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परमार अभिलेख
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, र के बाद का व्यञ्जन दोहरा, कहीं पर व्यञ्जन को अनुस्वार एवं कहीं सवर्ण बना दिया गया है। शब्द को अगली पंक्ति में चालू रखने के लिए अकेला या दोहरा दण्ड बना दिया है। अर्द्धविराम के लिए भी दण्ड बना दिया है। दण्ड र के समान प्रतीत होता है। कहीं कहीं पर अक्षर ही गलत हैं। इन सभी त्रुटियों के लिए उत्कीर्णकर्ता उत्तरदायी है।
श्लोक क्र. ५६ के अनुसार यह प्रशस्ति है जो शासनकर्ता नरेश नरवर्मन द्वारा रची गई थी। परन्तु लेख की अत्यधिक लम्बाई देखते हुए इसमें वर्णित वास्तविक तथ्य अत्यन्त न्यून हैं । संभवतः इसी कारण श्लोक ५७ में राजकीय लेखक सुझाव देने पर बाध्य हो गया कि पाठक उचित परिश्रम करें एवं अपनी बुद्धि को कुश के अग्रभाग के समान तीक्ष्ण बनावें।
तिथि पंक्ति ४० में संवत् ११६१ है। इसमें अन्य विवरण नहीं है। यह ११०४ ई. के बराबर है। नरवर्मन का शासन काल १०९४ से ११३३ ईस्वी तक था। अतः यह तिथि उसके राज्यकाल में ठीक बैठती है । ध्येय श्लोक ५५-५६ में वर्णित है । इसके अनुसार नरवर्मन के अग्रज लक्ष्मदेव ने व्यापर मंडल में दो गांव दान में दिए थे। अब उनके स्थान पर नरवर्मन ने मोखलपाटक ग्राम दान में देकर वहां एक देवमंदिर बनवाया एवं प्रस्तुत प्रशस्ति उसम लगवा कर उसका उल्लेख कर दिया।
लोक क्र. ८-१३ में अवुर्द पर्वत पर मुनि वसिष्ठ के निवास करने, उसकी नंदिनी धेनु का विश्वामित्र द्वारा अपहरण करने, वसिष्ठ द्वारा प्रज्वलित अग्नि से अद्वितीय वीर परमार के उत्पन्न होने का विवरण है , जिसके नाम पर वंश का नाम पड़ा। श्लोक १४-१५ में परमार वंश की समता चन्द व सर्य वंशों से की गई है जिनमें राज्यवर्द्धन, विशाल धर्मभृत, सत्यकेतु, पृथ, अज, राम, नल नरेश हव एवं भरत के वंशज गिने गए। यहीं पर पुनः परमार वंश की अग्नि से उत्पत्ति को दोहराया गया है। श्लोक १६-३१ में परमार वंश के नरेशों का विवरण है। इसमें वैरिसिंह द्वितीय, सीयक द्वितीय, मंजराज, सिंधुराज एवं भोजराज के लौकिक विवरण हैं।
___ श्लोक क्र. ३२ महत्वपूर्ण है। इसमें लिखा हुआ है--"उस (भोजदेव) के इन्द्र की बंधुता को प्राप्त होने पर और राज्यस्वामी के कौटुम्बिकों के संघर्षरूपी जल में मग्न होने पर उसका बंधु उदयादित्य नरेश हआ जिसने महासमुद्र के समान संयुक्त रूप से कर्णाट कर्ण आदि नरेशों के द्वारा पीडित इस पथ्वी का उद्धार करके वराह अवतार का अनुसरण किया।" इससे निम्न तथ्य सामने आते हैं-- (१) भोज की मृत्यु के बाद उसके कौटुम्बिकों में संघर्ष होने पर कर्ण ने कर्णाट की सहायता से आक्रमण किया था। (२) आक्रमणकारियों को परमार साम्राज्य से बाहर निकालने का कार्य उदयादित्य ने सफलतापूर्वक सम्पादित किया और (३) उदयादित्य भोज का बंधु था।
उक्त सभी ऐसे तथ्य हैं जो हमें अन्य किसी अभिलेख से ज्ञात नहीं होते। उदयपुर प्रशस्ति (क्र. २२) के श्लोक क्र. २१ में कुछ इसी आशय का उल्लेख है, परन्तु वह केवल सामान्य रूप से काव्यमय विवरण ही है। उसमें आक्रमणकारी शत्रुओं के नामोल्लेख नहीं हैं। इसके अतिरिक्त भोजदेव से उदयादित्य का संबंध भी दर्शाया नहीं गया है।
हमें अन्य आधारों से ज्ञात है कि भोजदेव की मृत्यु के उपरान्त राज्याधिकार प्राप्ति हेतु उसके संबंधियों में संघर्ष हुआ था जिसमें जयसिंह प्रथम सफल हो गया था (अभिलेख क्र. १९२०)। जयसिंह प्रथम ने १०५५ ई. से संभवतः १०७० ई. तक शासन किया था। परन्तु इस सारी अवधि में वह अपने विरोधियों व शत्रुओं से संघर्षरत रहा । इसी कारण उसके लिये दक्खिन के चालुक्यों की सहायता पर निर्भर रहना आवश्यक हो गया। १०७० ई. में एक युद्ध में उसकी मृत्यु के उपरान्त ही उसका विरोधी उदयादित्य राज्याधिकारी बन सका। प्रस्तुत अभिलेख में उक्त
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