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धरमपुरी अभिलेख
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पंडित सोमदेव के पौत्र, पंडित जैनसिंह के पुत्र पुरोहित पंडित श्री गोविन्द शर्मा ब्राह्मण के लिए यह
भूमि, जिसकी चारों सीमाएँ निश्चित हैं, साथ में वृक्षों की पंक्तियों के समूह से व्याप्त, हिरण्य - भाग भोग उपरिकर, घाटों का कर, नमक कर आदि सब कर समेत, साथ में निधि व मड़ा धन, माता-पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिए, चन्द्र सूर्य समुद व पृथ्वी के रहते तक, परम भक्ति के साथ शासन द्वारा जल हाथ में ले कर दान में दी गई है। उसको मान कर वहाँ के निवासियों, पटेलों व ग्रामीणों के द्वारा जिस प्रकार दिया जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि आज्ञा सुन कर सभी उसके लिए देते रहना चाहिये और इसका समान रूप फल जान कर हमारे वंश में व अन्यों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। और कहा गया है-- .. २१. सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब-जब यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है तब-तब उसी को उसका फल मिला है।
... २२. अपने द्वारा दी गई अथवा दूसरे के द्वारा दी गई भूमि का जो हरण करेगा वह अपने
पितरों समेत विष्टा का कीड़ा बनता है। २३. सभी इन होने वाले नरेशों से रामचन्द्र बार-बार याचना करते हैं कि यह सभी व्यक्तियों
के लिए समान रूप धर्म का सेतु है, अतः आपको अपने-अपने काल में इसका पालन करना
चाहिये। २४. इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल
समझ कर और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये।
संवत् १२७२ भाद्रपद सुदि १५ बुधवार । दूतक । श्री मु ३ । यह महासांधिविग्रहक राजा सलखण की सम्मति से राजगुरु मदन द्वारा रचा गया। ये हस्ताक्षर स्वयं महाराज श्री अर्जुनवर्मदेव के हैं। यह वाप्यदेव के द्वारा उत्कीर्ण किया गया।
(६२) धरमपुरी का अर्जुनवर्मन् कालीन भवानीमाता मंदिर अभिलेख ...
__ (संवत् १२७३ व शक ११३८== १२१६ ई.) प्रस्तुत अभिलेख धरमपुरी में भवानीमाता मंदिर में एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण बतलाया जाता है। लेखक ने इसकी खोज की परन्तु यह दिखलाई नहीं पड़ा। इस का विवरण लेले कृत धार स्टेट में परमार अभिलेख, १९४४, पृष्ठ ८८ पर दिया हुआ है। -
अभिलेख में ७ पंक्तियाँ हैं। सभी पंक्तियाँ अत्याधिक जीर्ण अवस्था में हैं। इस कारण इसका प्रमुख ध्येय अनिश्चित है। अनुमानतः उक्त मंदिर में पंडित केवश आदि की नियुक्ति की गई थी। - अभिलेख में विक्रम एवं शक संवतों में तिथि लिखी है। ऐसा परमार अभिलेखों में देखने में नहीं आया है। विक्रम संवत् में यह १२७३ वर्ष है। अन्य विवरण नहीं है। शक संवत् में यह ११३८ भाद्रपद वदि.....शुक्रवार है। ये दोनों ही तिथियाँ शुक्रवार १९ (अथवा २६) अगस्त, १२१६ ई. के बराबर निर्धारित होती हैं।
अभिलेख में अर्जुनदेव के राज्य करने का उल्लेख है। इसके प्राप्तिस्थल व तिथि को दृष्टिगत रखते हुए, इस नरेश का तादात्म्य इसी नाम के परमार राजवंशीय नरेश से किया जा सकता है।
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