Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओं वाचला सम्पाङक-वेचक आचार्य तुलसी युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती प्रकाशन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथं पावयणं समवाओ [मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट आदि। वाचना प्रमुख प्राचार्य तुलसी सम्पादक-विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान ) प्रबन्ध सम्पादक : श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन ( जैन विश्व भारती ) प्रथम संस्करण : १९८४ पृष्ठांक : ४६८ मूल्य : १२०.०० मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं ( राजस्थान ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMAVÃO [Text, Sanskrit Rendering and Hindi Version with notes] Vācānā Pramukha ĀCĀRYA TULASI Editor and Commentator YUVĀCĀRYA MAHĀPRAGÑA Publisher JAIN VISHVA BHARATI LADNUN (Raj.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Managing Editor : Sreechand Rampuria Director Agama and Sahitya Prakashan Jain Vishwa Bharati By munificence : Rampuria charitable trust Calcutta First Edition : 1984 Pages : 468 Price : Rs. 120.00 Printers : Jain Vishwa Bharati Press Landnun (Raj.) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं ।। जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ।। ॥२॥ विलोडियं आगमदुद्ध मेव, लद्धं सुलद्धं णवणोय मच्छं । सज् यसझाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाण पुवं । जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यानलीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से ॥ पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, फालुस्स तस्स प्पणिहाण पुन्वं ॥ जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में । हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ॥ विनयावनतः आचार्य तुलसी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिञ्चित द्रुम-निकुञ्ज को प्रल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोधपूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार इस कार्य में संलग्न हो गया। अत: मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं । संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है संपादन-विवेचन सहयोगी : मुनि दुलहराज संस्कृत छाया सहयोगी : साध्वी कनकधी संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सब को मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने । –आचार्य तुलसी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य सम्पन्न हुआ है, वह मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है। हमने ग्यारह अंगों का पाठान्तर तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सु-संपादित मूल पाठ मात्र 'अंगसुत्ताणि' भाग १, २, ३ में प्रकाशित किया है। उसके साथ-साथ आगम-ग्रन्थों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं प्राचीनतम व्याख्या सामग्री के आधार पर सूक्ष्म ऊहापोह के साथ लिखित विस्तृत मौलिक टिप्पणों से मंडित संस्करण प्रकाशित करने की योजना भी चलती रही है। इस शृंखला में तीन आगम-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं : (१) ठाणं (२) दसवेआलियं (३) उत्तरज्झयणाणि प्रस्तुत आगम 'समवाओ' उसी शृखला का चौथा ग्रन्थ है। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी एवं अप्रतिम विद्वान् संपादक-विवेचक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने जो श्रम किया है, वह ग्रन्थ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा। संपादन-विवेचन सहयोगी मुनि दुलहराजजी ने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है। विदुषी साध्वीश्री कनकधीजी ने संस्कृत छाया के प्रस्तुतीकरण में हाथ बंटाया है। ऐसे सू-संपादित आगम-ग्रन्थ को प्रकाशित करने का सौभाग्य 'जैन विश्व भारती' को प्राप्त हुआ है, इसके लिए वह कृतज्ञ प्रस्तुत आगम 'समवाओ' का मुद्रण श्री रामपुरिया चेरिटेबल ट्रस्ट (कलकता) द्वारा घोषित अनुदान राशि में से हुआ है। मैं उस ट्रस्ट के सभी ट्रस्टियों के प्रति संस्था की ओर से हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हूं। जैन विश्व सारती के अध्यक्ष श्री बिहारीलालजी सरावगी की निरन्तर और सघन प्रेरणा के कारण ही, कुछ वर्षों के व्यवधान के पश्चात, आगम प्रकाशन का कार्य पुनः तत्परता से प्रारम्भ हुआ है। मुझे आशा है कि इस प्रकाशन कार्य की निरन्तरता बनी रहेगी और हम निकट भविष्य में और अनेक आगम-ग्रन्थ प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। लोडनू श्रीचन्द रामपुरिया Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आगम- सम्पादन की प्रेरणा विक्रम संवत् २०११ का वर्ष भौर चैत्र मास । आचार्य श्री तुलसी महाराष्ट्र की यात्रा कर रहे थे। पूना से नारायणगांव की ओर जाते जाते मध्यावधि में एक दिन का प्रवास मंचर में हुआ। आचार्यश्री एक जैन परिवार के भवन में ठहरे थे। वहां मासिक पत्रों की फाइलें पड़ी थीं । गृहस्वामी की अनुमति ले, हमलोग उन्हें पढ़ रहे थे । सांझ की वेला, लगभग छह बजे होंगे। मैं एक पत्र के किसी अंश का निवेदन करने के लिए आचार्यश्री के पास गया। आचार्यश्री पत्रों को देख रहे थे। जैसे ही मैं पहुंचा, आचार्यश्री ने धर्मदूत के सद्यस्क अंक की ओर संकेत करते हुए पूछा - " यह देखा कि नहीं ?" मैंने उत्तर में निवेदन किया- "नहीं, अभी नहीं देखा ।" आचार्यश्री बहुत गम्भीर हो गए। एक क्षण रुक कर बोले - " इसमें बौद्ध-पिटकों के सम्पादन की बहुत बड़ी योजना है। बौद्धों ने इस दिशा में पहले ही बहुत कार्य किया है और अब भी बहुत कर रहे हैं। जैन आगमों का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति से अभी नहीं हुआ है और इस ओर अभी ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।" आचार्यश्री की वाणी में अन्तर्-वेदना टपक रही थी, पर उसे पकड़ने में समय की अपेक्षा थी । आगम- सम्पादन का संकल्प रात्रिकालीन प्रार्थना के पश्चात् आचार्यश्री ने साधुओं का आमंत्रित किया। वे आए और वंदना कर पंक्तिबद्ध बैठ गए । आचार्यश्री ने सांय कालीन चर्चा का स्पर्श करते हुए कहा- 'जैन आगमों का कायाकल्प किया जाय, ऐसा संकल्प उठा है। उसकी पूर्ति के लिए कार्य करना होगा, पूर्ण श्रम करना होगा। बोलो, कौन तैयार है ?" सारे हृदय एक साथ बोल उठे - 'सब तैयार हैं।' आचार्यश्री ने कहा – 'महान् कार्य के लिए महान् साधना चाहिए । कल ही पूर्व तैयारी में लग जाओ, अपनी-अपनी रुचि का विषय चुनो और उसमें गति करो ।' मंचर से विहार कर आचार्य श्री संगमनेर पहुंचे। पहले दिन वैयक्तिक बातचीत होती रही। दूसरे दिन साधु-साध्वियों की परिषद् बुलाई गई । आचार्यश्री ने परिषद् के सम्मुख आगम सम्पादन के संकल्प की चर्चा की। सारी परिषद् प्रफुल्ल हो उठी। आचार्य श्री ने पूछा- 'क्या इस संकल्प को अब निर्णय का रूप देना चाहिए ?' समलय से प्रार्थना का स्वर निकला - 'अवश्य, अवश्य ।' आचार्यश्री औरंगाबाद पधारे। सुराणा भवन, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (वि० सं० २०११), महावीर जयन्ती का पुण्य पर्व । आचार्यश्री ने साधु साध्वी श्रावक और श्राविका - इस चतुविध संघ की परिषद् में आगम- सम्पादन की विधिवत् घोषणा की। आगम- सम्पादन का कार्यारम्भ वि० सं० २०१२ श्रावण मास ( उज्जैन चातुर्मास ) से आगम- सम्पादन का कार्यारम्भ गया। न तो सम्पादन का कोई अनुभव और न कोई पूर्व तैयारी । अकस्मात् धर्मदूत का निमित्त पा आचार्यश्री के मन में संकल्प उठा और उसे सबने शिरोधार्यं कर लिया । चिन्तन की भूमिका में इसे निरी भावुकता ही कहा जाएगा, किन्तु भावुकता का मूल्य चिन्तन से कम नहीं है। हम अनुभवविहीन थे, किन्तु आत्म-विश्वास से शून्य नहीं थे । अनुभव आत्म-विश्वास का अनुगमन करता है, किन्तु आत्म-विश्वास अनुभव का अनुगमन नहीं करता । प्रथम दो तीन वर्षों में हम अज्ञात दिशा में यात्रा करते रहे। फिर हमारी सारी दिशाएं और कार्य-पद्धतियां निश्चित और सुस्थिर हो गईं । आगम- सम्पादन की दिशा में हमारा कार्य सर्वाधिक विशाल और गुरुतर कठिनाइयों से परिपूर्ण रहा है, यह कह कर मैं किञ्चित् भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं । आचार्यश्री के अदम्य उत्साह व समर्थ प्रयत्न से हमारा कार्य निरन्तर गतिशील हो रहा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] है । इस कार्य में हमें अन्य अनेक विद्वानों की सद्भावना, समर्थन और प्रोत्साहन मिल रहा है । मुझे विश्वास है कि आचार्यश्री की यह वाचना पूर्ववर्ती वाचनाओं से कम अर्थवान नहीं होगी। सम्पादन का कार्य सरल नहीं है-यह उन्हे सुविदित है, जिन्होंने उस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, क्योंकि उनकी भाषा और भावधारा से आज की भाषा और भावधारा बहुत व्यवधान पा चुकी है। इतिहास की यह अपवाद-शून्य गति रही है कि जो विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता, या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा। यह ह्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है । और कोई भी आकार ऐसा नहीं है, जो कृत है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और आचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है । सत्य का केन्द्र-बिन्दु यह है कि जो कृत है वह सब परिवर्तनशील है । अकृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहां परिवर्तन का स्पर्श न हो ? इस विश्व में जो है वह वही है जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वथा विभक्त नहीं है। शब्द की परिधि में बन्धने वाला कोई भी सत्य क्या ऐसा हो सकता है, जो तीनों कालों में समानरूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है-भाषाशास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज भी वही अर्थ सही है, जो आज प्रचलित है । 'पाषण्ड' शब्द का जो अर्थ आगम-ग्रन्थों और अशोक के शिलालेखों में है, वह आज के श्रमण साहित्य में नहीं है । आज उसका अपकर्ष हो चुका है । आगम साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं । इस स्थिति में हर चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का कार्य कितना दुरूह है। मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अत: वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है। यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की संभावना नष्ट ही नहीं हो जाती किन्तु आज जो प्राप्त है, वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवाङ्गीटीकाकार (अभयदेवसूरि) के सामने अनेक कठिनाइयां थीं। उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है' १. सत् सम्प्रदाय (अर्थ-बोध की सम्यक् गुरु-परम्परा) प्राप्त नहीं है । २. सत् ऊह (अर्थ की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है। ३. अनेक वाचनाएं (आगमिक अध्यापन की पद्धतियां) हैं। ४. पुस्तकें अशुद्ध हैं। ५. कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गम्भीर हैं । ६. अर्थ-विषयक मतभेद है। इन सारी कठिनाइयों के उपरान्त भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गए। कठिनाइयां आज भी कम नहीं हैं, किन्तु उनके होते हुए भी आचार्य श्री तुलसी ने आगम-सम्पादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया। उनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है, तो भला आगम-साहित्य, जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राण-सञ्चार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात यह है कि आचार्य श्री ने उसमें प्राण-सञ्चार मेरी और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है । सम्पादन कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्ग-दर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है । आचार्य श्री ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति श्लोक 1,१: सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे।। वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्याद, मतभेदाश्च कुत्रचित् ।। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] के लिए अपना पर्याप्त समय दिया है। उनके मार्ग दर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पर हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं। 'अंगसुताण' भाग १ में समवाओ सूत्र का संपादित पाठ प्रकाशित है। वही पाठ यहां लिया गया है। वहां पाठान्तर पादटिप्पणों में दिए गए हैं । उनके आगे कोष्ठक में संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों के संकेत हैं । पाठ संशोधन में प्रयुक्त आदर्शों का परिचय 'अंगसुताणि' भाग १ में दिया गया है। प्रस्तुत सम्पादन में सहयोगी इसके अनुवाद और टिप्पण - लेख में मुनि दुलहराजजी ने निष्ठापूर्ण प्रयत्न किया है और विषय सूची भी उन्हीं के प्रयत्न से निष्पन्न हुई है। कुछ टिप्पण मुनि श्रीचन्दजी ने लिखें हैं। इसकी संस्कृत छाया साध्वी कनक श्री ने की है और इसका परिशिष्ट मुनि हीरालालजी और मुनि श्रीचन्द्रजी ने तैयार किया है। पांडुलिपि का संशोधन भी मुनि हीरालालजी ने किया। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक साधुओं की पवित्र अंगुलियों का योग है। आचार्य श्री के वरदहस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं, फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं, जिनका इस कार्य में योग है और आशा करता हूं कि वे इस महान् कार्य के अग्रिम चरण में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे । आगमों के प्रबन्ध सम्पादक श्री श्रीचन्दजी रामपुरिया तथा स्वर्गीय श्री मदनचंदजी गोठी का भी इस कार्य में निरन्तर सहयोग रहा है । आदर्श साहित्य संघ के संचालक व व्यवस्थापक श्री हुनुतमल जी सुराना व जयचन्दलालजी दफ्तरी का भी अविरल योग रहा है । आदर्श साहित्य संघ की सहयुक्त सामग्री ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। एक लक्ष्य के लिए समान गति से चलने वालों की सम प्रवृत्ति में योगदान की परंपरा का उल्लेख व्यवहार- पूर्ति मात्र है । वास्तव में यह हम सबका पवित्र कर्त्तव्य है और उसीका हम सबने पालन किया है । आचार्य श्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत हैं। हमें इस कार्य में उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग- दोनों प्राप्त हैं, इसलिए हमारा कार्यपथ बहुत ऋजु हुआ है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं कार्य की गुरुता को बढ़ा नहीं पाऊंगा । उनका आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य - पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशंसा है । १-१-८४ - युवाचार्य महाप्रज्ञ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन साहित्य में द्वादशांगी को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है। प्रस्तुत सूत्र उसका चतुर्थ अंग है। इसका नाम समवाय है। इसमें विविध विषय समवेत हैं, इसलिए यह सार्थक नाम है। इसके परिच्छेदों का नाम भी समवाय है। प्रथम समवाय में एक संख्या द्वारा संगृहीत विषय प्रतिपादित हैं। इसी प्रकार दूसरे में दो और तीसरे में तीन की संख्या द्वारा संगृहीत विषय प्रतिपादित हैं। सौ समवायों तक यह क्रम बराबर चलता है। उससे आगे डेढ सौ, दो सौ, ढाई सौ, तीन सौ-इस प्रकार संख्या बढ़ती जाती है। अंत में वह एक कोटि-कोटि सोगरोपम तक पहुंच जाती है। यहां संख्यापरक समवायपूर्ण हो जाता है। समवाय का मूलभाग इतना ही है। इससे आगे द्वादशांगी का प्रकरण है। उसके पश्चात् अनेक प्रकीर्ण विषयों का संकलन है । ये दोनों प्रकरण मूल सूत्र के परिशिष्ट हैं। प्रस्तुत सूत्र संग्रहसूत्र की कोटि का है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का संकलन हआ है। योग का एक सिद्धान्त है-दीर्घश्वास से आयु दीर्घ होता है। तेतीस समवायों के अंतिम सूत्रों में इसका व्यवस्थित क्रम मिलता है श्वास-कालमान आयु-कालमान आहारेच्छा-कालमान श्वास-कालमान आयु-कालमान आहारेच्छा-कालमान १ पक्ष १ सागरोपम १ हजार वर्ष ९ मास १८ सागरोपम १८ हजार वर्ष १ मास २ सागरोपम २ हजार वर्ष ॥ मास १६ सागरोपम १६ हजार वर्ष १॥ मास ३ सागरोपम ३ हजार वर्ष १० मास २० सागरोपम २० हजार वर्ष २ मास ४ सागरोपम ४ हजार वर्ष १०॥ मास २१ सागरोपम २१ हजार वर्ष २॥ मास ५ सागरोपम ५ हजार वर्ष ११ मास २२ सागरोपम २२ हजार वर्ष ३ मास ६ सागरोपम ६ हजार वर्ष ११॥ मास २३ सागरोपम २३ हजार वर्ष ३|| मास ७ सागरोपम ७ हजार वर्ष १ वर्ष २४ सागरोपम २४ हजार वर्ष ४ मास ८ सागरोपम ८ हजार वर्ष १ बर्ष १ पक्ष २५ सागरोपम २५ हजार वर्ष ४॥ मास ६ सागरोपम ६ हजार वर्ष १ वर्ष १ मास २६ सागरोपम २६ हजार वर्ष ५ मास १० सागरोपम १० हजार वर्ष १ वर्ष १॥ मास २७ सागरोपम २७ हजार वर्ष || मास ११ सागरोपम ११ हजार वर्ष १ वर्ष २ मास २८ सागरोपम २८ हजार वर्ष ६ मास १२ सागरोपम १२ हजार वर्ष १ वर्ष २॥ मास २६ सागरोपम २६ हजार वर्ष ६॥ मास १३ सागरोपम १३ हजार वर्ष १ वर्ष ३ मास ३० सागरोपम ३० हजार वर्ष ७ मास १४ सागरोपम १४ हजार वर्ष १ वर्ष ३।। मास ३१ सागरोपम ३१ हजार वर्ष ७॥ मास १५ सागरोपम १५ हजार वर्ष १ वर्ष ४ मास ३२ सागरोपम ३२ हजार बर्ष ८ मास १६ सागरोपम १६ हजार वर्ष १ वर्ष ४॥ मास ३३ सागरोपम ३३ हजार वर्ष ८॥ मास १७ सागरोपम १७ हजार वर्ष प्रस्तुत सूत्र में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की सूचना मिलती है, जैसे-भगवान् महावीर ने एक दिन में एक निषया में चौवन प्रश्नों के उत्तर दिए थे। १. समवानो, ४/: समये भगवं महावीरे एग दिवसेणं एग निसेज्जाए चतपण्याई बागरणाई वागरित्या । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] भगवान महावीर ने अन्तिम रात्रि में कल्याण-फलविपाक वाले पचपन अध्ययन तथा पाप-फलविपाक वाले पचपन अध्ययन प्रतिपादित कर मुक्त हो गए। इन सूत्रों को पढते ही मन जिज्ञासा से भर जाता है। कितना अच्छा होता कि इन प्रश्नों के उत्तर और ये अध्ययन आज प्राप्त होते । अन्य अनेक दृष्टियों से यह सूत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। कार्य-सम्पूर्ति प्रस्तुत आगम की समग्र निष्पत्ति में अनेक मुनियों का योग रहा है । उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं कि उनकी कार्यजाशक्ति और अधिक विकसित हो। इसकी निष्पत्ति का बहुत कुछ श्रेय शिष्य युवाचार्य महाप्रज्ञ (मुनि नथमल) को है क्योंकि इस कार्य में अहर्निश वे जिस मनोयोग से लगे हैं, उसी से यह कार्य सम्पन्न हो सका है। अन्यथा यह गुरुतर कार्य बड़ा दुरूह होता। इनकी वृत्ति मूलतः योगनिष्ठ होने से मन की एकाग्रता सहज बनी रहती है । आगम का कार्य करते-करते अन्तर् रहस्य पकड़ने में इनकी मेधा काफी पैनी हो गई है। विनयशीलता, श्रम-परायणता और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव ने इनकी प्रगति में बड़ा सहयोग दिया है। यह वृत्ति इनकी बचपन से ही है। जब से मेरे पास आए, मैंने इनकी इस वृत्ति में क्रमशः वर्धमानता ही पाई है। इनकी कार्यक्षमता और कर्तव्य-परायणता ने मुझे बहुत सन्तोष दिया है। मैंने अपने संघ के ऐसे शिष्य साधु-साध्वियों के बल-बूते पर ही आगम के गुरुतर कार्य को उठाया है। अब मुझे विश्वास हो गया है कि मेरे शिष्य साधु-साध्वियों के निःस्वार्थ, विनीत एवं समर्पणात्मक सहयोग से इस बृहत कार्य को असाधारणरूप से सम्पन्न कर सकूँगा। लाडनूं १-१-८४ -आचार्य तुलसी १. समवामो, ५५/समणे भगवं महावीरे अन्तिमराइयंसि पणपण्णं प्रज्झयमाई कल्लाणफलविवागाई पणपण्णं अज्झयणाणि पावफलविवागाणि वागरिता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिबुडे सम्बदुक्खप्पहीथे। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विषयानुक्रम अनुत्तरोपपातिकदशा विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र०१७ प्रश्नव्याकरण विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र०६८ विपाकश्रुत १. प्रागम गणिपिटक (द्वादशांगो) द्वादशांगी के नाम-१/२ तीन गणिपिटकों-आचार, सूत्रकृत और स्थान के अध्ययनों की संख्या-५७११ गणिपिटक के बारह अंग और उनका सम्पूर्ण वर्णन-प्र० ८८-१३४ आचार ब्रह्मचर्य (आचार) के अध्ययनों की संख्या-६।३ चलिका सहित परिमाण-१८१४ चूलिका सहित अध्ययनों की संख्या-२५।५ उद्देशन-काल-५१११ चूलिका सहित उद्देशन-काल-८५११ विषय आदि आदि का वर्णन-प्र० ८६ सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फल-विपाक वाले दस-दस अध्ययनों का वर्णन-प्र०६९ दुष्टिवाद सूत्र और उनका विषय-२२॥२-५; ८८२ मातृकापद-४६१ प्रकार, भेद-प्रभेद, विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र० १००-१३१ सूत्रकृत अध्ययनों के नाम-१६।१ अध्ययनों की संख्या-२३।१ विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र०६० स्थान विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र०६१ समवाय विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र० ६२ नाम-प्र० २६१ व्याख्याप्रज्ञप्ति महायुग्मशत-८१३ पद-परिमाण-८४१११ विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र०६३ ज्ञाता-धर्मकथा अध्ययनों की संख्या-१६१ विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र०६४ प्राणायु पूर्व के वस्तु-१३।६ पूर्वो की संख्या-१४।२ अग्रेणीय पूर्व के वस्तु–१४१३ विद्यानुप्रवाद पूर्व के वस्तु-१५८ आत्मप्रवाद पूर्व के वस्तु-१६५ अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के वस्तु–१८१६ प्रत्याख्यान पूर्व के वस्तु-२०१६ लोकबिन्दुसार पूर्व के वस्तु–२५६ वीयं पूर्व के प्राभृत-७१२२ प्रकीर्ण दशाश्रुतस्कंध, कल्प और व्यवहार के उद्देशन-काल-२६१ आचार-प्रकल्प (निशीथ) के प्रकार-२८।१ उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययनों के नाम-३६.१ क्षल्लिकाविमानप्रविभक्ति के प्रथम वर्ग के उद्देशन-काल-३७१४ क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति के दूसरे वर्ग के उद्देशन-काल-३८४ क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति के तीसरे वर्ग के उद्देशन-काल-४०१५ महतीविमानप्रविभक्ति के प्रथम वर्ग के उद्देशन-काल-४१।३ महतीविमानप्रविभक्ति के दूसरे वर्ग के उद्देशन-काल-४२१८ कर्मविपाक के अध्ययनों की संख्या-४३१ महतीविमानप्रविभक्ति के तीसरे वर्ग के उद्देशन-काल-४३१५ ऋषिभाषितों की संख्या-४४१ महतीविमानप्रविभक्ति के चौथे वर्ग के उद्देशन-काल-४४१४ उपासकदशा विषय आदि-आदि का वर्णन—प्र०६५ अन्तकृतदशा विषय आदि-आदि का वर्णन-प्र०६६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] महतीविमानप्रविभक्ति के पांचवें वर्ग के उद्देशन-काल-४५८ प्रकीर्णकों की संख्या-८४।१३ लौकिकशास्त्र पापश्रुत के प्रसंग-२६१ नामकर्म की उत्तरप्रकृतियां-५११५; ५२१४; ५५६६; ५८।२; ६६।३; ८७१५; ६११४ संहनन के प्रकार-प्र० १८६ संस्थान के प्रकार-प्र० १६६ गोत्रकर्म की उत्तरप्रकृतियां--३६।४; ६६।३; ८७५ अन्त रायकर्म की उत्तरप्रकृतियां-५२।४; ५८।२; ६६४३; ६१।४ प्रकीर्ण कर्म-बंध के प्रकार-४१५ सूक्ष्मसंपराय मुनि के कर्म-प्रकृतियों का बंध-१७१० आठों कर्मों की उत्तरप्रकृतियां-६७३ ३. कला ब्राह्मीलिपि के लेख-विधान-१८५ नाट्य के प्रकार–३२६ ब्राह्मी लिपि के मातृकाक्षर–४६।२ बहत्तर कलाएं-७२१७ पूर्व से शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त गुणाकार-८४।२५ ज्ञानावरणकर्म की उत्तरप्रकृतियां-३६।४; ५२१४; ५८।२; ६६३; ६११४ दर्शनावरणकर्म की उत्तरप्रकृतियां-६।११, ५११५, ५५।६; ६६।३; ८७१५, ६११४ नपुंसक वेदनीयकर्म का स्थितिबंध-२०१५ वेदनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियां-५८१२; ६६३; ८७१५; ६१॥४ मोहनीयकर्म क्षीणमोह भगवान् के प्रकृतियों का वेदन-७।६ निवृत्तिबादर गुणस्थानवी जीवों के मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों की सत्ता-२१२ अभवसिद्धिक जीवों के मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों की सत्ता२६१२ वैदक सम्यक्त्व-बंध का वियोजन करने वाले व्यक्ति के मोहनीयकर्म की उत्तर-प्रकृतियों की सत्ता-२७१५ कुछ भवसिद्धिक जीवों के मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों की सत्ता-२८२ मोहनीय के बंध-स्थान-३०१ मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियां-३६४; ८७।५; ६११४ मोहनीयकर्म के अपर नाम-५२।१ मोहनीयकर्म का अबाधा-काल से न्यून निषेक-काल-७०।४ वेद के प्रकार - प्र० २०६ आयुष्य कर्म की उत्तरप्रकृतियां-३६।४; ५५६, ५८१२; ६९।३; ८७.५ आयुष्य-बंध के प्रकार-प्र० १७६ नामकर्म अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय के नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों का बंध-२५३६ देवगति का बंध करते हुए जीव के नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों का बंध-२८०५ नरकगति का बंध करते हुए जीव के नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों का बंध-२८६ सम्यकदृष्टि भविक जीव की बध्यमान नामकर्म की उत्तरप्रकृत्तियां-२९६ नामकर्म के प्रकार-४२६ ४. काल छोटी रात, छोटा दिन-१२।८, ९ चैत्र और आश्विन मास के रात-दिन - १५५६, ७ पौष की उत्कृष्ट रात्री, आषाढ़ का उत्कृष्ट दिन-१८८ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का कालमान-२०१७ अवसर्पिणी के पांचवें तथा छठे आरे का कालमान --२१॥३ उत्सपिणी के पहले तथा दूसरे आरे का कालमान--२११४ एक प्रहर की चौबीस अंगुल प्रमाण छाया-२४१४ नक्षत्रमास का परिमाण-२७।३ सत्ताईस अंगुल प्रमाण छाया की निष्पत्ति-२७१६ आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख मास का परिमाण-२६।२-७ चन्द्रमास के दिन का परिमाण-२६८ अहोरात्र का मुहूर्त-परिमाण-३०१३ अभिवद्धितमास का परिमाण–३१४ आदित्यमास का परिमाण-३११५ चैत्र और आश्विन मास का प्रहर-परिमाण-३६।४ कार्तिक कृष्णा सप्तमी का प्रहर-परिमाण-३७५ फाल्गुन और कार्तिक पूर्णिमा का प्रहर-परिमाण-४०।६,७ अवसर्पिणी के पांचवें-छठे दोनों आरों का कालमान-४२१९ उत्सर्पिणी के पहले-दूसरे-दोनों आरों का कालमान-४२११० चन्द्रसम्वत्सर की ऋतु का परिमाण-५६१ पंचसांवत्सरिक युग के ऋतुमासों का परिमाण–६।११ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसांवत्सरिक युग की पूर्णिमाएं और अमावस्याएं - ६२॥१ पंचसांवत्सरिक युग के नक्षत्रमासों का परिमाण – ६७|१ सूर्य की सर्व बाह्यमंडल से आवृत्ति का काल – ७१ । १ प्रत्येक मुहूर्त का लव परिमाण ७७१४ रात्रि और दिवसक्षेत्र की वृद्धि हानि - ८८७, ८ ६८५,६ दिन के प्रथम मुहूर्त का छाया-परिमाण -६६/६ ५. कुलकर कुलकर अभिचन्द्र की ऊंचाई - प्र० ३५ कुलकर विमलवाहन की ऊंचाई - प्र० ५१ अतीत अवसर्पिणी के कुलकरों के नाम -- प्र०२१६ अतीत उत्सर्पिणी के कुलकरों के नाम - प्र० २१७ वर्तमान अवसर्पिणी के कुलकरों के नाम - प्र० २१८ कुलकरों की भार्याओं के नाम - प्र० २१६ आगामी उत्सर्पिणी के कुलकरों के नाम-प्र० २४६ आगामी अवसर्पिणी के कुलकरों के नाम प्र० २५० ६. क्रियावाद क्रिया - ११८ क्रिया के पांच प्रकार - ५१ क्रिया के तेरह स्थान - १३ १ जम्बूद्व जम्बूद्वीप का आयाम - विष्कंभ - १।२२; प्र० ७६ सुदर्शन जम्बू की ऊंचाई -- ८४ जम्बूद्वीप की जगती की ऊंचाई- ८६ जम्बूद्वीप में प्रविष्ट मत्स्यों का परिमाण - 815 विजयद्वार के भीम - ६६ विजया राजधानी का आयाम - विष्कंभ - १२४ जम्बूद्वीप की वेदिका का मूल भाग - १२।७ जम्बूद्वीप के गणित में प्रयुक्त कला का परिमाण - १६४ • जम्बूद्वीप के प्रत्येक द्वार का व्यवधानात्मक अन्तर-- ७६/४ जम्बूद्वीप के चरमान्त से महापाताल कलशों की अवस्थिति६५/२ जम्बूद्वीप की वेदिका से धातकीपण्ड का चक्रवाल - प्र० ८२ भरत - ऐरवत जीवा की लंबाई- १४६ महाविदेह ७. क्षेत्र विष्कंभ - ३३१३ [२१] - यवत जीवा की लम्बाई - ३७/२ जीवा के धनुःपृष्ठ का परिक्षेप - ३८ २ बाहु की लम्बाई - ६७१२ देवकुरु- उत्तरकुरु जीवा की लम्बाई - ५३ ॥१ हरिवर्ष - रम्यक् वर्ष जीवा की लम्बाई - ७३१ जीवा के धनुःपृष्ठ का परिक्षेप - ८४ / ६ विस्तार - प्र० ७३ धातकीषण्ड दोनों मेरु पर्वतों का पूर्ण परिमाण - ८५१२ धातकीपण्ड का चक्रवाल- विष्कंभ - प्र० ७६ समयक्षेत्र कुल पर्वतों की संख्या - ३६२ आयाम - विष्कंभ - ४५।१ वर्ष और वर्षधर पर्वतों की संख्या - ६६ । १ दक्षिण भरत धनुः पृष्ठ की लंबाई - ९८४ दक्षिणार्द्ध की जीवा - प्र० ७४ प्रकीर्ण क्षेत्रों की संख्या-- ७५ योजन का परिमाण – ४१६ दंड, धनुष्य, नालिका, युग, अक्ष और मुशल का परिमाण ६६।३-८ saya अग्निभूति ८ क्षेत्रीय नाप श्रामण्य पर्याय -काल- ३०१२ संपूर्ण आयुष्य काल -- ८३ | ३ मौर्यपुत्र ६ गणधर गृहवास - काल – ४७।२ संपूर्ण आयुष्य काल – ७४ ॥ १ अगारवास - काल – ६५।२ संपूर्ण आयुष्य काल – ६५१५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] अचलनाता ___ संपूर्ण आयुष्य-काल--७२।४ अकंपित संपूर्ण आयुष्य-काल-७८।२ इन्द्रभूति संपूर्ण आयुष्य-काल-६२२ अगारवास-काल-८३।४ पूर्ण आयुष्य-काल-८४१२ गण और गणधर-८४१६ श्रमणों की संख्या-८४१७ परिनिर्वाण-काल-८६१ ऊंचाई-प्र०२५ ऋषभ और महावीर का अन्तर-काल---प्र० ८७ २. अजित गृहवास-काल-७१।३ गण और गणधर-६०२ अवधिज्ञानियों की संख्या-६४१२; प्र०८४ ऊंचाई-प्र०२१ सुधर्मा संपूर्ण आयुष्य-काल-१००१५ १०. ज्ञान अर्थावग्रह-६६ आभिनिबोधिक ज्ञान के प्रकार-२८।३ आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति-६६।४ अवधिज्ञान के प्रकार-प्र० १७२ ११.तिर्यञ्च ३. संभव गृहवास-काल-५२ ऊंचाई-प्र०१६ ४.अभिनंदन ऊंचाई-प्र० १५ ५. सुमति ऊंचाई-प्र०६ ६. पद्मप्रभ ऊंचाई-प्र०७ असंख्य वर्षों की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों की स्थिति-११३५; २।१२; ३३१७ बादर वनस्पति की स्थिति--१०।१७ जलचर पञ्चेन्द्रिय के योनि-प्रमुख--१३।५ गर्भावक्रान्तिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों का प्रयोग-१३०७ सम्मच्छिम भुजपरिसर्प की उत्कृष्ट स्थिति-४२१५ सम्मच्छिम उरपरिसर्प को उत्कृष्ट स्थिति-५३४ सम्मूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति-७२१८ योनि प्रमुखों का परिमाण-८४११४ तिर्यञ्चों के आवास-प्र० १४६,१४७ तिर्यञ्चों के आयुष्य के आकर्ष-प्र०१८५ पृथ्वीकायिक से गर्भावक्रान्तिक तिर्यञ्चों का संहननप्र० १६०,१६२ पृथ्वीकायिक से गर्भावक्रान्तिक तिर्यञ्चों का संस्थानप्र० १६६,२०५ पथ्वीकायिक से गर्भावक्रान्तिक तिर्यञ्चों का वेद-प्र० २१२, ७. सुपार्श्व वादियों की संख्या-८६०२ गण और गणधर-६५१ ऊंचाई-प्र०४ ८.चन्द्रप्रभ गण और गणधर-६३१ ऊंचाई-प्र० १ तिर्यञ्च गति के उपपात और उद्वर्तना का विरह-कालप्र० १८०,१८१ १२. त्रिषष्टिशलाकापुरुष (क) तीर्थङ्कर १. ऋषभ पूर्वभव---२३॥३,४ महाराज-काल--६३११ ६. सुविधि केवलियों की संख्या-७५१ गण और गणधर-८६१ ऊंचाई-१००१३ १०. शीतल गृहवास-काल-७श२ गण और गणधर-८३१२ ऊंचाई-६०१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] ११. श्रेयांस गण और गणधर-६६१३ ऊंचाई-८०१ पूर्ण आयुष्य-काल-८४४ १२. वासुपूज्य गण और गणधर-६२।२ ऊंचाई--७०।३ साथ प्रव्रजित होने वाले पुरुषों की संख्या-प्र० ३६ १३. विमल पुरुषयुगों की संख्या-४४१२ गण और गणधर-५६०२ ऊंचाई-६०३ उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा-६८७ १४. अनन्त ऊंचाई-५०।२ गण और गणधर-५४।४ १५. धर्म ऊंचाई-४५५ गण और गणधर-४८२ मनःपर्यवज्ञानियों की संख्या-५७१४ अवधिज्ञानियों की संख्या-५६३ २०. मुनिसुव्रत ऊंचाई -२०१२ साध्वियों की संख्या-५०१ २१. नमि ऊंचाई --१५।२ साध्वियों की संख्या-४११ २२. अरिष्टनेमि ऊंचाई-१०४ उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा-१७२ आधोवधिक अवधिज्ञानियों की संख्या-३६१ साध्वियों की संख्या-४०१ छद्मस्थ-पर्याय-५४१२ कुमार-अवस्था--प्र० १० केवल-पर्याय-प्र० ४० उत्कृष्ट वादी-सम्पदा-प्र०४७ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-प्र०६१ २३. पार्व गण और गणधर-कास ऊंचाई-६।४ उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा-१६।४ गृहवास-काल-३०१६ उत्कृष्ट श्रमणी-सम्पदा-३८१ श्रामण्य पर्याय-काल-७०।२ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-१००१४ चौदहपूर्वी मुनियों की संख्या-प्र०१४ उत्कृष्ट वादी-सम्पदा-प्र० ३४ केवलियों की संख्या-प्र० ६२ परिनिर्वृत शिष्यों की संख्या-प्र०६३ उत्कृष्ट श्राविका-सम्पदा-प्र०७८ वैक्रियल ब्धिसंपन्न मुनियों की संख्या-प्र०६६ २४. महावीर ऊंचाई–७३ गणधर--१११४ उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा-१४१४ गृहवास-काल-३०-७ आर्याओं की संख्या-३६-३ श्रामण्य-पर्याय-काल-४२११ १६. शान्ति ऊंचाई-४०।३ गृहवास-काल-७५३ उत्कृष्ट साध्वी-सम्पदा-८६४ गण और गणधर-६०३० चौदहपूर्वियों की संख्या-६३।२ १७. कुन्थ केवलियों की संख्या-३२॥३ ऊंचाई-३२ गण और गणधर-३७१ मनःपर्यवज्ञानियों की संख्या-८१२ आधोवधिक अवधिज्ञानियों की संख्या-६११३ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-६२४ १८. अर ऊंचाई-३०।४ १६. मल्ली ऊंचाई-२५२ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-५५०१ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] भरत में आगामी उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थङ्कर-प्र० २५१ इनके पूर्वभविक नाम-प्र० २५२ इनके माता, पिता, शिष्य, शिष्या, प्रथम भिक्षादायक और चैत्यवृक्ष-प्र० २५३ ऐरवत में आगामी उत्सपिणी में होने वाले तीर्थद्वर-प्र० २५८ (ख) चक्रवर्ती तिरपन अनगार-५३।३ चौवन प्रश्न-५४१३ अन्तिम रात्री की प्ररूपणा-५५४ वर्षाऋतु में स्थित होने वाला कालमान-७०।१ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-७२।३ संहरण-काल-८२२२,८३३१ परिनिर्वाण-काल-८६२ चौदहपूर्वी मुनियों की संख्या-प्र० १२ उत्कृष्ट वादी-सम्पदा-प्र० २० केवलियों की संख्या-प्र० ३८ । वैक्रियलब्धिसंपन्न मुनियों की संख्या--प्र० ३६ अनुत्तरोपपातिक-सम्पदा-प्र०४५ छठा भव-प्र० ८६ गण और गणधर-प्र० २१५ भरत कुमार-काल-७७।१ अगारवास-काल-८३१५ पूर्ण आयुष्य-काल-८४१३ ऊंचाई-प्र०२६ राज्य-काल-प्र०५१ सगर प्रकीर्ण गृहवास-काल-७११४ ऊंचाई-प्र० २२ हरिषेण उन्नीस तीर्थङ्करों का अगारवास-१९।५ तेईस तीर्थङ्करों के केवलज्ञान की उत्पति–२३।२ तेईस तीर्थङ्करों का पूर्वभव-२३॥३,४ चौबीस देवाधिदेव--२४१ तीर्थङ्करों के अतिशेष-३४११ जिनेश्वरदेव की अस्थियां-३५१५ भरत-ऐरदत में प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सपिणी के तीर्थङ्कर महाराज-काल-८६३ अगारवास-काल-६७४ धातकीषण्ड में अर्हतों की उत्कृष्ट संख्या-६८।२ अर्द्धपुष्करवरद्वीप में अर्हतों की उत्कृष्ट संख्या-६८५ बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी का पूर्ण आयुष्य-काल-८४१३ तीर्थडुरों के पिता के नाम-प्र० २२० तीर्थङ्करों की माता के नाम-प्र० २२१ तीर्थङ्करों के नाम-प्र० २२२ तीर्थङ्करों के पूर्वभविक नाम-प्र० २२३ तीर्थङ्करों की शिविकाएं-प्र० २२४ तीर्थङ्करों की निष्क्रमण भूमि-प्र० २२५ तीर्थङ्करों की निष्क्रमण अवस्था-प्र० २२६ तीर्थकर कितने पुरुषों के साथ प्रवजित ?-प्र० २२७ तीर्थङ्करों की प्रव्रज्याकालीन तपस्या-प्र० २२८ तीर्थङ्करों को प्रथम भिक्षा देने वाले–प्र० २२६ तीर्थङ्करों का भिक्षा-प्राप्ति-काल तथा स्वर्ण-वृष्टि-प्र० २३० तीर्थङ्करों के चैत्य-वृक्ष-प्र० २३१ तीर्थङ्करों के प्रथम शिष्य-प्र० २३२ तीर्थङ्करों की प्रथम शिष्याएं-प्र० २३३ ऐरवत क्षेत्र के तीर्थङ्कर---प्र० २४८ प्रकीर्ण चक्रवर्ती के चौदह रत्ल-१४१७ चक्रवर्ती के विजय-३४१२ चक्रवर्ती के पत्तन-४८११ भरत-ऐरवत में प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के चक्रवर्ती५४११ धातकीषण्ड में चक्रवतियों के विजयों की संख्या-६८१ धातकीषण्ड में चक्रवतियों की उत्कृष्ट संख्या-६८।३ अर्द्धपुष्करवरद्वीप में चक्रवतियों के विजयों की संख्या-६८।४ अर्द्धपुष्करवरद्वीप में चक्रवतियों की उत्कृष्ट संख्या-६८।६ चक्रवर्ती के पुर–७२।६ चक्रवर्ती के ग्राम-६६१ चक्रवर्ती के पिता के नाम-प्र०२३४ चक्रवर्ती की माता के नाम-प्र० २३५ चक्रवतियों के नाम-प्र० २३६ ।। चक्रवतियों के स्त्री-रल-प्र० २३७ भरत में आगामी उत्सपिणी में होने वाले चक्रवर्ती-प्र० २५४ इनके पिता, माता और स्त्री-रल-प्र० २५५ ऐरवत में आगामी उत्सपिणी में होने वाले चक्रवर्ती आदिप्र० २५६, २६० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] (ग) वासुदेव-बलदेव वासुदेव : कृष्ण ऊंचाई-१०५ दत्त ऊंचाई–३५॥३ पुरुषोत्तम ऊंचाई-५०३ त्रिपृष्ठ ऊंचाई-८०१२ महाराज-काल-८०४ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-८४१५ स्वयंभू दूसरे राज्यों को जीतने का काल-६०।४ पुरुषसिंह सम्पूर्ण आयुष्य-काल--प्र० ८५ बलदेव: राम ऊंचाई-१०६ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-१२२५ नन्दन ऊंचाई-३५४ सुप्रभ सम्पूर्ण आयुष्य-काल-५१४ विजय सम्पूर्ण आयुष्य-काल--७३।२ अचल ऊंचाई---८०३ बलदेव-वासुदेवों का वर्णन-प्र० २४१ . बलदेव-वासुदेवों के पूर्वभविक नाम-प्र० २४२ वासुदेवों के पूर्वभविक धर्माचार्य-प्र० २४३ वासुदेवों की निदान-भूमियां-प्र० २४४ वासुदेवों के निदान के कारण-प्र० २४५ वासुदेवों के प्रतिशत्रु-प्र० २४६ बलदेव-वासुदेवों की गति का निरूपण-प्र० २४७ आगामी उत्सपिणी में होने वाले बलदेव-वासुदेवों का वर्णनप्र० २५६,२५७ १३. देव, देवलोक तथा विमानावास सौधर्म स्थिति-१।३६,४०; २।१४,१६,३।१६,४।१३,५।१७; ६।२२; ७१६; ८।१३; ६।१५; १०११६; ११।११; १२।२५; १३।१२; १४११२; १५।१३; १६।११; १७३१५; १८।१२; १६६; २०।११, २११८, २२।११; २३१८, २४।१०; २०१३; २६।६; २७।१०; २८।१०; २६।१३; ३१६६% ३२।१०,३३६ पालक यान-विमान का आयाम-विष्कभ-१।२४ सौधर्मावतंसक विमानों का आयाम-विष्कभ-१२।३ सौधर्म विमानों के प्रस्तट-१३१२ सौधर्मकल्प के विमानों की पृथ्वी की मोटाई-२७१४ सौधर्मकल्प के विमानों की संख्या-३२१४; ५२१५ ; ६०।६; ६२।४; ६४१५; प्र० १५५ । सौधर्मावतंसक विमान की बाहा के भौमों की संख्या-६५।३ शक्र के लोकपाल वैश्रमण का आधिपत्य आदि--७८।१ शक्र के सामानिक देव-८४१६ सौधर्मकल्प के विमानों की ऊंचाई-प्र० ३० ईशान स्थिति-११४१,४२; २।१५,१७; ३।१६; ४११३;५।१७; ६।१२; ७।१६; ८।१३, ६।१५; १०।१६; १११११, १२।१५; १३।१२,१४।१२; १५१३, १६।११,१७।१५; १८।१२; १६९; २०१११, २११८, २०११, २३१८; २४।१०; २५।१३; २६।६; २७।१०; २८।१०; २६।१३; ३१६% ३२।१०।३३।। ईशानावतंसक विमान का आयाम-विष्कभ-१२१४ ईशान विमानों के प्रस्तट-१३।२ ईशानकल्प के विमानों की पृथ्वी की मोटाई-२७४४ ईशानकल्प के विमानों की संख्या-२८।४; ६०१६; ६२।४; ६४१५;प्र० १५२ ईशान देवेन्द्र के सामानिक देव-८०६ प्रकीर्ण भरत-ऐरवत के प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के बलदेववासुदेव-५४११ धातकीषण्ड में बलदेव-वासुदेवों की उत्कृष्ट संख्या-६८।३ अर्द्धपुष्करवरद्वीप में बलदेव-वासुदेवों की उत्कृष्ट संख्या-६८१६ बलदेव-वासुदेवों के पिताओं के नाम-प्र०२३८ बलदेव-वासुदेवों की माताओं के नाम-प्र० २३६, २४० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] ईशानकल्प के विमानों की ऊंचाई-प्र०२० सनत्कुमार स्थिति-२०१८3३।२०४।१४।५।१८, ६।१३७।१७ विमानों की संख्या-५२।५; प्र० १५२ विमानों की ऊंचाई-प्र० ३१ । माहेन्द्र स्थिति-२११६३।२०,४।१४।५।१८,६।१३;७११८ विमानों की संख्या-५२०५; प्र० ८३,१५२ विमानों की ऊंचाई--प्र० ३१ आरण स्थिति–२०११३; २१६ विमानों की संख्या-प्र० २,१५२ विमानों की ऊंचाई-प्र०४८ अच्युत स्थिति--२१।१०; २२।१२ विमानों की संख्या-प्र० ३,१५२ विमानों की ऊंचाई-प्र० ४८ ग्रेवेयक स्थिति-२२।१३; २३१६,१०; २४१११,१२, २५॥१४,१५; २६१७,८, २७१११,१२; २८।११,१२, २६।१४,१५ ३०।१२,१३; ३१।११ आन-प्राण--२३।११; २४।१३; २५।१६; २६१६; २७।१३; २८।१३; २६१६, ३०।१४; ३१११२ भोजन-इच्छा-२३।१२, २४।१४, २५।१७; २६।१०; २७।१४ २८।१४; २६।१७; ३०।१५; ३१११३ ग्रैवेयक विमानों की संख्या-११६ ग्रेवेयक विमानों की ऊंचाई-प्र० ५५ ग्रेवेयक देवों के मारणान्तिक समुद्घात से समवहत तेजस-कार्म शरीर की अवगाहना-प्र० १६६, १७१ स्थिति-७।१६; ८।१४; १।१६; १०१२० देवेन्द्र ब्रह्म के सामानिक देव-६०१५ ब्रह्मकल्प के विमानों की संख्या-६४१५; प्र० ११२ गर्दतोय और तुषित देवों का परिवार-७७१३ ब्रह्मकल्प के विमानों की ऊंचाई-प्र० ३७ लान्तक स्थिति-१०।२१; ११।१२; १२।१६; १३।१३; १४।१३ विमानों की संख्या–५०५; प्र० १५२ विमानों की ऊंचाई-प्र०३७ शुक्र स्थिति-१४।१४; १५१४; १६।१२; १७।१६ विमानों की संख्या-४०१८; प्र० १५२ विमानों की ऊंचाई-प्र० ४३ सहस्त्रार स्थिति-१७११७; १८१३ देवेन्द्र देवराज के सामानिक देव --३०१५ विमानों की ऊंचाई-प्र० ४३ विमानों की संख्या-प्र० ७१,१५२ अनुत्तर स्थिति-३१।१०; ३२।११; ३३१०,११; प्र० १५६, १५७ आन-प्राण-३२॥१२; ३३।१२ भोजन-इच्छा-३२॥१३; ३३।१३ परिनिर्वाण-३२।१४; ३३।१४ अनुत्तर विमान के राजधानियों के प्राकारों की ऊंचाई-३७।३ अनुत्तर विमानों की ऊंचाई-प्र०६५ अनुत्तर देवों के प्रकार-प्र० १३६ अनुत्तर देवों के मारणान्तिक समुद्घात से समबहत तैजस-कार्मणशरीर की अवगाहना-प्र० १७०,१७१ सर्वार्थसिद्ध महाविमान का आयाम-विष्कंभ-११२५ सर्वार्थसिद्ध महाविमान से ईषत्प्राग्भारा की दूरी-१२।१० आनत स्थिति–१८।१४; २६।१० विमानों की संख्या–प्र० १६,१५२ विमानों की ऊंचाई-प्र०४८ प्रकीर्ण प्राणत स्थिति --१६।११, २०१२ देवेन्द्र देवराज के सामानिक देव-२०१४ विमानों की संख्या-प्र० १६,१५२ विमानों की ऊंचाई-प्र०४८ वैमानिकों के विमान-प्रस्तट-६२१५ वैमानिक देवों के विमानों की संख्या-८४।१८ वैमानिक देवों के विमानों के प्राकार-प्र० ११ वैमानिक देवों के आवास-प्र० १५० वैमानिक देवों का संहनन-प्र० १६५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] वैमानिक देवों का संस्थान-प्र० २०८ वैमानिक देवों में वेद-प्र० २१४ भवनपति असुरकुमारों की स्थिति-१३।३२-३४; २।१०,११; ३३१६,४।१२; ५।१६, ६।११,७१५८।१२।६।१४; १०.१४,१६; १४१०; १२।१४; १३।११; १४।११; १५१२; १६।१० १७।१४; १८०११; १६।८, २०१० २११७; २२।१०; २३।७; २४१६; २५।१२; २६:५; २७६; २८९; २६।१२; ३०।११; ३११८; ३२२६; असुरकुमारावासों की संख्या-६४१२ असुरकुमारासों का वर्णन-प्र० १४४ असुरकुमारों के प्रासादावतंसकों की ऊंचाई-प्र०८ असुरकुमारों का संहनन-प्र० १८८ असुरकुमारों का संस्थान-प्र० १६८ असुरकुमारों में वेद -प्र० २११ चमर और बलि के अवतारिकालयन का आयाम-विष्कंभ-१६।६ राजधानी चमरचचा के द्वारों पर स्थित भीम-३३१२ चमर के भवनावास---३४१५ चमर और बलि की सुधर्मा सभा-३६।२; ५१।२,३ चमर के सामानिक देव-६४।३ नागराज भूतानन्द के भवनावास---४०१४ नागेन्द्र धरण के भवनावास–४४१३ नागकुमार देवों की आवास-संख्या-८४११२ वायुकुमारेन्द्र के भवनावास-४६।३ वेणुदेव (सुपर्णकुमारजातीय) के आवास की ऊंचाई-८।५ सुपर्णकुमार देवों के आवासों की संख्या-७२।१ विद्युत्कुमार देवों के आवासों की संख्या-७६१ द्वीपकुमार आदि देवों के आवासों की संख्या-७६।२ वायुकुमार देवों के भवनावास---६६२ परमाधामिकों के प्रकार--१५११ सभी भवनपति आवासों का वर्णन-प्र० १४५ सभी भवनपति देवों का संहनन-प्र० १८६ सभी भवनपति देवों का संस्थान--प्र० १६८ सभी भवनपति देवों में वेद-प्र० २११ वानमन्तर स्थिति-११३७; १०११८ वानमन्तर देवों के चैत्यवृक्ष की ऊंचाई-८३ वानमन्तर देवों के सुधर्मा सभा की ऊंचाई-६।१० वानमन्तर देवों के आवास-प्र० १४८ वानमन्तर देवों का संहनन–प्र० १६५ वानमन्तर देवों का संस्थान-प्र० २०८ वानमन्तर देवों में वेद-प्र०२१४ ज्योतिषिक स्थिति-२३८ ज्योतिषिक देवों के आवास-प्र० १४६ ज्योतिषिक देवों का संहनन-प्र० १६५ ज्योतिषिक देवों का संस्थान-प्र०२०८ ज्योतिषिक देवों में वेद-प्र० २१४ अन्यदेव स्थिति–११४३; २।२०७३।२१; ४११५; ५११६; ६।१४; ७।२०; ८।१५, ६।१७; १०।२२; ११।१३; १२।१७; १३।१४; १४११५; १५१५, १६।१३; १७११८, १८११५ १६।१२; २०।१४; २१।११ ; २२।१४ आन-प्राण-११४४ ; २२२१; ३।२२; ४११६; २२०; ६।१५; ७।२१; ८।१६।६।१८; १०।२३ ; ११:१४; १२।१८; १३।१५; १४:१६; १५।१६; १६।१४; १७।१६; १८।१६; १६।१३; २०११५; २१।२१, २२।१५ भोजन-इच्छा-११४५; २।२२; ३।२३४।१७; ५।२१; ६।१६; ७।२२; ८।१७; ९।१६; १०।२४; ११।१५; १२।१६, १३।१६; १४।१७; १५।१७, १६।१५; १७।२०१८१७१६।१४; २०११६; २१।१३; २२।१६ प्रकोण देवताओं के इन्द्र सहित स्थान -२४१३ देवेन्द्रों की संख्या-३२।२ उडुविमान का आयाम-विष्कंभ-४५॥३ देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना-प्र० १६३ देवों के आयुष्य-बंध के प्रकार-प्र० १७८ देवगति के उपपात का विरह-काल-प्र० १८० देवगति की उद्वर्तना का विरह-काल-प्र० १८२ देवों के आयुष्य के आकर्ष-प्र० १८५ १४. द्रव्यवाद आत्मा-अनात्मा-११४,५ लोक-अलोक -१।१०,११ राशिद्वय-२।२,७११३५-१३८ अस्तिकाय-५८ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनिकाय--६।२ जीवों के समूह--१४।१ पुद्गल परिमाण के प्रकार -- २२।६ १५. द्रह पद्मद्रह और पुंडरीकद्रह की लम्बाई-प्र०६४ महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह की लम्बाई-प्र०६७ तिगिछद्रह और केसरीद्रह की लम्बाई-प्र० ६६ १६. नन्दनवन नन्दनवन से सौगंधिक कांड का अन्तर-८५४ नन्दनवन से पाण्डुवन का अन्तर-६८१ नन्दनवन के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त-६६।१,२ नन्दनवन के दक्षिणी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त-६६१,२ नन्दनवन के कूटों की ऊंचाई आदि-प्र० २६ बलकूट पर्वतों की ऊंचाई आदि-प्र०६० १७. नरक तथा नैरयिक पहली पृथ्वी स्थिति-१।२६,३०; २।८; ३३१३,४१०।५।१४६।६७१२; ८.१०, ६।१२; १०६,१०; १११८,१२।१२; १३१६; १४।८; १५।१०।१६।८% १७१११,१८१६; १९१६ २०१८; २१।५; २२१७; २३।५; २४१७; २५।१०; २६॥३; २७१७; २८१७; २६।१०; ३०183; ३११६; ३२१७,३३१५ रत्नप्रभा और चारणमुनि-१७१६ रत्नप्रभा के नरकावास-३०।८; ३४।६; ४१।२; ४३।२, ५५।५; ५८।१;७४।४ सीमंतक नरक का आयाम-विष्कंभ-४५२ रत्नप्रभा के अप्कायबहुल कांड की मोटाई-८०५ रत्नप्रभा के पंकबहुल कांड के ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अंतर–८४।१० रत्नप्रभा के अंजनकांड के नीचे के चरमान्त से वानमंतरों के भौमेय-विहारों के ऊपर के चरमान्त का व्यवधानात्मक अंतर--९६७ रत्नप्रभा के प्रथम कांड से वानमंतरों के भौमेय विहारों की दूरी-प्र० ४४ रत्नप्रभा से ऊपर के तारागण की दूरी-प्र० ५२ रत्नप्रभा के वनकांड के ऊपर के चरमान्त से लोहिताक्षकांड के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अंतर-प्र०६८ रत्नप्रभा के रत्नकांड से पुलककांड का व्यवधानात्मक अन्तरप्र०७२ रत्नप्रभा के नरकावास और उनका क्षेत्र-प्र० १४१ रत्नप्रभा के नैरयिकों के उपपात और उद्वर्तन का विरह-काल प्र० १८३ दूसरी पृथ्वी स्थिति -१॥३१२६; ३३१४ नरकावासों की संख्या-२५४३६३६॥३,५५१५, ५९।१; ७४।४ दूसरी पृथ्वी से दूसरे धनोदधि का अन्तर--८६।३ तीसरी पृथ्वी स्थिति–३।१५; ४।११; ५।१५; ६।१०;७।१३ नरकावासों की संख्या-७४।४ चौथी पृथ्वी स्थिति-७।१४; ८।११।६।१३,१०१११,१२ नरकावासों की संख्या-३५।६; ३६।३; ४१।२; ४३।२ पांचवीं पृथ्वी स्थिति-६।१३; १११६; १३१०; १४।१०; १५।११; १६३६; १७.१२ धूमप्रभा की मोटाई-१८७ नरकावासों की संख्या-३४१६; ३६।३ ; ४३१२; ५८।१; ७४१४ छठी पृथ्वी स्थिति–१७१३; १८।१०; १९७; २०।६; २१।६; २२१८ नरकावासों की संख्या-३४१६, ३६।३; ४१।२; ७४१४ छठी पृथ्वी से घनोदधि का अन्तर --७६।३ सातवी पृथ्वी स्थिति-२२६; २३६; २४१८; २०११; २६।४; २७८ २८1८२६।११, ३०।१०, ३११७, ३२१८, ३३१६ नरकावासों की संख्या-३४१६,३६३,४११२,७४१४ अप्रतिष्ठान नरक का आयाम-विष्कंभ-११२३ नरकावास और उनका क्षेत्र-प्र० १४३ प्रकीर्ण नरकावासों की संख्या-८४११; प्र० १४२ नरयिकों के प्रकार-प्र० १४० नरकावासों का क्षेत्र और बाहल्य-प्र० १४२ नैरयिकों की स्थिति-प्र० १५३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९] अपर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति-प्र० १५४ पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति–प्र० १५५ नैरयिकों की वेदना-प्र० १७३ नैरयिकों का आहार-प्र० १७५ नैरयिकों का आयुष्य-बंध-प्र० १७७ नरकगति के उपपात और उद्वर्तना का विरह-काल-प्र० १७६, १८२ नैरयिक के आयुष्य के आकर्ष-प्र० १८४, १८५ नैरयिकों का संहनन-प्र० १८७ नैरयिकों का संस्थान-प्र० १६७ नैरयिकों का वेद-प्र० २१० १८. पर्वत वर्षधर वर्षधर पर्वतों की संख्या-७४ क्षुल्ल हिमवान् और शिखरी की जीवा की लम्बाई-२४१२ महाहिमवान् और रुक्मी की जीवा की लम्बाई-५३।२ महाहिमवान् और रुक्मी की जीवा की धनुःपृष्ठ की परिधि५७।५ महाहिमवान् और सौगन्धिक कांड-८२।३ रुक्मी आर सौगंधिक कांड-८२४ महाहिमवान और रुक्मी से सौगंधिक कांड-८७६,७ निषध और नीलवान् की जीवा की लम्बाई--९४१ क्षुल्ल हिमवान् और शिखरी की ऊंचाई-१००।७ महाहिमवान् और रुक्मी की ऊंचाई तथा गहराई ---प्र० ५ निषध और नीलवान् की ऊंचाई तथा गहराई-प्र०१७ सभी वर्षधर पर्वतों की ऊंचाई और चौड़ाई-प्र०२४ निषध से रत्नप्रभा पृथ्वी-प्र० ५३ नीलवान् से रत्नप्रभा पृथ्वी-प्र०५४ क्षुलहिमवत्कूट से क्षुल्ल हिमवान् पर्वत-प्र० ३२, ४१ शिखरीकूट से शिखरी पर्वत-प्र० ३३, ४२ निषधकूट से निषध पर्वत–प्र० ४६ नीलवत्कूट से नीलवान् पर्वत-प्र० ५० हरिकूट की ऊंचाई-प्र० ५६ मन्दर मूल की चौड़ाई- १०३ धरणीतल से शिखर तक की चौड़ाई-१११७ चूलिका के मूलभाग की चौड़ाई-१।६ विभिन्न नाम-१६।३ पृथ्वीतल पर परिधि-३१।२ दूसरे कांड की ऊंचाई-३८३ चूलिका की ऊंचाई-४०१२ मन्दर का चारों दिशाओं का व्यवधानात्मक अन्तर---४५।६ मन्दर से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित द्वारों का व्यवधानात्मक अन्तर–५५।२,३ प्रथम कांड की ऊंचाई-६१।२ गौतम द्वीप का व्यवधानात्मक अन्तर-६७।३; ६६।२ बाहर के मन्दर पर्वतों की ऊंचाई-८४१७ आवास-पर्वतों का व्यवधानात्मक अन्तर-८७१-४;८८।३-६; ६२।३,४,६७१,२६८२,३ नाभिरूप रुचक प्रदेशों से चारों दिशाओं में मन्दर का व्यवधानात्मक अंतर-प्र०७० धरणीतल पर मन्दर की चौड़ाई-प्र०७५ आवास-पर्वत वेलंधर और अनुवेलंधर नागराजाओं के आवास-पर्वतों की ऊंचाई-१७४ जम्बूद्वीप से व्यवधानात्मक अन्तर--४२।२,३,४३।३,४ दोघंवैताढ्य ऊंचाई और गहराई–२५॥३ जम्बूद्वीप के दीर्घवैताढ्यों की संख्या-३४।३ मूल की चौड़ाई--५०१४ तमिस्रगुफाओं तथा खंडप्रपातगुफाओं की लम्बाई-५०१६ ऊंचाई-१००६ वृत्तवैताढ्य वृत्तवैताढ्य पर्वतों से सौगन्धिक कांड-६०५ परिमाण और संस्थान--प्र० ५८ दषिमुख आकार, चौड़ाई और ऊंचाई-६४।४ अञ्जन ऊंचाई-४८ मंडलिक रुचक मंडलिक पर्वत का पूर्ण परिमाण-८५३ उत्पात चमर के तिगिछिकूट उत्पात पर्वत की ऊंचाई-१७१७ बलि के रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत की ऊंचाई-१७८ काञ्चनक शिखरतल पर चौड़ाई-५०७ ऊंचाई, गहराई और मूल में चौड़ाई-१००८ जम्बद्वीप के काञ्चनक पर्वतों की संख्या-प्र०६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] मानुषोत्तर ऊंचाई–१७१३ वक्षस्कार वक्षस्कार पर्वतों की निषध और नीलवान वर्षधरों के पास की ऊंचाई और गहराई-प्र०१८ सीता, सीतोदा और मंदर के पास उनकी ऊंचाई और गहराईप्र०२३ सौमनस आदि वक्षस्कार पर्वतों का वर्णन-प्र० २७ वक्षस्कार पर्वतों के कूट-प्र० २८ चित्रकूट और विचित्रकूट की ऊंचाई आदि-प्र० ५७ हरिस्सहकूट की ऊंचाई आदि-प्र०५६ यमक पर्वत यमक पर्वतों की ऊंचाई आदि-प्र० ५६ १६. भवसिद्धिक जीवों का परिनिर्वाण परिनिर्वाण-११४६; २।२३; ३२४,४।१८,५।२२, ६।१७; ७।२३,८११८६।२०, १०।२५; ११३१६; १२।२०; १३।१७; १४।१८; १५१८; १६।१६; १७।२१; १८.१८; १९।१५; २०१७; २१।१४; २२।१७; २३।१३, २४।१५; २०१८; २६।११; २७११६; २८।१५; २६।१८,३०११६, ३१।१४ २०. मनुष्य असंख्य वर्षों की आयु वाले गर्भज संज्ञी मनुष्यों की स्थिति११३६; २०१३ मनुष्यों के प्रयोगों के प्रकार-१५९ मनुष्यों के आवास-प्र० १४७ मनुष्य गति के उपपात और उद्वर्तना का विरह-काल-प्र० । १८०,१८२ मनुष्यों के आयुष्य के आकर्ष-प्र० १८५ सम्मूच्छिम मनुष्यों का संहनन-प्र० १६३ गर्भावक्रान्तिक मनुष्यों का संहनन-प्र० १६४ सम्मूच्छिम मनुष्यों का संस्थान-प्र० २०ण गर्भावक्रान्तिक मनुष्यों का संस्थान-प्र० २०७ सम्मूच्छिम मनुष्यों का वेद-प्र० २१२ गर्भावक्रान्तिक मनुष्यों का वेद-प्र० २१३ ईषत्प्राग्भारा प्रथ्वी के नाम-१२।११ सिद्धि के आदि-गुण-३११ ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का आयाम-विष्कभ-४५०४ चरम-शरीरी जीवों के जीव-प्रदेशों की अवगाहना-प्र० १३ सिद्धिगति का विरह-काल-प्र० १८१ २३. राजर्षि अंगवंश के प्रवृजित राजे-७७१२ २४. लेश्या लेश्या के प्रकार-६१ २५. शरीर शरीर के प्रकार-प्र० १५८ औदारिक शरीर के प्रकार और अवगाहना-प्र० १५६-१६१ वैक्रिय शरीर के प्रकार और अवगाहना-प्र० १६२,६३ आहारक शरीर के प्रकार, संस्थान और अवगाहना-प्र० १६४ १६६ तैजस और कार्मण शरीर के प्रकार आदि-आदि-प्र० १६७,१६९ १७१ २६. संघ-व्यवस्था संभोग सामुदायिक व्यवहार-१२।२ कृतिकर्म के आवर्त-१२॥३ २७. समवाय का उत्क्षेप समवाय का उत्क्षेप-११,३ २८. समवाय का निक्षेप समवाय का निक्षेप-प्र० २६१ २६. समुद्घात छाद्मस्थिक समुद्घात के प्रकार-६०५ समुद्घात के प्रकार-२ ३०. समुद्र और नदियां जम्बूद्वीप की चौदह नदियां-१४।८ लवणसमुद्र में उत्सेध और परिवृद्धि-१६७ लवणसमुद्र की सम्पूर्ण ऊंचाई–१७५ घनसमुद्रों की मोटाई-२०१३ गंगा और सिन्धू का प्रवाह के स्थान पर विस्तार-२४१५ रक्ता और रक्तवती का प्रवाह के स्थान पर विस्तार-२४१६ गंगा और सिन्धू का प्रपात-२५७ रक्ता और रक्तवती का प्रपात-२५८ २१. मृत्यु मरण के प्रकार-१७६ २२. मोक्ष मोक्ष-११७ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] कालोद समुद्र में चन्द्र सूर्य--४२।४ लवणसमुद्र की आभ्यन्त र वेला के धारक-४२१७ महापातालकलशों का व्यवधानात्मक अन्तर-५२।२, ३; ५७१२,३; ५८।३,४ लवणसमुद्र के अग्रोदक के धारक-६०२ लवणसमुद्र के बाह्यवेला के धारक-७२१२ शीतोदा और शीता नदी-७४।२,३ पातालकलश और शीता नदी-७६।१,२ कालोद समुद्र का परिक्षेप-६१।२ लवणसमुद्र में एक-एक प्रदेश की हानि–६५।३ लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ-प्र०७७ लवणसमुद्र के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का अन्तरप्र०८० सत्य-वचन के अतिशय-३५१ वैयावृत्त्य कर्म की प्रतिमाएं-६१११ प्रतिमाएं-६२।१ ३२. साधना के विघ्न दंड-१।६२।१३।१ अधर्म-१।१३ पुण्य-१।१४ पाप-१।१४ बंधन-१।१६; २।३ आस्रव-१।१८५४ शल्य-३३ गौरव-३४ कषाय-४११६।२ विकथा-४३ संज्ञा–४।४ कामगुण-५२३ भय के स्थान-७१ मद के स्थान-८१ ब्रह्मचर्य की अगुप्तियां-२ असंयम के प्रकार-१७१ असमाधि स्थान-२०११ सबल-२१११ आशातनाएं-३३३१ ३१. साधना ३३. सूर्य, चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र अदंड-१७ अक्रिया–११६ धर्म-१२१२ संवर–१२१६; २५ वेदना-१२० निर्जरा-१२२१२६ गुप्तियां-३२ ध्यान-४२ महाव्रत-श२ समितियां-५७ बाह्य तपःकर्म-६३ आभ्यन्तर तपःकर्म-६४ प्रवचनमाता-८२ ब्रह्मचर्य की गुप्तियां-१ श्रमण-धर्म-१०१ चित्त समाधि के स्थान-१०।२ उपासक प्रतिमाएं-११११ भिक्षु प्रतिमाएं-१२।१,६४।१८१।११००१ जीवस्थान (गुणस्थान)--१४१५ संयम के प्रकार-१७२ ब्रह्मचर्य के प्रकार-१८१ आचार के अठारह स्थान-१८।४ परीषह-२२११ पंचयाम की पचीस भावनाएं-२५२ मुनि के गुण-२७११ योग-संग्रह-३२१ सूर्यमंडल का परिमाण--१३।८ जम्बूद्वीप के सूर्यों का तपन-क्षेत्र-१६-२ सूर्य का बाह्यमंडल में उपसंक्रमण-३१।३ सूर्य की अन्तर्वर्ती तीसरे मंडल में गति-३३१४ कालोद समुद्र में चन्द्र-सूर्य-४२।२ सूर्य का आभ्यन्तरमंडल से उपसंक्रमण-४७११ सूर्य के मंडलों का निष्पन्न-काल-६०११ सूर्यमंडल का समांश-६११४ सूर्यमंडलों की संख्या-६५१ आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध के चन्द्र-सूर्य-७२।५ उत्तरायण से निवृत्त सूर्य का रात्रि-दिवस पर प्रभाव-७८।३ दक्षिणायन से निवृत्त सूर्य का रात्रि-दिवस पर प्रभाव-७८।४ उत्तर दिशा के सूर्य का प्रथम उदय-८०१७ सूर्य के मंडलों का परिमाण-८२।१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य का परिवार - ८८१ सूर्य का अहोरात्र को विषम करना - ६३1३ प्रथम सूर्यमंडल का आयाम - विष्कंभ - ६६१४ द्वितीय सूर्यमंडल का आयाम - विष्कंभ – ६६५ तृतीय सूर्यमंडल का आयाम - विष्कंभ -- ६६/६ सूर्य की गति का क्षेत्र - प्र० ४६ चन्द्र चन्द्रमंडल का समांश- ६०१३ शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष के चन्द्र की वृद्धि हानिचन्द्र का परिवार – ८८ १ ग्रह-नक्षत्र आर्द्रा चित्रा स्वाति पूर्व फल्गुनी उत्तरफल्गुनी पूर्वभाद्रपद उत्तरभाद्रपद मृगशीर्ष पुष्य ज्येष्ठा अभिजित् श्रवण अश्विनी भरणी अनुराधा पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा रोहिणी नक्षत्र का तारा - परिमाण - ११२६ - १।२७ - ११२८ —२२४ —२२५ -२२६ 31 " 31 13 " 17 11 27 " 32 " " 21 21 " 11 12 11 " 31 71 "} 17 33 12 " 77 33 " 11 न-६२/३ 13 -२/७ --३।६ -३१७ -315 --३२६ -३।१० -३।११ -३।१२ - ४१७ -815 - ४१६ -५३६ [ ३२ ] पुनर्वसु हस्त विशाखा धनिष्ठा 33 31 31 कृत्तिका अश्लेषा मघा पूर्वद्वारिक नक्षत्र– ७१८ दक्षिणद्वारिक नक्षत्र - ७१६ पश्चिमद्वारिक नक्षत्र - ७११० 23 37 "1 " 32 "1 27 " 11 -५३१० -५॥११ -५॥१२ -५॥१३ -६१७ -६८ -9/9 उत्तरद्वारिक नक्षत्र – ७१११ चन्द्रमा के साथ प्रमर्द-योग करने वाले नक्षत्र ८१ अभिजित नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग काल - ६१५ चन्द्र के साथ उत्तर दिशा से योग करने वाले नक्षत्र - ६१६ उपरितन तारागणों का भ्रमण क्षेत्र - ६/७ ज्ञानवृद्धि करने वाले नक्षत्र - १०१७ लोकान्त और ज्योतिष - चक्र के पर्यन्तों का अन्तर - १११२ ज्योतिष चक्र के परिभ्रमण का क्षेत्र - ११।३ मूल नक्षत्र का तारा- परिमाण – ११।५ ध्रुवराहु से चन्द्र का आवरण - १५५३, ४ चन्द्र के साथ पन्द्रह मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्र - १५ ५ शुक्र का उदय अस्त - १९/३ जम्बूद्वीप में व्यवहृत नक्षत्र - २७/२ रेवति नक्षत्र का तारा - परिमाण -- ३२।५ हर्द्धक्षेत्र के नक्षत्रो का चन्द्र के साथ योग-काल- ४५-७ चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्र - ५६।१ नक्षत्रों का सीमा - विष्कंभ - ६७१४ उन्नीस नक्षत्रों का तारा- परिमाण -६६/७ शतभिषग का तारा - परिमाण - १००१२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ पढमो समवाश्रो : पहला समवाय मूल संस्कृत छाया १. सुयं मे आउ ! तेगं भगवया श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् -- एवमक्खाय २. इह खलु समणेण भगवया महा वीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं मयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपोंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपज्जो - यगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदणं धम्मदेसणं धम्मनायगेणं चक्कवट्टिणा अप्पsिहयवरणाण - दंसणधरेण वियदृच्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिष्णेणं तारएणं बुद्धेणं बोते मोगेणं सव्वण्णुणा सव्वदरिसिणा सिवमय लमरुय मणंत मक्खयमव्वाबाहमपुण रावत्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउ कामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते, तं जहा - आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विवा ( आ ) हप - orat नाधम्मकहाओ उवासंग - साओ अंतगड साओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पहावागरणाई विवागसुए दिट्टिवाए । इह खलु श्रमणेन भगवता महावीरेण आदिकरेण तीर्थकरेण स्वयंसम्बुद्धेन पुरुषोत्तमेन पुरुषसिंहेन पुरुषवरपुण्डरीकेण पुरुषवरगन्धहस्तिना लोकोत्तमेन लोकनाथेन लोकहितेन लोकप्रदीपेन लोकप्रद्योतकरेण अभयदयेन चक्षुर्दयेन मार्गदयेन शरणदयेन जीवदयेन धर्मदयेन धर्मदेशकेन धर्मनायकेन धर्मसारथिना धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिना अप्रतिहतधम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंत वरज्ञानदर्शनधरेण व्यावृत्तच्छद्मना जिनेन ज्ञापकेन तीर्णेन तारकेण बुद्धेन बोधकेन मुक्तेन मोचकेन सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावर्त्तकं सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकामेन इदं द्वादशाङ्ग गणिपिटकं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-- आचार: सूत्रकृतम् स्थानम् समवायः विवाह( व्याख्या ? ) प्रज्ञप्तिः ज्ञातधर्मकथाः उपासकदशा: अन्तकृतदशाः अनुत्तरोपपातिकदशाः प्रश्नव्याकरणानि विपाकश्रतम् दृष्टिवादः । हिन्दी अनुवाद १. आयुष्मन् ! मैंने सुना है, भगवान् ने ऐसा कहा है २. आदिकर (श्रुत-धर्म-प्रणायक ), तीर्थंकर, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवरपुंडरीक, पुरुषवरगंधहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, धर्मदाता, धर्मदेशक, धर्मनायक, धर्मसारथि, धर्म वरचातुरन्तचक्रवर्ती, अप्रतिहत ज्ञान- दर्शनधर, व्यावृत्तछद्म ( निरावरण), जिन ( ज्ञाता ) और ज्ञापक, तीर्ण और तारक, बुद्ध और बोधक, मुक्त और मोचक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव- अचल - अरुज - अनन्तअक्षय-अव्याबाध-अपुनरावर्त्तक सिद्धिगति नामक स्थान की संप्राप्ति में क्षम श्रमण भगवान् महावीर ने इस द्वादशांग गणिपिटक की प्रज्ञापना की - १. आचार, २. सूत्रकृत, ३ स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथा, ७. उपासकदशा, 5. अन्तकृतदशा, ६. अनुत्तरोपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकश्रुत, १२. दृष्टिवाद | Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो समवाय १: सू० ३-२९ ३. तत्थ णं जेसे चउत्थे अंगे समवाए- तत्र यत्तच्चतुर्थमङ्ग समवाय इत्याख्या- ३. इनमें चौथा अंग समवाय कहा गया है, त्ति आहिते, तस्स णं अयमझें, तं तम्, तस्य अयमर्थः, तद्यथा--- उसका यह अर्थ है, जैसे--- जहा४. एगे आया। एक आत्मा। ४. आत्मा एक है। ५. एगे अणाया। एकोऽनात्मा। ५. अनात्मा एक है। ६. एगे दंडे । एको दण्डः। ६. दण्ड (दुष्प्रयोग अथवा हिंसा) एक है। ७. एगे अदंडे। एकोऽदण्डः। ७. अदण्ड एक है। ८. एगा किरिआ। एका क्रिया। ८. क्रिया (आस्तिकता) एक है। ९. एगा अकिरिआ। एकाऽक्रिया । ६. अक्रिया (नास्तिकता) एक है। १०. एगे लोए। एको लोकः । १०. लोक एक है। ११. एगे अलोए। एकोऽलोकः । ११. अलोक एक है। १२. एगे धम्मे। एको धर्मः । १२. धर्मास्तिकाय एक है। १३. एगे अधम्मे। एकोऽधर्मः। १३. अधर्मास्तिकाय एक है। १४. एगे पुण्णे। एक पुण्यम् । १४. पुण्य एक है। १५. एगे पावे। एक पापम् । १५. पाप एक है। १६. एगे बंधे। एको बन्धः । १६. बन्ध एक है। १७. एगे मोक्खे। एको मोक्षः । १७. मोक्ष एक है। १८. एगे आसवे। एक आश्रवः। १८. आस्रव एक है। १६. एगे संवरे। एक: संवरः । १६. संवर एक है। २०. एगा वेयणा। एका वेदना। २०. वेदना एक है। २१. एगा णिज्जरा एका निर्जरा। २१. निर्जरा एक है। २२. जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं जम्बूद्वीपो द्वीप एक योजनशतसहस्रं २२. जम्बूद्वीप द्वीप का आयाम-विष्कंभ आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः। (लम्बाई-चौड़ाई) एक लाख योजन है। २३. अप्पडदाणे नरए एग जोयणसय- अप्रतिष्ठानो नरक एक योजनशतसहस्रं २३. अप्रतिष्ठान नरक का आयाम-विष्कंभ सहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । एक लाख योजन है। २४. पालए जाणविमाणे एगंजोयणसय- पालकं यानविमानं एक योजनशतसहस्रं २४. पालक यान-विमान का आयाम-विष्कभ सहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तम । एक लाख योजन है। २५. सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे एगं सर्वार्थ सिद्धं महाविमानं एक योजनशत- २५. सर्वार्थसिद्ध महा-विमान का आयाम जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं सहस्रं आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तम् । विष्कंभ एक लाख योजन है। पण्णत्ते। २६. अद्दानक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते। आनिक्षत्रं एकतारं प्रज्ञप्तम्। २६. आर्द्रा नक्षत्र का तारा एक है। २७. चित्तानक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते।। चित्रानक्षत्रं एकतारं प्रज्ञप्तम् । २७. चित्रा नक्षत्र का तारा एक है। २८. सातिनक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते। स्वातिनक्षत्रं एकतारं प्रज्ञप्तम् । २८. स्वाति नक्षत्र का तारा एक है । २६. इमीसे णं रयणप्पभाए पूढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां २६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगं नैरयिकाणां एक पल्योपमं स्थितिः की स्थिति एक पल्योपम की है। पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३०. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं एवं सागरोमंठई पण्णत्ता । ३१. दोच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं जहन्नेणं एवं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ३२. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । ३३. असुरकुमाराणं देवाणं उक्कोसेणं एवं साहियं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ३४. असुरकुमारिदवज्जियाणं भोमि ज्जाणं देवाणं अत्थेगइयाणं एवं पओिवमं ठिई पण्णत्ता । ३५. असंखेज्जवासाउयसष्णिपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगइयाणं एवं पलिओ मं ठिई पण्णत्ता । ३६. असंखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियसणिमणुयाणं अत्थेगइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । ३७. वाणमंतराणं देवाणं उक्कोसेणं एवं पलिओवj ठिई पण्णत्ता । ३८. जोइसियाणं देवाणं उक्कोसेणं एवं पलिओवमं वासस्यसहस्समम्भहियं ठिई पण्णत्ता । ४०. सोहम्मे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं एवं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ४१. ईसाणे कप्पे देवाणं जहणणेणं साइरेगं एवं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । ४२. ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं एवं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता । ३ अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणामुत्कर्षेण एकं सागरोपमं स्थिति: प्रज्ञप्ता । द्वितीयायां पृथिव्यां नैरयिकाणां जघन्येन एकं सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां एक पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानामुत्कर्षेण एकं साधिकं सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमारेन्द्रवजितानां भौमेयानां देवानां अस्ति एकेषां एकं पत्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । असंख्येयवर्षायुः संज्ञिपञ्चेन्द्रिय तिर्यग् योनिकानां अस्ति एकेषां एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । असंख्येयवर्षायुर्गर्भावक्रान्तिकसंज्ञिमनुजानां अस्ति एकेषां एक पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । ज्योतिष्काणां देवानामुत्कर्षेण एकं पल्योपमं वर्षशतसहस्रमभ्यधिकं स्थितिः प्रज्ञप्ता । समवाय १ सू० ३०-४२ ३०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है। ईशाने कल्पे देवानां जघन्येन सातिरेकं एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । ३१. दूसरी पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति एक सागरोपम की है। ३२. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति एक पत्योपम की है । ३३. असुरकुमार देवों की उत्कृष्ट स्थ साधिक एक सागरोपम की है। ३४. असुरकुमारेन्द्र को छोड़कर कुछ भौमेय ( भवनवासी) देवों की स्थिति एक पल्योपम की है । वानमन्तराणां देवानामुत्कर्षेण एकं ३७. व्यंतर देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । पल्योपम की है । ३६. सोहम्मे कप्पे देवाणं जहन्नेणं एवं सौधर्मे कल्पे देवानां जघन्येन एकं ३६. सौधमकल्प के देवों की जघन्य स्थिति पओिवमं ठिई पण्णत्ता । पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । एक पल्योपम की है । सौधर्मे कल्पे देवानां अस्ति एकेषां एकं ४०. सौधर्मकल्प के कुछ देवों की स्थिति सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । एक सागरोपम की है । ३५. असंख्य वर्षों की आयु वाले कुछ संज्ञी - पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकजीवों की स्थिति एक पल्योपम की है। ३६. असंख्य वर्षों की आयु वाले 'कुछ गर्भजसंज्ञी मनुष्यों की स्थिति एक पल्योपम की है। ३८. ज्योतिषिक देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम है । ४१. ईशानकल्प के देवों की जघन्य स्थिति साधिक एक पल्योपम की है । ईशाने कल्पे देवानां अस्ति एकेषां एक ४२. ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति एक सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । सागरोपम की है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय १ : सू० ४३-४६ ४३. जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं ये देवाः सागरं सुसागरं सागरकान्तं ४३. सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव, भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं भवं मनु मानुषोत्तरं लोकहितं विमानं मनु, मानुसोत्तर और लोकहित विमानों विमाणं देवत्ताए उबवण्णा, तेसि देवत्वेन उपपन्ना:, तेषां देवानामुत्कर्षण में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों णं देवाणं उक्कोसेणं एगं एक सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता। की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की सागरोवमं ठिई पण्णत्ता। ४४. ते णं वा एगस्स अद्धमासस्स ते देवा एकस्यार्द्धमासस्य आनन्ति वा ४४. वे देव एक पक्ष से आन, प्राण, उच्छ आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वास और निःश्वास लेते हैं।' ऊससंति वा नीससंति वा। वा। ४५. तेसि णं देवाणं एगस्स वाससह- तेषां देवानामेकस्य वर्षसहस्रस्य आहा- ४५. उन देवों के एक हजार वर्ष से भोजन स्सस्स आहारठे समुपज्जइ। रार्थः समुत्पद्यते। करने की इच्छा उत्पन्न होती है। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये एकेन ४६. कुछ भवसिद्धिक जीव' एक बार जन्म एणं भवग्गहणणं सिज्झिस्संति भवग्रहणेन सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिबज्झिस्संति मुच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- निर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करिस्संति। करेंगे। टिप्पण १. आत्मा एक है (एगे आया) आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन अनेक नयों से किया गया है । आत्मा के अनेक प्रदेश (अवयव ) होते हैं, फिर भी द्रव्यत्व की दृष्टि से वह एक है। आत्मा का प्रतिक्षण पर्याय-परिवर्तन होता है, फिर भी कालत्रयानुगामी चैतन्य की उपेक्षा से वह एक है। प्रत्येक आत्मा में पृथक् चैतन्य होता है, फिर भी संग्रहनय की दृष्टि से आत्मा एक है। इस प्रकार अनेक नयों से आत्मा का एकत्व विवक्षित है। शेष सतरह सूत्रों में भी इसी प्रकार नय-दृष्टि की योजना की जा सकती है। विशेष विवरण के लिए देखें :--ठाणं, १/२ का टिप्पण, पृष्ठ १८, १६ । २. वेदना एक है (एगा वेयणा) वेदना-उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म-पुद्गलों का अनुभव करना। पहले कर्म-पुद्गलों की वेदना होती है फिर निर्जरा कर्म-पुद्गलों का आत्मा से विलगाव। ३. सूत्र ४-२१ इन सूत्रों में एक-एक तत्त्व का कथन है। इसी प्रकार का प्रतिपादन स्थानांग सूत्र १/२-१६ में हुआ है । समवाओ में अणाया, अदंडे, और अकिरिया-ये तीन शब्द अधिक हैं। इन सबके विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं, पृष्ठ १६, २० । ४. सूत्र ४४. ४५ देवताओं का उच्छवास-निःश्वास और भोजन उनकी आयुष्य के कालमान के आधार पर निर्धारित होता है। प्राचीन गाथा में कहा गया है'जस्स जइ सागरोवमाइं ठिई, तस्स तत्तिएहि तत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो तत्तिएहि पक्खेहिं ।' जिसकी जितने सागरोपम की आयुष्य-स्थिति होती है, उसके एक सागरोपम आयुष्य-स्थिति का एक पक्ष- इस अनुपात से श्वासोच्छवास की क्रिया होती है, और एक सागरोपम का एक हजार वर्ष- इस अनुपात से आहार का कालमान होता है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ५ समवाय १ : टिप्पण जैसे, जिसकी आयु: स्थिति एक सागरोपम की है, वह एक पक्ष से आन, पान, उच्छवास, निःश्वास लेगा और उसमें एक हजार वर्ष से भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होगी । ' ५. भवसिद्धिक (भवसिद्धिया) जिनकी सिद्धि होने वाली होती है, वे जीव भवसिद्धिक कहलाते हैं । तात्पर्यार्थ में यह शब्द भव्य का वाचक है। मनुष्य का भव ही मुक्ति का उपादान कारण है, इसलिए यहां इस शब्द से मनुष्य अभिप्रेत है । सिद्धि के अनेक अर्थ हैं । उसका एक अर्थ है-मुक्ति, और दूसरा अर्थ है- आठ प्रकार की महान् ऋद्धियों की प्राप्ति । वे आठ प्रकार ये हैं- लधिमा, वशिता, ईशित्व, प्राकाम्य, महिमा, अणिमा, यत्रकामावसायित्व और प्राप्ति । ६. सूत्र ४६ : प्रस्तुत सूत्र में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत – ये चार शब्द हैं। ये एकार्थक होने पर भी इनका वाच्यार्थं भिन्न-भिन्न हैसिद्ध ऋद्धियों की प्राप्ति । बुद्ध — केवलज्ञान की प्राप्ति । मुक्त—कर्मबंधन से मुक्त | परिनिर्वृत-कर्म कृत विकारों से वियुक्त होने के कारण परम शांत ।' १. समवायांगवृत्ति पत्र ६,७ : स्थित्यनुसारेण च देवानामुछ्वासादयो भवन्तीति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ७ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. दो दंडा पण्णत्ता, तं जहाअदंडे चेव, अट्ठादंडे चेव । २. दुवे रासी पण्णत्ता तं जहा - जीवरासी चेव, अजीवरासी चेव । ३. दुविहे बंधणे पण्णत्ते, तं जहा - रागबंधणे चेव, दोसबंधणे चेव । दुतारे ४. पुव्वा फग्गुणीनक्खत्ते पण्णत्ते । ५. उत्तराफग्गुणीनक्खत्ते पण्णत्ते । ६. पुव्वाभद्दवयानक्खत्ते पण्णत्ते । ७. उत्तराभद्द्वयानक्खत्ते पण्णत्ते । ८. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ६. दुच्चाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १०. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । २ बी समवा : दूसरा समवाय संस्कृत छाया द्वौ दण्डौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथाअर्थदण्डश्चैव, अनर्थदण्डश्चैव । द्वौ राशी प्रज्ञप्तौ, तद्यथा-जीवरा शिश्चैव, अजीवराशिश्चैव । दुतारे उत्तरफल्गुनी नक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम् । दुतारे पूर्व भद्रपदानक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम् । दुतारे उत्तरभद्रपद नक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम् । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां द्वे पत्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । द्विविधं बन्धनं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - रागबन्धनं चैव दोषबन्धनं चैव । पूर्व फल्गुनी नक्षत्रं द्वितारं प्रज्ञप्तम् । द्वितीयस्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां द्वे सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । हिन्दी अनुवाद १. दण्ड' के दो प्रकार हैं, जैसे- अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड | २. राशि के दो प्रकार हैं, जैसे- जीवराशि और अजीवराशि | ३. बन्धन के दो प्रकार हैं, जैसे--रागबन्धन और द्व ष बन्धन | ४. पूर्वफल्गुनी नक्षत्र के दो तारे हैं । ५. उत्तरफल्गुनी नक्षत्र के दो तारे हैं । ६. पूर्व भद्रपदा नक्षत्र के दो तारे हैं । ७. उत्तरभद्रपदा नक्षत्र के दो तारे हैं। ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति दो पल्योपम की है। ६. दूसरी पृथ्वी के कुछ नैरयिको की स्थिति दो सागरोपम की है । असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां द्वे १०. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति दो पत्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । पल्योपम की है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र ११. असुरिदवज्जियाणं भोमिज्जाणं देवाणं उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १२. असंखेज्जवासा उयसण्णिपंचेंदियतिरिक्खजोणिआणं अत्थेगइयाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १३. असं खेज्जवासा उयगन्भवक्कं तियसण मणुस्सा अत्येगइयाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १४. सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १५. ईसाणे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १६. सोहम्मे कप्पे देवाणं उवकोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १७. ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साहियाई दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १८. सणकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १६. माहिदे कप्पे देवाणं जहणेणं साहियाई दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । • जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवण्णं सुभगंधं सुभसं सुभासं सोहम्मवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । २०. २१. तेणं देवा दोहं अद्धमासाणं आण मंति वा पाणमंति वा ऊपसंति वा नोससंति वा । ७ असुरेन्द्रवजतानां भौमेवानां देवानामुत्कर्षेण देशोने द्वे पत्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । असंख्येय वर्षायुः संज्ञि - पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां अस्ति एकेषां द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । असंख्येय वर्षायुर्गर्भावान्तिक - संज्ञिमनुष्याणां अस्ति एकेषां द्वे पत्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । ईशाने कल्पे देवानामुत्कषण साधिके द्वे सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । सौधर्मे कल्पे अस्ति एकेषां देवानां द्वे १४. सौधर्मकल्प के कुछ देवों की स्थिति दो पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । पत्योपम की है । ईशाने कल्पे अस्ति एकेषां देवानां द्वे १५. ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति दो पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । पत्योपम की है । माहेन्द्रे कल्पे देवानां जघन्येन साधिके द्वे सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । समवाय २: सू० ११-२२ १९. असुरेन्द्र को छोड़कर भौमेय ( भवनवासी) देवों की उत्कृष्ट स्थिति देशोन ( कुछ कम ) दो पल्योपम की है। सौधर्मे कल्पे देवानामुत्कर्षेण द्वे १६ सौधर्मकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । दो सागरोपम की है | ये देवाः शुभं शुभकान्तं शुभवर्णं शुभगन्धं शुभलेश्यं शुभस्पर्श सौधर्मावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षेण द्वे सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । १२. असंख्य वर्षों की आयु वाले कुछ संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की स्थिति दो पत्योपम की है । ते देवा द्वयोरर्द्धमासयोः आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । २२. तेसि णं देवाणं दोहि वासस हस्ते हि तेषां देवानां द्वाभ्यां वर्षसहस्राभ्यां आहारट्ठे समुपज्जइ । आहारार्थः समुत्पद्यते । गर्भज आयु वाले कुछ संज्ञी मनुष्यों की स्थिति दो पल्योपम की है। १३. असंख्य वर्षों की सनत्कुमारे कल्पे देवानां जघन्येन द्वे १८. सनत्कुमारकल्प के देवों की जघन्य सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । स्थिति दो सागरोपम की है। १७. ईशानकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक दो सागरोपम की है । १६. माहेन्द्रकल्प के देवों की जघन्य स्थिति साधिक दो सागरोपम की है । २०. शुभ शुभकान्त, शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभलेश्य, शुभस्पर्श और सौधर्मावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है। २१. वे देव दो पक्षों से आन, प्राण, उच्छवास और निःश्वास लेते हैं । २२. उन देवों के दो हजार वर्षों से भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय २ : सू० २३ २३. अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा, सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २३. कुछ भव-सिद्धिक जीव दो बार जन्म जे दोहि भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति द्वाभ्यां भवग्रहणाभ्यां सेत्स्यन्ति ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और बझिस्संति मच्चिस्संति परि- भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। टिप्पण १. दण्ड (दंडा) दंड के दो अर्थ हैं-हिंसा और दुष्प्रवृत्ति । हिंसा के दो प्रकार हैं१. अर्थदंड-अपने प्रयोजन से अथवा दूसरे के प्रयोजन से की जाने वाली हिंसा । २. अनर्थदंड-निष्प्रयोजन की जाने वाली हिसा'। विशेष विवरण के लिए देखें-सूत्रकृतांग, २/२/२ का टिप्पण । २. सूत्र ११ यह उत्तर के नागकुमार भवनवासी देवों की स्थिति के आधार पर कहा गया है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र : प्रर्थन--स्वपरोपकारलक्षणेन प्रयोजनेन दण्डो-हिंसा-अर्थदण्डः एतद् विपरीतोऽनर्थदण्ड इति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ७,८: तथा भसुरेन्द्रजितभवनवासिनां द्वे देशोने पल्योपमे स्थितिरौदीच्यनागकुमारादीनाथित्यावसेया, यत आह- 'दो देसूणुत्तरिल्लाण' ति । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइप्रो समवानो : तीसरा समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. तो दंडा पण्णता, तं जहा- त्रयो दण्डाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मनोदण्डः १. दण्ड' के तीन प्रकार हैं, जैसे-मनदण्ड, मणदंडे वइदंडे कायदंडे । वाग्दण्ड: कायदण्डः। वचनदण्ड और कायदण्ड । २. तओ गुत्तीओ पण्णताओ, तं तिस्रो गुप्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मनो- २. गुप्तियों' के तीन प्रकार हैं, जैसेजहा-मणगुत्ती वइगुत्तो काय- गुप्तिः वाग्गुप्तिः कायगुप्तिः। मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । गुत्ती। ३. तओ सल्ला पण्णता, तं जहा- त्रीणि शल्यानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३. शल्य' के तीन प्रकार हैं, जैसे—माया मायासल्ले णं नियाणसल्ले णं मायाशल्यं निदानशल्यं मिथ्यादर्शन- शल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनमिच्छादसणसल्ले णं। शल्यम्। शल्य। ४. तओ गारवा पण्णत्ता, तं जहा- त्रीणि गौरवाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ४. गौरव के तीन प्रकार हैं, जैसे-ऋद्धि इडीगारवे रसगारवे सायागारवे। ऋद्धिगौरवं रसगौरवं सातगौरवम । गौरव, रसगौरव और सातगौरव । ५. तओ विराहणाओ पण्णत्ताओ, तं तिस्रो विराधना: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ५. विराधना' के तीन प्रकार हैं, जैसे जहा-नाणविराहणा दंसणविरा- ज्ञानविराधना दर्शनविराधना चरित्र- ज्ञानविराधना, दर्शनविराधना और हणा चरितविराहणा। विराधना। चारित्रविराधना। ६. मिगसिरनक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। मृगशिरोनक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम् । ६. मृगशीर्ष नक्षत्र के तीन तारे हैं। ७. पुस्सनक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। पुष्यनक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम् । ७. पुष्य नक्षत्र के तीन तारे हैं। ८. जेट्टानक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। ज्येष्ठानक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम् । ८. ज्येष्ठा नक्षत्र के तीन तारे हैं। ६. अभीइनक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। अभिजिन्नक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम् । ६. अभिजित् नक्षत्र के तीन तारे हैं। १०. सवणनक्खत्ते तितारे पण्णते। श्रवणनक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम्। १०. श्रवण नक्षत्र के तीन तारे हैं। ११. असिणिनक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। अश्विनीनक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम्। ११. अश्विनी नक्षत्र के तीन तारे हैं। १२. भरणीनक्खत्ते तितारे पण्णत्ते। भरणीनक्षत्रं त्रितारं प्रज्ञप्तम । १२. भरणी नक्षत्र के तीन तारे हैं। १३. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां १३. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तिणि नैरयिकाणां त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति तीन पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। 9 , Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ३ : सू० १४-२४ १४. दोच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं द्वितीयस्यां पृथिव्यां नैरयिकाणामुत्कर्षेण १४. दूसरी पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाइं त्रीणि सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति तीन सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। १५. तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं तृतीयस्यां पृथिव्यां नैरयिकाणां जघन्येन १५. तीसरी पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य जहणणं तिणि सागरोवमाइं त्रीणि सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति तीन सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। १६. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति तीन तिण्णि पलिओवमाइं ठिई त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है। पण्णत्ता। १७. असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदिय- असंख्येयवर्षायुःसंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग- १७. असंख्य वर्षों की आयु वाले संज्ञीपंचेद्रिय तिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं योनिकानामुत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि तिर्यग्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तिण्णि पलिओवमाई ठिई स्थितिः प्रज्ञप्ता । तीन पल्योपम की है। पण्णत्ता। १८. असंखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतिय- असंख्येयवर्षायुर्गर्भावक्रान्तिकसंज्ञिमनु- १८. असंख्य वर्षों को आयु वाले गर्भजसंज्ञी सण्णिमणुस्साणं उक्कोसेणं तिण्णि ष्याणामुत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। १६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं तिण्णि पलिओवमाइं देवानां त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति तीन पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । २०. सणंकमारमाहिदेसू कप्पेसु अत्थे- सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोः अस्ति २०. सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के कुछ देवों गइयाणं देवाणं तिण्णि सागरो- एकेषां देवानां त्रीणि सागरोपमाणि की स्थिति तीन सागरोपम की है। वमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। २१.जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकर- ये देवा आभङ्करं प्रभङ्करं आभङ्कर- २१. आभंकर, प्रभंकर, आभंकर-प्रभंकर, पभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं प्रभङ्करं चन्द्रं चन्द्रावत्तं चन्द्रप्रभ चन्द्र- चन्द्र, चन्द्रवर्त्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं कान्तं चन्द्रवर्ण चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रचंदसिंगं चंदसिटुं चंदकूडं चंदुत्तर- चन्द्रशृङ्गं चन्द्रसृष्टं, चन्द्रकूटं चन्द्रोत्तरा- शृंग, चन्द्रसृष्ट, चन्द्रकूट और चन्द्रोवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, वतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां त्तरावतंसक विमानों में देवरूप में तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं तिणि देवानां उत्कर्षेण त्रीणि सागरोपमाणि उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति तीन सागरोपम की है। २२. ते णं देवा तिण्हं अद्धमासाणं ते देवास्त्रयाणामर्द्धमासानां आनन्ति २२. वे देव तीन पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नोससंति वा। निःश्वसन्ति वा। २३. तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिहिं तेषां देवानामुत्कर्षेण त्रिभिः वर्षसहस्रैः २३. उन देवों के तीन हजार वर्षों से भोजन वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्प- आहारार्थः समुत्पद्यते। करने की इच्छा उत्पन्न होती है । ज्जइ। २४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २४. कुछ भव-सिद्धिक जीव तीन बार जन्म तिहि भवग्गहहि सिज्झिस्संति त्रिभिर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और बुझिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सूत्र १ : ___ यहां दंड का अर्थ है -दुष्प्रवृत्ति ।' २. गुप्तियों (गुत्तीओ) गुप्ति का अर्थ है-अशुभ प्रवृति का निरोध और शुभ प्रवृत्ति का प्रवर्तन । गुप्ति में असम्यक् की निवृत्ति और सम्यक् की प्रवृत्ति-दोनों गृहीत हैं। देखें-ठाणं ३/२१ का टिप्पण नं० ११, पृष्ठ २६४ । ३. शल्य (सल्ला) जो चुभता रहता है वह शल्य है। उसके दो प्रकार हैंद्रव्य शल्य-कांटा आदि, भावशल्य-माया आदि। भावशल्य तीन प्रकार का होता हैमायाशल्य-माया का शल्य अर्थात् अतिचार आदि का सेवन करने के पश्चात् उसे माया से छिपाना, उसका प्रायश्चित्त न करना। निदानशल्य-निदान का अर्थ है-दिव्य ऋद्धि को देखकर या सुनकर उसकी प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प करना । मिथ्यादर्शनशल्य-मोहकर्म के उदय से होने वाला मिथ्या दृष्टिकोण । ४. गौरव (गारवा) गौरव का अर्थ है-गुरुता। इसके दो प्रकार हैंद्रव्य गौरव-वज्र आदि की गुरुता। भाव गौरव-अभिमान, लोभ आदि से होने वाली अशुभ भाव की गुरुता। यह कर्म-बंधन का कारण और संसार-परिभ्रमण का हेतु है। भाव गौरव तीन प्रकार का है--- ऋद्धि गौरव-विभिन्न प्रकार की ऋद्धि-पूजा आदि की प्राप्ति से अभिमानग्रस्त होना और अप्राप्त ऋद्धि के लिए निरन्तर चिन्तन करते रहना ऋद्धि गौरव है। रस गौरव - इष्ट वस्तुकी प्राप्ति से अभिमान-ग्रस्त होना, और अप्राप्त के लिए लोभाकुल होना-रस गौरव है। सात गौरव-सात का अर्थ है सुख । प्राप्त सुख का गर्व करना और अप्राप्त की प्राप्ति के लिए निरन्तर अभिलाषा करते रहना। संबंधित कथानकों के लिए देखें-आवश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति भाग २, पृष्ठ ६० । ५. विराधना (विराहणाओ) विराधना का अर्थ है-खंडित करना, भंग करना । प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना का उल्लेख है। ज्ञान-विराधना ज्ञान की विराधना करना, उसमें तुच्छता आपादित करना ज्ञान-विराधना है। उसके पांच प्रकार हैं१. ज्ञान-प्रत्यनीकता--ज्ञान की निंदा करना, जैसे(क) आभिनिबोधिक ज्ञान अशोभन है, क्योंकि उसके द्वारा जाना गया तथ्य कभी यथार्थ होता है और कभी अयथार्थ । (ख) श्रुतज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि श्रुतज्ञान से संपन्न व्यक्ति भी शील-विकल होता है। (ग) अवधिज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि वह अरूपी द्रव्यों को साक्षात् नहीं कर सकता। (घ) मनःपर्यवज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि वह भी एक सीमा में प्रतिबद्ध होता है। (ढ) केवलज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि वह भी निरन्तर नहीं होता, एक समय में केवलज्ञान और एक समय में केवल दर्शन होता है। २. ज्ञान-निन्हवण -ज्ञान का अपलाप करना, गुरु के नाम का अपलाप करना। किसी गुरु से ज्ञान ग्रहण करना और पूछने पर दूसरे का नाम बताना । ३. ज्ञान-अत्याशातना-शास्त्रों की आशातना करना । १. समवायांगवत्ति, पत्न८: दण्ड्यते-चारित्रेश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डा: ---दुष्प्रयुक्तमन :। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ३ : टिप्पण ४. ज्ञान-अन्तराय-ज्ञान में विघ्न उपस्थित करना । ५. ज्ञान-विसंवादनयोग-अकाल में स्वाध्याय आदि का अनुष्ठान कर ज्ञान के विपरीत प्रवृत्ति करना । दर्शन विराधना सम्यग् दर्शन को खंडित करना दर्शन-विराधना है। इसके भी पांच प्रकार हैं१. दर्शन-प्रत्यनीकता–क्षायिक दर्शन का धनी श्रेणिक भी नरक में चला गया। २. दर्शन-निन्हवन-दर्शन की प्रभावना करने वाले शास्त्र का अपलाप करना। ३. दर्शन-अत्याशातना-दर्शन शास्त्रों का तिरस्कार करना । इन शास्त्रों से क्या, जो कलहकारी हैं। ४. दर्शन-अन्तराय-दर्शन में विघ्न उपस्थित करना। ५. दर्शन-विसंवादनयोग-शंका, कांक्षा आदि दोषों के द्वारा दर्शन की विपरीत प्रवृत्ति करना। चारित्र विराधना व्रतों का खंडन चारित्र-विराधना है। पांच चारित्र हैं-सामायिक-चारित्र, छेदोपस्थापनीय-चारित्र, परिहार-विशुद्ध-चारित्र, सूक्ष्मसंपराय-चारित्र और यथाख्यात-चारित्र । इन पांचों में दोषापत्ति करना चारित्र-विराधना है।' ६. सूत्र १७-१८ यह कथन देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र में जन्म ग्रहण करनेवाले असंख्यात वर्ष की आयुष्यवाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों के लिए है। १, आवश्यक, हरिभद्रीया वृत्ति, भाग २, पृ०६॥ २ समवायांगवृत्ति, पत्र : तथा प्रसङ्ख्यातवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां देवकुरूत्तरकुछजन्मनां वीणि पल्योपमानीति । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो समवानो : चौथा समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं चत्वारः कषायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- जहा-कोहकसाए माणकसाए क्रोधकषायः मानकषायः मायाकषायः मायाकसाए लोभकसाए। लोभकषायः। १. कषाय के चार प्रकार हैं, जैसे-क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय और लोभ कषाय। २. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा- चत्वारि ध्यानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- २. ध्यान के चार प्रकार हैं, जैसे-आत अट्टे झाणे रोहे झाणे धम्मे झाणे आर्त ध्यानं रौद्रं ध्यानं धयं ध्यानं ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म्य ध्यान और सुक्के झाणे। शुक्लं ध्यान । शुक्ल ध्यान । ३. चत्तारि विगहाओ पण्णत्ताओ, तं चतस्रो विकथाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- ३. विकथा के चार प्रकार हैं, जैसे-- जहा इत्थिकहा भत्तकहा राय- स्त्रीकथा भक्तकथा राजकथा देशकथा। स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा और कहा देसकहा। देशकथा। ४. चत्तारि सण्णा पण्णत्ता, तं जहा- चतस्रः संज्ञा प्रज्ञप्ताः , तद्यथा--आहार- ४. संज्ञा के चार प्रकार हैं, जैसे-आहार आहारसण्णा भयसण्णा मेहुण- संज्ञा भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा परिग्रहसंज्ञा। संज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसण्णा परिग्गहसण्णा। संज्ञा। ५ चउविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधो बन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ५. बंध के चार प्रकार हैं, जैसे-प्रकृति पगडिबंधे ठिइबंधे अणुभावबंधे प्रकृतिबन्ध: स्थितिवन्धः अनुभावबन्धः बन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध और पएसबंधे। प्रदेशबन्धः । प्रदेशबन्ध । ६. चउगाउए जोयणे पण्णत्ते। चतुर्गव्यूतिकं योजनं प्रज्ञप्तम् । ६. चार गाउ का एक योजन होता है। ७. अणुराहानक्खत्ते चउत्तारे पण्णत्ते। अनुराधानक्षत्रं चतुस्तारं प्रज्ञप्तम्। ७. अनुराधा नक्षत्र के चार तारे हैं। ८. पुव्वासाढनक्खत्ते चउत्तारे पण्णत्ते। पूर्वाषाढानक्षत्रं चतुस्तारं प्रज्ञप्तम्।। ८. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के चार तारे हैं । ९. उत्तरासाढनक्खत्ते चउत्तारे उत्तराषाढानक्षत्रं चतुस्तारं प्रज्ञप्तम्।। ६. उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के चार तारे हैं। पण्णत्ते। १०. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां १०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि नैरयिकाणां चत्वारि पल्योपमानि की स्थिति चार पल्योपम की है। पलिओवमाइंठिई पणत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ समवायो समवाय ४ : सू० ११-१८ ११. तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं तृतीयस्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयि- ११. तीसरी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की नेरइयाणं चत्तारि सागरोवमाइं काणां चत्वारि सागरोपमाणि स्थितिः स्थिति चार सागरोपम की है । ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । १२. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइ- असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १२. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति चार याणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है । पण्णत्ता। १३. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १३. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई देवानां चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति चार पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १४. सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोरस्ति १४. सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के कुछ अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि एकेषां देवानां चत्वारि सागरोपमाणि देवों की स्थिति चार सागरोपम की है। सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १५. जे देवा किट्ठि सुकिट्ठि किट्ठियावत्तं ये देवाः कृष्टि सुकृष्टि कृष्टिकावर्त १५. कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्टिकावर्त, कृष्टिप्रभ, किट्टिप्पभं कि टिकतं किट्ठिवणं कृष्टिप्रभं कृष्टिकान्तं. कृष्टिवर्ण कृष्टि- कृष्टिकान्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, किहिलेसं किद्विज्झयं किट्ठिसिगं लेश्यं कृष्टिध्वजं कृष्टिशृङ्गं कृष्टिसृष्टं कुष्टिध्वज, कृष्टिशृङ्ग, कृष्टिसृष्ट, किट्ठिसिट्ठ किटिकूडं किठ्ठत्तर- कृष्टिकूटं कृष्ट्युत्तरावतंसक विमानं कृष्टिकूट और कृष्ट्युत्तरावतंसक वडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षण विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि चत्वारि सागरोपमाणि स्थिति: देवों की उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता।। की है। १६. ते णं देवा चउण्हं अद्धमासाणं ते देवाश्चतुर्णामर्द्धमासानां आनन्ति १६. वे देव चार पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्व- उच्छवास और निःश्वास लेते हैं । ऊससंति वा नीससंति वा। सन्ति वा। १७. तेसि देवाणं चहि वाससहस्सेहिं तेषां देवानां चतुभिर्वर्षसहस्रराहारार्थः १७. उन देवों के चार हजार वर्षों से आहारट्ठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। १८. अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १८. कुछ भव-सिद्धिक जीव चार बार जन्म चहिं भवग्गहहि सिज्झिस्संति चतुभिर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और बुझिस्संति मुच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. कषाय (कसाया) कषाय, कषाय के आधार, कषाय की उत्पत्ति के कारण तथा उनके अनन्तानुबंधी आदि भेद के लिए देखें-ठाणं, ४/७५-६१ तथा टिप्पण पृष्ठ ५०४, ५०५ ।। २. ध्यान (झाणा) चेतना के दो प्रकार हैं-चल और स्थिर । चल चेतना को चित्त और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है।' ध्यान के चार प्रकार हैं१. आर्तध्यान-मनोज्ञ संयोगों का वियोग न हो, उसके लिए सतत चिन्तन करना तथा अमनोज्ञ के वियोग के लिए सतत चिन्तन करना आर्तध्यान है। इसमें कामाशंसा और भोगाशंसा की प्रधानता होती है । इसके चार लक्षण हैं-आक्रन्द करना, शोक करना, आंसू बहाना, विलाप करना। २. रौद्रध्यान-जिसका चित्त कर और कठोर हो, वह रुद्र होता है । उसके ध्यान को रौद्र ध्यान कहते हैं । इसके चार प्रकार हैं१. हिंसानुबंधी-हिंसा का सतत प्रवर्तन । २. मृषानुबंधी-मृषा का सतत प्रवर्तन । ३. स्तन्यानुबंधी-चोरी का सतत प्रवर्तन । ४. संरक्षणानुबंधी-विषय के साधनों के संरक्षण का सतत प्रवर्तन । इसमें क्रूरता की प्रधानता होती है। ३. धर्मध्यान--इसके चार भेद हैं १. आज्ञाविचय-प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त । २. अपायविचय-दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त । ३. विपाकविचय-कर्मफल के निर्णय में संलग्न चित्त । ४. संस्थानविचय-विविध पदार्थों के आकृति-निर्णय में संलग्न चित्त । इसके चार लक्षण हैं-आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि । ४. शुक्लध्यान-यह उच्चतम ध्यानावस्था है। इसके चार प्रकार हैं-पृथक्त्ववितर्कसविचारी, एकत्ववितर्कअविचारी, सूक्ष्म क्रिय-अनिवृत्ति तथा समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाति । धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के लक्षण, आलंबन, तथा अनुप्रेक्षा के लिए देखें-ठाणं, ४/६५-७२ तथा टिप्पण पृष्ठ ५००-५०३ । ३. विकथा (विगहाओ) कथा का अर्थ है--वचन पद्धति । जिस कथा से संयम में बाधा उत्पन्न होती है जो चारित्र के विपरीत या विरुद्ध होतो है उसे विकथा कहते हैं। विकथा के मुख्य भेद चार है१. स्त्रीकथा-स्त्री संबंधी कथा करना। उनके जाति, कुल, रूप तथा नेपथ्य की चर्चा करना। २. भक्तकथा-भोजन के विषय में चर्चा करना । उसके स्वादिष्ट होने या अस्वादिष्ट होने, मूल्यवान् होने या अमूल्यवान् होने, अनेक द्रव्यों से निष्पन्न होने या अल्पद्रव्यों से निष्पन्न होने की चर्चा करना। ३. देशकथा-देश का अर्थ है जनपद । देश संबंधी चर्चा करना। देश के विधि-विधानों, रीति-रिवाजों, वस्त्र, आभूषण, वैवाहिक रिवाज आदि की चर्चा करना। ४. राजकथा-राजा के विषय में चर्चा करना । उसकी सेना, कोश, कोष्ठागार, ऋद्धि आदि की चर्चा करना। इन चार कथाओं के चार-चार प्रकार ठाणं, ४/२४१-२४५ में उल्लिखित हैं। इन विकथाओं में होने वाले दोषों के लिए देखें-ठाणं, टिप्पण पृष्ठ ५०५-५०७ । १. ध्यानशतक,२: जं थिरमज्भवसाणं झाणं, जं चलं तयं चित्तं । २. स्थानांगवृत्ति, पन १९६ : विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा-वचनपद्धतिविकथा । ३. समवायांगवृत्ति, पत्र : विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्न्यादिविषया: कथा विकथा : Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय ४ : टिप्पण स्थानांग ७/८० में सात विकथाओं का उल्लेख है । स्त्रीकथा आदि चार के अतिरिक्त तीन विकथाएं और हैं- मृदुकारुणिकी, दर्शनभेदिनी और चारित्रभेदिनी। ४. संज्ञा (सण्णा) संज्ञा के दो अर्थ हैं-आभोग-संवेगात्मक ज्ञान या स्मृति और मनोविज्ञान ।' संज्ञाएं दस हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा । इनमें प्रथम आठ संवेगात्मक तथा अंतिम दो ज्ञानात्मक हैं । प्रस्तुत प्रकरण में चार संज्ञाएं निर्दिष्ट हैं। ये संवेगात्मक हैं१. आहार संज्ञा- इसका शब्दार्थ है आहार की अभिलाषा। यह क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से होनेवाला आत्म-परिणाम है। इसकी उत्पत्ति के चार कारण ये हैं-१. पेट के खाली हो जाने से २. क्षुधा वेदनीय के उदय से ३. आहार की मति से ४. आहार के सतत चिन्तन से । २. भय संज्ञा- इसका अर्थ है-- भय का अभिनिवेश। यह भय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला आत्म-परिणाम है। इसकी उत्पत्ति के चार कारण ये हैं-१. सत्त्वहीनता २. भय वेदनीय (मोहनीय) के उदय से ३. भय की मति से ४. भय के सतत चिन्तन से । ३. मैथुन संज्ञा- मैथुन की अभिलाषा वेद मोहनीय का परिणाम है। इसकी उत्पत्ति के चार हेतु ये हैं-१. अत्यधिक मांसशोणित का उपचय हो जाने से २. मोहनीय कर्म के उदय से ३. मैथुन की बात सुनने से ४. मैथुम का सतत चिन्तन करने से। ४. परिग्रह संज्ञा--तीव्र लोभ के उदय से होनेवाली परिग्रह की अभिलाषा परिग्रह संज्ञा है। इसकी उत्पत्ति के चार कारण ये हैं-१. अविमुक्तता २. लोभ वेदनीय के उदय से ३. परिग्रह की मति से ४. परिग्रह का सतत चिन्तन करने से। विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं, टिप्पण पृष्ठ ६६८-१००० । ५. बंध (बंधे) कषाय के कारण जीव-प्रदेशों के साथ कर्म-पुद्गलों का बंध जाना बंध कहलाता है। उसके चार प्रकार हैं१. प्रकृतिबंध - इसका अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का स्वभाव । कर्म पुद्गलों का जीव के साथ संबंध होने पर, ज्ञान को रोकने का स्वभाव, दर्शन को रोकने का स्वभाव-इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्वभाव का होना प्रकृतिबंध है। २. स्थितिबंध - इसका अर्थ है-पुद्गलों की कालमर्यादा। कर्मों का निश्चित कालावधि तक जीव के साथ बंधे रहना, स्थितिबंध है। ३. अनुभागबंध- इसका अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का सामर्थ्य । कर्मों का रस विपाक या फल देने की शक्ति अनुभाग बंध है। ४. प्रदेशबंध - इसका अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का संचय । बंधने वाले कर्म-पुद्गलों के परिमाण को प्रदेशबंध कहते हैं । ६. योजन (जोयणे) प्रस्तुत प्रसंग में चार गाउ-गव्यूति का एक योजन माना है। गव्यूत का अर्थ है-वह दूरी जिसमें गाय का रंभाना सुना जा सके। विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं, ८/६२ का टिप्पण नं० ३४ पृष्ठ ८३८-८३६ । १. स्थानांगवत्ति, पत्र ४७८ : संज्ञानं संज्ञा पाभोग इत्यर्थ: मनोविज्ञान मित्यन्ये । २ ठाण १०/१०५। ३. ठाणं ४/५७५-५८२। ४. बुद्धिस्टइंडिया, पृष्ठ ४१ : Gavyuta, A Cow's Call. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो समवायो : पांचवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पंच किरिया पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- काइया अहिगरणिया पाउसिआ कायिकी आधिकरणिकी प्रादोषिकी पारियावणिआ पाणाइवाय- पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिया। किरिया। १. क्रिया के पांच प्रकार हैं, जैसे १. कायिकी-काय-चेष्टा। २. आधिकरणिकी--शस्त्र-निर्माण की त्रिया। ३. प्रादोषिकी–प्रद्वेष से निष्पन्न क्रिया। ४. पारितापनिकी-परितापन से निष्पन्न क्रिया। ५. प्राणातिपात क्रिया-जीव-घात से निष्पन्न क्रिया। २. पंच महव्वया पण्णत्ता, तं जहा- पञ्च महाव्रतानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं सर्वस्मात प्राणातिपाताद विरमणम, सव्वाओ मुसावायाओ रमणं सर्वस्मान्मषावादाद विरमणम, सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं सर्वस्माददत्तादानाद्विरमणम्, सर्व- सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं स्मान्मैथुनाद् विरमणम्, सर्वस्मात् सव्वाओ परिग्गहाओ बेरमणं। परिग्रहाद् विरमणम् । ३. पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहा. पञ्च कामगुणाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- सदा रूवा रसा गंधा फासा। शब्दा: रूपाणि रसाः गन्धा: स्पर्शाः। २. महाव्रत के पांच प्रकार हैं, जैसे-सर्व प्राणातिपात-विरमण, सर्व मृषावादविरमण, सर्व अदत्तादान-विरमण, सर्व मैथुन-विरमण और सर्व परिग्रहविरमण । ३. कामगुण' के पांच प्रकार हैं, जैसे शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श । ४. पंच प्रासवदारा पण्णत्ता, तं पञ्चाश्रवद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- जहा - मिच्छत्तं अविरई पमाया मिथ्यात्वं अविरतिः प्रमादाः कषायाः कसाया जोगा। ४. आस्रव-द्वार के पांच प्रकार हैं, जैसेमिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। योगाः। ५. पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा -- पञ्च सम्वरद्वाराणि प्रज्ञप्तानि, सम्मत्तं विरई अप्पमाया अकसाया तद्यथा---सम्यक्त्वं विरतिः अप्रमादा: अजोगा। अकषायाः अयोगाः। ५. संवर-द्वार के पांच प्रकार हैं, जैसे-- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ५: सू०६-१८ ६. पंच निज्जराणा पण्णत्ता, तं पञ्च निर्जरास्थानानि प्रज्ञप्तानि, ६. निर्जरा के स्थान पांच हैं, जैसे जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं तद्यथा--प्राणातिपाताद विरमणम प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद-विरमण मुसावायाओ वेरमणं अदिन्ना- मृषावादाद विरमणम अदत्तादानाद अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण और दाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं विरमणम् मैथुनाद् विरमणम् परिग्रहाद् परिग्रह-विरमण । परिगहाओ वेरमणं। विरमणम् । ७. पंच समिईओ पण्णताओ, तं पञ्च समितयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ७. समितियां पांच हैं, जैसे---ईर्यासमिति, जहा-इरियासमिई भासासमिई ईर्यासमितिः भाषासमितिः एषणा- भाषासमिति, एषणासमिति, आदानएसणासमिई आयाण-भंड-मत्त- समितिः आदान-भाण्डाऽमत्र-निक्षेपणा- भाण्ड-अमत्र निक्षेपणासमिति, उच्चारनिक्खेवणासमिई उच्चार- समितिः उच्चार-प्रश्रवण-क्ष्वेल-सिंघाण प्रश्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल-पारिस्थापपासवण - खेल-सिंघाण - जल्ल- जल्ल-पारिष्ठापनिकीसमितिः । निकीसमिति । पारिट्ठावणियासमिई। ५.पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं पञ्चास्तिकाया: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ८. अस्तिकाय पांच हैं, जैसे-धर्मास्तिजहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थि- धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः काय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए आकाशास्तिकायः जीवास्तिकायः जीवास्तिकाय और पूद्गलास्तिकाय । पोग्गलत्थिकाए। पुद्गलास्तिकायः। ६. रोहिणीनक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते। रोहिणीनक्षत्रं पञ्चतारं प्रज्ञप्तम् । ६. रोहिणी नक्षत्र के पांच तारे हैं । १०. पुणव्वसुनक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते। पुनर्वसुनक्षत्रं पञ्चतारं प्रज्ञप्तम् । १०. पुनर्वसु नक्षत्र के पांच तारे हैं। ११. हत्थनक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते। हस्तनक्षत्रं पञ्चतारं प्रज्ञप्तम् । ११. हस्त नक्षत्र के पांच तारे हैं। १२. विसाहानक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते। विशाखानक्षत्रं पञ्चतारं प्रज्ञप्तम्। १२. विशाखा नक्षत्र के पांच तारे हैं । १३. धणिट्ठानक्खत्ते पंचतारे पण्णत्ते। धनिष्ठानक्षत्रं पञ्चतारं प्रज्ञप्तम्। १३. धनिष्ठा नक्षत्र के पांच तारे हैं । १४. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति १४. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच एकेषां नैरयिकाणां पञ्च पल्योपमानि की स्थिति पांच पल्योपम की है। पलिओवमाइं ठिई पण्णता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १५. तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं तृतीयस्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयि- १५. तीसरी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की नेरइयाणं पंच सागरोवमाइं ठिई काणां पञ्च सागरोपमाणि स्थितिः स्थिति पांच सागरोपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १६. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइ- असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति पांच याणं पंच पलिओवमाइं ठिई पञ्च पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है। पण्णत्ता। १७. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १७. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं पंच पलिओवमाइं ठिई देवानां पञ्च पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति पांच पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १८. सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोरस्ति १८. सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के कुछ अत्थेगइयाणं देवाणं पंच सागरोव- एकेषां देवानां पञ्च सागरोपमाणि देवों की स्थिति पांच सागरोगम की माई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १६ समवाय ५ : सू० १६-२२ १९. जे देवा वायं सुवायं वातावत्तं ये देवा वातं सुवातं वातावत्तं वातप्रभं १६. वात, सुवात, वातावर्त्त, वातप्रभ, वात वातप्पभं वातकंतं वातवण्णं वातकान्तं वातवर्ण वातलेश्यं वातध्वज कान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातलेसं वातज्झयं वातसिंगं वातशृङ्गं वातसृष्टं वातकूटं वातोत्तरा- वातशृङ्ग, वातसृष्ट, वातकूट और वातसिळं वातकुडं वाउत्तरवडेंसगं वतंसकं सूरं सुसूरं सूरावर्त सूरप्रभं सूर- वातोत्तरावतंसक तथा सूर, सुसूर, सूरासूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं कान्तं सूरवर्णं सूरलेश्यं सूरध्वजं सूर- वर्त, सूरप्रभ, सूरकान्त, सूरवर्ण, सूरसरकतं सूरवणं सरलेसं सूरज्झयं शृङ्गं सूरसष्टं सूरकूटं सुरोत्तरावतंसकं लेश्य, सूरध्वज, सूरशृङ्ग, सूरसृष्ट, सूरसिंगं सूरसिठं सूरकूडं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवाना- सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक विमानों सूरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए मुत्कर्षेण पञ्च सागरोपमाणि स्थितिः में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उववण्णा, तेसि णं देवाणं प्रज्ञप्ता। उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम की है। उक्कोसेणं पंच सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। २०. ते णं देवा पंचण्हं अद्धमासाणं ते देवाः पञ्चानामर्द्धमासानां आनन्ति २०. वे देव पांच पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्व- उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। सन्ति वा। २१. तेसि णं देवाणं पंचहि वाससह- तेषां देवानां पञ्चभिर्वर्षसहाराहारार्थः २१. उन देवों के पांच हजार वर्षों से भोजन स्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते। करने की इच्छा उत्पन्न होती है। २२. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २२. कुछ भव-सिद्धिक जीव पांच बार जन्म जे पंचहि भवग्गहणेहि सिज्झि- पञ्चभिर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइसंति सव्वदुक्खाण- मन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। मंतं करिस्संति। टिप्पण .... १. क्रिया (किरिया) क्रियाओं का विशद वर्णन सूत्रकृतांग २/२/२ तथा स्थानांग सूत्र के २/२-३७ तथा ५/११२-१२२ आलापकों में आया हआ है। वहां विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख है। प्रस्तुत आलापक में जो पांच क्रियाओं का उल्लेख है वह स्थानांग ५/११५ में है। इन सबकी तुलनात्मक जानकारी के लिए देखें, सूत्रकृतांग २/२/२ के टिप्पण तथा ठाणं २/२-३७ के टिप्पण, पृष्ठ ११३-११६ । २. कामगुण (कामगुणा) वृतिकार ने 'काम' का अर्थ-अभिलाषा और 'गुण' का अर्थ- शब्द आदि पुद्गल किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप में कामवासना को उत्तेजित करने वाले शब्द आदि को 'कामगुण' माना है। इसका सामान्य अर्थ है इन्द्रियों के विषय तथा काम को उद्दीप्त करने वाले साधन-शब्द आदि। १. समवायांगवृत्ति, पत्र १०: काम्यन्ते-अभिलष्यन्ते इति कामास्ते च ते गुणाश्च–पुद्गलधर्माः शब्दादय इति कामगणाः, कामस्य वा-मदनस्योद्दीपका गुणा: कामगुणा:-शब्दादय इति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ५: टिप्पण स्थानांग की वृत्ति में इसके ये दो अर्थ हैं१. मैथुन-इच्छा उत्पन्न करनेवाले पुद्गल । २. इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल । ३. आस्रव-द्वार (आसवदारा) आस्रव का अर्थ है कर्म को आकृष्ट करनेवाली आत्मा की अवस्था। वह जीव की अवस्था है अतः जीव है। आस्रव के पांच प्रकार हैं१. मिथ्यात्व –विपरीत दृष्टिकोण, विपरीत तत्त्वश्रद्धा। २. अविरति -अत्याग वृत्ति । पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा । ३. प्रमाद -धर्म के प्रति अनुत्साह । योग आस्रव और प्रमाद आस्रव में यही अन्तर है कि प्रमाद आस्रव नरन्तरिक है। यह आत्म प्रदेशवर्ती अनुत्साह है। योग आस्रव नैरन्तरिक नहीं होता। ४. कषाय --आत्मा का राग-द्वेषात्मक उत्ताप । ५. योग - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति। योग आस्रव के दो भेद हैं--शुभयोग आस्रव और अशुभ योग आस्रव ___ शुभ योग से निर्जरा होती है, इस अपेक्षा से वह आस्रव नहीं है किन्तु उससे शुभ कर्म का बंध होता है, इसलिए वह आस्रव है। विशेष विवरण के लिए देखें- उत्तरज्झयणाणि भाग २, पृष्ठ २१६ । ४. संवर-द्वार (संवरदारा) कर्म का निरोध करनेवाली आत्मा की अवस्था का नाम है संवर। यह आस्रव की विरोधी अवस्था है। आस्रव कर्मग्राहक अवस्था है और संवर कर्म-निरोधक अवस्था है । इसके भी पांच प्रकार हैं१. सम्यक्त्व संवर-विपरीत श्रद्धान का त्याग करना सम्यक्त्व संवर है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी त्याग किए बिना सम्यक्त्व संवर नहीं हो सकता। २. व्रत संवर -व्यक्त, अव्यक्त आशा का परित्याग । सम्यक्त्व संवर और व्रत संवर-ये दोनों संवर त्याग करने से होते हैं, अन्यथा नहीं। ३. अप्रमाद संवर-आत्मिक अनुत्साह का क्षय हो जाना। ४. अकषाय संवर-राग-द्वेष से निवृत्ति । ५. अयोग संवर -प्रवृत्ति निरोध । अप्रमाद संवर, अकषाय संवर और अयोग संवर-ये तीन संवर परित्याग करने से नहीं होते, किन्तु तपस्या आदि साधनों के द्वारा आत्मिक उज्ज्वलता संपादित होने पर ही होते हैं।' ५. निर्जरा के स्थान (निज्जरढाणा) तपस्या आदि के अनुष्ठान से कर्मों की क्षीणता होती है और उससे आत्मा की निर्मलता संपादित होती है। यही निर्जरा है । यद्यपि निर्जरा एक ही प्रकार की होती है, फिर भी कारण को कार्य मानकर उसके बारह प्रकार किए जाते हैं। वे बारह प्रकार तपस्या के भेद हैं। तपस्याओं के भेद से निर्जरा भी बारह प्रकार की कही जाती है। वे बारह प्रकार ये १. स्थानांगवृत्ति, पन २७७ : कामगुणत्ति कामस्य-मदनाभिलाषस्य अभिलाषमानस्य वा संपादकाः गुणा-धर्माः पुद्गलानां, काम्यन्त इति कामाः ते च ते गुणाश्चेति वा कामगुणा इति । २. नवपदार्थ, संवर, ढाल १, गाथा ६ : प्रमाद आस्रव ने कषाय योग मानव, ये तो नहीं मिटे कियां पच्चक्खाण । ये तो सहजे मिटे छ कर्म अलगा हुयां, तिण री अंतरंग कीजो पहिचाण ।। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ५: टिप्पण १. अनशन ७. प्रायश्चित्त २. ऊनोदरी ८. विनय ३. भिक्षाचरी ६. वैयावृत्य ४. रस-परित्याग १०. स्वाध्याय ५. कायक्लेश ११. ध्यान ६. प्रतिसंलीनता १२. व्युत्सर्ग । इनमें प्रथम छह बाह्य तप के और शेष छह आभ्यन्तर तप के प्रकार हैं । प्रस्तुत आलापक में निर्जरा के जो पांच प्रकार बताए हैं, वे इनसे सर्वथा भिन्न हैं। वृत्तिकार का कथन है कि ये पांचों स्थान आंशिक कर्म-निर्जरा के कारण हैं। ये पांचों स्थान जब 'सर्व' शब्द से जुड़ते हैं तब इनकी संज्ञा महाव्रत हो जाती है (देखें-सूत्र संख्या २), और जब ये स्थूल शब्द से जुड़ते हैं तब इनकी संज्ञा 'अणुव्रत' हो जाती है। ये पांचों निर्जरा के सर्व साधारण स्थान हैं, इसलिए इनका यहां ग्रहण किया गया है।' प्रस्तुत आलापक का संवादी आलापक स्थानांग ५/१२८ में है। उसकी भाषा यह है कि जीव प्राणातिपात विरमण आदि पांच स्थानों से कर्मों का वमन (निर्जरण) करता है। प्रश्न होता है कि विरमण या विरति निर्जरा का कारण कैसे बनती है ? विरति संवर है। यहां दोनों स्थानों में उसे निर्जरा का हेतु या निर्जरा माना है। इसकी संगति क्या है ? जब व्यक्ति विरति या प्रत्याख्यान करता है, उस क्षण की प्रवृत्ति निर्जरा का हेतु बनती है। उस प्रवृत्ति-क्षण के पश्चात् वह विरमण संवर की कोटि में चला जाता है। इसी प्रवृत्ति-क्षण की अपेक्षा से यहां 'विरमण' को निर्जरा माना है। इस विषय पर आचार्य भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य ने बहुत प्रकाश डाला है। देखें-नव पदार्थ की चौपई, सटिप्पण संस्करण । ६. समितियां (समिईओ) समिति का अर्थ है-सम्यक् प्रवर्तन । सम्यक् और असम्यक् का मापदंड है-अहिंसा। जो प्रवृत्ति अहिंसा से संवलित है वह समिति है। हरिभद्र के अनुसार आत्मा के एकाग्र परिणाम से की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहा जाता है। समितियां पांच १. ईर्यासमिति -गमन और आगमन में अहिंसा का विवेक । इसकी भावना यह है कि यान-वाहनों से आकीर्ण पथ पर तथा शून्य और प्रासुक मार्गों पर चलते समय भी मुनि युगप्रमित भूमि को देखकर चले । २. भाषा समिति-भाषा संबंधी अहिंसा का विवेक । इसका तात्पर्य यह है कि मुनि हितकारी, परिमित और असंदिग्ध अर्थ वाली अर्थात् स्पष्ट भाषा बोले । ३. एषणा समिति-जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक उपकरणों-आहार-वस्त्रों आदि के ग्रहण और उपभोग संबंधी अहिंसा का विवेक । भिक्षाचर्या के लिए गया हुआ मुनि सम्यग् उपयोग रखता हुआ नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा की एषणा करे, ग्रहण करे। ४. आदानमाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति-दैनिक व्यवहार में आने वाले पदार्थों के व्यवहार संबंधी अहिंसा का विवेक । उपकरण तथा पात्र आदि लेते समय सावधानी पूर्वक प्रवर्तन करना । ५. उच्चारप्रस्रवणक्ष्वेडसिंघाणजल्लपरिस्थापनिका समिति-उत्सर्ग संबंधी अहिंसा का विवेक । मल, मूत्र, कफ, श्लेष्म, मैल आदि के परिस्थाएन में संयत चेष्टा करना।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र १०: निजरा-देशत: कर्मक्षपणा तस्या: स्थानानि-प्राश्रया: कारणानीति यावनिर्जरास्थानानि--प्राणातिपातविरमणादीनि, एतान्येव च सर्वशब्दविशेषितानि महावतानि भवन्ति, तानि च पूर्वसूत्राभिहितानि स्थूलशब्दविशेषितानि अणुव्रतानि भवन्ति, निर्जरास्थानत्वं पुनरेषां साधारणमिति तदिहेषामभिहितम् । २. आवश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ८४ : सम्—एकोभावेनेति: समितिः, शोभनकायपरिणामचेष्टेत्यर्थः । ३. देखें-प्रावश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ८४, ८५; तथा उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन २४ का पामुख तथा मूल । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २२ समवाय ५ : टिप्पण उत्तराध्ययन में पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों का संयुक्त नाम 'समिति' दिया है। ७. अस्तिकाय (अत्थिकाया) अस्तिकाय का अर्थ है-प्रदेश प्रचय । अस्तिकाय पांच हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव । ये तिर्यक् प्रचय स्कन्ध रूप में हैं, इसलिए इन्हें अस्तिकाय कहा जाता है । धर्म, अधर्म, आकाश और एक जीव एक स्कन्ध हैं। इनके देश या प्रदेश-ये विभाग काल्पनिक हैं। ये अविभागी हैं। पुद्गल विभागी है। उसके स्कन्ध और परमाणु-ये दो मुख्य विभाग हैं । परमाणु उसका अविभाज्य भाग है। लोक-अलोक की व्यवस्था पर दृष्टिपात करने से भी धर्म और अधर्म के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। आचार्य मलयगिरि ने इनका अस्तित्व सिद्ध करते हुए लिखा है-'इनके बिना लोक-अलोक की व्यवस्था नहीं होती। जिसमें जीव आदि सभी द्रव्य होते हैं वह लोक है। जहां केवल आकाश का ही अस्तित्व है, वह अलोक है। अलोक में जीव और पुद्गल नहीं होते। इसका कारण है कि वहां गति और स्थिति के हेतुभूत द्रव्य-धर्म और अधर्म नहीं हैं। इसलिए ये दोनों द्रव्य लोक-अलोक के विभाजक बनते हैं। भगवती सूत्र में इन पांचों अस्तिकायों के विषय में सुन्दर प्रतिपादन प्राप्त होता है। गौतम ने पूछा-'भगवन् ! गति सहायक तत्त्व (धर्मास्तिकाय) से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने कहा-गौतम ! गति का सहारा नहीं होता तो कौन आता और कौन जाता ? शब्द की तरंगें कैसे फैलती? आंख कैसे खुलती? कौन मनन करता? कौन बोलता? कौन हिलता-डुलता? यह विश्व अचल ही होता। जो चल है, उन सबका आलम्बन गति सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय ही है। गौतम-भंते ! अधर्मास्तिकाय (स्थिति सहायक द्रव्य) से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् गौतम ! स्थिति का सहारा नहीं होता तो खड़ा कौन रहता ? कौन बैठता ? सोना कैसे होता? कौन मन को एकाग्र करता? मौन कौन करता? कौन निस्पन्द बनता? निमेष कैसे होता? यह विश्व चल ही होता। जो स्थिर हैं, उन सबका आलंबन स्थिति-सहायक तत्त्व ही है। गौतम-भंते ! आकाश तत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहां होते ? ये धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहां व्याप्त होते ? काल कहां बरतता? पुद्गल का रंगमंच कहां बनता? यह विश्व निराधार ही होता। गौतम-भंते ! जीवास्तिकाय से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान्—गौतम ! जीव का लक्षण है उपयोग । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल-इन पांचों ज्ञानों के अनंतअनंत पर्याय, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग अज्ञान के अनन्त-अनन्त पर्याय तथा चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन के अनन्त-अनन्त पर्याय-इन सबका उपयोग जीव में होता है। गौतम-भंते ! पुद्गल से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान गौतम ! जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण-ये पांचों शरीर तथा पांचों इन्द्रियां और मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा श्वासोच्छवास-ये सारे पुद्गल से ही संचालित होते हैं। पुद्गलास्तिकाय का लक्षण है ग्रहण करना। पुद्गल में संयोजक और वियोजक-दोनों शक्तियां हैं। यदि उसमें वियोजक शक्ति नहीं होती तो सब अणुओं का एक पिण्ड बन जाता और यदि संयोजक शक्ति नहीं होती तो एक-एक अणु अलग-अलग रहकर कुछ नहीं कर पाते। प्राणी जगत् के प्रति परमाणु का जितना भी कार्य है, वह सब परमाणुसमुदायजन्य है, अनन्त परमाणु-स्कन्ध ही प्राणी जगत् के लिए उपयोगी होते हैं। १. उत्तरज्झयणाणि २/३ : एयामो पट्ठ समिईमो " २. प्रज्ञापना पद १ वृत्ति लोकालोकव्यवस्थानुपपत्तेः। ३. भगवई, १३/५५-६० । ४. जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, पृष्ठ २०१। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटठो समवायो : छठा समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. छल्लेसा पण्णत्ता, तं जहा- षड़ लेश्याः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा-कृष्ण- १. लेश्या के छह प्रकार हैं, जैसे-कृष्ण कण्हलेसा नोललेसा काउलेसा लेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या लेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोतेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा। तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या। लेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । २. छज्जीवनिकाया पण्णता, तं षड जीवनिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २. जीव-निकाय के छह प्रकार हैं, जैसे जहा-पढवीकाए आउकाए पृथ्वीकायः अप्कायः तेजस्कायः वायु- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए कायः वनस्पतिकायः त्रसकायः। वनस्पतिकाय और त्रसकाय । तसकाए। ३. छव्विहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णत्ते, षड् विधं बाह्यं तपःकर्म प्रज्ञप्तम्, ३. बाह्य तपःकर्म के छह प्रकार हैं, जैसे तं जहा-अणसणे ओमोदरिया तद्यथा--अनशनं अवमोदरिका वत्ति- अनशन, अवमोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसवित्तिसंखेवो रसपरिच्चाओ संक्षेपः रसपरित्यागः कायक्लेशः परित्याग, कायक्लेश और संलीनता । कायकिलेसो संलोणया। संलीनता। ४. छव्विहे अभिंतरे तवोकम्मे षड् विधमाभ्यन्तरं तपःकर्म प्रज्ञप्तम्, ४. आभ्यन्तर तपःकर्म के छह प्रकार हैं, पण्णते, तं जहा-पायच्छित्तं तद्यथा-प्रायश्चित्तं विनयः वैयावत्यं जैसे-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, विणओ वेयावच्चं सज्झाओझाणं स्वाध्यायः ध्यानं उत्सर्गः। स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग। उस्सग्गो। ५. छ छाउमत्थिया समग्घाया षट् छानस्थिकाः समुद्घाता: प्रज्ञप्ताः, ५. छानस्थिक समृद्घात के छह प्रकार हैं, पण्णत्ता, तं जहा–वेयणासमुग्घाए तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कषाय- जैसे-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, कसायसमुग्घाए मारणंतिय- समुद्घातः मारणान्तिकसमुद्घातः मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, समुग्घाए वेउव्वियसमुग्घाए वैक्रियसमुद्घातः तेजस्समुद्घातः तेजस्समुद्घात और आहारसमुद्घात । तेयसमुग्घाए आहारसमुग्धाए। आहारसमुद्घातः ।। ६. छव्विहे अत्युग्गहे पण्णत्ते, तं षड् विधोऽर्थावग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ६. अर्थावग्रह के छह प्रकार हैं, जैसे जहा-सोइंदियअत्थुग्गहे चक्खि- श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः चक्षुरिन्द्रियार्था- श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, चक्षुइन्द्रिय अर्थादियअत्थुग्गहे घाणिदियअत्थुग्गहे वग्रहः घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः जिह्वन्द्रिया- वग्रह, घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, रसनेन्द्रिय जिभिदियअत्युग्गहे फासिदिय- विग्रहः स्पर्शेन्द्रियार्थावग्रहः नोइन्द्रिया- अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह और अत्युग्गहे नोइंदियअत्युग्गहे। विग्रहः । नो-इन्द्रिय अर्थावग्रह। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ समवायो समवाय ६ : सू० ७-१७ ७. कत्तियानक्खत्ते छतारे पण्णत्ते। कृत्तिकानक्षत्रं षट्तारं प्रज्ञप्तम् । ७. कृत्तिका नक्षत्र के छह तारे हैं। ८. असिलेसानक्खत्ते छतारे पण्णत्ते। अश्लेषानक्षत्रं षट्तारं प्रज्ञप्तम् । ८. अश्लेषा नक्षत्र के छह तारे हैं। ६. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छ पलि- एकेषां नैरयिकाणां षट् पल्योपमानि की स्थिति छह पल्योपम की है । ओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १०. तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं तृतीयस्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां १०. तीसरी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की नेरइयाणं छ सागरोवमाई ठिई नैरयिकाणां षट सागरोपमाणि स्थितिः स्थिति छह सागरोपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । ११. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां ११. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति छह छ पलिओवमाइं ठिई पण्णता। षट् पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है। १२. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १२. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं छ पलिओवमाई ठिई देवानां षट् पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति छह पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १३. सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थे- सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोरस्ति १३. सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के कुछ गइयाणं देवाणं छ सागरोवमाइं एकेषां देवानां षट् सागरोपमाणि देवों की स्थिति छह सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १४. जे देवा सयं, सयंभुरमणं घोसं ये देवाः स्वयंभुवं स्वयंभूरमणं घोषं १४. स्वयंभू, स्वयंभूरमण, घोष, सुघोष, सुघोसं महाघोसं किट्ठियोसं वीरं सुघोषं महाघोषं कृष्टिघोषं वीरं सुवीरं महाघोष, कृष्टिघोष, वीर, सुवीर, सुवीरं वीरगतं वोरसेणियं वोरा- वीरगतं वीरश्रेणिकं वीरावर्त वीरप्रभं वीरगत, वीरश्रेणिक, वीरावत, वीरप्रभ, वत्तं वीरप्पभं वोरकंतं वीरवण्णं वीरकान्तं वीरवर्ण वीरलेश्यं वीरध्वज वीरकान्त, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरवोरलेसं बोरज्झयं वीरसिंगं वीरशृङ्गवीरसष्टं वीरकुटं वीरोत्तराव- ध्वज, वीरशृङ्ग, वीरसृष्ट, वीरकूट वीरसिद वीरकडं वोरुत्तरवडेंसगं तंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां और वीरोत्तरावतंसक विमानों में विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि देवानामत्कर्षेण षट सागरोपमाणि देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की णं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोव- स्थितिः प्रज्ञप्ता। उत्कृष्ट स्थिति छह सागरोपम की है। माई ठिई पण्णत्ता। १५. ते णं देवा छण्हं अदमासाणं ते देवाः षण्णामर्द्धमासानां आनन्ति वा १५. वे देव छह पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। वा। १६. तेसि णं देवाणं हि वाससहस्सेहिं तेषां देवानां षड्भिर्वर्षसहाराहारार्थः १६. उन देवों के छह हजार वर्षों से भोजन आहारळे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते। करने की इच्छा उत्पन्न होती है। १७. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १७. कुछ भव-सिद्धिक जीव छह बार जन्म हिं भवग्गहहिं सिज्झिस्संति षड्भिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और बज्झिस्संति मूच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. लेश्या (लेसा) जीव के शुभ-अशुभ परिणामों को लेश्या कहा जाता है । कर्मयुक्त आत्मा के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है और वे पुद्गल भाव और चिंतन को प्रभावित करते हैं । पौद्गलिक सहायता के बिना भाव और चिन्तन का प्रवर्तन नहीं होता । अच्छे पुद्गल अच्छे भावों और विचारों के और बुरे पुद्गल बुरे भावों और विचारों के सहायक बनते हैं । जैन परिभाषा के अनुसार आत्मीय भावों और विचारों को भावलेश्या और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्यलेश्या कहा जाता है । कर्मजन्य विकृति की न्यूनाधिकता के आधार पर आत्मा के परिणाम अच्छे बुरे बनते हैं । परिणामों की शुद्धि एवं अशुद्धि में अनन्त तरतमताएं होती हैं । पुद्गल जनित इन तरतमताओं को संक्षेप में छह भागों में बांटा जाता है । ये विभाग लेश्या शब्द से व्यवहृत हैं। विभाग या लेश्याएं छह हैं। पहली तीन अधर्म लेश्याएं हैं और शेष तीन धर्म लेश्याएं हैं। लेश्याओं के नाम द्रव्य लेश्याओं के आधार पर रखे गए हैं। