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परमार अभिलेख
लक्ष्मीवर्मन् ने वह भूभाग छीनकर वहां अपना राज्य स्थापित कर लिया । उधर चौलुक्य जयसिंह सिद्धराज की मृत्यु पर जयवर्मन् पुनः धार की प्राप्ति कर, पूर्ण राजकीय उपाधियां धारण कर वहां शासन करने लग गया ।
इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में जयवर्मन् के नाम का उल्लेख होने का कोई मौका ही नहीं था। यहां तो विदिशा - भोपाल क्षेत्र ( महाद्वादशक मण्डल) में यशोवर्मन् द्वारा पूर्व में दिये गये ग्राम दान को उसका पुत्र महाकुमार लक्ष्मीवर्मन् पुनः पुष्ट करता है । चन्देलों द्वारा इस भूभाग पर आक्रमण और संभवतः कुछ समय के लिये अधिकार करने के फलस्वरूप इन ग्रामदानों की पुष्टि करना आवश्यक हो गया था ।
अभिलेख में निर्दिष्ट भौगोलिक स्थानों में धार सर्वविदित है । महाद्वादशक मंडल आधुनिक विदिशा - भोपाल क्षेत्र था। राजशयन आधुनिक रायसेन है । सुवासणी रायसेन के पश्चिम की ओर १३ कि. मी. दूर सिवासनी ग्राम है । वड़ौद अनिश्चित है, परन्तु सिवासनी से पश्चिम में २५ कि. मी. की दूरी पर बरो नामक ग्राम से इसकी समता करने का सुझाव है । उथवणक की समता उकावद से करना संभव है जो बरो से उत्तर की ओर ५० कि. मी. दूर है ।
१. ओं । स्वस्ति ।। श्री [ ]जयोभ्युदयश्च ।।
२.
(मूलपाठ)
११.
जयति व्योमकेशोसौ य: सग्र्गाय वि (बि) भ [ ]ति तां (म्) । ऐन्दवीं सि (शि) रसा लेखां जगद्वी ( द्वी) जां कुराकृति ||१|| [ तन्व
परमभट्टारक-म [ह] | राजाधिराज परमेश्वर श्री [ उ] दया
३. दित्यदेव-पादानुध्यात- परमभट्टारक- महाराजाधिराज- परमेश्वर श्रीनरवम्मं देव-पादानुध्यातपरमभट्टारक-म[ह]ाराजाधिराज-परमे [श्व]र
४. श्री यशोवर्म्मदेव- पादानुध्यात समस्त - प्रशस्तोपेत समधिगत- पंच-महाशब्दा (ब्दा) लंकार- विराजमान - महाक[ ] मार-श्री लक्ष्मी - [ ]म्मदेवः ॥ श्री
1
५. म[ह] द्वादशक - मण्डले श्रीराजशय [न] - भोगे सु[ रा ]सणी सम्व (म्ब) द्ध-वडोदग्राम । त [ थ]ा सुव[] []दिका सम्व (म्ब) द्ध-उथवणक- ग्रामयोः सम
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न्तु ] वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः । कल्पान्त समयोद्दाम तडिद्वलय पि[ग]लाः ||२॥
६. [स्त ] - विषयिक पट्टकिल- जनपदादीन्द्रा (ब्रा) ह्मणोत्तरान्वो ( न्बो) धयत्यस्तु वः संविदित [ ] | य[थ]] श्रीमद्धारायां महाराजाधिराज परमेश्वर श्री
७. यशोवर्म्मदेवेन् श्री विक्रमकालातीत - सम्व (संव) त्सरैकनवत्यधिकशतैकद [ शे]षु कार्तिक -शुदि अष्टम्यां संजात-महाराज श्री [नर]
८. वर्म्मदेव-साम्व (सांव ) त्सरिके तीर्थाम्भोभिः स्नात्वा देव ऋषि मनुष्य- पितृ स्तर्पयित्वा भगवन्तं [भ] वानीपति समभ्यर्च्य स ( शं) मीकु[श ] तिला [न्न]]
९. [य]हुतिभिर्हिरण्यरेतसं हुत्वा भानवे अध्यं विधाय कपिलां तिः प्रदक्षिणीकृत्य संसारस्यासारतां दृष्टवा नलिनी- दलगत -
१०. जललवतरलतरं जीवितं धनं चावेक्ष्य । उक्तं च ।
विभ्रममिदं वसुधाधिपत्य मापातमात्र मधुरो विषयोपभोगः ।
प्रा
[r] स्तृणाग्रजलबिन्दु-समा नराणां धर्मः सखा परमहो परलोकयाने || ३ |
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