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जैन अभिलेख
८.
१८५
पिता के स्वर्ग जाने पर राज्यलक्ष्मी के स्वयं पास आने पर भी परिवृत्ति के भय से त्याग करके जिसने बड़े भाई के लिये दे दी ।
९.
"तुम मेरे पुत्रों में प्रथम हो, राजविषय के स्वामी हो, दाहिनी भुजा हो, सभी दिशाओं में जीवधारियों तक सीमा विजय के मूर्तिस्वरूप हो व स्वयं मेरे समान ही हो" - जो कुन्तल नरेश द्वारा प्रसन्न हो इस प्रकार संबोधित किया गया वह उसी का रूप धारण कर दक्षिण दिशा की अलंकारिता का पोषण करता है ।
१०.
जिसके बाणों व सुवर्णों के बरसाने से शत्रु व याचक अपनी सैनिक व दीनता की निधियों का त्याग कर निस्संकोच उसकी शरण में आते हैं ।
११. ऐसा देश नहीं, ग्राम नहीं, लोक नहीं, सभा नहीं, ऐसी रात नहीं व दिन नहीं जहां जगद्देव की प्रशंसा नहीं गाई जाती ।
१२.
जिस श्री जगदेव नामक भूपति ने पुण्य के आधारस्वरूप, चन्द्र व सूर्य के रहते तक शासन द्वारा डोंगरगाम नामक ग्राम को श्रीनिवास ब्राह्मण को दान दिया ।
१३. इस डोंगरग्राम में यश की निधि श्रीनिधि के पुत्र, विद्या के निवास श्रीनिवास द्वारा १४. पिता के पुण्य के उदय के हेतु वहां शिवमंदिर बनवाया जो दोषरहित है व पृथ्वी का आभूषण स्वरूप कल्प के रहते तक निर्बाध रहे ।
८.
यह इस ग्राम में श्रीनिवास द्वारा देवता के लिये दिये गये को जो तोड़कर फेंकेगा अथवा हरण करने की इच्छा करेगा वह पांच महापापों से लिप्त होगा । शक सं. १०३४ नन्दन संवत्सर में चैत्र की पूर्णिमा को यह शासन लिखा गया । लेखक विश्वस्वामी । तथा १०३४ अंकों में १५ ।।
(४३)
जैनड़ का जगदेव का प्रस्तर अभिलेख ( तिथि रहित )
प्रस्तुत अभिलेख एक प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है जो आंध्र प्रदेश में आदिलाबाद से ६ मील उत्तर पूर्व की ओर जैनड़ ग्राम में एक मंदिर के मंडप में सुरक्षित है । इसका उल्लेख ए. रि. आ. डि. नि., १९२५-२६ एवं १९२७-२८, पृष्ठ २३-२४, अपेंडिक्स 'बी' में किया गया। डी. सी. गांगुली ने इसका सम्पादन एपि. इं., १९३३, भाग २२, पृष्ठ ५४ ६३ पर किया ।
अभिलेख का क्षेत्र ४७× ४२ सें. मी. है। इसमें २८ पंक्तियां हैं । प्रस्तरखण्ड बीचोंबीच टूट गया है जिससे सभी पंक्तियां प्रभावित हुई हैं। सभी में कम से कम एक-एक अक्षर क्षतिग्रस्त हो गया है । अभिलेख के अक्षरों की बनावट ११वीं - १२ वीं सदी की नागरी लिपि है । अक्षरों की लंबाई १ सें. मी. है। अक्षर सुन्दर ढंग से खुदे हैं । भाषा संस्कृत है एवं सारा अभिलेख पद्यमय है । इसमें विभिन्न छन्दों में २० श्लोक हैं। सभी श्लोक उच्च साहित्यिक भाषा में सुन्दर ढंग से रचे गये हैं । इनका रचयिता अश्वत्थामा एक श्रेष्ठ कवि प्रतीत होता है ।
व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। कुछ अक्षर ही गलत लिखे हैं । इन सभी को पाठ में सुधार दिया गया है । कुछ त्रुटियां काल व प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करती हैं । अभिलेख में तिथि का अभाव है जो इसके महत्व को
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