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परमार अभिलेख
. इसकी तिथि मध्य में शब्दों में व अन्त में अंकों में है। यह संवत् १२७२ भाद्रपद सुदि १५ बुधवार चन्द्रोपरागपर्व है। यह बुधवार ९ सितम्बर, १२१५ ई. के बराबर है। उस दिन चन्द्रग्रहण था। इसका प्रमुख ध्येय नरेश अर्जुनवर्मन द्वारा पगारा प्रतिजागरणक में नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित हथिणावर ग्राम के दान करने का उल्लेख करना है । दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण उसका पुरोहित पंडित गोविन्द शर्मा था। पूर्व के दोनों अभिलेखों का दान प्राप्तकर्ता भी वही था। अभिलेख के पाठ से ज्ञात होता है कि महासांधिविग्रहक के पद पर अब राजा सलखण नियुक्त था। - भौगोलिक स्थानों में नर्मदा सुविख्यात नदी है। उसको रेवा भी कहा जाता था। कपिला नदी अमरेश्वर तीर्थ के पास नर्मदा से मिलने वाली कोलार नदी है। नरवर्मन् के देवास अभिलेख क्र. ३२ में इसका नाम कुविलारा लिखा है। अमरेश्वर तीर्थ नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर मान्धाता के पास विख्यात तीर्थ स्थल है। हथिणावर धार जिले के मनावर परगने में धरमपुरी से ३ कि.मी. पश्चिम में हत्नावर ग्राम है। पगारा की समता गांगुली ने होशंगाबाद जिले में पगर से की है। परन्तु धार जिले में धरमपुरी के पास एक पगारा ग्राम है। अतः अन्य स्थानों के इसी क्षेत्र में स्थित होने से यही समता ठीक मानना चाहिये ।
(मूलपाठ) ओं । नम: पुरुषार्थचूडामणये धर्माय । प्रतिबिम्बनिभाद् भूमेः कृत्वा साक्षात् प्रतिग्रहम् । जगदाल्हादयन् दिश्याद् द्विजेन्द्रो मङ्गलानि वः ॥१॥ जीयात् परशुरामोऽसौ क्षत्रः क्षुणं रणाहतः । सन्ध्यार्क-बिम्बमेवोर्वीदातुर्यस्यति ताम्रताम् ।।२।। येन मन्दोदरीबाष्पवारिभिः शमितो मृधे। प्राणेश्वरी-वियोगाग्निः स रामः श्रेयसेऽस्तु वः ॥३॥ भीमेनाऽपि धृतामूनि यत्पादौ स युधिष्ठिरः । वंशावे(शोये)नेन्दुना जीयात् स्वतुल्य इव निर्मितः ।।४।। परमारकुलोत्तंसः कंसजिन्महिमा-नृपः । श्रीभोजदेव इत्यासीन् ना सरि (सीदासीम) क्रान्तभूतलः ।।५।। यद्यशश्चन्द्रिकोद्योते (देति) दिगुत्सङ्गतरङ्गिते। द्विषन्नृपयशः पुञ्जपुण्डरीनिमीलितम् ।।६।। ततोऽभूदुदयादित्यो नित्योत्साहैककौतुकी। असाधारणवीर-श्रीरश्रीहेतुविरोधिनाम् ।।७।। महाकलहकल्पान्ते यस्योद्दामभिराश्रु (शु)गैः। कति नोन्मूलितास्तुङ्गा भूभृतः कटकोल्बणाः ॥८॥ तस्माच्छिन्नद्विषन्मर्मा नरवर्मा नराधिपः । धर्माभ्युद्ध रणे धीमानभूत सीमा महीभुजाम् ।।९।। प्रतिप्रभातं विप्रेभ्यो दत्तामपदैः स्वयम् । अनेकपदतां निन्ये धर्मो येनैकपादपि ॥१०॥ तस्याऽजनि यशोवर्मा पुत्र: क्षत्रियशेखरः। तस्मादजयवर्माऽभूद् जयश्रीविश्रुतः सुतः ॥११॥ तत्सूनुर्वीरमूर्धन्यो धन्योत्पत्तिरजायत । गुर्जरोच्छेदनिर्बन्धी विन्ध्यवर्मा महाभुजः ॥१२॥ धारयोद्धृतया सार्धं दधाति स्म त्रिधारताम् । सांयुगीनस्य यस्याऽसिस्त्रातुं लोकत्रयीमिव ॥१३॥ तस्याऽऽमुष्यायणः पुत्रः सुत्रामश्रीरथाऽशिषत् । भूपः सुभटवर्मेति धर्मे तिष्ठन् महीतलम् ।।१४।। यस्य ज्वलति दिग्जेतुः प्रतापस्तपनद्युतेः । दावाग्निच्छद्मनाऽद्यापि गर्जन् गुर्जरपत्तने ॥१५॥ देवभूयं गते तस्मिन् नन्दनोऽर्जुनभूपतिः। दोष्णा धत्तेऽधना धात्री वलयं वलयं यथा ॥१६॥ बाललीलाहवे यस्य जयसिंहे पलायिते । दिक्पालहासव्याजेन यशो दिक्षु विजृम्भितम् ॥१७॥ काव्यगान्धर्व-सर्वस्वनिधिना येन साम्प्रतम्। भारावतारणं देव्याश्चक्रे पुस्तकवीणयोः ॥१८॥ येन विविधवीरेण विधा पल्लवितं यशः। धवलत्वं दधुस्त्रीणि जगन्ति कथमन्यथा ॥१९॥
स एष नरनायकः सर्वाभ्युदयी पगाराप्रतिजागरणके नर्मदोत्तरकूले हथिणावरग्रामे पूर्वराजदत्ता वशिष्टायां भूमौ समस्तराजपुरुषान् बाह्मणोत्तरान् प्रतिनिवासिपट्टकिलजनपदादींश्च बोधयति । अस्तु वः
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