________________
जैनड़ अभिलेख
१८७
रादिया. परन्त सा५या
बिबलियोथिका इंडिका, क्र. ५८; एच. एन. क्र. ११६)। कुछ इसी से मिलता-जुलता उल्लेख पश्चात्कालीन ११५९ ई. के श्रवणबेलगोला अभिलेख (एपि. क., भाग २, क्र. ३४८, पृष्ठ १६८) में प्राप्त होता है। अतः यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि १०९३ ई. में जगद्देव ने होयसल नरेश को हरा दिया
बाद में १११७ ई. में वह स्वयं उसके उत्तराधिकारी से हार गया। जयसिंह--श्लोक क्र. १० में जयसिंह एवं जगद्देव के संघर्ष का कलात्मक वर्णन है। गांगली ने विचार व्यक्त किया कि यह जयसिंह, भोजदेव का उत्तराधिकारी जयसिंह प्रथम रहा होगा। परन्तु एन. पी. चक्रवर्ती ने (एपि. इं., भाग २२, पादटिप्पणी क्र. ८) विरोध करते हुए लिखा है यहां जयसिंह जगद्देव का मित्र नहीं अपितु शत्रु है। वैसे भी जयसिंह प्रथम परमार की मृत्यु १०७० ई. में रणक्षेत्र में हो चुकी थी (अभि. क्र. १९-२०)। जगद्देव का शत्रु मालवा प्रदेश पर आक्रमणकारी जयसिंह सिद्धराज था। इस चौलुक्य नरेश ने शाकम्भरी के कर्णोराज की सहायता से जगद्देव के भाई नरवर्मन् पर आक्रमण किया था (एपि. इं., भाग २६, पृष्ठ १०४, श्लोक १७; कुमारपाल प्रबंध, भाग १, श्लोक ४१; प्रतिपाल भाटिया, दी परमास, १९७०, अध्याय ७, पृष्ठ ११४ व आगे)। अतः संभव है कि जगद्देव ने चौलुक्यों व चाहमानों के सामूहिक आक्रमण के समय अपने बड़े भाई की सहायता की हो। परन्तु यह आक्रमण केवल अस्थाई रूप से ही टाला जा सका, क्योंकि नरवर्मन् की मृत्यु के बाद यशोवर्मन् परमार पर जयसिंह सिद्धराज ने पुनः आक्रमण किया था।
कर्ण--अभिलेख के श्लोक १३ में जगद्देव द्वारा किसी कर्ण पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। गांगूली के मतानुसार यह गुजरात का चौलुक्य नरेश था जिसका शासनकाल १०६४-९४ ई. के मध्य था। परन्तु प्रतिपाल भाटिया (उपरोक्त, पृष्ठ ११२-१३) के अनुसार यह त्रिपुरी का चेदि नरेश यशःकरण (१०७२-१११५) था। हमें ज्ञात है कि चेदि नरेश परमारों के चिरकालीन शत्रु थे। अतः संभव है कि जगद्देव ने अपने पिता के समय, मालवा छोड़ने से पूर्व, इस यशःकर्ण को हराया हो (अभिलेख क्र. ३६)। .
इस प्रकार प्रस्तुत अभिलेख में जगद्देव की विजयों का विवरण वास्तविक तथ्यों पर आधारित है, कोरी कल्पना नहीं कही जा सकती।
उत्तरकालीन परमार नरेश अर्जुनवर्मन् रचित रसिक संजीवनी (पृष्ठ ८) में उल्लेख है कि उसका पूर्वज जगद्देव अत्यन्त रूपवान व्यक्ति था। उसके रूप का वर्णन नाचिराज ने भी किया था (यथास्मत् पूर्वज रूपवर्णयते नाचिराजस्य सत्रासा इव सालसा इव लसर गर्वा इबाद्री इव व्याजिह्या इव लज्जिता इव परिभ्रांता इवर्ता इव त्यद्पे निपतति कुत्र न जगद्देव प्रभो सुभ्रुवा वातावर्तन नतित् ओत्पलदलद्रोणी द्रुहो दृष्टयः)
एक उल्लेख के अनुसार जगद्देव की पुत्री मालव्यदेवी का विवाह पूर्वी बंगाल के नरेश सामलवर्मन् के साथ हुआ था। (ज. ए. सो. बं., भाग १०, पृष्ठ १२७)।
(मूलपाठ) (छन्दः श्लोक १.२० अनुष्टुभ ; २.३.७-१२.१४.१५. १८ शदीलवक्रीडित; ४.१६.१७.१९ स्रग्धरा; ५.६ उपजाति; १३ मंदाक्रान्ता) . ... १. [ओं] नमः सूर्याय।
अकालेपि रवेारे निम्व (ब) पुष्पोद्गमैरयं । प्रत्ययं पूरयन्भानुन्निरत्ययमुमास्तां (पास्यताम्) ॥१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org