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं । जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक वर्ग हैं। उनमें एक वर्ग का नाम "लेश्या" है । लेश्या शब्द का अर्थ है - आणविक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया । छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव परिणामों को भी लेश्या कहा गया है। प्राचीन साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले विचार - इन तीनों अर्थों में लेश्या की मार्गणा की गई है । शरीर के वर्ण और आणविक आभा को द्रव्यलेश्या ( पौद्गलिक लेश्या), तथा भाव और विचार को भावलेश्या ( मानसिक लेश्या ) कहा गया है । प्रस्तुत आलापक में छह लेश्याओं के नामों का उल्लेख मात्र है । उत्तराध्ययन सूत्र के चौतीसवें अध्ययन में इन सभी लेश्याओं के नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य का लेखा-जोखा है । लेश्या की पूरी जानकारी के लिए प्रज्ञापना का लेश्या पद बहुत महत्त्वपूर्ण है । आधुनिक खोजों के आधार पर जो रंग चिकित्सा का प्रवर्तन हुआ है, उसका मूल लेश्याध्यान में खोजा जा सकता है । लेश्या ध्यान व्यक्तित्व के रूपान्तरण का घटक है और इसी स्तर पर रूपान्तरण हो सकता है। प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है । २. सूत्र ३, ४ : इन दो आलापकों में तपस्या के बारह प्रकार निर्दिष्ट हैं। तप के दो प्रकार हैं—बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । प्रथम आलापक में बाह्य तप के छह प्रकार और दूसरे में आभ्यन्तर तप के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं। इनके आचरण से देहाध्यास छूट जाता है, और आत्मा की सन्निधि में रहने का अभ्यास हो जाताहै । इन बारह प्रकार के तपों की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है १. अनशन - काल की निश्चित अवधि तक चतुविध आहार का त्याग करना । २. अवमोदरिका - अपनी भूख से कुछ कम खाना । ३. वृत्तिसंक्षेप ( भिक्षाचरी ) - अभिग्रह करना । ४. रस परित्याग – दूध, दही, घृत आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों का वर्जन करना । ५. कायक्लेश – आसन आदि करना तथा शरीर के ममत्व का परिहार करना । इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से दूर रखना । ६. संलीनता - एकान्त या अनापात स्थान में रहना उपर्युक्त छह बाह्य तप हैं । इनका परिणाम इस प्रकार है • अनशन और अवमोदरिका से भूख और प्यास पर विजय पाने की ओर गति होती है। • वृत्तिसंक्षेप और रस परित्याग से आहार की लालसा सीमित होती है। जिह्वा की लोलुपता मिटती है तथा निद्रा आदि प्रमाद को प्रोत्साहन नहीं मिलता । • कायक्लेश से सहिष्णुता आदि का विकास होता है । • संलीनता से आत्मा की सन्निधि में रहने का अभ्यास होता है । श्रान्तरिक तप और उनके परिणाम १. प्रायश्चित्त - दोष - विशुद्धि के लिए यथोचित अनुष्ठान करना । इससे दोष भीरुता का विकास होता है, जागरूकता बढ़ती है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २६ समवाय ६ : टिप्पण २. विनय-मानसिक, वाचिक और कायिक अभिमान का परिहार करना । इससे अभिमान-मुक्ति और परस्परोपग्रह का विकास होता है । ३. वैयावृत्य-आचार्य आदि से संबंधित दस प्रकार की सेवा करना। इससे सेवाभाव पनपता है। ४. स्वाध्याय-काल-मर्यादा के अनुसार सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करना। इससे विकथा त्यक्त हो जाती है। ५. ध्यान-चित्त को अशुभ परिणामों से हटाकर शुभ परिणामों में एकाग्र करना। आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्ल ध्यान की साधना करना । इससे मनोनिग्रह और इन्द्रिय-निग्रह सधता है। ६. व्युत्सर्ग-काया की प्रवृत्ति (हलन-चलन) तथा क्रोध आदि का परिहार करना। इससे शरीर, उपकरण आदि पर होने वाले ममत्व का विसर्जन होता है। विशेष विवरण के लिए देखेंउत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृ० २५१-२८५। ३. समुद्घात (समुग्घाया) देखें-प्रस्तुत आगम के ७/२ का टिप्पण । ४. अर्थावग्रह (अत्युग्गहे) इन्द्रिय और मन का ज्ञान अल्प विकसित होता है। इसलिए पदार्थ के ज्ञान में उनका एक निश्चित क्रम है । हमें उनके द्वारा पहले पहल वस्तु के सामान्य रूप या एकता का बोध होता है । उसके बाद क्रमशः वस्तु की विशेष अवस्थाएं ज्ञात होती हैं । ज्ञान के इस क्रम के चार घटक तत्व हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । इनका न उत्क्रम होता है और न व्यतिक्रम । पहले अर्थ (वस्तु) का ग्रहण होगा। अर्थग्रहण के बाद ही विचार होगा और विचार के बाद निश्चय और निश्चय के बाद धारणा। पहले अवग्रह, फिर ईहा, फिर अवाय और अंत में धारणा । अवग्रह का अर्थ है -पहला ज्ञान, इन्द्रिय और वस्तु के संबंध से होने वाला सत्तात्मक पहला ज्ञान । यह सामान्य होता है। अवग्रह के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यंजनावग्रह अव्यक्त ज्ञान है। उसके बाद अर्थ का अवग्रह होता है। यह व्यंजनावग्रह के आगे का ज्ञान है। उससे कुछ स्पष्ट होता है, जैसे 'कुछ है' । अर्थावग्रह का विषय अनिर्देश्य-सामान्य होता है। किसी भी शब्द के द्वारा कहा नहीं जा सके, वैसा सामान्य होता है। दर्शन के द्वारा 'सत्ता' का बोध होता है, और अर्थावग्रह के द्वारा 'वस्तु है' का ज्ञान होता है। 'सत्ता' के ज्ञान से यह इतना-सा आगे बढ़ता है। इसमें अर्थ के स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया, गुण आदि का निर्देश नहीं होता। अवग्रह-यह शब्द है। ईहा-शब्द पशु का है या मनुष्य का ? स्पष्ट भाषात्मक है, इसलिए मनुष्य का होना चाहिए। अवाय-(विशेष परीक्षा के बाद) यह मनुष्य का ही है। धारणा-अवाय द्वारा किए गए निर्णय को संस्कार रूप में बदल देना। उसे स्मृति का हेतु बना देना। प्रस्तुत आलापक में पांच इन्द्रियों तथा मन के आधार पर अवग्रह के छह भेद निर्दिष्ट हैं। अवग्रह के दो भेद और हैं१. नैश्चयिक अवग्रह-एक सामयिक । २. व्यावहारिक अवग्रह-असंख्य सामयिक । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो समवायो : सातवां समवाय संस्कृत छाया १. सत्त भयाणा पण्णत्ता, तं जहा- सप्त भयस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- इहलोगभए परलोगभए आवाण- इहलोकभयं परलोकभयं आदानभयं भए अकम्हाभए आजीवभए अकस्माद्धयं प्राजीवभयं मरणभयं मरणभए असिलोगभए। अश्लोकभयम्। हिन्दी अनुवाद १. भय के स्थान सात हैं, जैसे१. इहलोक भय-सजातीय से भय, जैसे—मनुष्य को मनुष्य से और देव को देव से भय । २. परलोक भय-विजातीय से भय, जैसे-मनुष्य को देव, तिथंच आदि से भय । ३. आदान भय-धन आदि के अपहरण से होने वाला भय। ४. अकस्मात् भय-किसी बाह्य निमित्त के बिना ही अपने विकल्पों से होने वाला भय। ५. आजीव भय-आजीविका का भय । ६. मरण भय-मृत्यु का भय । ७. अश्लोक भय-अकीति का भय । २. सत्त समुग्घाया पण्णत्ता,तं जहा- सप्त समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए वेदनासमुद्घातः कषायसमुद्घातः मारणंतियसमुग्घाए वेउन्विय- मारणान्तिकसमुद्घातः वैक्रियसमधातः समुग्घाए तेयसमुग्घाए आहार- तेजः समुद्घातः आहारसमुद्घात: समुग्घाए केवलिसमुग्घाए। केवलिसमुद्घातः । २. समुद्घात' के सात प्रकार हैं, जैसे१. वेदना समुद्घात- असात-वेदनीय कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। २. कषाय समुद्घात-कषाय-मोहकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । ३. मारणान्तिक समुद्धात-आयुष्य के एक अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहने पर उसके आश्रित होने वाला समुद्घात । ४. वैक्रिय समुद्घात-वैक्रिय नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २८ समवाय ७ : सू० ३-१४ ५. तैजस समुद्घात-तैजस नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्धात । ६. आहार समुद्घात .. आहारक नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। ७. केवली समुद्घात-वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । ३. समणे भगवं महावीरे सत्त रय- श्रमणः भगवान महावीरः सप्त ३. श्रमण भगवान् महावीर सात रलि' णीओ उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। रत्नीरूर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ऊंचे थे। ४. सत्त वासहरपव्वया पण्णता, तं सप्त वर्षधरपर्वताः प्रजप्ताः, तद्यथा- ४. वर्षधर पर्वत' सात है, जैसे जहा-चुल्लहिमवंते महाहिमवंते क्षल्ल हिमवान महाहिमवान निषधः हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, निसढे नीलवंते रुप्पी सिहरी नीलवान रुक्मी शिखरो मन्दरः । नीलवान्, रुक्मी, शिखरी और मन्दर । मंदरे। ५. सत्त वासा पण्णता, तं जहा- सप्त वर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- ५. क्षेत्र सात हैं, जैसे-भरत, हैमवत, भरहे हेमवते हरिवासे महाविदेहे भरतं हैमवतं हरिवर्ष महाविदेहः रम्यक हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यक् , हैरण्यवत रम्मए हेरण्णवते एरवए। हैरण्यवतं ऐरवतम् । और ऐरवत । ६. खीणमोहे णं भगवं मोहणिज्ज- क्षीणमोहो भगवान मोहनीयवर्जाः सप्त ६. क्षीणमोह भगवान् मोहनीय को छोड़कर वज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ कर्मप्रकृतीवदयति । सात कर्म-प्रकृतियों का वेदन करते हैं। वेएई। ७. महानक्खते सत्ततारे पण्णत्ते। मधानक्षत्रं सप्ततारं प्रज्ञप्तम् । ७. मघा नक्षत्र के सात तारे हैं। ८. कत्तिआइया सत्त नक्खत्ता पुव्व. कृत्तिकादिकानि सप्त नक्षत्राणि ८. कृत्तिका जिनके आदि में है वे सात दारिआ पण्णत्ता। पूर्वद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि । नक्षत्र पूर्व-द्वारिक हैं। ६. महाइया सत्त नक्खत्ता दाहिण- मघादिकानि सप्त नक्षत्राणि ८. मघा जिनके आदि में है वे सात नक्षत्र दारिआ पण्णत्ता। दक्षिणद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि । दक्षिण-द्वारिक हैं। १०. अणराहाइया सत्त नक्खत्ता नराधादिकानि सप्ताह अनुराधादिकानि सप्त नक्षत्राणि १०. अनुराधा जिनके आदि में है वे सात अवरदारिआ पण्णत्ता। अपरद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि। नक्षत्र पश्चिम-द्वारिक हैं। ११. धणिट्राइया सत्त नक्खत्ता धनिष्ठादिकानि सप्त नक्षत्राणि ११. धनिष्ठा जिनके आदि में है वे सात उत्तरदारिआ पण्णत्ता। उत्तरद्वारिकाणि प्रज्ञप्तानि । नक्षत्र उत्तर-द्वारिक हैं । १२. इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति १२. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्त एकेषां नैरयिकाणां सप्त पल्योपमानि की स्थिति सात पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १३. तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं ततीयस्यां पृथिव्यां नैरयिकाणामुत्कर्षेण १३. तीसरी पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई सप्त सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति सात सागरोपम की है। पण्णत्ता। १४. चउत्थीए णं पुढवीए नेरइयाणं चतुर्थ्यां पृथिव्यां नैरयिकाणां जघन्येन १४. चौथी पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य जहण्णणं सत्त सागरोवमाई ठिई सप्त सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति सात सागरोपम की है। पण्णत्ता। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २६ समवाय ७ : सू० १५-२३ १५. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १५. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति सात सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सप्त पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है । १६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिई देवानां सप्त पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति सात पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १७. सणंकुमारे कप्पे अत्थेगइयाणं सनत्कुमारे कल्पे अस्ति एकेषां १७. सनत्कुमारकल्प के कुछ देवों की उत्कृष्ट देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोव- देवानामुत्कर्षण सप्त सागरोपमाणि स्थिति सात सागरोपम की है। माई ठिई पण्णत्ता। स्थिति: प्रज्ञप्ता। १८. माहिदे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं माहेन्द्रे कल्पे देवानामुत्कर्षण १८. माहेन्द्रकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति साइरेगाई सत्त सागरोवमाइं ठिई सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि स्थितिः साधिक सात सागरोपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १६.बंभलोए कप्पे देवाणं जहणणं ब्रह्मलोके कल्पे देवानां जघन्येन सप्त १६. ब्रह्मलोककल्प के देवों की जघन्य स्थिति सत्त सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सात सागरोपम की है। २०. जे देवा समं समप्पभं महापभं ये देवाः समं समप्रभं महाप्रभं प्रभासं २०. सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, पभासं भासुरं विमलं कंचणकूडं भासुरं विमल काञ्चनकूट विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारासणंकुमारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए सनत्कुमारावतंसकं विमानं देवत्वेन वतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न उववण्णा, तेसि णं देवाणं उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षेण सप्त होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । सात सागरोपम की है। पण्णत्ता। २१. ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं ते देवाः सप्तानामर्द्धमासानां आनन्ति वा २१. वे देव सात पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। वा। २२. तेसि णं देवाणं सत्तहिं वाससह- तेषां देवानां सप्तभिर्वर्षसहस्रैराहारार्थः २२. उन देवों के सात हजार वर्षों से भोजन स्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है। २३. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २३. कुछ भव-सिद्धिक जीव सात बार जन्म सहि भवग्गहDह सिन्झिस्संति सप्तभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिबुझिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- निवृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाण- मन्तं करिष्यन्ति । करेंगे। मंतं करिस्संति । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. आजीव भय (आजीवभए) स्थानांग ७/२७ में 'आजीव भय' के स्थान पर 'वेदना भय' है। २. समुद्घात (समुग्घाया) इसमें तीन शब्द हैं-सम्, उद् और घात । सम का अर्थ है-एकीभाव, उद् का अर्थ है-प्राबल्य और घात के दो अर्थ हैं-हिंसा करना, जाना । सामूहिक रूप से बलपूर्वक आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना या उनका इतस्ततः विक्षेपण करना अथवा कर्म पुद्गलों का निर्जरण करना, समुद्घात का शाब्दिक अर्थ है। इसके सात प्रकार यहां निर्दिष्ट हैं। इनमें पहले छह छद्मस्थ अर्थात् अवीतराग व्यक्ति के होते हैं और अंतिम समुद्घात-केवली समुद्घात केवल केवलियों के ही होता है। इन सातों समुद्घातों में भिन्न-भिन्न कर्मों का शाटन होता है। १. वेदना समुद्घात से वेदनीय कर्म-पुद्गलों का शाटन होता है। २. कषाय समुद्घात से कषाय (मोह) के कर्म-पुद्गलों का शाटन होता है। ३. मारणान्तिक समुद्घात से आयुष्य कर्म-पुद्गलों का शाटन होता है। ४.५.६. वैक्रिय, आहारक और तैजस समुद्घात में तद्-तद् नामकर्म का शाटन होता है । सभी समुद्घातों में आत्म-प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और उनसे संबंधित कर्म-पुद्गलों का विशेष रूप से परिशाटन (निर्जरण) होता है। ७. केवली समुद्घात के समय आत्मा समूचे लोक में व्याप्त होती है। उसका कालमान आठ समय का है। केवली समुद्घात के समय केवली समस्त आत्म-प्रदेशों को फैलाता हुआ चार समय में क्रमश: दण्ड, कपाट, मंथान और अन्तरावगाह (कोणों का स्पर्श) कर समग्र लोकाकाश को उनसे पूर्ण कर देता है। और अगले चार समयों में क्रमश: उन आत्म-प्रदेशों को समेटता हुआ पूर्ववत् देहस्थित हो जाता है । वह पूरी प्रक्रिया इस प्रकार है आयुष्य कर्म की स्थिति और दलिकों से जब वेदनीय कर्म की स्थिति और दलिक अधिक होते हैं तब उनको आपस में बराबर करने के लिए केवली समुद्घात होता है। जब सिर्फ अन्तर्मुहुर्त आयुष्य बाकी रहता है तभी समुद्घात होता है । समुद्घात में आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्म-प्रदेश शरीर के बाहर निकलकर दण्डाकार फैल जाते हैं । वह दण्ड ऊंचाई-निचाई में लोक-प्रमाण होता है। पर उसकी मोटाई शरीर के बराबर ही होती है। दूसरे समय में उक्त दण्ड पूर्वपश्चिम या उत्तर-दक्षिण फैलकर कपाटाकार (किंवाड के आकार का) बन जाता है। तीसरे समय में कपाटाकार आत्मप्रदेश पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण में फैलकर मन्थानाकार (मन्थनी के आकार के) बन जाते हैं। चौथे समय में खाली भागों में फैलकर आत्म-प्रदेश समूचे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार प्रथम चार समयों में आत्म-प्रदेश क्रमश: फैलते हैं वैसे ही अन्त के चार समयों में क्रमश: सिकुड़ते हैं। पांचवें समय में फिर मन्थानाकार, छठे समय में कपाटाकार, सातवें समय में दण्डाकार और आठवें समय में पहले की भांति शरीरस्थ हो जाते हैं। ___ इन आठ समयों में पहले और आठवें समय में औदारिक योग, दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र योग तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणयोग होता है। दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार समुद्घात का अर्थ इस प्रकार है१. बेदना आदि निमित्तों से कुछ आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात है। २. घात का अर्थ है-कर्मों की स्थिति और अनुभाग का विनाश । उत्तरोत्तर होने वाले घात को उद्घात कहते हैं और समीचीन उद्घात को समुद्घात कहते हैं। ३. मूल शरीर को न छोड़कर तैजस और कार्मण शरीर के साथ-साथ जीव-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात है। समुद्घात सात हैं १. वेदनीय समुद्घात--वात, पित्त आदि विकारजनित रोग या विषपान आदि की तीव्र वेदना से आत्म-प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना समुद्घात है। इसमें उत्कृष्टतः शरीर से तिगुने प्रमाण के आत्म-प्रदेश बाहर विसर्पण करते हैं। २. कषाय समुद्धात- कषायों की तीव्रता से जीव-प्रदेशों का अपने शरीर से तिगुने प्रमाण में बाहर निकलना कषाय समुद्घात है। १. जैन सिद्धान्त दीपिका ७/२६, ३०, पृष्ठ १४१-१४३ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र ३१ समवाय ७ : टिप्पण ३. मारणान्तिक समुद्घात - यह मरण के अंतिम समय में होता है । इसमें जीव- प्रदेश आगामी उत्पत्ति के स्थान तक फैलते हैं | धवला के अनुसार जीव के आत्म-प्रदेश ऋजुगति या विग्रहगति के द्वारा अपने उत्पत्ति क्षेत्र तक फैलकर वहां अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । यह मारणान्तिक समुद्घात है । ४. वैक्रिय समुद्घात - किसी भी प्रकार की विक्रिया उत्पन्न करने के लिए, मूल शरीर का त्याग न कर, आत्मप्रदेशों का बाहर जाना वैक्रिय समुद्घात है । ५. तैजस समुद्घात - तैजस शरीर का विसर्पण करना तैजस समुद्घात है । इसका प्रयोजन है अनुग्रह और निग्रह । ६. आहारक समुद्घात – आहारक ऋद्धि से संपन्न मुनि अपने संशय के निवारण के लिए, मूल शरीर को छोड़े बिना, अपने मस्तिष्क से एक निर्मल स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकालते हैं। वह पुतला जहां कहीं केवली होते हैं। वहां संशय का निवारण कर, प्रश्नकर्त्ता को समाधान दे, पुनः अपने शरीर में प्रवेश कर जाता है । यह आहारक समुद्घात है । इसका कालमान है अन्तर्मुहूर्त्त । ७. केवली समुद्धात - दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप जीव-प्रदेशों की अवस्था को केवली समुद्घात कहते हैं। यह सभी केवलियों के नहीं होती ।' ३. रत्नि ( रयणीओ) रत्न का अर्थ है - फैली हुई अंगुलियों सहित हाथ । भगवान् इस माप से सात हाथ ऊंचे थे । ४. ऊंचे ( उड्ड उच्चत्तेणं) उच्चत्व दो प्रकार से होता है—ऊर्ध्व उच्चत्व और तिर्यग् उच्चत्व । प्रस्तुत आलापक में भगवान की ऊंचाई ऊर्ध्व उच्चत्व के माप से है । ' ५. वर्षधर पर्वत ( वासहरपध्वया) इसका अर्थ है सीमा करने वाले पर्वत । ये सात हैं। ये सात पर्वत अगले आलापक में वर्णित सात क्षेत्रों की सीमा करते हैं, जैसे— १. भरत और हैमवत २. हैमवत और हरिवर्ष ३. हरिवर्ष और महाविदेह ४. महाविदेह और रम्यक् ५. रम्यक् और हैरण्यवत् ६. हैरण्यवत् और ऐरवत क्षुल्लहिमवान् महाहिमवान् निषध नील रुवमी शिखरी ६. सूत्र ६ : मोहनीय कर्म का पूरा क्षय बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में होता है। उस अवस्था के धनी छद्मस्थ वीतराग कहलाते हैं । तदनन्तर वे शेष सात कर्म- प्रकृतियों का वेदन करते हैं और तेरहवें गुणस्थान में तीन कर्म प्रकृतियां - ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय - एक साथ पूर्णतः क्षीण हो जाती हैं। तब वे केवली होकर केवल चार कर्म-प्रकृतियों [ वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य ] का वेदन करते हैं । ७. पूर्व- द्वारिक ( पुग्वदारिआ ) ... उत्तर-द्वारिक ( उत्तरदारिआ ) इन चार आलापकों [ ८-११] में पूर्वद्वारिक आदि नक्षत्रों का उल्लेख है। सूर्यप्रज्ञप्ति ( १० / १३१ ) में इनका विस्तार से प्रतिपादन हुआ है। वहां छह वर्गीकरण प्राप्त होते हैं । उनमें पांच वर्गीकरण मतान्तर के रूप में तथा एक छठा वर्गीकरण सैद्धान्तिक रूप में स्वीकृत है । सूर्यप्रज्ञप्ति में उल्लिखित अन्यतीर्थिकों की प्रथम प्रतिपत्ति समवायांग में निर्दिष्ट मूल प्रतिपत्ति है । वह इस प्रकार है १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, १/३११, २/४०, ४१, १६६, १६६, ३६४, ३ / २६७, ५६६, ६१२ । २. समवायांगवृत्ति पत्र १३ : रत्नि:- वितताङ्गुलिर्हस्त इति । ३. समवायांगवृत्ति, पत्र, १३ : ऊर्वोच्चत्वेन न तिर्यगुच्चत्वेनेति । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३२ समवाय ७: टिप्पण पूर्व-द्वारिक नक्षत्र- कृत्तिका, राहिणी, संस्थान (मृगशिर), आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा। वक्षिण-द्वारिक नक्षत्र-मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा । पश्चिम-द्वारिक नक्षत्र–अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् और श्रवण । उत्तर-द्वारिक नक्षत्र- धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वप्रोष्ठपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती, अश्विनी और भरणी। सूर्यप्रज्ञप्ति में प्राप्त छह वर्गीकरणों का स्वरूप इस प्रकार हैपूर्व-द्वारिक १. कृत्तिका, रोहिणी, संस्थान (मृगशिर), आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा। २. मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा । ३. धनिष्ठा, शतभिषग्, पूर्वभद्रपदा, उत्तरभद्रपदा, रेवती, अश्विनी और भरणी । ४. अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, संस्थान (मृगशिर), आर्द्रा, और पुनर्वसु । ५. भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, संस्थान (मृगशिर), आर्द्रा, पुनर्वसु और पुष्य । दक्षिण-द्वारिक १. मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा । २. अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् और श्रवण । ३. कृत्तिका, रोहिणी, संस्थान (मृगशिर), आर्द्रा, पूनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा। ४. पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त और चित्रा। ५. अश्लेषा, मघा, पूर्व फल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा और स्वाति । पश्चिम-द्वारिक १. अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् और श्रवण । २. धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वप्रोष्ठपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती, अश्विनी और भरणी। ३. मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा। ४. स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा। ५. विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा और अभिजित् । उत्तर-द्वारिक १. धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वप्रोष्ठपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती, अश्विनी और भरणी । २. कृत्तिका, रोहिणी, संस्थान (मृगशिर), आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषा । ३. अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् और श्रवण । ४. अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वभद्रपदा, उत्तरभद्रपदा और रेवती। ५. श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वप्रोष्ठपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती और अश्विनी। सूत्रकार ने छठी प्रतिपत्ति को मान्य किया है, उसके अनुसारपूर्व-द्वारिक-अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वप्रोष्ठपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा और रेवती। दक्षिण-द्वारिक-अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, संस्थान (मृगशिर), आर्द्रा और पूनर्वसु । पश्चिम-द्वारिक-पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी, हस्त और चित्रा। उत्तर-द्वारिक-स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा । १. सूरपण्णत्ती १०/१३१ : तत्य बलू इमामो पंच पडिवत्तीपो पण्णत्तायो, ...... ......"एते एवमाहंसु । २. वही, १०/१३१:.."वयं पुण एवं वदामो ता अभिईयादि..." ....." उत्तरासाला। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ७ : टिप्पण स्थानांग' सूत्र में भी पूर्व-द्वारिक आदि नक्षत्रों का कथन है और वह सैद्धान्तिक मत के अनुसार है। किन्तु समवायांग में जो प्रतिपादन हुआ है वह मतान्तर का वर्गीकरण है । इस तथ्य की सूचना स्वयं वृत्तिकार ने दी है। पाठ संशोधन में प्रयुक्त 'ख, ग' संकेत की प्रतियों तथा वृत्ति में छट्ठी प्रतिपत्ति का पाठ पाठान्तर के रूप में उल्लिखित है। इससे पता चलता है कि एक वाचना में छट्टी प्रतिपत्ति का पाठ सम्मत्त था और दूसरी वाचना में प्रस्तुत पाठ रहा है। यह वाचनाभेद प्रतीत होता है। इसका कारण पाठ की विस्मृति नहीं है । पूर्व-द्वारिक आदि नक्षत्रों के विधान का तात्पर्यार्थ यह है कि पूर्व आदि दिशा में यात्रा के लिए ये नक्षत्र प्राय: शुभ होते हैं।' १. ठाणं, ७/१४६-१४६ । २. समवायांगवृत्ति, पत्न १३ : ___ इह तु मतान्तरमाश्रित्य कृत्तिकादीनि सप्त सप्त पूर्वद्वारिकादीनि भणितानि । ३. समवायांगवृत्ति, पत्न १३ : पूर्वद्वारिकाणि --- पूर्वदिशि येष गच्छत: शुभं भवति : Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो समवानो : आठवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. अट्ठ मयढाणा पण्णत्ता, तं जहा- अष्ट मदस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा .. १. मद के स्थान आठ हैं, जैसे-जातिमद, जातिमए कुलमए बलमए रूबमए जातिमद: कुलमदः बलमदः रूपमद: कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, तवमए सुयमए लाभमए तपोमदः श्रुतमदः लाभमद: ऐश्वर्यमदः। श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद । इस्सरियमए। २. अट्र पवयणमायाओ पण्णत्ताओ, तं अष्ट प्रवचनमातरः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- जहा- इरियासमिई भासासमिई ईर्यासमितिः भाषासमितिः एषणा- एसणासमिई आयाण-भंड-मत्त- समिति: आदान-भाण्डाऽमत्र-निक्षेपणानिक्खेवणासमिई उच्चार- समितिः उच्चार-प्रश्रवण-क्षवेल सिंघाणपासवण - खेल - सिंघाण- जल्ल जल्ल-पारिष्ठापनिकीसमितिः मनोपारिट्ठावणियासमिई मणगुत्ती गुप्तिः वाग्गुप्तिः कायगुप्तिः। वइगुत्ती कायगुत्ती। २. प्रवचन-माता के आठ प्रकार हैं, जैसे--- ईयर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भांड-अमत्र-निक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रश्रवण-क्ष्वेल-सिंघाणजल्ल-पारिस्थापनिकीसमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । ३. वाणमंतराणं देवाणं चेइयरुक्खा वानमन्तराणां देवानां चैत्यवक्षाः अष्ट अट्ठ जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः। पण्णत्ता। ३. व्यन्तर देवताओं के चैत्य-वृक्ष' आठ योजन ऊंचे हैं । ४. जंबू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाई जम्बूः सुदर्शना अष्ट योजनानि ऊर्ध्व- ४. सुदर्शन जम्बू-वृक्ष की ऊंचाई आठ उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। मुच्चत्वेन प्रज्ञप्ता। योजन की है। ५. कूडसामली णं गरुलावासे अट्ठ कूटशाल्मली गरुडावासः अष्ट योज- ५. गरुड़जातीय वेणुदेव के आवास कूटजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं नानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तः। शाल्मली की ऊंचाई आठ योजन की पण्णत्ते। ६. जंबुद्दीवस्स णं जगई अट्ट जोयणाई जम्बूद्वीपस्य जगतो अष्ट योजनानि उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ता। ६. जम्बूद्वीप की जगती (प्राकार) की ऊंचाई आठ योजन की है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ७. अटुसामइए केवलिसमुग्घाए अष्ट सामयिकः केवलिसमुदघातः पण्णत्ते, तं जहा प्रज्ञप्तः, तद्यथापढमे समए दंडं करेइ, प्रथमे समये दण्डं करोति, बीए समए कवाडं करेइ, द्वितीये समये कपाटं करोति, तइए समए मंथं करेइ, तृतीये समये मन्थं करोति, चउत्थे समए मंथंतराइं पूरेइ, चतुर्थे समये मन्थान्तराणि पूरयति, पंचमे समए मंथंतराइं पडिसाहरइ, पञ्चमे समये मन्थान्तराणि प्रतिसंहरति, छठे समए मंथं पडिसाहरइ, पष्ठे समये मन्थं प्रतिसंहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, सप्तमे समये कपाटं प्रतिसंहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ, अष्टमे समये दण्डं प्रतिसंहरति, तत्तो पच्छा सरीरत्थे भवइ । ततः पश्चात् शरीरस्थो भवति । समवाय ८ : सू०७-१३ ७. केवली-समुद्घात' आठ समय का होता है, जैसे—आत्म-प्रदेशों का प्रथम समय में दण्डाकार निर्माण होता है, दूसरे समय में कपाटाकार निर्माण होता है, तीसरे समय में मंथाकार निर्माण होता है, चौथे समय में मंथ के अन्तरालों की पूर्ति होती है, पांचवें समय में मंथ के अन्तरालों में परिव्याप्त आत्मप्रदेशों का प्रतिसंहरण होता है, छद्रे समय में मंथाकार का प्रतिसंहरण होता है, सातवें समय में कपाटाकार का प्रतिसंहरण होता है, आठवें समय में दण्डाकार का प्रतिसंहरण होता है, तत्पश्चात् आत्मा शरीरस्थ हो जाती है। ८. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणि- पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य अष्ट ८. पुरुषादानीय' अर्हत् पार्श्व के आठ गण अस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा गणाः अष्ट गणधरा अासन्, तद्यथा- और आठ गणधर थे। जैसेहोत्था, तं जहा १. शुंभ ५. सोम २. शुंभधोष ६. श्रीधर संगहणीगाहासंग्रहणी गाथा-- ३. वशिष्ठ ७. वीरभद्र सुंभे य सुंभघोसे य, शुम्भश्च शुम्भघोषश्च, ४. ब्रह्मचारी ८. यश। वसिठे बंभयारिय। वशिष्ठो ब्रह्मचारी च । सोमे सिरिधरे चेव, सोमः श्रीधरश्चैव, वीरभद्दे जसे इ य॥ वीरभद्रो यशोऽपि च ॥ ६. अट्र नक्खत्ता चंदेणं सद्धि पमई अष्ट नक्षत्राणि चन्द्रेण साई प्रमर्द योगं द्ध पमह अष्ट नक्षत्राणि चन्द्रण साद्ध प्रमद योग . आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ प्रमर्दयोग जोगं जोएंति, तं जहा-कत्तिया योजयन्ति, तद्यथा-कृत्तिका रोहिणी करते हैं, जैसे—कृत्तिका, रोहिणी, रोहिणी पुणवतू महा चित्ता पुनर्वसू मघा चित्रा विशाखा अनुराधा पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुविसाहा अणुराहा जेट्ठा। ज्येष्ठा । राधा और ज्येष्ठा। १०. इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां १०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अटू नैरयिकाणां अष्ट पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति आठ पल्योपम की है। पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ११. च उत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं चतुर्थी पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयि- ११. चौथी पृथ्वी के कुछ नरयिकों की नेरइयाणं अटू सागरोवमाइं ठिई काणां अष्ट सागरोपमाणि स्थितिः स्थिति आठ सागरोपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १२. असरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १२. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति आठ अट्ट पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। अष्ट पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है । १३.साहम्मासाणस कप्पस साधमशानयाः कल्पयारास्त एकपा २. सावन जारसा सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १३. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों अत्थेगइयाणं देवाणं अद्र देवानां अष्ट पल्योपमानि स्थिति: की स्थिति आठ पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रा १४. बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ट सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १५. जे देवा अच्च अच्चिमाल वइरोयणं पभंकरं चंदाभं सूराभं सुपइट्टाभं अग्गिच्चाभं रिट्ठाभं अरुणाभं अरुणुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १६. ते णं देवा अट्टहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । . तेसि णं देवाणं अट्ठहि वास सहस्से हि आहारट्ठे समुपज्जइ । १७. १. मद के स्थान ( मयट्टाणा) ३६ ब्रह्मलोके कल्पे अस्ति एकेषां देवानां अष्ट सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये अहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति अष्टभिर्भवग्रहणै: सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते बुभिसंति मुच्चिसंति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानापरिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करिस्सति । ये देवा अचिस, अचिर्मालिनं वैरोचनं १५. अचि, अचिमाली, वैरोचन, प्रभंकर, प्रभंकरं चन्द्राभं सूराभं सुप्रतिष्ठाभं चन्द्राभ, सूराभ, सुप्रतिष्ठाभ, अग्न्यर्चाभिं रिष्टाभं अरुणाभ अरुणो- अग्न्यर्चाभ, रिष्टाभ, अरुणाभ और त्तरावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, अरुणोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप तेषां देवानामुत्कर्षेण अष्ट सागरोप- में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट माणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । स्थिति आठ सागरोपम की है । ते देवा अष्टानामर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । देखें - ठाणं ८ / २१, टिप्पण पृ. ८३५ । २. प्रवचन - माता ( पवयणमायाओ ) भूत यक्ष राक्षस किन्नर किंपुरुष तेषां देवानां अष्टभिर्वर्षसहस्रैराहारार्थः १७. उन देवों के आठ हजार वर्षों से भोजन समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है । व्यन्तर देव आठ हैं । प्रत्येक देव के एक-एक चैत्यवृक्ष है- पिशाच कदंब तुलसी वट टिप्पण पांच समितियों और तीन गुप्तियों को प्रवचन-माता कहा जाता हैं। इसके दो कारण है - ( १ ) इन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है और ( २ ) आठों से प्रवचन का प्रसव होता है । पहले में 'समाने' का और दूसरे में 'मां' का अर्थ है । विशेष विवरण के लिए देखें - उत्तरज्झयणाणि ( सानुवाद), अ० २४ तथा उत्तरज्भयणाणि ( टिप्पण), पृष्ठ १७१-१७३ । ३. सूत्र ३ : समवाय ८: सू० १४-१८ १४. ब्रह्मलोककल्प के कुछ देवों की स्थिति आठ सागरोपम की है । काण्डक अशोक चम्पक १६. वे देव आठ पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । १८. कुछ भव- सिद्धिक जीव आठ बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३७ समवायन: टिप्पण महोरग गंधर्व नागवृक्ष तेंदुक । ४. सूत्र ४-५ इन दो आलापकों में सुदर्शन जम्बू तथा कूटशाल्मली की ऊंचाई आठ योजन बताई गई है। स्थानांग ८/६३,६४ के आलापकों में "सातिरेगाई" शब्द अधिक है। उसका स्पष्टीकरण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (४/१४६,२०८) के आधार पर हो जाता है। वहां कहा गया है कि ये वृक्ष आधे-आधे योजन भूमि में हैं तथा इनके तने की मोटाई आधे-आधे योजन की है। इस आधे-आधे योजन के कारण ही "सातिरेक" शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी आधार पर सर्व परिमाण में ये वृक्ष आठ-आठ योजन से कुछ अधिक हैं। ५. केवली समुद्घात (केवलिसमुग्घाए) __केवली समुद्घात का यह आलापक ठाणं ८/११४ में भी है। उसके टिप्पण में हमने विस्तार से इसकी चर्चा की है। देखें-ठाणं ८/११४, टिप्पण पृ० ८३६-८४० । दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण-ये चार केवली समुद्घात के प्रकार हैं। इनके अांतर भेद इस प्रकार हैं दंड समुद्घात- १. स्थित और २. उपविष्ट । कपाट समुद्घात-१. पूर्वाभिमुख स्थित, २. पूर्वाभिमुख उपविष्ट, ३. उत्तराभिमुख स्थित, ४. उत्तराभिमुख उपविष्ट । प्रतर-एक ही प्रकार । लोकपूरण-एक ही प्रकार। दिगम्बरों की यह मान्यता है कि जिनका आयुष्यकाल केवल छह महीनों का अवशिष्ट रहा हो और तब उन्हें केवलज्ञान हुआ हो तो निश्चित ही उनके समुद्घात होता है। शेष केवलियों के लिए यह निश्चित नियम नहीं है। उनके समुद्घात होता भी है और नहीं भी होता है।' यतिवृषभाचार्य के अनुसार क्षीणकषाय गुणस्थान (बारहवें) के चरम समय में अघात्य कर्मों की स्थिति सम न होने के कारण सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार दिगम्बर साहित्य में केवलियों के समुद्घात होने या न होने, आत्म-प्रदेशों का विस्तार, समय की नियामकता, प्रतिष्ठापन का विधिक्रम, समुद्घात के समय होने वाले योग तथा आहारक-अनाहारक आदि-आदि अनेक विषयों की विशद जानकारा प्राप्त होती है। देखें-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-२, पृष्ठ १६६-१६६ । ६. पुरुषादानीय (पुरिसादाणिअस्स) आगम-साहित्य में 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग विशेषतः भगवान् पार्श्व के लिए होता रहा है और वह उनकी लोकप्रियता का सूचक है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'आदानीय पुरुष'-ग्राह्य-पुरुष किया है। कहीं-कहीं इस शब्द का प्रयोग साधु के विशेषण के रूप में भी उपलब्ध होता है। सूत्रकृतांग (१/६/३५) में 'पुरिसादानीय' शब्द प्रयुक्त है। वहां चूणिकार ने उसके तीन अर्थ किये हैं --सेव्यपुरुष, ग्राह्यपुरुष और ग्रहणशीलपुरुष ।' विशेष विवरण के लिए देखें, इसी स्थल का टिप्पण नं० ११५ । १. ठाण८/११६,११७ । २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृष्ठ-१६६ । ३. भगवती आराधना, गाथा २१०६ : उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिकेवली जादा । बच्चंति समुग्घाद, सेसा भज्जा समुग्धादे ।। ४. समवायांगवृत्ति, पत्र १४ ॥ ५. सूत्रकृतांगचूणि, पृष्ठ १८३ : पुरुषादानीया: सेव्यन्त इत्यर्थः । ..."प्राज्यामुपेत्य पुरुषादानाया पदा संवृता भवन्ति धर्मलिप्सुभिः पुरुष रादानीयाः। अथवा ग्राह्याः पुरुषा इत्यादानीयाः। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय८: टिप्पण ७. गणधर (गणहरा) गण और गणधर का नाम समान ही था । स्थानांग (८/३७) में भी आठ गणधरों का उल्लेख है । आवश्यक नियुक्ति (गाथा २६८) में पार्श्व के दस गणधर माने हैं। सम्भव है दो गणधरों का काल अत्यल्प होने के कारण उनकी विवक्षा न की गई हो, ऐसा वृत्तिकार ने माना है।' ८. शुंभघोष (सुंभघोसे) स्थानांग (८/३७) तथा कल्पसूत्र (सूत्र ११६) में इसके स्थान पर 'आर्यघोष' है। लिपि-दोष या वाचनान्तर के कारण यह भेद हुआ हो, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । अधिक सम्भावना लिपि-दोष की ही की जा सकती है। ६. यश (जसे) भावदेवसूरी कृत पार्श्वनाथ चरित्र में पार्श्वनाथ के दस गणधरों के नाम इस प्रकार हैं—आर्यदत्त, आर्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्म, सोम, श्रीधर, वारिसेन, भद्रयश, जय और विजय । १.. प्रमर्दयोग (पमई जोगं) प्रमर्दयोग का अर्थ है-स्पर्शयोग । प्रस्तुत सूत्रगत आठ नक्षत्र उभययोगी होते हैं। ये चन्द्रमा का उत्तर और दक्षिण-दोनों ओर से स्पर्श करते हैं । चन्द्रमा इनके बीच से निकल जाता है। प्रस्तुत आगम के वृत्तिकार ने 'लोकधी' तथा उसकी टीका का उद्धरण प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार प्रमर्दयोग वाले ये नक्षत्र कभी-कभी चन्द्रमा का योग करते हैं। लोकश्री के टीकाकार ने इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है-ये आठों नक्षत्र उभययोगी होते हैं। चन्द्रमा के उत्तर में तथा दक्षिण में योग करते हैं (होते हैं)। कभी-कभी चन्द्रमा इनका भेद भी कर देता है (स्पर्श कर देता है)।' १. समवायांगवृत्ति, पन्न १४ : अष्टौ गणा:-समानवाचनाक्रिया: साधुसमुदायाः, भष्टौ गणधरा:-तन्नामकाः सूरयः, इदं चैतत् प्रमाणं स्थानाङ्ग पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके अन्यथा, तन्न ह्य क्तम्-'दस नवगं गणाण माणं जिणिदाणं' ति कोऽर्थः ? -पार्श्वस्य दस गणाः गणधराश्च, तदिह द्वयोरल्पायुष्कत्वादिना कारणेनाविवक्षाऽनुगन्तव्येति । २. पार्श्वनाथ चरित्र, सर्ग ७, श्लोक १३५२, १३५३ । ३. समवायांगवृत्ति, पन्न १४: प्रष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्ध प्रमई-चन्द्र (:) मध्येन तेषां गच्छतीत्येवंलक्षणं योग--सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति, अवार्थेऽभिहितं लोकश्रियां'पुणन्वसु रोहिणी चित्ता मह जेट्टणराह कित्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोग" न्ति, यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद् भवन्ति, यतो लोकधीटीकाकृतोक्तम् -"एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिच्चन्द्रेण भेदमप्युपयान्तीति । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो समवानो : नौवां समवाय मूल हिन्दी अनुवाद १. ब्रह्मचर्य की गुप्तियां नौ' हैं, जैसे संस्कृत छाया १. नव बंभचेरगुत्तोओ पण्णत्ताओ, नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यया- तं जहानो इत्थी - पसू - पंडगसंसत्ताणि नो स्त्री-पशू-पण्डक-संसक्तानि शय्यासिज्जासणाणि सेविता भवइ। सनानि सेवयिता भवति । नो इत्थोणं कहं कहित्ता भवइ। नो स्त्रीणां कथाः कथयिता भवति । नो इत्थीणं ठाणाइं सेवित्ता नो स्त्रीणां स्थानानि सेवयिता भवति । भवइ। नो इत्थोणं इंदियाइं मणोहराई नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मणोरमाइं आलोइत्ता निझाइत्ता मनोरमाणि आलोकयिता निर्याता भवइ। भवति। नो पणोयरसभोई भवइ। नो प्रणीतरसभोजी भवति । नो पाणभोयणस्स अतिमायं नो पानभोजनस्य अतिमात्र आहर्ता आहारइत्ता भवइ। भवति । नो इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकोलि- नो स्त्रीणां पूर्वरतानि पूर्वक्रीडितानि । याइं सुमरइत्ता भवइ। स्मर्ता भवति । नो सद्दाणुवाई नो रूवाणुवाई नो नो शब्दानुपाती नो रूपानुपातो नो गंधाणुवाई नो रसाणुवाई नो गन्धानुपाती नो रसानुपाती नो स्पर्शानुफासाणुवाई नो सिलोगाणुवाई। पाती नो श्लोकानुपाती। १. ब्रह्मचारी स्त्री, पशु और नपुंसक से संयुक्त शय्या और आसन का सेवन नहीं करता। २. वह स्त्री की कथा नहीं करता। ३. वह स्त्रियों के स्थानों का सेवन नहीं करता। ४. वह स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को नहीं देखता और एकाग्रचित्त से उनका निरीक्षण नहीं करता। ५. वह प्रणीतरसभोजी नहीं होता । ६. वह पान-भोजन का अतिमात्र आहार नहीं करता। ७. वह पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोग और क्रीडाओं का स्मरण नहीं करता। ८. वह शब्दानुपाती (शब्दों में आसक्त), रूपानुपाती, गन्धानुपाती, रसानुपाती, स्पर्शानुपाती और श्लोकानुपाती (श्लाघानुपाती) नहीं होता। ६. वह सात और सुख में प्रतिबद्ध नहीं होता। २. ब्रह्मचर्य की अगुप्तियां नौ हैं, जैसे नो सायासोक्ख-पडिबद्धे यावि नो सातसौख्य-प्रतिबद्धश्चापि भवति ।। भवइ। २. नव बंभचेरअगुत्तीओ पण्णत्ताओ, नव ब्रह्मचर्यागुप्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा तं जहाइत्थी-पसु-पंडग-संसत्ताणि सिज्जा- स्त्री-पशु-पण्डक-संसक्तानि शय्यासनानि सणाणि सेवित्ता भवइ। सेवयिता भवति । इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ । इत्थीणं ठाणाइं सेवित्ता भवइ। १. ब्रह्मचारी स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन करता है। २. वह स्त्री की कथा करता है। ३. वह स्त्रियों के स्थानों का सेवन करता है। स्त्रीणां कथा: कथयिता भवति । स्त्रीणां स्थानानि सेवयिता भवति । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ६ : सू० ३-६ इत्थोणं इंदियाइं मणोहराई स्त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मनो- ४. वह स्त्रियों की मनोहर और मनोमणोरमाइं आलोइत्ता निज्जाइत्ता रमाणि आलोकयिता निर्ध्याता भवति । रम इन्द्रियों को देखता है और एकाग्रभवइ। चित्त से उनका निरीक्षण करता है। पणीयरसभोई भवइ। प्रणीतरसभोजी भवति। ५. वह प्रणीतरसभोजी होता है। पाणभोयणस्स अतिमायं पानभोजनस्य अतिमात्रं पाहा ६. वह पान-भोजन का अतिमात्र आहार आहारइत्ता भवइ। भवति । करता है। इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई स्त्रीणां पूर्वरतानि पूर्वक्रीडितानि स्मर्ता ७. वह पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोग सुमरइत्ता भवइ। भवति। और क्रीडाओं का स्मरण करता है। सद्दाणुवाई रूवाणुवाई गंधाणुवाई शब्दानुपाती रूपानुपाती गंधानुपाती ८. वह शब्दानुपाती, रूपानुपाती, रसाणुवाई फासाणुवाई रसानुपाती स्पर्शानुपाती श्लोकानुपाती। गन्धानुपाती, रसानुपाती, स्पर्शानुपाती सिलोगाणुवाई। और श्लोकानुपाती होता है । सायासोक्ख-पडिबद्धे यावि भवइ। सातसौख्य-प्रतिबद्धश्चापि भवति । ६. वह सात और सुख में प्रतिबद्ध होता है। ३. नव बंभचेरा पण्णता, तं जहा- नव ब्रह्मचर्याणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- ३. ब्रह्मचर्य-आचारांगसूत्र के अध्ययनसंगहणी गाहासंग्रहणी गाथा नौ हैं, जैसे-शस्त्रपरिज्ञा, लोकविजय, सत्थपरिण्णा लोगविजओ शस्त्रपरिज्ञा लोकविजयः शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, आवंती, धुत, सीओसणिज्ज सम्मत्तं। शीतोष्णीयम् सम्यक्त्वम् । विमोहायतन, उपधानश्रुत और महाआवंती धुतं विमोहायणं आवंती धुतम् विमोहायतनम् परिज्ञा। उवहाणसुयं महपरिण्णा ॥ श्रुतम् महापरिज्ञा ॥ ४. पासे गं अरहा नव रयणीओ पार्श्वः अर्हन् नव रत्नोरूर्ध्वमुच्चत्वेन ४. अर्हत् पार्श्व नौ रनि ऊंचे थे । उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। आसीत् । ५. अभीजिनक्खत्ते साइरेगे नव अभिजिन्नक्षत्रं सातिरेकान्नव मुहूतांश- ५. अभिजित् नक्षत्र नौ मुहूत्तों से कुछ महत्ते चंदेणं सद्धि जोगं जोएइ। चन्द्रेण सार्द्ध योगं योजयति । अधिक काल तक (E% मुहूर्त) चन्द्रमा के साथ योग करता है। ६. अभीजियाइया नव नक्खत्ता अभिजिदादीनि नव नक्षत्राणि चन्द्रस्यो- ६. अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चन्द्र के साथ चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं तरेण योगं योजयन्ति, तद्यथा- उत्तर से योग करते हैं, जैसेजहा-अभीजि सवणो घणिट्ठा अभिजित् श्रवणः धनिष्ठा शतभिषग् अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषग्, सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तरा- पूर्वभद्रपदाः उत्तरप्रोष्ठपदाः रेवती पूर्वभद्रपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती, पोटुवया रेवई अस्सिणी भरणी। अश्विनी भरणी। अश्विनी और भरणी। ७. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसमर- ७. उपरीतन तारागण इस रत्नप्रभा पृथ्वी बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ मणीयाद् भूमिभागाद् नवयोजनशतमूर्ध्व के बहुसमरमणीय भूमिभाग से नौ सौ नव जोयणसए उड्ढं अबाहाए अबाधायां उपरितनं तारारूपं चारं योजन के अन्तर से भ्रमण करता है। उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ। चरति । ८. जंबुद्दीवे णं दीवे नवजोयणिया जम्बूद्वीपे द्वीपे नवयोजनिका मत्स्याः ८. जम्बूद्वीप द्वीप में नौ योजन के मत्स्य मच्छा पविसिसु वा पविसंति वा प्राविशन वा प्रविशन्ति वा प्रवेक्ष्यन्ति प्रविष्ट हुए थे, होते हैं और होंगे। पविसिस्संति वा। है. विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए विजयस्य द्वारस्य एकैकस्यां बाहौ नव- विजयद्वार के प्रत्येक पार्श्व में नौ-नौ बाहाए नव-नव भोमा पण्णत्ता। नव भौमानि प्रज्ञप्तानि । भौम हैं। वा। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ६: सू०१०-१७ १०. वाणमंतराणं देवाणं सभाओ वानमन्तराणां देवानां सभाः सुधर्माः नव १०. व्यन्तर देवों के सुधर्मा सभा की ऊंचाई सुधम्माओ नव जोयणाई उड्ढं योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः। नौ योजन की है। उच्चत्तेणं पण्णत्ताओ। ११. सणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स नव दर्शनावरणीयस्य कर्मणो नव उत्तर- ११. दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियां उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ, तं प्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निद्रा प्रचला नौ हैं, जैसे-निद्रा, प्रचला, निद्रानिद्रा, जहा-निद्दा पयला निद्दानिद्दा निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिः प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, चक्षुदर्शनापयलापयला योणगिद्धी चक्षुर्दर्शनावरणं अचक्षुर्दर्शनावरणं वरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनाचक्खुदसणावरणे अचक्खुदंस- अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणम् । वरण और केवलदर्शनावरण । णावरणे ओहिदसणावरणे केवलदसणावरणे। १२. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति १२. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव एकेषां नैरयिकाणां नव पल्योपमानि की स्थिति नौ पल्योपम की है। पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १३. चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं चतुर्थ्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयि- १३. चौथी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की नेरइयाणं नव सागरोवमाई ठिई काणां नव सागरोपमाणि स्थितिः स्थिति नौ सागरोपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १४. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १४. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति नौ नव पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। नव पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है। १५. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १५. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं नव पलिओवमाइं देवानां नव पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति नौ पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । १६.बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं ब्रह्मलोके कल्पे अस्ति एकेषां देवानां १६. ब्रह्मलोककल्प के कुछ देवों की स्थिति नव सागरोवमाइं ठिई नव सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। नौ सागरोपम की है । पण्णत्ता। १७. जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं ये देवा: पक्षम सुपक्ष्म पक्ष्मावत्तं पक्षमप्रभं १७. पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्ष्मावत, पक्ष्मप्रभ, पम्हप्पहं पम्हकंतं पम्हवणं पक्ष्मकान्तं पक्षमवर्ण पक्षमलेश्यं पक्ष्मध्वज पक्ष्मकान्त, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्मपम्हलेसं पम्हज्झयं पम्हसिंग पक्ष्मशृङ्ग पक्ष्मसृष्टं पक्षमकूटं पक्ष्मो- ध्वज, पक्ष्मशृङ्ग, पक्ष्मसृष्ट, पक्ष्मकूट, पम्हसिट्ठ पम्हकूडं पम्हत्तरवडसग तरावतंसकं सूर्य सुसूर्य सूर्यावर्त सूर्यप्रभं पक्ष्मोत्तरावतंसक तथा सूर्य, सुसूर्य, सुज्जं सुसुज्जं सुज्जावत्तं सुज्जपर्भ सूर्यकान्तं सूर्यवर्ण सूर्य लेश्यं सूर्यध्वजं सूर्यावर्त, सूर्यप्रभ, सूर्यकान्त, सूर्यवर्ण, सुज्जकंतं सुज्जवण्णं सुज्जलेसं सूर्यशृङ्गं सूर्यसृष्टं सूर्यकू सूर्योत्तराव- । सूर्यलेश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृङ्ग, सूर्यसृष्ट, सुज्जज्झयं सुज्जसिंगं सुज्जसिट्ठ तंसक रुचिरं रुचिरावर्त रुचिरप्रभं । सूर्य कूट, सूर्योत्तरावतंसक तथा रुचिर, सुज्जकूडं सुज्जुतरवडे सगं रुइल्लं रुचिरकान्तं रुचिरवर्ण रुचिरलेश्य रुचिरावत, रुचिरप्रभ, रुचिरकान्त, रुइल्लाबत्तं रुइल्लप्पभं रुइल्लकंतं रुचिरध्वजं रुचिरशृङ्ग रुचिरसष्ट रुचिरवर्ण, रुचिरलेश्य, रुचिरध्वज, रुइल्लवण्णं रुइल्ललेसं रुइल्लज्झयं रुचिरकूटं रुचिरोत्तरावतंसकं विमानं । रुचिरशृङ्ग, रुचिरसृष्ट, रुचिरकूट और रुइल्लसिंगं रुइल्लसिटुं रुइल्लकूडं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानां । रुचिरोतरावतंसक विमानों में देवरूप रुइल्लुतरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए (उत्कर्षेण ?) नव सागरोपमाणि में उत्पन्न होने वाले देवों की उववण्णा, तेसि णं देवाणं स्थिति: प्रज्ञप्ता। (उत्कृष्ट ? ) स्थिति नौ सागरोपम की (उक्कोसेणं ?) नव सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४२ समवाय ६ : सू० १८-२० १८.ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं ते देवा नवानामर्द्धमासानां आनन्ति वा १८. वे देव नौ पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्व- उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। सन्ति वा। १९. तेसि णं देवाणं नहिं वास. तेषां देवानां नवभिर्वर्षसहाराहारार्थः १६. उन देवों के नौ हजार वर्षों से भोजन सहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है। २०. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २०. कुछ भव-सिद्धिक जीव नौ बार जन्म नहि भवग्गहहि सिन्झिस्संति नवभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और बुझिस्संति मुच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति । टिप्पण १. सूत्र १.२ प्रस्तुत दो आलापकों में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों तथा नौ अगुप्तियों का उल्लेख है । स्थानांग ६/३,४ में भी नौ गुप्तियों तथा नौ अगुप्तियों का उल्लेख हुआ है । दोनों में भाषागत और भावगत ऐक्य है। आवश्यक सूत्र में "नवहिं बंभचेर गुत्तीहि" की वृत्ति करते हुए आचार्य हरिभद्र ने ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का एक प्राचीन गाथा के आधार पर निम्न प्रकार से उल्लेख किया है "वसहिकह निसिज्जि दिय कुडडुतरपुव्वकीलियपणीए । अइमायाहारविभूसणा य नव बंभगुत्तीओ ॥" १. ब्रह्मचारी स्त्री-पशु और नपुंसक से संसक्त वसति का सेवन न करे । २. अकेली स्त्रियों में कथा न करे। ३. स्त्रियों की निषद्या (स्थान) का सेवन न करे। स्त्रियों के चले जाने पर (तत्काल) उस स्थान पर न बैठे। ४. स्त्रियों की इन्द्रियों को आसक्तदृष्टि से न देखे । ५. भीत आदि के छिद्रों से मैथुन-संसक्त स्त्रियों की क्वणित-ध्वनि को न सूने । ६. पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोगों की स्मृति न करे। ७. प्रणीत [स्निग्ध, गरिष्ठ] भोजन न करे । ८. अतिमात्रा में आहार का उपभोग न करे। ६. विभूषा न करे। इनमें तथा समवायांग और स्थानांग में प्रतिवादित नौ गुप्तियों में अन्तर है। २. वह स्त्रियों के स्थानों का सेवन नहीं करता (नो इत्थीणं ठाणाई सेवित्ता भवइ) टीकाकार अभयदेव सूरी ने समवायांग की वृत्ति में 'नो इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवई'-पाठ माना है। उसका अर्थ है-ब्रह्मचारी स्त्री-समुदाय का उपासक न हो। स्थानांग की वृत्ति के अनुसार उन्होंने उत्तराध्ययन के आधार पर 'इत्थिगणाई' के स्थान पर 'इत्थिठाणाई' पाठ स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-कहीं-कहीं 'इत्थिगणाई' पाठ भी उपलब्ध होता है, किन्तु यहां 'इथिठाणाई' पाठ अधिक उपयुक्त लगता है। उत्तराध्ययन में भी यही पाठ उपलब्ध है। उन्होंने इसका अर्थ---'स्त्रियां जहां बैठती हैं वैसे स्थान' १. आवश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ १०४ । २ समवायांगवृत्ति, पत्र १५: Diremairat mirar malis. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४३ समवाय ह : टिप्पण किया है और उसकी व्याख्या करते हुए बताया है-स्त्रियों के साथ एकासन पर न बैठे और ऐसे स्थानों पर भी न बैठे जहां स्त्रियां पहले बैठी हुई हों। स्त्रियों के उठ जाने पर, एक मुहुर्त के बाद वहां बैठा जा सकता है।' ३. ब्रह्मचर्य-आचारांग सूत्र के अध्ययन [बंभचेर] वृत्तिकार अभिदेवसूरी ने ब्रह्मचर्य का अर्थ-कुशल अनुष्ठान तथा संयम किया है। उन्होंने इन अनुष्ठानों का वर्णन आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययनों में प्रतिबद्ध माना है । इस उपलक्षण से आचारांग के नौ अध्ययनों को अथवा आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को "ब्रह्मचर्य" शब्द से अभिहित किया है। इसी आगम में अन्यत्र इसे ब्रह्मचर्य से ही उल्लिखित किया है। प्रस्तुत आलापक में अध्ययनों का जो क्रम दिया है, उसमें सातवां "विमोहायतन" और नौवां "महापरिज्ञा" है । वास्तव में “महापरिज्ञा" सातवां अध्ययन है। इसकी व्यवच्छित्ति हो जाने के कारण इसको अन्त में गिनाया गया है। यह बात वृत्तिकार ने इक्यावनवें समवाय की वृत्ति में कही है। देखें-समवाय ५१/१ का टिप्पण । ४. योग करते हैं (जोगं जाएंति) ये नक्षत्र उत्तर दिशा में रहकर दक्षिण दिशा में स्थित चन्द्रमा के साथ योग करते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति (१०/७५) तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (७/१२८) में चन्द्र के साथ उत्तर से योग करनेवाले १२ नक्षत्रों का उल्लेख है-अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वभद्रपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी और स्वाती। किन्तु यहां नौ नामों का उल्लेख है । स्थानाङ्ग (६/१६) में भी नौ नामों का उल्लेख है । नवें स्थान में और नवें समवाय में नौ ही नाम हो सकते हैं, इस दृष्टि से नौ नामों का उल्लेख है, यह संभावना नहीं की जा सकती। बारहवें समवाय में भी बारह नामों का उल्लेख किया जा सकता था, किन्तु वैसा नहीं किया गया। इससे सहज ही सम्भावना की जा सकती है कि इस विषय में नौ नक्षत्रों की कोई प्राचीन परम्परा रही है। ५. नौ योजन के मत्स्य (नवजोयणिया मच्छा) यद्यपि लवण समुद्र में पांच सौ योजन के मत्स्य हैं, किन्तु नदियों के मुहानों पर जम्बूद्वीप की जगती का द्वार नी योजन का है, इसलिए उसमें इससे बड़े मत्स्य प्रवेश नहीं कर सकते । क्या यह क्षेत्रगत प्रभाव तो नहीं है ? ६. भौम (भोमा) वृत्तिकार के अनुसार कुछ आचार्य भौम का अर्थ 'नगर' और कुछ 'विशिष्ट स्थान करते हैं।' १. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४२२ : 'नो इत्थिगणाई तीह सूत्रं दृश्यते केवलं ‘नो इत्थिठाणाई' ति सम्भाव्यते उत्तराध्ययनेषु तथाऽधीतत्वात् प्रक्रमानुसारित्वाच्चास्येतीदमेव व्याख्यायते-'नो स्त्रीणां, तिष्ठन्ति येषु तानि स्थानानि निषद्याः स्त्रीस्थानानि तानि सेविता भवति ब्रह्मचारी, कोऽर्थः ? स्त्रीभिः सहकासने नोपविशेद्, उत्थितास्वपि हि तासु मूहूर्त नोपविशेदिति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र १६: कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्य तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति । ३. समवायो ५१/१: नवण्हं बंभचेराणं............। -वृत्ति पत्र ६७ : बंभचेराण-प्राचारप्रथमथुतस्कंधाध्ययनाना'" । ४. समवायांगवृत्ति, पत्र ६७ । ५. समवायांगवृत्ति, पत्र १६ : लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चयोजनशतिका मत्स्याः संभवन्ति, तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति ६. समवायांगवृत्ति, पत्र १६ ॥ भौमानि-नगराणीत्येके वशिष्टस्थानानीत्यन्ये । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो समवायो : दसवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. दसविहे समणधम्मे पण्णते, तं दशविधः श्रमणधर्म: प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १. श्रमण-धर्म दस प्रकार का है, जैसे जहा-खंती मुत्ती अज्जवे मद्दवे क्षान्ति: मक्तिः प्राजवं मार्दत लाघवं शान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, लाघवे सच्चे संजमे तवे चियाए सत्यं संयमः तपः त्यागः ब्रह्मचर्थवासः। सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मबंभचेरवासे। चर्यवास। २. दस चित्तसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, दश चित्तसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि, २. वित्त की समाधि के स्थान (हेतु) दस तं जहातद्यथा--- हैं, जैसे-१. किसी को अभूतपूर्व धमचिंता वा से असमुप्पण्णपुव्वा धर्मचिन्ता वा तस्य असमुत्पन्नपूर्वा । धर्म-चिन्ता उत्पन्न होती है, उससे वह समुप्पज्जिज्जा, सव्वं धम्मं समुत्पद्येत, सर्व धर्म ज्ञातुम् । सब धर्मों (वस्तु-स्वभावों) को जानकर जाणित्तए। चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। सुमिणदसणे वा से असमुप्पण्ण- स्वप्नदर्शनं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्व २. किसी को अभूतपूर्व स्वप्न-दर्शन पुव्वे समुप्पज्जिज्जा, अहातच्चं समुत्पद्येत, यथातथ्यं स्वप्नं द्रष्टुम् । होता है। वह यथार्थ-स्वप्न देखकर सुमिणं पासित्तए। चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। सण्णिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे संज्ञिज्ञानं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्व । ३. किसी को अभूतपूर्व संज्ञी-ज्ञान समुप्पज्जिज्जा, पुव्वभवे समुत्पद्यत, पूर्वभवान् स्मर्तुम् । (जाति-स्मृति) उत्पन्न होता है । सुमरित्तए। उससे वह पूर्व जन्मों को जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है । देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे देवदर्शनं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्व । ४. किसी को अभूतपूर्व देव-दर्शन होता समुप्पज्जिज्जा, दिव्वं देविडि समुत्पद्येत, दिव्या देवद्धि दिव्या देवद्युति है, उससे वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं दिव्यं देवानुभाव द्रष्टुम् । देवद्युति और दिव्य देवानुभाव को पासित्तए। देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ओहिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे अवधिज्ञानं वा तस्य असमुत्पन्नपूव । ५. किसी को अभूतपूर्व अवधिज्ञान समुप्पज्जिज्जा, ओहिणा लोगं समुत्पद्येत, अवधिना लोकं ज्ञातुम् । प्राप्त होता है। उससे वह लोक को जाणित्तए। जानकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ओहिदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे अवधिदर्शनं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्वं ६. किसी को अभूतपूर्व अवधिदर्शन समुप्पज्जिज्जा, ओहिणा लोगं समुत्पद्येत, अवधिना लोक द्रष्टुम् । प्राप्त होता है। उससे वह लोक को पासित्तए। देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय १० : सू०३-८ मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्ण- मनःपर्यवज्ञानं वा तस्य । ७. किसी को अभूतपूर्व मनःपर्यवज्ञान पुटवे समुप्पज्जिज्जा, अंतो असमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्यत, अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे । प्राप्त होता है। उससे वह अढाई द्वीप मणुस्सखेत्ते अड्डातिज्जेसु अतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु संज्ञिनां । और समुद्र-मनुष्यलोक में विद्यमान दोवसमुद्देसु सण्णीणं पंचेंदियाणं पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकाना मनोगतान् समनस्क और पर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय पज्जत्तगाणं मणोगए भावे भावान् ज्ञातुम् । जीवों के' मनोगत भावों को जानकर जाणित्तए। चैत सिक समाधान को प्राप्त होता है। केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे केवलज्ञानं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्व ८. किसी को अभूतपूर्व केवलज्ञान प्राप्त समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोगं समुत्पद्येत, केवलं लोकं ज्ञातुम् । होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक को जाणित्तए। जानकर चतसिक समाधान को प्राप्त होता है। केवलदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे केवल दर्शनं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्व ६. किसी को अभूतपूर्व केवलदर्शन प्राप्त समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोयं समुत्पद्येत, केवलं लोकं द्रष्टुम् । होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक को पासित्तए। देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। केवलिमरणं वा मरिज्जा, केवलिमरणं वा म्रियेत, सर्वदुःख- १०. समस्त दुःखों को क्षीण करने के सव्वदुक्खप्पहीणाए। प्रहाणाय। लिए केवलीमरण को प्राप्त करने वाला चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ३. मंदरे णं पध्वए मूले मन्दरः पर्वतः मूले दशयोजनसहस्राणि ३. मन्दर पर्वत का मूल दस हजार योजन दसजोयणसहस्साई विखंभेणं विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । चौड़ा है। पण्णत्ते। ४. अरहा णं अरिटुनेमी दस धणूई अर्हन् अरिष्टनेमिः दश धनूंषि ४. अर्हत् अरिष्टनेमि दस धनुष्य ऊंचे थे। __ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।। ५. कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई कृष्णो वासुदेवः दश धनूंषि ऊर्ध्वमुच्च- ५. वासुदेव कृष्ण दस धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। त्वेन आसीत् । ६. रामे णं बलदेवे दस धणूई उड्ढं रामो बलदेवः दश धनूंषि ऊर्ध्वमुच्च- ६. बलदेव राम दस धनुष्य ऊंचे थे । उच्चत्तेणं होत्था। त्वेन आसीत् । ७. दस नक्खत्ता नाणविद्धिकरा दश नक्षत्राणि ज्ञानवृद्धिकराणि ७. ज्ञानवृद्धि करने वाले' नक्षत्र दस हैं, पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- जैसेसंगहणी गाहा--- संग्रहणी गाथा १. मृगशिर ६. पूर्वफल्गुनी २. आर्द्रा ७. मूल मिगसिरमद्दा पुस्सो, मृगशिरः पार्दा पुष्यः, ३. पुष्य ८. अश्लेषा तिणि अ पुव्वा य मूलमस्सेसा। त्रयश्च पूर्वाश्च मूलमश्लेषा। ४. पूर्वाषाढा ६. हस्त हत्यो चित्ता य तहा, हस्तश्चित्रा च तथा, ५. पूर्वभद्रपदा १०. चित्रा । दस विद्धिकराई नाणस्स ॥ दश वृद्धिकराणि ज्ञानस्य ॥ ८. अकम्मभूमियाणं मणआणं अकर्मभूमिजानां मनुजानां दशविधा ८. दस प्रकार के वृक्ष अकर्मभूमिज मनुष्यों दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए वृक्षा उपभोगाय उपस्थिताः प्रज्ञप्ताः, के उपभोग में आते हैं, जैसेउत्थिया पणत्ता, तं जहा- तद्यथा--- Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो संगही गाहा— संग्रहणी गाथा- मत्तगया य भिंगा, मत्ताङ्गकाश्च भृङ्गाः, तुडिगा दीव जोइ चित्तंगा । तूर्याङ्गा दीपाः ज्योतिषः चित्राङ्गाः । चित्ररसा मण्यङ्गाः, चित्तरसा मणिगा, गेहाकाराः अनग्नाश्च ॥ गेहाणारा अणिगणा य ॥ 8. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं जहणेणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता । १०. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ११. उत्थ पुढी दस रियावाससय सहस्सा पण्णत्ता । १२. चउत्थीए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३. पंचमाए पुढवीए नेरइयाणं जहणणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १४. असुरकुमाराणं देवाणं जहणणं दस वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता । १५. असुरिदवज्जाणं भोमेज्जाणं वाणं जहणणं दस वाससहस्सा इं ठिई पण्णत्ता । १६. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं दस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १७. बायरवणप्फतिकाइयाणं उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता । १८. वाणमंतराणं देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्सा इं ठिई पण्णत्ता । ४६ अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां जघन्येन दश वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां दश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । चतुर्थ्यां पृथिव्यां दश नरकावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । चतुर्थ्यां पृथिव्यां नैरयिकाणां उत्कर्षेण दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । पञ्चम्यां पृथिव्यां नैरयिकाणां जघन्येन दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानां जघन्येन दश वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरेन्द्रवर्जानां भौमेयानां देवानां जघन्येन दश वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानामस्ति एकेषां दश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । बादरवनस्पतिकायिकानामुत्कर्षेण दश वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । वानमन्तराणां देवानां जघन्येन दश वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । समवाय १० : सू० ६-१८ १. मदांगक- मादक रस वाले । २. भृतांग - भाजनाकार पत्तों वाले । ३. त्रुटितांग - बाजों की ध्वनि उत्पन्न करने वाले । ४. दीपांग - प्रकाश करने वाले । ५. ज्योति - अग्नि की भांति उल्का सहित प्रकाश करने वाले । ६. चित्रांग - मालाकार पुष्पों से लदे हुए । ७. चित्ररस - विविध प्रकार के मनोज्ञ रस वाले। ८. मणिअंगआभरणाकार अवयवों वाले । ६. गेहाकार-घर के आकार वाले । १०. अनग्न - नग्नत्व को ढांकने के उपयोग में आने वाले । ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । १०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति दस पल्योपम की है । ११. चौथी पृथ्वी में दस लाख नरकावास है । १२. चौथी पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है। १३. पांचवीं पृथ्वी के नरयिकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम की है 1 १४. असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । १५. असुरेन्द्र को छोड़कर भवनवासी देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । १६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति द पल्योपम की है । १७. बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की है। १८. व्यन्तर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४७ समवाय १० : सू० १६-२५ १६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां देवानां १६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं दस पलिओवमाइं दश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। की स्थिति दस पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। २०. बंभलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं ब्रह्मलोके कल्पे देवानां उत्कर्षेण दश २०. ब्रह्मलोककल्प के देवों की उत्कृष्ट दस सागरोवमाइं ठिई पण्णता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति दस सागरोपम की है। २१. लंतए कप्पे देवाणं जहण्णणं लान्तके कल्पे देवानां जघन्येन दश २१. लान्तककल्प के देवों की जघन्य स्थिति दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। दस सागरोपम की है। २२. जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं ये देवा घोषं सुघोषं महाघोषं नन्दिघोषं २२. घोष, सुघोष, महाघोष, नंदीघोष, नंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्मं सुस्वरं मनोरमं रम्यं रम्यकं रमणीयं सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, रम्मगं रमणिज्जं मंगलावत्तं मंगलावर्त ब्रह्मलोकावतंसकं विमानं मंगलावर्त और ब्रह्मलोकावतंसक बंभलोगवडेंसगं विमाणं देवत्ताए देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षण विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले उववण्णा, तेसि णं देवाणं दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। देवों की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई की है। पण्णत्ता। २३. ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं ते देवा दशानामर्द्धमासानां आनन्ति वा २३. वे देव दस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्वसन्ति उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। वा। २४. तेसि णं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहिं तेषां देवानां दशभिर्वर्षसहस्रराहारार्थः २४. उन देवों के दस हजार वर्षों से भोजन आहारट्ठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है। २५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २५. कुछ भव-सिद्धिक जीव दस बार जन्म दसहिं भवग्गहहिं सिन्झिस्संति दशभिर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिबुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- निर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अंत निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करेंगे। करिस्संति। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्रमण-धर्म दस प्रकार का ( दसविहे समणधम्मे) प्रस्तुत आलापक में श्रमण-धर्म के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं। स्थानांग सूत्र के पांचवें स्थान के दो सूत्रों ( ३४-३५ ) में पांचपांच श्रमण-धर्मो के तथा दसवें स्थान के १६ वें सूत्र के दस धर्मों का उल्लेख हुआ है। स्थानांग की वृत्ति के अनुसार इनका अर्थ यह है' १. क्षान्ति - क्रोध निग्रह | २. मुक्ति- लोभ निग्रह । ३. आर्जव - माया निग्रह | ४. ५. ६. ७. ८. ε. १०. त्याग - विसर्जन | ब्रह्मचर्यवास - कामभोग-विरति । हरिभद्रसूरी ने आवश्यकवृत्ति में श्रमण-धर्म के दस प्रकार ये माने हैं- क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य।' उन्होंने मतान्तर का उल्लेख भी किया है। उसके अनुसार दस धर्म ये हैं- क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, तप, संयम, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ।' विशेष विवरण के लिए देखें - ठाणं, १०/१६ का टिप्पण नं० ७, पृष्ठ ६५६-६६१ । मार्दव - मान निग्रह | लाघव - उपकरणों की अल्पता, ऋद्धि, रस और सात- इन तीनों गौरवों का त्याग । सत्य — काय - ऋजुता, भाव ऋजुता, भाषा ऋजुता और अविसंवादन योग- कथनी करनी की समानता । संयम - हिंसा आदि की निवृत्ति । तप - बारह प्रकार की तपस्या । २. चित्त की समाधि के स्थान ( हेतु) (चित्तसमाहिट्ठाणा ) समाधि शब्द के अनेक अर्थ हैं। दशवैकालिक के वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इसके तीन अर्थ किए हैं—हित, सुख और स्वास्थ्य | अगस्त्य सिंह स्थविर ने दशवैकालिक चूर्णि में समाधि का अर्थ गुणों का स्थिरीकरण या स्थापन किया है।' चित्त की समाधि का अर्थ है-मन की समाधि मन का समाधान, मन की प्रशान्तता । स्थान शब्द के दो अर्थ हैंआश्रय अथवा भेद । प्रस्तुत आलापक में चित्तसमाधि के दस स्थान निर्दिष्ट किए हैं। उनमें कुछेक बहुत स्पष्ट हैं। जो अस्पष्ट हैं उनकी व्याख्या इस प्रकार है १. १. स्थानांगवृत्ति, पत्र २५२, २८३ । २. घावश्यक, हारिभद्वीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ १०४ : खंतीय मद्दवज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं प्राकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥ धर्मचिन्ता - समवायांग के वृत्तिकार ने इस पद के तीन अर्थ किए हैं १. पदार्थों के स्वभाव की अनुप्रेक्षा । ३. प्रावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृ० १०४ : प्रन्ये त्वेवं वदन्ति टिप्पण खंती मृत्ती प्रज्जव मद्दव तह लाघवे तवे चेव । संयम चियागsकिचण बोद्धव्वे बंभचेरे य ॥ ४. हारिभद्रीयावृत्ति ( दसर्वकालिक ), पत्र २५६ : समाधानं समाधिः - परमार्थत प्रात्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम् । ५. प्रगस्त्य चूर्णि । ६. समवायांगवृत्ति पत्र १७: चित्तस्य मनसः समाधि:- समाधानं प्रशान्तता । ७ समवायांगवृत्ति पत्र १७ : स्थानानि प्राश्रया भेदा वा । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ४६ २. सर्वज्ञभाषित धर्म ही प्रधान है, इस प्रकार का चिन्तन करना । ३. धर्म के ज्ञान का कारणभूत चिन्तन । असमुप्पण्णपुव्वा - जो अनादि अतीत काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, वैसी धर्मचिन्ता के उत्पन्न होने पर अर्द्धपुद्गल परावर्त काल की सीमा में उस व्यक्ति का मोक्ष अवश्यंभावी हो जाता है। ऐसी धर्मचिन्ता से व्यक्ति का मन समाहित हो जाता है और वह जीव आदि के यथार्थ स्वरूप को जानकर, परिहीय कर्म का परिहार कर अपना कल्याण साध लेता है । २. स्वप्न-दर्शन -- इसका सामान्य अर्थ है - नींद में विभिन्न प्रकार के संवेदन करना। वही स्वप्न-दर्शन चित्त समाधि का हेतु बनता है जो यथार्थग्राही होता है, जो कल्याण प्राप्ति का सूचक होता है। जैसे भगवान् महावीर को अस्थिकग्राम में स्वप्न-दर्शन हुआ था । भगवान् वहां शूलपाणियक्ष के मंदिर में रहे। शूलपाणियक्ष ने भगवान् को रात्रि के चारों प्रहर ( कुछ समय कम ) तक कष्ट दिए । रात्रि की अंतिम वेला में भगवान् को कुछ नींद आई। तब उन्होंने दस स्वप्न देखे । ये दसों स्वप्न यथार्थ थे और ये भावी कल्याण के सूचक थे। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को यथार्थ स्वप्न-दर्शन होता है वह भावी कल्याण की रेखाएं जानकर चित्त समाधि को प्राप्त हो जाता है । ३. संज्ञीज्ञान - प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ है-जातिस्मृति, पूर्वजन्मज्ञान । संज्ञाओं के अनेक वर्गीकरण हैं। उनमें एक वर्गीकरण के अनुसार संज्ञाएं तीन हैं १. हेतुवादोपदेशिकी । २. ३. दीर्घकालिकी । दृष्टिवाद - सम्यक् दृष्टि । ये तीनों ज्ञानात्मक हैं । ये क्रमशः विकलेन्द्रिय जीवों के, सम्यग्दृष्टि वाले जीवों के तथा समनस्क जीवों के होती हैं । वृत्तिकार का अभिप्राय है कि प्रस्तुत प्रकरण में दीर्घकालिकी संज्ञा ही ग्राह्य है । वह जिसके होती है वह समनस्क होता है, और उसका ज्ञान संज्ञीज्ञान कहलाता है । यह सामान्य ज्ञान का वाचक है, परन्तु सूत्र की संगति के लिए संज्ञीज्ञान को जातिस्मृति ज्ञान ही मानना होगा ।' जातिस्मृति से पूर्वभवों का ज्ञान होने पर व्यक्ति में संवेग की वृद्धि हो सकती है और उससे उसे चित्त-समाधि प्राप्त होती है । ' ४. देव दर्शन - यह भी समाधि का कारण बनता है। देव अमुक-अमुक साधक के गुणों से आकृष्ट होकर उसे दर्शन देते हैं, उसके सामने प्रकट होते हैं। वे अपनी दिव्य देवऋद्धि - मुख्य देव परिवार आदि को दिव्य देवद्युति - विशिष्ट शरीर तथा आभूषणों आदि की दीप्ति को तथा दिव्य देवानुभाव - उत्कृष्ट वैक्रिय आदि करने के सामर्थ्य को उस साधक को दिखाने के लिए प्रगट होते हैं । उन देवों की ऋद्धि द्युति और अनुभाव को देखकर साधक के मन में आगमों के प्रति दृढ़ श्रद्धा पैदा होती है और धर्म के प्रति बहुमान - आन्तरिक अनुराग उत्पन्न होता है। इससे चित्त को समाधान प्राप्त होता है । ५, ६, ७. इसी प्रकार विशिष्ट अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न होने पर उसका चित्त समाहित और शांत हो जाता है विकल्प नष्ट हो जाते हैं। ८. केवलज्ञान यह समाधि का ही एक भेद है। इसलिए इसे समाधि का हेतुभूत माना है। यहां केवली के चित्त का अर्थ है - चैतन्य । केवलज्ञान इन्द्रिय और मानसिक ज्ञान से अतीत होता है। वह निरपेक्ष ज्ञान है। वह चैतन्य का सम्पूर्ण जागरण T समवाय १० : टिप्पण है । वही चित्त समाधि है । यहां कार्य में कारण का उपचार कर केवलज्ञान को चित्त समाधि का हेतु माना है । १०. केवलिमरण - यह सर्वोत्तम समाधि का स्थान है । केवलिमरण मरनेवाला सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत हो जाता है।' दशाश्रुतस्कंध ( दशा 1 ) में दस चित्त समाधि स्थानों का उल्लेख है। वहां संज्ञीजातिस्मरण दूसरा और स्वप्न-दर्शन तीसरा चित्तसमाधि स्थान है । १. समवायांगवृत्ति, पत्र १७: सञ्ज्ञानं सञ्ज्ञा सा च यद्यपि हेतुवाददृष्टिवाददीर्घकालिकोपदेशभेदेन क्रमेण विकलेन्द्रियसम्यग्दृष्टिसमनस्क सम्बन्धितत्वात्तिधा भवति तथापीह दीर्घकालिकोपदेशसञ्ज्ञा ग्राह्येति, सा यस्यास्ति स सञ्ज्ञीसमनस्कस्तस्य ज्ञानं सञ्ज्ञिज्ञानं तच्चे हा धिकृत सूत्राम्यथानुपपत्तेर्जातिस्मरणमेव । २. समवायांगवृत्ति पत्र १७ : स्मृतपूर्वभवस्य च संवेगात् समाधिरुत्पद्यते । ३. समवायांगवृत्ति पत्र १७-१८ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ५० समवाय १० : टिप्पण ३. उससे वह..." जीवों के (अंतो मणुस्सखेत्ते.... "पज्जत्तगाणं) अंगसत्ताणि, भाग १, पृष्ठ ८४० में संख्याङ्क ६ पादटिप्पण दिया हुआ है। वह इस प्रकार है-जाव मणोगए (क, ख, ग), वृत्तौ 'जाव' शब्द नास्ति व्याख्यातः । नावश्यकोपि प्रतिभाति, तेन न स्वीकृतः। उस समय तक हमें 'जाव' पद द्वारा संकेतित पाठ उपलब्ध नहीं हुआ था। अब दशाश्रुतस्कंध (५/७) में वह पाठ उपलब्ध हुआ है और उसे हमने मुलपाठ में स्वीकार किया है। 'जाव' पद के द्वारा संकेतित पाठ यह है —'अंतो मणुस्सखेत्ते अड्डातिज्जेसु दोवसमुद्देसु सण्णीणं पंचदियाणं पज्जतगाणं'। ४. सूत्र ३ : मिलाएं-ठाणं, १०/२६ । मिलाए । ५. सूत्र ४: मिलाएं-ठाणं १०/७६ । ६. सूत्र ५ः मिलाएं-ठाणं १०/८०। ७. ज्ञानवृद्धि करने वाले (नाणविद्धिकरा) प्रस्तुत आलापक में ज्ञान की वृद्धि करने वाले दस नक्षत्रों का उल्लेख है। ज्ञान की वृद्धि ज्ञानावरण कर्म के क्षय, क्षयोपशम भाव से सम्बन्धित है। आचार्यों की मान्यता है कि कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम ये सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के आधार पर होते हैं। कर्मों के सफल या विपल होने में इन सभी तत्त्वों का प्रभाव होता है। जब चन्द्रमा की युति इन नक्षत्रों से होती है तब ये नक्षत्र ज्ञान की आराधना के हेतुभूत बनते हैं। इन नक्षत्रों के योग में ज्ञान सीखने या ज्ञान देने की प्रवृत्ति होती है तो ज्ञान की समृद्धि होती है। उस समय ज्ञान अविध्नतया अधीत होता है, श्रुत होता है, व्याख्यात होता है और धारणा में अविचल बन जाता है। विशिष्ट काल ज्ञान की सम्पन्नता में हेतुभूत बनता है। तुलना-ठाणं १०/१७० । ८. दस प्रकार के वृक्ष (दसविधा रुक्खा) मनुष्यों के दो प्रकार हैं१. अकर्मभूमिज मनुष्य-यौगलिक मनुष्य । २. कर्मभूमिज मनुष्य-शिल्पकला आदि कर्म करने वाले मनुष्य । कर्मभूमिज मनुष्य अपने जीवन की आवश्यकताएं कर्म, शिल्प, विद्या आदि के द्वारा पूरी करते हैं । अक्रर्मभूमिज मनुष्यों की आवश्यकताएं अत्यल्प होती हैं और उनकी पूर्ति वृक्षों से हो जाती है। प्रस्तुत आलापक में उपयोग में आने वाले अर्थात् आवश्यकता की पूर्ति करने वाले दस प्रकार के वृक्षों का उल्लेख है। स्थानांग १०/१४२ में भी इन्हीं दस वृक्षों का उल्लेख है। वहां इनका उल्लेख सुषम-सुषमा काल के वृक्षों के रूप में हुआ है और यहां अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग में आनेवाले वृक्षों के रूप में हुआ है। यहां शब्द भेद है, अर्थभेद नहीं। १. मत्तांगद (मदांगक)-मत्त होने का हेतु है मदिरा। मदिरा देने वाले अर्थात् ऐसे वृक्ष जिनसे मादक रस झरता हो । २. भृतांग-भृत का अर्थ है भरना और अंग का अर्थ है-कारण। भृतांग अर्थात भाजन । क्योंकि भाजन के बिना भरणक्रिया नहीं होती। अत: यहां उपलक्षण से भाजन गृहीत है । प्राकृत में भृतांग को "भिंग" कहा गया है। १. स्थानांगवृत्ति, पब ४८: एतनक्षत्रयुक्ते चन्द्रमसि सति ज्ञानस्य-श्रतज्ञानस्योद्देशादिर्यदि क्रियते तदा ज्ञानं समद्धिमपयाति-प्रविघ्नेनाधीयते श्रूयते व्याख्यायते धार्यते वेति, भवति च कालविशेषस्तथाविधकार्येषु कारणं क्षयोपशमादि हेतुत्वात्तस्य, यदाह 'उदयक्खयखमोवसमोबसमा जं चं कम्मणो भणिया । दव्वं खेतं कालं भवं च भावं च संपप्प ।।' Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ५१ ३. त्रुटितांग - अनेक प्रकार की संगीत ध्वनि करने वाले वृक्ष । ४. दीपांग - प्रकाश करने वाले । ५. ६. 19. ८. ε. १०. ज्योतिअंग - ज्योति का अर्थ है-अग्नि । सुषम- सुषमा काल में अग्नि नहीं होती, अतः अग्नि की भांति सौम्य प्रकाश करने वाले वृक्ष ज्योतिअंग कहलाते हैं । चित्रांग - विवक्षा के अनुसार अनेक प्रकार की मालाओं के हेतुभूत वृक्ष । चित्ररस - विविध प्रकार के मनोज्ञ और मधुर रस देने वाले वृक्ष । इनसे भोजन की आवश्यकता पूरी हो जाती है । मणिअंग --- मणिमय आभरणों के हेतुभूत वृक्ष । गेहाकार - गृह के आकार वाले वृक्ष । इनसे आवास की आवश्यकता पूरी हो जाती है। अनग्न - नग्नत्व को ढकने के लिए उपयोगी वृक्ष い कल्पवृक्षों के संबंध में यही सामान्य या रूढ कल्पना करने मात्र से वे पदार्थ प्रस्तुत हो जाते हैं। भी लुप्त हो गए । सर्वप्रथम इस रूढ मान्यता का कोई पुष्ट आधार नहीं है। समवायांग और स्थानांग में इन वृक्षों के उल्लेख हैं । वहां वृत्तिकार अभय देव सूरी बहुत स्पष्ट हैं। उन्होंने इन वृक्षों को यौगलिकों की अल्प आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन मात्र माना है । यौगलिक मनुष्यों की आवश्यकताएं बहुत कम थीं और वे सब इन वृक्षों से सहजतया पूरी हो जाती थीं । इसलिए इन्हें कल्पवृक्ष कह दिया। इन विभिन्न प्रकार के वृक्षों के भिन्न-भिन्न प्रयोग होते थे, परन्तु ऐसा नहीं था कि किसी कल्पवृक्ष के नीचे खड़े होकर सप्तभौम की कल्पना करने मात्र से सप्तभौम प्रासाद तैयार हो जाता अथवा खीर-पूरी की इच्छा करने मात्र से वह मिल जाता । सारी बातें उपचार से कह दी जाती हैं । १ स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६० १ मत्तंगेसु य मज्जं भाणयाणि मिगेसु । समवाय १० : टिप्पण भारतीय साहित्य में इच्छापूर्ति के साधन स्वरूप तीन चीजें बहुचर्चित हैं-- कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष । कामना करने मात्र से, चिन्तन करने मात्र से और कल्पना करने मात्र से वस्तु की प्राप्ति हो जाना क्रमशः इन तीनों का कार्य माना जाता है । वास्तव में तीनों एक हैं और आवश्यकता पूर्ति के जो-जो साधन हैं वे सब इनके वाचक बन जाते हैं। तुडियगेसु य संगततुडियाई बहुप्पगाराई ॥ २: दीवमिहाजोइसनामया य एए करिति उज्जोय । चित्तंगेसु य मल्लं चित्तरमा भोयणट्टाए || ३ मणियंगेसु य भूषणवराई, भवणाई भवरुखे । श्राइनेसु य धणियं वत्याई बहुप्पगाराई ॥ धारणा रही है कि कल्पवृक्ष मन इच्छित वस्तुओं की संपूर्ति करते हैं । यह भी मान्यता रही है कि यौगलिक परंपरा के साथ-साथ ये कल्पवृक्ष Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमो समवायो : ग्यारहवां समवाय उसो! मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. एक्कारस उवासगपडिमाओ एकादश उपासकप्रतिमाः प्रज्ञप्ताः, १. उपासक की प्रतिमाएं ग्यारह हैं,' पण्णत्ताओ, तं जहा-दसणसावए, तद्यथा-दर्शनश्रावकः, कृतव्रतकर्मा, जैसे-१. दर्शनश्रावक । २. कृतव्रतकयन्वयकम्मे, सामाइअकडे, कृतसामायिकः, पोषधोपवासनिरतः, कर्म । ३. कृतसामायिक । ४. पोषधोपपोसहोववासनिरए, दिया बंभयारी दिवा ब्रह्मचारी रात्रौ कृतपरिमाणः, वासनिरत। ५. दिन में ब्रह्मचारी और रति परिमाणकडे, दिआवि दिवापि रात्रावपि ब्रह्मचारी अस्नायी रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण करने राओवि बंभयारी असिणाई विकटभोजी कृतमौलिः, परिज्ञातसचित्तः, वाला। ६. दिन और रात में ब्रह्मचर्य का वियडभोई मोलिकडे, सचित्त- परिज्ञातारम्भः, परिज्ञातप्रेष्य, परिज्ञात- पालन करने वाला, स्नान न करने परिणाए, आरंभपरिणाए, उद्दिष्टभक्तः, श्रमणभूतः चापि भवति, वाला, दिन में भोजन करने वाला और पेसपरिणाए, उद्दिट्ठभत्तपरिणाए, श्रमण ! आयुष्मन् ! कच्छ न बांधने वाला। ७. सचित्तसमणभूए यावि भवइ समणा परित्यागी। ८. आरम्भ-परित्यागी। ६. प्रेष्य-परित्यागी। १०. उद्दिष्ट-भक्तपरित्यागी। ११. श्रमणभूत। आयुष्मन् श्रमणो ! उपासक ग्यारह प्रतिमाओं से सम्पन्न होता है। २. लोगंताओ णं एक्कारस एक्कारे लोकान्तात् एकादश एकादश योजनशतं २. लोकान्त और ज्योतिष्-चक्र के पर्यन्त जोयणसए अबाहाए जोइसंते अबाधया ज्योतिषान्तं प्रज्ञप्तम् । (छोर) में ११११ योजन का अंतर पण्णत्ते। ३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य ३. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत के ११२१ एक्कारस एक्कवीसे जोयणसए एकादश एकविंशति योजनशतं अबाधया योजन के अन्तर से ज्योतिष-चक्र परिप्रबाहाए जोइसे चारं चरइ। ज्योतिषं चारं चरति। भ्रमण करता है। ४. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य एकादश ४. श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह एक्कारस गणहरा होत्या, तं गणधरा आसन, तद्यथा-इन्द्रभूतिः गणधर थे, जैसे- इन्द्रभूति, अग्निभूति, जहा-इंदभूती अग्गिभूतो वायुभूति अग्निभतिः वायभूतिः व्यक्तः सुधर्मा वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडित, मौर्यविअत्ते सुहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते मण्डितः मौर्यपुत्रः अकम्पितः अचल- पुत्र, अकंपित, अचलभ्राता, मेतार्य और अकंपिए अयलभाया मेतज्जे भ्राता मेतार्यः प्रभासः ।। पभासे। प्रभास। एक्कारसतारे मुलं नक्षत्र एकादशतारं प्रज्ञप्तम् । ५. मुले नक्खत्ते पण्णते। ५. मूल नक्षत्र के तारे ग्यारह हैं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो देवाणं ६ हे टिम विज्जयाणं एक्कारसुत्तरं विज्जविमाणसतं भवइत्ति मक्खायं । ७. मंदरे णं पव्वए धरणितलाओ मन्दरः पर्वतः धरणीतलात् शिखरतले सिहरतले एक्कारसभागपरिहीणे एकादशभागपरिहीण: उच्चत्वेन उच्चतेणं पण्णत्ते । प्रज्ञप्तः । ८. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए त्या नेरइयाणं एक्कारस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ६ पंचमाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस सागरोवसाई ठिई पण्णत्ता । १०. असुरकुमाराणं देवानं अत्थेगइयाणं एक्कारस पलिओ माइं ठिई पण्णत्ता । ११. सोहम्मोसाणे कप्पेसु अत्येगइ - या देवाणं एक्कारस पलिओव - माई ठिई पण्णत्ता । १२. लंत कप्पे अत्येगइयाणं देवाणं एक्कारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३. जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभ बंभकतं भवणं बंभलेसं बंभज्यं बंभसिंगं बंभसि बंभकूडं बंभुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा, तेसि णं देवानं ( उक्कोसेणं ? ) एक्कारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १४. ते णं देवा एक्कारसहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १५. तेसि णं देवाणं एक्कारसहं वाससहस्साणं आहारट्ठे समुपज्जइ । १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे एक्कासह भवग्गहह सिज्झिसंति बुज्झिस्संति मुच्चिसंति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । ५३ अत्रस्तनग्रैवेयकाणां देवानां एकादशोत्तरं ग्रैवेयविमानशतं भवतीति आख्यातम् । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां एकादश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । पञ्चम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां एकादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानामस्ति एकेषां एकादश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां देवानां एकादश पत्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । लान्तके कल्पे अस्ति एकेषां देवानां एकादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ये देवा ब्रह्म सुब्रह्म ब्रह्मावर्त ब्रह्मप्रभं ब्रह्मकान्तं ब्रह्मवर्ण ब्रह्मलेश्यं ब्रह्मध्वजं ब्रह्मशृङ्गं ब्रह्मसृष्टं ब्रह्मकूटं ब्रह्मोत्तरावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः तेषां देवानां (उत्कर्षेण ? ) एकादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ते देवा एकादशानामर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये एकादशभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्थिति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । समवाय ११ सू० ६-१६ ६. निचले ग्रैवेयक देवों के १११ ग्रैवेयक विमान हैं- ऐसा कहा गया है। ७. मन्दर पर्वत की धरणीतल से शिखर तक की चौड़ाई ऊपर से ऊपर ग्यारह भाग हीन होती चली जाती है। ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति ग्यारह पल्योपम की है। ६. पांचवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिको की स्थिति ग्यारह सागरोपम की है । १०. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम की है । ११. सौधर्म और ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति ग्यारह पत्योपम की है । १२. लान्तक कल्प के कुछ देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम की है । १३. ब्रह्म, सुब्रह्म ब्रह्मावर्त, ब्रह्मप्रभ, ब्रह्मकान्त, ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मलेश्य, ब्रह्मध्वज, ब्रह्मशृङ्ग, ब्रह्मसृष्ट, ब्रह्मकूट और ब्रह्मोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की ( उत्कृष्ट ? ) स्थिति ग्यारह सागरोपम की है । तेषां देवानां एकादशभिर्वर्षसहस्रैराहा - १५. उन देवों के ग्यारह हजार वर्षों से रार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । १४. वे देव ग्यारह पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । १६. कुछ भव- सिद्धिक जीव ग्यारह बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अंत करेंगे । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. प्रतिमाएं (पडिमाओ) प्रतिमा का अर्थ है अभिग्रह-अमुक प्रकार की प्रतिज्ञा या संकल्प । यहां प्रतिमा और प्रतिमावान् व्यक्ति का अभेदोपचार कर प्रतिमाओं का प्रतिमावान् व्यक्ति के रूप में निर्देश किया गया है। प्रस्तुत समवाय में उनके नामों का उल्लेख मात्र है। उनका विवरण दशाश्रुतस्कन्ध (दशा ६) के आधार पर इस प्रकार है१. दर्शनश्रावक-यह पहली प्रतिमा है। इसका कालमान एक मास का है। इसमें सर्वधर्म विषयक रुचि होती है, किन्तु अनेक शीलवत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास आदि का आत्मा में प्रतिष्ठापन नहीं होता है। केवल सम्यग्-दर्शन उपलब्ध होता है। २. कृतव्रतकर्म-यह दूसरी प्रतिमा है। इसका कालमान दो मास का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धि के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक अनेक शीलवत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास आदि का सम्यक् प्रतिष्ठापन करता है, किन्तु बह सामायिक और देशावकाशिक का अनुपालन नहीं करता। ३. कृतसामायिक-यह तीसरी प्रतिमा है। इसका कालमान तीन महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक प्रात: और सायंकाल सामायिक और देशावकाशिक का पालन करता है, परन्तु पर्व-दिनों में प्रति पूर्ण पोषधोपवास नहीं करता। ४. पोषधोपवासनिरत-यह चौथी प्रतिमा है। इसका कालमान चार महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पौर्णमासी आदि पर्व-दिनों में प्रतिपूर्ण पोषध करता है परन्तु 'एकरात्रिकी उपासक प्रतिमा' का अनुगमन नहीं करता। ५. दिन में ब्रह्मचारी'"-यह पांचवीं प्रतिमा है। इसका कालमान पांच महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक "एकरात्रिकी उपासक प्रतिमा" का सम्यक् अनुपालन करता है तथा स्नान नहीं करता, दिवाभोजी होता है, धोती के दोनों अंचलों को कटिभाग में टांक लेता है--नीचे से नहीं बांधता, दिवा ब्रह्मचारी और रात्री में अब्रह्मचर्य का परिमाण करता है। इस दशाश्रुतस्कन्धगत विवरण के अनुसार प्रस्तुत प्रतिमा का मुख्य अंग 'एकरात्रिकी उपासक प्रतिमा' है। किन्तु समवायांग में वह प्राप्त नहीं है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इसकी चर्चा की है।' ६. दिन और रात में ब्रह्मचारी ----यह छठी प्रतिमा है। इसका कालमान छह महीनों का है । इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक दिन और रात में ब्रह्मचारी रहता है, किन्तु सचित्त का परित्याग नहीं करता। ७. सचित्त-परित्यागी-यह सातवी प्रतिमा है। इसका कालमान सात महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के __ अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक सम्पूर्ण सचित्त का परित्याग करता है, किन्तु आरम्भ का परित्याग नहीं करता। ८. प्रारम्भ-परित्यागो-यह आठवीं प्रतिमा है। इसका कालमान आठ महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक आरम्भ-हिंसा का परित्याग करता है, किन्तु प्रेष्यारम्भ का परित्याग नहीं करता। ६. प्रेष्य-परित्यागो-यह नौवीं प्रतिमा है। इसका कालमान नौ महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक प्रेष्य आदि से हिंसा करवाने का परित्याग करता है, किन्तु उद्दिष्टभक्त का परित्याग नहीं करता। १०. उद्दिष्टभक्त-परित्यागी-यह दसवीं प्रतिमा है। इसका कालमान दस महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करता है। वह शिर को क्षुर से मुंडवा लेता है या चोटी रख लेता है। घर के किसी विषय में पूछे जाने पर जानता हो तो कहता है-'मैं जानता हूँ और न जानता हो तो कहता है-'मैं नहीं जानता।' ११. श्रमण-भूत-यह ग्यारहवीं प्रतिमा है । इसका कालमान ग्यारह महीनों का है। इसमें पूर्वोक्त उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रतिमाधारी उपासक शिर को क्षुर से मुंडवा लेता है या लुंचन करता है। वह साधु का वेश धारण कर ईर्यासमिति १. समवायांगवृत्ति, पत्र १९: पञ्चमीप्रतिमायामष्टम्यादिष पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारी भवति, एतदयं च सूत्रमधिकृतसूत्रपुस्तकेषु न दृश्यते, दशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपशितः। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवानो समवाय ११ : टिप्पणे आदि साधु-धर्मों का अनुपालन करता हुआ विचरण करता है। वह भिक्षा के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश कर 'प्रतिमा-सम्पन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो'-ऐसा कहता है। यदि कोई उसे पूछे कि तुम कौन हो ? तो वह यह कहता है कि मैं प्रतिमा-सम्पन्न श्रमणोपासक हूं। समवायांग के वृत्तिकार ने यहां 'पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना' -इस रूप में मतान्तरों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार प्रतिमाओं का क्रम यह है'१. दर्शनश्रावक ७. दिवा ब्रह्मचारी तथा रात्री में परिमाणकृत २. कृतव्रतकर्म ८. दिन और रात दोनों काल में ब्रह्मचारी, स्नान-वर्जन तथा केश, रोम और ३. कृतसामायिक नखों का अपनयन करना ४. पोषधोपवासनिरत ६. आरम्भ और प्रेषण का परित्याग ५. रात्रिभक्त-परित्याग १०. उद्दिष्टभक्त वर्जन ६. सचित्त-परित्याग ११. श्रमणभूत । कहीं-कहीं आरम्भ-परित्याग को नौवीं, प्रेष्यारम्भ-परित्याग को दसवीं और उद्दिष्टभक्तवर्जन तथा श्रमणभूत को ग्यारहवीं प्रतिमा माना गया है। प्रवचनसारोद्धार में प्रतिमाओं का विशद विवेचन है। उसके वृत्तिकार का कथन है कि आवश्यक चूणि में ये प्रतिमाएं कुछ क्रम-परिवर्तन के साथ प्राप्त होती हैं । उसमें रात्रिभक्त-प्रतिज्ञा पांचवीं, सचित्ताहारप्रतिज्ञा छठी, दिवा ब्रह्मचारी और रात्री में अब्रह्मचर्य का परित्याग करना सातवीं, दिन और रात में ब्रह्मचारी रहना, स्नान न करना तथा केश, श्मश्रु, रोम और नखों का अपनयन करना आठवीं, सारम्भ प्रतिज्ञा नौवीं, प्रेष्यारम्भ प्रतिज्ञा दसवीं और उद्दिष्ट वर्जन तथा श्रमणभूत ग्यारहवीं प्रतिज्ञा है। दिगम्बर मान्यता के अनुसार प्रतिमाओं का क्रम यह है१. दर्शन ५. सचित्त-त्याग ६. परिग्रह-त्याग २. व्रत ६. रात्रिभुक्ति-त्याग १०. अनुमति-त्याग ३. सामायिक ७. ब्रह्मचर्य ११. उद्दिष्ट-त्याग ४. पोषध ८. आरम्भ-त्याग वसुनन्दि श्रावकाचार की प्रस्तावना (पृष्ठ ५४) में पण्डित हीरालालजी जैन ने ग्यारह प्रतिमाओं का आधार चार शिक्षाव्रतों को माना है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह अपूर्ण लगता है । दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार इन प्रतिमाओं का आधार सम्यग-दर्शन और प्रथम ग्यारह व्रत हैं। प्रथम प्रतिमा का आधार सम्यग-दर्शन है। दूसरी प्रतिमा का आधार पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत हैं। तीसरी प्रतिमा का आधार सामायिक और देशावकाशिक (प्रथम दो शिक्षाव्रत) हैं। चौथी प्रतिमा का आधार प्रतिपूर्ण पोषधोपवास है। शेष प्रतिमाओं में इन्हीं व्रतों का उत्तरोत्तर विकास किया गया है। दिगम्बर आचार्यों ने ग्यारह प्रतिमाधारियों को तीन भागों में विभक्त किया है-गृहस्थ, वर्णी या ब्रह्मचारी तथा भिक्षुक । प्रारम्भ की छह प्रतिमाओं को धारण करने वाले गृहस्थ, सातवी, आठवीं और नौवीं प्रतिमाओं को धारण करने वाले वर्णी और अन्तिम दो प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षुक कहलाते हैं।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र २०: पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना-दसणसावए प्रथमा, कयवयकम्मे द्वितीया, कयसामाइए तृतीया, पोसहोववासनिरए चतुर्थी, राइभत्तपरिणाए पंचमी, सचित्तपरिणाए षष्ठी, दियाबंभयारी राम्रो परिमाणकडे सप्तमी, दियावि रामोवि बंभयारी असिणाणए यावि भवति बोस?केसरोमनहे अष्टमी, प्रारंभपरिणाए पेसणपरिणाए नवमी, उदिट्ठभत्तवज्जए दशमी, समणभूए यावि भवइत्ति समणाउसो एकादशीति. क्वचित्त प्रारम्भपरिज्ञात इति नवमी, प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी, उद्दिष्टभक्तवर्जक: श्रमणभुतश्चैकादशीति । २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६८०-६३३ । ३. वही, वृत्ति, पत्र २६६। ४. वसुनन्दि श्रावकाचार, गाथा ४ : दसणवय सामाइय, पोसह सचित्त राइभसे य । बंभारंभ परिम्गह, मणुमण उद्दिट्ट देसविरम्मि ।। ५. उपासकाध्ययन, कल्प , श्लोक ८५६ : पडन गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युब्रह्मचारिणः । भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टी, ततः स्यात् सर्वतो यतिः ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ५६ समवाय ११ : टिप्पण कुछ आचार्यों ने इन्हें क्रमश: जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक भी कहा है। जैन-धर्म में गृहस्थ के लिए चार श्रेणियां निश्चित की गई हैं--भद्रक, सम्यक्-दर्शनी, व्रती, प्रतिमाधारी। भद्रक श्रावक वह होता है, जो केवल धर्म के प्रति अनुराग रखता है, न वह सम्यक्-दर्शनी होता है और न व्रती। जब उसका अनुराग विकसित होता है, तब वह सम्यक्-दर्शनी होता है। यह अवस्था उसके धर्मानुराग को दृढ़ करती है । तत्पश्चात् वह पांच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों को स्वीकार कर बारह व्रती श्रावक बनता है। जब वह बारह व्रती के रूप में कई वर्षों तक साधना कर चुकता है और जब उसके मन में साधना की तीव्र भावना उत्पन्न होती है, तब वह गृहस्थ की प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। प्रायः वे लोग इनका स्वीकरण करते हैं १. जो अपने आपको श्रमण बनने के योग्य नहीं पाते, किन्तु जीवन के अन्तिमकाल में श्रमण-जैसा जीवन बिताने के इच्छुक होते हैं। २. जो श्रमण-जीवन बिताने का पूर्वाभ्यास करते हैं। आनन्द श्रावक भगवान् का प्रमुख उपासक था। उसने चौदह वर्षों तक बारहवती का जीवन बिताया । पन्द्रहवें वर्ष के अन्तराल में एक दिन उसके मन में धर्म-चिन्ता उत्पन्न हुई और वह आत्मा या सत्य की खोज तथा उसके लिए समर्पित जीवन बिताने के लिए कृतसंकल्प हुआ। दूसरे दिन उसने अपने ज्येष्ठपुत्र को घर का भार सौंपकर भगवान् महावीर के पास उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार कर लीं। इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच वर्ष लगे । तत्पश्चात् उसने अपश्चिममारणांतिक-संलेखना की और अन्त में एक मास का अनशन किया। उपासक आनन्द के इस वर्णन से यही फलित होता है कि उपासक को ग्यारह प्रतिमाओं का स्वीकरण जीवन के अन्तिम भाग में किया जाता था। उसकी पूर्वभूमिका के रूप में वर्षों तक बारह व्रतों का पालन करना होता था । और ये प्रतिमाएं भावी अनशन के लिए भी पृष्ठभूमि बनती थीं। ऐसे उल्लेख भी प्राप्त होते हैं कि ये प्रतिमाएं जीवन में अनेक बार स्वीकार की जाती थीं। यद्यपि प्रस्तुत सूत्र में इन प्रतिमाओं का कालमान निर्दिष्ट नहीं है फिर भी आनन्द श्रावक के वर्णन से यह फलित होता है कि इनकी संपूर्ण साधना में छासठ मास लगते थे। पहली प्रतिमा के लिए एक मास, दूसरी के लिए दो मास, इसी प्रकार क्रमशः प्रतिमा की संख्या के अनुपात से मास की वृद्धि होती है। आनन्द ने बारह-व्रती के रूप में चौदह वर्ष बिताए और वीस वर्ष बीतने पर अपश्चिम-मारणांतिक-संलेखना की। इसके अन्तराल में उसने ग्यारह प्रतिमाओं का वहन किया। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बारह-व्रती श्रावक जब सम्यक्-दर्शनी और व्रती होता ही है तब फिर पहली और दूसरी प्रतिमा में सम्यक्-दर्शनी और व्रती बनने की बात क्यों कही गई है ? इसका समाधान यही है कि बारह व्रत सअपवाद होते हैं, जबकि प्रतिमाओं में कोई अपवाद नहीं होता। दर्शन और व्रत-गत गुणों का यहां निरपवाद परिपालन और उत्तरोत्तर विकास किया जाता है। २. ग्यारह गणधर [एक्कारस गणहरा] प्रत्येक तीर्थंकर के गणधर होते हैं। उनकी संख्या एक नहीं है। प्रस्तुत आलापक में महावीर के ग्यारह गणधरों का उल्लेख है । गणधरवाद, आवश्यकनियुक्ति, चूणि, टीका में इनका विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है । संक्षेप में इनका वर्णन इस प्रकार है भगवान् महावीर वैशाख शुक्ला एकादशी को मध्यम पावा पहुंचे। वे वहां महासेन उद्यान में ठहरे।' पावा में सोमिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उसे संपन्न करने के लिए ग्यारह यज्ञविद् विद्वान् आए। इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति-ये तीनों सगे भाई थे। इनका गोत्र था गौतम । ये मगध के गोबर गांव में रहते थे। इनके पांच-पांच सौ शिष्य थे। १. सागारधर्म, अध्ययन ३, श्लोक ३, टिप्पण : आद्यास्तु षड् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनुनयः । शेषौ द्वावृत्तमावुक्ती, जैनेष् जिनशासने ॥ २. पावश्यकचूणि, पृष्ठ ३२४॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र ५७ समवाय ११ : टिप्पण दो विद्वान् कोल्लाग सन्निवेश से आए । एक का नाम था व्यक्त और दूसरे का सुधर्मा । व्यक्त का गोत्र था भारद्वाज और सुधर्मा का गोत्र था अग्नि वैश्यायन । इनके भी पांच-पांच सौ शिष्य थे । 1 दो विद्वान् मौर्यसन्निवेश से आए। एक का नाम था मंडित और दूसरे का नाम था मौर्यपुत्र । मंडित का गोत्र था वाशिष्ट और मोर्य पुत्र का गोत्र था काश्यप । इनके साढ़े तीन सौ साढ़े तीन सौ शिष्य थे । अकंपित मिथिला से अचल भ्राता कौशल से मेतार्य तुंगिक से और प्रभास राजगृह से आए। इनमें पहले का गोत्र गौतम, दूसरे का हारित और शेष दोनों का कौडिन्य था। इनके तीन-तीन सौ शिष्य थे । ये ग्यारह विद्वान् और इनके ४४०० शिष्य सोमिल की यज्ञवाटिका में उपस्थित थे । हजारों लोगों को एक ही दिशा में जाते देख उन सबके मन में कुतूहल उत्पन्न हुआ । लोकयात्रा का कारण जानकर इन्द्रभूति अपने शिष्यों को साथ ले महावीर को पराजित करने समवशरण में आए। उन्हें जीव के अस्तित्व के विषय में संदेह था । भगवान् ने उनके प्रश्न को स्वयं सामने ला रखा । इन्द्रभूति सहम गए । उन्हें सर्वथा प्रच्छन्न अपने विचार के प्रकाशन पर अचरज हुआ। उनकी अन्तर्-आत्मा भगवान् के चरणों में झुक गई । इन्द्रभूति की घटना सुन दूसरे दस पंडितों का क्रम बंध गया। सभी अपनी-अपनी शिष्य संपदा के साथ भगवान् के समवशरण में आए। उन सबके एक-एक संदेह था १. इन्द्रभूति - जीव है या नहीं ? २. अग्निभूति - कर्म है या नहीं ? ३. वायुभूति - शरीर और जीव एक है या भिन्न ? ४. व्यक्त - पृथ्वी आदि भूत हैं या नहीं ? ५. सुधर्मा - यहां जो जैसा है वह परलोक में भी वैसा होता है या नहीं ? ६. मंडितपुत्र- बन्ध-मोक्ष है या नहीं ? ७. मौर्यपुत्र - देव है या नहीं ? ८. अकम्पित-नरक है या नहीं ? 8. अचल भ्राता - पुण्य ही मात्रा भेद से सुख-दुःख का कारण बनता है या पाप उससे पृथक् है ? १०. मेतार्य - आत्मा होने पर भी परलोक है या नहीं ? ११. प्रभास - मोक्ष है या नहीं ? भगवान् उनके प्रच्छन्न सन्देहों को प्रकाश में लाते गए और वे उनका समाधान पा अपने को समर्पित करते गए । इस प्रकार पहले प्रवचन में ही भगवान् की शिष्य-संपदा समृद्ध हो गई । चवालीस सौ शिष्य बन गए । भगवान् ने इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान् शिष्यों को गणधर पद पर नियुक्त किया । भगवान् ने श्रमण संघ की सुदृढ़ व्यवस्था की। उन्होंने श्रमण संघ को ग्यारह या नौ भागों में विभक्त किया । पहले सात गणधर सात गणों के, आठवें तथा नौवें गणधर आठवें गण के तथा दसवें और ग्यारहवें गणधर नौवें गण के प्रमुख थे 1 इनमें नौ गणधर भगवान् महावीर के जीवन काल में ही परिनिर्वृत हो गए । शेष दो गणधर इन्द्रभूति (गौतम) और सुधर्मा महावीर के निर्वाण के बाद परिनिर्वृत हुए । ' ३. ग्यारह भाग हीन ( एक्कार सभागपरिहीणे ) इसका तात्पर्य यह है कि मेरु पर्वत भूमितल पर दस हजार योजन चौड़ा है और ६६ हजार योजन ऊंचा है। वहां से प्रत्येक अंगुल की ऊंचाई पर उसकी चौड़ाई १/११ अंगुल की हानि होती है । इस प्रकार ग्यारह अंगुल की ऊंचाई में एक अंगुल की चौड़ाई कम हो जाती है। इसी न्याय से ग्यारह योजन में एक योजन, ग्यारह हजार योजन में एक हजार योजन तथा ६६ हजार योजन की ऊंचाई पर नौ हजार योजन की चौड़ाई कम हो जाती है। इसलिए शिखर पर मेरु पर्वत की चौड़ाई एक हजार योजन ( १०००० - ६००० = १०००) रह जाती है । १. आवश्यकचूर्णि पृष्ठ ३३४-३३६ । २. समवायांगवृत्ति, पन २० । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ बारसमो समवानो : बारहवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, द्वादश भिक्षप्रतिमा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथातं जहा-मासिआ भिक्खुपडिमा, मासिकी भिक्षुप्रतिमा, दोमासिआ भिक्खुपडिमा, द्वैमासिको भिक्षुप्रतिमा, तेमासिआ भिक्खुपडिमा, त्रैमासिकी भिक्षुप्रतिमा, चाउमासिआ भिक्खुपडिमा, चातुर्मासिकी भिक्षुप्रतिमा, पंचमासिआ भिक्खुपडिमा, पाञ्चमासिकी भिक्षुप्रतिमा, छम्मासिआ भिक्खुपडिमा, पाण्मासिकी भिक्षप्रतिमा, सत्तमासिआ भिक्खुपडिमा, साप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा, पढमा सत्तराईदिआ भिक्खुपडिमा, प्रथमा सप्तरात्रिन्दिवा भिक्षप्रतिमा, दोच्चा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा द्वितीया सप्तराविन्दिवा भिक्षुप्रतिमा, तच्चा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा, तृतीया सप्तराविन्दिवा भिक्षप्रतिमा, अहोराइया भिक्खुपडिमा, अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा, एगराइया भिक्खुपडिमा। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा। १. भिक्षु-प्रतिमाएं बारह हैं, जैसे १. एकमासिकी भिक्षु-प्रतिमा । २. द्विमासिकी भिक्षु-प्रतिमा । ३. त्रिमासिकी भिक्षु-प्रतिमा। ४. चतुर्मासिकी भिक्षु-प्रतिमा ५. पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा। ६. षण्मासिकी भिक्षु-प्रतिमा। ७. सप्तमासिकी भिक्षु-प्रतिमा। ८. प्रथम सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमा। ६. द्वितीय सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा। १०. तृतीय सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा । ११. एक दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा । १२. एक रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा। २. संभोग बारह प्रकार का है', जैसे १. उपधि २. श्रुत ३. भक्त-पान ४. अंजलिप्रग्रह (प्रणाम) ५. दान ६. निकाचन (निमन्त्रण) ७. अभ्युत्थान ८. कृतिकर्मकरण (वन्दना) ६. वयावृत्त्यकरण (सह्योग-दान) १०. समवसरण (सम्मिलन) ११. संनिषद्या (आसन-विशेष) १२. कथा-प्रबन्ध । २. वालसविहे संभोगे पण्णत्ते, द्वादशविधः संभोगः प्रज्ञप्तः, तं जहा तद्यथासंगहणी गाहा संग्रहणी गाथा१. उवही सुअभत्तपाणे, १. उपधिः श्रुतं भक्तपानं, अंजलीपागहेत्ति य। अञ्जलिप्रग्रह इति च । दायणे य निकाए अ, दानं च निकाचनं च, अब्भदाणेत्ति आवरे ॥ अभ्युत्थानमिति चापरम् ।। २.कितिकम्मस्स य करणे, २. कृतिकर्मणश्च करणे, वेयावच्चकरणे इ। वैयावत्त्यकरणेऽपि च । समोसरणं संनिसेज्जा य, समवसरणं सन्निषद्या च, कहाए अ पबंधणे ॥ कथायाश्च प्रबन्धने॥ ३. दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते, द्वादशावर्त कृतिकर्म प्रज्ञप्तम्, [तं जहा [तद्यथादुओणयं जहाजायं, द्वयवनतं यथाजातं, कितिकम्म बारसावयं । कृतिकर्म द्वादशावतम् । चउसिरं तिगुत्तं च, चतुःशिरः त्रिगुप्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥] द्विप्रवेशमेकनिष्क्रमणम् ॥] ३. कृतिकर्म' के बारह आवर्त होते हैं। (जैसे-दो अवनमन, यथाजात, बारह आवर्तों वाला कृतिकर्म, चतुःशिर, त्रिगुप्त, द्विप्रवेश और एक निष्क्रमण ।] , Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय १२ : सू० ४-१४ ४. विजया णं रायहाणी दुवालस विजया राजधानी द्वादश योजनशतसह- ४. विजया राजधानी की लम्बाई-चौड़ाई जोयणसयसहस्साई प्रायाम- स्राणि आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्ता। बारह लाख योजन की है। विक्खंभेणं पण्णत्ता। ५. बलदेव राम बारह सौ वर्ष की सम्पूर्ण आयु बिता कर देवगति को प्राप्त हुए।' ६. मन्दर पर्वत की चूलिका का मूल भाग बारह योजन चौड़ा है। ५. रामे णं बलदेवे दुवालस वाससयाइं रामो बलदेवः द्वादश वर्षशतानि सर्वायु: सव्वाउयं पालित्ता देवत्तं गए। पालयित्वा देवत्वं गतः । ६. मंदरस्स णं पव्वयस्स चलिआ मुले मन्दरस्य पर्वतस्य चुलिका मूले द्वादश दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं योजनानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ता। पण्णत्ता। ७. जंबूदोवस्स णं दोवस्स वेइया मूले जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य वेदिका मूले द्वादश दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं योजनानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्ता। पण्णत्ता। ७. जम्बूद्वीप द्वीप की वेदिका का मूल भाग बारह योजन चौड़ा है। ११.४ाता ८. सव्वजहणिआ राई दुवालस- सर्वजघन्यिका रात्री द्वादशमौहत्तिका ८. सबसे छोटी रात बारह मुहूर्त की होती मुहुत्तिआ पण्णता। प्रज्ञप्ता। ६. सव्वजहणिओ दिवसो दुवालस- सर्वजघन्यको दिवसो द्वादशमौहत्तिकः ६. सबसे छोटा दिन बारह मुहूर्त का होता मुहुत्तिओ पण्णत्तो। प्रज्ञप्तः । १०. सव्वदृसिद्धस्स णं महाविमाणस्स सर्वार्थसिद्धस्य महाविमानस्य उपरि- १०. सर्वार्थसिद्ध महाविमान की उपरीवर्ती उवरिल्लाओ थूभिअग्गाओ तनात् स्तूपिकानात् द्वादश योजनानि स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन वालस जोयणाई उड्ढं उप्पतिता ऊर्ध्वमुत्पतिता ईषत्प्राग्भारा नाम्नी ऊपर ईषद्-प्रारभारा नाम की पृथ्वी है। ईसिपब्भारा नामं पुढवी पण्णता। पृथ्वी प्रज्ञप्ता। ईसिपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस ईषत्प्रारभारायाः पृथिव्या द्वादश नाम- ११. ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम हैं, नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-- धयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-ईषदिति जैसे-ईषत्, ईषत्प्रारभारा, तनु, तनुकईसित्ति वा ईसिपब्भारत्ति वा वा ईषत्प्राग्भारेति वा तन्वीति वा तर , सिद्धि, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, तणइ वा तणयतरित्ति वा सिद्धित्ति तनुकतरी इति वा सिद्धिरिति वा ब्रह्म, ब्रह्मावतंसक, लोकप्रतिपूरण और वा सिद्धालएत्ति वा मुत्तीति वा सिद्धालय इति वा मुक्तिरिति वा मुक्ता- लोकाग्रचूलिका। मत्तालएत्ति वा बभेत्ति वा लय इति वा ब्रह्मति वा ब्रह्मावतसक बंभवडेंसएत्ति वा लोकपडि- इति वा लोकप्रतिपूरणा इति वा पूरणेत्ति वा लोगग्गचूलिआई वा। लोकाग्रचूलिका इति वा। १२. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां १२. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस नरयिकाणां द्वादश पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति बारह पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णता। प्रज्ञप्ता। १३. पंचमाए पूढवोए अत्थेगइयाणं पञ्चम्यां पृथिव्या अस्ति एकेषां १३. पांचवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की नेरइयाणं बारस सागरोवमाइं ने रयिकाणां द्वादश सागरोपमाणि स्थिति बारह सागरोपम की है। ठिई पण्णता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। सिपमा द्विति सिद्धालय १४. असुरकूमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १४. कुछ असुरकूमार देवों की स्थिति बारह बारस पलिओवमाइंठिई द्वादश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पल्योपम की है। पण्णत्ता। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ६० प्रज्ञप्ता । १५. सोहम्मीसाणे कप्पे सु अत्येगइयाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां देवाणं बारस पलिओवमाई ठिई देवानां द्वादश पल्योपमानि स्थिति: पण्णत्ता । १६. लंतए कप्पे अत्थेrइयाणं देवाणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । १७. जे देवा महिंद महिंदज्भयं कंबुं कंबुग्गीवं पुंखं सुखं महापुखं पुंडं सुपुंडं महापुंडं नरिदं नरिदकंतं नरदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवानं उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १८. ते णं देवा बारसहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १६. तेसि णं देवाणं बारसहि वाससह स्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । लान्तके कल्पे अस्ति एकेषां देवानां द्वादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ये देवा माहेन्द्रं माहेन्द्रध्वजं कम्बु कम्बुग्रीवं पुंखं सुपुखं महापुखं पुण्ड्र सुपुण्ड्रं महापुण्ड्र नरेन्द्र नरेन्द्रकान्तं नरेन्द्रोत्तरावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः तेषां देवानामुत्कर्षेण द्वादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ते देवा द्वादशानामर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । २०. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये बारसह भवग्गहणेह सिज्झि द्वादशभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते स्संति बुज्झिस्संति मुञ्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानापरिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करिस्संति । समवाय १२ : सू० १५-२० १५. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति बारह पत्योपम की है। १६. लान्तककल्प के कुछ देवों की स्थिति बारह सागरोपम की है । १७. माहेन्द्र, माहेन्द्रध्वज, कंबु, कंबुग्रीव, पुंख, सुपुंख, महापुंख, पुंड्र, सुपुंड्र, महापुंड्र, नरेन्द्र, नरेन्द्रकान्त और नरेन्द्रोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम की है । तेषां देवानां द्वादशभिर्वर्षसहस्रं राहारार्थः १६. उन देवों के बारह हजार वर्षों से समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । १८. वे देव बारह पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । २० कुछ भव- सिद्धिक जीव बारह वार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे | Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. भिक्षु प्रतिमाएं बारह हैं (बारस भिक्खुपडिमाओ) भिक्षु प्रतिमाएं उन भिक्षुओं द्वारा आचरित होती हैं, जिनका शारीरिक संहनन सुदृढ़ और श्रुत ज्ञान विशिष्ट होता है । पंचाशक के अनुसार जो मुनि विशिष्ट संहनन-संपन्न, धृति-संपन्न और शक्ति-संपन्न तथा भावितात्मा होता है, वही गुरु की आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। उसकी न्यूनतम श्रुत-संपदा नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुत-संपदा कुछ न्यून दस पूर्व की होनी चाहिए।' पहली प्रतिमा एक मास की होती है और उसमें मुनि आहार तथा पानी की एक-एक दत्ति लेता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। सातवीं प्रतिमा में मुनि आहार तथा पानी की सात-सात दत्तियां लेता है। आठवीं प्रतिमा सात अहोरात्र की होती है। उसमें मुनि उपवास करता है, गांव के बाहर रहता है और उत्तान आदि आसन में स्थित होता है। नौवीं प्रतिमा भी सात अहोरात्र की होती है। उसमें भी उपवास करना, गांव के बाहर रहना तथा उत्कटुक आदि आसन में स्थित रहना होता है । दसवीं प्रतिमा भी आठवीं की तरह है, परन्तु उसमें वीरासन आदि आसनों में स्थित रहना होता बारहवीं प्रतिमा तीसरे उपवास में की जाती है। इसमें मुनि की सटे हुए पैर, आगे की ओर कुछ झुका हुआ शरीर तथा अनिमेष टिप्पण है । ग्यारहवीं प्रतिमा दूसरे उपवास में करनी होती है। शारीरिक मुद्रा इस प्रकार होती है- प्रलम्बन बाहु, नयन । भगवान् महावीर ने म्लेच्छ प्रदेश दृढभूमि के पोलास नामक चैत्य में यह महा-प्रतिमा की थी। उसमें वे एक अहोरात्र तक एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाये रहे। उनमें भी वे अचित्त पुद्गल को ही देखते सचित्त से दृष्टि का संहरण कर लेते थे । ' उक्त विवेचन के आधार पर प्रतिमाओं का यंत्र निम्न रूप में बनता है निवास नाम एकमासिकी भिक्षु प्रतिमा द्विमासिकी भिक्षु प्रतिमा कालमान एक मास दो मास त्रिमासिकी भिक्षु प्रतिमा चतुर्मासिकी भिक्षु प्रतिमा पञ्चमासिकी भिक्षु प्रतिमा षण्मासिकी भिक्षु प्रतिमा सप्तमासिकी भिक्षु प्रतिमा आठवीं भिक्षु प्रतिमा तीन मास चार मास पांच मास छह मास सात मास सात दिन-रात सात दिन-रात नौवीं भिक्षु प्रतिभा दसवीं भिक्षु प्रतिमा सात दिन-रात ग्यारहवीं भिक्षु प्रतिमा एक दिन-रात बारहवीं भिक्षु प्रतिमा एक रात १. श्रीपंचाशक १८ / ४, ५ : पडिवज्जइ एयाम्रो संघयणं धिइजुम्रो महासत्तो । पडिमा भावियया सम्मं गुरुणा प्रणुष्णाम्रो || गच्छे च्चि निम्माम्रो, जा पुव्व दस भवे असंपूण्णा । णवमस्स तइय वत्थू होइ जणो सुयाहिगमो || २. समवायांगवृत्ति, पत्र २१ । ३. आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २८८ । आहार- पानी का परिमाण तपस्था एक-एक दत्ति दो-दो दत्तियां तीन-तीन दत्तियां चार-चार दत्तियां पांच-पांच दत्तियां छह-छह दत्तियां सात-सात दत्तियां o o 0 o 0 o ० 0 उपवास " दो उपवास तीन उपवास o o o ० 11 33 37 आसन "3 O o 0 o गांव के बाहर उत्तान आदि उत्कटुक आदि वीरासन आदि ० o o २. संभोग बारह प्रकार का है (दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ते) इस शब्द में श्रमण परम्परा में होने वाले अनेक परिवर्तनों का इतिहास है। भोजन, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप- 11 कायोत्सर्ग आदि । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ६२ समवाय १२ : टिप्पण इन उत्तरगुणों के सम्बन्ध में "संभोग” और “विसंभोग" की व्यवस्था निष्पन्न हुई थी। निशीथ चूर्णिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि "विसंभोग" उत्तरगुण में होता है या मूलगुण में ? इसके उत्तर में आचार्य ने कहा-'वह उत्तरगुण में होता है । मूलगुण का भेद होने पर साधु ही नहीं रहता, फिर सांभोगिक और विसांभोगिक का प्रश्न ही क्या ? संभोग और विसंभोग की व्यवस्था का प्रारम्भ कब से हुआ, सहज ही यह जिज्ञासा उभरती है। निशीथ के चुणिकार ने इस जिज्ञासा पर विमर्श किया है। उनके अनुसार पहले अर्द्ध-भरत (उत्तर भारत) में सब संविग्न साधुओं का एक ही संभोग था, फिर कालक्रम से संभोग और असंभोग की व्यवस्था हुई और उसके आधार पर साधुओं की भी दो कक्षाएं, सांभोगिक और असांभोगिक, बन गईं।' चूणिकार ने फिर एक प्रश्न उपस्थित किया है कि कितने आचार्यों तक एक संभोग रहा और किस आचार्य के काल में असंभोग की व्यवस्था का प्रवर्तन हुआ? इसके उत्तर में भाष्यकार का अभिमत प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है- 'भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर सुधर्मा थे। उनके उत्तरवर्ती क्रमशः जम्बू, प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूत और स्थूलभद्र-ये आचार्य हुए हैं। इनके शासन-काल में एक ही संभोग रहा है। स्थूलभद्र के दो प्रधान शिष्य थे-आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती। इनमें आर्य महागिरि ज्येष्ठ थे और आर्य सुहस्ती कनिष्ठ । आर्य महागिरि गच्छ-प्रतिबद्ध-जिनकल्प-प्रतिमा वहन कर रहे थे और आर्य सुहस्ती गण का नेतृत्व संभाल रहे थे । सम्राट संप्रति ने आर्य सहस्ती के लिए आहार, वस्त्र आदि की व्यवस्था कर दी। सम्राट ने जनता में यह प्रस्तावित कर दिया कि आर्य सुहस्ती के शिष्यों को आहार, वस्त्र आदि दिया जाए और जो व्यक्ति उनका मूल्य चाहे, वह राज्य से प्राप्त करे । आर्य सुहस्ती ने इस प्रकार का आहार लेते हुए अपने शिष्यों को नहीं रोका। आर्य महागिरि को जब यह विदित हुआ, तब उन्होंने आर्य सुहस्ती से कहा-'आर्य! तुम इस राजपिण्ड का सेवन कैसे कर रहे हो?' आर्य सुहस्ती ने इसके उत्तर में कहा---'यह राजपिण्ड नहीं है।' इस चर्चा में दोनों युग-पुरुषों में कुछ तनाव उत्पन्न हो गया। आर्य महागिरि ने कहा'आज से तुम्हारा और मेरा संभोग नहीं होगा-परस्पर भोजन आदि का सम्बन्ध नहीं रहेगा। इसलिए तुम मेरे लिए असांभोगिक हो।' इस घटना के घटित होने पर आर्य सुहस्ती ने अपने प्रमाद को स्वीकार किया, तब फिर दोनों का संभोग एक हो गया। यह संभोग और विसंभोग की व्यवस्था का पहला निमित्त है। आर्य महागिरि ने आने वाले युग का चिन्तन कर संभोग और विसंभोग की व्यवस्था को स्थायीरूप प्रदान कर दिया। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-इनसे सम्बन्धित संभोग और असंभोग का विकास कब हुआ, इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। १. निशीय भाष्य, गां० २०६६ (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ. ३४१ : संभोगपरूवणता सिरिघर-सिवपाहुडे व संभुत्ते । दसणणाणचरित्ते, तवहेउं उत्तरगुणेसु ॥ २. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ. ३६३ : विसंभोगो कि उत्तरगुणे मलगणे ? पायरियो भणति-'उत्तरगुणे।' ३. वही, पृ. ३५६ : एस य पुम्मं सव्वसंविग्गाणं अड्ढमरहे एक्कसंभोगो पासी, पच्छा जाया इमे संभोइया इमे प्रसंभोइया। 7. निशीय चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ० ३६० : सीसो पुच्छति–कति पुरिसजुगे एक्को संभोगो मासीत् ? कम्मि वा पुरिसे असंभोगो पयट्टो ? केण वा कारणेण? ततो भणति-संपतिरण्णुप्पत्ती सिरिघर उज्जाणि हेतु बोधव्वा । प्रज्जमहागिरि हत्यिप्पभिती जाणह विसंभोगो ॥२१५४।। बद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो। तस्स जंबणामा । तस्स वि पभवो। तस्स से जंभवो। तस्स वि सीसो जस्समद्दो। जस्समद्दसीसो संभूतो। संभूयस्स थूलभद्दो । थुलभ जाव सब्वेसि एक्कसंभोगो पासी। ५. वही, पृ० ३६२ : ततो अज्जमहागिरी प्रज्जसुत्थि भणति-प्रज्जभिति तुम मम प्रसंभोतियो। एवं पाहुदं-कलह इत्यर्थः । ततो अज्जसुहत्थी पच्चाउट्टो मिच्छादुक्कडं करेति, ण पुणो मेण्डामो। एवं भणिए संभुत्तो। एत्थ पुरिसे विसंभोगो उप्पण्णो। कारणं च भणियं । ततो अज्जमहागिरी उवउतो, पाएण मायाबहुलामण्य त्ति काउं विसंभोगं ठवेति । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय १२ : टिप्पण आर्य महागिरि ने संयुक्त-संभोग की व्यवस्था के साथ ही इनकी व्यवस्था की या इनका विकास उनके उत्तरवर्ती-काल में हुआ, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। नियुक्ति-काल में संभोग के ये विभाग स्थिर हो चुके थे, यह नियुक्ति की गाथा (२०६६) से स्पष्ट है। स्थानांग सूत्र के निर्देशानुसार पांच कारणों से सांभोगिक को विसांभोगिक किया जा सकता है। यदि संभोग की व्यवस्था आर्य महागिरि से मानी जाए तो यह स्वीकार करना होगा कि स्थानांग का प्रस्तुत सूत्र आर्य महागिरि के पश्चात् हुई आगम-वाचना में संदृब्ध है। इसी प्रकार समवायांग का प्रस्तुत सूत्र भी (१२।२) आर्य महागिरि के उत्तरकाल में संदृब्ध है। निशीथ भाष्यकार ने संभोग-विधि के छ: प्रकार बतलाए हैं --१. ओघ, २. अभिग्रह, ३. दान-ग्रहण, ४. अनुपालना, ५. उपपात और ६. संवास। इनमें से ओघ संभोग-विधि के बारह प्रकार बतलाए गए हैं । समवायांग के प्रस्तुत दो श्लोकों में उन्हीं बारह प्रकारों का निर्देश है । निशीथ भाष्य में भी ये दो श्लोक लगभग उसी रूप में मिलते हैं उवहि सुत भत्तपाणे, अंजलीपग्गहेति य । दावणा य णिकाए य, अब्भुटाणेति यावरे ॥२०७१॥ कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणेति य । । समोसरण सणिसेज्जा, कथाए य पबंधणे ॥२०७२।। निशीथ भाष्य के अनुसार स्थितिकल्प, स्थापनाकल्प और उत्तरगुणकल्प-ये कल्प (आचार-मर्यादा) जिनके समान होते हैं, वे मुनि सांभोगिक कहलाते हैं और जिन मुनियों के ये कल्प समान नहीं होते वे असांभोगिक कहलाते हैं।' १. उपधि-संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं के साथ उपधिग्रहण की मर्यादा के अनुसार उपधि का संग्रह किया जाता है। निशीथ भाष्य के अनुसार सांभोगिक साध्वी के साथ निष्कारण अवस्था में उपधि-याचना का संभोग वजित है।' २. श्रुत-संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं को श्रुत की वाचना दी जाती है। वाचनाक्षम प्रवतिनी के न होने पर आचार्य साध्वी को वाचना देते हैं।' ३. भक्त-पान-संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं के साथ एक मंडली में भोजन किया जाता है । समानकल्प वाली साध्वी के साथ एक मंडली में भोजन नहीं किया जाता।' ४. अंजलि-प्रग्रह-संभोग इस व्यवस्था के अनुसार सांभोगिक या अन्यसांभोगिक साधुओं को वन्दना की जाती है। साध्वी को साधु वन्दना नहीं करते। साध्वियां पाक्षिक क्षमा-याचना आदि कार्य के लिए साधुओं के उपाश्रय में जाती हैं, तब साधुओं को वन्दना करती हैं। जब वे भिक्षा आदि के लिए जाती हैं तब मार्ग में साधुओं के मिलने पर उन्हें वन्दना नहीं करती हैं।' १. ठाणं,५/४६ । २. निशीथ भाष्य, गा० २०७० : मोह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणा य उववातो। संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविधी मुणेयन्वो ।। ३. निशीथ भाष्य, गा० २१४६ : ठितिकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णयरे । उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स संभोगो । ४. वही, गा० २०७४। ५. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ० ३४७ : संजतीण जद्द पाइरियं मोतं अण्णा पवत्तिणीमाती वायति पत्थि, पायरियो वायणातीणि सब्वाणि एताणि देति न दोसः। ६. वही, पृ० ३४८ । ७. वही, पृ०३४६ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ५. दान - संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं को शय्या उपधि, आहार, शिष्य आदि दिए जाते हैं। सामान्य स्थिति में साध्वी को शय्या, उपधि, आहार आदि नहीं देते । ' ६. निकाचना-संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं को उपधि, आहार आदि के लिए निमंत्रित किया जाता है। ७. अभ्युत्थान-संभोग ८. कृतिकर्मकरण- संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं को अभ्युत्थान का सम्मान किया जाता है।' ६४ इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं का कृतिकर्म किया जाता है। इसमें खड़ा होना, हाथों से आवर्त्त देना, सूत्रोच्चारण करना आदि अनेक विधियों का पालन किया जाता है।' ६. वैयावृत्त्यकरण- संभोग इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधुओं को सहयोग दिया जाता है। शारीरिक और मानसिक सभी प्रकार की समस्याओं के समाधान में योग देना वैयावृत्त्यकरण है। जैसे आहार, वस्त्र आदि देना शारीरिक उपष्टंभ है, वैसे ही कलह आदि के निवारण में योग देना मानसिक उपष्टंभ है। सांभोगिक साध्वियों को यात्रा पथ आदि विशेष स्थिति में सहयोग दिया जाता है। १०. समवसरण - संभोग ११. संनिषद्या संभोग समवाय १२ : टिप्पण इस व्यवस्था के अनुसार समानकल्प वाले साधु एक साथ मिलते हैं । अवग्रह की व्यवस्था भी इसी से अनुस्यूत है । अवग्रह ( अधिकृत स्थान ) तीन प्रकार के होते हैं - १. वर्षा - अवग्रह. २. ऋतुबद्ध- अवग्रह और ३. वृद्धवास अवग्रह | अपने सांभोगिक साधुओं के अवग्रह में कोई साधु जाकर शिष्य वस्त्र आदि का जान-बूझकर ग्रहण करता है तथा अनजान में गृहीत शिष्य, वस्त्र आदि अवग्रहस्थ साधुओं को नहीं सौंपता तो उसे असांभोगिक कर दिया जाता है। पार्श्वस्थ आदि का अवग्रह शुद्ध साधुओं को मान्य नहीं होता, फिर भी उनका क्षेत्र छोटा हो और शुद्ध साधुओं का अन्यत्र निर्वाह होता हो तो साधु उस क्षेत्र को छोड़ देते हैं । यदि पार्श्वस्थों आदि का क्षेत्र विस्तीर्ण हो और शुद्ध साधुओं का अन्यत्र निर्वाह कठिन हो तो उस क्षेत्र में साधु जा सकते हैं और शिष्य, वस्त्र आदि का ग्रहण कर सकते हैं।' १. निशीथ चूर्णि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग), पृ० ३४९ । २. वही, पृ० ३५० । ३. वही, पृ० ३५० । इस व्यवस्था के अनुसार दो सांभोगिक आचार्य निषद्या पर बैठ कर श्रुत परिवर्तना आदि करते हैं । " १२. कथा - प्रबंध संभोग इसके द्वारा कथा सम्बन्धी व्यवस्था दी गई है। कथा के पांच प्रकार हैं- १. वाद, २. जल्प, ३. वितण्डा, ४. प्रकीर्ण कथा और ५. निश्चय कथा । प्रकीर्ण कथा के दो प्रकार हैं- उत्सर्ग कथा और द्रव्यास्तिकनय कथा । इसी प्रकार निश्चय कथा के भी दो प्रकार हैं- अपवाद कथा और पर्यायास्तिकनय कथा । प्रथम तीन कथाएं साध्वियों के साथ नहीं किन्तु अन्य असांभोगिक, अन्यतीर्थिक व गृहस्थ सभी के साथ की जा सकती हैं ।" इस प्रकार इन बारह संभोगों के द्वारा समानकल्पी साधु-साध्वियों तथा असमानकल्पी साधुओं के साथ व्यवहार की ४. वही, पृ० ३५१ । ५. वही, पृ० ३५१; समवायांगवृत्ति पत्र २२ । ६ वही. पृ ३५३; वही, पत्र २२ । ७ वही, पृ० ३५४; वही, पन २३ । ८. वही, पृ० ३५४, ३५५ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवायो १२ : टिप्पण मर्यादा निश्चित की गई है। इन व्यवस्थाओं का अतिक्रमण करने पर समानकल्पी साधु का सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया जाता। उदाहरण के लिए उपधि-संभोग की व्यवस्था प्रस्तुत की जा रही है____ कोई साधु उपधि की मर्यादा का अतिक्रमण कर उपधि ग्रहण करता है। उस समय दूसरे साधुओं द्वारा सावधान करने पर वह प्रायश्चित्त स्वीकार करता है तो उसे विसांभोगिक नहीं किया जाता । इस प्रकार दूसरी और तीसरी बार भी सावधान करने पर वह प्रायश्चित्त स्वीकार करता है तो उसे विसांभोगिक नहीं किया जाता । किन्तु चौथी बार यदि वह वैसा करता है तो उसे विसांभोगिक कर दिया जाता है । जो मुनि अन्यसांभोगिक साधुओं के साथ शुद्ध या अशुद्ध-किसी भी प्रकार से उपधि ग्रहण करता है और सावधान करने पर वह प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करता तो उसे प्रथम बार ही विसांभोगिक किया जा सकता है और यदि वह प्रायश्चित्त स्वीकार कर लेता है तो उसे विसांभोगिक नहीं किया जा सकता। चौथी बार वैसा कार्य करने पर पूर्वोक्त की भांति उसे विसांभोगिक कर दिया जाता है। यह उपधि के आधार पर संभोग और विसंभोग की व्यवस्था है।' इसी प्रकार श्रुत आदि की व्यवस्था का भंग करने पर भी सांभोगिक को विसांभोगिक कर दिया जाता था। संभोग की व्यवस्था भाष्य और चूणि-काल में सर्वसम्मत थी। वर्तमान में इस व्यवस्था का सर्वाङ्गीण प्रयोग नहीं हो रहा है। सभी जैन सम्प्रदायों में अपने-अपने ढंग से इसका रूपान्तरण हो गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहुत महत्त्व है, इसलिए इसका संक्षिप्त सार यहां प्रस्तुत किया गया है। निशीथ भाष्य और चूणि में इसका और अधिक विशद विवेचन है। ३. कृतिकर्म के बारह आवर्त होते हैं (दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते) __ 'दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते'-मूल पाठ इतना ही प्रतीत होता है। आगे जो गाथा है, वह बाद में जोड़ी गई है। वह वृत्तिकार से पहले जोड़ी गई थी, यह निश्चित है, क्योंकि वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या की है। कृतिकर्म से सम्बन्धित यह गाथा किसी प्रति-लेखक ने प्रसंगवश पाठ के साथ लिख दी और उत्तरवर्ती प्रतियों में वह अनुकृत होती गई, ऐसा प्रतीत होता है । दशवकालिक के आदर्शों में भी ऐसा हुआ है । छठे अध्ययन में 'वयछक्कं कायछक्क' यह नियुक्तिगत श्लोक है, किन्तु उत्तरवर्ती प्रतियों में वह मूल में प्रविष्ट हो गया। प्रस्तुत गाथा मूलतः आवश्यक नियुक्ति की है। इस गाथा का सम्बन्ध प्रस्तुत पाठ के साथ केवल 'बारसावयं' (द्वादशावत्त) इतना सा है । वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि प्रस्तुत रूपक में द्वादशावर्त का अनुवाद (कथित का पुनः कथन) और कृतिकर्म के शेष धर्मों का निरूपण है।' कृतिकर्म वन्दना-काल में की जाने वाली क्रिया-विधि है। इसका प्रचलन प्राचीनकाल में समग्र जैन-परम्परा में रहा है । दिगम्बर और श्वेताम्बर–दोनों परम्पराओं के साहित्य में इस विषय की जानकारी प्राप्त होती है। जयधवला के अनुसार 'कृतिकर्म' एक प्रकीर्णक है। उसमें कृतिकर्म के विधान और फल का वर्णन किया गया है।" आवश्यक नियुक्ति के तृतीय अध्ययन (वन्दना अध्ययन) में कृतिकर्म का विस्तृत वर्णन मिलता है। चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म---ये सब वन्दना के पर्यायवाची नाम हैं। नियुक्तिकार ने कृतिकर्म के विषय में पांच प्रश्न प्रस्तुत किए हैं १. कृतिकर्म के अवनमन कितने होते हैं ? २. उसमें शिरोनमन कितने होते हैं ? १. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग) पृ० ३४२ । २ मावश्यक नियुक्ति, गाथा १२१६, प्रवचूणि, द्वितीय विभाग, पृ० ४५ : दोमोणयं प्रहाजाय, किइकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ 1. समवायांगवृत्ति, पत्न २३ : द्वादशावर्त्ततामेवास्यानुवदन शेषांश्च तद्धर्मानभिधित्सु : रूपकमाह। ४. कसायपाइड, भाग १, प०११८ : जिण-सिद्धाइरियत्वहुसुदेसु बंदिज्जमाणेसु ज कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम । तस्स प्रादाहीण-तिक्खुत्तपदाहिण तिमोणद-चदुसिर-बारसावत्तादिलवखणं विहाणं फलं च किदियम्म वण्णेदि । ५. पावश्यक नियुक्ति, गा० १११६, अवणि, द्वितीय विभाग, पृ० १६ : बंदणचिइकिइकम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । ६ वही गाथा १११७, प्रवर्णि, द्वितीय विभाग, पृ० १६ : कइपोणयं कइसिरं कहहिं च प्रावस्सएहि परिसुद्धं । कहदोसविप्पमुक्कं किइकम्म कोस कीरइ वा ? ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३. वह कितने आवतों' से शुद्ध होता है ? ४. वह कितने दोषों से विप्रमुक्त होता है ? ५. वह किसके प्रति किया जाता है ? ६६ प्रस्तुत सूत्र के साथ जो गाथा संलग्न हुई है, उसमें द्वादश आवर्त्तो की व्याख्या नहीं है, किन्तु कृतिकर्म के पचीस प्रकारों का संग्रह है । आवश्यक निर्युक्ति की निम्न गाथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है बारसावयं । ऐगनिक्खमणं ॥ बारसेव उ । दो ओणयं अहाजायं, किइकम्मं चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं अवणामा दुन्नऽहाजाय, आवत्ता सीसा चत्तारि गुत्तीओ, तिन्नि दो य एगनिक्खमणं चेव, पणवीसं आवतेहि परिसुद्धं किइकम्मं जेहि कृतिकर्म के पचीस प्रकार ये हैं १ से २ - दो अवनमन ३– एक यथाजात ४ से १५ - बारह आवर्त्त १६ से १९ - चतुः शिर पवेसणा ॥ वियाहिया । कीरई ॥ २० से २२ – त्रिगुप्त २३ से २४ - द्वि-प्रवेश २५ - एक निष्क्रमण । समवाय १२ : टिप्पण दो अवनमन समवायांग की वृत्ति के अनुसार अवग्रह की अनुज्ञा के लिए 'अणुजाणह मे मिउग्गह- इस सूत्रोच्चारण के साथ प्रथम बार अवनमन किया जाता है। इसी प्रकार दूसरी बार भी अवग्रह की अनुज्ञा के लिए अवनमन किया जाता है। मूलाचार की टीका में दो अवनमन का अर्थ बहुत स्पष्ट किया है । पञ्च नमस्कार के मंत्र के पाठ की आदि में पहली अवनति (भूमि स्पर्श) की जाती है । चतुर्विंशतिस्तव के पाठ की आदि में दूसरी अवनति ( शरीर - नमन) की जाती है। * धवला और जयधवला के अनुसार अवनमन का अर्थ है - भूमि पर बैठकर नमस्कार करना । अवनमन तीन होते हैं(१) जब जिनेन्द्र देव के दर्शन मात्र से शरीर रोमांचित हो जाता है, तब भूमि पर बैठकर नमस्कार करना - यह पहला अवनमन है । (२) जिनेन्द्र देव की स्तुति कर भूमि पर बैठकर नमस्कार करना - यह दूसरा अवनमन है। (३) सामायिक दण्डक से आत्मशुद्धि कर, कषाय और शरीर का त्याग कर जिनदेव के अनन्त गुणों का ध्यान कर तथा चौवीस तीर्थंकरों की वन्दना कर जिन-जिनालय और गुरु की स्तुति करने के पश्चात् भूमि पर बैठकर नमस्कार करना - यह तीसरा अवनमन है । " १. मावश्यकनियुक्ति की अवचूर्णि प्रकाशित है। उसमें 'कइहिं च श्रावस्तएहि परिसुद्ध' - पाठ मुद्रित है, किन्तु मूलाचार ( ७ / ८० ) में प्रावश्यक निर्युक्ति के समान ही गाथा उपलब्ध है : कदि श्रोणदं कदि सिरं, कदिए प्रावत्तगेहि परिसुद्धं । कदि दोसविप्यमुक्क, किदियम्मं होदि कायव्वं ॥ इस गाथा में 'श्रावस्सएहि परिसुद्ध' के स्थान में श्रावत्तगेहि परिसुद्ध' पाठ है। अर्थ की दृष्टि से यह संगत लगता है, क्योंकि 'आवश्यकपरिशुद्ध' की कोई व्याख्या प्राप्त नहीं हैं। मूलाचार (वृत्ति पत्र ४४१ ) में 'द्वादश प्रावर्शयुक्त कृतिकमं प्रावर्त्तशुद्ध होता है - इस प्रकार आवशुद्ध की व्याख्या प्राप्त है। प्रावश्यक नियुक्ति की १२१८ तथा १२२० – दोनों गाथाथों में 'श्रावस्सग परिसुद्ध' पाठ मुद्रित हुआ है। अवचूर्णिकार ने 'पचीस प्रावश्यकों से परिशुद्ध' - ऐसा प्रथं किया है, किन्तु वह संगत नहीं है, क्योंकि १११७वीं गया में 'कइम्रोणदं कइसिरं' ये दो प्रश्न 'कइहि च श्रावस्सएहि परिसुद्ध - इस प्रश्न से स्वतंत्र हैं। प्रत तीसरे प्रश्न के साथ प्रथम दो प्रश्नों को सम्मिलित कैसे किया जा सकता है ? इससे स्पष्ट होता है कि 'भावसहि परिसुद्ध' के स्थान में लिपिदोष के कारण 'श्रावस्तएहि परिसुद्ध' पाठ हो गया। २. श्रावश्यक निर्युक्ति, गाथा १२१६-१२१८ । ३. समवायांगवृत्ति पत्र २३ । ४. मूलाचार ७ / १०४, वृत्ति, पृ० ४५६ । ५. कसायपाहुड भाग १. पृ० ११६ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो ६७ समवाय १२ : टिप्पण यथाजात श्रमण-वेष (रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक) युक्त अथवा उपकरण रहित होने पर भी अंजलि-संपुट को शिर से सटाकर कृतिकर्म किया जाता है, इसलिए उसे यथाजात कहा गया है।' मूलाचार की टीका में 'यथाजात' का अर्थ जातरूपतुल्य-क्रोध, मान, माया आदि से रहित-किया है।' बारह आवर्त अभयदेवसूरि ने आवर्त की व्याख्या "सूत्रोच्चारण युक्त कायिक व्यापार" की है। उनके अनुसार बारह आवर्त्त यतिजनों में प्रसिद्ध हैं, इसलिए उन्होंने इसका कोई स्पष्ट अर्थ प्रतिपादित नहीं किया । आवश्यक अवचूणि के अनुसार छह आवर्त प्रथम प्रवेश में और छह आवर्त द्वितीय प्रवेश में किए जाते हैं।' मूलाचार की वृत्ति के अनुसार बारह आवर्त ये हैंपञ्च नमस्कार मंत्र के पाठ की आदि में मन-संयमन, वचन-संयमन और काय-संयमन-ये तीन आवर्त होते हैं। पञ्च नमस्कार मंत्र के पाठ की समाप्ति में फिर ये तीनों आवर्त होते हैं। इसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव की आदि और समाप्ति के समय ये तीन-तीन आवर्त होते हैं। इनका योग करने पर बारह आवर्त होते हैं। आवर्तों का एक दूसरा विकल्प भी किया गया है। तीन बार की प्रदक्षिणा में प्रत्येक बार चारों दिशाओं में चार प्रणाम किये जाते हैं । इनका योग करने पर आवर्त बारह हो जाते हैं। जयधवला के अनुसार सामायिक दण्डक के प्रारम्भ और अन्त में मन, वचन, और काया की विशुद्धि की अपेक्षा से कर आवत्तं होते हैं और 'स्थोस्सामि' दंडक के प्रारम्भ और अन्त में मन, वचन और काया की विशुद्धि की अपेक्षा से छट आat होते हैं। चतुःशिर प्रथम प्रवेश के समय क्षामणाकाल में शिष्य और आचार्य के दो शिर होते हैं। इसी प्रकार द्वितीय प्रवेश के समय भी शिष्य और आचार्य के दो शिर होते हैं। प्रवचनसारोद्धार की वत्ति में इसकी स्पष्ट व्याख्या प्राप्त होती है। चतुःशिर का अर्थ है-शिर से चार बार अवनमन करना । प्रथम बार शिष्य–'खामेमि खमासमणो ! 'देवसियं वइक्कम'-कहता हुआ आचार्य को शिर नमाता है। आचार्य भी 'अहमवि खामेमि तुम' कहकर शिर नमाते हैं-ये दो शिरोनमन हुए। इसी प्रकार पुनः प्रविष्ट होकर क्षामणाकाल में शिष्य और आचार्य के दो शिरोनमन होते हैं। वहीं एक दूसरी परम्परा का भी उल्लेख हुआ है। उसके अनुसार चारों शिरोनमन शिष्य से सम्बन्धित हैं। प्रथम प्रवेश में शिष्य का संस्पर्शनमन और क्षामणानमन-ये दो शिरोनमन होते हैं। इसी प्रकार द्वितीय प्रवेश में भी ये दो शिरोनमन होते हैं।' मुलाचार की वत्ति के अनुसार पञ्च नमस्कार मंत्र के पाठ की आदि और अन्त में तथा चतूविशतिस्तव के आदि और अन्त में जुड़े हुए हाथ शिर से सटाना-ये चार शिर होते हैं।" १. समवायांगवृत्ति, पन २३॥ २. मूलाचार ७/१०४, वृत्ति, पृ. ४५६ । ३ समवायांगवृत्ति, पत्र २३ : द्वादशावता:-सूवाभिधान गर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा। ४. प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा १२१६, अवचूर्णि, द्वितीय विभाग, पृ० ४५ : द्वादश भावर्ता प्रथम प्रविष्टस्य षट् पुनः प्रविष्टस्यापि षट् । ५. मूलाचार 0/101, वृत्ति प.० ४५६ । ६. वही, ७/१०४, वृत्ति प. ४५६ । ७. कसायपाहुड भाग १, पृ० ११८ । ८. समवायांगवृत्ति, पन्न २३ । ६. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र २२ । १०. मुलाचार ७/१०४, वृत्ति, पृ.० ४५६ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ समवाय १२ : टिप्पण जयधवला के अनुसार सामायिक तथा 'त्थोस्सामि' दंडक के आदि अन्त में शिर नमाकर नमस्कार करना - ये चार शिरोनतियां हैं। त्रिगुप्त समवाश्र २ इसका अर्थ है - मनोगुप्त वचनगुप्त और कायगुप्त होना । मूलाचार में इसके स्थान में 'तिसुद्ध' (सं० त्रिशुद्ध ) शब्द है । उसका अर्थ है— मनः शुद्ध, वचनशुद्ध और कायशुद्ध ।' द्वि-प्रवेश अवग्रह की अनुज्ञा के लिए प्रथम प्रवेश किया जाता है तथा उस स्थान से निष्क्रमण कर अवग्रह की अनुज्ञा के लिए द्वितीय प्रवेश किया जाता है ।" एक निष्क्रमण प्रथम प्रवेश के बाद अवग्रह से वहीं आचार्य के पादमूल में प्रणत होकर सूत्र का समापन किया जाता है ।" एक दिन में चौदह कृतिकर्म किए जाते हैं-चार प्रतिक्रमण के समय और तीन स्वाध्याय के समय । ये सात पूर्वाह्न ( दिन के पूर्व भाग में ) किए जाते हैं और सात अपराह्न ( दिन के पश्चिम भाग) में किए जाते हैं ।" प्रतिक्रमण के समय किए जाने वाले चार कृतिकर्म १. आलोचना के समय । २. क्षामणा के समय । ३. आचार्य आदि के आश्रयण-निवेदन के समय । ४. प्रत्याख्यान के समय स्वाध्याय के समय किए जाने वाले तीन कृतिकर्म १. स्वाध्याय प्रस्थापन के समय । २. स्वाध्याय प्रवेदन के समय । ३. स्वाध्याय के पश्चात् । आवश्यक अवचूर्णि के अनुसार ये चौदह कृतिकर्म अभक्तार्थिक ( उपवासी) के नियतरूप से होते हैं । भक्तार्थिक प्रत्याख्यान के समय कृतिकर्म करता है, इसलिए उसके वे अधिक हो जाते हैं। ' मूलाचार में कृतिकर्म को संख्या यही है । उसके टीकाकार के अनुसार प्रतिक्रमण सम्बन्धी चार कृतिकर्म इस प्रकार हैं" १. आलोचना भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग । २. प्रतिक्रमण भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग । १. कसायपाहुड भाग १, पृ० ११८ । २. समवायांगवृत्ति, पत्र २३ । ३. मूलाचार ७ / १०४, वृत्ति पृ० ४५६ । ४. समवायांगवृत्ति, पत्र २३ । निष्क्रमण किया जाता है। दूसरी बार अवग्रह से निष्क्रमण नहीं किया जाता, किन्तु ५. वही, पन २३ । ६. श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा १२१५ प्रवचूर्णि द्वितीय विभाग, पृ० ४५ : चत्तारि पडिक्कमणे किकम्मा तिन्नि हुति सम्झाए । पुग्वण्हे प्रवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति || ७. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति पत्र, १८४ । ८. श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा १२१५, अवचूर्णि द्वितीय विभाग, पृ० ४५ : एतानि ध्रुवाणि प्रत्यहं चतुर्दश भवन्ति अभक्तार्थिकस्य इतरस्य (तु) प्रत्याख्यान वन्दनेनाधिकानि स्युः । ६. मूलाचार, ७ /१०३: चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिष्णि होंति सम्झाए । पुण्वण्हे वरण्हे किदियम्मा चोहसा होंति ॥ १०. वही, वृत्ति, पू० ४५४ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओ ६६ ३. वीर भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग ।. ४. चतुर्विंशति तीर्थङ्कर भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग | स्वाध्याय के समय किये जाने वाले तीन कृतिकर्म - १. श्रुत भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग | २. आचार्य भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग । अपराह्न ३. स्वाध्याय के उपसंहार-काल में श्रुत भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग । आवश्यक निर्युक्ति की व्याख्या से मूलाचार की टीकागत व्याख्या भिन्न है। मूलाचार की वृत्ति में पूर्वाह्न और 'की अर्थ-योजना में दो विकल्प किए गए हैं : १. ( क ) पूर्वाह्न - दिवस में सात कृतिकर्म । (ख) अपराह्न - रात्रि में सात कृतिकर्म । २. ( क ) पूर्वाह्न - पश्चिम रात्रि से लेकर दिन के तीन प्रहर तक का समय । इस काल मर्यादा के अनुसार- पश्चिम रात्रि में प्रतिक्रमण के समय - चार कृतिकर्म | पश्चिम रात्रि में स्वाध्याय के समय - तीन कृतिकर्म । वन्दना के समय - दो कृतिकर्म | सूर्योदय के समय स्वाध्याय में - तीन कृतिकर्म 1 मध्याह्न वन्दना के समय दो कृतिकर्म । (ख) अपराह्न - दिन के चतुर्थ प्रहर से लेकर रात्रि के प्रथम प्रहर तक का समय । इस काल मर्यादा के अनुसार स्वाध्याय के समय - तीन कृतिकर्म । प्रतिक्रमण के समय - चार कृतिकर्म । वन्दना के समय दो कृतिकर्म । योगभक्ति ग्रहण के समय - एक कृतिकर्म । योगभक्ति उपसंहार के समय - एक कृतिकर्म | रात्रि में प्रथम स्वाध्याय-काल में तीन कृतिकर्म । ४. बलदेव राम (रामे णं बलदेवे ) वृत्तिकार के अनुसार वे पांचवें देवलोक के देव '' हुए ५. बारह मुहूर्त का ( दुवालसमुहुत्तिआ ) की होती है । ' ६. बारह मुहूर्त का ( दुवालसमुहुत्तिओ) सूर्य जब उत्तरायण होता है, तब उसकी अन्तिम रात्रि सबसे छोटी - बारह मुहूर्त्त या चौबीस घड़ी प्रमाण समवाय १२ : टिप्पण ७. बारह नाम हैं (दुवालस नामधेज्जा ) सूर्य जब दक्षिणायन होता है, तब उसका अंतिम दिन सबसे छोटा - बारह मुहूर्त का होता है।' १. मूलाचार, वृत्ति, पृ० ४५५ १. समवायांगवृत्ति, पत्र २३ । रामो नवमो बलदेवः' ३. वही, वृत्ति, पत्र १३ । सर्वजघन्या रात्रिश्तरायणयन्ताहोरात्रस्य रात्रि सा च द्वादशमोहूतिका चतुर्विंशतिघटिकाप्रमाणा । ४. वही, वृत्ति, पन २३ । सर्वजन्म द्वादशीहूर्तिक एवेत्यर्थ स च दक्षिणायनस्तदिवस इति । 1. 34, 5/99 1 स्थानांग सूत्र में इसके आठ नामों का उल्लेख हुआ है। वहां चौथा नाम 'तनु-तनु' है ।' "पञ्चमदेवलोके देवत्वं गतः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ तेरसमो समवानो : तेरहवां समवाय संस्कृत छाया अट्ठावंडे अणदादंडे अकम्हादंडे तेरस किरियाठाणा पण्णत्ता त्रयोदश क्रियास्थानानि प्रज्ञप्तानि, तं जहा तद्यथाअर्थदण्डः, अनर्थदण्ड:, हिंसादंडे हिंसादण्डः, अकस्माद्दण्डः, दिदिविप्परिआसिआदंडे दृष्टिविपर्यासिकादण्डः, मुसावायवत्तिए मषावादप्रत्ययः, अदिण्णादाणवत्तिए अदत्तादानप्रत्ययः, अज्झथिए आध्यात्मिकः, माणवत्तिए मानप्रत्ययः, मित्तदोसवत्तिए मित्रदोषप्रत्ययः, मायावत्तिए मायाप्रत्ययः, लोभवत्तिए लोभप्रत्ययः, ईरियावहिए नाम तेरसमे । ऐपिथिको नाम त्रयोदशः। हिन्दी अनुवाद १. क्रियास्थान तेरह हैं', जैसे- १. अर्थ दण्ड-सप्रयोजन हिंसा । २. अनर्थदण्ड-निष्प्रयोजन हिंसा । ३. हिंसादण्ड-हिंसा के प्रति हिंसा का प्रयोग। ४. अकस्मात्-दण्ड-लक्ष्यीकृत प्राणी की हिंसा के लिए प्रवृत्त व्यक्ति द्वारा अलक्ष्यी-कृत प्राणी की हिंसा । ५. दृष्टि-विपर्यास-दण्ड -- मति-भ्रम से होने वाली हिंसा। ६. मृषावाद-प्रत्यय -मृषावाद के निमित्त से होने वाली क्रिया । ७. अदत्तादान-प्रत्यय-अदत्तादान के निमित्त से होने वाली क्रिया। ८. आध्यात्मिक-बाह्य निमित्त के बिना स्वतः मन में उत्पन्न होने वाली क्रिया । ६. मान-प्रत्यय-अभिमान के निमित्त से होने वाली क्रिया । १०. मित्रदोष-प्रत्यय-मित्र-वर्ग के प्रति अप्रियता के निमित्त से होने वाली क्रिया । ११. माया-प्रत्यय-माया के निमित्त से होने वाली क्रिया । १२. लोभ-प्रत्यय-लोभ के निमित्त से होने वाली क्रिया। १३. ऐर्यापथिककेवल योग के निमित्त से होने वाला कर्म-बंधन । २. सौधर्म और ईशानकल्प में विमानों के प्रस्तट तेरह हैं। ३. सौधर्मावतंसक विमान साढ़े बारह लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। २. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु तेरस सौधर्मेशानयोः कल्पयोः त्रयोदश विमाणपत्थडा पण्णता। विमानप्रस्तटाः प्रज्ञप्ताः । ३. सोहम्मवडेंसगे णं विमाणे णं सौधर्मावतंसकं विमानं अर्द्धत्रयोदश अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई योजनशतसहस्राणि आयामविष्कम्भेण आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम् । ४. एवं ईसाणवडेंसगे वि। एवं ईशानावतंसकमपि। ४. ईशानावतंसक विमान साढ़े बारह लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय १३ : सू० ५-१३ ५. जलयरपंचिदिअतिरिक्खजोणिआणं जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां अद्धतेरस जाइकुलकोडीजोणो- अर्द्धत्रयोदश जातिकुलकोटियोनिप्रमुख- पमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता। शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । ५. तिर्यञ्च योनिक जलचर पञ्चेन्द्रिय जीवो के जातिकुलकोटि के योनिप्रमुख साढ़े बारह लाख हैं। ६. पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस वत्थू प्राणायुषः पूर्वस्य त्रयोदश वस्तूनि पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ६. प्राणायु पूर्व के वस्तु तेरह हैं।' ७. गम्भवक्कंतिअपंचेंदिअतिरिक्ख- गर्भावक्रांतिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां जोणिआणं तेरसविहे पओगे त्रयोदशविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथापण्णत्ते, तं जहा-सच्चमणपओगे सत्यमनःप्रयोगः, मषामनःप्रयोगः, मोसमणपओगे सच्चामोसमण- सत्यमषामनःप्रयोगः, असत्यामृषापओगे असच्चामोसमणपओगे मनःप्रयोगः, सत्यवाक्प्रयोगः, मृषावाक्सच्चवइपओगे मोसवइपओगे प्रयोगः, सत्यमृषावाक्प्रयोगः, असत्यासच्चामोसवइपओगे असच्चामोस- मृषावाक्प्रयोगः, औदारिकशरीरकायवइपओगे ओरालिअसरीरकाय- प्रयोगः, औदारिकमिश्रशरीरकायपओगे ओरालिअमीससरोर- प्रयोगः, वैक्रियशरीरकायप्रयोगः, कायपओगे वेउव्विअसरीर- वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगः, कर्मकायपओगे बेउन्विअमीससरोर- शरीरकायप्रयोगः । कायपओगे कम्मसरीरकायपओगे। ७. गर्भावक्रान्तिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों का प्रयोग' तेरह प्रकार का है, जैसे-१. सत्य मन-प्रयोग । २. मृषा मन-प्रयोग । ३. सत्यमृषा मनप्रयोग । ४. असत्यमृषा मन-प्रयोग । ५. सत्य वचन-प्रयोग। ६. मृषा वचनप्रयोग । ७. सत्यमषा वचन-प्रयोग । ८. असत्यामृषा वचन-प्रयोग । ६. औदारिक-शरीर काय-प्रयोग । १०. औदारिक-मिश्र-शरीर कायप्रयोग। ११. वैक्रिय-शरीर कायप्रयोग । १२. वैक्रिय-मिश्र-शरीर कायप्रयोग। १३. कार्मण-शरीर काय प्रयोग। ८. सूर्य का मण्डल एक योजन के भाग से न्यून है। ८. सूरमंडले जोयणेणं तेरसहि सूरमण्डलं योजनेन त्रयोदशभिरेकषष्टि एगसट्ठिभागेहि जोयणस्स ऊणे भागैः योजनस्य ऊनं प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। 8. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेरस नैरयिकाणां त्रयोदश पल्योपमानि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति तेरह पल्योपम की है। १०. पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं पञ्चम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां १०. पांचवीं पृथ्वी के कुछ नेरयिकों की नेरइयाणं तेरस सागरोवमाइं ठिई नैरयिकाणां त्रयोदश सागरोपमाणि स्थिति तेरह सागरोपम की है। पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ११. असुरकूमाराणं देवाण अत्थेगइ- असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां ११. कुछ असुरकूमार देवों की स्थिति याणं तेरस पलिओवमाइं ठिई त्रयोदश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तेरह पल्योपम की है। पण्णत्ता। १२. सोहम्मीसाणेस कप्पेस अत्थेगइयाणं सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १२. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं तेरस पलिओवमाइं ठिई देवानां त्रयोदश पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति तेरह पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । १३. लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं लान्तके कल्पे अस्ति एकेषा देवानां १३. लान्तककल्प के कुछ देवों की स्थिति तेरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। त्रयोदश सागरोपमाणि स्थितिः तेरह सागरोपम की है। प्रज्ञप्ता। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रा ७२ १४. जे देवा वज्जं सुवज्जं वज्जावत्तं ये देवा वज्रं सुवज्रं वज्रावर्त्तं वज्रप्रभं वज्जप्पभ्रं वज्जकंतं वज्जवण्णं वज्रकान्तं वज्रवर्णं वज्रलेश्यं वज्रध्वजं वज्जलेसं वज्जज्भयं वज्र्जासंगं वज्रशृङ्गः, वज्रसृष्टं वज्रकूट वज्जसिट्ठ वज्जकूडं वज्जुत्तर वज्रोत्तरावतंसकं वैरं वैरावतं वैरप्रभं, वडेंसगं वरं वइरावत्तं वइरप्पभं वैरकान्तं वैरवणं वैरलेश्यं वैरध्वजं वइरकंतं वइरवणं वइरलेसं वैरशृङ्गं वैरसृष्टं वैरकूटं वैरोत्तरावतंवइरज्यं वइसिंगं वइरसिद्ध सकं लोकं लोकावर्त्तं लोकप्रभं लोककांत वइरकडं वइरुत्तरवडेंसगं लोगं लोकवर्णं लोकलेश्यं लोकध्वजं लोकशृङ्गं लोगावत्तं लोगप्पभं लोग कंतं लोकसृष्टं लोककूटं लोकोत्तरावतंसकं लोगवण्णं लोगलेसं लोगज्भयं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः तेषां लोगसंगं लोगसिद्ध लोगकूडं देवानामुत्कर्षेण त्रयोदश सागरोपमाणि लोगुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए स्थितिः प्रज्ञप्ता । उबवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १५. ते णं देवा तेरसह अद्धमासह ते देवास्त्रयोदशभिरर्द्धमासैः आनन्ति वा आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति ऊससंति वा नीससंति वा । वा । १६. तेसि णं देवाणं तेरसह वाससह स्र्सोहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । १७. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये जे तेरसहि भवग्गहणेहि सिज्झि- त्रयोदशभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानापरिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाण- मन्तं करिष्यन्ति । मंतं करिस्सति । समवाय १३ : सू० १४- १७ १४. वज्र, सुवज्र वज्रावर्त्त, वज्रप्रभ वज्रकान्त, वज्रवर्ण, वज्रलेश्य, वज्रध्वज, वज्रशृङ्ग, वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वज्रोत्तरावतंसक तथा वैर, वैरावर्त्त, वैरप्रभ, वैरकान्त, वैरवर्ण, वैरलेश्य, वैरध्वज, वैरशृङ्ग, वैरसृष्ट, वैरकूट, वैरोत्तरावतंसक तथा लोक, लोकावर्त्त, लोकप्रभ, लोककान्त, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकध्वज, लोकशृङ्ग, लोकसृष्ट, लोककूट और लोकोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरोपम की है । तेषां देवानां त्रयोदशभिर्वर्षसहस्रं राहा १६. उन देवों के तेरह हजार वर्षों से रार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है | १५. वे देव तेरह पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और नि:श्वास लेते हैं । १७. कुछ भव-सिद्धिक जीव तेरह बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सूत्र १ प्रस्तुत समवाय में तेरह क्रियास्थान निर्दिष्ट हैं। क्रिया का अर्थ है-कर्म-बंधन की हेतुभूत चेष्टा और स्थान का अथ है-भेद-पर्याय । आवश्यक सूत्र की वृत्ति में हरिभद्रसूरी ने इन तेरह क्रियाओं के वाच्यार्थ को स्पष्ट करने वाली सतरह गाथाओं का उल्लेख किया है। इन तेरह क्रियाओं का उल्लेख सूत्रकृतांग २/२/३-१७ में विस्तार से हुआ है। इनके तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखें ठाणं २/२-३७ के टिप्पण पृष्ठ ११३-११६ । २. प्राणायु पूर्व के [पाणाउस्स णं पुव्वस्स] पूर्व विशाल ज्ञानराशि की एक संज्ञा है । ये चौदह हैं। इनमें 'प्राणायु'-बारहवां पूर्व है । इसमें प्राणियों आर आयुष्य विषयक विस्तार से चर्चा है । उसके तेरह वस्तु-अध्ययन हैं।' ३. प्रयोग [पओगे] प्रयोग का अर्थ है-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । उन्हें योग कहा जाता है। वे पन्द्रह हैं--मन के चार, वचन के चार और काया के सात । प्रस्तुत आलापक में तेरह का उल्लेख है। इनमें प्रथम चार मन के, पांच से आठ-ये चार वचन के तथा शेष पांच [६-१३] काया के प्रयोग हैं। तिर्यञ्च जाति के जीवों के आहारकशरीर काय-प्रयोग तथा आहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-ये दो कायप्रयोग नहीं होते। ये केवल संयत मुनियों के ही होते हैं।" १. समवायांगवृत्ति, पव २४: करणं किया, कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा, तस्या : स्थानानि भेदा: पर्याया: क्रियास्थानानि । २. मावस्यकवृत्ति, भाग १, पृष्ठ १०६ । 1. सयवार्यागवृत्ति, पत्न २५: यन प्राणिनामायुविधान सभेदमभिधीयते-तत्प्राणायुादशं पूर्व तस्य दयोदश वस्तूनि-प्रध्ययनवद्विधागविशेषाः। इ.समवायांगवृत्ति, पत्र २५ प्रयोजनं-मनोवाक्कायानां व्यापारणं प्रयोग: स त्रयोदशविधः, पञ्वदशानां प्रयोगाणां मध्ये माहारकाहारकमिश्रलक्षणकायप्रयोगद्वयस्य तिरश्चामभावात्. तो हि संयमिनामेव स्तः, संयमश्च संवतमनुष्याणामेव न तिरश्चामिति, तत्र सत्यासत्योभयानुभयस्वभावाश्चत्वारो मन:प्रयोगा: बायोगाप्रवेति प्रष्टो पुनरोदारिकादयः पञ्च कायप्रयोगा: एवं त्रयोदशेति । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद्दसमो समवानो : चौदहवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. चउद्दस भूअग्गामा पण्णत्ता, तं चतुर्दश भूतग्रामा: प्रज्ञप्ताः , तद्यथा- १. जीवों के समूह' चौदह हैं, जैसे जहा-सुहुमा अपज्जत्तया, सुहुमा सूक्ष्मा: अपर्याप्तकाः, सूक्ष्माः पर्याप्तकाः, १. सूक्ष्म अपर्याप्तक, २. सूक्ष्म पर्याप्तक, पज्जत्तया, बादरा अपज्जत्तया, बादरा: अपर्याप्तकाः, बादराः पर्याप्तका:, ३. बादर अपर्याप्तक, ४. बादर बादरा पज्जत्तया, बेइंदिया अपज्ज- द्वीन्द्रियाः अपर्याप्तकाः, द्वीन्द्रियाः पर्याप्तक, ५. द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, तया, बेइंदिया पज्जत्तया, तेइंदिया पर्याप्तकाः, त्रीन्द्रियाः अपर्याप्तका:, ६. द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, ७. त्रीन्द्रिय अपज्जत्तया, तेइंदिया पज्जत्तया, त्रोन्द्रियाः पर्याप्तकाः, चतुरिन्द्रिया: अपर्यातक, ८. त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चउरिदिया अपज्जत्तया, चउ- अपर्याप्तकाः, चतुरिन्द्रिया: पर्याप्तकाः, ६. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, रिदिया पज्जत्तया, पंचिदिया पञ्चेन्द्रियाः असंज्यपर्याप्तकाः, १०. चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, ११. असंज्ञी असण्णिअपज्जत्तया, पंचिदिया पञ्चेन्द्रियाः असंज्ञिपर्याप्तकाः, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, १२. असंज्ञी असण्णिपज्जत्तया, पंचिदिया पञ्चेन्द्रियाः संज्यपर्याप्तकाः, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, १३. संज्ञी पंचेन्द्रिय सण्णिअपज्जत्तया, पंचिदिया पञ्चेन्द्रियाः संज्ञिपर्याप्तकाः । अपर्याप्तक, १४. संज्ञी पंचेन्द्रिय सण्णिपज्जत्तया । पर्याप्तक । २. चउद्दस पुत्वा पण्णत्ता, तं जहा- चतुर्दश पूर्वाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २. पूर्व चौदह हैं, जैसेसंगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. उत्पाद ३. अग्रेणीय १. उप्पायपुव्वमग्गेणियं, १. उत्पादपूर्वमग्रेणीयं, ३. वीर्य च तइयं च वीरियं पुव्वं च तृतीयं च वीयं पूर्वम् । ४. अस्ति-नास्तिप्रवाद अत्थीनत्थिपवायं, अस्तिनास्तिप्रवादः, ५. ज्ञानप्रवाद तत्तो नाणप्पवायं च॥ ततो ज्ञानप्रवादश्च ॥ ६. सत्यप्रवाद २. सच्चप्पवायपुव्वं, ७. आत्मप्रवाद २. सत्यप्रवादपूर्व, ततो आयप्पवायपुव्वं च । ८. कर्मप्रवाद ततः आत्मप्रवादपूर्वं च । कम्मप्पवायपुव्वं, ६. प्रत्याख्यान कर्मप्रवादपूर्व, पच्चक्खाणं भवे नवमं ॥ प्रत्याख्यानं भवेन्नवमम् ॥ १०. विद्यानुप्रवाद ११. अवन्ध्य ३. विज्जाअणुप्पवायं, ३. विद्यानुप्रवाद, १२. प्राणायु प्रबंझपाणाउ बारसं पुव्वं । अवन्ध्यं प्राणायुदिशं पूर्वम् । १३. क्रियाविशाल तत्तो किरियविसालं, ततः क्रियाविशालं, १४. बिन्दुसार। पुव्वं तह बिंदुसारं च ॥ पूर्वं तथा बिन्दुसारं च ॥ ३. अग्गेणीअस्स णं पुवस्स च उद्दस अग्रेणीयस्य पूर्वस्य चतुर्दश वस्तूनि ३. अग्रेणीय पूर्व के वस्तु चौदह हैं ।' वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ४. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स उस समणसाहस्सोओ उक्को - सिआ समणसंपया होत्या । ५. कम्म विसो हिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जोवट्टाणा पण्णत्ता, तं जहामिच्छदिट्ठी सासायणसम्म दिट्ठि सम्मामिच्छदिट्ठि अविरयसम्म दिट्ठो विरयाविरए पत्तसंजए अप्पमत्त संजए निपट्टिदायरे अनियट्टिबाय रे सुहुमसंपराए - उवसमए वा खवए वा, उवसंतमोहे खोणमोहे सजोगी केवली अजोगी केवली । ६. भरहेरवयाओ णं जीवाओ चउदसचउस जोयणसहस्साइं चतारिय एगुत्तरे जोयणसए छच्च एकूणवीसे भागे जोयणस्स आयामेणं पण्ण ताओ । ७. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कव ट्टिस्स चउद्दस रयणा पण्णत्ता, तं जहा - इत्थीरयणे सेणावइरयणे गाहावइरयणे पुरोहियरयणे वडइरणे आसरवणे हत्थरयणे असि रयणे दंडरयणे चक्करयणे छत्तरयणे चम्मरयणे मणिरयणे कागिणिरयणे । ८. जंबुद्दीवे णं दीवे चउद्दस महान ईओ पुव्वावरेणं लवणसमुद्दं समप्र्पति, तं जहा गंगा सिंधू रोहिआ रोहिसा हरी हरिकंता सीआ सीओदा नरकंता नारिकंता सुवण्णकूला रुप्पकूला रत्ता रत्तवई । ६. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउद्दस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ७५ श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चतुर्दश श्रमणसाहस्यः उत्कृष्टा श्रमणसम्पद् आसीत् । कर्मविशेोधिमार्गणां प्रतीत्य चतुर्दश जीवस्थानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा मिथ्यादृष्टिः सास्वादन सम्यग्दृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टि: अविरत सम्यग्दृष्टिः विरताविरतः प्रमत्तसंयतः अप्रमत्तसंयतः निवृत्तिवादरः अनिवृत्तिबादरः सूक्ष्मसम्परायः - उपशमको वा क्षपको वा, उपशान्तमोहः क्षीणमोहः सयोगी केवली अयोगी केवली । भरतैरवतयोर्जीवे चतुर्दश- चतुर्दश योजनसहस्राणि चत्वारि च एकोत्तरं योजनशतं षट् च एकोनविंशं भागं योजनस्य आयामेन प्रज्ञप्ते | एकैकस्य राज्ञः चातुरन्तचक्रवर्तिनश्चतुर्दश रत्नानि प्रज्ञप्तानि तद्यथास्त्रीरत्नं सेनापतिरत्नं गृहपतिरत्नं, पुरोहितरत्नं वर्द्धकिरत्नं, अश्वरत्नं हस्तिरत्नं असिरत्नं दण्डरत्नं चक्ररत्नं छत्ररत्नं चर्मरत्नं मणिरत्नं काकिणीरत्नम् । जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश महानद्यः पूर्वापरेण लवणसमुद्रं समपर्यन्ति तद्यथा-गङ्गा सिन्धुः रोहिता रोहितांशा हरित् हरिकान्ता सीता सोतोदा नरकान्ता नारीकान्ता सुवर्णकूला रुक्मकूला रक्ता रक्तवती । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां चतुर्दश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । समवाय १४ : सू० ४-६ ४. श्रमण भगवान् महावीर की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा चौदह हजार श्रमणों की थी । ५. कर्म - विशुद्धि की मार्गणा ( गवेषणा ) के आधार पर जीवस्थान चौदह हैं, जैसे - १. मिथ्यादृष्टि, २. सास्वादन सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यग्मिथ्या दृष्टि, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. विरताविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. निवृत्तिबादर, 8 अनिवृत्तिबादर, १०. सुक्ष्म संप राय- उपशमक या क्षपक, ११. उपशान्त मोह, १२. क्षीण मोह, १३. सयोगी केवली, १४. अयोगी केवली | ६. भरत और ऐरवत - प्रत्येक क्षेत्र की जीवा की लम्बाई १४४०१० योजन ६ है । ७. प्रत्येक चातुरंत चक्रवर्ती के चौदह रत्न होते हैं, जैसे १. स्त्रीरत्न, २. सेनापति रत्न ८. असिरत्न, 8. दंडरत्न, ३. गृहपतिरत्न, १०. चक्ररत्न, ४. पुरोहितरत्न, ११. छत्ररत्न, ५. वर्धकी रत्न, १२. चर्मरत्न, १३. मणिरत्न, १४. काकिणीरत्न । ६. अश्वरत्न, ७. हस्ती रत्न, ८. जम्बूद्वीप द्वीप में चौदह महानदियां पूर्व-पश्चिम से लवण समुद्र में अवतीर्ण होती हैं, जैसे- गंगा, सिन्धु, रोहिता, रोहितांशा, हरित् हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नरकान्ता, नारीकान्ता, सुवर्णकूला, रुक्मकूला, रक्ता और रक्तवती । ९. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चौदह पत्योपम की है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ७६ १०. पंचमाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं पञ्चम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नेरइयाणं चउद्दस सागरोवमाइं नैरयिकाणां चतुर्दश सागरोपमाणि ठिई पण्णत्ता । स्थितिः प्रज्ञप्ता । ११. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउद्दस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १२. सोहम्मीसाणे कप्पेसु अत्थेगइ - सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां याणं देवाणं चउद्दस पलिओवमाई देवानां चतुर्दश पल्योपमानि स्थितिः ठिई पण्णत्ता । प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां चतुर्दश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । १३. लंतए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं लान्तके कल्पे देवानामुत्कर्षेण चतुर्दश चउद्दस सागरोवमाई ठिई सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । पण्णत्ता । १४. महासुक्के कप्पे देवाणं जहणणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । महाशुके कल्पे देवानां जघन्येन चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । १५. जे देवा सिरिकंतं सिरिमहियं सिरिसोमनसं लंतयं काविट्ठ महिदं महदोतं महदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १६. ते णं देवा चउद्दसह अद्धमासेहि ते देवाश्चतुर्दशभिरर्द्धमासैः आनन्ति वा आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा नीससंति वा । वा । ये देवाः श्रीकान्तं श्रीमहितं श्रीसौमनसं लान्तकं कापिष्ठं महेन्द्रं महेन्द्रावकान्तं महेन्द्रोत्तरावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः तेषां देवानामुत्कर्षेण चतुर्दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तेषां देवानां चतुर्दशभिर्वर्षसहस्रैराहा रार्थः समुत्पद्यते । १७. तेसि णं देवाणं चउदसहि वास सहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः ये चउदसह भवग्गणेह सिज्झि चतुर्दशभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखापरिनिव्वाइस्सं ति सव्वदुक्खाणमंतं नामन्तं करिष्यन्ति । करिस्संति । समवाय १४ : सू० १०-१८ १०. चौथी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चौदह सागरोपम की है। ११. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति चौदह पल्योपम की है । १२. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति चौदह पल्योपम की है । १३. लान्तककल्प के देवों की उत्कृष्ट चौदह सागरोपम की है । १४. महाशुक्रदेवों की जघन्य स्थिति चौदह सागरोपम की है । १५. श्रीकान्त, श्रीमहित, श्रीसौमनस, लान्तक, कापिष्ठ, महेन्द्र, महेन्द्रावकान्त और महेन्द्रोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपम की 1 १६. वे देव चौदह पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । १७. उन देवों के चौदह हजार वर्षों से आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है । १८. कुछ भव- सिद्धिक जीव चौदह बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अंत करेंगे । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. जीवों के समूह (भूअग्गामा) भूत का अर्थ है-जीव और ग्राम का अर्थ है-समूह । भूतग्राम अर्थात् जीवो के समूह ।' जीव समूहों के ये चौदह प्रकार बहुत प्रचलित हैं और पचीस बोल आदि के थोकड़ों में इनका समावेश है। कहीं-कहीं चौदह गुणस्थानों को भी इनके अन्तर्गत माना है। वहां इनका विभाग गुणों के आधार पर किया गया है।' २. पूर्व चौदह (चउद्दस पुव्वा) दृष्टिवाद के पांच विभाग हैं-परिकर्म, सूत्र, पूर्वानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । पूर्वगत के चौदह विभाग हैं। वे पूर्व कहलाते हैं। उनका परिणाम बहुत ही विशाल है। ये श्रुत या शब्दज्ञान के समस्त विषयों के अक्षय कोश होते हैं। इनकी रचना के बारे में दो विचारधाराएं हैं- पहली के अनुसार भगवान् महावीर के पूर्व ही ज्ञानराशि का यह भाग चला आ रहा था। इसलिए उत्तरवर्ती साहित्य रचना के समय इसे 'पूर्व' कहा गया। दूसरी विचारधारा के अनुसार द्वादशांगी से पूर्व रचे गए, इसलिए इन्हें 'पूर्व' कहा गया।' पूर्वो में सारा श्रुत समा जाता है। किन्तु साधारण बुद्धि वाले उसे पढ़ नहीं सकते। उनके लिए द्वादशांगी की रचना की गई ।' आगम-साहित्य में अध्ययन परम्परा के तीन अंग मिलते हैं। कुछ श्रमण चतुर्दशपूर्वी होते थे, कुछ द्वादशांगी के विद्वान् और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अंगों के अध्येता। चतुर्दशपूर्वी श्रमणों का अधिक महत्त्व रहा है। उन्हें श्रुतकेवली कहा गया है। पूर्वो की भाषा संस्कृत मानी जाती है। इनका विषय गहन और भाषा सहज-सुबोध नहीं थी। इसलिए अल्पमति लोगों के लिए द्वादशांगी रची गई 'बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां, नृणां चारित्रकांङि क्षणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृते कृतः ।।' चौदह पूर्व क्रम सं० नाम चूलिका वस्तु दस चौदह चार बारह आठ उत्पाद अग्रायणीय वीर्य-प्रवाद अस्तिनास्ति-प्रवाद ज्ञान-प्रवाद सत्य-प्रवाद आत्म-प्रवाद कर्म-प्रवाद प्रत्याख्यान प्रवाद विद्यानुप्रवाद अवन्ध्य (कल्याण) प्राणायुप्रवाद विषय पद-परिणाम वस्तु द्रव्य और पर्यायों की उत्पत्ति एक करोड द्रव्य, पदार्थ और जीवों का परिमाण छियानवें लाख सकर्म और अकर्म जीवों के वीर्य का वर्णन सत्तरलाख आठ पदार्थ की सत्ता और असत्ता का निरूपण साठ लाख अठारह ज्ञान का स्वरूप और प्रकार एक कम एक करोड़ बारह सत्य का निरूपण एक करोड़ छह आत्मा और जीव का निरूपण छब्बीस करोड़ कर्म का स्वरूप और प्रकार एक करोड़ अस्सी लाख तीस व्रत-आचार, विधि-निषेध चौरासी लाख सिद्धियों और उनके साधनों का निरूपण एक करोड़ दस लाख शुभाशुभ फल की अवश्यंभाविता का निरूपण छब्बीस करोड़ इन्द्रिय, श्वासोश्वास, आयुष्य एक करोड़ छप्पन लाख तेरह और प्राण का निरूपण शुभाशुभ क्रियाओं का निरूपण नौ करोड़ तीन लब्धि का स्वरूप और विस्तार साढे बारह करोड़ पच्चीस सोलह बीस बारह क्रियाविशाल लोकबिन्दुसार १. समवायांगवृत्ति, पत्र २६ : भूतानि-जीवाः, तेषां ग्रामाः-समूहाः भूतग्रामा: । २. आवश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ १०७ : ...."एवं चतुर्दशप्रकारो भूतग्रामः प्रदर्शितः, मधुनाऽमुमेव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार:-- 'मिच्छदिट्ठि सासायणे य तह......... ॥१॥ .........मजोगी अजोगी य ॥२॥ ३. स्थानांग १०/६२, वृत्ति पन्न ४६६ : सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि । ४. पावश्यकनियुक्ति : जइविय भूयावाए सब्बस्स बयोगयस्स मायारो। निज्जूहणा तहा विहु, दुम्मेहे पप्प इत्थी य ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ७८ समवाय १४ : टिप्पण ३. अग्रयणीय (अग्गेणीअस्स) यह दूसरा पूर्व है। इसके चौदह वस्तु विभाग हैं। वृत्तिकार का कथन है कि उसके मूल वस्तु चौदह हैं और चूलिका बारह हैं।' ४. जीवस्थान चौदह हैं (चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता) उत्तरवर्ती-साहित्य में जो 'गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं, उनका मूल नाम 'जीवस्थान' हैं। आगम-साहित्य में 'गुणस्थान' का प्रयोग प्राप्त नहीं हुआ है । तत्त्वार्थसूत्र में भी उसका उल्लेख नहीं है। कर्मग्रन्थ में उसका प्रयोग मिलता है।' गोम्मटसार में जीवों को 'गुण' कहा गया है। उसके अनुसार चौदह जीवस्थान कमों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि की भावाभावजनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं। परिणाम और परिणामी का अभेदोपचार करने पर जीवस्थानों को 'गुणस्थान' की संज्ञा दी गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हें 'जीवसमास' भी कहा गया है। धवला के अनुसार जीव गुणों में रहते हैं। इसलिए उन्हें जीवसमास कहा गया है । गुण पांच हैं १. औदयिक-कर्म के उदय से उत्पन्न गुण । २. औपशमिक-कर्म के उपशम से उत्पन्न गुण । ३. क्षायोपशमिक-कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न गुण । ४. क्षायिक-कर्म के क्षय से उत्पन्न गुण । ५. पारिणामिक-कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना उत्पन्न गुण । इन गुणों के साहचर्य से जीव को भी गुण कहा जाता है। जीवस्थान को उत्तरवर्ती-साहित्य में इसी अपेक्षा से गुणस्थान कहा गया है । संक्षेप और ओघ-ये दो गुणस्थान के पर्यायवाची शब्द हैं ।' चतुर्थ कर्मग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य तीन हैं-- १. जीवस्थान । २. मार्गणास्थान । ३. गुणस्थान । कर्मग्रन्थ में जो चौदह जीवस्थान निर्दिष्ट हैं, उन्हें प्रस्तुत समवाय में चौदह भूतग्राम कहा गया है और कर्मग्रन्थ में १. समबायांगवृत्ति पत्र २६ : द्वितीयपूर्वस्य वस्तूनि-विभागविशेषाः यानि च चतुर्दश मूलवस्तूनि, चूलावस्तूनि तु द्वादशेति । २. कर्मग्रन्थ ४, गा० १: नमिय जिणं जिसमग्गण, गुणठाणुवप्रोगजोगलेसायो। बंधप्पबहुभावे संखिज्जाई किमवि वच्छं। ३ गोम्मटसार, गा०,८: जेहिं तु लक्खिज्जते, उदयादिसु संभवेहि भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा, गिद्दिवा सव्वदरसीहिं॥ ४. वही. गा०१०। ५. षट्खंडागम, धवलावृत्ति, प्रथम खंड, पृ० १६०-१६१ : जीवसमास इति किम ? जीवा सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमास: । क्वासते ? गुणेषु । के गुणा: ? मोदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिक इति गुणाः । अस्य गमनिका, कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः प्रौदयिक: तेषामुपशमादौपशमिकः, क्षयात्क्षायिकः, तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोपशमिका । कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशममन्तरेणोत्पन्न: पारिणामिकः। गुणसहचरितत्वादात्मापि गुण संज्ञा प्रतिलभते । ६. गोम्मटसार, गा०३: संखेमो प्रोपोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा । ७ कर्मग्रन्य ४, गा०२: इह मुहुमबायरेगिदिबितिचउपसंन्निसन्निपंचिदी। मपज्जत्ता पज्जत्ता, कमेण चउदस जियटाणा ॥ ८. समवायांग, १४/१॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ७६ समवाय १४ : टिप्पण जो चौदह गुणस्थान निर्दिष्ट हैं, उन्हें प्रस्तुत समवाय में चौदह जीवस्थान कहा गया है। इस प्रकार प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों में संज्ञा-भेद प्राप्त होता है। गोम्मटसार में गुणस्थानों के साथ भावों की योजना निम्न प्रकार मिलती है: गुणस्थान भाव १. मिथ्याष्टि औदयिक २. सास्वादन पारिणामिक ३. सम्यगमिथ्यादृष्टि क्षायोपशमिक ४. अविरतसम्यग्दृष्टि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक ५. विरताविरत क्षायोपशमिक ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. निवृत्तिबादर उपशम श्रेणी हो तो औपशमिक, क्षपक श्रेणी हो तो क्षायिक । ६. अनिवृत्तिबादर १०. सूक्ष्मसंपराय ११. उपशान्तमोह औपशमिक १२. क्षीणमोह सायिक १३. सयोगीकेवली १४. अयोगीकेवली उक्त विवरण के अनुसार प्रथम गुणस्थान औदयिक-भाव है, किन्तु प्रस्तुत सूत्र में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्म-विशुद्धि बतलाया गया है-'कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पन्नत्ता ....।' इससे प्रथम गुणस्थान औदयिक-भाव प्रमाणित नहीं होता, किन्तु वह क्षायोपशमिक-भाव है। नेमिचन्द्र सूरि ने प्रथम चार गुणस्थानों को दर्शनमोह के उदय आदि से तथा अग्रिम गुणस्थानों को चारित्रमोह के क्षयोपशम आदि से निष्पन्न माना है। २ । अभयदेव सूरि ने प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में गुणस्थानों को ज्ञानावरण आदि कर्मों की विशुद्धि से निष्पन्न बतलाया है।' यद्यपि गुणस्थानों में ज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम आदि होते हैं, किन्तु उनकी रचना का मौलिक आधार दर्शनमोह और चारित्रमोह के क्षयोपशम आदि ही प्रतीत होते हैं। प्रथम गुणस्थान का अधिकारी व्यक्ति मिथ्याष्टि होता है । उसके दर्शनमोह का उदय होता है। इस नय की मुख्यता से अनेक आचार्यों ने प्रथम गुणस्थान को औदयिक-भाव माना है। उक्त गुणस्थान में दर्शनमोह का उदय होने पर भी उसके दर्शनमोह का आंशिक क्षयोपशम भी होता है। इस क्षयोपशम के नय से प्रस्तुत सूत्र में प्रथम गुणस्थान को विशुद्धिजनित-क्षायोपशमिक-भाव माना गया है। इस प्रकार नय-दृष्टि से विचार करने पर दोनों में विरोध प्रतीत नहीं होता, किन्तु मुख्यता और गौणता का अन्तर प्रतीत होता है। चौदह जीवस्थानों में चतुर्थ से क्रमिक ऊर्ध्वारोहण होता है। द्वितीय में अपक्रमण होता है। प्रथम और तृतीय अध्यात्म-विकास के न्यूनतम स्थान हैं। योगविद् जैन आचार्यों ने चौथे से बारहवें जीवस्थान की तुलना संप्रज्ञातयोग और तेरहवें-चौदहवें जीवस्थान की तुलना असंप्रज्ञातयोग से की है।' योगवाशिष्ठ में चौदह भूमिकाओं का वर्णन है। उनमें सात भूमिकाएं अज्ञान' की और सात ज्ञान की' की हैं। संख्या की दृष्टि से इनकी जीवस्थानों से समता है, किन्तु क्रमिक विकास की दृष्टि से इनमें साम्य नहीं है। १.गोम्मटसार, गा०११-१४॥ २. वही, गा० १२, १३ ॥ ३. समवायांगवृत्ति, पन्न ३६ कमविशोधिमार्गणां प्रतीत्य-ज्ञानावरणादिकर्मविशद्धिगवेषणामाथित्य. ४. योगावतारद्वात्रिशिका, १५,२१।। ५ योगवाशिष्ठ, उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११७, श्लो० २-२४ । ६. वही, सगं ११८, श्लो० ५-१५ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय १४ : टिप्पण जीवस्थान की अर्थ-मीमांसा १. मिथ्यादष्टि जीवस्थान : जिसकी दृष्टि मिथ्या-विपरीत होती है उसे मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। इस जीवस्थान में दर्शनमोह का उदय प्रधान है, उसका क्षयोपशम अन्य जीवस्थानों की अपेक्षा न्यूनतम होता है। २. सास्वादन सम्यग्दृष्टि : जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है, किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, उसे सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। प्राकृत में 'सासायण' शब्द है। उसके संस्कृत रूप दो मिलते है-(१) सास्वादन और (२) सासादन । औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो जाने वाले मिथ्यात्वाभिमुख जीव के सम्यक्त्व का आंशिक आस्वादन शेष रहता है। इस अर्थ की दृष्टि से प्रस्तुत जीवस्थान को सास्वादन कहा गया है ।' औपशमिक सम्यक्त्व से च्यूत होने वाला जीव सम्यक्त्व का आसादन करता है। इसलिए उसे सासादन कहा जाता ३. सम्यग-मिथ्यावृष्टि: जिसकी दृष्टि मिथ्या और सम्यक्-दोनों परिणामों से मिश्रित होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। औपशमिक सम्यक्त्व में वर्तमान जीव मिथ्यामोहनीय के परमाणुओं का शोधन कर, उन्हें तीन पुञ्जों में वर्गीकृत करता है-(१) शुद्ध, (२) अर्द्धशुद्ध और (३) अशुद्ध । शुद्ध पुञ्ज में सम्यक्त्व-घातक शक्ति नहीं होती। अर्द्धशुद्ध पुञ्ज में सम्यक् और असम्यक्-दोनों परिणामों का मिश्रण होता है । अशुद्ध पुञ्ज में सम्यक्त्व-घातक शक्ति होती है। औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जीव सम्यकदृष्टि बन जाता है—चतुर्थ जीवस्थान का अधिकारी हो जाता है। किन्तु उसकी स्थिति अन्तर्महुर्त की होती है। उसके समाप्त होने पर जीव का जैसा परिणाम रहता है वैसा पुञ्ज उदय में आ जाता है और उसके अनुसार ही वह क्षायोपशमिक सम्यक्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि हो जाता है। औपशमिक सम्यक्त्व प्रशान्त और आनन्दपूर्ण स्थिति है। उसके अन्तिम (षडावलिका के शेष) समय में परिणामों की प्रशान्तता भंग होने पर जीव अशुद्ध पुञ्ज की ओर झुक जाता है। उसे प्रशान्त स्थिति से अशान्त स्थिति तक पहुंचने में स्वल्प-सा समय लगता है। उस अवधि में सासादन सम्यगदृष्टि की परिणामधारा रहती है। जीव की परिणाम धारा की प्रक्रिया का अध्ययन करने पर निम्न निष्कर्ष प्राप्त होता है : प्रथम जीवस्थान आत्म-विकास की न्यूनतम भूमिका है, इसलिए उसमें साधारणतया सभी जीव रहते हैं और उसकी अवधि बहुत लम्बी है। जीव विकासोन्मुखी होकर प्रथम भूमिका से सीधा चतुर्थ भूमिका में जाता है। उस भूमिका में यदि दर्शनमोह क्षीण हो जाता है तो जीव फिर अपक्रमण नहीं करता और यदि वह उपशान्त या क्षय-उपशम की अवस्था में होता है तब उसके लिए उत्क्रमण और अपक्रमण-दोनों की संभावना रहती है। यदि क्षयोपशम की अवस्था से जीव अपक्रमण करता है तो वह चतुर्थ भूमिका से प्रथम भूमिका में चला जाता है । यदि वह उपशान्त स्थिति से अपक्रमण करता है, तो वह अन्तिम काल में दूसरी भूमिका का अनुभव करता है और उसकी अवधि पूर्ण होने पर वह तृतीय या प्रथम भूमिका में चला जाता है। वह प्रशान्त स्थिति से चलित होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व की अवस्था में चला जाता है, तो चतुर्थ भूमिका में ही रह जाता है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र, २६: महेषत्तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन बत्तते इति सास्वादनः, घण्टालालान्यायेन प्राय: परित्यक्तसम्यक्त्व: तदुत्तरकालं षडावलिकः, तया चोक्तम् "उवसमसमत्ताक्षो चयनो मिच्छं अपाबमाणस्स । सासायणसंमत्तं तदंतरालंमि छावलियं ॥ १॥ इति, सास्वादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेति विग्रहः । २. षट्खंडागम, धवलावृत्ति, प्रथम खंड, पृ० १६३ : भासादनं सम्यक्त्वविराधनम्, सह पासादनेन वर्तत इति सादादनो विनाशितसम्यग्दर्शनोप्राप्तमिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणामो मिथ्यात्वाभिमुख सासादन इति भण्यते। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय १४ : टिप्पण ४. अविरत सम्यगदृष्टि : जिसकी दृष्टि सम्यग होती है किन्तु जिसे व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती, उसे अविरत सम्यग्दष्टि कहा जाता है। षट्खंडागम में इसका नाम 'असंयत सम्यग्दृष्टि' भी मिलता है।' आत्म-विकास की तीन उपलब्धियां हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र । प्रस्तुत भूमिका में दर्शन सम्यक हो जाता है, ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है, किन्तु उसका पर्याप्त विकास इसमें नहीं होता। चरित्र का विकास इसकी अगली भूमिका से प्रारम्भ होता है। इस भूमिका में वर्तमान जीव इन्द्रिय-विषयों तथा हिंसा से विरत नहीं होता, किन्तु उसका दृष्टिकोण समीचीन हो जाता है। 1. विरताविरत : जो जीव इन्द्रिय-विषय और हिंसा से एक सीमा तक विरत होता है, उसे विरताविरत कहा जाता है। षट्खंडागम में इसे 'संयतासंयत कहा गया हैं।' गोम्मटसार के अनुसार विरताविरत जीव त्रस जीवों की हिंसा से विरत हो जाता है, किन्तु स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं होता। स्थावर जीवों की अनावश्यक हिंसा से विरत हो जाता है, किन्तु उनकी आवश्यक हिंसा से विरत नहीं हो पाता।' ६ प्रमत्त संयत : जो सर्वविरत होने पर भी प्रमादवान् होता है उसे 'प्रमत्तसंयत कहा जाता है। प्रमाद के पांच प्रकार मिलते हैं(१) मद, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथा । नेमिचन्द्र सूरि ने प्रमाद के १५ प्रकार बतलाए हैंचार विकथा-स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा। चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ । पांच इन्द्रिय-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र तथा निद्रा और प्रणय । आचार्य भिक्षु के अनुसार प्रमत्तसंयत जीवस्थान का संबंध उक्त प्रमादों से नहीं है। उसका संबंध प्रमाद आस्रव से है । क्रम-विकास की दृष्टि से यह उपयुक्त भी है। चतुर्थ भूमिका में सम्यक्दर्शन होने पर भी व्रत नहीं होता। पंचम भूमिका में आंशिक विरति होती है, किन्तु सर्वविरति नहीं होती। छठी भूमिका में सर्वविरति होती है, किन्तु प्रमाद आस्रव विलीन नहीं होता । प्रस्तुत भूमिका में प्रमाद आस्रव निरंतर रहता है। ७. प्रत्रमत्त संयत : इस भूमिका में प्रमाद का विलय हो जाता है। इस भूमिका से लेकर अगली सब भूमिकाओं में मुनि अपने स्वरूप के प्रति अप्रमत्त रहते हैं। १. षट्खंडागम, १/१/१२ : मसंजदसम्माइट्ठी। २. गोम्मटसार, गा० २६: गो इन्दियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सद्दहहि जिणत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो॥ ३. षट्खडागम, १/१/१३ । संजदासजदा। ४. गोम्मटसार, गा.३१: जो तसवहाउविरदो, अविरदो तहय थावरवहादो। एक समयम्हि जीबो, विरदाविरदो जिणेक्कमई॥ ५. वही. गा० ३४: विकहा तहा कसाया, इंदियणिद्दा तहेव पणयो य । चदु चदु पणमेगेग, होति पमादा हु पण्णरस ।। ६. नवपदार्थ, ५/१/६८। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ८. निवृत्तिबादर ६. निवृत्तिबाद इन दोनों जीवस्थानों में दसवें जीवस्थान की अपेक्षा बादर (स्थूल) कषाय उदय में आता है। दसवें स्थान से पहले वह सूक्ष्म नहीं होता। यहां निवृत्ति का अर्थ 'भेद" और अनिवृत्ति का अर्थ 'अभेद' है। ८२ निवृत्तिबादर जीवस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। उसके असंख्य समय होते हैं । इसमें भिन्न समयवर्ती जीवों की परिणाम विशुद्धि सदृश नहीं होती। एक समयवर्ती जीवों की परिणाम विशुद्धि सदृश और विसदृश - दोनों प्रकार की हो सकती है । इसलिए यह विसदृश परिणाम विशुद्धि का जीवस्थान है । अनिवृत्तिबादर जीवस्थान के एक समयवर्ती जीवों की परिणाम - विशुद्धि सदृश होती है। विशुद्धि का जीवस्थान है । पूर्ववर्ती जीवस्थान की अपेक्षा उत्तरवर्ती जीवस्थान में कषाय के अंश कषाय के अंश कम होते हैं, वैसे-वैसे परिणाम की विशुद्धि बढ़ती जाती है। आठवें जीवस्थान में परिणाम - विशुद्धि की भिन्नता इसलिए यह सदृश परिणामकम होते हैं । जैसे-जैसे होती है, किन्तु नौवें में विशुद्धि की मात्रा बढ़ने के कारण वह नहीं होती । निवृत्तिवादर को अपूर्वकरण भी कहा जाता है। इस जीवस्थान में अपूर्व विशुद्धि - पूर्व जीवस्थानों में अप्राप्त परिणाम- विशुद्धि प्राप्त होती है। इसलिए इसका नाम अपूर्वकरण है।' आठवें जीवस्थान से दो श्रेणियां होती हैं - ( १ ) उपशमश्रेणी और ( २ ) क्षपकश्रेणी । उपशमश्रेणी प्रतिपन्न जीव कषाय को उपशान्त करता हुआ, ग्यारहवीं भूमिका ( उपशान्त मोह) तक पहुंच कर फिर निचली भूमिकाओं में लौट है | क्षपकश्रेणी प्रतिपन्न जीव कषाय को क्षीण करता हुआ, दसवीं भूमिका से सीधा बारहवीं भूमिका में चला जाता है । १०. सूक्ष्मसंपराय : इस जीवस्थान में 'संपराय' ( कषाय) का उदय सूक्ष्म हो जाता है। केवल लोभ कषाय का सूक्ष्मांश उदय में रहता है । ११. उपशान्तमोह : इस भूमिका में मोह सर्वथा उपशान्त हो जाता है । इसलिए प्रस्तुत भूमिका में वर्तमान जीव 'उपशान्त मोह वीतराग' कहलाता है । १२. क्षीणमोह : इस भूमिका में मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है । इसलिए प्रस्तुत भूमिका में वर्तमान जीव 'क्षीण मोह वीतराग' कहलाता है । गोम्मटसार में उक्त दोनों जीवस्थानों के लिए 'उपशान्त कषाय' और 'क्षीण कषाय' का प्रयोग मिलता है ।' समवाय १४ : टिप्पण १३. सयोगी केवली : चार घात्यकर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) के क्षीण होने पर भी जिसके शरीर आदि की प्रवृत्ति शेष रहती है, उसे सयोगी केवली कहा जाता है । (ख) गोम्मटसार, गा० ५२ : भिन्नसमय हिदु जीवेहि ण होहि सम्वदा सरिसो । करणेहि एक्कसमय द्वियेहि सरिसो विसरिसो वा ॥ ३. षट्खंडागम, प्रथम भाग, धबलावृत्ति, पृ० १८३, १८४ ॥ ४. गोम्मटसार, गा० ५० । १. षट्खंडागम, प्रथम भाग, धबलावृत्ति, पृ० १८३ : निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्ति: । २. (क) समवायागवृत्ति, पत्र २६ : निवृत्ति : यद्गुणस्थानकं समकालप्रतिपन्नानां जीवानामध्यवसायभेद: तत्प्रधानोबादरी — बादरसम्परायो निवृत्तिबादरः । ५. वही, गा० ५१ । ६. वही, गा० ६१ ६२ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय १४ : टिप्पण १४. अयोगी केवली : जिसके शरीर आदि की प्रवृत्ति का भी निरोध हो जाता है, उसे 'अयोगी केवली' कहा जाता है। षटखंडागम में उक्त दोनों जीवस्थानों के नाम 'सयोगकेवली' और 'अयोगकेवली' भी मिलते हैं।' ५. चातुरंग चक्रवर्ती के चौदह रत्न (चाउरंतचक्कवट्टिस्स्स चउद्दस रयणा) रत्न का अर्थ है- अपनी-अपनी जाति की सर्वोत्कृष्ट वस्तुएं- "रत्नं निगद्यते तज्जाती जातौ यदुत्कृष्ट मिति ।" चार अन्तवाली भूमि के स्वामी को चातुरंत चक्रवर्ती कहते हैं।' प्रस्तुत आलापक में चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का उल्लेख है। यह उल्लेख अन्यान्य आगम ग्रन्थों तथा व्याख्या साहित्य में विस्तार से उपलब्ध होता है। स्थानांग के दो आलापकों (७/६७-६८) में चक्रवर्ती के इन रत्नों का उल्लेख है। वहां आगमकार ने इनको दो भागों में विभक्त किया है-एकेन्द्रिय रत्न और पंचेन्द्रिय रत्न । सात एकेन्द्रिय रत्न हैं और सात पंचेन्द्रिय रत्न हैं । प्रस्तुत सूत्र में उनका समवेत उल्लेख है। प्रथम सात पंचेन्द्रिय रत्न हैं और शेष सात एकेन्द्रिय रत्न हैं। 'असि' आदि सात रत्न पृथ्वीकाय के जीवों से निष्पन्न होते हैं, इसलिए इन्हें एकेन्द्रिय रत्न माना है। इन चौदह रत्नों की विशेष जानकारी के लिए देखें-ठाणं ७/६७,६८, टिप्पण पृ० ७६६, ७६७ । बौद्ध साहित्य में चक्रवर्ती के सात रत्नों का उल्लेख है १. चक्ररत्न-यह रत्न समस्त आकार से परिपूर्ण, हजार अरों वाला, सनेमिक और सनाभिक होता है। इस रत्न की उत्पत्ति हो जाने पर वह मूर्धाभिषिक्त राजा (चक्रवर्ती) कहता है-'पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतनं' ति। तब चक्ररत्न चारों दिशाओं में प्रवर्तित होता है। जहां वह चक्ररत्न प्रतिष्ठित होता है, वहीं चक्रवर्ती राजा अपनी चतरंगिनी सेना के साथ पड़ाव डालता है। उस दिशा के सभी राजा चक्रवर्ती के पास आकर उसका अनुशासन स्वीकार कर लेते हैं। इसी प्रकार चारों दिशाओ में वह चक्ररत्न प्रवर्तित होता है और सभी राजा चक्रवर्ती के अनुगामी बन जाते हैं। इस प्रकार चक्ररत्न समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर विजय पाकर, पुनः राजधानी में लौट आता है। वह चक्रवर्ती के अन्तःपुर के द्वार के मध्य स्थित हो जाता है। २. हस्तिरत्न- श्वेत वर्ण वाला, सात हाथ ऊंचा, ऋद्धिमान् 'उपोसथ' नामका हस्तिरत्न उत्पन्न होता है। चक्रवर्ती पूर्वान्ह में उस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त परिभ्रमण कर, राजधानी में आकर प्रातरास लेता है । यह उसकी शीघ्रगामिता का निदर्शन है। ३. अश्वरत्न-यह पूर्ण श्वेत और सुन्दर होता है। इसका नाम 'बलाहक' होता है। यह भी वायु की तरह शीघ्र गति वाला होता है। पूर्वाह्न में चक्रवर्ती इस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त भूमि का परिभ्रमण कर राजधानी में आकर कलेवा कर लेता है। ४. मणिरत्न-यह शुभ और गतिमान वैडूर्य मणि आठ कोणों वाला तथा सुपरिमित होता है। चक्रवर्ती राजा इस मणिरत्न को ध्वजा के अग्रभाग में आरोपित कर चतुरंगिनी सेना के साथ घोर अंधकारमय रात्रि में प्रयाण करता है। यह मणि इतना प्रकाश फैलाता है कि लोगों को रात में दिन का भ्रम हो जाता है । ५. स्त्रीरत्न-चक्रवर्ती के स्त्रीरत्न की उत्पत्ति होती है। वह स्त्री अत्यन्त सुन्दर, दर्शनीय, प्रासादिक, सुन्दर वर्ण वाली, न अति दीर्घ, न अति ह्रस्व, न अति कृश, न अति स्थूल, न अत्यन्त कृष्ण वर्णवाली, न अत्यन्त श्वेत वर्णवाली, मनुष्यों के वर्ण से अतिक्रान्त दिव्य वर्ण से संयुक्त होती है। उसका स्पर्श तूल और कपास के स्पर्श की तरह अत्यन्त मृदु होता है। उस स्त्रीरत्न का शरीर शीतकाल में ऊष्ण और ग्रीष्मकाल में शीतल होता है। उसकी काया से चंदन की गंध फुटती रहती है। उसके मुंह से उत्पल की गंध आती है। वह स्त्रीरत्न चक्रवर्ती के उठने से पूर्व उठती है, सोने के पश्चात् सोती है। वह १. (क) षट्खंडागम, १/१/२१ : सजोगकेवली । (ख) वही, १/१/२२ : प्रजोगकेवली। २. समवायांगवृत्ति, पत्र २७ : रत्नानिस्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तुनीति । ३. वही, पन २७ : चत्वारोऽन्ता-विभागा यस्यां सा चतुरन्ता भूमिः तन्त्र भवः स्वामितयेति चातुरन्त: स चासो चक्रवर्ती चेति । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ८४ समवाय १४ : टिप्पण मन के अनुकूल वर्तने वाली तथा प्रियवादिनी होती है। वह मन से भी चक्रवर्ती का अतिक्रमण नहीं करती तो फिर काया से अतिक्रमण करने की बात ही प्राप्त नहीं होती। ५. गृहपतिरत्न-गृहपति के कर्म-विपाकज दिव्यचक्षु प्रादुर्भूत होता है। वह चक्रवर्ती की निधियों को, उनके अधिष्ठाताओं के साथ अथवा अधिष्ठाताओं से रहित, उस दिव्यचक्षु से देखता है। चक्रवर्ती उस गृहपतिरल को साथ ले, नाव पर आरूढ हो गंगा के बीच में जाकर कहता है-'गृहपति ! मुझे हिरण्य-सुवर्ण चाहिए।' तब गृहपतिरत्न दोनों हाथों को गंगा के पानी के प्रवाह में डालकर हिरण्य-सुवर्ण से भरे कलश को बाहर निकालकर चक्रवर्ती के सम्मुख रखता है । फिर वह पूछता है-महाराज ! इतना धन पर्याप्त है या और लाऊं ! ७. परिनायकरत्न-यह पंडित, व्यक्त, मेधावी और निपुण होता है। यह चक्रवर्ती के समस्त क्रिया-कलापों में परामर्श देता है। १. मज्झिमनिकाय III, २६/२/१४, पृ० २४२-२४६ [नालंदा संस्करण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. पण्णरस परमाहम्मिआ पण्णत्ता, तं जहा - संग्रहणी गाहा १. अंबे बरिसी चेव, रुद्दोवरुद्दकाले य, सामे सबलेत्ति यावरे । २. पित्ते धणु कुम्भे १५ पारसमो समवा: पन्द्रहवां समवाय महाकालेत्ति यावरे ॥ खरस्सरे महाघोसे, वालु वेयरणीति य । पण साहि ॥ २. मी णं अरहा पण्णरस धणूइं उड़ढं उच्चतेणं होत्था । ३. ध्रुवराहू णं बहुलपक्खस्स पाडिवयं पण्णरसइ भागं पण्णरसइ भागेणं चंदस्स लेसं आवरेत्ता णं चिट्ठति, तं जहापढमाए पढमं भागं आए बीयं भागं तइआए तइयं भागं चउत्थीए चउत्थं भागं पंचमी पंचमं भागं छुट्टी छ भाग सत्तमीए सत्तमं भागं अम अभा नवमी नवमं भागं दसमीए दसमं भागं एक्कासी एक्कारसमं भागं बारसीए बारसमं भागं पञ्चदश तद्यथा संस्कृत छाया परमधार्मिकाः प्रज्ञप्ताः, संग्रहणी गाथा अम्बोऽम्बरिषी चैव, श्यामः शबल इति चापरः । रौद्रोपरौद्रकालाइच, महाकाल इति चापरः ॥ असिपत्रो धनुः कुम्भः, खरस्वरो वालुका वैतरणीति च। महाघोषः, एवमेते पञ्चदशाख्याताः ॥ नमिः अर्हन् पञ्चदशधनूंषि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ध्रुवराहुः बहुलपक्षस्य प्रतिपदं पञ्चदशभागं पञ्चदशभागेन चन्द्रस्य लेश्यां आवृत्य तिष्ठति, तद्यथा प्रथमायां प्रथमं भागं द्वितीयायां द्वितीयं भागं तृतीयायां तृतीयं भागं चतुर्थ्यां चतुर्थं भागं पञ्चम्यां पञ्चमं भागं षष्ठ्यां षष्ठं भाग सप्तम्यां सप्तमं भागं अष्टम्यां अष्टमं भागं नवम्यां नवमं भागं दशम्यां दशमं भागं एकादश्यां एकादशं भागं द्वादश्यां द्वादशं भागं हिन्दी अनुवाद १. परमधार्मिक' पन्द्रह हैं, जैसे १. अंब ६. असिपत्र २. अंबरिषी ३. श्याम ४. शवल ५. रौद्र ६. उपरौद्र ७. काल ८. महाकाल १०. धनु ११. कुंभ १२. वालुका १२. वैतरणी १४. खरस्वर १५. महाघोष २. अर्हत् नमि पन्द्रह धनुष्य ऊंचे थे । ३. ध्रुवराहु कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से प्रतिदिन चन्द्रमा की लेश्या' [ मंडल ] का पन्द्रहवां भाग आवृत करता है, जैसे प्रतिपदा के दिन पहला पन्द्रहवां भाग । द्वितीया के दिन दूसरा पन्द्रहवां भाग । तृतीया के दिन तीसरा पन्द्रहवां भाग । चतुर्थी के दिन चौथा पन्द्रहवां भाग । पंचमी के दिन पांचवां पन्द्रहवां भाग । षष्ठी के दिन छठा पन्द्रहवां भाग । सप्तमी के दिन सातवां पन्द्रहवां भाग । अष्टमी के दिन आठवां पन्द्रहवां भाग । नवमी के दिन नौवां पन्द्रहवां भाग । दसमी के दिन दसवां पन्द्रहवां भाग । एकादशी के दिन ग्यारहवां पन्द्रहवां भाग। द्वादशी के दिन बारहव Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवा तेरसीए तेरसमं भागं चउदसीए चउद्दसमं भागं पण्णरसेसु पण्णरसमं भागं । तं चैव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति, तं जहा पढमाए पढमं भागं जाव पण्णरसेसु पण्णरसमं भागं । १. सतभिसय भरण अद्दा, असलेसा साइ तह य जेट्ठा य । एते छष्णक्खत्ता, पारस मुहुत्त संजुत्ता ॥ ४. छ णक्खता पण्णरस मुहुत्तसंजुत्ता षड् नक्षत्राणि पञ्चदशमहूर्त्त संयुक्तानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा पण्णत्ता, त जहा संगणी गाहा सई पण्णरसमुहुत्तो दिवसो भवति, सई पण्णरसमुहुत्ता राई भवति । ५. चेत्तासो सु ८६ त्रयोदश्यां त्रयोदशं भागं चतुर्दश्यां चतुर्दशं भागं पञ्चदश्यां पञ्चदशं भागम् । ५. सच्चवइपओगे, ६. मोसवइपओगे, तं चैव शुक्लपक्षस्य उपदर्शयन् उपदर्शयन् तिष्ठति, तद्यथा प्रथमायां प्रथमं भागं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशं भागम् । ७. सच्चामोसवइपओगे, ८. असच्चामोसवइपओगे, ६. ओरालियसरी रकायपओगे, ६. विज्जाअणुष्पवास णं पुव्धस्स विद्यानुप्रवादस्य पूर्वस्य पञ्चदश वस्तूनि प्रज्ञप्तानि । पण्णरस वत्थू पण्णत्ता । संग्रहणी गाथा शतभिषग् भरण्यार्द्रा, अश्लेषा स्वातिस्तथा च ज्येष्ठा च । एतानि षड् नक्षत्राणि, पञ्चदशमुहूर्त्त संयुक्तानि ॥ ७ मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे मनुष्याणां पञ्चदशविधः पण, तं जहा १. सच्चमणपओगे, प्रज्ञप्तः, तद्यथासत्यमनःप्रयोगः, मृषामनः प्रयोगः, सत्यमृषामनः प्रयोगः, २. मोसमणपओगे, ३. सच्चामोसमणपओगे, ४. असच्चामोसमणपओगे, चैत्राश्वयुजोर्मासयोः, सकृत् पञ्चदशमुहूत दिवसो भवति, सकृत् पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति । असत्यामृषामनःप्रयोग, सत्यवाक्प्रयोगः, मृषावाक्प्रयोग:, सत्यमृषावाक्प्रयोगः असत्यामृषावाक्प्रयोगः, औदारिकशरीरकायप्रयोगः, प्रयोग: समवाय १५: सू० ४-७ पन्द्रहवां भाग । त्रयोदशी के दिन तेरहवां पन्द्रहवां भाग । चतुर्दशी के दिन चौदहवां पन्द्रहवां भाग । अमावस्या के दिन पन्द्रहवां पन्द्रहवां भाग - सम्पूर्ण चन्द्र मंडल । [ ध्रुवराहु] शुक्लपक्ष में प्रतिदिन एक-एक पन्द्रहवें भाग को उद्घाटित करता है, जैसे प्रतिपदा के दिन पहला पन्द्रहवां भाग उद्घाटित करता है यावत् पूर्णिमा के दिन पन्द्रहवां पन्द्रहवां भाग उद्घाटित करता है अर्थात् सम्पूर्ण चन्द्र मण्डल को उद्घाटित करता है ।" ४. छह नक्षत्र चन्द्रमा के साथ पन्द्रह मुहूर्त्त तक योग करते हैं, जैसे— १. शतभिषक् २. भरणि ३. आर्द्रा ४. अश्लेषा ५. स्वाति ६. ज्येष्ठा । ५. चैत्र और आश्विन मास में दिन पन्द्रह मुहूर्त्त का होता है । चैत्र और आश्विन मास में रात पन्द्रह मुहूर्त की होती है ' ६. विद्यानुप्रवाद पूर्व के वस्तु पन्द्रह हैं। ७. मनुष्यों का प्रयोग पन्द्रह प्रकार का है, जैसे— १. सत्य मन प्रयोग २. मृषा मन प्रयोग ३. सत्यमृषा मन - प्रयोग ४. असत्यामृषा मन प्रयोग ५. सत्य वचन-प्रयोग ६. मृषा वचन - प्रयोग ७. सत्यमृषा वचन प्रयोग 5. असत्या मृषा वचन प्रयोग C. औदारिकशरीर काय - प्रयोग Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय १५ : सू० ८-१५ १०. औदारिक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग ११. वैक्रियशरीर काय-प्रयोग १२. वैक्रिय-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग १३. आहारकशरीर काय-प्रयोग १४. आहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग। १० ओरालियमोससरोरकाय- औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगः, पओगे, ११. वेउब्वियसरीरकायपओगे, वैक्रियशरीरकायप्रयोगः, १२. वेउन्वियमीससरीरकाय- वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगः, पओगे, १३. आहारयसरीरकायपओगे, आहारकशरीरकायप्रयोगः, १४. आहारयमीससरीरकाय- आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः, पओगे, १५. कम्मयसरीरकायपओगे। कार्मणशरीरकायप्रयोगः । ८. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पण्णरस एकेषां नैरयिकाणां पञ्चदश पल्योप- पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। मानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. पंचमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं पञ्चम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नेरइयाणं पण्णरस सागरोवमाइं नैरयिकाणां पञ्चदश सागरोपमाणि ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १५. कार्मणशरीर काय-प्रयोग। ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की है। ६. पांचवी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम की है। १०. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १०. कुछ असुरकूमार देवों की स्थिति पण्णरस पलिओवमाइं ठिई पञ्चदश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पन्द्रह पल्योपम की है। पण्णत्ता। ११. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ११. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं पण्णरस पलिओवमाइं देवानां पञ्चदश पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १२. महासूक्के कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं । महाशके कल्पे अस्ति एकेषां देवानां १२. महाशुक्रकल्प के कुछ देवों की स्थिति पण्णरस सागरोवमाइं ठिई पञ्चदश सागरोपमाणि स्थिति: पन्द्रह सागरोपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ३.जे देवा गंदं सणंदं गंदावत्तं ये देवा नन्दं सुनन्दं नन्दावत नन्दप्रभं १३. नन्द, सूनन्द, नन्दावर्त, नन्दप्रभ, णंदप्पभं णंदकंतं गंदवण्णं णंदलेसं नन्दकान्तं नन्दवर्णं नन्दलेश्यं नन्दध्वज नन्दकान्त, नन्दवर्ण, नन्दलेश्य, नन्दध्वज, णंदज्झयं णंदसिंगं गंदसिट्ठ नन्दशृङ्ग नन्दसष्टं नन्दकुटं नन्दोत्तरा- नन्दशृङ्ग, नन्दसृष्ट, नन्दकूट, नन्दोगंदकूडं णंदुत्तरवडेंसगं विमाणं वतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां तरावतंसक विमानों में देवरूप में देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं देवानामुत्कर्षेण पञ्चदश सागरोपमाणि उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमाइं स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति पन्द्रह सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। १४. ते णं देवा पण्णरसण्हं अद्धमासाणं ते देवाः पञ्चदशानामद्धमासानां १४. वे देव पन्द्रह पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १५. तेसि णं देवाणं पण्णरसहि तेषां देवानां पञ्चदशभिर्वर्षसहस्र- १५. उन देवों के पन्द्रह हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारट्ठे राहारार्थः समुत्पद्यते । आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती समुपज्जइ। