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परमार अभिलेख
सर्वानेताम्भाविनः पार्थिवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः ।
सामान्योयं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।। [८॥] इति कम
__ल दलांवुवि (बुबि) दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च । सकलमिदमुदा
हृतं च बु(बु)ध्वा न हि पुरुषः परकीर्तयो विलोप्या ।। [९] इति संवत् १०७६ माघ सुदि ५ ३२. स्वयमाज्ञा । मंगलं महाश्रीः । स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य ।
अनुवाद (प्रथम ताम्रपत्र) १. ओं।
जो संसार के बीज के समान चन्द्र की कला को संसार की उत्पत्ति के हेतु मस्तक पर धारण करते हैं, मेघमंडल ही जिसके केश हैं ऐसे महादेव श्रेष्ठ हैं ॥१॥
प्रलयकाल में चमकने वाली विद्युत की आभा जैसी पीली, कामदेव के शत्रु शिव की जटायें तुम्हारा कल्याण करें ॥२॥ ३. परमभद्रारक ४. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सीयकदेव के पादानुध्यायी परमभट्टारक ५. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव के पादानुध्यायी परम६. भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिंधुराजदेव के पादानुध्यायी ७. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव कुशलयुक्त' हो . ८. स्थली मण्डल में घाघ्रदोर भोग के अन्तर्गत वटपद्रक में आये हुए समस्त ९. राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों व ग्रामीणों आदि को आज्ञा देते हैं
आपको विदित हो १०. कि हमारे द्वारा कोंकण विजय के पर्व पर स्नान कर चर व अचर के स्वामी भगवान
भवानीपति की . ११. विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता को देख कर
- इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय भोग प्रारम्भमात्र में ही मधर लगने वाले हैं, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाली जलबिन्द के समान है.परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है।।३।।
घुमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर
जो दान नहीं करते, उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता।।४।। १४. इस जगत का विनश्वर स्वरूप समझ कर १५. ये स्वयं श्री भोजदेव के हस्ताक्षर हैं। .
(दूसरा ताम्रपत्र) १६. ऊपर लिखे ग्राम से सौ निवर्तन भूमि अपनी सीमा तृण गोचर भूमि तक हिरण्य १७. आय समेत, साथ में भाग भोग उपरिकर सभी प्रकार की आय समेत ब्राह्मण वामन पुत्र भाइल १८. के लिये जो वसिष्ठ गोत्री, वाजिमाध्यंदिन शाखी, एक प्रवरी, जिसके पूर्वज छिच्छा स्थान - से आये थे,
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