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परमार अभिलेख
इस प्रकार लक्ष्मी व मनुष्य जीवन को कमलदल पर पड़ी जलबिन्दु के समान चंचल समझकर
और इस सब पर विचार कर मनुष्यों को परकीर्ति नष्ट नहीं करना चाहिये ॥९॥ ३०: यह संवत् ३१. १०७८ चैत्र सुदि १४ । हमारी आज्ञा । मंगल व श्री वृद्धि हो। ये हस्ताक्षर स्वयं
श्री भोजदेव के हैं ।
- (१३) . .. ... देपालपुर का भोजदेव का ताम्रपत्र अभिलेख
(संवत् १०७९-१०२३ ई०) . . प्रस्तुत अभिलेख दो ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण है जो १९३१ में आर. जी.. ओझा ने इन्दौर जिले के देपालपुर कस्बे में किशोरसिंह कानूनगो के पास देखे थे। ओझा जी ने इस का उल्लेख 'हिन्दुस्तानी', अक्तूबर १९३१, पृष्ठ ४९४-५१५ पर अपने लेख में किया। फिर वि. एन. रेऊ ने 'राजा भोज' ग्रन्थ में इसका पाठ छापा । इसका सम्पादन ओझा जी ने १९३२ में इं. हि. क्वा., भाग ८, पृष्ठ ३०५-१५ पर किया । ताम्रपत्र वर्तमान में इन्दौर संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
ताम्रपत्रों का आकार ३५४ ३४ सें. मी. है। इनमें लेख भीतर की ओर खुदा है। इनमें दो-दो छेद हैं जिनमें कडियां पड़ी हैं। ताम्रपत्रों के किनारे मोटे हैं व भीतर की ओर मुड़े हैं। कड़ियों समेत इनका वजन ३.२८ किलोग्राम है। अभिलेख ३० पंक्तियों का है। प्रत्येक ताम्रपत्र में १५-१५ पंक्तियाँ हैं । लेख प्रायः सुन्दर है, परन्तु कहीं २ पर उत्कीर्णकर्ता की छेनी के मिशान बन गये हैं, जिससे पाठ में भ्रम होता है। दूसरे ताम्रपत्र के अक्षर प्रथम के अक्षरों से अधिक सुन्दर हैं। दूसरे ताम्रपत्र पर एक चतुष्कोण में उड़ते गरुड़ की आकृति है। उसके बायें हाथ में नाग है एवं दाहिना उसको मारने के लिये ऊपर उठा है।
अभिलेख के अक्षरों की बनावट ११ वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर अच्छे हैं पर गहरे खुदे हुए नहीं हैं। प्रथम ताम्रपत्र दूसरे से अधिक घिसा हुआ है जिसका कारण अज्ञात है । भाषा संस्कृत है व गद्यपद्यमय है। इस में नौ श्लोक हैं। शेष अभिलेख गद्यमय है। व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है । र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। वाक्यों व श्लोकों के अन्त में म् के स्थान पर अनुस्वार है । कुछ शब्द ही गलत हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया है। ये सभी प्रादेशिक प्रभावों को प्रदर्शित करते हैं। कुछ अशुद्धियां उत्कीर्णकर्ता द्वारा बन गई है। ...
आभिलेख की तिथि अन्त में संवत् १०७९ चैत्र सुदि १४ केवल अंकों में लिखी है। इसमें दिन का उल्लेख नहीं है । ओझा जी ने वर्ष को चैत्रादि मान कर इसको १९ मार्च १०२२ ई. के बराबर निर्धारित कर दिया है। परन्तु इसको स्वीकार नहीं किया जा सकता । भोजकालीन अभिलेखों का • गणित वर्ष को कार्तिकादि मानकर किया जाना ही युक्तियुक्त प्रतीत होता है । प्रस्तुत अभिलेख पूर्ववर्णित उज्जैन अभिलेख (क्र. १२) से ठीक एक वर्ष बाद का हैं। अतः इस दृष्टि से समीकरण करने पर यह तिथि शनिवार, ९ मार्च १०२३ ईस्वी के बराबर निर्धारित की जा सकती है। ... . अभिलेख का प्रमुख ध्येय पंक्ति क्र. ६ व आगे में वर्णित है । इसके अनुसार भोजदेव ने उज्जयिनी पश्चिम पथक के अन्तर्गत किरिकैक ग्राम (पं. ६) की भूमि का समतल चार हलयुक्त चौतीस अंश
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