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय १५ : सू० १६ १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १६. कुछ भव-सिद्धिक जीव पन्द्रह बार पण्णरसहिं भवग्गहणेहि सिज्झि- पञ्चदशभिर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। टिप्पण १. परमाधार्मिक (परमाहम्मिया) नरक सात हैं । नारकीय जीव तीन प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं१. परमाधार्मिक देवों द्वारा उत्पादित वेदना । २. परस्पर में उदीरित वेदना। ३. क्षेत्रविपाकी वेदना। प्रथम तीन नरकों में नारकीय जीव तीनों प्रकार की वेदनाएं भोगते हैं और शेष चार नरकों में अंतिम दो प्रकार की वेदनाएं भोगी जाती हैं, क्योंकि वहां परमाधार्मिक देवों का अभाव है। प्रथम तीन नरक पृथिवियां-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा में परमाधार्मिक देव नारकीय जीवों को भिन्नभिन्न प्रकार से कष्ट देते हैं। वे देव पन्द्रह प्रकार के हैं । उनके नामों और कार्यों का विवरण सूत्रकृतांग की नियुक्ति में प्राप्त होता है । उनके नाम उनके कार्यानुरूप हैं । वह विवरण इस प्रकार है १. अंब-अपने निवास स्थान से ये देव आकर अपने मनोरंजन के लिए नारकीय जीवों को इधर-उधर दौड़ाते हैं, पीटते हैं, उनको ऊपर उछालकर शूलों में पिरोते हैं, पृथ्वी पर पटक-पटक कर पीड़ित करते हैं, उन्हें पुनः अंबर-आकाश में उछालते हैं, नीचे फेंकते हैं । २. अंबरिषी-मुद्गरों से आहत, खड्ग आदि से उपहत, मूच्छित उन नारकीयों को ये देव करवत आदि से चीरते हैं, रज्जु से बांधते हैं। ३. श्याम-ये देव जीवों के अंगच्छेद करते हैं, पहाड़ से नीचे गिराते हैं, नाक को बींधते हैं, रज्जु से बांधते हैं। ४. शबल-ये देव नारकीय जीवों की आंतें बाहर निकाल देते हैं, हृदय को नष्ट कर देते हैं । कलेजे का मांस निकाल देते हैं। चमड़ी उधेड़ कर उन्हें कष्ट देते हैं। ५. रौद्र-ये देव अत्यन्त क्रूरता से नारकीय जीवों को कष्ट देते हैं । ६. उपरौद्र-ये देव नारकों के अंग-भंग करते हैं, हाथ-पैरों को मरोड़ देते हैं । ऐसा एक भी क्रूर कर्म नहीं जो ये न कर पाते हों। ७. काल-ये देव नारकीयों को भिन्न प्रकार के कड़ाहों में पकाते हैं, उबालते हैं और उन्हें जीवित मछलियों की तरह सेंकते हैं। ८. महाकाल-ये देव नारकों के छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं। पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं और जो नारक पूर्वभव में मांसाहारी थे उन्हें वह मांस खिलाते हैं। ६. असि-ये देव नारकीय जीवों के अंग-प्रत्यंगों के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं, दुःख उत्पादित करते हैं। १०. असिपत्र (या धनु)–ये देव असिपत्र नाम के वन की विकुर्वणा करते हैं । नारकीय जीव छाया के लोभ से उन वृक्षों के नीचे आकर विश्राम करते हैं। तब हवा के झोंकों से असिधारा की भांति तीखे पत्ते उन पर पड़ते हैं और वे छिद जाते हैं। ११. कुंभि (कुंभ)-ये देव विभिन्न प्रकार के पात्रों में नारकीय जीवों को डालकर पकाते हैं । १२. बालुका-ये देव गरम बालु से भरे पात्रों में नारकों को चने की तरह भुनते हैं । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र ८६ समवाय १५ : टिप्पण १३. वेतरणी - ये नरकपाल वैतरणी नदी की विकुर्वणा करते हैं। वह नदी पीब, लोही, केश और हड्डियों से भरी - पूरी होती है । उसमें खारा गरम पानी बहता है। उस नदी में नारकीय जीवों को बहाया जाता है । १४. खरस्वर-ये नरकपाल छोटे-छोटे धागों की तरह सूक्ष्मरूप से नारकों के शरीर को चीरते हैं । फिर उनके और भी सूक्ष्म टुकड़े करते हैं। उनको पुनः जोड़कर सचेतन करते हैं और कठोर स्वर में रोते हुए नारकों को शाल्मली वृक्ष पर चढ़ने के लिये प्रेरित करते हैं । वह वृक्ष वज्रमय तीखे कांटों से संवृत होता है। नारक उस पर चढते । नरकपाल पुनः उन्हें खींचकर नीचे ले आते हैं। यह क्रम चलता रहता है । १५. महाघोष - ये सभी असुर देवों में अधम जाति के माने जाते हैं । ये नरकपाल नारकों की भीषण वेदना को देखकर परम मुदित होते हैं । प्रस्तुत समवाय में नौवें परमाधार्मिक का नाम है 'असिपत्र' और दसवें का नाम है 'धनु' । सूत्रकृतांग की निर्युक्ति के अनुसार नौवें का नाम है 'असि' और दसवें का नाम है 'असिपत्र' या 'धनु' ।' २. ध्रुवराहू ( ध्रुवराहू) : जैन खगोल के अनुसार राहू दो माने जाते हैं-पर्वराहु और ध्रुवराहु । जो पूर्णिमा या अमावस्या को चन्द्र या सूर्य का ग्रहण उत्पन्न करता है, वह 'पर्व'राहु' है । जो सदा चन्द्र के पास ही संचरण करता है, वह 'ध्रुवराहु' है । इसका विमान कृष्ण होता है और यह सदा चन्द्र विमान के नीचे चार अंगुल के व्यवधान से संचरण करता है :. किन्हं राहुविमाणं, निच्चं चंदेण होइ अविरहिअं । चउरंगुलमप्पत्तं, हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥ ' ३. लेश्या (लेसं ) चन्द्रमा का मण्डल दीप्ति का विकिरण करता है, इसलिए कार्य-कारण के अभेदोपचार की दृष्टि से मण्डल के स्थान में लेश्या का प्रयोग किया गया है।' ४. प्रतिपदा करता है ( पढमाए "पण्णरसमं भागं ) : चन्द्र- मंडल के सोलह भाग होते हैं। एक भाग सदा उद्घाटित रहता है और शेष पन्द्रह भाग कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक, इन पन्द्रह दिनों में प्रतिदिन एक-एक भाग के अनुपात से आवृत होते जाते हैं। इसी प्रकार शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से पूर्णिमा तक, एक-एक भाग के अनुपात से उद्घाटित होते जाते हैं । चन्द्र-मंडल का परिमाण ५६ / ६१ योजन है । राहु एक ग्रह है और ग्रह के विमान का परिमाण आधा योजन बताया गया है । चन्द्र-विमान बड़ा है और राहु-विमान छोटा । इस दशा में राहु-विमान चन्द्र विमान को कैसे आवृत कर सकेगा ? वृत्तिकार का अभिमत है कि ग्रह के विमानों का परिमाण जो अर्ध योजन बतलाया गया है, वह प्रतिपादन प्रायिक है । अतः राहु विमान के एक योजन के होने की संभावना की जा सकती है। वृत्तिकार ने दूसरी संभावना यह की है कि राहु-विमान को छोटा मान लेने पर भी चन्द्र -विमान को आवृत करने में कोई आपत्ति नहीं आती, क्योंकि राहु के विमान से अन्धकारमय रश्मिजाल विपुल मात्रा में विकिरण होता है और वह चन्द्र - विमान को आच्छादित कर देता है । * ५. सूत्र ४ : नक्षत्र-क्षेत्र [आकाश-भाग ] के तीन भेद हैं १. समक्षेत्र - चन्द्रमा द्वारा तीस मुहूर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र क्षेत्र । १. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति, ५६,६० । २. समयांगवृत्ति, पत्र २८ : द्विविधो राहुः भवति–पर्व राहुध्रुव राहुश्च तत्र यः पर्वणि पौर्णमास्याममावास्यायां वा चन्द्रादित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहु, यस्तु चन्द्रस्य सदैव सन्निहितः सञ्चरति स ध्रुवराहुः । ३. समवायांगवृत्ति, पत्र २० : लेपया - दीप्तिस्तत्करणत्वात् मण्डलं लेश्या । ४. समवायांगवृत्ति, पत्र २६ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ६० २. अर्द्धसमक्षेत्र - चन्द्रमा द्वारा १५ मुहूर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र क्षेत्र । ३. द्वयर्द्धसमक्षेत्र --- चन्द्रमा द्वारा ४५ मुहूर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र क्षेत्र । प्रस्तुत आलापक में पन्द्रह मुहूर्त्त तक योग करने वाले छह नक्षत्रों का उल्लेख है। ये छह नक्षत्र चन्द्रमा द्वारा पहले तथा पीछे सेवित होते हैं। ये चन्द्रमा के समयोगी माने जाते हैं । प्रस्तुत आगम के ४५ / ७ में पैंतालीस मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्रों का उल्लेख है । विशेष विवरण के लिए देखें--- ठाणं ६/७३-७५, टिप्पण पृष्ठ ६६८, ६६६ । ६. चंत्र और आश्विन में दिन रात (चेत्तासोएसु दिवसो राई ) : यह प्रतिपादन व्यवहार (स्थूल ) नय की दृष्टि से किया गया है। निश्चयनय की दृष्टि से चैत्र मास में मेष संक्रान्ति का पहला दिन-रात और आश्विन मास में तुला संक्रान्ति का पहला दिन-रात पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त का होता है । ७. प्रयोग (पओगे ) वृत्तिकार ने प्रयोग के दो अर्थ किए हैं- १. आत्मा का क्रिया परिणामरूप व्यापार । समवाय १५ : टिप्पण २. आत्मा के साथ कर्म का योग होना । इसका सामान्य अर्थ है प्रवृत्ति । प्रयोग (योग) पन्द्रह हैं। इनमें मन के चार, वचन के चार और काया के सात प्रयोग हैं। मन जब सत्य के अर्थ - चितन में प्रवृत्ति करता है तब उसे 'सत्य मनः प्रयोग' कहते हैं। इसी प्रकार शेष मनः प्रयोगों और वचन प्रयोगों के विषय में जानना चाहिए। नौ की संख्या से पन्द्रह की संख्या तक चार शरीरों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक और कार्मण शरीर की सात प्रकार की प्रवृत्तियों का उल्लेख है --- १. औदारिकशरीर काय प्रयोग — औदारिक शरीर वाले मनुष्यों तथा तिर्यंचों में शरीर पर्याप्ति के होने के बाद होने वाली प्रवृत्ति । २. औदारिकमिश्रशरीर काय प्रयोग - यह चार प्रकार से होता है (क) मनुष्य एवं तिर्यंच गति में उत्पन्न होने के समय शरीरपर्याप्ति का पूर्ण बंध न होने की अवस्था तक कार्मण काय योग के साथ | (ख) वैयिलब्धि संपन्न मनुष्य और तिथंच वैक्रिय रूप बनाते हैं । परन्तु जब तक वह पूर्ण नहीं होता, तब तक यि काययोग के साथ । (ग) विशिष्ट शक्ति संपन्न योगी आवश्यकतावश जब तक आहारक शरीर पूरा नहीं बना लेता तब तक आहारक काय-योग के साथ | में कार्मण के साथ । (घ) केवली समुद्घात के दूसरे, छठे और सातवें समय ३. वैक्रियशरीर काय प्रयोग — देवता और नारकी में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद तथा मनुष्य और तिर्यंच में लब्धि-जन्य क्रिय शरीर की जो क्रिया होती है वह वैक्रियशरीर काय प्रयोग है । ४. वैक्रियमिश्रशरीर काय प्रयोग - यह दो प्रकार से होता है- (क) देवता और नारकी में उत्पन्न होने वाले जीव जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं कर लेते, उस अवस्था में कार्मण काययोग के साथ वैक्रिय मिश्रशरीर काय प्रयोग होता है । (ख) औदारिकशरीर वाले मनुष्य और तिर्यच अपनी विशिष्ट लब्धि से वैक्रिय रूप बनाते हैं और उसको फिर समेटते हैं । परन्तु जब तक औदारिक शरीर पुनः पूर्ण नहीं बन जाता तब तक औदारिक काय-योग के साथ वैक्रियमिश्रशरीर काय प्रयोग होता है । १. समवायांगवृत्ति, पत्र २६ : स्थूलन्यायमाश्रित्य चैलेऽश्वयुजि च मासे पञ्चदशमुहूर्ती दिवसो भवति रात्रिश्च निश्चयतस्तु मेषसंक्रान्तिदिने तुलासंक्रान्तिदिने चैवं दृश्यमिति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र २६ : प्रयोजनं प्रयोगः सपरिस्पन्द ग्रात्मनः क्रियापरिणामो व्यापार इत्यर्थः अथवा प्रकर्षेण युज्यते संयुज्यते सम्बध्यतेऽनेन क्रियापरिणामेन कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय १५ : टिप्पण ५. आहारकशरीर काय-प्रयोग-जब आहारक शरीर पूर्ण होकर प्रवृत्त होता है तब आहारकशरीर काय-प्रयोग होता है। ६. आहारकमिश्रशरीर काय-प्रयोग-जिस समय आहारक शरीर अपना कार्य संपन्न कर पुनः औदारिक शरीर में प्रवेश करता है, उस समय औदारिक काययोग के साथ आहारकमिश्रशरीर काय-प्रयोग होता है। ७. कार्मणशरीर काय-प्रयोग–यह दो प्रकार से होता है--- (क) अन्तराल गति में अनाहारक अवस्था में होने वाला योग कार्मणशरीर काय-प्रयोग है। (ख) केवली समुद्घात के समय तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणशरीर काय-प्रयोग होता है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमो समवानो : सोलहवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. सोलस यगाहा-सोलसगा पण्णता, षोडश च गाथा-षोडशकानि प्रज्ञप्तानि, १. सूत्रकृतांग' के सोलह अध्ययन हैं, तं जहा-समए वेयालिए तद्यथा -समयः वैतालीयं उपसर्गपरिज्ञा जैसे-समय, वैतालीय, उपसर्गपरिज्ञा, उवसग्गपरिण्णा इत्थिपरिण्णा स्त्रीपरिज्ञा निरयविभक्तिः महावीर- स्त्रीपरिज्ञा, निरयविभक्ति, महावीरनिरयविभत्ती महावोरथुई स्तुतिः कुशीलपरिभाषा वीर्य धर्मः स्तुति, कुशीलपरिभाषा, वीर्य, धर्म, कुसीलपरिभासिए वोरिए धम्मे समाधि: मार्गः समवसरणं याथातथ्यं । समाधि, मार्ग, समवसरण, याथातथ्य, समाही मग्गे समोसरणे आहत्तहिए ग्रन्थः यमकोयं गाथा। ग्रन्थ, यमकीय और गाथा । गंथे जमईए गाहा। २. सोलस कसाया पण्णत्ता, तं जहा- षोडश कषायाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-- अणंताणुबंधी कोहे अनन्तानुबन्धी क्रोधः अणंताणुबंधो माणे अनन्तानुबन्धि मानं अणंताणुबंधी माया अनन्तानुबन्धिनी माया अणंताणुबंधी लोभे अनन्तानुबन्धी लोभः अपच्चक्खाणकसाए कोहे अप्रत्याख्यानकषायः क्रोधः अपच्चक्खाणकसाए माणे अप्रत्याख्यानकषायं मानं अपच्चक्खाणकसाए माया अप्रत्याख्यानकषाया माया अपच्चक्खाणकसाए लोभे अप्रत्याख्यानकषायो लोभः पच्चक्खाणावरणे कोहे प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः पच्चक्खाणावरणे माणे प्रत्याख्यानावरणं मानं पच्चक्खाणावरणा माया प्रत्याख्यानावरणा माया पच्चक्खाणावरणे लोभे प्रत्याख्यानावरणो लोभः संजलणे कोहे संज्वलनः क्रोधः संजलणे माणे संज्वलनं मान संजलणा माया संज्वलनी माया संजलणे लो। संज्वलनो लोभः । २. कषाय सोलह हैं, जैसे १. अनन्तानुबंधी क्रोध २. अनन्तानुबंधी मान ३. अनन्तानुबंधी माया ४. अनन्तानुबंधी लोभ ५. अप्रत्याख्यान-कषाय क्रोध ६. अप्रत्याख्यान-कषाय मान ७. अप्रत्याख्यान-कषाय माया ८. अप्रत्याख्यान-कषाय लोभ ६. प्रत्याख्यानावरण क्रोध १०. प्रत्याख्यानावरण मान ११. प्रत्याख्यानावरण माया १२. प्रत्याख्यानावरण लोभ १३. संज्वलन क्रोध १४. संज्वलन मान १५. संज्वलन माया १६. संज्वलन लोभ । ३. मंदरस्स णं पव्वयस्स सोलस मन्दरस्य पर्वतस्य षोडश नामधेयानि नामधेया पण्णत्ता, तं जहा.- प्रज्ञप्तानि, तद्यथा ३. मन्दर पर्वत के सोलह नाम हैं, जैसे Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय १६ : सू०४-१२ २. अन्य रयावतं. संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. मन्दर . लोकमध्य १. मंदर-मेरु-मणोरम, मन्दरो मेरुमनोरमः, २. मेरु १०. लोकनाभि सुदंसण सयंपभे य गिरिराया। सूदर्शनः स्वयंप्रभश्च गिरिराट् । ३. मनोरम ११. अस्त रयणुच्चय पियदंसण, रत्नोच्चयः प्रियदर्शनो, ४. सुदर्शन १२. सूर्यावर्त्त __ मज्झे लोगस्स नाभी य॥ मध्यं लोकस्य नाभिश्च ॥ ५. स्वयंप्रभ १३. सूर्यावरण अस्तश्च सूर्यावर्त्तः, ६. गिरिराज १४. उत्तर सूरियावरणेत्ति य। सूर्यावरण इति च। ७. रत्लोच्चय १५. दिग्आदि उत्तरे य दिसाई य, उत्तरश्च दिगादिश्च ८. प्रियदर्शन १६. अवतंसक। वडेंसे इअ सोलसे॥ अवतंस इति षोडशः ॥ ४. पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणी- पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य षोडश ४. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के उत्कृष्ट यस्स सोलस समणसाहस्सोओ श्रमण-साहस्यः उत्कृष्टा श्रमण-सम्पद् श्रमण-सम्पदा सोलह हजार श्रमणों की उक्कोसिआ समण-संपदा होत्था। आसीत् । ५. आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस आत्मप्रवादस्य पूर्वस्य षोडश वस्तूनि ५. आत्मप्रवाद पूर्व के वस्तु सोलह हैं । वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । सोमोसम चमरबल्योः अवतारिकालयने षोडश ६. चमर और बली के अवतारिकालयन जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भाभ्यां (मध्य में उन्नत और पार्श्वपीठ में पण्णत्ते। प्रज्ञप्ते। ढलवां) सोलह-सोलह हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। ७. लवणे णं समुद्दे सोलस लवणः समुद्रः षोडश योजनसहस्राणि ७. लवण समुद्र में उत्सेध (वेला) की जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्डीए उत्सेधपरिवृद्धया प्रज्ञप्तः। परिवृद्धि सोलह हजार योजन की है। पण्णत्ते। थी। ८. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस एकेषां नैरयिकाणां षोडश पल्योपमानि की स्थिति सोलह पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता । ६. पंचमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं पञ्चम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ६. पांचवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की नेरइयाणं सोलस सागरोवमाइं नैरयिकाणां षोडश सागरोपमाणि स्थिति सोलह सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। स्थितिःप्रज्ञप्ता। १०. असुरकूमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १०. कळ ना आस्त एकषा १०. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति सोलस पलिओवमाइं ठिई षोडश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सोलह पल्योपम की है। पण्णत्ता। ११. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ११. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं सोलस पलिओवमाई देवानां षोडश पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति सोलह पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १२. महासुक्के कप्पे देवाणं अत्थेगइ- महाशुक्रे कल्पे देवानामस्ति एकेषां १२. महाशुक्रकल्प के कुछ देवों की स्थिति याणं सोलस सागरोवमाई ठिई षोडश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सोलह सागरोपम की है। पण्णत्ता। , Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ६४ समवाय १६ : सू० १३-१६ १३. जे देवा आवत्तं वियावत्तं ये देवा आवर्त व्यावतं नन्द्यावतं १३. आवर्त, व्यावत, नन्द्यावर्त्त, महा नंदियावत्तं महाणंदियावत्तं अंकुसं महानन्द्यावतं अंकुशं अंकुश-प्रलम्बं भद्रं नंद्यावर्त्त, अंकुश, अंकुशप्रलंब, भद्र, अंकुसपलंबं भई सुभदं महाभई सुभद्रं महाभद्रं सर्वतोभद्रं भद्रोत्तरा- सुभद्र, महाभद्र, सर्वतोभद्र और सव्वओभई भद्दुत्तरवडेंसगं वतंसक विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां भद्रोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि देवानामत्कर्षेण षोडश सागरोपमाणि उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस स्थितिः प्रज्ञप्ता । स्थिति सोलह सागरोपम की है। सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १४. ते णं देवा सोलसण्हं अद्धमासाणं ते देवाः षोडशानामर्द्धमासानां आनन्ति १४. वे देव सोलह पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। निःश्वसन्ति वा। १५. तेसि णं देवाणं सोलसवाससहस्सेहि तेषां देवानां षोडशवर्षसहाराहारार्थः १५. उन देवों के सोलह हजार वर्षों से आहारठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते। भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १६. कुछ भव-सिद्धिक जीव सोलह बार सोलसहि भवग्गहणेहि सिज्झि- षोडशैर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। टिप्पण १. सूत्रकृतांग (गाहा-सोलसगा) मूलपाठ में 'सूत्रकृतांग' का उल्लेख नहीं है। वहां 'गाहा-सोलसगा' (गाथा-षोडशक) शब्द है। सूत्रकृतांग के सोलहवें अध्ययन का नाम 'गाथा' है। जिसका सोलहवां अध्ययन 'गाथा' नामक है, उन अध्ययनों को 'गाथा-षोडशक' कहा गया है । फलितार्थ में यह सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का वाचक है। सूत्रकृतांग चूणि में सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का नाम 'गाथा' या 'गाथा-षोडशक है ।' सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने भी प्रथम श्रुतस्कंध का नाम 'गाथाषोडशक' माना है।' २. कषाय (कसाया) जीव में विकार पैदा करने वाले परमाणु 'मोह' कहलाते हैं। जब वे दृष्टि में विकार उत्पन्न करते हैं तब दर्शन-मोह और जब वे चारित्र में विकार उत्पन्न करते हैं तब चारित्र-मोह कहलाते हैं। चारित्र-मोह के परमाणुओं के दो विभाग हैंकषाय और नो-कषाय । मूल कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इन मूल कषायों को उत्तेजित करने वाले परमाणु नो-कषाय कहलाते हैं । वे नौ हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा।' १. सूत्रकृतांगचूणि, पृष्ठ १५: तत्थ पढमो सुतखंधो [गाधा] सोलसगा। २. सूत्रकृतांगवृत्ति, पन ८: इहाद्यश्रुतस्कन्धस्य गाथाषोडशक इति नाम । ३. ठाणं, ६/६६। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय १६ : टिप्पण प्रस्तुत आलापक में चार मूल कषायों को चार वर्गों में विभक्त किया गया हैपहला वर्ग अनन्तानुबन्धी-क्रोध जैसे, पत्थर की रेखा (स्थिरतम) अनन्तानुबन्धी-मान जैसे, पत्थर का खंभा (दृढतम) अनन्तानुबन्धी-माया जैसे, बांस की जड़ (वत्रतम) अनन्तानुबन्धी-लोभ जैसे, कृमि-रेशम का रंग (गाढतम) दूसरा वर्गअप्रत्याख्यान-क्रोध जैसे, मिट्टी की रेखा (स्थिरतर) अप्रत्याख्यान-मान जैसे, हाड का खंभा (दृढतर) अप्रत्याख्यान-माया जैसे, मेंढे का सींग (वक्रतर) अप्रत्याख्यान-लोभ जैसे, कीचड़ का रंग (गाढतर) तीसरा वर्गप्रत्याख्यान-क्रोध जैसे, धूलि-रेखा (स्थिर) प्रत्याख्यान-मान जैसे, काठ का खंभा (दृढ) प्रत्याख्यान-माया जैसे, चलते बैल की मूत्रधारा (वक्र) प्रत्याख्यान-लोभ जैसे, खंजन का रंग (गाढ) चौथा वर्गसंज्वलन-क्रोध जसे, जल रेखा (अस्थिर-तात्कालिक) संज्वलन-मान जैसे, लता का खंभा (लचीला) संज्वलन-माया जैसे, छिलते बांस की छाल (स्वल्पतम वक्र) संज्वलन-लोभ जैसे, हल्दी का रंग (तत्काल उड़ने वाला) ये चारों वर्ग विशेष गुणों के बाधक हैं० अनन्तानुबंधी वर्ग के उदयकाल में सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं होती। ० अप्रत्याख्यान वर्ग के उदय से व्रतों की भूमिका प्राप्त नहीं होती। • प्रत्याख्यान वर्ग के उदय से महाव्रतों की भूमिका प्राप्त नहीं होती। ० संज्वलन वर्ग के उदय से वीतराग-चारित्र (यथाख्यात चारित्र) की प्राप्ति नहीं होती। कषायों के भेद-प्रभेद के लिए देखें-- ठाणं ४/७५-६१ । ३. मन्दर पर्वत के (मंदरस्स णं पव्वयस्स) : प्रस्तुत आलापक में मंदर पर्वत के सोलह नाम निर्दिष्ट हैं । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (४/२६०) में दो गाथाओं में ये ही सोलह नाम निर्दिष्ट हैं ।' उनमें आठवां नाम 'शिलोच्चय', ग्यारहवां नाम 'अच्छ' तथा चौदहवां नाम ‘उत्तम' है । प्रस्तुत आलापक में आठवां नाम 'प्रियदर्शन', ग्यारहवां नाम 'अस्त' तथा चौदहवां नाम ‘उत्तर' है । इसके अतिरिक्त दोनों गाथाओं की शब्दावली भी प्रायः समान है। जंबूद्वीप की वृत्ति में इन सोलह नामों की अर्थवत्ता भी दी गई है। वह इस प्रकार है१. मन्दर-मन्दर देव के योग से पर्वत का नाम मन्दर है। १. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति ४/२६.: मंदर मेरुमणोरमा, सुदंसण सयंपभे म गिरिराया । रयणोच्चए सिलोच्चए, मज्झे लोगस्स णामी य ॥ अच्छे अ सूरियावत्ते, सूरिघाबरणे तिम। उत्तमे म दिसादी अ, वडसेति म सोलस ॥ २. जम्बूद्वीप प्रशप्ति, ४२६०, वृत्ति पत्र ३७५, ३७६ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय १६ : टिप्पण २. मेरु-मेरु देव के कारण पर्वत का नाम मेरु है।' ३. मनोरम-देवताओं के मन को भी प्रसन्न कर देता है। ४. सुदर्शन- स्वर्णमय और रत्नमय होने के कारण मन को सुखकर । ५. स्वयंप्रभ-रत्नों की बहुलता के कारण स्वयं प्रकाशी। ६. गिरिराज-समस्त पर्वतों में ऊंचा होने तथा तीर्थकरों के जन्माभिषेक का आश्रय होने के कारण गिरिराज । ७. रत्नोच्चय- नानाविध रत्नों का उपचय । ८. शिलोच्चय-जिस पर पांडुशिलाओं का उपचय है। ६. लोकमध्य-समस्त लोक का मध्यवर्ती । १०. लोकनाभि-लोक की नाभिरूप । ११. अच्छ-पवित्र । १२. सूर्यावर्त- सूर्य, चन्द्र आदि जिसकी प्रदक्षिणा करते हैं। १३. सूर्यावरण-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि जिसको आवेष्टित करते हैं । १४. उत्तम-समस्त पर्वतों में उत्तम ।' १५. दिशादि-सभी दिशाओं का आदि-प्रारंभ।' १६. अवतंश-समस्त पर्वतों का मुकुट रूप। सूत्रकृतांग १/६/६-१४ में महावीर की स्तुति के प्रसंग में मंदर पर्वत का सुन्दर वर्णन है। उस वर्णन के आधार पर मंदर पर्वत के कुछ नाम इस प्रकार निर्दिष्ट किए जा सकते हैं-सुदर्शन, गिरिराज, सुरालय, मुदाकर, त्रिकंडक, पंडकवैजयन्त, स्पृष्टनभः, सूर्यावर्त्त, हेमवर्ण, बहुनन्दन, शब्दमहाप्रकाश, कंचनमृष्टवर्ण, अनुत्तरगिरि, पर्वदुर्ग, गिरिवर, आकाशदीप, लोकमध्य, नगेन्द्र, सूर्यशुद्धलेश्य, भूरिवर्ण, मनोरम, अचिमाली। समवायांग के इस आलापक में संग्रहणी की जो दो गाथाएं उद्धत हैं, उनके विषय में वृत्तिकार का कथन है कि इन दो में एक 'गाथा' छंद में निबद्ध है और एक श्लोक है।' १. वृत्तिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि एक ही पर्वत के दो देव अधिष्ठाता कैसे हो सकते हैं ? उत्तर में कहा गया है-संभव है एक ही देव के ये दो नाम हों। शेष बहुश्रुत व्यक्ति ही इसका निर्णय दे सकते हैं। वृत्ति, पत्न ३७५ : मन्दरदेवयोगात् मन्दर : एवं मेरुदेवयोगात् मेरुरिति, नन्वेवं मेरो: स्वामिद्वयमापद्यतेति चेत्, उच्यते, एकस्यापि देवस्य नामद्वयं सम्भवतीति न काप्याशंका, निर्णीतिस्तु बहुश्रुतगम्येति । २. समवायांग में इसके स्थान पर 'मस्त' शब्द माना है। सूर्य मादि ग्रह, नक्षन इससे मन्तरित होकर प्रस्त हो जाते हैं, इसलिए इसकी संज्ञा 'मस्त' मानी गई है-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति पत्र ३७५ । ३. समवायांग में इसके स्थान पर 'उत्तर' पशब्द माना है। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-मंदर पर्वत भरत भादि क्षेत्रों के उत्तर में स्थित होने के कारण इसे 'उत्तर' कहा गया है । वृत्तिपत्र ३० । ४ दिशामों और विदिशाओं की उत्पत्ति प्रष्ट रुचक प्रदेश से होती है। वह रुचकाष्टक मेरु के मध्य में है। इसलिए मेरु को दिशा का जनक माना है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वृत्ति पत्र ३७६: दिशामादि:--प्रभवो दिगादि: तथाहि रुचकाद् दिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्चाष्टप्रदेशात्मको मेरुमध्यवर्ती, ततो मेरुरपि दिगादिरुच्यते। ५. समवायांगवृत्ति, पन्न ३० : मेरुनामसूत्रे गाथा श्लोकश्च । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ सत्तरसमो समवायो : सतरहवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. असंयम सतरह प्रकार का है, जैसे पण्णत्ते सप्तदशविधोऽसंयमः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- १. सत्तरसविहे असंजमे तं जहापुढवीकायअसंजमे आउकायअसंजमे तेउकायअसंजमे वाउकायअसंजमे वणस्सइकायअसंजमे बेइंदियअसंजमे तेइंदियअसंजमे चरिदियअसंजमे पंचिदियअसंजमे अजीवकायअसंजमे पेहाअसंजमे उपेहाअसंजमे अवहटुअसंजमे अप्पमज्जणाअसंजमे मणअसंजमे वइअसंजमे कायअसंजमे, पृथ्वीकायासंयमः अप्कायासंयमः तेजस्कायासंयमः वायुकायासंयमः वनस्पतिकायासंयमः द्वीन्द्रियासंयमः त्रीन्द्रियासंयमः चतुरिन्द्रियासंयमः पंचेन्द्रियासंयमः अजीवकायासंयमः प्रेक्षाऽसंयमः उपेक्षा संयमः अपहृत्यासंयमः अप्रमार्जनाऽसंयमः मनोऽसंयमः वागसंयमः कायाऽसंयमः। १. पृथ्वीकाय असंयम २. अप्काय असंयम ३. तेजस्काय असंयम ४. वायुकाय असंयम ५. वनस्पतिकाय असंयम ६. द्वीन्द्रिय असंयम ७. त्रीन्द्रिय असंयम ८. चतुरिन्द्रिय असंयम ६. पंचेन्द्रिय असंयम १०. अजीवकाय असंयम ११. प्रेक्षा असंयम-निरीक्षण का असंयम १२. उपेक्षा असंयम-असंयम में व्यापर और संयम में अव्यापार १३. अपहृत्य असंयम-उच्चार आदि का अविधि से परिष्ठापन १४. अप्रमार्जना असंयम १५. मन असंयम १६. वचन असंयम १७. काय असंयम। पण्णत्ते सप्तदशविधः संयमः प्रज्ञप्त,, तद्यथा- २. संयम' सतरह प्रकार का है, जैसे २. सत्तरसविहे संजमे तं जहा-- पुढवीकायसंजमे आउकायसंजमे तेउकायसंजमे वाउकायसंजमे वणस्सइकायसंजमे बेइंदियसंजमे तेइंदियसंजमे पृथ्वीकायसंयमः अप्कायसंयमः तेजस्कायसंयमः वायुकायसंयमः वनस्पतिकायसंयमः द्वीन्द्रियसंयमः त्रीन्द्रियसंयमः १. पृथ्वीकाय संयम २. अप्काय संयम ३. तेजस्काय संयम ४. वायुकाय संयम ५. वनस्पतिकाय संयम ६. द्वीन्द्रिय संयम ७. त्रीन्द्रिय संयम Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १८ समवाय १७ : सू० ३-८ चरिदियसंजमे चिदियसंजमे अजीवकायसंजमे पेहासंजमे उपहासंजमे अवहटुसंजमे पमज्जणासंजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे। चतुरिन्द्रियसंयमः पंचेन्द्रियसंयमः अजीवकायसंयमः प्रेक्षासंयमः उपेक्षासंयमः अपहृत्यसंयमः प्रमार्जनासंयमः मनःसंयम: वाक्संयमः कायसंयमः। ८. चतुरिन्द्रिय संयम ६. पंचेन्द्रिय संयम १०. अजीवकाय संयम ११. प्रेक्षा संयम १२. उपेक्षा संयम-संयम में व्यापार और असंयम में अव्यापार १३. अपहृत्य संयम-उच्चार आदि का विधि से परिष्ठापन १४. प्रमार्जना संयम १५. मन संयम १६. वचन संयम १७. काय संयम । ३. माणुसुत्तरे णं पव्वए सत्तरस- मानुषोत्तरः पर्वतः सप्तदश एकविंशति एक्कवीसे जोयणसए उड्ढं योजनशतं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तः। उच्चत्तेणं पण्णते। ३. मानुषोत्तर पर्वत' सतरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा है। ४. सव्वेसिपि णं वेलंधर-अणुवेलंधर- सर्वेषामपि वेलन्धरानुवेलन्धरनाग- णागराईणं आवासपव्वया सत्तरस- राजानां आवासपर्वता: सप्तदश एक- एक्कवीसाई जोयणसयाई उड्ढं विशति योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन उच्चत्तणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । ४. सभी वेलंधर और अनुवेलंधर नाग राजाओं के आवास-पर्वत' सतरह सौ इक्कीस योजन ऊंचे हैं। ५. लवणे णं समुद्दे सनरस लवणः समुद्रः सप्तदश योजनसहस्राणि जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते। सर्वाग्रण प्रज्ञप्तः । ५. लवण समुद्र की सम्पूर्ण ऊंचाई सतरह हजार योजन की है। ६. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां बहुसमरम- ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ णीयाद् भूमिभागात् सातिरेकाणि । भूमि-भाग से सतरह हजार योजन से सातिरेगाई सत्तरस जोयणसह- सप्तदश योजनसहस्राणि ऊध्वं उत्पत्य कुछ अधिक ऊंची उड़ान कर लेने पर स्साइं उडढं उप्पतित्ता ततो पच्छा ततः पश्चात चारणानां तिर्यग्गतिः चारण (जंघाचारण तथा विद्याचारण) चारणाणं तिरियं गती पवत्तति। प्रवर्तते । मुनि (रुचक आदि द्वीपों में जाने के लिए) तिरछी गति करते हैं। ७. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुर चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर (कुमार?) ७. असुरेन्द्र असुरराज चमर के तिगिछि (कुमार ?) रण्णो तिगिछिकूडे राजस्य "तिगिछि' कूट: उत्पातपर्वतः कूट उत्पात-पर्वत' की ऊंचाई सतरह उप्पायपव्वए सत्तरस एक्कवीसाइं सप्तदश एकविंशति योजनशतानि सौ इक्कीस योजन की है। जोयणसयाइं उडढं उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तः । पण्णत्ते। १. बलिस्स णं वतिरोर्याणदस्स बले: वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य वतिरोयणरण्णो गिदे रुचकेन्द्रः उत्पातपर्वतः सप्तदश उप्पायपव्वए सत्तरस एक्कवीसाइं एकविंशति योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं प्रज्ञप्तः । पण्णत्ते। ८. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के रुचकेन्द्र उत्पात-पर्वत की ऊंचाई सतरह सौ इक्कीस योजन की है। For Private & Personal use only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओं ६. सत्तरसविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा - आवीईमरणे ओहिमरणे आयंतियमरणे वलायमरणे वसट्टमरणे अंतोसल्लम रणे तब्भवमरणे बालमरणे पंडितमरणे बालपंडितमरणे छउमत्थमरणे केवलिमरणे वेहासमरणे गिद्धपट्टमरणे भत्तपच्चक्खाणमरणे इंगिणिमरणे पाओवगमणमरणे | १०. सुहुमसंपराए णं भगवं सुहुमसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति, तं जहाआभिणि बोहियणाणावरणे सुणाणावर ओहिणाणावरणे मणपज्जवणाणावरणे केवलणाणावर चक्खदंसणावर अक्खुणावर ओही सावरणे केवलदंसणावरणे सायावेयणिज्जं जसोकित्तिनामं उच्चागोयं दाणंतरायं लाभंतरायं भोगंतराय उवभोगंतरायं वीरिअनंतरायं । ११. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तरस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १२. पंचमाए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३. छट्टीए पुढवीए नेरइयाणं जहणणेणं सागरोवमाई सत्तरस ठिई पण्णत्ता । ६६ सप्तदशविधं मरणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाआवीचिमरणं अवधिमरणं आत्यन्तिकमरणं वलन्मरणं वशार्त्तमरणं श्रन्तःशत्यमरणं तद्भवमरणं बालमरणं पण्डितमरणं बलपण्डितमरणं छद्मस्थमरणं केवलिमरणं वैहायसमरणं गृद्धस्पृष्टमरणं भक्तप्रत्याख्यानमरणं इंगिनीमरणं प्रायोपगमनमरणम् । सूक्ष्मसम्परायः भगवान् सूक्ष्मसंपरायभावे वर्तमानः सप्तदश कर्मप्रकृतीः निबध्नाति तद्यथाआभिनिबोधिकज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणं अवधिज्ञानावरणं मनः पर्यवज्ञानावरणं केवलज्ञानावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं अचक्षुर्दर्शनावरणं अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणं सात वेदनीयं यशः कीर्त्तिनाम उच्चगोत्रं दानान्तरायं लाभान्तरायं भोगान्तरायं उपभोगान्तरायं वीर्यान्तरायम् । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां सप्तदश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । पञ्चम्यां पृथिव्यां नैरयिकाणा मुत्कर्षेण सप्तदश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । षष्ठ्यां पृथिव्यां नैरयिकाणां जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । समवाय १७ : सू० ६-१३ ६. मरण सतरह प्रकार का है, जैसे १. आवीचिमरण, २. अवधिमरण, ३. आत्यन्तिकमरण, ४. वलाय ( वलन् ) मरण, ५. वशार्तमरण, ६. अन्तः शल्यमरण, ७. तद्भवमरण, ८. बालमरण, ६. पंडितमरण, १०. बालपंडितमरण, ११. छद्मस्थमरण, १२. केवलीमरण १३. वैहायसमरण, १४. गृद्धस्पृष्ट [गृद्धपृष्ठ ] मरण, १५. भक्तप्रत्याख्यान - मरण, १६. इंगिनीमरण १७. प्रायोपगमनमरण । १०. सूक्ष्मसंपराय मुनि सूक्ष्मसंपराय भाव में वर्तन करता हुआ सतरह कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है, ' जैसे - १. आभिनिबोधिकज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण ३. अवधिज्ञानावरण ४. मनः पर्यवज्ञानावरण ५. केवलज्ञानावरण ६. चक्षुदर्शनावरण ७. अचक्षुदर्शनावरण ८. अवधिदर्शनावरण ६. केवलदर्शनावरण १०. सातावेदनीय ११. यशः कीर्त्तिनाम १२. उच्चगोत्र १३. दानान्तराय १४. लाभान्तराय १५. भोगान्तराय १६. उपभोगान्तराय १७. वीर्यान्तराय । ११. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति सतरह पत्योपम की है। १२. पाचवीं पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागरोपम की है । १३. छठी पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति सतरह सागरोपम की है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १०० समवाय १७ : सू० १४-२१ १४. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १४. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति सत्तरस पलिओवमाइं ठिई सप्तदश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सतरह पल्योपम की है। पण्णत्ता। १५. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १५. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिई देवानां सप्तदश पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति सतरह पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १६. महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं महाशुक्रे कल्पे देवानामुत्कर्षण सप्तदश १६. महाशुक्रकल्प के देवों की उत्कृष्ट सत्तरस सागरोवमाइं ठिई सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति सतरह सागरोपम की है। पण्णत्ता। १७. सहस्सारे कप्पे देवाण जहण्णणं सहस्रारे कल्पे देवानां जघन्येन सप्तदश १७. सहस्रारकल्प के देवों की जघन्य स्थिति सत्तरस सागरोवमाई ठिई सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सतरह सागरोपम की है। पण्णत्ता। १८. जे देवा सामाणं सुसामाणं ये देवाः सामानं सुसामानं महासामानं १८. सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं पद्म महापद्म कुमुदं महाकुमुदं नलिनं महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महाकुमुदं नलिणं महानलिणं महानलिनं पौण्डरीकं महापौण्डरीक महानलिन, पौंडरीक, महापौंडरीक, पोंडरीअं महापोंडरीअं सुक्कं शुक्लं महाशुक्लं सिंहं सिंहावकान्तं शुक्ल, महाशुक्ल, सिंह, सिंहावकान्त, महासुक्कं सीहं सीहोकंतं सीहवी सिंहवीतं भावितं विमानं देवत्वेन सिंहबीत और भावित विमानों में भावि विमाणं देवत्ताए उववण्णा, उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षेण सप्तदश देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की तेसिणं देवाणं उवकोसेणं सत्तरस सागरोपमाणि स्थिति: प्रज्ञप्ता। उत्कृष्ट स्थिति सतरह सागरोपम की सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। १६. ते णं देवा सत्तरसहि अद्धनासेहिं ते देवाः सप्तदशभिः अर्द्धमासैः आनन्ति १६. वे देव सतरह पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्व- उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। सन्ति वा। २०. तेसि णं देवाणं सत्तरसहि वास- तेषां देवानां सप्तदशभिर्वर्षसहस्रराहा- २०. उन देवों के सतरह हजार वर्षों से सहस्सेहिं आहारळे समुप्पज्जइ। रार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती २१. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २१. कुछ भव-सिद्धिक जीव सतरह बार सत्तरसहि भवग्गहणेहि सिज्झि- सप्तदशैर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखा- परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं नामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. संयम ( संजमे ) : टिप्पण विस्तार के लिए देखें - आवश्यक, हारिभद्रया वृत्ति, भाग २ पृ० १०८, १०६ । २. मानुषोत्तर ( माणुसुत्तरे ) : तीन मांडलीक पर्वतों में यह एक मांडलिक पर्वत है।' इसके चारों ओर चार कूट हैं। यह १७२१ योजन ऊंचा और १०२२ योजन चौड़ा है।' ३. आवास पर्वत ( आवासपव्वया) : वृत्तिकार ते इन आवास पर्वतों के स्वरूप के लिए क्षेत्रसमास की आठ गाथाओं का उल्लेख किया है । देखें - समवायांगवृत्ति, पत्र ३२ । ४. उत्पात पर्वत ( उप्पायपव्वए) : नीचे लोक से तिरछे लोक में - मनुष्य क्षेत्र में आने के लिए चमर आदि भवनपति देव जहां से ऊर्ध्वगमन करते हैं, उन्हें उत्पात पर्वत कहते हैं । ५. मरग सतरह प्रकार का है [ सत्तरसविहे मरणे ] : १. आवीचिमरण - प्रतिक्षण आयु की विच्युति । २. अवधिमरण – एक बार जिन आयुष्यकर्म के दलिकों का वेदन कर मरता है, उन्हीं कर्म दलिकों को पुनः वेदन कर मरना । ३. आत्यन्तिकमरण – एक बार जिन आयुष्यकर्म के दलिकों का वेदन कर मरता है, उन्हीं कर्म दलिकों का पुनः वेदन न कर मरना । ४. वलाय ( वलन् ) मरण - संयम जीवन से च्युत होकर मरण प्राप्त करना । ५. वशार्त्तमरण – इन्द्रियों के वशीभूत होकर मरण प्राप्त करना । ६. अन्तः शल्यमरण - अन्तःशल्य से होने वाला मरण । ७. तद्भवमरण - वर्तमान जन्म से मृत्यु को प्राप्त करना । ८. बालमरण -- मिथ्यात्वी और सम्यकदृष्टि का मरण । 2. पंडितमरण-संयमी का मरण । १०. बालपंडितमरण-संयतासंयत का मरण । ११. छद्मस्थमरण-संयमी का छद्मस्थ अवस्था में मरण । १२. केवलमरण - केवलज्ञानी का मरण । १३. वैहायसमरण - वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने आदि से होने वाला मरण । १४. गुद्धस्पृष्ट (गुद्धपृष्ठ) मरण - हाथी आदि के कलेवर में प्रविष्ट हो मरना । १५. भक्तप्रत्याख्यानमरण – अनशन पूर्वक मरण | १६. इंगिनी मरण - प्रतिनियत स्थान पर अनशन - पूर्वक मरण । १७. प्रायोपगमनमरण – अपनी परिचर्या न स्वयं करे न दूसरों से कराए - ऐसा अनशन - पूर्वक मरण । विशेष विवरण के लिए देखें - उत्तरज्भयणाणि, भाग १ पृ० ५७-६५ । १. ठाणं, १/४८० । २. ठाणं, ४/३०३। ३. ठाणं, १०/४० । ४. समवायांगवृति पत्र १२: जङ्घाचारणानां विद्याचारणानां च 'तिरिम' त्ति तिथंग् रुचकादिद्वीपगमनायेति, तिगिच्छिकूट उत्पातपर्वतो यत्रागत्य मनुष्यक्षेत्राभिगमनायोत्पतति चेतोऽङ्खपाततमेऽरुणोदयसमुद्रे दक्षिणतो द्विचत्वादिशतं योजयतिक्रम्य भवति रुवकेन्द्रोत्यात पर्वतस्त्वरुणोदयसमुद्र एव उत्तरतो एवमेव भवतीति । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ समवानो समवाय १७ : टिप्पण ६. सूत्र १० प्रस्तुत आलापक में दसवें गुणस्थानवर्ती मुनि के कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध होता है, इसका उल्लेख है। १२० कर्म प्रकृतियों में वह केवल सतरह प्रकृतियों का बंध करता है । अवशिष्ट १०३ प्रकृतियों का पूर्ववर्ती गुणस्थान में, बंध की अपेक्षा से, व्यवच्छेदन हो जाता है। इन सतरह प्रकृतियों में भी सोलह प्रकृतियों का बंध इसी दसवें गुणस्थान में व्यवच्छिन्न हो जाता है-ज्ञान की पांच, दर्शन की चार, अन्तराय की पांच, उच्चगोत्र और यशकीति । केवल सातवेदनीय कर्म प्रकृति का बंध मात्र रह जाता है । मोहनीय कर्म के उदय में असातवेदनीय कर्म का बंध होता है । मोहनीय के उपशम या क्षय में केवल सातवेदनीय का ही बंध होता है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ३३ : सूक्ष्मसम्पराय: उपशमक: आपको वा सूक्ष्मलोभकषायकिट्टिकावेदको भगवान्-पूज्यत्वात् सूक्ष्मसंम्परायभावे वर्तमान:-तनैव गुणस्थानकेऽवस्थितः नातीतानागतसूक्ष्मसम्परायपरिणाम इत्यर्थः, सप्तदश कर्मप्रकृतिनिबध्नाति विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बनातीत्यर्थः पूर्वतरयणस्थानकेषु बन्छ प्रतीत्य तासां व्यवच्छिन्नत्वात्. तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका साताप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषाः षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, पदाह"नाणं । तराय १० दसगं दंसण चत्तारि १४ उच्च १५ जसकित्ति १६। एया सोलसपयडी सुहमकमामि वोच्छिन्न। ॥१॥" सूक्ष्मसम्परायात्परे न बन्नन्तीत्यर्थः । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अट्ठारसमो समवाओ : अठारहवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तं अष्टादशविधं ब्रह्म प्रज्ञप्तम्, तद्यथाजहा ओरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ, नोवि अण्णं मणेणं सेवावे, मणेणं सेवतं पि अण्णं न समणुजाणाइ । ओरालिए कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ, नोवि अण्णं वायाए सेवा, वाया सेवंतंपि अण्णं न समणुजाणा । ओरालिए कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ, नोवि अण्णं कारणं सेवावे, कारणं सेवतं पि अण्णं न समणुजाणाइ । दिव्वे कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ, नोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणजाणाइ । औदारिकान् मनसा सेवते, सेवयते, कामभोगान् नैव स्वयं नापि अन्येन मनसा मनसा सेवमानमप्यन्यं न नाति । श्रदारिकान् कामभोगान् नैव स्वयं वाचा सेवते, नापि अन्येन वाचा सेवयते, वाचा सेवमानमप्यन्यं न समनुजानाति । प्रौदारिकान् कामभोगान् नैव स्वयं कायेन सेवते, नापि अन्येन कायेन सेवयते, कायेन सेवमानमप्यन्यं न समनुजानाति । दिव्यान् कामभोगान् नैव स्वयं मनसा सेवते, नापि अन्येन मनसा सेवयते, मनसा सेवमानमप्यन्यं न समनुजानाति । हिन्ही अनुवाद १. ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का है, जैसे--- १. औदारिक कामभोगों का स्वयं मन से सेवन न करे । २. औदारिक कामभोगों का दूसरों को मन से सेवन न कराए । ३. औदारिक कामभोगों का सेवन करने वाले का मन से अनुमोदन भी न करे । ४. औदारिक कामभोगों का स्वयं वचन से सेवन न करे । ५. औदारिक कामभोगों का दूसरों को वचन से सेवन न कराए । ६. औदारिक कामभोगों का सेवन करने वाले का वचन से अनुमोदन भी न करे । ७. औदारिक कामभोगों का स्वयं काया से सेवन न करे । ८. औदारिक कामभोगों का दूसरों को काया से सेवन न कराए । ६. औदारिक कामभोगों का सेवन करने वाले का काया से अनुमोदन भी न करे । १०. दिव्य कामभोगों का स्वयं मन से सेवन न करे । ११. दिव्य कामभोगों का दूसरों को मन से सेवन न कराए। १२. दिव्य कामभोगों का सेवन करने वाले का मन से अनुमोदन भी न करे । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो दिव्वे कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ, नोवि अण्णं वायाए सेवा वेइ, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ । दिव्वे कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ, नोवि अण्णं कारणं सेवावेइ, काएणं सेवतं पि अण्णं न समणुजाणाइ । २. अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सोओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । ३. समणेण भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुड्डय - वित्तानं अट्ठारस ठाणा पण्णत्ता । तं जहा संग्रहणी गाहा - १. वयछक्के का छक्क, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक निसिज्जा य, सिणाणं सोभवज्जणं ॥ ४. आयारस्स णं भगवतो सचूलि - आगस्स अट्ठारस पयसहस्साई पग्गेणं पण्णत्ताइं । ५. बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेखविहाणे पण्णत्ते, तं जहा - १०४ दिव्यान् कामभोगान् नैव स्वयं वाचा सेवते, नापि अन्येन वाचा सेवयते, वाचा सेवमानमप्यन्यं न समनुजानाति । दिव्यान् कामभोगान् नैव स्वयं कायेन सेवते, नापि अन्येन कायेन सेवयते, कायेन सेवमानमप्यन्यं न समनुजानाति । अर्हतः अरिष्टनेमेः अष्टादश श्रमणसाहस्यः उत्कृष्टा श्रमण-सम्पद आसीत् । श्रमणेन भगवता महावीरेण श्रमणानां निर्ग्रन्थानां सक्षुद्रकव्यक्तानां अष्टादश स्थानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा--- संग्रहणी गाथा व्रतषट्कं कायषट्कं, अकल्पो गृहिभाजनम् । पर्यो निषद्या च स्नानं शोभावर्जनम् ।। आचारस्य भगवतः अष्टादश प्रज्ञप्तानि । चूलिका पदसहस्राणि पदाग्रेण ब्राह्म या लिपेः अष्टादशविधं लेखविधानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा समवाय १८ : सू० २-५ १३. दिव्य कामभोगों का स्वयं वचन से सेवन न करे । १४. दिव्य कामभोगों का दूसरों को वचन से सेवन न कराए । १५. दिव्य कामभोगों का सेवन करने वाले का वचन से अनुमोदन भी न करे । १६. दिव्य कानभोगों का स्वयं काया से सेवन न करे । १७. दिव्य कामभोगों का दूसरों को काया से सेवन न कराए । १८. दिव्य कामभोगों का सेवन करने वाले का काया से अनुमोदन भी न करे । २. अर्हत् अरिष्टनेमि की उत्कृष्ट श्रमणसम्पदा अठारह हजार श्रमणों की थी। ३. श्रमण भगवान् महावीर ने क्षुल्लक' और व्यक्त श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए अठारह स्थानों का प्रज्ञापन किया है, जैसे १. अहिंसा, २. सत्य, ३. अचौर्य, ४. ब्रह्मचर्य, ५. अपरिग्रह, ६. रात्रि - भोजन त्याग, ७. पृथ्वी काय संयम, तेजस्कायसंयम, ११. वनस्पति ८. अप्कायसंयम, ६ १०. वायुकाय संयम, काय संयम, १२. सकायसंयम, १३. अकल्पवर्जन, १४. गृहिभाजनवर्जन, १५. पर्यंकवर्जन, १६. गृहान्तरनिषद्यावर्जन, १७. स्नानवर्जन, १८. विभूषावर्जन । ४. चूलिका सहित आचारांग सूत्र का पदपरिमाण अठारह हजार प्रज्ञापित किया है । ' ५. ब्राह्मी लिपि के लेख-विधान ( अक्षर लेखन की प्रक्रिया ) अठारह प्रकार के हैं, जैसे— Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवा १. बंभी १०. वेणइया २. जवणालिया ११. निण्हइया ३. दोसऊरिया १२. प्रकलिवी ४. खरोट्ठिया १३. गणियलिवो १४. गंधव्वलिवो ५. खरसाहिया ६. पहाराइया १५. आयंसलिवी प्रभाराजिका ७. उच्चत्तरिया १६. माहेसरी उच्चत्तरिका ८. • अक्खरपुट्टिया १७. दामिली ६. भोगवइया १८. पोलिंदो । ६. अस्थिनत्यिव्यवायस्स णं पुव्वास अट्ठारस वत्थू पण्णत्ता । ७. धूमप्पभा णं पुढवी अट्ठारसुत्तरं जोयणसहस् बाहल्लेणं पण्णत्ता । ८. पोसा साढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सइ उक्कोसेणं अट्ठारस - मुहत्ता राती भवइ । ६. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १०. छट्टीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ११. असुरकुमाराणं देवानं अत्येगइयाणं अट्ठारस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । १२. सोहम्मीसाणेसु कप्पे अत्येगइयाणं देवा अट्ठारस पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । १३. सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १४. आणए कप्पे देवाणं जहणेणं अट्ठारस सागरोवमाइं पण्णत्ता । ठिई ब्राह्मी यवनानिका दोषपुरका खरोष्ट्रिका खरशाहिका अक्षरपृष्टिका भोगवतिका १०५ वैनतिका निह्नविका अङ्क लिपि: गणितलिपि: गन्धर्व लिपि: आदर्श लिपि: माहेश्वरी द्राविडी पोलिन्दी | अस्तिनास्तिप्रवादस्य पूर्वस्य अष्टादश वस्तूनि प्रज्ञप्तानि । धूमप्रभा पृथिवी अष्टादशोत्तरं योजनशतसहस्रं बाहल्येन प्रज्ञप्ता । पौषाषाढयोः मासयोः सकृद् उत्कर्षेण अष्टादशमुहूर्त्ता दिवसो भवति, सकृद् उत्कर्षेण अष्टादश मुहूर्ता रात्रिर्भवति । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां अष्टादश पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । षष्ठ्यां पृथिव्यां प्रस्ति एकेषां नैरयिकाणां अष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां अष्टादशपल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां देवानां अष्टादश पल्पोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । सहस्रारे कल्पे देवानामुत्कर्षेण श्रष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । आनते कल्पे देवानां जघन्येन अष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । समवाय १८ : सू० ६-१४ १. ब्राह्मी १०. वैनतिकी २. यवनानी ११. निन्हविका १२. अंकलिप ३. दोसउरिया ४. खरोष्ट्रका ५. खरशाहिका ( खरशापिता) ६. प्रभाराजिका ७. उच्चत्तरिका ८. अक्षरपृष्टिका ६. भोगवतिका १३. गणितलिपि १४. गंधर्व लिपि १५. आदर्शलिपि १६. माहेश्वरी १७. द्राविडी १८. पोलिंदी । ६. अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व के वस्तु अठारह हैं। ७. धूमप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन है । ८. पौष मास में एक बार उत्कृष्ट रात्री अठारह मुहूर्त की होती है और अषाढ़ मास में एक बार उत्कृष्ट दिन अठारह मुहूर्त का होता है। ९. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति अठारह पत्योपम की है। १०. छठी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति अठारह सागरोपम की है । ११. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति अठारह पल्योपम की है । १२. सौधर्म और ईशान कल के कुछ देवों की स्थिति अठारह पल्योपम की है । १३. सहस्रारकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम की है । १४. आनतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति अठारह सागरोपम की है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १०६ समवाय १८ : सू० १५-१८ १५. जे देवा कालं सुकालं महाकालं ये देवाः कालं सुकालं महाकालं अञ्जनं १५. काल, सुकाल, महकाल, अञ्जन, रिष्ट, अंजणं रिठे सालं समाणं दुमं रिष्टं शालं समानं द्रुमं महाद्रुमं विशालं शाल, समान, द्रुम, महाद्रुम, विशाल, महादुमं विसालं सुसालं पउमं सुशालं पद्म पद्मगुल्मं कुमुदं कुमुदगुल्मं सुशाल, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुद, कुमुदपउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्म नलिणं नलिनं नलिनगुल्मं पुण्डरीकं पुण्डरीक- गुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पुंडरीक, नलिणगुम्मं पुंडरीनं पुंडरीयगुम्मं गुल्मं सहस्रारावतंसकं विमानं देवत्वेन पुंडरीकगुल्म और सहस्रारावतंसक सहस्सारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उपपन्नाः, तेषां देवानां (उत्कर्षेण?) विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले उववण्णा, तेसि णं देवाणं अष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः देवों की (उत्कृष्ट ?) स्थिति अठारह (उक्कोसेणं?) अट्ठारस सागरोव- प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। माइं ठिई पण्णत्ता। १६. ते णं देवा अट्ठारसहिं अद्धमासेहिं ते देवा अष्टादशभिः अर्द्धमासैः आनन्ति १६. वे देव अारह पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नोससंति वा। निःश्वसन्ति वा।। १७. तेसि णं देवा णं अट्ठारसहि तेषां देवानां अष्टादशभिर्वर्षसहस्र- १७. उन देवों के अठारह हजार वर्षों से वाससहस्सेहिं आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते। भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १८. कुछ भव-सिद्धिक जीव अठारह वार अट्ठारसहि भवग्गहोहं अष्टादशभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिज्झिस्संति बुझिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। टिप्पण १. क्षुल्लक और व्यक्त (सखुड्डुयविअत्ताणं) : क्षुल्लक का अर्थ है-अवस्था और श्रुत से अपरिपक्व और व्यक्त का अर्थ है-अवस्था और श्रुत से परिपक्व । २. अठारह स्थानों का (अट्ठारस ठाणा) : आचार के अठारह स्थान हैं-पांच महाव्रत, रात्रीभोजनविरमण, षट्काय के प्रति संयम तथा अकल्प, गृहस्थपात्र, पर्यक, निषद्या, स्नान और शोभा-इनका वर्जन । इन अठारह स्थानों में बारह आसेवनीय हैं और छह वर्जनीय हैं। दशवकालिक ६/७ में 'दस अटु य ठाणाई'-में इन अठारह स्थानों का ग्रहण किया गया है। प्रस्तुत आलापक में जो संग्रहणी की गाथा उद्धृत है वह दशवकालिक की नियुक्ति गाथा (२६८) है। इन स्थानों का हमने दशवकालिक में विस्तार से विमर्श किया है। देखें-दशवेआलियं [द्वितीय संस्करण पृष्ठ ३०८ । दशवैकालिक के छठे अध्ययन में इन अठारह स्थानों का निम्न श्लोकों में प्रतिपादन है१. अहिंसा ८.६.१० २. सत्य ११-१२ ३. अचौर्य १३-१४ ४. ब्रह्मचर्य Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १०७ समवाय १८ : टिप्पण ५. अपरिग्रह १७-२१ ६. रात्रिभोजन-विरमण २२-२५ ७-१२. षट्काय संयम २६-४५ १३. अकल्प-वर्जन ४६-४६ १४. गृहिभाजन-वर्जन ५०-५२ १५. पर्यक-वर्जन ५३-५५ १६. गृहान्तरनिषद्या-वर्जन ५६-५६ १७. स्नान-वर्जन ६०-६२ १८. विभूषा-वर्जन इन श्लोकों में आसेवनीय और अनासेवनीय के कारणों तथा लाभ-अलाभ का स्पष्ट निर्देश है। ३. पद-परिमाण अठारह हजार (अट्ठारस पयसहस्साइं पयग्गेणं) : समवायांग' तथा नंदी' सूत्र में आचारांग के दो श्रुतस्कंध, पच्चीस अध्ययन, पिचासी उद्देशन-काल, पिचासी समुद्देशनकाल और अठारह हजार पद बतलाए गए हैं। नंदी की चूणि तथा उसकी हारिभद्रीया' वृत्ति में तथा समवायांग की वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरी' ने लिखा है कि यहां पद-परिमाण केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध का निर्दिष्ट है । प्रस्तुत समवाय की व्याख्या में भी अभयदेव सूरी ने यही उल्लेख किया है । आचारांग के नियुक्तिकार का भी यही अभिमत है। ___आचारांग की चूलिकाओं की रचना आचारांग के उत्तरकाल में हुई थी । आगमों के विवरण में आचारांग और उसकी चूलाओं के अध्ययन, उद्देश और समुद्देश-काल की गणना संयुक्तरूप से की गई है। किन्तु पद-गणना केवल आचाराङ्ग की ही की गई है। इसका कारण यह हो सकता है कि पद-परिमाण की व्यवस्था सब अंगों की सापेक्ष है-पहले अंग से दूसरे अंग का पद-परिमाण दूना है। यदि आचार-चूला का पद-परिमाण मूल आचार के साथ निर्दिष्ट किया जाता तो इस प्राचीन व्यवस्था का भंग हो जाता । इसलिए पद-परिमाण केवल मूल आचाराङ्ग का ही निरूपित किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में 'सचूलियाय' विशेषण का कोई प्रयोजन बुद्धिगम्य नहीं होता । आचाराङ्ग और आचारचूला की एकसूत्रता के प्रख्यापन के लिए ही 'सचूलियाय' विशेषण रखा गया हो-ऐसा अनुमान किया जा सकता है। ४. ब्राह्मी लिपि (बंभीए णं लिवीए): प्रज्ञापना [१/९८] में ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार के लेख-विधानों का उल्लेख किया गया है । इससे यह ज्ञात होता है कि लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि के आधार पर हुआ है । मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार ई० पू० ५००-३०० १. समवायांग, समवाय ८८। २. नंदी, सू..। 1. नंदी चुणि, पृ. ६२। ४. नंदी, हारिभद्रीया वृत्ति, पृ.७६ । ५. समवायांगवृत्ति, पत्र १०१ : ननु यदि द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनान्यष्टादशपदसहस्राणि पदाग्रेण भवन्ति तत यद् भणितं 'नवबंभचेरमहनो मट्ठारसपदसहस्सिमो वेउ' ति तत्कथं विरुध्यते ? उच्यते यत् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितं, यत् पुनरष्टादश पदसहस्राणि तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणं, विचित्रार्थबद्धानि च सूत्राणि गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति । ६. वही, पत्र ३४: प्राचारस्य प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य-चूडासमन्वितस्य, तस्य पिण्डेषणाद्या: पञ्च चूला: द्वितीयथ तस्कन्धात्मिकाः स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकप्रथमच तस्कन्धरूपः, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानां, यदाह-"नवबंभचेरमइयो अट्ठारस पयसहस्सीपो वेग्रो। हवइ य सपंचचलो बहुबहुतरमो पयग्गेणं ।।१॥" त्ति, यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चुलिकासत्ताप्रतिपादनार्य, न तु पदप्रमाणाभिधानार्थम् । ७. पाचारांग नियुक्ति, गा० ११: । णवबंभचेर मइयो पट्ठारसपयसहस्सिमो वेनो। ८. पण्णवणा १/१८: बंभीए णं लिबीए पद्वारसविहे लेखविहाणे पण्णते, तं जहा-बभी जवणाणिया दोसापुरिया खरोट्ठी पुक्खरसारिया भोगवईया पहराईयामो य अंतक्खरिया मक्खरपुट्ठिया वेणइया निण्हइया अंकलिवी गणितलिवी गंधवलिवी भायंसलिवी माहेसरी वामिली पोलिंदी। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रौ १०८ समवाय १८ : टिप्पण तक भारत की समस्त लिपियां ब्राह्मी के नाम से कही जाती थीं।' प्रज्ञापना में 'अंतक्खरिया' ( अन्ताक्षरिका ) लिपि का उल्लेख है, वह समवायाङ्ग में उल्लिखित नहीं है । समवायाङ्ग में 'उच्चत्तरिया' लिपि का उल्लेख है, वह प्रज्ञापना में उल्लिखित नहीं है । समवायाङ्ग में 'खरसाहिया' लिपि का उल्लेख है । प्रज्ञापना में इसके स्थान में ' पुक्खरसारिया' पाठ मिलता है । समवायाङ्ग के कुछ आदर्शों में 'पुक्करसाविया' पाठ प्राप्त है। लिपियों के अपरिचय के कारण इतना पाठपरिवर्तन हो गया कि ठीक पाठ का निर्धारण करना बहुत जटिल बन गया है। समवायाङ्ग में 'जवणालिया' पाठ है । किन्तु इसकी अपेक्षा प्रज्ञापना का 'जवणाणिया' पाठ अधिक संगत है। भूवलय में अठारह लिपियों के नाम कुछ प्रकारभेद से मिलते हैं - ( १ ) ब्राह्मी (२) यवनांक (३) दोषउपरिका ( ४ ) विराटिका (वराट ) ( ५ ) सर्वजे ( खरसापिका ) (६) वरप्रभारात्रिका (७) उच्चतारिका (८) पुस्तिकाक्षर ( 8 ) भोग्यवत्ता (१०) वेदनतिका ( ११ ) निन्हतिका (१२) सरमालांक (१३) परमगणिता (१४) गान्धर्व (१५) आदर्श (१६) माहेश्वरी ( १७ ) दामा (१८) बोलिंदी | ग्रन्थकार ने इन सबको अंकलिपि माना है । ललितविस्तार ( पृ० १२५ ) में चौसठ लिपियों का उल्लेख है । उपदेशपद में हरिभद्रसूरी ने कुछ लिपियों के नाम गिनाए हैं। इनमें एक नाम 'उड्डी' । यह संभवत: 'उड़िया' लिपि का सूचन तथा यह 'दोसउरिया' के 'उरिया' शब्द के बहुत निकट है। इसमें पारसी लिपि का भी उल्लेख है, जो कि प्रज्ञापता और समवायाङ्ग में नहीं है । लिपियों के अनेक नामों की शोध के लिए और अधिक प्राचीन स्रोतों की आवश्यकता है । उनके अभाव में इनका ठीक-ठीक विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं ।" १. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति भने लेखनकला, पृ० ६ । २. भूवलय, ५/ १४६-१५६ ३. वही, ५ / १४६- १६०, पृ० ७७ : दशनमाडलन्माचार्य वांग्मय । परियलि ब्राह्मिय् व य दे । हिरियलादुदरिन्द मोदलिन लिपियंक । एरडनेयदु यवनांक ॥। १४६ ।। प्रलिद दोषउपरिका मृदु । वराटिका नारूकने अंक | सर्व जे खरसापिका लिपि इदंक वरप्रमारात्रिका आरुम् ।।१४७।। सर उच्चतारिका एलुम् ।। १४८ || सर पुस्तिकाक्षर एन्ट ॥ १४६ ॥ वरद भोगयवत्ता नवमा (घोंबतु ) || १५० ॥ सर वेदनतिका हत्तु ।। १५१ ।। सिरि निन्हतिका हन्नों ।। १५२|| सर माले अंक हन्नेरहु ॥ १५३ || परम गणित हृदिमूरु || १५४ || सर हृदिनात्कु गान्धवं ॥ १५५॥ | सरि हदिनयदु प्रादर्श || १५६ || वर माहेश्वरि हृदिनारु ॥ १५७ ॥ ave दामा हदिने ।।१५ ८ || गुरुवु बोलिदि हदिनेन्दु || १५ || ४. उपदेशपद, वैनयिकीबुद्धि प्रकरण, गाथा : हंसलिवी भलिवी, जक्खी तह रक्खसी य बोधम्वर । उड्डी जवणी फुडक्की, कोबी दविडीय सिधविया ।। मालवियो नड नागरि, लाडलिवी पारसीय बोधम्या | तह प्रनिमित्ता णेया, चाणक्की मूलदेवी य ॥ भूवलय (५/१०१-११८) में ये नाम कुछ भिन्नता से प्राप्त होते हैं। वहां 'उड्डी' के स्थान पर 'उरिया' ( उड़ीया), 'फुडुक्की' के स्थान पर 'तुकिय' 'कोडी' के स्थान पर 'कोरिय' तथा 'प्रनिमित्ता' के स्थान पर 'मिलिक' शब्द प्रयुक्त हैं। लगता है कि भूवलयगत नाम शुद्ध हैं और उपदेशपद में उनका कुछ रूपान्तरण हो गया है। ५. कर्नाटक यूनिवर्सिटी के पुरातत्व विभाग के प्रध्यक्ष प्रो० डा० पी० बी० देखाई से इन लिपियों के विषय में पूछा गया था। उन्होंने तत्सम्बन्धी निम्नप्रकार से कुछ जानकारी दी - ब्राह्मी - यह भारतवर्ष की सबसे प्राचीन लिपि है और उत्तरवर्ती सभी लिपियों का विकास इसी से हुआ है । यवनी - सम्भवतः यह ग्रीक लिपि हो । भारत का ग्रीक के साथ बहुत प्राचीन काल से संबंध रहा है। बरोष्ट्रिका - इसे 'खरोष्टी' के नाम से पहचाना जाता है। सम्राट् अशोक के काल से यह लिपि प्रचलित रही है प्रोर इसकी उत्पत्ति पसिया या ईरान से हुई है। 'दोष उरिया - यह 'उरिया' (Orissa) की लिपि रही है । खरसाहिया-यह खरोष्ठी लिपि से सम्बन्धित लिपि लगती है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १०६ समवाय १८ : टिप्पण ___ डॉ. बूलर बंभी, खरोट्ठिया, दामिली, पुवख रसारिया और जवणालिया को भारत की ऐतिहासिक लिपियां स्वीकार करते हैं। इस संदर्भ में वे जैन सूची को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका कथन है,..."जैनों की सूची में जिन लिपियों की गणना है, उनमें कुछ तो निश्चित ही प्राचीन हैं और उनका पर्याप्त ऐतिहासिक मूल्य है।' ब्राह्मी की विभिन्न लिपियों के लिए देखें--प्रेमसागर जैन 'ब्राह्मी : विश्व की मूल लिपि ।' ५. एक बार (सइ) : एक बार का अर्थ है-पोष में मकर संक्रान्ति की रात और आषाढ़ में कर्क संक्रान्ति का दिन । अक्षरपृष्ठिका, भोगवतिका, वनयिकी, निन्हविका-इन लिपियों के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अंकलिपि-यह मार्यभट्ट द्वारा उल्लिखित अंकलिपि है। उसके अनुसार सारे अक्षरों के लिए अंक निश्चित होते हैं, जैसे-क-१, ख=२. ग%-२, म-२५ मादि-प्रादि । अथवा इसका अर्थ यह भी है कि वह लिपि या वह शब्द जिसके द्वारा अंक जाने जाते हैं, जैसे-ख, गगन= ; शशि, भू-१; नेत्र, कर= २ प्रादि-पादि। गणित लिपि-इसका अर्थ है गणित पोर गणना में काम पाने वाले अंक विशेष । गंधर्वलिपि, मादर्शलिपि, माहेश्वरीलिपि-इनके विषय में कुछ भी निश्चयात्मकरूप से नहीं कहा जा सकता। ये केवल कास्पनिक या विचिन्न प्रकार की लिपियां हैं। दामिली-द्राविड़ी और दामिली-ये दोनों लिपियां तमिल लिपि की वाचक हैं। यह लिपि भारत में बहुत प्राचीन-काल से व्यवहृत होती रही है। पोलिंद्री-यह भी कोई काल्पनिक लिपि हो है। अशोक के शिलालेखों में पुलिंद' नामक एक जंगली जाति का उल्लेख मिलता है । लगता है यह जाति किसी एक लिपि से परिचित रही हो और उस लिपि को इसी के नाम से व्यवहृत कर दिया हो। १. भारतीय पुरालिपिशास्त्र, पृष्ठ ५। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ एगूणवीसमो समवानो : उन्नीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. एगूणवीसं णायझयणा पण्णत्ता, एकोनविंशतिः ज्ञाताध्ययनानि १. ज्ञाता सत्र के अध्ययन उन्नीस है, तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा जैसे १. उत्क्षिप्तज्ञात ११. दावद्रव संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा २. संघाट १२. उदकज्ञात ३. अंड १३. मांडुक्य १. उक्खित्तणाए संघाडे, उत्क्षिप्तज्ञातं संघाट:, ४. कूर्म १४. तेतली अंडे कुम्भे य सेलए। अण्डं कुर्मश्च शैलकः । ५. शैलक १५. नंदीफल तुंबे य रोहिणी मल्ली, तुम्बं च रोहिणी मल्ली, १६. अपरकंका __ मागंदी चंदिमाति य॥ माकन्दी चन्द्रमा इति च ॥ ७. रोहिणी १७. आकीर्ण २. दावद्दवे उदगणाए, दावद्रव: उदकज्ञातं, ८. मल्ली १८. सुंसुमा मंडुक्के तेतलीइ य। माण्डक्यं तेतलीति च । ६. माकंदी १६. पौंडरीज्ञात । नंदीफले अवरकंका, नन्दीफलं अपरकंका, आइण्णे संसुमाइ य॥ अवरे य पोंडरीए, अपरं च पौण्डरीकं, णाए एगूणवीसइमे। ज्ञातमेकोनविंशतितमम् । २. जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिआ उक्कोसेणं जम्बूदीपे द्वीपे सूयौं उत्कर्षेण एकोन- २. जम्बूद्वीप द्वीप में दो सूर्य उत्कृष्टतः एकूणवीसं जोयणसयाई उड्डमहो विशति योजनशतानि ऊर्ध्वमधस्तपतः। उन्नीस सौ योजन ऊंचे-नीचे तपते हैं। तवति । १०. चन्द्रमा आकीर्ण संस्मेति च ३. सुक्केणं महगहे अवरेणं उदिए शुक्रो महाग्रहः अपरेण उदितः सन् समाणे एकूणवीसं णक्खत्ताई समं एकोनविंशतिभिर्नक्षत्रैः समं चारं चारं चरित्ता अवरेणं अस्थमणं चरित्वा अपरेण अस्तमनं उपागच्छति । उवागच्छइ। ३. महाग्रह शुक्र पश्चिम दिशा में उदित होकर उन्नीस नक्षत्रों के साथ चार (भ्रमण) कर पुनः पश्चिम दिशा में ही अस्त हो जाता है। ४. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलाओ जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य कलाः एकूणवीसं छेयणाओ पण्णत्ताओ। एकोनविंशतिः छेदनाः प्रज्ञप्ताः : ४. जम्बूद्वीप द्वीप के गणित में प्रयुक्त कला का परिमाण एक योजन का उन्नीसवां भाग है। ५. एगूणवोसं तित्थयरा अगारमझा- एकोनविंशतिस्तीर्थकरा अगारमध्युष्य ५. उन्नीस तीर्थङ्कर चिरकाल तक वसित्ता मुंडे भवित्ता गं अगाराओ मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारिता अगारवास में रहकर, मुंड होकर, अणगारिग्रं पव्वइआ। प्रवजिताः। अगार से अनगार अवस्था में प्रवजित हुए थे। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ६. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगूणवीसं पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ७. छट्टीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं गुणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ८. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । १०. आणयकप्पे देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ११. पाणए कप्पे देवाणं जहणेणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १२. जे देवा आणतं पाणतं णतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकंतं इंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३. ते णं देवा एगूणवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १४. तेसि णं देवाणं एगूणवीसाए वास सहसह आहारट्ठे समुष्पज्जइ । १५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे गुणवीस भवग्गणेह सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । १११ अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां एकोनविंशति पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । षष्ठ्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां एकोनविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां एकोनविंशति पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां देवानां एकोनविंशति पत्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । आनतकल्पे देवानामुत्कर्षेण एकोनविशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । प्राणते कल्पे देवानां जघन्येन एकोनविंशति सागरोपमाणि स्थिति: प्रज्ञप्ता । ये देवा आनतं प्राणतं नतं विनतं धनं शुषिरं इन्द्रं इन्द्रावकान्तं इन्द्रोत्तरावतं - सकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः तेषां देवानामुत्कर्षेण एकोनविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ते देवाः एकोनविंशतेरर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये एकोनविंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । समवाय १६ : सू० ६-१५ ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नै रयिकों की स्थिति उन्नीस पल्योपम की है। ७. छठी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति उन्नीस सागरोपम की है। ८. