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________________ नागपुर प्रशस्ति १५७ जयसिंह प्रथम का नामोल्लेख ही नहीं है। केवल इतना ही नहीं पश्चातकालीन समस्त अभिलेखों में से उसके नाम का लोप कर दिया गया। श्लोक क्र. ३३-३४ में भी उदयादित्य की काव्यात्मक प्रशंसा है। श्लोक क्र. ३५ से ५४ में उसके पुत्र लक्ष्मदेव की काव्यात्मक प्रशंसा है। परन्तु बीच बीच में उसकी विजयों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी प्राप्त होता है। प्रस्तुत प्रशस्ति में अपने बड़े भाई लक्ष्मदेव की प्रशंसा में सर्वाधिक २० श्लोकों के समावेश से इस विश्वास को बल मिलता है कि श्लोक क्र. ५५-५६ में वर्णित ग्रामदानों के नवीनीकरण के अवसर पर नरवर्मन ने मूल रूप से लक्ष्मदेव की प्रशंसा में ही श्लोकों की रचना की होगी, परन्तु पुनर्विचार करने पर बाद में अपने पूर्वजों का भी इसमें समावेश कर दिया गया। परिणामस्वरूप प्रशस्ति का वर्तमान अत्यन्त विस्तृत रूप हो गया। लक्ष्मदेव की विभिन्न विजयों के वर्णन में श्लोक क्र. ३५-३७ में उसका चारों दिशाओं में सामरिक अभियानों का पारम्परिक उल्लेख है । श्लोक क्र. ३८ के अनसार वह अद्वितीय हाथियों को पकड़ने का इच्छा से पूर्व की ओर गया और गौडपति के नगर में प्रवेश कर गया। श्लोक क्र. ३९-४१ में उसके त्रिपुरी पर आक्रमण करने व शत्रुओं का नाश करने के उपरान्त विंध्य की तराई में नर्मदा नदी के तट पर पड़ाव डालने का उल्लेख है। लक्ष्मदेव का त्रिपुरी पर आक्रमण बहुत संभावित है। वास्तव में त्रिपुरी के चेदिकल्चुरि नरेश मालव के परमारों के चिरपरिचित शत्रु थे। कल्चुरि कर्ण ने मालवा पर आक्रमण कर बहत क्षति पहुंचाई थी। परन्त जयसिंह प्रथम ने दक्खिन के चालक्यों की सहायता से उसको मार भगाया था। कर्ण मर चुका था व उसका पूत्र यशःकर्ण (१०७२-१११५ ई.) अब राज्याधिकारी था। लक्ष्मदेव की बहिन श्यामलदेवी की पत्नी अल्लहणदेवी का विवाह यश :कर्ण के बडे पुत्र गयकर्ण के साथ हो गया था (भेराघाट अभिलेख, एपि इं., भाग २, पृष्ठ १२; का.इं.इं., भाग ४, पृष्ठ ३१६)। फिर भी संभावना है कि लक्ष्मदेव ने चेदि नगरी त्रिपुरी पर आक्रमण कर उसको लूटा हो और मालवा पर हुए आक्रमण का बदला लिया हो (का. इं. इं. भाग ४, पृष्ठ १०३) श्लोक क्र. ४२-४५ में विंध्य को लांघ कर पूर्व में अंग-कलिंग की सेना से मुठभेड़ का सामान्य विवरण है। श्लोक क्र. ४६ में उसके दक्षिण की ओर जाने का उल्लेख है जहां चोल व अन्यों (जनजातियों)ने उसके समक्ष समर्पण किया। श्लोक क्र. ४७ में इसके पांड्य राज्य के अन्तर्गत ताम्रपर्णी जाने व बहुमूल्य मोती प्राप्त करने का उल्लेख है; जबकि अगले श्शोक क्र. ४८ में उसके सेतुबन्ध तक जाने व सेना के हाथियों से निर्मित पल द्वारा पार करने का विवरण है। वास्तव में लक्ष्मदेव के दक्षिणी अभियान पर किसी निश्चित साक्ष्य के अभाव में विश्वास करने में कठिनाई प्रतीत होती है। यह मात्र कवि कल्पना लगती है। आगे श्लोक क्र. ४९-५१ में उसके पश्चिमी समद्र तट पर अभियान का अलंकारिक भाषा में वर्णन है। श्लोक क्र. ५२-५३ में उसके उत्तर दिशा में जाने का अलंकारिक वर्णन है। परन्तु श्लोक क्र. ५४ में वर्णित तथ्य विचारणीय हैं। इसके प्रथमार्द्ध में लिखा है--"जिसने खेल-खेल में ही पराजित किये गये तुरुष्कों के द्वारा भेंट किये गये अश्वों के लेटने के कारण केसरमय रेत नरम पड़ गई ऐसी बंक्षु नदी के तट पर (पड़ाव डाला)।" वंक्षु नदी का तादात्म्य सरल नहीं है। सामान्यतः इसकी समता मध्य एशिया में आक्सस नदी से की जाती है। डी. सी. गांगूली लिखते हैं कि बंक्षु नदी गंगा की एक छोटी धारा थी जिसका अब तादात्म्य नहीं किया जा सकता। (प. रा. इ. गां., पृष्ठ ११२-११३)। यहां तुरुष्कों अर्थात मुस्लिम आक्रमणकारी के नाम का उल्लेख नहीं है। परन्तु समकालीन ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है कि अफगानिस्तान में गज़नी के प्रख्यात शासक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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