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________________ १६६ परमार अभिलेख ४. दुर्जय शत्र नगरी को भंग करने हेतु भयानक, बहुभस्म जिनका विशेष भूषण है, कुबेर के द्वारा पूजित, अग्नि के वेश के समान शिव आपका कल्याण करें। ५. प्रलयकालीन समुद्रजन में उत्पन्न, ब्रह्माण्ड रूपी सीपियों के संपुट में, शिवजी के पूजित, कमलों से उत्पन्न ऐसे मोतियों (मुक्त व्यक्तियों) की जय हो। ६. उमा व रमा के साथ रमण करने वाले क्रमशः शिव व विष्णु के रूप जो क्रमशः वैराग्य व रागता, मुंडों की माला व पुष्पों की माला, बाघचर्म व साधारण वस्त्र, सर्प व पुष्पों के हार, भस्म व चन्दन, भयानकता व भव्यता से युक्त रहते हैं, आपको आनन्द व मुक्ति प्रदान करें। ७. मत्स्यादि अवतारों के बहानों से विश्वरूप का अभ्यास कर समस्त विश्व को अपने से अभिन्न जिसने निर्मित कर दिया है (विश्वव्यापिता), वह विष्णु आपका रक्षण करे। ८. शोभायुक्त अर्बुदपर्वत है, जिसने श्रेष्ठ पर्वतों के गर्व को भी पूर्णरूप से चूर कर दिया है और जो अपने नीलवर्ण शिखर से निकलती हुई श्रेष्ठ कान्ति द्वारा आकाश को मात करता है, जिसके गगनचुम्बी विस्तृत शिखर पर स्थित सरोवरों के जल में इधर उधर झूमते हुए कमलों के परागचक्र मानो ब्रह्माण्ड के नभमण्डल हों। ९. गगन मण्डल देवताओं से घिरा है तथा भूमंडल मानवों से व्याप्त है। धर्म तुला के रूप में स्थित जिस अर्बुद पर्वत के दोनों छोरों पर "उक्त दोनों में कौन शुद्ध है" ऐसा जानने की मानो ब्रह्मदेव इच्छा रख रहा है। इतने में ही देवतागण लघुता के कारण गगनमंडल में चले गये, ऐसा मैं मानता हूँ। __जिसका एक छोर पृथ्वी मण्डल को आवृत्त करने वाले समुद्र को छूता है और दूसरा छोर आकाशमंडल को आवृत्त करने वाले क्षितिज को स्पर्श करता है, ऐसा वह पर्वत मानो विश्वरूपी मार्ग में, जो अत्यन्त विषम है, फंसे हुए विश्वरथ की धुरी की शोभा को धारण करता है, जिसका एक भाग भग्न होकर मानो ऊपर की ओर उठा हुआ है। ११. इस पर्वत पर, जिसका सुन्दर किनारा आकाश गंगा की जल की बाढ़ से प्लावित होता रहता है, वेदज्ञाताओं में श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठ रहा करते थे, जिन्होंने तीन प्रकार की हवनाग्नियों के समूह से घिरी यमुना को, अपने पिता ब्रह्मदेव की संतुष्टि के लिये ब्रह्माण्ड खण्ड की ओर मोड़ दिया ताकि वह गंगा से संगम कर सके। १२. विद्यारूपी महानदी के समीप रहने वाली जो घोर संसार रूपी रेती से भरपूर किनारे में फंसा हुआ है व उन्मार्ग की ओर पथभ्रष्ट हुआ ऐसे त्रैलोक्य रथ को जिस (वशिष्ठ) के सैकड़ों उपदेश रूपी घोड़े उद्धार करते हैं। १३. जब किसी समय आये हुए क्षितिपति विश्वामित्र ने अतिथि सत्कार के लिये उचित वस्तुओं को प्रदान करने में समर्थ नन्दिनी नामक गाय को वनि कुपित होकर होम द्वारा अग्नि को प्रसन्न किया, जिस से अद्वितीय वीर परमार की उत्पत्ति हुई जिसने अपना नाम सार्थक किया। १४. जिस (परमार) का वंश सूर्य व चन्द्र वंशों के नेरेशों राज्यवर्द्धन, विशाल धर्मभृत, सत्यकेतु व पृथु की प्रतिकृति रूप है, वह वृद्धिगत हो रहा है। अथवा जो वंश राज्य को बढ़ाने वाले, विशाल धर्म का पालन करने वाले, सत्य जिनकी पताका है और विशाल जिनकी कीर्ति है, ऐसे सूर्य चन्द्र वंशों के नरेशों की प्रतिकृति रूप वृद्धिगत हो रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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