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________________ उदयपुर अभिलेख १०५ किन्तु उनका झुकाव उसे उदयादित्य का विशेषण मानने की ओर है। क्योंकि यदि यह अभिलेख उदयपुर व नागपुर प्रशस्तियों (क्रमांक २२ व ३६) के प्रकाश में पढ़ा जाये तो अवश्य ही यह दृढ़तापूर्वक कहना चाहिये कि ज्ञाता ने नहीं अपितु उदयादित्य ने मालवा के अपने पैतृक राज्य का उद्धार किया और उस पर अपना आधिपत्य स्थापित किया (प. रा. इ. गां., पृष्ठ ९७, पादटिप्पणी ४)। __ इससे आगे उदयादित्य की प्रशंसा है। पंक्ति ६ में अभिलेख की उपर्युक्त तिथि विक्रम संवत् १११६ और शालिवाहन शक ९८१ शब्दों व अंकों में है जब उदयादित्य ने धर्म, अर्थ, कार्य व शक्ति से युक्त हो शास्त्रमार्ग से आत्मकल्याण हेतु अनेक प्रकार से कीर्ति प्राप्त की थी। पंक्ति ७-१० में लिखा है कि विगत ४४६ वर्षों से जब लोग देवालयों की पूजा से विरत हो गये थे व नरेशों में धर्म का लोप हो गया था (संभवतः हर्षवर्द्धन के समय से जब बौद्ध धर्म का पुनः प्रचार हो चला था) तब उसने जम्बूद्वीप को भगवती का निवासस्थान बना दिया और नरेशों में धर्माचरण हेतु उन पर विजय प्राप्त की। उसने शत्रुनरेशों को जीतने के उपरान्त पुनः उनको राज्याधिकार सौंप दिये । पंक्ति ११-१२ के अनुसार जन्म से लेकर सन्मार्ग में संलग्न इस (ज्ञाता) का पुत्र (उदयादित्य) सूर्योदय में स्नान कर (पंक्ति १३ का पाठ अनिश्चित है) कलिवर्ष व्यतीत ४१६० (१०५९ ईस्वी) में (पंक्ति १५ का पाठ अनिश्चित है) जब वह २० वर्ष का हो गया तब शुभ मुहूर्त में (जिसका विषद विवरण पंक्ति १६-१७ में है) महानपुत्र के संस्कारों को सम्पन्न कर राजपुत्र (उदयादित्य) को कार्याध्यक्ष (युवराज) पद पर नियुक्त कर दिया। पंक्ति १८ के अनुसार दोनों पिता-पुत्र इस प्रकार सत्कर्म में प्रवृत्त हुए जिससे दोनों लोकों में सुख की प्राप्ति हो। आगे पंक्ति २१ तक प्रस्तुत अभिलेख के संबंध में विवरण है। इसमें लिखा हुआ है कि यह प्रशस्ति उनके (ज्ञाता एवं उदयादित्य) सत्कार्यों के गुणवर्णन वाली अतिविशिष्ट स्तुति के बहाने से लिखी गई एवं मंदिर में लगाई गई। पंक्ति १९ में इसके लेखक का नाम है। वह गुरुदेव भक्त, वेदों के गायनरस में निपुण, ज्योतिष व शिक्षाशास्त्र में निपुण अप्यायी नामक ब्राह्मण था । पंक्ति २१ के अनुसार इस प्रशस्ति के माध्यम से पुत्रों व पौत्रों को शास्त्रों में शिक्षित किया जाये। यदि कोई इसमें दोषों को दिखावें तो लेखक को संतोष होगा। इससे पूर्व इसके चिरस्थाई रहने की कामना व्यक्त की गई है। अंतिम पंक्ति २२ में पुनः 'सिद्धि' लिखा हुआ है जिसका भाव यह है कि यहां मूल अभिलेख का अन्त हो गया है। इसके उपरान्त अभिलेख के उत्कीर्णकर्ता का नाम है जो सूत्रधार सित का पौत्र, सन्ततदेव का पुत्र वसल' था। वह अपने को नरेश (उदयादित्य) के दासों का दास निरुपित करता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस अभिलेख का अत्याधिक महत्व है। उपलब्ध पाठ से यह आशय निकलता है कि उदयादित्य और उसके पूर्ववर्ती शासक परमार राजवंश की एक अवर-शाखा के थे। प्रतीत होता है धाराधीश भोजदेव के मांडलिक के रुप में उदयादित्य मालवा के पूर्वी भाग में भिलसा के अन्तर्गत उदयपुर क्षेत्र में शासन करता था। जब चौलुक्यों और कर्णाटों की संयुक्त सेनाओं ने मालव साम्राज्य पर आक्रमण कर भोजदेव के उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम को प्रायः १०७० ई. में युद्ध में मार डाला, तब उदयादित्य परमार साम्राज्य का रक्षक प्रमाणित हुआ और आक्रमणकारियों के चंगुल से निकाल कर उसे पुनः स्वतंत्र कर दिया। धारा नगरी के परमार राजवंश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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