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________________ उज्जैन अभिलेख १९३ अभिलेख का ध्येय पहली तिथि को धारा नगरी में स्थित नरेश यशोवर्मन् द्वारा अपने पिता नरवर्मन् की वार्षिकी पर दो ग्राम दान करना, एवं दूसरी तिथि को उसके पुत्र महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् द्वारा उस ग्रामदान की पुष्टि करना है। दान में दिये गये ग्राम महाद्वादशक मंडल के अन्तर्गत राजशयन भोग में सुरासणी से सम्बद्ध बड़ौद ग्राम एवं सवर्ण प्रसादिका से सम्बद्ध उears ग्राम थे | दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण अद्रेलविद्धावरि स्थान से आया, भारद्वाज गोत्री, भारद्वाज आंगिरस बार्हस्पत्य तीन प्रवरों वाला आश्वलायन शाखी, दक्षिण से आया कर्णाट ब्राह्मण द्विवेद ठक्कुर श्री महिरस्वामी का पौत्र, श्री विश्वरूप का पुत्र आवस्थिक श्री धनपाल था । पंक्ति २-४ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री उदयादित्य देव, नरवर्मदेव, यशोवर्मदेव एवं लक्ष्मीवर्मदेव के उल्लेख हैं । इनमें से प्रथम तीन नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी है, जबकि अंतिम के नाम के साथ 'समस्त प्रशस्तोपेत समधिगत पंचमहाशब्दालंकार महकुमार' उपाधि लगी हुई है । निश्चित ही यह एक अधीनस्थ उपाधि मानी जाना चाहिये । कम से कम उपर्युक्त राजकीय उपाधियों से कम महत्व की रही होगी । ( पंचमहाशब्द से अभिप्राय संभवत: निम्न प्रकार के घोषों से है-शृंग, तम्मट, शंख, भेरि व जयघंट — विवेक चिन्तामणि, इंडियन ऐंटिक्वेरी, भाग १२, पृष्ठ ९६ । कल्हणकृत राजतरंगिणी के अनुसार काश्मीर में इस उपाधि से युक्त नरेश के अधीन निम्न अधिकारी होते थे- महाप्रतिहार पीड, महासंधिविग्रहिक, महाश्वपाल, महाभाण्डागार एवं महासाधहभाग- अध्याय ४, पृष्ट १४०-१४३ व ६८०; स्टीन का संस्करण, भाग १, पृष्ट १३३ । ) प्रस्तुत अभिलेख में प्रधानतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि नरेश यशोवर्मन् द्वारा ११३४ ई. में दिये गये ग्राम दान का उसके पुत्र महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् द्वारा ११४३ ई. में नवीनीकरण क्यों आवश्यक हो गया। प्रो. कीलहार्न लिखते हैं कि नरेश यशोवर्मन् के तीन पुत्र थे-- जयवर्मन्, अजयवर्मन् व लक्ष्मीवर्मन् । यशोवर्मन् की मृत्यु होने पर जयवर्मन् गद्दी पर बैठा । ११३५ व ११४३ ई. के बीच किसी समय अजयवर्मन् ने जयवर्मन् को गद्दी से उतार दिया एवं पूर्ण राजकीय उपाधियां धारण कर शासन करने लगा । परन्तु लक्ष्मीवर्मन् ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की एवं अपने बाहूबल से मालवा के एक भाग पर शासन स्थापित करने में सफल हो गया। साथ ही उसने जयवर्मन् को मालवा का वास्तविक शासक मानने की घोषणा कर दी । संभवत: इसी कारण लक्ष्मीवर्मन् का पुत्र हरिश्चन्द्र ११७८ ई. के अपने पिपलियानगर ताम्रपत्र अभिलेख ( क्र. ५३ ) में जयवर्मन् की कृपा से शासन करने की घोषणा करता है (इं. ऐं, भाग १९, पृष्ठ ३४८ ) । उपरोक्त से सहमत होने में कठिनाइयां हैं । इसका कोई प्रमाण नहीं है कि अजयवर्मन् ने जयवर्मन् को गद्दी से उतारा था । इस के विपरीत ये दोनों एक ही व्यक्ति के नाम हैं । दूसरे, ११९९ ई. के उदयवर्मन् के भोपाल ताम्रपत्र अभिलेख ( क्र. ५७ ) से ज्ञात होता है कि जयवर्मन् के शासन के बाद लक्ष्मीवर्मन् ने अपने हाथ में धारण खड्ग द्वारा राज्य प्राप्त किया था । तत्कालीन राजनीतिक स्थिति को कुछ इस प्रकार रखा जा सकता है कि ११३८ ई. में चालुक्य जयसिंह सिद्धराज ने नरेश यशोवर्मन् को हरा कर मालव राज्य पर अधिकार कर लिया तो यशोवर्मन् के पुत्रों जयवर्मन्, लक्ष्मीवर्मन् एवं त्रैलोक्यवर्मन् ने धार त्याग कर भोपाल क्षेत्र में शरण ली । वह क्षेत्र यद्यपि मूलत: परमार राज्य में था, परन्तु इस समय चन्देलों के अधिकार में हो गया । मदनवर्मन् चंदेल के बान्दा ताम्रपत्र अभिलेख से ज्ञात होता है कि भैल्लस्वामी ( भिलसा) में स्थित उसने ११३४ ई. में भूदान दिया था । अतः संभवतः चन्देल नरेश से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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