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________________ उदयपुर अभिलेख १०७ तीसरे साक्ष्य में उपरोक्त साक्ष्यों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि क्रमांक १ व २ में दोनों नरेशों के संबंध के बारे में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है । क्रं. १ में उदयादित्य ने स्वयं को भोजदेव का पादानुद्यात घोषित करके ही संतोष कर लिया, परन्तु वास्तविक संबंध को उजागर नहीं किया, जबकि क्रमांक २ में आपसी संबंध के प्रश्न को छुआ तक नहीं। यहां यह तथ्य भी विचारणीय है कि उक्त दोनों अभिलेख स्वयं उदयादित्य के शासनकाल में निस्सृत किये गये थे, और नरेश की अनुमति के बिना उनकी घोषणा नहीं हो सकती थी । उदयादित्य को भोजदेव का 'बंधु' निरूपित किया गया है । ( कोष के अनुसार बन्धु का अर्थ इस प्रकार है -- " नातेदार, भाई- विरादरी, सम्बन्धी, पारिवारिक नातेदार । धर्मशास्त्र में तीन प्रकार के बन्धु बतलाये गये हैं-- आत्मबन्धु, पितृबन्धु और मातृबन्धु । कोई भी किसी प्रकार का सम्बन्धी जैसे प्रवासबन्धु, धर्मबन्धु आदि । मित्र, पति, पिता, माता, भाई) । यहां यह विचारणीय है यह अभिलेख उदयादित्य के पुत्र नरवर्मन का है जो उसकी मृत्यु के उपरान्त १०९४ ई. में मालव राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ था और जिसने ११३३ ई० तक शासन किया था । इसके अतिरिक्त इस प्रशस्ति में परमार राजवंश श्री नरवर्मन तक संपूर्ण वंशावली ठीक से लिखी मिलती है। केवल यही नहीं, अपितु उसमें सभी नरेशों के एक दूसरे से संबद्ध पूर्णरुप से निरूपित हैं । इसके साथ ही उसके श्लोक ५६ में साफ लिखा मिलता है कि वह प्रशस्ति नरवर्मन के स्वयं के द्वारा रची गई थी । अतः यह मानने में कठिनाई है कि नरवर्मन को अपने पिता व भोजदेव के संबंध के बारे में ठीक से जानकारी नहीं थी अथवा उसने केवल अनुमानत: उनको 'बन्धु' निरूपित कर दिया। इसके विपरीत उपरोक्त से यह सिद्ध होता है कि नरवर्मन को अपने पिता व भोजदेव के संबंध के बारे में पूर्ण जानकारी थी । साक्ष्य क्रमांक ४ में जगद्देव ने उदयादित्य को अपना पिता व भोजदेव को चाचा (पितृव्यः ) लिखा है, जबकि साक्ष्य क्रमांक ५ में जगद्देव ने अपने पिता उदयादित्य को भोजदेव का 'भ्राता' लिखा है । जगदेव अपने पिता उदयादित्य का सब से छोटा व तीसरा पुत्र था ( अभिलेख ४२-४३) । उसके अन्य दो बड़े भाई लक्ष्मदेव व नरवर्मन थे । परन्तु लक्ष्मदेव अपने पिता के राज्यकाल में ही दिवंगत हो गया था ( अभिलेख क्र. २७) । अतः नरवर्मन अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त राज्याfaara बन गया ( अभिलेख ३३) । संभवत: इसके बाद ही जगद्देव कुन्तल नरेश के पास चला गया, जो चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ट (१०७६ -- ११२६ ई.) था, जहां इसका हार्दिक स्वागत हुआ (अभिलेख ४३ ) । लगता है कुन्तल नरेश ने जगद्देव को गोदावरी के उत्तर में स्थित प्रदेश अर्थात् बरार व उसके आस पास का प्रदेश शासन करने हेतु सौंप दिया। इसी कारण इसी भूभाग के अन्तर्गत जैनड व डोंगरगांव में जगद्देव के उपरोक्त अभिलेख प्राप्त हुए हैं । जैन अभिलेख ( साक्ष्य ४ ) तो तिथिरहित है, परन्तु डोंगरगांव अभिलेख ( साक्ष्य १११२ ई. में निस्सृत किया गया था । अतः इस बात की बहुत संभावना है कि मालव राज्य से दूर, दक्षिण में इतना समय व्यतीत होने के उपरान्त भोजदेव व उदयादित्य के निजि संबंध के बारे में लोगों को निश्चित रूप से कुछ ज्ञात न रहा हो। इसलिये जगदेव ने अपने अभिलेख में उनको 'भ्राता' घोषित करना ही ठीक समझा हो। इससे जगद्देव स्वयं को भी महान भोज से संबद्ध कर सकता था, क्योंकि महान नरेश से संबंध स्थापित होना तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में निश्चित ही सम्मान सूचक था। इस प्रकार उपरोक्त समस्त साक्ष्यों पर एक साथ विचार करने पर सारी परिस्थिति समझ में आ सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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