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गाऊनरी अभिलेख
प्रथम ताम्रपत्र कुछ विशेषतापूर्ण है। इस ताम्रपत्र पर पहिले से ही एक अन्य लेख खुदा हुआ था जिसको उत्कीर्णकर्ता द्वारा रगड़ कर मिटाने का प्रयत्न किया गया परन्तु पूर्ण रूप से मिटाया नहीं गया। पूर्वकालीन अभिलेख का अधिकांश भाग अब भी दिखाई देता है और ध्यान करने पर मूल ताम्रपत्र से पढ़ा जा सकता है। यह प्रस्तुत अभिलेख से ५२ वर्ष पूर्व का एक राष्ट्रकूट लेख है। सामान्यतः ऐसा नहीं होता कि एक ही ताम्रपत्र पर इस प्रकार दो विभिन्न नरेशों के लेख एक दूसरे के लेख के ऊपर उत्कीर्ण हों, विशेषतः जब कोई नरेश दानपत्र प्रदान कर अपने व अन्य वंशजों से उस दान का सम्मान करने की प्रार्थना करे। प्रस्तुत अभिलेख में पूर्वकालीन दानपत्र के ऊपर ही नया दानपत्र उत्कीर्ण करवाने की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मालवा के परमार नरेशों व दक्खिन के राष्ट्रकूट नरेशों के मध्य युद्ध की स्थिति थी। यह संभव है कि प्रस्तुत दानपत्र दान प्राप्तकर्ता से छीन लिया गया हो अथवा यह कार्यालयीन प्रति रही हो जो परमार सेनाओं द्वारा दक्खिन में आक्रमण के समय राष्ट्रकूटों के कोषालय की लूट में प्राप्त कर ली गई हो। यह घटना विक्रम संवत् १०२९ तदनुसार ९७२ ईस्वी में घटी होगी क्योंकि प्रख्यात समकालीन विद्वान धनपाल ने अपने ग्रन्थ पाइयलच्छी के अंतिम श्लोकों में लिखा है कि उक्त ग्रन्थ उसने उपरोक्त वर्ष में पूर्ण किया जब मालवाधिपति ने मान्यखेट को लूटा था। ( पाइयलच्छी, वूलर द्वारा सम्पादित, प्रस्तावना, पृष्ठ ६ और श्लोक २७६-७८) । परमार नरेश सीयक द्वितीय ने राष्ट्रकूटों पर आक्रमण कर उनकी राजधानी को लूटा था। इस प्रकार संभव है कि लूट के धन के साथ प्रस्तुत दानपत्र भी मालव कोष में प्राप्त हो गया हो। इसीलिये सीयक द्वितीय के पुत्र वाक्पतिराजदेव द्वितीय ने इस दानपत्र पर से पूर्वकालीन लेख को मिटवाकर उस पर अपना लेख खुदवा कर निस्सृत कर दिया। इस प्रकार हम एक ऐसे ताम्रपत्र की प्राप्ति की समस्या को सुलझा सकते हैं जिसके माध्यम से यद्यपि दक्खिन का ग्राम दान में दिया गया था परन्तु वह अपने मूल स्थान से प्रायः पांच सौ मील उत्तर में प्राप्त हुआ है।
अभिलेख में दो विभिन्न तिथियां दी हुई हैं जिनमें से पहली तो दान देने की तिथि है व दूसरी दानपत्र लिखवा कर प्रदान करने की है। भूदान देने की तिथि पंक्ति क्र. ९ में शब्दों में संवत्सर एक हजार अड़तीस की कर्तिक पूर्णिमा लिखी है। उस दिन चन्द्रग्रहण पड़ा था। विक्रम संवत् से संबद्ध करने पर यह तिथि रविवार १६ अक्तूबर ९८१ ईस्वी के बराबर बैठती है। दानपत्र लिखवा कर प्रदान करने की तिथि भूदान से नौ मास पश्चात् की है। यह तिथि अंकों में पंक्ति क्र. ५२ में संवत् १०३८ द्वितीय आषाढ़ सुदि १० लिखी है जो सोमवार ३ जुलाई ९८२ ईस्वी के बराबर है।
प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. ७-९ में वर्णित है । इसके अनुसार श्री वाक्पतिराजदेव द्वितीय . ने हूण मण्डल में आवरक भोग से सम्बद्ध, वणिका ग्राम में निर्धारित ७८ अंशों को (पंक्ति १४) . २६ ब्राह्मणों के लिये दान दिया था (पंक्ति ४१-४२) ।
दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मणों की कुल संख्या २६ है जिनका विवरणात्मक उल्लेख अभिलेख की पंक्ति क्र. १४-४० में किया गया है। इस विवरण में क्रमशः मूल देश व स्थान का नाम जहां से देशान्तर-गमन करके दान प्राप्तकर्ता ब्राह्मण मालव राज्य में आया, उसका गोत्र, प्रवर, अध्ययन किये वेद की शाखा का नाम, ब्राह्मण का नाम, उसके पिता का नाम और उसको प्राप्त हुए अंशों के शब्द व अंकों में उल्लेख किये गये हैं। ये सभी संलग्न सूची में दिये गये हैं।
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