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________________ धरमपुरी अभिलेख १३ उज्जयिनी के स्थान पर उज्जयनी पंक्ति १४, श्रेयांसि के स्थान पर श्रेयान्सि पंक्त ३, आदि । छोटी मोटी कुछ और भी त्रुटियां खोदने वाले की लापरवाही के कारण बन गई हैं जो पाठ में सुधार दी गई हैं। तिथि पंक्ति क्र. १४ में शब्दों में और पंक्ति क्र. ३२-३३ में अंकों में दी गई है। यह संवत् एक हजार इकतीस के भाद्रपद की शुक्ल चौदस है। परन्तु इसमें दिन का उल्लेख न होने से इसका सत्यापन संभव नहीं। यह गुरुवार, १७ सितम्बर ९७४ ईस्वी के बराबर बैठती है। प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. ९ व १४-१५ में वर्णित है। इसके अनुसार श्रीवाक्पतिराजदेव ने उपरोक्त तिथि को पवित्र पर्व के अवसर पर उज्जयिनी में निवास करते हुए शिवतडाग के जल' में स्नान कर (पंक्ति १४-१५) भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक' अर्चना कर नर्मदा के तट पर गर्दभपानीय भोग के अन्तर्गत गर्दभपानीय से सम्बद्ध उत्तर दिशा में स्थित पिप्परिका तडार (तडाग ?) दान में दिया था। दानप्राप्तकर्ता ब्राह्मण का नाम पंक्ति क्र. २०-२१ में लिखा हुआ है। वह अहिछत्र से देशान्तर गमन करके दक्षिणधाम (उज्जयिनी) में आया, ज्ञान विज्ञान में सम्पन्न वसन्ताचार्य था जो धनिक पंडित का पुत्र था। पंक्ति क्र. ५-८ में दानकर्ता नरेश की वंशावली है जिसके अनुसार सर्वश्री कृष्णराज देव, वैरिसिंहदेव, सीयक देव और वाक्पतिराज देव के पिता-पुत्र शृंखला अनुसार उल्लेख हैं। इन सभी नरेशों के नामों के साथ पूर्ण राजकीय उपाधियां परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर लगी हुई हैं। अंतिम नरेश वाक्पतिराजदेव का एक अन्य नाम अमोघवर्षदेव भी दिया गया है। अभिलेख में जिस प्रकार इस नाम का उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह उसका मूल नाम था। साथ ही इसके नाम के आगे कुछ अन्य राजकीय उपाधियां "पृथ्वीवल्लभ, श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव" भी जुड़ी मिलती हैं। ये सभी अतिरिक्त उपाधियां मूलरूप से राष्ट्रकूट वंशीय नरेशों के नामों के साथ लगी प्राप्त होती हैं। पूर्ववणित हरसोल ताम्रपत्र 'अ' के ऐतिहासिक विवरण में दर्शाया जा चुका है कि वाक्पतिराज देव के पिता सीयक द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की निरंतर गिरती हुई शक्ति से लाभ उठाकर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। इस कारण उसके पुत्र वाक्पतिराज ने अपनी वृद्धिंगत शक्ति को प्रदर्शित करने हेतु राष्ट्रकूट नरेशों द्वारा प्रयुक्त राजकीय उपाधियों को धारण करना युक्तियुक्त समझा और प्रस्तुत अभिलेख में उनको अपने नाम के साथ जोड़ दिया । उपरोक्त चारों नरेशों में से प्रथम का नाम कृष्णराज देव लिखा मिलता है, परन्तु पूर्ववणित हरसोल के दोनों ताम्रपत्रों में यह नाम वप्पंपराज लिखा है । परिमल पद्मगुप्त द्वारा रचित नवसाहसांक चरित (पर्व ११, श्लोक क्र. ८०-८२ ) व उत्तरकालीन उदयादित्य की तिथि रहित उदयपुर प्रशस्ति (अभि. क्र. २२) में यह नाम वाक्पति प्रथम है। वप्पैपराज वास्तव में वाक्पति का ही प्राकृत रूप है । अतः मानना होगा कि कृष्णराज देव व वाक्पतिराज देव प्रथम एक ही व्यक्ति के दो विभिन्न नाम हैं । शेष तीनों नाम इसी क्रम में परमारवंशीय अन्य अभिलेखों में भी प्राप्त होते हैं । इस प्रकार ये सभी मालवा के परमार राजवंशीय नरेश हैं। प्रस्तुत अभिलेख में वाक्पतिराज देव के वंश का नामोल्लेख नहीं है। पंक्ति क्र. ११-१३ में उपर्युक्त तडाग की चारों सीमाओं को दर्शाया गया है। इसकी पूर्व दिशा में अगारवाहला तक, उत्तर दिशा में सात गत वाली चिखिल्लिका की खाई तक, पश्चिम दिशामें गर्दभ नदी तक और दक्षिण दिशा में पिशाचदेवतीर्थ तक उसके चारों घाटों की सीमाओं को लक्षित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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