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नागपुर प्रशस्ति
१६७ १५. इस वंश में जो अग्नि से उत्पन्न हुआ, अजर अमर एवं अपराजित नरेश हुए जो विद्वानों की
सभा में रत रहे और सूर्य व चन्द्र वंशों के समान प्रतिष्ठित हुए, जिन वंशों को श्रेष्ठ अज और
राम ने शोभायमान किया, जिनमें नल उत्पन्न हुआ एवं जिनमें भरत के वंशज गिने गये। १६. इस वंश में वैरिसिंह नामक नरेश हुआ जो विशाल ऐश्वर्य के प्रभाव, प्रढ़ौता, उदारता,
शौर्य आदि गुणों के विशिष्ठ परिचय से समृद्ध सौराज्य सिद्ध को प्राप्त हुए। १७. समस्त दिशाओं की यात्राओं के समय में, इन्द्रनील मणि के समान जिनकी कांति है ऐसे
मयूर छत्रों से व्यस्त दिशायें शोभायमान हो रही थीं, और चलते हुए उन्मत्त हाथियों के समूहों के चरणों के पूर्व दिशा में भार पड़ने से पृथ्वी में दरारें पड़ गईं एवं वे दरारें मानों
त्रस्त हो गये हुए शेषनाग के विषयुक्त श्वासों से अवरूद्ध हो गईं। १८. जिसकी प्रतापाग्नि, जो पाताल में वडवाग्नि के बहाने से, भूतल के ऊपर मेरू पर्वत
के बहाने से, आकाश में ब्रह्माण्ड खण्ड के बहाने से, और दिशाओं में उड़ने वाले सुवर्णमय चक्रवालों के मण्डलों के बहाने से, किसी प्रकार भी विचलित न होते हुए आज भी
शोभायमान हो रही है। १९. स्वर्गलोक के स्वराज्य सौरभ को अपने ऐश्वर्य से तिरस्कृत करता हुआ, शत्रु नरेशों में
रिपु समूह को पराक्रम से पराभूत करता हुआ और पाताल में शेषनारायण के पृथ्वी को
धारण करने की क्षमता का अतिक्रमण करता हुआ वह पृथ्वी का पालन कर रहा था। २०. उस (वैरिसिंह) से श्री सीयक नरेश उत्पन्न हुआ। शत्रु नरेशों के अन्तःपुर की वधुओं के
वैधव्य दुख से उत्पन्न हुए आश्रुकणों से शांत हो गई है कोपाग्नि जिसकी ऐसा, धूम्ररूपी आकाश के नीचे ब्रह्माण्ड खण्ड के बहाने से जिसने अपनी नवीन स्थिति उत्पन्न की है । उसकी
ऐसी प्रतापाग्नि आज भी देखी जा रही है। २१. जिसकी तलवार के प्रहार से क्रुद्ध हाथियों के मस्तकों से छोटे २ मोती उड़कर आकाश की
ओर ऊंचे चले गये, और वे आज भी विशाल तरल तारागणों के रूप में निरन्तर गिरते
हुए भी पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाये हैं। २२. ___अत्यन्त आश्चर्य है कि यह न तो सुना गया और न देखा गया। यह किसे कहें, कौन इसे
स्वीकार करेगा ? तथापि कौतुकवश प्रस्तुत किया जाता है । पृथ्वी का उद्धार करके भी अननुरूप लक्ष्मी को प्राप्त करके भी, अनेक देवताओं का कार्य करने पर भी, वैकुण्ठता को
प्राप्त नहीं हुआ ( विष्णु के समान)। २३. इससे श्री मुंजराज नरेश हुआ जो शत्रुसेना द्वारा आरम्भ किये गये युद्ध-यज्ञ के प्रध्वंस के
लिये एक शंकरस्वरूप था, जिसकी प्रतापाग्नि ने पालन करने की इच्छा से लोकालोक विशाल
पर्वत के बहाने से समस्त भूमण्डल को व्याप्त कर लिया। २४. जब वह आमोदपूर्वक प्रयाण करता था तो अश्वसमूह से फैलने वाली धूली से आच्छादित
कर दिया है समस्त दिग्मंडल जिन्होंने ऐसे तथा पर्वतराजों से भी विशाल राजराजों के समूहों के पदों की शृंखलाओं के नाद से पूर्णतया समस्त ब्रह्माण्ड परिपूरित कर दिया
है जिन्होंने ऐसे सुन्दर सैन्यों से समस्त (भूमंडल) व्याप्त हो जाता था। २५. जिसकी खङ्ग से मस्तक विद्विन्न हो जाने से अन्यों को दुर्लभ ऐसे देवत्व को प्राप्त करके,
उठाये गये हुए अपने धड़ों को सैनिकों द्वारा घिरा हुआ देखकर, अत्यन्त हर्षपूर्वक विमानशिखरों से नीचे की ओर गिरने वालों को समस्त सिद्धांग्नायें समूह बनाकर, कण्ठ में आलिंगन करके, युद्ध के अनुराग रखने वालों को रोकने लगती थी।
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