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________________ ७८ परमार अभिलेख अनुवाद १. जिनके मस्तक पर अर्द्धचन्द्र है, ऐसे शंकर के समान . . . . अद्भुत कीर्ति वाले . . . . राज परमेश्वर भोजदेव । २. . . . . सागरनन्दि ने नेमिचन्द्र सूरि सहित अत्यन्त दुर्लभ शांतिनाथ जिन भगवान की (मूर्ति की) स्थापना की। . . (१८) कालवन का भोजदेव कालीन यशोवर्मन का ताम्रपत्र अभिलेख (तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख तीन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है। ये १९२० में नासिक जिले में कालवन के पास एक भील से मिले थे। इनका प्रथम उल्लेख ए. रि. आ. स. इं., १९२१-२२, पष्ठ ११८-११९ पर किया गया। फिर राखलदास बनर्जी ने एपि. इं., भाग १९, १९२७-२८, पष्ठ ६९-७५ पर इसका विवरण छापा । ये प्रिंस ऑफ वेल्ज़ संग्रहालय बम्बई में रखे हैं। ताम्रपत्रों का आकार २५.४० X १४.६० सें. मी. है। इसमें लेख भीतर की ओर--- प्रथम ताम्रपत्र पर पृष्ठ भाग पर, दूसरे पर दोनों ओर व तीसरे पर अग्रभाग पर खुदा है। सभी में एक छेद है जिसमें कड़ी पड़ी थी। इनके किनारे कुछ मोटे हैं। अभिलेख ४५ पंक्तियों का है। प्रथम ताम्रपत्र पर ११ दूसरे पर ११-११ व तीसरे पर १२ पंक्तियां खुदी हैं । लेख की स्थिति प्रायः अच्छी है। कुछ अक्षर भग्न हो गये हैं, परन्तु उनको संदर्भ में जमाया जा सकता है।। अक्षरों की बनावट ११वीं सदी की नागरी लिपि है। उत्कीर्णकता का कार्य भद्दा है। अक्षरों में मात्राएं गलत हैं। छेनी से व्यर्थ में चिन्ह बन गये हैं। अशुद्धियों से भरपूर है। अक्षरों की लम्बाई भी एक समान नहीं है। भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। इसमें ८ श्लोक हैं, शेष गद्य में है। कहीं-कहीं पर प्राकृत शब्दों का समावेश दिखाई देता है। वर्ण-विन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, म् के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है। ऋ वर के प्रयोग में कोई अन्तर नहीं है। मात्रायें आगे, पीछे या बीच में जहां चाहे लगा दी गई हैं। संधि का ध्यान नहीं रखा गया । व्याकरण की भी अनेक अशुद्धियां हैं। इन को पाठ में ठीक कर दिया गया है। अभिलेख में तिथि का अभाव है। यह संभवतः उत्कीर्णकर्ता की भूल से है। पंक्ति १३ में "इस चैत्रमास की अमावस्या पर सूर्यग्रहण के अवसर पर" शब्द खुदे हैं। अनुमानतः मूल प्रति में वर्ष का उल्लेख रहा होगा। परन्तु ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करने में भूल से छूट गया। प्रमख ध्येय भोजराजदेव के अधीनस्थ मांडलिक यशोवर्मन के अधीन सामन्त गंगकूलीय अम्मराणक की (पंक्ति ९) चालुक्य वंशीय धर्मपत्नी चच्चाई राज्ञी (पंक्ति १६) व अन्य व्यक्तियों द्वारा भमि, भवन व अन्य वस्तुयें दान करने का उल्लेख करना है। (पंक्ति १८-२४) दानप्राप्तकर्ता का विवरण पंक्ति २५-२६ में है। वह श्वेतपद के जिनमंदिर में मनि · सुव्रतदेव था। यह दान मंदिर में पूजा, अभिषेक, नैवेद्य, चैत्र पवित्रक के हेतु दिया गया था। पंक्ति १-७ में धारा नगरी में परमार वंशीय नरेशों में सर्वश्री सीयकदेव, वाक्पतिराजदेव, सिंधुराजदेव व भोजराजदेव के उल्लेख हैं। राजकीय उपाधियां नहीं हैं। परमार वंश को मेरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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