SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उज्जैन अभिलेख १४३ १८. अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ १४:२x २ १९. क ख ग घ ङ ५च छ ज झ ५ ट ठ ड ढ ण ५त थ द ध न ५प फ ब भ म य र ल व ४ स (श) ष स ह ५१ २०. आ ई ऊ ऋ ल अ इ उ ण (ण) [ऋ] ल क (क) १० ए ओ ङ (ङ) ऐ औ च (च) ह य व र ट ल ण(ण) २१. म ङ[ण] न म (म्) झ भ ञ (ञ) घट ध [ष] ज प(ब) गड द श (श्) २० । २२. ३४ ख फ छ ठ थ च ट त क (व) क प य श ष स र (२) १३ हल (ल) ३३।४७।। उदयादित्यदेवस्य वर्णनागकृपाणिका । कवीनां च नृपाणां च वेषो वक्षसि रोपितः ।।५।। ए[के]यमुदयादित्य नरवर्ममहीभुजोः । [महे]शस्वामि[नोवर्णस्थित्य सिद्धासिपुथि (त्रि)का ॥८६।। [उदया]दित्यनामाङक वर्णनागकृपाणिका। [पद्यमुक्ता]मणिश्रेणी सृष्टा सुकविवं (बं)धुना ॥८७।। (अनुवाद) ७९. जो (सर्पराज) के समान रस्सी से सुशोभित है, जो गगनव्याप्त है, जो ज्योतिलिंग है, जो अनादि होकर सिद्धों द्वारा एकाग्र ध्यान द्वारा पुष्पों से अर्चित है तथा योगीजन नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि लगा कर जिसका दर्शन करते हैं, ऐसा यह शंभु का स्वरूप सज्जनों को अणिमादि दिव्य सिद्धि प्रदान करने वाला हो। ८०. जो नित्य है, जो व्यापक है, जो एक प्रकाशमान देदीप्यमान रत्न के समान उज्जवल ज्योति स्वरूप है, जिसका पातंजल योगी योगाभ्यास से खुले एवं निमिलित नेत्रों से दर्शन करते हैं, जो आकाश कदम्ब पुष्पों से अचित है, ऐसे शंभु का स्वरूप सज्जनों के अपुनर्जन्म (मोक्ष) के लिये हो। ८१. जो जल से आर्द्र नहीं करती, जो ब्रह्माण्ड को हरण करने वाली वायु से प्रकम्पित नहीं करती, जो अग्नि से दग्ध नहीं करती, जो गगन को व्याप्त नहीं करती, जो पृथ्वी पर आक्रमण नहीं करती, जो योगाभ्यास से समस्त विषय व्यासंग से मुक्त होकर हृदय में अन्तर्लीन है, ऐसी शिवजी की वह ज्योति सज्जनों के हृदय में स्फुरित होती रहे। ८२. वैराग्य के अतिरेक से अद्वितीय सतत अभ्यास से उत्पन्न, मन की भारी वृत्ति का निरोधक, योगीश्वरों के हृदय में उदित हुआ योग, जिसमें स्नान करने पर, अचित करने पर, परिचित होने पर, ध्यान करने पर, नत होने पर, स्तुति करने पर, देखने पर तथा उपार्जित करने पर वह योग तुम्हारे ब्रह्मप्राप्ति के लिये हो। ८२. क्रीड़ा से कुण्डलित हुए भुजंगराज के शरीर द्वारा निर्मित, जिस पर अनुस्वार आकाश ही विन्दुरूप है, जो आकार के समान मनोहर आकृति वाला है, विश्व ही जिसका शरीर है, ऐसे विष्णु के अवन्तिका नगरी रूपी हृदय कमल में निवास करने वाला ओंकार स्वरूप कृपा से भरा हुआ प्रभु सज्जनों के अन्तकाल को निरस्त करता रहे। ८४. कर्म बंधनों से मुक्त हुए (योगियों) के द्वारा जिन चरण कमलद्वय का ध्यान किया जाता है वे सातों भुवनों को भोगते हैं, समुद्रों सहित पृथ्वी का दान देते हैं, कल्पान्त होने पर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy