है। प्रत्येक पद तीन भागों में विभाजित है, जैसा प्र म उ प्रथम अक्षरों से ज्ञात होता है। ये अक्षर क्रमशः प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष को सूचित करते हैं। इन तीनों पुरुषों के रूप भी चतुष्कोण के नीचे बाईं ओर प्रत्येक अर्द्ध गोलाकार वाले भागों व उनके मध्य रिक्त स्थानों में १, २, ३ अंक लिख कर दर्शाये गये हैं। चतुष्कोण के ऊपर दाहिनी ओर नौ अर्द्धगोलाकारों व उनके मध्य रिक्त स्थानों में प्रत्येक पंक्ति का जोड़ १० अंक लिख कर १८ बार दोहराया गया है। पुनश्च प्रत्येक तीन पंक्तियों के समूहों के पश्चात
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