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________________ उज्जैन अभिलेख ७. के अन्तर्गत विराणक में आये हुए समस्त राजपुरुषों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, आस पास के निवासियों, पटेलों ८. व ग्रामीणों को आज्ञा देते हैं—आपको विदित हो कि संवत्सर एक हजार अठत्तरवें वर्ष की ९. माघ वदि तृतीय रविवार सूर्य के उत्तरायण पर्व के प्रारम्भ होने पर संकल्पित १०. हलों के लिखा जाने पर श्रीयुक्त धारा में निवास करते हुए हमारे द्वारा स्नान करके चर व अचर के स्वामी ११. भगवान भवानीपति की विधिपूर्वक अर्चना कर संसार की असारता देखकर इस पृथ्वी का आधिपत्य वायु में बिखरने वाले बादलों के समान चंचल है, विषय-भोग प्रारम्भ मात्र में ही मधुर लगने वाला है, मानव प्राण तिनके के अग्रभाग पर रहने वाले जलबिन्दु के समान है, परलोक जाने में केवल धर्म ही सखा होता है || ३ || घूमते हुए संसार रूपी चक्र की धार ही जिसका आधार है, भ्रमणशील ऐसी लक्ष्मी को पाकर जो दान नहीं करते उनको पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ फल नहीं मिलता || ४ | १४. इस जगत का विनश्वर रूप समझकर ऊपर १५. लिखे ग्राम को अपनी सीमा तृण गोचर भूमि तक साथ में हिरण्य भाग भोग १६. ये हस्ताक्षर स्वयं भोजदेव के हैं । ५९ ( दूसरा ताम्रपत्र ) १७. उपरिकर, सभी आय समेत भट्टगोविन्द के पुत्र ब्राह्मण धनपति भट्ट के लिये १८. वह वृचाश्वलायन शाखी, अगस्ति गोत्री, त्रिप्रवरी जिसके पूर्वज वेल्लबल्ल से संबद्ध श्रीवादा से निकलकर आये १९. राधासुरसंग के कर्णाट थे, माता पिता व स्वयं के पुण्य व यश की वृद्धि के लिये अदृष्टफल को स्वीकार कर चन्द्र सूर्य समुद्र व पृथ्वी के रहते तक परमभक्ति के साथ जलहाथ में ले कर राजाज्ञा द्वारा दान दिया है । यह मान कर २०. २१. जैसा दिया जाने वाला भाग भोगकर हिरण्य आदि आज्ञा सुनकर पालन करते हुए सभी उसके लिये देते रहना चाहिये । २२. और इसके पुण्य फल को समान रूप जानकर हमारे वंश में व अन्यों में भी उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये गये इस धर्मदान को २३. मानना व पालन करना चाहिये । और कहा गया है सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है, तब २ उसी को उसका फल मिला है ||५| यहां पूर्व के नरेशों द्वारा धर्म व यश हेतु जो दान दिये हैं, त्याज्य एवं के के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापस लेगा ||६ ॥ हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये। क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल ( उसका ) दान करना और ( उससे ) परयश का पालन करना ही है ॥७॥ सभी उन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार बार याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिये समान रूप धर्म का सेतु है, अत: अपने अपने काल में आपको इसका पालन करना चाहिये ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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