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम की है । ६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम की है । १०. आनतकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम की है। ११. प्राणतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम की है। १२. आनत, प्राणत नत विनत, घन, शुषिर, इन्द्र, इन्द्रावकान्त और इन्द्रोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम की है | तेषां देवानां एकोनविंशत्या वर्षसहस्रं - १४. उन देवों के उन्नीस हजार वर्षों से राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । १३. वे देव उन्नीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । १५. कुछ भव- सिद्धिक जीव उन्नीस बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अंत करेंगे। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सूर्य"तपते हैं (सूरिआ तवंति) ___ सूर्य अपने स्थान से सौ योजन ऊपर और अठारह सौ योजन नीचे तक प्रकाश फैलाते हैं । सूर्य से नीचे आठ सौ योजन पर समभूतल है । वहां से आगे भूमि का भाग निम्न होता जाता है और वह अपरविदेह में जगती के पास तक एक हजार योजन तक का है। वहां तक सूर्य का प्रकाश पहुंचता है। इस प्रकार निम्नवर्ती प्रकाश तिरछे लोक में आठ सौ योजन और अधोलोक में हजार योजन तक जाता है। जम्बूद्वीप के सिवाय सभी द्वीप सम हैं। इसलिए सूर्य स्वस्थान से सौ योजन ऊपर तथा आठ सौ योजन नीचे तक प्रकाश फैलाते हैं। २. उन्नीस तीर्थङ्कर प्रवजित हुए थे (एगूणवीसं तित्थयरा 'पव्वइआ) प्रस्तुत सूत्र में बतलाया गया है कि उन्नीस तीर्थङ्कर अगार में रहकर प्रवजित हुए। स्थानांग सूत्र में बतलाया गया है कि पांच तीर्थङ्कर कुमारवास में रहकर प्रवजित हुए। उनके नाम हैं—वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर।' स्थानांग के इस सूत्र से समवायांग के उन्नीस नामों का निश्चय अपने आप हो जाता है । स्थानांग में निर्दिष्ट पांच तीर्थङ्करों के अतिरिक्त शेष उन्नीस तीर्थङ्कर अगारवास में रहकर प्रव्रजित हुए। अगारवास और कुमारवास-इन दोनों शब्दों का एक साथ अध्ययन करने पर सहज ही मन पर यह छाप पड़ती है कि उन्नीस तीर्थङ्कर विवाहित होकर प्रवजित हुए और पांच तीर्थङ्कर अविवाहित अवस्था में प्रवजित हुए । आवश्यक नियुक्ति में इस विषय में परस्पर विसंवादी उल्लेख प्राप्त होते हैं। एक स्थान में 'कुमार' का अर्थ राजकुमार और दूसरे स्थान पर 'कुमार' का अर्थ ब्रह्मचारी फलित होता है। एक प्रसंग में बतलाया गया है कि महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, मल्ली और वासुपूज्य–इनको छोड़कर शेष उन्नीस तीर्थङ्कर राजा थे। ये पांच तीर्थङ्कर राजकुल में उत्पन्न हुए किन्तु उनका राज्याभिषेक नही हुआ, वे कुमार अवस्था में ही प्रवजित हो गए। शान्ति, कुन्थु और अर--ये तीन तीर्थङ्कर चक्रवर्ती थे और शेष सोलह तीर्थकर मांडलिक राजा।' दूसरे प्रसंग में बतलाया गया है कि 'ग्रामाचार' का अर्थ विषय होता है। कुमारवजित तीर्थङ्करों ने उनका सेवन किया था। पांच तीर्थङ्करों को प्रथम वय में प्रवजित और शेष तीर्थङ्करों को मध्यम वय में प्रवजित बतलाया गया है। शीलांकसूरी के अनुसार तीस वर्ष तक प्रथम वय, साठ वर्ष तक द्वितीय वय और उससे आगे तृतीय वय होती है। भगवान् महावीर और पार्श्व तीस वर्ष की अवस्था में प्रव्रजित हुए थे। अरिष्टनेमि, मल्ली और वासुपूज्य भी अपने समय १. समवायांगवृत्ति, पत्न ३५। १. ठाणं, १/२३४ : पंच तित्थगरा कुमारवासमज्झे वसित्ता मुंडा भवित्ता अगाराभो मणगारियं पब्वइया, तं जहावासुपुज्जे मल्ली भरिट्ठणेमी पासे दौरे। ३. मावश्यक नियुक्ति, गा० २२१-२२३, प्रवचूर्णि प्रथम विभाग, पृ. २०१: वीर मरिट्ठनेमि, पास मल्लि च वासुपुजं च । एए मत्तूण जिणे, भबसेसा प्रापि रायाणो॥ रायकुलेसुऽवि जाया, विसुद्धवंसेसु बत्तिमकुलेसु । न य इच्छिमाभिसेपा, कुमारवासंमि पव्वइया । संती कुथ म अरो, अरिहंता चेव चक्कवट्टी म । भवसेसा तित्थयरा मंडलिया भासि रायाणो॥ ४. पावश्यक नियुक्ति, गा• २३३, प्रवचूणि प्रथम विभाग, पृ० २०४ गामायारा बिसया, निसेविमा ते कुमारवज्जेहिं । ५. वही, गा० २२६, प्रवचूणि प्रथम विभाग, पृ० २०२ : वोरो अरिटुनेमी, पासो मल्ली च वासुपुज्जो प्र। पढमवए पव्वइमा, सेसा पुण पच्छिमवयमि॥ ६.भाचारांगवृत्ति, पत्न २४४ : प्रष्टवर्षादानिशत: प्रथमस्तत ऊर्ध्वमाषष्टे द्वितीयस्तत ऊध्वं तृतीय इति। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ११३ समवाय १६ : टिप्पण के आयुमान के अनुपात से प्रथम वय में प्रवजित हुए थे। इस तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे कुमार अवस्था में प्रवजित हुए थे । अवणिकार ने प्रथम वय को कुमार अवस्था और मध्यम वय को यौवन अवस्था माना है।' ___ तीसवें समवाय में पार्श्व और महावीर-दोनों के प्रसंगों में बतलाया गया है कि वे तीस वर्ष तक अगारवास में रहकर प्रवजित हुए। यह कथन उन्नीस तीर्थङ्करों के विषय में उक्त वचन से भिन्न नहीं है। इस जिज्ञासा के समाधान में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्नीस तीर्थङ्करों के विषय में जो पाठ है बह 'अगारमझावसित्ता' और प्रथम वय में प्रवजित होने वाले पांच तीर्थङ्करों के विषय में जो पाठ है वहां 'अगारमझे वसित्ता' होना चाहिए। प्रस्तुत समवाय में वृत्तिकार अभयदेवसूरी के अनुसार 'अगारमझावसित्ता' में दो शब्द हैं-'अगारं' और 'अज्झावसित्ता'। 'अज्झावसित्ता' शब्द अधि+आ+उषित्वा--इन तीनों के योग से बना है। 'अधि' का अर्थ है अधिक, 'आ' मर्यादा का वाचक है और 'उषित्वा' का अर्थ है रहकर । वृत्तिकार ने इसका अर्थ यह किया है कि उन्नीस तीर्थङ्कर चिरकाल तक राज्य का परिपालन कर प्रवजित हए थे।' 'अगारमझे वसित्ता' में भी दो शब्द हैं-'अगारमझे' और 'वसित्ता' । इसका अर्थ है-घर में निवास कर । आदर्शों में 'अगारमझावसित्ता' और 'अगारमझे वसित्ता' का भेद प्राप्त नहीं है, क्योंकि लिपिकारों का इस भेद की ओर ध्यान नहीं था। अतएव स्थानांग के आदर्शों में 'कूमारवासमज्झे वसित्ता' का पाठान्तर 'कुमारवासमझावसित्ता' भी मिलता है और उन्नीसवें समवाय में 'अगारमज्जावसित्ता' का पाठान्तर 'अगारमझे वसित्ता' भी मिलता है । किन्तु अर्थ की मीमांसा करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि सुत्रकार ने मध्यम वय में प्रवजित होने वाले तीर्थङ्करों तथा प्रथम वय में प्रवजित होने वाले तीर्थङ्करों का भेद सूचित करने के लिए पाठ-रचना में भेद किया था। इस चर्चा से आपाततः हमारे मन पर पड़ने वाली यह छाप 'उन्नीस तीर्थकुर विवाहित होकर प्रवजित हुए और पांच तीर्थङ्कर कुमार (अविवाहित) अवस्था में प्रवजित हुए', फिर धुंधली हो जाती है। यद्यपि इस विषय में कुछ चिन्तनीय प्रश्न शेष रहते हैं, जैसे-तीर्थङ्करों के विषय में अन्य अनेक बातों का विवरण दिया है वहां उनके विवाहित या अविवाहित होने का विवरण क्यों नहीं दिया ? चक्रवर्ती भरत ७७ लाख पूर्व तक कुमारवास में रहे थे। फिर उनका महाराज्याभिषेक हुआ था। इस सूत्र में कुमारबास और महाराज्याभिषेक-ये दोनों शब्द उस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि जो पांच तीर्थङ्कर कुमारवास में प्रवजित हुए, उनका महाराज्याभिषेक नहीं हुआ। फलित की भाषा में यह कहा जा सकता है कि कुमारवास शब्द के द्वारा उनके अविवाहित होने की सूचना नहीं दी है, किन्तु राज्याभिषेक की पूर्वावस्था की सूचना दी है। पउमचरिअ से भी हमारे निष्कर्ष की पुष्टि होती है। उसमें लिखा है-'पांच तीर्थङ्कर कुमार अवस्था में प्रवजित हुए और शेष तीर्थंकरों ने पृथ्वी का भोग कर अभिनिष्क्रमण किया।' १. अावश्यक नियुक्ति, गा० २२६, पवणि प्रथम विभाग, पृ० २०३ : प्रथमवयसि-कुमारत्वलक्षणे....", मध्ये वयसि-यौवनलक्षणे........। २. समवायांगवृत्ति, पत्र ३५ : अगारं-गेहं, अधिक-पाधिक्येन चिरकालं राज्यपरिपालनत:, पा–मर्यादया नीत्या, वसित्वा उषित्वा तत्र वासं विधायेति, प्रध्येष्ट्या प्रवजिता:। ३. समदाय, ७७/१: भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तत्तरि पुव्वसयसहस्साइ कुमारवासमझावसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते । ४. पउमचरिम, २०/५७,५८ : मल्ली अरिट्ठनेमी पासो वीरो य वासुपुज्जो।। एए कुमारसीहा गेहामो निग्गया जिणवरिंदा । सेसा वि हु रायाणो पुहई भोत्तूण निक्खंता ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. वीसं मूल संस्कृत छाया असमाहिठाणा पण्णत्ता, विंशतिः असमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा तं जहा १. दवदवचारि यावि भवइ २. अपमज्जियचारि यावि भवइ ३. दुप्पमज्जियचारि यावि भवइ ४. अतिरित्तसेज्जासणिए ५. रातिणियपरिभासी ६. थेरोवघातिए ७. भूओवघातिए ८. संजलणे कोह १०. पिट्ठिमंसिए अभिक्खणं ११. ओहारइत्ता भवइ २० वीसइमो समवा : बीसवां समवाय १२. णवाणं अणुप्पण्णा उप्पाएत्ता भवइ अभिक्खणं अधिकरणानं १३. पोराणाणं अधिकरणाणं खामिय-विओसवियाणं पुणोदीरेत्ता १७. सहकरे १८. भंभकरे भवइ १४. सस रक्खपाणिपाए द्रवद्रवचारी चापि भवति अप्रमार्जितचारी चापि भवति दुष्प्रमाजितचारी चापि भवति अतिरिक्तशय्यासनिकः रानिक परिभाषी स्थविरोपघाती भूतोपघाती संज्वलन: क्रोधनः पृष्ठिमा सिक: अभीक्ष्णमभीक्ष्णमवधारयिता पुराणानामधिकरणानां व्यवशमितानां पुनरुदीरयिता भवति सरजस्कपाणिपादः १५. अकाल- सज्झायकारए यावि अकाल- स्वाध्यायकारकश्चापि भवइ भवति १६. कलहकरे कलहकरः शब्दकरः भभाकरः भवति नवानामधिकरणानां उत्पादयिता भवति अनुत्पन्नानां क्षमित हिन्दी अनुवाद १. असमाधि के स्थान बीस हैं, ' जैसे १. शीघ्रगति से चलने वाला । २. प्रमार्जन किए बिना चलने वाला । ३. अविधि से प्रमार्जन कर चलने वाला । ४. प्रमाण से अधिक शय्या, आसन आदि रखने वाला' । ५. रत्नाधिक साधुओं का पराभव करने वाला । ६. स्थविरों का उपघात करने वाला । ७. प्राणियों का उपघात करने वाला । ८. प्रतिक्षण क्रोध करने वाला । ६. अत्यन्त क्रुद्ध होने वाला । १०. परोक्ष में अवर्णवाद बोलने वाला । भाषा ११. बार-बार निश्चयकारी बोलने वाला । १२. अनुत्पन्न नए कलहों को उत्पन्न करने वाला । १३. क्षामित और उपशान्त पुराने कलहों की उदीरणा करने वाला । १४. सचित्त रज से लिप्त हाथ से भिक्षा लेने वाला और सचित रज से लिप्त पैरों से अचित्त भूमि में संक्रमण करने वाला । १५. अकाल में स्वाध्याय करने वाला । १६. कलह करने वाला । १७. शब्दकर - बकवास करने वाला । १८. भञ्भाकर गण में भेद डालने वाला या गण के मन को दु:खाने वाली भाषा बोलने वाला । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २० : सू० २-१२ समवानो ११५ सूरप्रमाणभोजी २०. एसणाऽसमिते आवि भवइ। एषणाऽसमितश्चापि भवति । १६. सूरप्पमाणभोई १६. सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार-बार भोजन करने वाला। २०. एषणा समिति का पालन न करने वाला। २. मुणिसुव्वए णं अरहा वीसं धणूइं मुनिसुव्रतः अर्हन् विशति धनूंषि २. अर्हत् मुनिसुव्रत बीस धनुष्य ऊंचे थे। __ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत्। ३. सव्वेवि णं घणोदही वीसं सर्वेऽपि घनोदधयो विशति योजन- ३. सभी घनोदधि-घन समुद्रों की मोटाई जोयणसहस्साई बाहल्लेणं सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्ताः । बीस-बीस हजार योजन है। पण्णत्ता। ४. पाणयस्स णं देविदस्स देवरण्णो प्राणतस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य विंशतिः वीसं सामाणिअसाहस्सोओ सामानिकसाहस्यः प्रज्ञप्ताः। पण्णत्ताओ। ४. प्राणतकल्प के देवेन्द्र देवराज के सामानिक देव बीस हजार हैं। ५. णपंसयवेयणिज्जस्स णं कम्मस्स नपुंसकवेदनीयस्य कर्मणः विशति ५. नपुंसक वेदनीय कर्म का स्थिति-बंध, वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ सागरोपमकोटिकोटीः बन्धतो बन्ध- बंध के प्रथम क्षण से, बीस कोटिकोटि बधओ बठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम का है। ६. पच्चक्खाणस्स गं पुव्वस्स वीसं प्रत्याख्यानस्य पूर्वस्य विंशतिः वस्तूनि ६. प्रत्याख्यान पूर्व के वस्तु बीस हैं। वत्थ पण्णता। प्रज्ञप्तानि । ७. ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिमंडले वीसं अवसर्पिणी-उत्सपिणी-मण्डले विशति ७. अवसर्पिणी और उत्सपिणी मंडल में सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सागरोपमकोटिकोटीः कालः प्रज्ञप्तः। कालमान बीस कोटिकोटि सागरोपम पण्णत्तो। ८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति बीस पल्योपम की है। ८ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीसं एकेषां नैरयिकाणां विंशति पल्योपमानि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं षष्ठ्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नेरइयाणं वीसं सागरोवमाइं ठिई नैरयिकाणां विंशति सागरोपमाणि पण्णता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। . छट्ठी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति बीस सागरोपम की है। १०. असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइ- असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १०. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति याणं वीसं पलिओवमाई ठिई विशति पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। बीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। ११. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ११. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों दवाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई देवानां विशति पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति बीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १२. पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं प्राणते कल्पे देवानामुत्कर्षण विशति १२. प्राणतकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति वीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। बीस सागरोपम की है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १३. आरणे कप्पे देवाणं जहष्णेणं वीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १४. जे देवा सातं विसातं सुविसातं सिद्धत्थं उप्पलं रुइलं तिगिच्छं दिसासोत्थिय - वद्धमाणयं पलंबं पुष्कं सुपुष्कं पुप्फावत्तं पुप्फपभ्रं पुप्फकंतं पुप्फवण्णं पुप्फलेसं पुष्कज्यं पुफसिंगं पुप्फसिट्ठ पुप्फकडं पुप्फुत्तरवडेंसगं विमाणं देवताए उबवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वोसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १५. ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आमंति वा पाणमंत वा ऊससंति वा नीससंति वा । ११६ आरणे कल्पे देवानां जघन्येन विशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ये देवाः सातं विसातं सुविसातं सिद्धार्थं उत्पलं रुचिरं तिगिच्छं दिशासौवस्तिकं वर्द्धमानकं प्रलम्ब पुष्पं सुपुष्पं पुष्पावर्त्तं पुष्पप्रभं पुष्पकान्तं पुष्पवर्ण पुष्पलेश्यं पुष्पध्वजं पुष्पशृङ्गं पुष्पसृष्टं पुष्पकूटं पुष्पोत्तरावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः तेषां देवानामुत्कर्षेण विशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ते देवाः विंशतेः अर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । १६. तेसि णं देवाणं वीसाए वास सहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । १७. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये वीसाए भवग्गहणेह सिज्भि - विंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते स्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानापरिनिव्वाइस्सं ति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करिस्सति । जिस आचरण से स्वयं के या दूसरे के, स्थान अथवा असमाधि-पद कहा जाता है। # तेषां देवानां विंशत्या वर्षसहस्रैराहारार्थः १६. उन देवों के बीस हजार वर्षों से भोजन समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है । टिप्पण १. धावश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २ पृष्ठ १०६ : समाधानं समाधिः चेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽव स्थितिः । २. भावश्वक हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २ पृष्ठ १०९ : न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि - प्राश्रया भेदाः पर्यायाः । ३. दशाश्रुतस्कघचूर्णि पत्र ४ । समवाय २० सू० १३-१७ १३. आरणकल्प के देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम की है । १४. सात विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, रुचिर, तिगिच्छ, दिशासौवस्तिक, वर्द्धमानक, प्रलंब, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावर्त, पुष्पप्रभ, पुष्पकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पशृङ्ग, पुष्पसृष्ट, पुष्पकूट और पुष्पोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की है। १. असमाधि के स्थान (असमाहिठाणा) समाधि के तीन अर्थ हैं - समाधान, मानसिक स्वस्थता और मोक्ष मार्ग में अवस्थिति । प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार ने ऐसे बीस स्थानों का निर्देश किया है, जिनसे मानसिक अशांति या असमाधि उत्पन्न होती है। ऐसे और अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु मुनि के जीवन व्यवहार में इन कारणों के उपस्थित होने की संभावना अधिक होती है । यहां असमाधि स्थान का तात्पर्य है - असमाधि के आश्रय, भेद या पर्याय । १५. वे देव बीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । १७. कुछ भव- सिद्धिक जीव बीस बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । इहलोक में, परलोक में या उभयलोक में असमाधि होती है उसे असमाधि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ११७ समाधि के दो प्रकार हैं १. द्रव्य समाधि --- पदार्थों से होने वाली तुष्टि या समाधान । २. भाव समाधि - ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अविसंवादिता । प्रस्तुत आलापक में बीस असमाधि स्थानों का निर्देश है। शिष्य प्रश्न करता है कि क्या असमाधि के स्थान बीस ही हैं ? आचार्य कहते हैं - यह तो एक निर्देश मात्र है । जिन-जिन आचरणों से असमाधि उत्पन्न होती है, वे सब असमाधिस्थान हैं । जैसे—— दवदवचारिता -जल्दबाजी से चलना ही असमाधि का स्थान नहीं है । जो जल्दबाजी में बोलता है, जल्दबाजी से प्रतिलेखन करता है या जल्दबाजी में भोजन करता है-वे सब असमाधि स्थान हैं । एक शब्द में कहा जा सकता है कि जितने असंयम के स्थान हैं, उतने ही स्थान असमाधि के हैं। वे असंख्य हैं । अथवा मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान - ये सारे असमाधि के स्थान हैं । ' असमाधि के बीस स्थानों में से कुछेक की व्याख्या इस प्रकार है (४) यहां शय्या का अर्थ है --वसति और आसन का अर्थ है -पाट, बाजोट आदि । जब ये प्रमाणातिरिक्त होते हैं, तब असमाधि के कारण बनते हैं। क्योंकि जहां शय्या -स्थान की अतिरिक्तता हो और कार्यटिकादिक अन्यतीर्थिक आ जाने पर उन्हें न दिया जाए तो वह कलह का हेतु हो सकता है। इसी प्रकार पाट, बाजोट आदि की याचना करने पर न दिए जाएं तो वे कलह के कारण बनते हैं । " (११) समवायांग के वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं १. शंकायुक्त अर्थ का निःशंक होकर प्रतिपादन करना । २. दूसरों के गुणों का अपहरण करना, जैसे – अदास को दास और अचोर को चोर कहना । हरिभद्रसूरी ने भी इसके दो अर्थ किए हैं* - १. तिरस्कार करने वाली भाषा बोलना, जैसे तुम दास हो, तुम चोर हो । २. शंकित बात को निःशंकित रूप में कहना, यह ऐसे ही है । (१२) अधिकरण के दो अर्थ हैं कलह और यंत्र । नए-नए कलहों को उत्पन्न करना भी असमाधि का कारण बनता है और नए-नए यंत्रों का निर्माण करना, स्थापना करना भी अधिकरण-हिला का कारण बनता है ।" समवाय २० : टिप्पण हरिभद्रसूरी ने भी इस आलापक के दो अर्थ किए हैं १. दूसरों को लड़ाना । २. यंत्रों का निर्माण करना । (१६) इस आलापक के दो अर्थ हैं— १. स्वयं कलह करना । २. ऐसे कार्य करना जिनसे कलह उत्पन्न हो । " १. दशा, तस्कंध चूर्णि पृष्ठ ६७ । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ३६ । ३. समवायांगवृत्ति पत्र ३६, ३७ : शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्यैवमेवायमित्येवं वक्ता, अववाऽवहारयिता परगुणानामपहा दकारी, यथा प्रदाखादिकमपि परं भणति दासस्त्वं चौरस्त्वमित्यादि । ५. समवायांगवृत्ति, पत्र ३७ । तथा अधिकरणानां कलहानां यन्त्रादीनां वोत्पादयिता । ४. आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११० : भीक्ष्णमणधारक इति प्रभीक्ष्णमवधारिणी भाषां भाषते, यथा दासस्त्वं चौरोवेति यद्वा शंकितं तत् निःशंकित भणत, एवमेवेति । ६. आवश्यक, हारिभद्वीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११० : मधिकरणकर उदीरक: अधिकरणानि करोति अन्येषां कलयतीति भणितं भवति, यन्त्रादीनि वोदीरयति । ७. वही, वृत्ति भाग २ पृष्ठ ११० : कलकर इति आत्मना कलहं करोति, तत्करोति येन कलहो भवति । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ११८ समवाय २०: टिप्पण समवायांगवृत्ति में इसका एक ही अर्थ है-कलह का हेतुभूत कार्य करने वाला।' (१७) वृत्तिकार ने "शब्दकर" के दो अर्थ किए हैं १. रात्रि में जोर-जोर से बोलना या स्वाध्याय आदि करना । २. गृहस्थ की भाषा बोलना (अपशब्दों का प्रयोग करना)। दशाश्रुतस्कंध की वृत्ति में इसके तीन अर्थ किए हैं' १. लोगों के सो जाने पर, प्रहर रात्रि के बाद जोर-जोर से बोलना या स्वाध्याय आदि करना। २. गृहस्थ की भाषा बोलना।। ३. वैरात्रिक काल-ग्रहण के समय जोर से बोलना। सूत्रकार को इस शब्द से क्या अर्थ अभिप्रेत था-इस विषय में वृत्तिकार भी स्वयं निश्चित नहीं हैं, यह उन द्वारा कृत अनेक विकल्पों से ज्ञात होता है। यदि निश्चित अर्थ ज्ञात होता तो वे दो या तीन विकल्प प्रस्तुत नहीं करते । आगमों में "सद्दकरे, झंझकरे, कलहकरे, तुमंतुमे”—ये शब्द प्रायः कलह आदि करने के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । स्थानांग सूत्र में "अप्पसद्दे" की व्याख्या में वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने इसका अर्थ “विगतराटीमहाध्वनयः”-कलहकृत महाध्वनि से रहित किया है। इन दृष्टियों से तथा प्रस्तुत सूत्र के प्रकरण से भी "शब्दकर" का यहां वृत्तिकारों द्वारा मान्य दूसरा अर्थ--गृहस्थ की भाषा बोलना ही समीचीन प्रतीत होता है। (१६) सूर्यप्रमाणभोजी वह होता है जो सूर्य को प्रमाण मानकर, सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता रहता है। वह स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त नहीं होता। स्वाध्याय के लिए प्रेरित करने पर वह कुपित और रुष्ट हो जाता है । अत्यधिक खाने से उसके अजीर्ण आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं और तब उसे असमाधि का अनुभव होता है। (२०) जो ऐषणा समिति में उपयुक्त नहीं होता, वह अनेषणा का परिहार नहीं कर सकता। जो व्यक्ति अनेषणा का परिहार नहीं करता वह हिंसा से युक्त होता है । दूसरे मुनि उसे जब सावधान करते हैं तब वह उनसे झगड़ने लग जाता है। यह स्थान स्वयं की तथा दूसरे की असमाधि का कारण बनता है। स्थानांग १०/१४ से दस असमाधि-स्थानों का निर्देश है। वे इन बीस असमाधि-स्थानों से सर्वथा भिन्न हैं। वहां पांच "अ-महाव्रतों" तथा पांच "असमितियों" को असमाधि-स्थान कहा है। इन दसों स्थानों में प्रस्तुत आगमोक्त बीस स्थानों का समावेश किया जा सकता है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ३७ : कलहकरः कलहहेतुभूतकर्त्तव्यकारी। २. समवायांगवृत्ति, पन्न ३७। ३. दशाश्रुतस्कन्धवृत्ति (हस्तलिखित प्रादर्श) ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१६ । ५. मावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति भाग २, पृष्ठ ११०: सूर्यप्रमाणभोजीति सूर्य एवं प्रमाणं तस्योदय मावादारब्धः यावत् नास्तमनति तावत् भुनक्ति स्वाध्यायादि न करोति प्रति चोदितो रुष्यति, अजीर्णत्वावि चासमाधिरुत्पद्यते। ६. समवायांगवृत्ति, पन्न ३७: एषणाप्रसमितश्चापि भवति, अनेषणां न परिहरति, प्रेरितश्चासौ साधुभि: कलहायते, तथाऽनेपणीयमपरिहरन् जीवोपरोधे वर्तते, एवं चात्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानमिदम् । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कवीसइमो समवायो : इक्कीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. शबल' इक्कीस हैं, जैसे १. एक्कवीस सबला पण्णता, तं एकविंशतिः शबलाः प्रज्ञप्ताः, जहा - तद्यथा-- १. हत्थकम्मं करेमाणे सबले। हस्तकर्म कुर्वन् शबलः । २. मेहुणं पडिसेवमाणे सबले। मैथुनं प्रतिसेवमानः शबलः । ३. राइभोयणं भुंजमाणे सबले। रात्रिभोजनं भुजानः शबलः । ४. आहाकम्मं भुंजमाणे सबले। आधाकर्म भुजानः शबलः । ५. सागारियपिंडं भुजमाणे सबले। सागारिकपिण्डं भुजानः शनलः । ६. उद्देसियं, कीयं, आहट्ट औद्देशिकं क्रीतमाहृत्यदीयमानं भुजानः दिज्जमाणं भुंजमाणे सबले। शबलः । ७. अभिक्खणं पडियाइक्खेत्ता णं अभीक्ष्णं प्रत्याख्याय भुजानः शबलः ।। भुंजमाणे सबले। ८. अंतो छण्हं मासाणं गणाओ अन्तः षण्णां मासानां गणाद् गणं गणं संकममाणे सबले। संक्रामन् शबलः। ६. अंतो मासस्स तओ दगलेवे अन्तर्मासस्य त्रीन् दकलेपान् कुर्वन् करेमाणे सबले। शबलः। १०. अंतो मासस्स तओ माईठाणे अन्तर्मासस्य त्रीणि मायिस्थानानि सेवमाणे सबले। सेवमानः शबलः। ११. रायपिडं भुंजमाणे सबले। राजपिण्डं भुजानः शबलः। १२. आउट्टिआए पाणाइवायं आकुट्या प्राणातिपातं कुर्वन् शबलः । करेमाणे सबले। १३. आउट्टिआए मुसावायं आकुट्या मृषावादं वदन् शबलः । बदमाणे सबले। १४. आउट्टिआए अदिण्णादाणं आकुट्या अदत्तादानं गृह्णन् शबलः ।। गिण्हमाणे सबले। १५. आउट्टिआए अणंतरहिआए आकुट्या अनन्तहितायां पृथिव्यां स्थानं पुढवीए ठाणं वा निसोहियं वा वा निषीधिकां वा चेतयन् शबलः । चेतेमाणे सबले। १. हस्तकर्म करने वाला। २. मैथुन का प्रतिसेवन करने वाला। ३. रात्रिभोजन करने वाला। ४. आधाकर्म आहार करने वाला। ५. सागारिकपिंड खाने वाला। ६. औद्देशिक, क्रीत और सामने लाकर दिया गया भोजन करने वाला। ७. बार-बार अशन आदि का प्रत्याख्यान कर उसे खाने वाला। ८. छह महीनों में एक गच्छ से दूसरे गच्छ में संक्रमण करने वाला। ६. एक महीने में तीन उदक-लेप लगाने वाला। १०. एक महीने में तीन माया-स्थान का सेवन करने वाला। ११. राजपिंड खाने वाला। १२. अभिमुखतापूर्वक प्राणातिपात करने वाला। १३. अभिमुखतापूर्वक मृषावाद बोलने वाला। १४. अभिमुखतापूर्वक अदत्तादान लेने वाला। १५. अभिमुखतापूर्वक अनन्तरहित (अव्यवहित-बिछावन के द्वारा व्यवधान डाले बिना) पृथ्वी पर स्थान या निषद्या करने वाला। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओ १६. आउट्टियाए ससणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पुढवोए ठाणं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले । १७. आउट्टिए चित्तताए पुढवीए, चित्तमंताए सिलाए, चित्तमंताए लेलूए, कोलावासंसि वा दारुए ( अण्णयरे वा तहप्पगारे ? ) जीवपट्ठिए सांडे सपाणे सबीए सहरिए सत्तगे पणगदगमट्टी - मक्कडासंताणए ठाणं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले । १८. आउट्टिआए मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा खंधभोयणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा पत्तभोयणं वा पुप्फभोयणं वा फलभोयणं वा बोयभोयणं वा हरियभोयणं वा भुंजमाणे सबले । १६. तो संवच्छरस्स दगलेवे करेमाणे सबले । २०. तो संवच्छरस्स दस माइठाणाई सेवमाणे सबले । २१. अभिक्खणं अभिक्खणं सोतोदय-वियड वग्घारिय-पाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता भुंजमाणे सबले । २. णिअट्टिबादरस्स णं खवित - सत्तयस्स मोहणिज्जस्स कम्मस्स एक्कवीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, त जहा अपच्चक्खाणकसाए कोहे अपच्चक्खाण कसा माणे दस अपच्चक्खाणकसाए माया अपच्चक्खाणकसाए लोभे । १२० आकुट्या सस्निग्धायां पृथिव्यां सरजस्कायां पृथिव्यां स्थानं वा निवोधिकां वा चेतयन् शबलः । आकुट्या चित्तवत्यां पृथिव्यां चित्तवत्यां शिलायां, चित्तवति लेष्टौ कोलावासे वा दारुके ( अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे ? ) जीवप्रतिष्ठिते सप्राणे सबीजे सहरिते सोत्तिङ्गे पनकदकमृत्-मर्कटकसन्ताने स्थानं वा निषीधिकां वा चेतयन् शवलः । आकुट्या मूलभोजनं वा कन्दभोजनं वा स्कन्धभोजनं वा त्वग्भोजनं वा प्रवालभोजनं वा पत्रभोजनं वा पुष्पभोजनं वा फलभोजनं वा बीजभोजनं वा हरितभोजनं वा भुञ्जानः शबलः । अन्तः संवत्सरस्य दश दकलेपान् कुर्वन् शबलः । अन्तः संवत्सरस्य दश मायिस्थानानि सेवमानः शबलः । अभीक्ष्णमभीक्ष्णं व्यापारित - पाणिना वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रगृह्य भुञ्जानः शबलः । शीतोदक-विकटअशनं वा पानं निवृत्तिबादरस्य क्षपित सप्तकस्य मोहनीयस्य कर्मणः एकविंशतिः कर्माशाः सत्कर्माणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा अप्रत्याख्यानकषायः क्रोधः अप्रत्याख्यानकषायः मानः अप्रत्याख्यानकषाया माया अप्रत्याख्यान कषायो लोभः । समवाय २१ सू० २ १६. अभिमुखतापूर्वक जल-स्निग्ध तथा सचित्त रज से संश्लिष्ट पृथ्वी पर स्थान या निषद्या करने वाला । १७. अभिमुखतापूर्वक सचित्त पृथ्वी, सचित्त शिला, सचित्त प्रस्तर-खंड, घुणकाष्ठ ( तथा इसी प्रकार के अन्य ? ) जीव- प्रतिष्ठित, अंडों सहित, प्राण सहित, बीज सहित हरित सहित, उत्तिङ्ग सहित, फफुंदी, कीचड़ और मकड़ी के जाल वाले आश्रय में स्थान या निषद्या करने वाला । १८. अभिमुखता पूर्वक मूलभोजन, कंदभोजन, स्कंधभोजन, त्वक्भोजन, प्रवालभोजन, पत्रभोजन, पुष्पभोजन, फलभोजन, बीजभोजन और हरितभोजन करने वाला । १६. एक वर्ष में दस उदक- लेप लगाने वाला । २०. एक वर्ष में दस माया-स्थान का सेवन करने वाला । २१. बार-बार सचित्त जल से लिप्त हाथों से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य को ग्रहण कर भोगने वाला । २. निवृत्तिवाद र गुणस्थानवर्ती मुनि मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों को क्षीण कर देता है तब उसके शेष इक्कीस कर्माश ( उत्तर प्रकृतियां ) सत्ता में रहते हैं, जैसे १. अप्रत्याख्यान - कषाय क्रोध २. अप्रत्याख्यान कषाय मान ३. अप्रत्याख्यान - कपाय माया ४. अप्रत्याख्यान - कषाय लोभ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ समवाय २१ : सू० ३-६ समवायो पक्चक्खाणावरणे कोहे पच्चक्खाणावरणे माणे पच्चक्खाणावरणा माया पच्चक्खाणावरणे लोभे। ५. प्रत्याख्यानावरण क्रोध ६. प्रत्याख्यानावरण मान प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः प्रत्याख्यानावरणं मानं प्रत्याख्यानावरणा माया प्रत्याख्यानावरणो लोभः । ७. प्रत्याख्यानावरण माया ८. प्रत्याख्यानावरण लोभ । संजलणे कोहे संजलणे माणे संजलणा माया संजलणे लोभे। संज्वलनः क्रोधः संज्वलनं मानं संज्वलनी माया संज्वलनो लोभः । ६. संज्वलन क्रोध १०. संज्वलन मान ११. संज्वलन माया १२. संज्वलन लोभ । इथिवेदे पुंवेदे स्त्रीवेदः पुवेद: नपुंसकवेदः । १३. स्त्री वेद १४. पुरुष वेद १५. नपुंसक वेद । नपुंसयवेदे। हासे हास्य अरति अरतिः रतिः १६. हास्य १७. अरति १८. रति १६. भय २०. शोक २१. जुगुप्सा। रति भय सोग दुगुंछा। भयं शोकः जुगुप्सा। ३. एकमेक्काए णं ओसप्पिणीए एकैकस्यां अवसर्पिण्यां पञ्चम-षष्ठे समे पंचमछटाओ समाओ एक्कवीसं- एकविंशतिमेकविंशति वर्षसहस्राणि एक्कवीसं वाससहस्साइं कालेणं कालेन प्रज्ञप्ते, तद्यथा-दुष्षमा दुष्षमपण्णत्ताओ, तं जहा–दूसमा दुष्षमा च । दूसम-दूसमा य। ३. प्रत्येक अवसर्पिणी के पांचवें-दुःषमा और छठे-दुःषम-दुःषमा आरे का कालमान इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष का है। ४. एगमगाए णं उस्सप्पिणोए एककस्यां उत्सपिण्यां प्रथम-द्वितीये समे पढमबितियाओ समाओ एक्कवीसं- एकविंशतिमेकविति वर्षसहस्राणि एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं कालेन प्रज्ञप्ते, तद्यथा-दुष्षम-दुष्षमा पण्णत्ताओ, तं जहा-दूसम-दूसमा दुष्षमा च । दूसमा य। ४. प्रत्येक उत्सर्पिणी के पहले-दुःषम दुःषमा और दूसरे-दुःषमा आरे का कालमान इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष का है। ५. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ५. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एकवीसं नरयिकाणां एकविंशति पल्योपमानि की स्थिति इक्कीस पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। पुढवीए अत्थेगइयाणं षष्ठयां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नेरइयाणं एकवीसं सागरोवमाइं नैरयिकाणां एकविंशति सागरोपमाणि ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. छठी पृथ्वी के कुछ नैरयिकों कि स्थिति इक्कीस सागरोपम की है। , Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र १२२ ७. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानामस्ति एकेषां एगवीसं पलिओ माई ठिई एकविंशति पल्योपमानि स्थितिः पण्णत्ता । प्रज्ञप्ता । ८. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्येगइari hari marati पलिओव माई ठिई पण्णत्ता । . आर कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १०. अच्चुते कप्पे देवाणं जहणणेणं एकवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १२. ते णं देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १३. तेसि णं देवाणं एक्कवीसाए वाससहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां देवानां एकविंशति पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ११. जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामगंड मल्लं किट्ठि चावोण्णतं आरण्णवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई प्रज्ञप्ता । पण्णत्ता । आरणे कल्पे देवानामुत्कर्षेण एकविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । अच्युते कल्पे देवानां जघन्येन एकविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ये देवाः श्रीवत्सं श्रीदामगण्डं माल्यं कृष्टि चापोन्नतं आरण्यावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्ना:, तेषां देवानामुत्कर्षेण एकविंशति सागरोपमाणि स्थितिः ते देवा एकविंशतेः अर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । १४. संतेगइया भवसिद्धिया जोवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जोवाः ये भवग्गहह एकविंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति बुज्झिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति एक्कवीसाए सिज्झित्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । समवाय २१ : सू० ७-१४ ७. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की है । ८. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति इक्कीस पत्योपम की है । ६. आरणकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम की है। १०. अच्युतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस पल्योपम की है । ११. श्रीवत्स, श्रीदामगंड, माल्य, कृष्टि, चापोन्नत और आरण्यावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम की है | तेषां देवानां एकविंशत्या वर्षसहस्रैराहा १३. उन देवों के इक्कीस हजार वर्षों से रार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है | १२. वे देव इक्कीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । १४. कुछ भव- सिद्धिक जीव इक्कीस बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १ : शबल (सबला) जिस आचरण के आसेवन से चारित्र धब्बों वाला होता है, उस आचरण या आचरण कर्ता को 'शबल' कहा जाता है । छोटे अपराध में साधु को 'मूल' प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता। किन्तु वह अपराध उसके चारित्र को चितकबरा बना देता है, इसलिए ऐसे दोषों को 'शबल' की संज्ञा दी गई है। शबल इक्कीस हैं। उनमें से कुछेक की व्याख्या इस प्रकार १. सागारिकपिंड-सामान्यतः सागारिक का अर्थ होता है-गृहस्थ । प्रस्तुत प्रसंग में इसे 'शय्यातर' का वाचक माना है। स्थानदाता को शय्यातर कहा जाता है।' ६. प्रस्तुत शबल में भोजन संबंधी तीन दोषों का ग्रहण किया है। इनके उपलक्षण से प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट आदि दोष भी गृहीत कर लेने चाहिए। ८. प्राचीन परंपरा के अनुसार अनेक गण थे और उन गणों के मुनि एक गण से दूसरे गण में अपक्रमण करते थे। उनके अपक्रमण के सात कारण स्थानांग सूत्र में निर्दिष्ट हैं।' इस आलापक से यह निश्चित होता है कि अपक्रमण करने वाले मुनि को अनिवार्यतः छह महीनों तक उस गण में रहना होता था । इस अवधि से पूर्व यदि वह उस गण से अपक्रमण कर दूसरे गण में जाता है तो 'गाणंगणिय' दोष का भागी होता है। ६. उदकलेप का अर्थ है-नाभिप्रमाण जल का अवगाहन करना।' हरिभद्र ने अर्धजंघा तक के जल के अवगाहन को 'संघट्टन' और नाभिप्रमाण जल के अवगाहन को 'लेप' माना है।" १२. इसमें 'आउट्टियाए' शब्द प्रयुक्त है। यह शब्द सात आलापकों में प्रयुक्त है । इसके दो अर्थ किए हैं १. जानते हुए। २. सम्मुख जाकर।' समवायांग के वृत्तिकार ने आकुट्या के अर्थ में 'उपेत्य' शब्द व्यवहृत किया है। उपेत्य के दो अर्थ होते हैं—पास में जाकर या जानकर। १. समवायांगवृत्ति, पन्न ३८ शबलं-कर्बुरं चारित्नं यः क्रियाविशेषेर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साघवोऽपि । २. मावश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११०: प्रवराहमि पयणुए जेण उ मूलं न वच्चई साहु। सबलेंति तं चरितं, तम्हा सबलत्तणं बॅति ।। ३. समवायांगवृत्ति, पत्न ३८ सागारिकः-स्थानदाता। 1. समवायांगवृत्ति, पन २८ : पोद्देशिक क्रीतमाहृत्य दीयमानं (च) भुजानः उपलक्षणत्वात्पामिच्चाच्छे द्यानिसृष्टग्रहणमपीह द्रष्टव्यमिति । ५. ठाणं ७/१। ६. समवायांगवृत्ति, पत्र ३८: उदकलेपश्च नाभिप्रमाणजलागावहनमिति । ७. मावश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २, पत्र, १११ : जंघाध संघट्टो नाभिर्लेप : ८. दशाश्रुतस्कंधचूर्णि, पृष्ठ १०: भाउट्टिया णाम जाणतो। ६. समवायांगवृत्ति, पन्न ३८ : माकुट्टया.."उपेत्य। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १२४ २. सूत्र २ : गुणस्थान चौदह हैं । उनमें आठवां गुणस्थान निवृत्तिबादर है । जिसमें स्थूल कषाय की निवृत्ति होती है, उसे निवृत्तिबादर गुणस्थान कहा जाता है । इस अवस्था में आत्मा स्थूलरूप से कषायों से मुक्त हो जाती है । मोहनीय कर्म की अठाईस प्रकृतियां हैं। आठवें गुणस्थानवर्ती मुनि इनमें से सात प्रकृतियों - कषाय-चतुष्क तथा दर्शनत्रिक को क्षीण कर देता है समवाय २१ : टिप्पण १ कषाय- चतुष्क - अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ । २. दर्शन - त्रिक- सम्यक्त्व मोह, मिथ्यात्व मोह और मिश्र मोह । शेष इक्कीस प्रकृतियां सत्ता में होती हैं। प्रस्तुत आलापक में उनका निर्देश है । 'कम्मंसा' --- कमश का अर्थ है- उत्तर प्रकृतियां और 'संतकम्मा'- सत्कर्म का अर्थ है- सत्तावस्था में विद्यमान कर्म । ' १. समवायांगवृति पत्र ३८ निवृत्तिबादरस्य - अपूर्वं करणस्याष्टमगुणस्थान वत्तिन इत्यर्थः, णं वाक्यालङ्कारे, क्षीणं सप्तकम् - प्रनन्तानुबन्धि चतुष्टयदर्शनत्रयलक्षणं यस्य स तथा तस्य, मोहनीयस्य कर्मणः एकविंशति: कमीशा प्रप्रत्याख्यानादिकषायद्वादशनोकषायनवकरूपा उत्तरप्रकृतयः सत्कर्म - सत्तावस्थं कर्म प्रज्ञप्तमिति । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ बावीसइमो समवायो : बाईसवां समवाय हिन्दी अनुवाद १. परीषह बाईस हैं, जैसे संस्कृत छाया १. बावीसं परोसहा पण्णता, तं द्वाविंशतिः परीषहाः प्रज्ञप्ताः , जहा तद्यथादिगिछापरीसहे पिवासापरीसहे क्षुधापरीषहः पिपासापरीषहः शीतसीतपरीसहे उसिणपरोसहे परीषहः उष्णपरीषहः दंशमशकपरीषहः दंसमसगपरीसहे अचेलपरीसहे अचेलपरीषहः अरतिपरीषहः स्त्रीअरइपरीसहे इत्थिपरीसहे चरिया- परीषहः चर्यापरीषहः निषीधि (दि) कापरोसहे निसीहियापरीसहे सेज्जा- परीषहः शय्यापरीषहः आक्रोशपरीसहे अक्कोसपरीसहे वहपरीसहे परीषहः वधपरीषहः याचनापरीषहः जायणापरीसहे अलाभपरोसहे अलाभपरीषहः रोगपरीषह, तृणस्पर्शरोगपरीसहे तणफासपरीसहे परीषहः जल्लपरीषहः सत्कारपुरस्कारजल्लपरीसहे सक्कारपुरक्कार- परीषहः ज्ञानपरीषहः दर्शनपरीषहः परीसहे नाणपरीसहे दंसणपरीसहे प्रज्ञापरीषहः । पण्णापरीसहे। २. दिट्रिवायस्स गं बावीसं सत्ताई दृष्टिवादस्य द्वाविंशतिः सूत्राणि छिण्णछेयणइयाइं ससमयसुत्त- छिन्नच्छेदनयिकानि स्वसमयसूत्रपरिवाडीए। परिपाट्या। बावीसं सुत्ताई अछिण्णछेयणइयाइं द्वाविंशतिः सूत्राणि अच्छिन्नच्छेदआजीवियसुत्तपरिवाडीए। नयिकानि आजीविकसूत्रपरिपाट्या । १. क्षुधा परीषह, २. पिपासा परीषह, ३. शीत परीषह, ४. उष्ण परीषह, ५. दंश-मशक परीषह, ६. अचेल परीषह, ७. अरति परीषह, ८. स्त्री परीषह, ६. चर्या परीषह, १०. निषीधिका' परीषह, ११. शय्या परीषह, १२. आक्रोश परीषह, १३. वध परीषह, १४. याचना परीषह, १५. अलाभ परीषह, १६. रोग परीषह, १७. तृणस्पर्श परीषह, १८. जल्ल परीषह, १६. सत्कार-पुरस्कार परीषह, २०. ज्ञान परीषह, २१. दर्शन परीषह और २२. प्रज्ञा परीषह। २. दृष्टिवाद के बाईस सूत्र स्व-समयपरिपाटी (जैनागम पद्धति) के अनुसार छिन्नछेद-नयिक होते हैं। दृष्टिवाद के बाईस सूत्र आजीवक परिपाटी के अनुसार अच्छिन्नछेद-नयिक होते हैं। बावीसं सुत्ताइं तिकणइयाइं द्वाविंशतिः सूत्राणि त्रिकनयिकानि तेरासिअसुत्तपरिवाडीए। त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्या। दृष्टिवाद के बाईस सूत्र त्रैराशिक परिपाटी के अनुसार त्रिक-नयिक होते बावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाई द्वाविंशतिः सूत्राणि चतुष्कनयिकानि दृष्टिवाद के बाईस सूत्र स्व-समयससमयसुत्तपरिवाडोए। स्वसमयसूत्रपरिपाट्या । परिपाटी के अनुसार चतुष्क-नयिक होते हैं। ३. बावीसइविहे पोग्गलपरिणामे द्वाविंशतिविधः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञप्तः, ३. पुद्गल-परिणाम बाईस प्रकार के हैं, पण्णत्ते, तं जहातद्यथा जैसे Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १२६ समवाय २२ : सू० ४-१० कालवण्णपरिणामे नीलवण्णपरि- कालवर्णपरिणामः नीलवर्णपरिणाम: णामे लोहियवण्णपरिणामे लोहितवर्णपरिणामः हारिद्रवर्णपरिणामः हालिद्दवण्णपरिणामे सुक्किलवण्ण- शुक्लवर्णपरिणामः सुरभिगन्धपरिणामः परिणामे सुब्भिगंधपरिणामे दुर्गन्धपरिणाम: तिक्तरसपरिणाम: दभिगंधपरिणामे तित्तरस- कटुकरसपरिणामः कषायरसपरिणामः परिणामे कडुयरसपरिणामे अम्ल रसपरिणामः मधुररसपरिणामः कसायरसपरिणामे अंबिलरस- कक्खटस्पर्शपरिणामः मृदुकस्पर्शपरिपरिणामे महुररसपरिणामे णाम गुरुस्पर्शपरिणामः लघुस्पर्शपरिकक्खडफासपरिणाम मउयफास- णाम: शीतस्पर्शपरिणाम: उष्णस्पर्शपरिणामे गरुफासपरिणामे परिणाम: स्निग्धस्पर्शपरिणामः लहुफासपरिणामे सीतफास- रूक्षस्पर्शपरिणामः गुरुलघुस्पर्शपरिणाम: परिणाम उसिणफासपरिणामे अगुरुलघस्पर्शपरिणामः । गिद्धफासपरिणामे लुक्खफासपरिणाम गरुलहफासपरिणाम अगरलहुफासपरिणामे। १. कृष्णवर्णपरिणाम, २. नीलवर्णपरिणाम, ३. लोहितवर्णपरिणाम, ४. हालिद्रवर्णपरिणाम, ५. शुक्लवर्णपरिणाम, ६. सुरभिगंधपरिणाम, ७. दुर्गन्धपरिणाम, ८. तिक्तरसपरिणाम ६. कटुकरसपरिणाम, १०. कषाय रसपरिणाम, ११. अम्लरसपरिणाम, १२. मधुररसपरिणाम, १३. कर्कशस्पर्शपरिणाम, १४. मृदुस्पर्शपरिणाम, १५. गुरुस्पर्शपरिणाम, १६. लघुस्पर्शपरिणाम, १७. शीतस्पर्शपरिणाम, १८. उष्णस्पर्शपरिणाम, १६. स्निग्धस्पर्शपरिणाम, २०. रूक्षस्पर्शपरिणाम, २१. गुरुलघुस्पर्शपरिणाम, और २२. अगुरुलघुस्पर्शपरिणाम। ४. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ४. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बावीस नैरयिकाणां द्वाविंशति पल्योपमानि की स्थिति बाईस पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ५ छटीए पुढवीए नेरइयाणं पष्ठयां पृथिव्यां नैरयिकाणां उत्कर्षेण उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं द्वाविंशति सागरोपमाणि स्थितिः ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ५. छठी पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है। ६. अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ६. नीचे की सातवीं पृथ्वी के नैरयिकों की जहणणं बावीसं सागरोवमाई नैरयिकाणां द्वाविंशति सागरोपमाणि जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ७. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां बावीसं पलिओवमाइं ठिई द्वाविंशति पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पण्णत्ता। ७. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति बाईस पल्योपम की है। ८. सोहम्मीसाणेसू कप्पेस अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां याणं देवाणं बावीस पलिओवमाइं देवानां द्वाविंशति पल्योपमानि स्थितिः ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । ८. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति बाईस पल्योपम की है। है. अच्चुते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अच्यूते कल्पे देवानां उत्कर्षेण ६. अच्युतकल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति बावीसं सागरोवमाइं ठिई द्वाविंशति सागरोपमाणि स्थितिः बाईस सागरोपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १०. हेट्रिम-हेट्रिम - गेवेज्जगाणं देवाणं अधस्तनाधस्तनप्रैवेयकाणां देवानां १०. प्रथम त्रिक की प्रथम श्रेणी के अवेयक जहणणं बावीसं सागरोवमाइं जघन्येन द्वाविंशति सागरोपमाणि देवों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय २२ : सू० ११-१४ ११. जे देवा महितं विसुतं विमलं ये देवा महितं विश्रुतं विमलं प्रभासं ११. महित, विश्रुत, विमल, प्रभास, पभासं वणमालं अच्चुतवडेंसगं वनमालं अच्युतावतंसकं विमानं बनमाल और अच्युतावतंसक विमानों विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानांमुत्कर्षण में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों णं देवाणं उक्कोसेणं बावीसं द्वाविंशति सागरोपमाणि स्थितिः की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। की है। १२. ते णं देवा बावीसाए अद्धमासाणं ते देवा द्वाविंशतेः अर्द्धमासानां आनन्ति १२. वे देव वाईस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। निःश्वसन्ति वा। १३. तेसि णं देवाणं बावीसाए तेषां देवानां द्वाविंशत्या वर्षसहस्रराहा- १३. उन देवों के वाईस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारट्ठे रार्थः समुत्पद्यते । भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है। समुप्पज्जइ। १४. संतेगइया भवसिद्धिया जोवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १४. कुछ भव-सिद्धिक जीव बाईस बार बावोसाए भवग्गहहिं सिज्झि- द्वाविंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और संति बुन्झिस्संति मुच्चिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। टिप्पण १. निषोधिका (निसोहिया) : आगमों तथा व्याख्या ग्रन्थों में 'निसीहिया' शब्द मिलता है और उसका संस्कृत रूप 'निशीथिका', 'निसीधिका' या 'नषेधिकी' किया जाता है। किन्तु इनकी अर्थ-संगति बड़ी अटपटी-सी लगती है । मूलतः यह पाठ 'निसीदिया होना चाहिए। प्राचीन लिपि में 'द' और 'ह' का प्रायः साम्य है । अत: लिपि-परिवर्तन के साथ 'निसीदिया' का 'निसीहिया' हो गया प्रतीत होता है। "निसीहिया' पाठ के आधार पर ही उसका संस्कृत रूप 'निषीधिका' किया गया है। यदि 'निसीदिया' पाठ सुरक्षित रहता हो तो उसका 'निषीधिका' रूप देने की आवश्यकता नहीं होती। बाईस सौ वर्ष पहले उत्कीर्ण खारवेल के शिलालेखा में 'निसीदिया' शब्द मिलता है। इसका संस्कृत रूप 'निषीदिका' होता है। जैन साहित्य में 'मिसीहिया' शब्द भी प्राप्त होता है। दस सामाचारी में दूसरी समाचारी 'निसीहिया' है-'ठाणे कुज्जा निसीहियं' । इसका संस्कृत रूप 'निषीधिका' होता है । आवश्यक सूत्र के तीसरे अध्ययन के वन्दना सूत्र में 'निसीहिआ' शब्द का प्रयोग मिलता है । इसका भी संस्कृत रूप 'निषीधिका' होता है । इसका अर्थ व्यापारान्तर का निषेध करने वाली, पाप-क्रिया का निषेध करनी वाली-इस प्रकार निषेध परक होता है तथा 'निसीदिका' का अर्थ स्थान से संबंधित होता है। 'निसीदिया' और 'निसीहिया' दोनों का एकीकरण हो जाने पर आर्थिक जटिलता उत्पन्न हुई है। २. बाईस परीषह (बावीसं परीसहा) : परीषहों की विशद जानकारी के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि, भाग १, पृ० १६-२४ । १. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, द्वितीय खंड, पृ० २७, २८: खारवेल का हाथी गुम्फालेख-कायनिसीदियाय... ''अरहतनिसीदिया..." । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३. छिन्नछेद-नयिक चतुष्क-नयिक ( छिष्णद्देयणइयाई चउवकणइयाई) : दृष्टिवाद बारहवां अंग है । इसके पांच भेद हैं- ( १ ) परिकर्म, ( २ ) सूत्र, (३) पूर्वगत, (४) प्रथमानुयोग और (५) चूलिका । यहां दृष्टिवाद के दूसरे प्रस्थान ( सूत्र ) में अनेक परिपाटी के सूत्र हैं, इसका उल्लेख है । छिन्नछेद- नयिक यह सूत्र - रचना की एक परिपाटी है। इसमें सभी सूत्र और अर्थ परस्पर अत्यन्त निरपेक्ष होते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि उनमें पौर्वापर्य का संबंध नहीं होता। पहला सूत्र अपने आप में पूर्ण होता है । इसी प्रकार दूसरे, तीसरे आदि सूत्र भी अपने आप में पूर्ण होते हैं । यह निरपेक्ष या स्वतंत्र प्रतिपाद्य की रचना-पद्धति है । यह जैनागम की अपनी मौलिक पद्धति है । छछेद-afte इस परिपाटी के अनुसार सूत्र और अर्थ सापेक्ष होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्ववर्ती सूत्र और अर्थ उत्तरवर्ती सूत्र और अर्थ से संबंधित रहते हैं। यह आजीवक मत की सूत्र - रचना की परिपाटी है । त्रिक-नयिक १२८ त्रैराशिक तीन नयों को स्वीकार करते हैं- ( १ ) द्रव्यास्तिक, ( २ ) पर्यायास्तिक और (३) उभयास्तिक ( द्रव्य-पर्यायास्तिक) । इनकी सूत्र परिपाटी इन तीन नयों पर आधृत होती है । वृत्तिकार ने ' त्रैराशिक' को आजीवक मत के आचार्य गोशालक का अनुयायी बतलाया है, क्योंकि वे सभी द्रव्यों को त्रयात्मक मानते हैं, जैसे—जीव, अजीव और जीव-अजीव; लोक, अलोक और लोक- अलोक ।' इस व्याख्या के अनुसार त्रैराशिक मत आजीवक सम्प्रदाय की एक शाखा प्रमाणित होता है । नंदी सूत्र में आए हुए 'तेरासिय' शब्द की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने त्रैराशिक और आजीवक की एकता का निर्देश किया है । आजीवक आचार्य जगत् को त्रयात्मक मानते थे और वे तीन नय स्वीकार करते थे । इसीलिए वे त्रैराशिक कहलाते थे । नंदी सूत्र के वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने भी त्रैराशिक को आजीवकमतानुयायी माना है ।' ग्यारह अंगों में केवल स्व-समय का प्रतिपादन है और दृष्टिवाद में स्व-समय और पर समय दोनों का। जयधवला के इस निरूपण से त्रैराशिकों की नय-चिंता का उल्लेख सहज ही बुद्धिगम्य हो जाता है । श्रीगुप्त आचार्य के शिष्य रोहगुप्त ने वीर निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात् त्रैराशिक मत का प्रवर्तन किया। किन्तु वह यहां अभिप्रेत नहीं है । समवाय २२ : टिप्पण चतुष्क-नायिक जो सूत्र चार नय के अभिप्राय से प्रतिपादित हैं उन्हें चतुष्क-नायिक कहा जाता है। वे चार नय हैं - ( १ ) संग्रह, (२) व्यवहार, (३) ऋजुसूत्र और (४) शब्द । वृत्तिकार के अनुसार नैगम-नय दो प्रकार का होता है - ( १ ) सामान्य ग्राही और (२) विशेषग्राही । सामान्य ग्राही नैगम-नय संग्रह -नय के अन्तर्गत और विशेषग्राही नैगम-नय व्यवहार-नय के अन्तर्गत हो वैराशिकाश्चाजीविका: । ४ (क) जयधवला, पृ० १३२ : एक्का र सहमं गाणं वतव्वं ससमग्र । (ख) वही. पृ० १४८ : दिवादस्स वत्तव्यं तदुभनो । १. समवायांगवृत्ति, पत्र ४० : इह त्रैराशिका गोशालक मतानुसारिणोऽभिधीयन्ते यस्मात् ते सर्वं व्यात्मकमिच्छन्ति तद् यथा--जीबोऽजीवो जीवाजीवश्चेति तथा लोकोऽलोको लोकालोकश्चेत्यादि, नयचिन्तायामपि ते त्रिविधनयमिच्छन्ति तद् यथा - द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिकः, उभयास्तिकश्चेति एतदेव नयनयमाश्रित्य त्रिनयकानीत्युक्तमिति । २. नंदी चूर्ण, पृ० ७३ । ३. नंदी वृत्ति, पृ० ८७ : ५. आवश्यकभाष्य, गा० १३५ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १२९ समवाय २२ : टिप्पण जाता है। 'समभिरूढ़' और 'एवंभूत'-ये दोनों शब्द-नय हैं। इस प्रकार सात नय संक्षेप में चार बन जाते हैं। इन चार नयों से विचार करने की पद्धति जैन-आगमों की अपनी है। इन चार प्रकार की सूत्र परिपाटिओं में प्रथम और चतुर्थ परिपाटी जैन आगमों की मौलिक पद्धति है । द्वितीय और तृतीय परिपाटी दूसरे संप्रदायों से गृहीत है। ४. पुद्गल-परिणाम [पोग्गलपरिणामे] : पुद्गल-परिणाम का अर्थ है-पुद्गलों का धर्म । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के आधार पर उनके बीस भेद होते हैंवर्ण-पांच, गंध-दो, रस-पांच, और स्पर्श-आठ । प्रस्तुत आलापक में बाईस परिणामों का उल्लेख है । गुरुलघुपरिणाम और अगुरुलघुपरिणाम-इन दो का अतिरिक्त समावेश किया गया है। वृत्तिकार ने लिखा है कि गुरुलघुद्रव्य होता है तिर्यग्गति करने वाला पवन आदि और अगुरुलघु होता है-स्थिर सिद्धिक्षेत्र तथा घंटाकाररूप में व्यवस्थित ज्योतिष्क विमान। १. समवायांगवृत्ति, पत्र १०: पुद्गलानाम्-अण्वादीनां परिणामो-धर्मः पुद्गलपरिणामः, स च वर्णपञ्चकगन्धद्वयरसपञ्चस्पर्शाष्टकभेदाद्विशतिधा तथा गुरुलधुरगुरुलघु इति भेदद्वयक्षेपाद् द्वाविंशतिः तत्र गुरुलधु द्रव्यं यत्तिर्यगामि वाय्वादि, अगुरुलधुर्यत् स्थिरं सिद्धिक्षेत्र घण्टाकारव्यवस्थितज्योतिष्कविमानानीति । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ तेवीसइमो समवाश्रो : तेईसवां समवाय मूल १. तेवीसं सूयगडज्भयणा पण्णत्ता, त्रयोविंशतिः सूत्रकृताध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा तं जहासमए वेतालिए उवसग्गपरिण्णा परिणा नरयविभत्ती महावीर थुई कुसलपरिभासिए विरिए धम्मे समाही मग्गे समोसरणे आहतहिए गंथे जमईए गाहा पुंडरीए किरियठाणा आहार - परिण्णा अपच्चक्खाणकिरिया अगर अद्दज्जं नालंदइज्जं । संस्कृत छाया समयः वैतालिक उपसर्गपरिज्ञा स्त्रीपरिज्ञा नरकविभक्तिः महावीरस्तुति: कुशीलपरिभाषितं वीर्य धर्मः समाधिः मार्गः समवसरणं याथातथ्यं ग्रंथः यमकीयं गाथा पौण्डरीकं क्रियास्थानानि आहारपरिज्ञा अप्रत्याख्यानक्रिया अनगारश्रुतं आर्द्रकीयं नालन्दीयम् । २. जंबुद्दीवे णं दीवे भार हे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसाए अवसर्पिण्यां जिणाणं सूरुग्गमणमुहुत्तंसि सूरोद्गमनमुहूर्त्ते केवलवर नाणदंसणे समुप्पण्णे । समुत्पन्नम् । भारते वर्षे अस्यां त्रयोविंशतेजिनानां केवलवरज्ञानदर्शनं ३. जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पि - णीए तेवीसं तित्थकरा पुव्वभवे एक्कारसंगिणी होत्या, तं जहा— अजिए संभवे अभिनंदणे सुमती पउमप्यभे सुपासे चंदप्प हे सुविही सीतले सेज्जंसे वासुपूज्जे विमले अणते धम्मे संती कुंथू अरे मल्ली मुनिसुव्व णमो अरिट्ठमी पासे वद्धमाणे य । उसमे णं अरहा कोसलिए ऋषभः अर्हन् कौशलिकः चतुर्दशपूर्वी alegoat होत्था । जम्बूद्वीपे द्वीपे अस्यां त्रयोविंशतिस्तीर्थकराः एकादशाङ्गिनो बभूवुः तद्यथाअजितः सम्भवः अभिनन्दनः सुमतिः पद्मप्रभः सुपार्श्वः चन्द्रप्रभः सुविधिः शीतलः श्रेयांसः वासुपूज्यः विमल: अनन्तः धर्मः शान्तिः कुन्थुः अर: मल्ली मुनिसुव्रतः नमिः अरिष्टनेमिः पार्श्वः वर्द्धमानश्च । वभूव । अवसर्पिण्यां पूर्वभवे हिन्दी अनुवाद १. सूत्रकृतांग सूत्र के अध्ययन तेईस हैं, जैसे -- १. समय २. वैतालिक ३. उपसर्गपरिज्ञा ४. स्त्रीपरिज्ञा ५ नरकविभक्ति ६. महावीरस्तुति ७. कुशीलपरिभाषित ८. वीर्य 8. धर्म १०. समाधि ११. मार्ग १२. समवसरण १३. याथातथ्य १४. ग्रन्थ १५. यमकीय १६. गाथा १७. पौंडरीक १८. क्रियास्थान १६. आहारपरिज्ञा २० अप्रत्या ख्यानक्रिया २१. अनगारश्रुत २२. आर्द्रकीय और २३. नालंदीय । २. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी में तेईस जिनों (तीर्थङ्करों ) को सूर्योदय के समय केवलवरज्ञानदर्शन उत्पन्न हुआ था । ' ३. जम्बूद्वीप द्वीप में इस अवसर्पिणी में तेईस तीर्थङ्कर पूर्वभव में ग्यारह अंगधारी थे, जैसे अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्द्धमान । अर्हत् कौशलिक ऋषभ पूर्वभव में चतुर्दशपूर्वी थे । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १३१ समवाय २३ : सू० ४-१२ ४. जंबद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पि- जम्बूद्वीपे द्वीपे अस्यां अवसपिण्यां ४. जम्बूद्वीप द्वीप में इस अवसर्पिणी में णीए तेवीसं तित्थगरा पुब्वभवे त्रयोविंशतिस्तीर्थक रा: पूर्वभवे तेईस तीर्थकर पूर्वभव में मांडलिक मंडलियरायाणो होत्था, तं जहा-- माण्डलिकराजानो बभूवुः, तद्यथा-- राजा थे, जैसेअजिए संभवे अभिणंदणे सुमती अजितः सम्भवः अभिनन्दनः सुमतिः अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पउमप्पभे सुपासे चंदप्पहे सुविही पद्मप्रभः सुपार्श्व: चन्द्रप्रभः सुविधिः पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, सीतले सेजसे वासुपुज्जे विमले शीतल: श्रेयांस: वासुपूज्यः विमल: शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अणंते धम्मे संतो कुंथू अरे मल्ली अनन्त: धर्मः शान्तिः कुन्थः अरः मल्ली अनन्त, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुणिसुव्वए णमी अरिट्ठणेमी पासे मुनिसुव्रत: नमिः अरिष्टनेमिः पार्श्वः । मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व वद्धमाणं य। वर्द्धमानश्च। और वर्द्धमान । उसभे णं अरहा कोसलिए ऋषभः अर्हन् कोशलिक: चक्रवर्ती अर्हत् कौशलिक ऋषभ पूर्वभव में चक्कवट्टी होत्था। बभूव । चक्रवर्ती थे। ५. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति ५. इस रत पर अत्थेगडयाणं नेरडयाणं तेवीसं एकेषां नैरयिकाणां त्रयोविशति की स्थिति तेईस पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। पल्योपमानि स्थिति: प्रज्ञप्ता। ६. अहेसत्तमाए णं पुढवीए अत्थेगइ- अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ६. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नरयिकों याणं नेरइयाणं तेवीसं नैरयिकाणां त्रयोविंशति सागरोपमाणि की स्थिति तेईस सागरोपम की है। सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ७. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां ना आस्त एकषा ७. क ७. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति तेवीसं पलिओवमाइं ठिई त्रयोविंशति पल्योपमानि स्थितिः तेईस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ८. सोहम्मीसाणाणं देवाणं अत्थेगइ- सौधर्मशानानां देवानां अस्ति एकेषां ८. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं तेवीसं पलिओवमाइं ठिई त्रयोविंशति पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति तेईस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। 8. हेटिम-मज्झिम-विज्जाणं देवाणं अधस्तन-मध्यम-वेयकाणां देवानां जहणेणं तेवीसं सागरोवमाइं जघन्येन त्रयोविशति सागरोपमाणि ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १. प्रथम विक की द्वितीय श्रेणी के ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तेईस सागरोपम की है। १०. जे देवा हेट्ठिम - हेट्ठिम-गेवेज्जय- ये देवा अधस्तन-अधस्तन-प्रैवेयक- १०. प्रथम त्रिक की प्रथम श्रेणी के ग्रैवेयक विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि विमानेषु देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीसं देवानामुत्कर्षेण त्रयोविंशति देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेईस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। ११.ते णं देवा तेवीसाए अद्धमासेहिं ते देवास्त्रयोविंशत्या अर्द्धमासै: आनन्ति ११. वे देव तेईस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्व उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। सन्ति वा। १२. तेसि णं देवाणं तेवीसाए वास- तेषां देवानां त्रयोविंशत्या वर्षसहस्रैराहा- १२. उन देवों के तेईस हजार वर्षों से सहस्सेहिं आहारठे समुप्पज्जइ। रार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १३२ ___ समवाय २३ : सू० १३ १३. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १३. कुछ भव-सिद्धिक जीव तेईस बार तेवीसाए भवग्गहहिं सिझि- त्रयोविंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाण- सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। मंतं करिस्संति। टिप्पण प्रस्तुत आलापक में सूत्रकृतांग सूत्र के तेईस अध्ययनों का उल्लेख है। सूत्रकृतांग दूसरा अंग आगम है। उसके दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कंध में सोलह और दूसरे श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं । प्रस्तुत सूत्र में उनका एक साथ निर्देश किया है। इनमें प्रथम सोलह अध्ययन प्रथम श्रुतस्कंध के और शेष सात अध्ययन द्वितीय श्रुतस्कंध के हैं। इन सभी अध्ययनों का विषय उसी आगम से अवसेय है। २. सूत्र २ : भगवान महावीर को कैवल्य लाभ वैशाख शुक्ला दसमी के दिन चौथे प्रहर में हुआ था।' एक मतान्तर यह भी है कि बावीस तीर्थंकरों को पूर्वान्ह में और मल्ली तथा महावीर को अपरान्ह में कैवल्य-लाभ हुआ था। १. प्रावश्यकचूणि, पृष्ठ ३२३ : वइसाहसुद्ददसमीए पादीणगामिणीए छायाए अभिनिव्वट्टाए पोरुसीए पमाणपत्ताए। २. आवश्यकचूणि, पृष्ठ १५८ : अन्ने भणति ---बावीसाए पुब्बण्हे, मल्लिवीराणं प्रवरहे। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ चउव्वीसइमो समवानो : चौबीसवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. देवाधिदेव चौबीस हैं, जैसे १. चउव्वीसं देवाहिदेवा पण्णता, चतुर्विंशतिर्देवाधिदेवाः प्रज्ञप्ताः , तं जहा तद्यथाउसमे अजिते संभवे अभिणंदणे ऋषभः अजितः सम्भवः अभिनन्दनः सुमती पउमप्पभे सुपासे चंदप्पहे सुमतिः पद्मप्रभः सुपार्श्व: चन्द्रप्रभः सुविही सोतले सेज्जसे वासुपुज्जे सुविधिः शीतलः श्रेयांस: वासुपूज्यः विमले अणंते धम्मे संती कुथु विमलः अनन्तः धर्मः शान्तिः कुन्थुः अरः अरे मल्ली मुणिसुव्वए णमो मल्ली मुनिसुव्रतः नमिः अरिष्टनेमिः अरिट्ठणेमी पासे वद्धमाणे। पार्श्वः वर्द्धमानः । १. ऋषभ, २. अजित, ३. संभव, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति, ६. पद्मप्रभ, ७. सुपार्श्व, ८. चन्द्रप्रभ, ६. सुविधि, १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शान्ति, १७. कुन्थु, १८. अर, १६. मल्ली, २०. मुनिसुव्रत, २१. नमि, २२. अरिष्टनेमि २३. पार्श्व और २४. वर्द्धमान । २. चुल्लहिमवंतसिहरीणं वासहर- क्षल्लहिमवच्छिखरिणोवर्षधरपर्वतयो - २. क्षुल्ल हिमवान् और शिखरी-इन दो पव्वयाणं जीवाओ चउव्वीसं- र्जीवे चतुर्विशति-चतुर्विशति वर्षधर पर्वतों में से प्रत्येक की जीवा चउव्वीसं जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि नवद्वात्रिंशद योजनशतं णवबत्तोसे जोयणसए एगं च एक च अष्टत्रिशद भागं योजनस्य ___२४६३२ -- योजन से कुछ अधिक अत्तीसई भागं जोयणस्स किञ्चिद्विशेषाधिके आयामेन प्रज्ञप्ते । लम्बी है। किचिविसेसाहिआओ आयामेणं पण्णत्ताओ। ३. चउवीसं देवटाणा सईदया चतुर्विशतिः देवस्थानानि सेन्द्राणि ३. देवताओं के चौबीस स्थान इन्द्र सहित पण्णता, सेसा अहमिदा-अनिदा प्रज्ञप्तानि, शेषाणि अहमिन्द्राणि- हैं और शेष स्थान 'अहमिन्द्र' अर्थात् अपुरोहिआ। अनिन्द्राणि अपुरोहितानि। इन्द्र और पुरोहित रहित हैं। ४. उत्तरायणगते णं सूरिए उत्तरायणगतः सूर्यः चतुर्विंशत्यङ गुलिका ४. उत्तरायण में रहा हुआ सूर्य एक पहर चउवीसंगलियं पोरिसियछायं पौरुषीयच्छायां निर्वर्त्य निवर्तते । की चौबीस अंगुल प्रमाण छाया निष्पन्न णिव्वत्तइत्ता णं णिअट्टति। कर निवृत्त हो जाता है-सर्वाभ्यन्तर मंडल से दूसरे मंडल में आ जाता है। ५. गंगासिंधूओ णं महाणईओ पवहे गङ्गासिन्ध्वौ महानद्यौ प्रवहे सातिरेकं सातिरेगे चउवीस कोसे वित्यारेणं चतुर्विशति क्रोशं विस्तारेण प्रज्ञप्ते। पण्णत्ताओ। ५. गंगा और सिन्धु-दोनों महानदियों का प्रवाह के स्थान पर विस्तार साधिक चौबीस कोस का है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १३४ समवाय २४ : सू० ६-१५ ६. रत्तारत्तवतोओ णं महाणदोओ रक्तारक्तवत्यौ महानद्यो प्रवहे सातिरेकं ६. रक्ता और रक्तवती–दोनों महानदियों पवहे सातिरेगे चउवोसं कोसे चतुर्विशति को विस्तारेण प्रज्ञप्ते। का प्रवाह के स्थान पर विस्तार साधिक वित्यारेणं पण्णत्ताओ। चौबीस कोस का है। ७. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति ७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउवासं एकेषां नैरयिकाणां चविंशति की स्थिति चौबीस पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णता। पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ८. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ८. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नरयिकों नेरइयाणं चउवोसं सागरोवमाई नैरयिकाणां चविशति सागरोपमाणि की स्थिति चौबीस सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. असुरकुमाराणं देवागं अत्यंगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां ६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति चउवोसं पलिओवमाई ठिई चतुर्विशति पल्योपमानि स्थितिः चौबीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १०. सोहम्मीसाणेसु कप्पेतु अत्थेगइयाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १०. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं चउवासं पलिओवमाइं देवानां चतुर्विशति पल्योपमानि की स्थिति चौबीस पल्योपम की है। ठिई पण्णता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। टिम-उरिम-गवेज्जागं देवाण अधस्तन-उपरितन-ग्रेवयकाणां देवानां ११. प्रथम त्रिक की ततीय श्रेणी के देयक जहण्णणं चउवासं सागरोवमाई जघन्येन चविशति सागरोपमाणि देवों की जघन्य स्थिति चौबीस सागरोठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। १२. जे देवा हेटिम-मज्झिम-गेवेज्जय- ये देवा अधस्तन-मध्यम- १२. प्रथम त्रिक की द्वितीय श्रेणी के अवेयक विभागेसु देवतार उववण्णा, ग्रेवेयकविमानेषु देवत्वेन उपपन्नाः, विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले तेसि ग देवाण उकासेण चउवासं तेषां देवानामुत्कर्षेण चतुविशति देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौबीस सागरोसागरावमाईपिण्णता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। १३. ते ण देवा चउवासाए अद्धभासाणं ते देवाश्चतुर्विशतेरर्द्धमासानां १३. वे देव चौबीस पक्षों से आन, प्राण, आणमात वा पाणमांत वा आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं। ऊससात वा नाससात वा। वा निःश्वसन्ति वा। १४. तेसि णं देवाणं चउवीसाए तेषां देवानां चतुर्विशत्या वर्षसहस्र- १४. उन देवों के चौबीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारट्ठे राहारार्थः समुत्पद्यते। भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जा । १५. संतेगइया भवसिद्धिया जोवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १५. कुछ भव-सिद्धिक जीव चौबीस बार चउवासाए भवग्गहहि चतुविशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिन्झिस्संति बज्झिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अंत करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. देवताओं के पुरोहित रहित हैं (चउवीस 'अपुरोहिआ) दस भवनपति के, आठ व्यन्तर के, पांच ज्योतिष्क के और एक वैमानिक के—ये चौबीस इन्द्र होते हैं। वेयक और अनुत्तर विमानों के इन्द्र नहीं होते। सब देव 'अहमिन्द्र' होते हैं।' २. उत्तरायण में आ जाता है (उत्तरायणगते “णिअट्टति) कर्क संक्रान्ति के दिन जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डल में प्रविष्ट होता है, तब पहर की छाया चौबीस अंगुल प्रमाण की होती है । तदनन्तर सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल से दूसरे मंडल में चला जाता है। ३. प्रवाह (पवहे) : जहां से नदी प्रवृत्त होती है, उस स्थान का नाम 'प्रवाह' है । वृत्तिकार का अभिमत है कि यहां इन दोनों नदियों का प्रवाह 'पद्महद' के तोरण से प्रारम्भ होता है । समवायांग (२५/७) में प्रपात का विस्तार पचीस योजन बतलाया गया है, वह यहां विवक्षित नहीं है।' रक्ता और रक्तवती (रत्तारत्तवतीओ) ये दोनों महानदियां जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधर पर्वत के पुण्डरीक महाद्रह से प्रवाहित होती इनके विषय की विशेष जानकारी देने वाले अनेक आलापक स्थानांग सूत्र में हैं। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ४१ : चतुर्विशतिर्देवस्थानानि-देवभेदाः, दश भवनपतीना, अष्टौ व्यन्तराण, पञ्च ज्योतिकाना, एक कल्पोपपन्नवैमानिकाना, एवं चतुर्विशतिः, सेन्द्राणि चमरेन्द्राद्याधिष्ठितानि शेषाणि च ग्रेवेयकानुत्तरसुरलक्षणानि महं अहं इत्येवमिन्द्रा येषु तान्यहमिन्द्राणि, प्रत्यात्मेन्द्रकाणीत्यर्थः अत एव अनिन्द्राणि प्रविद्यमाननायकानि अपुरोहितानि-प्रविद्यमानशान्तिकर्मकारोणि, उपलक्षणपरत्वादस्याविद्यमानसेवकजनानीति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ४१,४२। ३. वही, पन ४२। ४. ठाणं ३/४५८ । ५. ठाणं ५/२३३ ६/६०; ७/५२, ५६ ८/५६, ८२,५४; १०/२६ मादि। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल संस्कृत छाया तित्थगराणं पूर्वपश्चिमयोस्तीर्थकरयोः पञ्चयामस्य प्रज्ञप्ताः, १. पुरिमपच्छिमताणं पंचजामस्स पणवीसं भावणाओ पञ्चविंशतिः भावना: पण्णत्ताओ, तं जहा तद्यथा १. इरियासमिई २. मणगुत्ती ३. वयगुत्ती ४. आलोय - भायण - भोयणं २५ परवीसइमो समवा: पचीसवां समवाय ५. आदाण - भंड-मत्त - निक्खेवणासमई । ६. अणुवीति भासणया ७. कोहविवे ८. लोभविवेगे ६. भयविवेगे १०. हास विवेगे ११. उग्गह- अणुण्णवणता १२. उग्गह-सोमजाणणता १३. सयमेव उग्गह अणगेण्हणता ईर्यासमितिः मनोगुप्तिः वचोगुप्तिः आलोक-भाजन-भोजनम् आदान- भाण्डाऽमत्र - निक्षेपणा समितिः । अनुवीचि - भाषणम् क्रोधविवेकः लोभविवेक: भयविवेकः हासविवेकः । अवग्रह-अनुज्ञापनम् अवग्रह-सीमाज्ञानम् स्वयमेव अवग्रह- अनुग्रहणम् हिन्दी अनुवाद १. प्रथम और अन्तिम तीर्थंङ्कर के शासन में पंचयाम ( पांच महाव्रतों ) की पचीस भावनाओं' का प्रज्ञापन किया गया है, जैसे प्रथम महाव्रत १. ईर्यासमिति २. मनोगुप्ति ३. वचनगुप्ति ४. आलोक-भाजन - भोजन- चौड़े मुंह वाले पात्र में भोजन । ५. आदान भांडामत्रनिक्षेपणा समिति । द्वितीय महाव्रत ६. अनुवीचिभाषणता – विधिपूर्वक बोलना ७. क्रोध विवेक क्रोध का त्याग ८. लोभ विवेक - लोभ का त्याग ६. भय विवेक - भय का त्याग १०. हास्य विवेक -- हास्य का त्याग तृतीय महाव्रत ११. अवग्रहानुज्ञापना' - अवग्रह के लिए गृहस्वामी की अनुज्ञा लेना १२. अवग्रहसीमाज्ञान - गृहस्वामी द्वारा अनुज्ञात अवग्रह की सीमा को जानना १३. स्वयमेव अवग्रह अनुग्रहणता --- अनुज्ञात अवग्रह को स्वयं स्वीकार करना — उसमें रहना Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २५, सू० २-५ समवायो १३७ १४. साहम्मियउग्गहं अणुण्णविय सार्मिकावग्रहं अनुज्ञाप्य परिभोजनम् परिभुंजणता अनुज्ञाप्य १५. साधारणभत्तपाणं अणण्ण- साधारणभक्तपानं विय परिभुंजणता। परिभोजनम् । १४. सार्मिक अवग्रह अनुज्ञाप्य परिभोग-सार्मिकों द्वारा याचित अवग्रह का उनकी अनुज्ञा लेकर उपभोग करना। १५. साधारण भक्त-पान अनुज्ञाप्य परिभोग-साधारण (सामान्य) भक्तपान का आचार्य आदि को अनुज्ञापित कर परिभोग करना। चतुर्थ महाव्रत १६. इत्थी - पसु - पंडग - संसत्त- स्त्री-पशु-पण्डक-संसक्त-शयनासनवर्जनम् सयणासणवज्जणया १७. इत्थो-कहविवज्जणया स्त्रीकथाविवर्जनम १८. इत्थोए इंदियाण आलोयण- स्त्रियः इन्द्रियाणां आलोकनवर्जनम् वज्जणया १६. पुव्वरय - पुत्वकोलिआणं पूर्वरत-पूर्वक्रीडितानां अननुस्मरणम् अणणुसरणया २०. पणोताहारविवज्जगया। प्रणीताहारविवर्जनम् । १६. स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और आसन का वर्जन करना। १७. स्त्री-कथा का वर्जन करना । १८. स्त्रियों के इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन करना। १६. पूर्वभुक्त तथा पूर्वक्रीडित कामभोगों की स्मृति का वर्जन करना। २०. प्रणीत आहार का वर्जन करना । पंचम महाव्रत २१. सोइंदियरागोवरई २२. चक्खिदियरागोवरई २३. धाणिदियरागोवरई २४. जिभिदियरागोवरई २५. फासिदियरागोवरई। श्रोत्रेन्द्रियरागोपरतिः चक्षुरिन्द्रियरागोपरतिः घ्राणेन्द्रियरागोपरतिः जिह्वन्द्रियरागोपरतिः स्पर्शन्द्रियरागोपरतिः। २१. श्रोत्रेन्द्रिय राग की उपरति । २२. चक्षुइन्द्रिय राग की उपरति । २३. घ्राणेन्द्रिय राग की उपरति । २४. रसनेन्द्रिय राग की उपरति । २५. स्पर्शनेन्द्रिय राग की उपरति । २. अर्हत् मल्ली पचीस धनुष्य ऊंचे थे। २. मल्ली णं अरहा पणवीसं धणुइं मल्ली अर्हन् पञ्चविंशति धनंषि उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊध्वमुच्चत्वेन बभूव । ३. सव्वेवि णं दोहवेयड्पव्वया सर्वेऽपि दोघंवैताठ्यपर्वताः: पञ्च- पणवीसं-पणवीसं जोयणाणि उड़ विशति-पञ्चविंशति योजनानि ऊर्ध्व- उच्चत्तेणं, पणवीसं-पणवीसं गाउ- मुच्चत्वेन, पञ्चविंशति-पञ्चविंशति याणि उव्वेहेणं पण्णत्ता। गव्यूतानि उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः । ३. सभी दीर्घ-चैताढ्य पर्वतों की ऊंचाई पचीस-पचीस योजन की है और उनकी गहराई पचीस-पचीस गाऊ की ४. दोच्चाए णं पुढवीए पणवीसं द्वितीयायां पृथिव्यां पञ्चविंशतिः ४. दूसरी पृथ्वी में पचीस लाख नरका णिरयावाससयसहस्सा पण्णता। निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । वास हैं। ५. आयारस्स णं भगवओ आचारस्य भगवत: सचूलिकाकस्य सचलियायस्स पणवीसं अज्झयणा पञ्चविंशतिः अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । पण्णत्ता। ५. चूलिका सहित आचारांग' के पचीस अध्ययन हैं। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र ६. मिच्छादिद्विविलदिए णं मिय्यादृष्टिविकलेन्द्रियः अपर्याप्तकः अपज्जत्तए संकि लिट्ठपरिणामे संक्लिष्टपरिणामः नाम्नः कर्मणः उत्तरप्रकृतीर्निबध्नाति, नामस्स कम्मस्स पणवीसं उत्तरपयडीओ णिबंधति, तं पञ्चविंशति तद्यथा जहा - तिरियगतिनामं तिर्यग्गतिनाम विकलेन्द्रियजातिनाम संस्थाननाम विगलिदिय जातिनामं ओरालियसरीरनामं ओदारिकशरीरनाम तेजस्कशरीरनाम तेअगसरीरनामं कम्मगसरीरनामं कर्मकशरीरनाम हुंडठाणनामं ओरालियस रंगो- औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम सेवावंगनामं सेवट्टसंघयणनामं संहनननाम वर्णनाम गन्धनाम रसनाम वण्णनामं गंधनामं रसनामं स्पर्शनाम तिर्यगानुपूर्वीनाम अगुरुकलघुफासनामं तिरियाणुपुव्विनामं कनाम उपघातनाम त्रसनाम बादरनाम अगरु हुना उवघायनामं अपर्याप्तकनाम प्रत्येकशरीरनाम तसनामं बादरनामं अपज्जत्तयअस्थिरनाम अशुभनाम दुर्भगनाम नाम पत्तेयसरीरनामं अथिरनामं अनादेयनाम अयशः कीर्त्तिनाम असुभनामं दुभगनामं अणादेज्ज- निर्माणनाम | अजसोकित्तिनामं नामं निम्माणनामं । ७. गंगासिंधूओ णं महानदीओ पणवीस गाउयाणि पुहुत्तेणं दुहओ घमुह - पवित्तिणं मुत्तावलिहार - संठिएणं पवाणं पवति । ८. रतारत्तवतीओ णं महाणदीओ पणवीसं गाउयाणि पुहुत्तेणं दुहओ मकर मुह- पवित्तिणं मुत्तावलि - हार-संठिएणं पवातेणं पवति । ६. लोगबदुसारस्स णं पुव्वस्स पणवोसं वत्थू पण्णत्ता । १०. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पणवीसं पलिओमाई ठिई पण्णत्ता । ११. आहेस तमाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १३८ गङ्गासिन्ध्वो महानद्यौ पञ्चविंशति गव्यूतानि पृथुत्वेन द्विघातः घटमुखप्रवृत्तेन मुक्तावलिहार-संस्थितेन प्रपातेन प्रपततः । रक्तारक्तवत्यौ महानद्यौ पञ्चविंशति गव्यूतानि पृथुत्वेन द्विधात: मकरमुखप्रवृत्तेन मुक्तावलिहार-संस्थितेन प्रपातेन प्रपततः । लोकबिन्दुसारस्य पूर्वस्य पञ्चविंशतिवस्तूनि प्रज्ञप्तानि । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नरयिकाणां पञ्चविंशति पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । अवः सप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नेरयिकाणां पञ्चविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । समवाय २५: सू० ६-११ ६. संक्लिष्ट परिणाम वाले अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय जीव नाम-कर्म की पचीस उत्तर प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, जैसे तिर्यग्गतिनाम, विकलेन्द्रिय जातिनाम, औदारिकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम हुडसंस्थाननाम, औदारिकशरीर अंगोपांगनाम, सेवार्त संहनननाम, वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, तिर्यग्आनुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, त्रसनाम, बादरनाम, अपर्याप्त नाम, प्रत्येकशरीरनाम, अस्थिरनाम, अशुभनाम, दुभंगनाम, अनादेवनाम, अयशःकीर्तिनाम और निर्माणनाम | ७. गंगा और सिन्धु – दोनों महानदियों का मुक्तावली हार की आकृति वाला पचीस कोश का विस्तृत प्रपात घटमुख से प्रवृत्त होकर दोनों दिशाओं से ( पूर्व से गंगा का और पश्चिम से सिन्धू का ) नीचे गिरता है । ८. रक्ता और रक्तवती — दोनों महानदियों का मुक्तावली हार की आकृति वाला पचीस कोश का विस्तृत प्रपात मकरमुख से प्रवृत्त होकर दोनों दिशाओं से ( पूर्व से रक्ता का और पश्चिम से रक्तवती का ) नीचे गिरता है । ६. लोकबिन्दुसार पूर्व के वस्तु पचीस हैं । १०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति पचीस पत्योपम की है । ११. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति पचीस पत्योपम की है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १३६ समवाय २५ : सू० १२-१८ १२. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १२. कुछ असुरकूमार देवों की स्थिति पचीस पणवीसं पलिओवमाइं ठिई पञ्चविंशति पल्योपमानि स्थितिः पल्योपम की है । पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । १३. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं सौधर्मशानयोः कल्पयोर्दवानां अस्ति १३. सौधर्म ओर ईशानकल्प के कुछ देवों की अत्थेगइयाणं पणवीसं पलिओव- एकेषा पञ्चविंशति पल्योपमानि स्थिति पचीस पल्योपम की है। माइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १४. मज्झिम-हेट्रिम-गेवेज्जाणं देवाणं मध्यम-अधस्तन- उपरितन- ग्रेवेयकाणां १४. द्वितीय त्रिक की प्रथम श्रेणी के जहणणं पणवीसं सागरोवमाइं देवानां जघन्येन पञ्चविंशति सागरोप- वेयक देवों की जघन्य स्थिति पचीस ठिई पण्णत्ता। माणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १५. जे देवा हेट्ठिम-उवरिम- ते देवा अधस्तन-उपरितन-वेयक- १५. प्रथम त्रिक की तृतीय श्रेणी के अवेयक गेवेज्जगविमाणेसु देवताए विमानेषु देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले उववण्णा, तेसि णं देवाणं देवानामुत्कर्षेण पञ्चविंशति सागरो- देवों की उत्कृष्ट स्थिति पचीस सागरोउक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई पमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। ठिई पण्णता। १६. ते णं देवा पणवीसाए अद्धमासेहि ते देवाः पञ्चविंशत्या अर्द्धमासैः १६. वे देव पचीस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति उच्छवास और निःश्वास लेते हैं । ऊससंति वा नोससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १७. तेसिणं देवाणं पणवीसाए तेषां देवानां पञ्चविंशत्या वर्षसहस्र- १७. उन देवों के पचीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहिं आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १८. संतेगइया भवसिद्धिया जोवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जोवाः, ये १८. कुछ भव-सिद्धिक जीव पचीस बार पणवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झि- पञ्चविंशत्या भवग्रहणेः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति भोत्स्यन्ते माक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्सति । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. पचीस भावनाओं (पणवीसं भावणाओ) पांच महाव्रतों की सुरक्षा के लिए पचीस भावनाएं हैं। प्रश्नव्याकरण तथा आचारचूला (१५/४३-७८) में भी पचीस भावनाओं का उल्लेख है । प्रस्तुत आगम में उल्लिखित भावनाओं से वे कुछ भिन्न हैंसमवायाङ्ग प्रश्नव्याकरण आचारचूला १. अहिंसा महाव्रत की भावनाएं १. ईर्यासमिति १. ईर्यासमिति' १. ईर्यासमिति २. मनोगुप्ति २. अपापमन (मनसमिति) २. मन परिज्ञा ३. वचनगुप्ति ३. अपापवचन (वचनसमिति) ३. वचन परिज्ञा ४. आलोक-भाजन-भोजन ४. एषणासमिति ४. आदान-निक्षेप समिति ५. आदान-भांडामत्र-निक्षेपणा समिति ५. आदाननिक्षेपसमिति ५. आलोकित-पान-भोजन २. सत्य महाव्रत की भावनाएं १. अनुवीचिभाषणता १. अनुवीचिभाषण' १. अनुवीचिभाषण २. क्रोध विवेक २. कोध प्रत्याख्यान २. क्रोध प्रत्याख्यान ३. लोभ विवेक ३. लोभ प्रत्याख्यान ३. लोभ प्रत्याख्यान ४. भय विवेक ४. अभय (भय-प्रत्याख्यान) ४. अभय ५. हास्य विवेक ५. हास्य प्रत्याख्यान ५. हास्य प्रत्याख्यान ३. अचौर्य महाव्रत की भावनाएं १. अवग्रहानुज्ञापना १. विविक्तवास वसति' १. अनुवीचि मितावग्रहयाचन २. अवग्रहसीमाज्ञान २. अभीक्ष्ण अवग्रहयाचन २. अनुज्ञापित पान-भोजन ३. स्वयमेव अवग्रह अनुग्रहणता ३. शय्यासमिति ३. अवग्रह का अवधारण ४. सार्मिक अवग्रह अनुज्ञाप्य परिभोग ४. साधारण पिण्डपात्र लाभ ४. अभीक्ष्ण अवग्रह याचन ५. साधारण भक्तपान अनुज्ञाप्य परिभोग ५. विनयप्रयोग ५. सार्मिक के पास से अवग्रह याचन ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावनाएं १. स्त्री, पशु और नपंसुक से संसक्त शयन १. असंसक्तवासवसति' १. स्त्रियों में कथा का वर्जन और आसन का वर्जन करना २. स्त्रीकथा का वर्जन करना २. स्त्रीजन में कथा वर्जन २. स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के अवलोकन का वर्जन ३. स्त्रियों के इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन ३. स्त्रीजन के अंग-प्रत्यंग और ३. पूर्वभुक्त भोग की स्मृति का वर्जन करना चेष्टओं के अवलोकन का वर्जन ४. पूर्वभुक्त तथा पूर्वक्रीडित-काम भोगों ४. पूर्वभुक्त भोग की स्मृति ४. अतिमात्र और प्रणीत पान-भोजन की स्मृति का वर्जन करना का वर्जन का वर्जन ५. प्रणीत आहार का वर्जन करना ५. प्रणीतरसभोजन का वर्जन ५. स्त्री आदि से संसक्त शय्यासन का वर्जन १. प्रश्नव्याकरण, ६/१६-२१ । २. प्रश्नव्याकरण,७/१६-२१ । ३. प्रश्नव्याकरण, ८/८-१३ । ४. प्रश्नध्याकरण,९/५.११॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १. श्रोत्रेन्द्रिय राग की उपरति २. चक्षु इन्द्रिय राग की उपरति ३. घ्राणेन्द्रिय राग की उपरति ४. रसनेन्द्रिय राग की उपरति ५. स्पर्शनेन्द्रिय राग की उपरति आवश्यक नियुक्ति अवचूर्ण में पचीस भावनाएं इस प्रकार निर्दिष्ट हैं प्रथम महाव्रत की भावनाएं १. इर्यासमिति में सदा संयमशीलता २. देखकर पान भोजन करना ३. आदाननिक्षेपसमिति का पूर्ण पालन ४. मन का सम्यक् प्रवर्तन ५. वचन का सम्यक् प्रवर्तन द्वितीय महाव्रत की भावनाएं १. हास्य में भी असत्य का वर्जन २. अनुवीचि भाषणता ३. क्रोध का प्रत्याख्यान ४. लोभ का प्रत्याख्यान ५. भय का प्रत्याख्यान १४१ ५. अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं १. मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव' २. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव ३. मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव ४. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव ५. मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव ३. आचारांग (आयारस्स) १. प्रश्नव्याकरण, १० / १३-१८। २. श्रावश्यक निर्युक्ति, अवचूर्णि भाग - २, पृ० १३४, १३५ . ३. समवायांगवृत्ति, पत्र ४३ । समवाय २५ : टिप्पण १. मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव २. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव ३. मनोज और अमनोज गन्ध में समभाव ४. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव ५. मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव चतुर्थ महाव्रत को भावनाएं तृतीय महाव्रत की भावनाएं १. गृहस्वामी की आज्ञा से अवग्रह का उपभोग २. गृहस्वामी की आज्ञा से तृण आदि का ग्रहण ३. अनुज्ञात अवग्रह का उपभोग ४. गुरु आदि को दिखाकर पान - भोजन का ग्रहण ५. साधर्मिकों से अवग्रह की याचना कर बैठना २. अवग्रह (उग्गहं) अवग्रह का अर्थ है— ग्रहण करने योग्य उपकरण । यहां उन उपकरणों के लिए संकेत दिया गया है जो क्षेत्र और काल की सीमा के साथ लिए जाते हैं और सीमा पूर्ण होने पर पुन: लौटा दिए जाते हैं। उदाहरण स्वरूप साधु किसी आवास में रहता तो वह पहले आवास के अधिकारी से वहां रहने के लिए आज्ञा प्राप्त करता, फिर आवास के कितने भाग में और कितने समय तक – इन दोनों सीमाओं को स्पष्ट करता, फिर उसमें रहता। कोई आवास साधर्मिक साधुओं द्वारा पहले से याचित होता तो वह उनकी अनुमति से वहां रहता । इसी प्रकार पट्ट, घास का बिछौना आदि भी अवग्रह-विधि से व्यवहार में लाए जाते । ' १. आहारगुप्त २. अविभूषितात्मा ३. स्त्रियों के अवलोकन का वर्जन ४. स्त्रियों के संसक्त वसति का वर्जन ५. स्त्रियों की कथा का वर्जन पंचम महाव्रत की भावनाएं १. मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव २. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव ३. मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव ४. मनोज्ञ और अमनोज्ञ गंध में समभाव ५. मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव आचारांग के नौ अध्ययन हैं। उसके पांच चूलाएं हैं। उनमें से चार चुलाएं आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के रूप में संकलित हैं और पांचवीं चूला 'निशीथ सूत्र' है। चार चूलाओं के सोलह अध्ययन हैं। प्रस्तुत पाठ में 'निशीथ' विवक्षित नहीं है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल दस कप्प - ववहाराणं उद्देणकाला पण्णत्ता, तं जहा - दस दसाणं, छ कप्पस्स, दस ववहारस्स । १. छव्वीसं २६ छव्वीसइमो समवाश्रो : छब्बीसवां समवाय २. अभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहजिज्जस्स कम्मस्स छवीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तंजहा - मिच्छत्तमोहणिज्जं सोलस कसाया इत्थीवेदे पुरिसवेदे नपुंसक वेदे हासं अरति रति भयं सोगो दुगंछा । ३. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छथ्वीसं पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ४. असत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छब्वीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । ५. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइया छवीसं पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ६. सोहम्मीसाणे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं छव्वीसं पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । ७. मज्झिम- मज्झिम- गेवेज्जयाणं देवाणं जहणं छोसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । संस्कृत छाया षड्विंशतिः दशा- कल्प व्यवहाराणां उद्देशनकाला: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - दश दशानां षट् कल्पस्य, दश व्यवहारस्य । अभवसिद्धिकानां जीवानां मोहनीयस्य कर्मणः षड्विंशतिः कर्माशाः सत्कर्माणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - मिथ्यात्वमोहनीयं षोडश कषायाः स्त्रीवेदः पुरुषवेद: नपुंसकवेदः हासः अरतिः रतिः भयं शोकः जुगुप्सा । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणां षडविंशति पल्योपमा नि स्थितिः प्रज्ञप्ता । अधः सप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नैरयिकाणा षड्विंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां षड्विंशति पत्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । सौधर्मेशानयोः कल्पयोर्देवानां अस्ति एकेषां षविशति पत्योपमानि स्थिति: प्रज्ञप्ता । मध्यम - मध्यम - ग्रैवेयकाणां देवानां जघन्येन षडविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । हिन्दी अनुवाद १. दशाश्रुतस्कंध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार के छब्बीस उद्देशन - काल हैं, जैसे दशाश्रुतस्कंध के दस, कल्प के छह और व्यवहार के दस । २. अभव- सिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म के छब्बीस कर्मांश ( उत्तर प्रकृतियां ) सत्कर्म ( सत्तावस्था में ) होते हैं, जैसे - मिथ्यात्वमोहनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, अरति, रति, भय, शोक और जुगुप्सा । ३. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति छब्बीस पल्योपम की है । ४. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति छब्बीस सागरोपम की है। ५. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम की है। ६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति छब्बीस पत्योपम की है। ७. द्वितीय त्रिक की द्वितीय श्रेणी के ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम की है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १४३ समवाय २६ : सू० ८-११ ८. जे देवा मज्झिम-हेट्रिमगेवेज्जय- ये देवा मध्यम-अधस्तन-प्रैवेयक- ८. द्वितीय त्रिक की प्रथम श्रेणी के ग्रैवेयक विमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा, तेसि विमानेषु देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने णं देवाणं उक्कोसेणं छव्वीसं देवानामुत्कर्षेण षड्विंशति सागरो- वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। पमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। है. ते णं देवा छन्वीसाए अद्धमासाणं ते देवाः षडविंशत्या अर्द्ध मासै: आनन्ति आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा ऊससंति वा नीससंति वा। निःश्वसन्ति वा। ६. वे देव छब्बीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। १०. तेसि णं देवाणं छव्वीसाए तेषां देवानां षड्विंशत्या अर्द्धमास- १०. उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। ११. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये ११. कुछ भव-सिद्धिक जीव छब्बीस बार छन्वीसाए भवग्गहर्णोहं षड्विंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिन्झिस्संति बज्झिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावीसइमो समवायो : सत्ताइसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, सप्तविंशतिः अनगारगुणाः प्रज्ञप्ताः, १. मुनि के सत्ताईस गुण हैं, जैसेतंजहातद्यथा १. प्राणातिपात विरमण, २. मृषावाद विरमण, ३. अदत्तादान विरमण, पाणातिवायवेरमणे, मुसावाय- प्राणातिपातविरमणं, मृषावादविरमणं, ४. मैथुन विरमण, ५. परिग्रह विरमण, वेरमणे, अदिण्णादाणवेरमणे, अदत्तादान-विरमणं, मैथुन-विरमणं, ६. श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, ७. चक्षुइन्द्रियमेहुणवेरमणे, परिग्गहवेरमणे, परिग्रह-विरमणं, श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहः, निग्रह, ८. घ्राणेन्द्रियनिग्रह, ६. रसनेसोइंदियनिग्गहे, चक्खिदियनिग्गहे, चक्षुरिन्द्रियनिग्रहः, घ्राणेन्द्रियनिग्रहः, न्द्रियनिग्रह, १०. स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह, घाणिदियनिग्गहे, जिभिदिय- जिह्वन्द्रियनिग्रहः, स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः, ११. क्रोधविवेक, १२. मानविवेक, १३. मायाविवेक, १४. लोभविवेक, निग्गहे, फासिदियनिग्गहे, कोह- क्रोधविवेकः, मानविवेकः, मायाविवेकः, १५. भाव सत्य (अन्तरात्मा की विवेगे, माणविवेगे, मायाविवेगे, लोभविवेकः, भावसत्यं, करणसत्यं, पवित्रता), १६. करण सत्य (क्रिया को लोभविवेगे, भावसच्चे, करणसच्चे, योगसत्यं, क्षमा, विरागता, मनःसमा- सम्यक्प्रकार से करना), १७. योग जोगसच्चे, खमा, विरागता, हरणता, वचःसमाहरणता, सत्य (मन, वचन, काय! का सम्यक् मणसमाहरणता, वतिसमाहरणता, कायसमाहरणता, ज्ञानसम्पन्नता, प्रवर्तन), १८. क्षमा, १६. वैराग्य, २०. मन समाहरण (मन का संकोचन), कायसमाहरणता, णाणसंपण्णया, दर्शनसम्पन्नता, चरित्रसम्पन्नता, २१. वचन समाहरण, २२. काय समादसणसंपण्णया, चरित्तसंपण्णया, वेदनाध्यासनं, मारणान्तिकाध्यासनम् । हरण, २३. ज्ञान सम्पन्नता, २४. दर्शन वेयणअहियासणया, मारणंतिय सम्पन्नता, २५. चरित्र सम्पन्नता, अहियासणया। २६. वेदना अधिसहन और २७. मारणा न्तिक अधिसहन । २. जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहि जम्बूद्वीपे द्वीपे अभिजिद्वजैः २. जम्बूद्वीप में अभिजित् नक्षत्र को सत्तावीसए णक्खत्तेहिं संववहारे सप्तविंशत्या नक्षत्रैः संव्यवहारः वर्त्तते। छोड़कर शेष सत्ताईस नक्षत्रों से वति। व्यवहार चलता है। ३. एगमेगे णं णक्खत्तमासे सत्तावीसं एकैक: नक्षत्रमासः सप्तविंशतिः राइंदियाई राइंदियग्गेणं पण्णते। रात्रिन्दिवानि रात्रिन्दिवाण प्रज्ञप्तः । ३. प्रत्येक नक्षत्र-मास का परिमाण दिन रात की अपेक्षा से सत्ताईस दिन-रात का है। ४. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाण- सौधर्मेशानयोः कल्पयोविमानपथ्वी ४. सौधर्म और ईशानकल्प के विमानों की पूढवी सत्तावीसं जोयणसयाई सप्तविंशति योजनशतानि बाहल्येन पृथ्वी सत्ताईस सौ योजन मोटी है। बाहल्लेणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १४५ समवाय २७ : सू० ५-१४ ५. वेयगसम्मत्तबंधोवरयस्स णं वेदकसम्यक्त्वबन्धोपरतस्य मोहनीयस्य मोहणिज्जस्स कम्मस्स सत्तावीसं कर्मण: सप्तविंशतिः कर्माशा: सत्कर्माणः कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । ५. वेदक सम्यक्त्व-बंध का वियोजन' करने वाले व्यक्ति के मोहनीय कर्म के सत्ताईस कर्माश (उत्तर प्रकृतियां) सत्कर्म (सत्तावस्था में) होते हैं। ६. सावण-सुद्ध-सत्तमीए णं सूरिए श्रावण-शुद्ध-सप्तम्यां सूर्यः सप्तविंशत्यं- ६. श्रावण शुक्ला सप्तमी को सूर्य एक सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं गुलिका पौरुषीच्छायां निर्वयं दिवसक्षेत्र प्रहर की सत्ताईस अंगुल प्रमाण छाया णिवत्तइत्ता णं दिवसखेत्तं निवडढे- निवर्द्धयन रजनीक्षेत्र अभिनिवर्द्धयन निष्पन्न कर दिवस-क्षेत्र को छोटा और माणे रयणिखेतं अभिणिवड्ढेमाणे चारं चरति । रात्रि-क्षेत्र को बड़ा करता हुआ गति चारं चरइ। करता है। ७. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं एकेषां नैरयिकाणां सप्तविंशति पल्यो- पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। पमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। ८. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइ. अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां याणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरो- नैरयिकाणां सप्तविंशति सागरोपमाणि वमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ८. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। है. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां सत्तावीसं पलिओवमाई ठिई सप्तविंशति पल्योपमानि स्थितिः पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। १०. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १०. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं सत्तावीसं पलि- देवानां सप्तविंशति पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। ओवमाइं ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । १.मभिम - उवरिम - गेवेज्जयाणं मध्यम-उपरितनयिका मध्यम-उपरितन-प्रैवैयकाणां देवानां ११. द्वितीय त्रिक की तृतीय श्रेणी के वेयक नाai देवाणं जहण्णेणं सत्तावीसं जघन्येन सप्तविंशति सागरोपमाणि देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। १२. जं देवा मज्झिम-मज्झिम गेवेज्जय- ये देवा मध्यम-मध्यम-ग्रेवेयकविमानेष १२. द्वितीय त्रिक की द्वितीय श्रेणी के विमाणेस देवत्ताए उववण्णा, तेसि देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षेण वेयक विमानों में देवरूप में उत्पन्न णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावीसं सप्तविंशति सागरोपमाणि स्थिति: होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। सत्ताईस सागरोपम की है। २३. ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासाणं ते देवाः सप्तविंशत्या अर्द्धमासैः आनन्ति १३. वे देव सत्ताईस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा उक्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊसति वा नीससंति वा। निःश्वसन्ति वा। १४. तेसि णं देवाणं सत्तावीसाए तेषां देवानां सप्तविंशत्या वर्षसहस्रैराहा- १४. उन देवों के सत्ताईस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारट्ठे रार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय २७ : सू० १५ १५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १५. कुछ भव-सिद्धिक जीव सत्ताईस बार सत्तावीसाए भवग्गणेहि सिज्झि- सप्तविंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। टिप्पण १. अभिजित् नक्षत्र को छोड़कर (अभिइवज्जेहिं) उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के चौथे पाये में अभिजित् नक्षत्र का समावेश हो जाता है, अतः इसे अलग गिनने की आवश्यकता नहीं रहती। २. वियोजन (उवरय) वृत्तिकार ने यहां 'उवरय' की व्याख्या 'उव्वलय' पाठ की कल्पना कर की है। अर्थ की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यहां 'उब्बलय' पाठ होना चाहिए । आदर्शों में 'उन्वलय' पाठ प्राप्त नहीं है । वृत्तिकार के सामने भी यही कठिनाई रही है। इसका समाधान उन्होंने 'प्राकृतत्वात् उब्बलय (उद्वलक)' मानकर किया है।' यद्यपि 'उवरय' और 'उव्वलय' में रूपगत एकता नहीं है, किन्तु अर्थ की कठिनाई के कारण वृत्तिकार को ऐसा मानना पड़ा। ३. सत्ताईस कर्माश (सत्तीवीसं कम्मंसा) मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं। उनमें से एक प्रकृति (सम्यक्त्व मोहनीय) का वियोजन होने पर शेष सत्ताईस प्रकृतियां सत्ता में रहती हैं।' ४. श्रावण शुक्ला सप्तमी (सावण-सुद्ध-सत्तमीए") इसका तात्पय है कि श्रावण शुक्ला सप्तमी से दिन छोटे और रात बड़ी होने लग जाती है। आषाढ़ी पूर्णिमा को चौबीस अंगुल प्रमाण छाया का प्रहर होता है और प्रति सात दिन में एक अंगुल से कुछ अधिक छाया बढ़ती है। इस गणित से श्रावण शुक्ला सप्तमी तक तीन अंगुल से कुछ अधिक छाया बढ़ती है और उस दिन सत्ताईस अंगुल प्रमाण छाया का प्रहर होता है। यह व्यवहार की बात है। वास्तव में कर्क संक्रान्ति से सातिरेक इक्कीसवें दिन में यह सत्ताईस अंगल प्रमाण छाया का प्रहर होता है।" १. समवायांगवृत्ति, पन्न ४५॥ २. वही, पन्न १५। ३. वही, पत्र ४५। ४. वही, पत्न ४५। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अट्ठावीसइमो समवानो : अठाईसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. आचार-प्रकल्प' अठाईस प्रकार का है, जैसे १. अट्ठावीसविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते, अष्टाविंशतिविधः आचारप्रकल्प: तं जहा प्रज्ञप्तः, तद्यथा१. मासिया आरोवणा मासिक्यारोपणा २. सपंचरायमासिया आरोवणा सपञ्चरात्रमासिक्यारोपणा ३. सदसरायमासिया आरोवणा सदशरात्रमासिक्यारोपणा ४. सपण्णरसरायमासिया आरोवणा सपञ्चदशरात्रमासिक्यारोपणा ५ सवीसइरायमासिया आरोवणा सविंशतिरात्रमासिक्यारोपणा ६. सपंचवीसरायमासिया आरो- सपञ्चविंशतिरात्रमासिक्यारोपणा। १. एक मास की आरोपणा। २. एक मास पांच दिन की आरोपणा। ३. एक मास दस दिन की आरोपणा। ४. एक मास पन्द्रह दिन की आरोपणा। ५. एक मास बीस दिन की आरोपणा। ६. एक मास पचीस दिन की आरोपणा। ७. दो मास की आरोपणा। ८. दो मास पांच दिन की आरोपणा। ६. दो मास दस दिन की आरोपणा । १०. दो मास पन्द्रह दिन की आरोपणा। ७. दोमासिया आरोवणा द्विमासिक्यारोपणा ८. सपंचरायदोमासिया आरोवणा सपञ्चरात्रद्विमासिक्यारोपणा ६. सदसरायदोमासिया आरोवणा सदशरात्रद्विमासिक्यारोपणा १०. सपण्णरसरायदोमासिया सपञ्चदशरात्रद्विमासिक्यारोपणा आरोवणा ११. सवीसइरायदोमासिया आरो- सविंशतिराद्विमासिक्यारोपणा वणा १२. सपंचवीसरायदोमासिया सपञ्चविंशतिराद्विमासिक्यारोपणा। आरोवणा। ११. दो मास बीस दिन की आरोपणा। १२. दो मास पचीस दिन की आरोपणा। १३. तेमासिया आरोवणा त्रिमासिक्यारोपणा १४. सपंचरायतेमासिया आरोवणा सपञ्चरात्रत्रिमासिक्यारोपणा १५. सदसरायतेमासिया आरोवणा सदशरात्रत्रिमासिक्यारोपण १६. सपण्णरसरायतेमासिया आरो सपञ्चदशरात्रत्रिमासिक्यारोपणा वणा १७. सवीसइरायतेमासिया आरो- सविंशतिरात्रत्रिमासिक्यारोपणा वणा १५. सपंचवीसरायतेमासिया आरो- सपञ्चविंशतिरात्रिमासिक्यारोपणा। वणा १३. तीन मास की आरोपणा। १४. तीन मास पांच दिन की आरोपणा। १५. तीन मास दस दिन की आरोपणा। १६. तीन मास पन्द्रह दिन की आरोपणा। १७. तीन मास बीस दिन की आरोपणा। १८. तीन मास पचीस दिन की आरोपणा। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १४८ समवाय २८ : सू० २-३ १६. चउमासिया आरोवणा चतुर्मासिक्यारोपणा २०. सपंचरायचउमासिया आरो- सपञ्चरात्रचतुर्मासिक्यारोपणा वणा २१. सदसरायचउमासिया आरो- सदशरात्रचतुर्मासिक्यारोपणा वणा १६. चार मास की आरोपणा। २०. चार मास पांच दिन की आरोपणा। २१. चार मास दस दिन की आरोपणा। २२. चार मास पन्द्रह आरोपणा। २३. चार मास बीस दिन की आरोपणा। २४. चार मास पचीस दिन की आरोपणा। २२. सपण्णरसरायचउमासिया सपञ्चदशरात्रचतुर्मासिक्यारोपणा आरोवणा २३. सवीसइरायचउमासिया आरो- सविंशतिरात्रचतुर्मासिक्यारोपणा वणा २५. उद्घातिकी आरोपणा। २६. अनुदातिकी आरोपणा। २७. कृत्स्ना आरोपणा। २८. अकृत्स्ना आरोपणा'। इतना ही आचार-प्रकल्प है और इतना ही आचरण करने योग्य है। २४. सपंचवीसरायचउमासिया सपञ्चविंशतिरात्रचतुर्मासिक्यारोपणा। आरोवणा। २५. उग्घातिया आरोवणा उदघातिकारोपणा २६. अणुग्घातिया आरोवणा अनुद्घातिकारोपणा २७. कसिणा आरोवणा कृत्स्नारोपणा २८. अकसिणा आरोवणा अकृत्स्नारोपणाएत्ताव ताव आयारपकप्पे एत्ताव एतावान् तावदाचारप्रकल्प: एतावान् ताव आयरियव्वे। तावदाचरितव्यः । २. भवमितियाणं जीवाणं अत्थेगइ- भवसिद्धिकानां जीवानां अस्ति एकेषां याणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स मोहनीयस्य कर्मणः अष्टाविंशतिः अदावीसं कम्मंसा संतकम्मा कर्मांशाः सत्कर्माणः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- पण्णता तं जहा--- सम्मत्तवेअणिज्जं मिच्छत्तवेय- सम्यक्त्ववेदनीयं मिथ्यात्ववेदनीयं णिज्जं सम्ममिच्छत्तवेयणिज्ज सम्यग मिथ्यात्ववेदनीयं षोडश कषायाः सोलस कसाया णव णोकसाया। नव नोकषायाः । ३. आभिणिबोहियणाणे अट्ठावीसइ- आभिनिबोधिकज्ञानं अष्टाविंशतिविधं विहे पण्णत्ते, तं जहा प्रज्ञप्तम्, तद्यथासोइंदियत्थोग्गहे चक्खिदियत्थो- श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः ग्गहे घाणिदियत्थोग्गहे जिब्भि- घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः जिह्वन्द्रियार्थादियत्थोग्गहे फासिदियत्योगहे वग्रहः स्पर्शेन्द्रियार्थावग्रहः णोइंदियत्थोग्गहे। नोइन्द्रियार्थावग्रहः। सोइंदियवंजणोग्गहे पाणिदिय- श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः घ्राणेन्द्रियवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे व्यञ्जनावग्रहः जिह्वन्द्रियव्यञ्जनाफासिदियवंजणोग्गहे। वग्रहः स्पर्शेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहः । । सोतिदियईहा क्खिदियईहा श्रोत्रेन्द्रियेहा चक्षरिन्द्रियेहा घ्राणेन्द्रिधाणिदिय ईहा जिभिदियईहा येहा जिह्वन्द्रियेहा स्पर्शेन्द्रियेहा फासिदियईहा णोइंदियईहा। नोइन्द्रियेहा । २. कुछ भव-सिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म के अठाईस कर्माश (उत्तर प्रकृतियां) सत्कर्म (सत्तावस्था में) होते हैं, जैसेसम्यक्त्व वेदनीय, मिथ्यात्व वेदनीय, सम्यक्-मिथ्यात्व वेदनीय, सोलह कषाय और नौ नो-कषाय'। ३. आभिनिबोधिक ज्ञान अठाईस प्रकार का है, जैसेश्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, चक्षुइन्द्रिय अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह, नोइन्द्रिय अर्थावग्रह । श्रोत्रेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, रसनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह। श्रोत्रेन्द्रिय ईहा, चक्षुइन्द्रिय ईहा, घ्राणेन्द्रिय ईहा, रसनेन्द्रिय ईहा, स्पर्णइन्द्रिय ईहा, नोइन्द्रिय ईहा। , Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १४६ समवाय २८ : सू० ४-६ सोतिदियावाते चक्खिदियावाते श्रोत्रेन्द्रियावायः चक्षुरिन्द्रियावाय: घाणिदियावाते जिभिदियावाते घ्राणेन्द्रियावायः जिह्वन्द्रियावायः फासिदियावाते णोइंदियावाते। स्पर्शेन्द्रियावायः नोइन्द्रियावायः । श्रोत्रेन्द्रिय अवाय, चाइन्द्रिय अवाय, घ्राणेन्द्रिय अवाय, रसनेन्द्रिय अवाय, स्पर्शनेन्द्रिय अवाय, नो-इन्द्रिय अवाय । सोइंदियधारणा चक्खिदिय- श्रोत्रेन्द्रियधारणा चक्षुरिन्द्रियधारणा धारणा घाणिदियधारणा जिब्भि- ध्राणेन्द्रियधारणा न्द्रियधारणा दियधारणा फासिदियधारणा स्पर्शेन्द्रियधारणा नोइन्द्रियधारणा । णोइंदियधारणा। श्रोत्रेन्द्रिय धारणा, चक्षुइन्द्रिय धारणा, घ्राणेन्द्रिय धारणा, रसनेन्द्रिय धारणा, स्पर्शनेन्द्रिय धारणा और नो-इन्द्रिय धारणा। ४. ईसाणे णं कप्पे अदावीसं विमाणा- ईशाने कल्पे अष्टाविशीतः विमाना- वाससयसहस्सा पण्णत्ता। वासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । ४. ईशानकल्प में अठाईस लाख विमाना. वास हैं। ५. जीवे णं देवगति णिबंधमाणे जीवः देवति निबध्नन् नाम्नः कर्मणः नामस्स कम्मस्स अट्रावीसं उत्तर- अष्टाविंशति उत्तरप्रकृती: निबध्नाति, पगडीओ णिबंधति, तं जहा- तद्यथादेवगतिनामं पंचिदियजातिनामं देवगतिनाम पञ्चेन्द्रियजातिनाम बेउब्वियसरीरनाम तेययसरीर- वैक्रियशरीरनाम तेजस्कशरीरनाम नाम कम्मगसरोरनाम समचउरंस. कर्मकशरोरनाम समचतुरस्रसंस्थाननाम संठाणनामं वे उब्वियसरीरंगोवंग- वैक्रियशरीराङ्गोपाङ्गनाम वर्णनाम नाम वण्णनामं गंधनाम रसनामं गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम देवानुपूर्वीफासनामं देवाणपुग्विनामं अगरुय. नाम अगूरुकलघकनाम उपघातनाम लहयनाम उवघायनामंपराघायनाम पराघातनाम उच्छवासनाम प्रशस्तऊसासनामं पसत्थविहायगइनामं विहायोगतिनाम सनाम बादरनाम तसनामं बायरनाम पज्जत्तनामं पर्याप्तनाम प्रत्येकशरीरनाम स्थिरा. पत्तेयसरोरनामं थिराथिराणं स्थिरयोर्द्वयोरन्यतरमेकं नाम निबध्नाति, दोण्हमण्णयरं एगं नामं णिबंधइ, शुभाशुभयोर्द्वयोरन्यतरमेक नाम सुभासुभाणं दोण्हमण्णयरं एग नामं निबध्नाति, सुभगनाम सुस्वरनाम णिबंधइ, सुभगनाम सुस्सरनाम, आदेयानादेययोर्द्वयोरन्यत रमेकं नाम आएज्जअगाएज्जाणं दोण्हं निबध्नाति, यशःकीत्तिनाम निर्माणनाम। अण्णयरं एग नाम णिबंधइ, जसोकित्तिनाम निम्माणनाम। ५. देवगति का बंध करता हुआ जीव नाम कर्म की अठाईस उत्तरप्रकृतियों का बंध करता है, जैसे - देवगतिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम, वक्रियशरीरनाम, तेजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, समचतुरस्त्रसंस्थाननाम, वैक्रियशरीरअंगोपांगनाम, वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, देवानुपूर्वीनाम, अगुरुलधुनाम, उपधातनाम पराघातनाम, उच्छवासनाम, प्रशस्तविहायोगतिनाम, वसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम और अस्थिरनाम- दोनों में से एक, शुभनाम और अशुभनाम--दोनों में से एक, सुभगनाम, सुस्वरनाम, आदेवनाम और अनादेवनाम --दोनों में से एक, यश:कीत्तिनाम और निर्माणनाम । ६. एवं चेव नेरइयेवि, नाणत्तं एवं चैव नरयिकोऽपि नानात्वं अप्रशस्त अप्पसत्यविहायगइनाम हुंडसंठाण- विहायोगतिनाम हुण्डसंस्थाननाम नाम अथिरनाम दुन्भगनाम अस्थिरनाम दुर्भगनाम अशुभनाम अशुभनामं दुस्सरनाम अणादेज्ज- दुःस्वरनाम अनादेयनाम अयशःोत्तिनाम अजसोकित्तीनाम। नाम। ६. इसी प्रकार नरकगति का बंध करता हुआ जीव नामकर्म की अठाईग उत्तरप्रकृतियों का बंध करता है, जैसेनरकगतिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम, वैक्रियशरीरनाम, तेजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, हुंडकसंस्थाननाम, वैक्रियशरीरअंगोपांगनाम, वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, नरकानुपूर्वीनाम, अगुरुलधुनाम, उपधातनाम, पराधातनाम, उच्छवासनाम, अप्रशस्तविहायोगतिनाम, सनाम, बादरनाम, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय २८ : सू०७-१५ पर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, अस्थिरनाम, अशुभनाम, दुर्भगनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयशःकीर्तिनाम और निर्माणनाम । ७. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ७. इस रलप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों गया नया अटावीसं नैरयिकाणां अष्टाविंशति पल्योपमानि की स्थिति अठाईस पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ८. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ८. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिकों नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं नैरयिकाणां अष्टाविंशति सागरोपमाणि की स्थिति अठाईस पल्योपम की है। ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां ६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति अदावीसं पलिओवमाइं ठिई अष्टाविंशति पल्योपमानि स्थितिः अठाईस पल्योपम की है । पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १०. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोः देवानां १०. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओव- अस्ति एकेषां अष्टाविंशति पल्यो- की स्थिति अठाईस पल्योपम की है। माई ठिई पण्णत्ता। पमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ११ उवरिम-हेट्ठिम-गेवेज्जयाणं देवाणं उपरितन-अधस्तन-प्रैवेयकाणां देवानां ११. तृतीय त्रिक की प्रथम श्रेणी के अवेयक जहणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई जघन्येन अष्टाविंशति सागरोपमाणि देवों की जघन्य स्थिति अठाईस सागरोठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। १२. जे देवा मज्झिम-उवरिम-गेवेज्ज- ये देवा मध्यम-उपरितन-अवेयकेषु १२. द्वितीय त्रिक की तृतीय श्रेणी के वेयक एस विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, विमानेषु देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं देवानामुत्कर्षेण अष्टाविंशति देवों की उत्कृष्ट स्थिति अठाईस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १३. ते णं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं ते देवा अष्टाविंशत्या अर्द्धमासैः आनन्ति १३. वे देव अठाईस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। वा नोससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १४. तेसि णं देवाणं अट्ठावीसाए तेषां देवानां अष्टाविंशत्या अर्द्धमास- १४. उन देवों के अठाईस हजार वर्षों से वाससहस्सेहिं आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १५. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १५. कुछ भव-सिद्धिक जीव अठाईस बार अट्ठावीसाए भवग्गहहिं सिज्झि- अष्टाविंशत्या भवग्रहणः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. आचार - प्रकल्प (आयारपकप्पे ) आचार-प्रकल्प के दो अर्थ हैं - ( १ ) आचारांग का एक अध्ययन जिसे निशीथ कहा जाता है और (२) साध्वाचार का व्यवस्थापन ।' २. आरोपणा ( आरोवणा ) प्रथम तीर्थङ्कर के समय में उत्कृष्ट प्रायश्चित्त बारहमास का, मध्यम बाईस तीर्थङ्करों के काल में आठ मास का और चरम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के काल में वह छह मास का होता है। छह मास से अधिक प्रायश्चित्त नहीं होता और किसी मुनि के अनेक दोष सेवित हो जाते हैं, उनका प्रायश्चित्त छह मास से अधिक प्राप्त होता है। उस स्थिति में आरोपणा के द्वारा प्रायश्चित्त का समीकरण दिया जाता है। किसी मुनि ने ज्ञान आदि आचार के विषय में कोई अपराध किया। उसे अमुक प्रायश्चित्त दिया गया । तदन्तर उसी मुनि ने कोई दूसरा अपराध भी कर डाला, तब उस मुनि को पहले दिए गए प्रायश्चित्त में वृद्धि कर एक महीने तक वहन करने योग्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसे 'मासिकी आरोपणा' कहते हैं । पांच दिन के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला तथा एक मास के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला - ऐसे दो अपराध हो जाने पर, उस मुनि के पूर्व प्रायश्चित्त में एक मास और पांच दिन के प्रायश्चित्त की आरोपणा करना 'एक मास और पांच दिन की आरोपणा' कही जाती है। इसी प्रकार चार मास और पचीस दिन की आरोपणा की जाती है । जिस प्रायश्चित्त में उद्घात -भाग किया जाता है, उसे उद्घातिक (लघु प्रायश्चित्त ) कहा जाता है । जिस प्रायश्चित्त में अनुद्घात - भाग नहीं किया जाता, उसे अनुद्घातिक ( गुरु प्रायश्चित्त ) कहा जाता है। वर्तमान शासन में तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास की है। जिसे इस अवधि से अधिक तप प्राप्त न हो उसकी आरोपण को अपनी अवधि में परिपूर्ण होने के कारण 'कृत्स्ना आरोपणा' कहा जाता है। जिसे छह मास से अधिक तप प्राप्त हो, उसकी आरोपणा अपनी अवधि में पूर्ण नहीं होती। छह मास से अधिक तप नहीं दिया जाता । उसे उसी अवधि में समाहित करना होता है। इसलिए उसे अपूर्ण होने के कारण 'अकृत्स्ना आरोपणा' कहा जाता है। ३. नौ नो- कषाय ( णव णोकसाया ) नो- कषाय का अर्थ है -- मूल कषायों को उत्तेजित करने वाली प्रकृतियां । वे नौ हैं - ( १ ) स्त्रीवेद, (२) पुरुषवेद, (३) नपुंसकवेद, (४) हास्य, (५) अरति, (६) रति, (७) भय, (८) शोक और (६) जुगुप्सा । १. समवायांगवृत्ति, पक्ष ४६: प्राचारः प्रथमाङ्गं तस्य प्रकल्प प्रध्ययन विशेषो निशीयमित्यपराभिधानं प्राचारस्य या साध्वाचारस्य ज्ञानादि विषयस्य प्रकल्पाव्यवस्थापनमित्याचारप्रकल्पः । २. निशीथसून, माग ४, सुखबोधा व्याख्या, पृ० ४१६ । ३. समवायांगवृत्ति, पन ४६ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ एगूणतीसइमो समवायो : उनतीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगे णं एकोनविंशद्विधः पापश्रुतप्रसंगः १. पाप-श्रुत का प्रसंग (आसेवन)' पण्णते तं जहा-भोमे उप्पाए प्रज्ञप्तः, तद्यथा--भौमं उत्पातं स्वप्नं उनतीस प्रकार का है, जैसेसमिणे अंतलिक्खे अंगे सरे वंजणे अन्तरिक्षं अङ्गं स्वरं व्यञ्जनं लक्षणम् । १. भौम, २. उत्पात, ३. स्वप्न, लक्खणे। ४. अन्तरिक्ष, ५. अंग, ६. स्वर, भोमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- भौमं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-सूत्रं ७. व्यंजन, ८ लक्षण-इन आठों के सुत्ते वित्ती वत्तिए, एवं एक्केक्कं वृत्तिः वात्तिकम्, एवं एकंक त्रिविधम् । सूत्र, वृत्ति और वार्तिक-ये तीन-तीन तिविहं। प्रकार होते हैं । २५. विकथानुयोग, विकहाणुजोगे विज्जाणुजोगे विकथानुयोगः विद्यानुयोग: मंत्रानुयोगः २६. विद्यानुयोग, २७. मंत्रानुयोग, मंताणुजोगे जोगाणुजोगे अण्ण- योगानुयोगः अन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोगः । २८. योगानुयोग, २६. अन्यतीथिक प्रवृत्तानुयोग। तिथियपवत्ताणुजोगे। २. आसाढे णं मासे एकूणतोसराहंदि- आषाढ़ो मास: एकोनत्रिंशद् रात्रिन्दि- २. आषाढ़ मास दिन-रात के परिमाण से आई राइंदियग्गेणं पण्णते। वानि रात्रिन्दिवाग्रेण प्रज्ञप्तः । उनतीस दिन-रात का होता है।' ३. भद्दवए णं मासे एकगतीसराइंदि- भाद्रपदो मास: एकोनत्रिंशद् रात्रिन्- ३. भाद्रपद मास दिन-रात के परिमाण आइं राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। दिवानि रात्रिन्दिवाग्रेण प्रज्ञप्तः। से उनतीस दिन-रात का होता है। ४. कत्तिए णं मासे एकणतोसराइंदि- कात्तिको मासः एकोनत्रिंशद् रात्रिन्- ४. कार्तिक मास दिन-रात के परिमाण आई राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। दिवानि रात्रिन्दिवाग्रेण प्रज्ञप्तः। से उनतीस दिन-रात का होता है। ५. पोसे णं मासे एकूणतोसराइंदि- पौषो मासः एकोनत्रिंशद् रात्रिन्दिवानि ५. पौष मास दिन-रात के परिमाण से आइं राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। रात्रिन्दिवाग्रेण प्रज्ञप्तः। उनतीस दिन-रात का होता है। ६. फग्गुणे णं मासे एकूणतोसराइं- फाल्गुनो मासः एकोनत्रिंशद् ६. फाल्गुन मास दिन-रात के परिमाण से दिआइं राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। रात्रिनदिवानि रात्रिन्दिवाण प्रज्ञप्तः । उनतीस दिन-रात का होता है। ७. बइसाहेणं मासे एकणतीसराइंदि- वैशाखो मासः एकोनत्रिंशद् आई राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। रात्रिनदिवानि रात्रिन्दिवाग्रेण प्रज्ञप्तः । ७. वैशाख मास दिन-रात के परिमाण से उनतीस दिन-रात का होता है। ८. चंददिणे णं एगूणतोसं मुहुत्ते सातिरेगे मुहत्तग्गेणं पण्णत्ते। चन्द्रदिनं एकोनत्रिंशद्न्मुहूर्त सातिरेकं । ८. चन्द्रमास का दिन' (प्रतिपदा आदि मुहूर्ताग्रेण प्रज्ञप्तम् । तिथि) मुहूर्त परिमाण की दृष्टि से उनतीस मुहूर्त से कुछ अधिक का होता Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १५३ समवाय २६ : सू०६-१८ ६. जीवे णं पसत्यज्झवसाणउत्ते जीवः प्रशस्ताध्यवसानयुक्तः भव्यः ६. प्रशस्त अध्यवसाय वाला सम्यगदृष्टि भविए सम्मदिट्ठी तित्थकरनाम- सम्यग्दृष्टिः तीर्थकरनामसहिताः नाम्नो भविक जीव तीर्थङ्कर नामसहित नामसहियाओ नामस्स कम्मस्स णियमा कर्मण: नियमात एकोनत्रिशदूत्तर- कर्म की उनतीस प्रकृतियों' का एगणतीप्तं उत्तरपगडीओ प्रकृती: निबध्य वैमानिकेषु देवेषु निश्चित रूप से बंध कर वैमानिक निबंधित्ता बेमाणिएसु देवेसु देवत्वेन उपपद्यते । देवों में देवरूप में उत्पन्न होता है। देवत्ताए उववज्जइ। १०. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवोए अस्यां रत्नप्रभायां पथिव्यां अस्ति एकेषां १०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगणतोसं नरयिकाणां एकोनत्रिशत पल्योपमानि की स्थिति उनतीस पल्योपम की है। पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ११. अहे सत्तमाए पुढवोए अत्येगइयाणं अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ११. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नेरइयाणं एगणतीस सागरोवमाइं नैरयिकाणां एकोनत्रिशत सागरोपमाणि नैरयिकों की स्थिति उनतीस सागरोपम ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। की है। १२. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १२. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति एगूणतोसं पलिओवमाइं ठिई एकोनत्रिंशत् पल्योपमानि स्थितिः उनतीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १३. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु देवाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोः देवानां अस्ति १३. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों अत्थेगइयाणं एगणतीसं पलिओव- एकेषां एकोनत्रिंशत पल्योपमानि की स्थिति उनतीस पल्योपम की है। माइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १४. उवरिम - मज्झिम -गेवेज्जयाणं उपरितन-मध्यम-वेयकाणां देवानां १४. तृतीय त्रिक की द्वितीय श्रेणी के ग्रैवेयक देवाणं जहणणं एगणतासं सागरो- जघन्येन एकोनत्रिशत सागरोपमाणि देवों की जघन्य स्थिति उनतीस वमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १५. जे देवा उवरिम-हेटिम - गेवेज्जय- ये देवा उपरितन-अधस्तन-प्रेवेयक- १५. तृतीय त्रिक की प्रथम श्रेणी के अवेयक विमाणेसु देवताए उववण्णा, तेसि विमानेष देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले णं देवाणं उक्कासेणं एगूणतीसं देवानामुत्कर्षण एकोनत्रिशत देवों की उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १६. ते गं देवा एगगतोसाए अद्धनासेहि ते देवाः एकोनत्रिशता अर्द्धमासैः १६. वे देव उनतीस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा ऊपसंति आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। वा नीससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १७. तेसि णं देवाणं एगूणतोसाए वास- तेषां देवानां एकोनत्रिंशता वर्षसहस्र- १७. उन देवों के उनतीस हजार वर्षों से सहस्सेहिं आहारठे समुपज्जइ। राहारार्थः समुत्पद्यते।। भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। १८. संतेगइया भवसिद्धिया जोवा, सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १८. कुछ भव-सिद्धिक जीव उनतीस बार जे एगूणतीसाए भवग्गहहिं एकोनत्रिशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिज्झिस्संति बुझिस्सांति मुच्चि- भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का स्तंति परिनिव्वाइस्राति सव्व- सर्वदःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। दुक्खाणमंतं करिस्संति। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. पाप-श्रुत का प्रसंग (आसेवन) (पावसुयपसंगे) जो शास्त्र पाप या बंधन का उपादान होता है, उसे 'पापश्रुत' कहा जाता है। उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति' में 'प्रसंग' का अर्थ 'आसक्ति' और समवायांग की वृत्ति' में उसका अर्थ 'आसेवन' किया है। पापश्रुत का प्रसंग उनतीस प्रकार का है १. भौम-भूकंप आदि का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । २. उत्पात- स्वाभाविक उत्पातों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ३. स्वप्न-स्वप्न का शुभाशुभ फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ४. अन्तरिक्ष-आकाश में होने वाले ग्रह-युद्ध आदि का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ५. अंग-अंग-स्फुरण का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ६. स्वर-स्वर का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ७. व्यंजन-तिल, मसा आदि का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ८. लक्षण- शारीरिक लक्षणों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । इन आठों के तीन-तीन प्रकार होते हैं-सूत्र, वृत्ति और वात्तिक । २५. विकथानुयोग–अर्थ और काम के उपायों के प्रतिपादक ग्रन्थ । २६. विद्यानुयोग-विद्या-सिद्धि के प्रतिपादक ग्रन्थ । २७. मंत्रानुयोग-मंत्र-शास्त्र । २८. योगानुयोग-वशीकरण-शास्त्र । २६. अन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोग–अन्यतीथिकों द्वारा प्रवर्तित शास्त्र । समवायांग में पापश्रुत के जो उनतीस प्रकार बतलाए हैं, वे आवश्यकनियुक्ति की अवणि तथा उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति में उद्धृत दो गाथाओं में निर्दिष्ट उनतीस प्रकारों से भिन्न हैं। इनके आधार पर वे उनतीस प्रकार ये हैं १. दिव्य, २. उत्पात, ३. अंतरिक्ष, ४. भौम, ५. अंग, ६. स्वर, ७. लक्षण, ८. व्यंजन-इन आठों के सूत्र, वृत्ति ओर वात्तिक-ये तीन-तीन प्रकार हैं । २५. गन्धर्व, २६. नाट्य, २७. वास्तु, २८. आयुर्वेद और २६. धनुर्वेद । इन दोनों स्थलों के तुलनात्मक अध्ययन से समवायांग में निर्दिष्ट प्रकार प्राचीन प्रतीत होते हैं । अष्टांग निमित्त के प्रत्येक अंग के तीन-तीन प्रकार किए गए हैं--सूत्र, वृत्ति और वात्तिक । आवश्यकनियुक्ति की अवणि में दो गाथाएं उद्धृत हैं। उनके अनुसार अंग को छोड़कर शेष सात अंगों के सूत्र का ग्रंथमान एक हजार, वृत्ति का ग्रंथमान एक लाख और वात्तिक का ग्रंथमान एक करोड़ होता है। अंग के सूत्र का ग्रंथमान एक लाख, वृत्ति का ग्रंथमान १. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति पन्न ६१७ : पापोपादानानिब तानि पापत्र तानि, तेषु प्रसजनानि प्रसंगाः तयाविधासक्तिस्मा: पापभुतप्रसंगा:। २. समवायांगवृत्ति, पत्न ४७ : पापोपादानि तानि पापश्रुतानि, तेषां प्रसंग:-तथाजसेवनरूप: पापश्रुतप्रसंगः। ३. (क) आवश्यक नियुक्ति, पवचूर्णि, द्वितीय विभाग, पृ० १३६ : भटुनिमित्तंगाई दिन्वुप्पायंतलिक्खं भोमं च । अंग सरलक्खणवंजणं च तिविहं पुणोक्केक्कं ॥ सुत्तं वित्ती तह वित्तियं च पावसुर्य प्रउणतीसविहं । गंधवनट्टवत्थु माउं घणवेयसंजुतं ।। (4) उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति पत्र ६१७ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १५५ समवाय २६ : टिप्पण एक करोड़ और वात्तिक का ग्रंथमान अपरिमित है।' आचार्य अभयदेवसूरी ने विकथानुयोग की व्याख्या में अर्थशास्त्र के रूप में 'कामन्दक' और कामशास्त्र के रूप में वात्स्यायन के कामसूत्र 'कामशास्त्र' का उल्लेख किया है। योगानुयोग की व्याख्या में उन्होंने वशीकरण शास्त्र के रूप में 'हरमेखला' का उल्लेख किया है।' सूत्रकृतांग २/२/१८ में अनेकविध पापश्रुत अध्ययनों का निर्देश है । उनकी संख्या चौसठ है। उनमें प्रथम आठ वे ही हैं जो यहां निर्दिष्ट हैं । विशेष जानकारी के लिए देखें-सूत्रकृतांग २/२/१८ का टिप्पण। २. अन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोग (अण्णतिथियपवत्ताणुजोगे) ____ अन्यतीथिक शास्त्रों को पाप-श्रुत इसलिए नहीं माना गया कि वे 'स्व-समय' (जैनधर्म) से भिन्न विचारों के प्रतिपादक हैं, किन्तु उन्हें पाप-श्रुत इस दृष्टि से कहा गया है कि उनमें हिंसा, युद्ध आदि की प्रेरणा है। इसका फलितार्थ यह है कि जिन शास्त्रों में हिंसा आदि पापकर्म की प्रेरणा है, वे पाप-श्रुत हैं। ३. आषाढ़ (आसाढे) आषाढ़ आदि छह महीनों में कृष्णपक्ष में एक तीथि का क्षय होता है। चन्द्रमास २६.३२ दिन का होता है और ऋतमास ३० दिन का। इस प्रकार चन्द्रमास से ऋतुमास - दिन अधिक होता है। इसका फलित यह हुआ कि प्रत्येक अहोरात्र में 2 दिन चन्द्रमास में कम होता जाता है। इस प्रकार ६२ चन्द्रदिनों से ६१ अहोरात्र होते हैं। इसलिए साधिक दो महीनों में एक तिथि का क्षय होता है।' ४. चन्द्रमास का दिन (चंददिणे) ___ चन्द्रमास २४.३३ दिन का होता है । इसके २६.३२४३० मुहूर्त हुए । इसको ३० से विभाजित करने पर (२६.३२४३०५-३०) २८३३ मुहूर्त होंगे।' ५. उनतीस प्रकृतियां (एगणतोसं उत्तरपगडीओ) ___ उनतीस प्रकृतियां ये हैं-देवगतिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम, वैक्रिय द्वय-वैक्रियशरीरनाम और वैक्रियमिश्रशरीरनाम, सशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, समचतुरस्रसंस्थाननाम, वर्णनाम, गंध नाम, रसनाम, स्पर्शनाम, देवानुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, उच्छवासनाम, प्रशस्तविहायोगतिनाम, वसनोम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकनाम, स्थिरनाम और अस्थिरनाम (दोनों में से एक), शुभनाम और अशुभनाम (दोनों में से एक), सुभगनाम, सुस्वरनाम, आदेयनाम और अनादेयनाम (दोनों में से एक), यशःकीत्तिनाम और अयशःकीत्तिनाम (दोनों में से एक), निर्माणनाम और तीर्थकरनाम । १ आवश्यकनियुक्ति, प्रवचूणि, द्वितीय विभाग, पृ० १३७ः दिम्बाईण सरूवं अंगविवज्जाण होइ सत्तण्हं । सुतं सहस्सलक्खो म वित्ती तह कोहि वक्खाणं ॥ अंगस्स सयसहस्सं सुत्तं वित्ती म कोडि विन्नेमा । वक्खाणं अपरिमिनं एमेव य वत्तियं जाण ।। २ समवायांगवृत्ति, पत्र ४७ : विकयानयोग–अर्थकामोपायप्रतिपादनपराणि कामन्दकवात्स्यायनादीनि भारतादीनि शास्त्राणि वा। ३. वही, पन ४७ : योगानुयोगो-वशीकरणादियोगाभिधायकानि हरमेखलादि शास्त्राणि 1. वही, पत्र ४७, ४८। ५.बहो, पत्र ४८। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमो समवायो : तीसवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. मोहनीय-स्थान तीस हैं। जैसे--- १. जो व्यक्ति किसी त्रस प्राणी को पानी में ले जा, पैर आदि से आक्रमण कर पानी के द्वारा उसे मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १. तीसं मोहणोयठाणा पण्णता, त्रिशद मोहनीयस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तं जहा तद्यथा-- संगहणी-गाहा संग्रहणी गाथा १.जे यावि तसे पाणे, यश्चापि वसान प्राणान्, ___ वारिमझे विगाहिया। वारिमध्ये विगाह्य । उदएण कम्म मारेइ, उदकेनाक्रम्य मारयति, महामोहं पकुव्वइ ॥ प्रकरोति ॥ २. सोसावेढेण जे केई, शीर्षावेष्टेन यः कश्चिद्, आवेढेइ अभिक्खणं। आवेष्टयत्यभीक्षणम तिव्वासुभसमायारे, तीव्राशुभसमाचार:, महामोहं पकुव्वइ ॥ महामोहं प्रकरोति ॥ ३. पाणिणा संपिहित्ताणं, पाणिना संपिधाय, सोयमावरिय पाणिणं। श्रोत आवत्य प्राणिनम् । अंतोनदंतं मारेई, अन्तर्नदन्तं मारयति, महामोहं पकुव्वइ ॥ महामोहं प्रकरोति ।। जीव २. जो व्यक्ति तीव्र अशुभ समाचरणपूर्वक किसी त्रस प्राणी को गीले चमड़े की बाध से बांध कर मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ३. जो व्यक्ति अपने हाथ से किसी मनुष्य का मुंह बंद कर, उसे कमरे में रोक कर, अन्तविलाप करते हुए को मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ४. जो व्यक्ति अनेक जीवों को किसी एक स्थान में अवरुद्ध कर, अग्नि जलाकर उसके धुंए से मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ४. जायतेयं समारब्भ, ___ बहुं ओरुभिया जणं। अंतोधूमेण मारेई, __ महामोहं पकुव्वइ ॥ ५. सिस्सम्मि जे पहणइ, उत्तमंगम्मि चेयसा। विभज्ज मत्थयं फाले, महामोहं पकुव्वइ॥ जाततेजस समारभ्य बहुमवरुध्य जनम् । अन्तोधूमेन मारयति, महामोहं प्रकरोति । शीर्षे यः प्रहन्ति, उत्तमाङ्गे चेतसा । विभज्य मस्तकं पाटयति, महामोहं प्रकरोति ॥ ५. जो व्यक्ति संक्लिष्ट चित्त से किसी प्राणी के सर्वोत्तम अंग (सिर) पर प्रहार कर, उसे खंड-खंड कर फोड़ देता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ६. जो व्यक्ति प्रणिधि से (वेश बदल कर) किसी मनुष्य को विजन में फलक या डंडे से मार कर खुशी मनाता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ६. पुणो पुणो पणिहिए, हणित्ता उवहसे जणं। फलेणं अदुव दंडेणं, महामोहं पकुव्वइ ।। पुनः पुनः प्रणिधिना, हत्वोपहसेज्जनम् ।। फलेनाथवा दण्डेन, महामोहं प्रकरोति ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १५७ समवाय ३०: सू० १ ७. गूढायारी निगृहेज्जा, मायं मायाए छायए। असच्चवाई णिण्हाई, महामोहं पकुब्वइ॥ गूढाचारी निगृहेत, मायां मायया छादयेत् । असत्यवादी निह्नवी, महामोहं प्रकरोति ।। ७. जो व्यक्ति गोपनीय आचरण कर उसे छिपाता है, माया से माया को ढांकता है, असत्यवादी है, यथार्थ का अपलाप करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ८. धंसेइ जो अभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मुणा। अदवा तम कासित्ति, महामोहं पकुव्वइ॥ अदुवा तुम ध्वंसयति योऽभूतेन, अकर्म आत्मकर्मणा । अथवा त्वमकार्षीरिति. महामोह प्रकरोति ।। ८. जो व्यक्ति अपने दुराचरित कर्म का दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर आरोप करता है, अथवा किसी एक व्यक्ति के दोष का किसी दूसरे व्यक्ति पर-'तुमने यह कार्य किया था-ऐसा आरोपण करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। भाषते । 8. जाणमाणो परिसओ, सच्चामोसाणि भासइ। अज्झीणझझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वइ॥ जानानः परिषदः, सत्या-मृषा अक्षीणझञ्झः पुरुषः, महामोहं ६. जो व्यक्ति यथार्थ को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र (सत्य और मृषा) भाषा बोलता है और जो निरन्तर कलह करते रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। प्रकरोति ।। १०. अणायगस्स नयवं, दारे तस्सेव धंसिया। विउलं विक्खोभइत्ताणं, किच्चा णं पडिबाहिरं॥ अनायकस्य नयवान्, दारान् तस्यैव ध्वंसयित्वा । विपूलं विक्षोभ्य, कृत्वा प्रतिबाह्यम ।। ११. उवगसंतंपि झंपित्ता, पडिलोमाहि वहिं। भोगभोगे वियारेई, महामोहं पकुव्वइ॥ (युग्मम्) उपकसन्तमपि झम्पयित्वा, प्रतिलोमाभिर्वाग्भिः भोगभोगान् विदारयति, महामोहं प्रकरोति ।। १०. ११. जो अमात्य शासन-तंत्र में भेद डालने की प्रवृत्ति से अपने राजा को संक्षुब्ध और अधिकार से वंचित कर उसकी अर्थ-व्यवस्था (या अन्त:पुर) का ध्वंस कर देता है और जब वह अधिकार-मुक्त राजा अपेक्षा लिए सामने आता है तब प्रतिलोम वाणी द्वारा उसकी भर्त्सना करता है। इस प्रकार अपने स्वामी के विशिष्ट भोगों को विदीर्ण करने वाला महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १२. अकुमारभूए जे केई, कुमारभूएत्तहं वए। इत्थीहिँ गिद्धे वसए, महामोहं पकुव्वइ ॥ अकुमारभूतो यः कश्चित्, __ कुमारभूत इत्यहं वदेत् । स्त्रीभिर्ग द्धा वसति, महामोहं प्रकरोति ।। १२. जो व्यक्ति अकुमार-ब्रह्मचारी होते हुए भी अपने को कुमारब्रह्मचारी (बाल ब्रह्मचारी) कहता है तथा दूसरी ओर स्त्रियों में आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १३. अबंभयारी जे केई. बंभयारीत्तहं वए। गाभेव्व गवां मझे, विस्सरं नयई नदं॥ वदेत् । अब्रह्मचारी यः कश्चिद, ब्रह्मचारोत्यह गर्दभ इव गवां मध्ये, विस्वर नदति १३. १४. जो व्यक्ति अब्रह्मचारी होते हए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहता है, वह गायों के समूह में गधे की भांति रेंकता है, विस्वर नाद करता है । वह नदम् ।। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १५८ समवाय ३०: सू०१ आत्मनो ऽहितो बालो, मायामृषा बहु भाषते । स्त्रीविषयगृद्धया, महामोहं प्रकरोति।। १४. अप्पणो अहिए बाले, मायामोसं बहुं भसे। इत्थोविसयगेहीए, महामोहं पकुव्वइ॥ (युग्मम्) १५. जं निस्सिए उव्वहइ, जससाअहिमेण वा। तस्स लुम्भइ वित्तम्मि, महामोहं पकुव्वइ ॥ अज्ञानी व्यक्ति अपनी आत्मा का अहित करता है और स्त्री विषयक आसक्ति के कारण मायायुक्त मिथ्यावचन का बहुत प्रयोग कर महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १५. जो व्यक्ति राजा आदि के आश्रित होकर उसके संबंध से प्राप्त यश और सेवा का लाभ उठा कर जीविका चलाता है और उसी के धन में लुब्ध होता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। यं निश्रितमुद्वहते, यशसाधिगमेन तस्य लुभ्यति वित्ते, महामोहं वा। प्रकरोति ।। १६. ईसरेण अदुवा गामेणं, ईश्वरेणाथवा ग्रामेण, अणिस्सरे ईसरीकए। अनीश्वर ईश्वरीकृतः । तस्स संपग्गहीयस्स, तस्य संप्रगहीतस्य, सिरी अतुलमागया॥ श्रीरतुलाजगता १७. ईसादोसेण आइछे, ईर्ष्यादोषेणाविष्टः, कलुसाविलचेयसे कलुषाविलचेताः । जे अंतरायं चेएइ, योऽन्तरायं चेतयते, महामोहं पकुव्वइ ॥ महामोहं प्रकरोति ।। १८. सप्पी जहा अंडउडं, भत्तारं जो विहिंसइ। सेणावई पसत्थारं, महामोहं पकुव्वइ ॥ सी यथाण्डपुटं, भर्तारं यो विहिनस्ति । सेनापति प्रशास्तारं, महामोहं प्रकरोति ॥ १६. जे नायगं व रटुस्स, नेयारं निगमस्स वा। सेट्टि बहुरवं हंता, महामोहं पकुव्वइ॥ २०. बहुजणस्स गेयारं, दीवं ताणं च पाणिणं। एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुव्वइ ॥ यो नायकं वा राष्ट्रस्य, नेतारं वा निगमस्य । थेष्ठिनं बहुरवं हत्वा, महामोहं प्रकरोति ।। बहुजनस्य नेतारं, द्वीपं (दीपं) त्राणं च प्राणिनाम् । एतादृशं नरं हत्वा, महामोहं प्रकरोति ॥ १६. १७. ईश्वर या ग्राम (जनता) ने किसी अनीश्वर को ईश्वर बनाया। उसके द्वारा पुरस्कृत होने पर उसे अतुल वैभव प्राप्त हुआ। वह ईर्ष्यादोष से आविष्ट तथा पाप से पंकिल चित्त वाला होकर अपने भाग्यनिर्माताओं के जीवन या सम्पदा में अन्तराय डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १८. जैसे नागिन अपने अंड-पुट को खा जाती है, वैसे ही जो व्यक्ति अपने पोषण करने वाले को तथा सेनापति और प्रशास्ता' को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १६. जो व्यक्ति राष्ट्र के नायक तथा प्रचुर यशस्वी निगम-नेता श्रेष्ठी को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २०. जो व्यक्ति जन-नेता तथा प्राणियों के लिए द्वीप (आश्वासनभूत) और त्राण है, ऐसे व्यक्ति को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २१. जो व्यक्ति प्रव्रज्या के लिए उपस्थित है अथवा जो प्रतिविरत (प्रव्रजित) होकर संयत और सुतपस्वी हो गया, उन्हें बरगला कर, फुसला कर या बलात् धर्म से भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २१. उवट्टियं पडिविरयं, ___ संजयं सुतवस्सियं। वोकम्म धम्माओ भंसे, महामोहं पकुव्वइ ॥ उपस्थितं प्रतिविरत, संयतं सुतपस्विनम् । व्यपक्रम्य धर्माद ध्रसयति, महामोहं प्रकरोति ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो २२. तवा तणाणी, जिणाणं वरदंसिणं । तेस अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ २३. नेयाउअस्स मग्गस्स, दुट्ठे अवयरई बहुं । तं तिप्पयंत भावेइ, महामोहं पकुव्वइ ॥ २४. आयरियउवज्झाएहि, सुयं विजयं च गाहिए। ते चैव खिसई बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ २५. आयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पड़ । अप syre थद्धे, महामोहं पकुव्व ॥ २६. अबहुस्सुए य जे केई, सुएण सम्भायवायं वयइ, पविकत्थइ । महामोहं पकुब्वइ । २७. अतवस्सीए य जे केई, तवेण पविकत्थइ । सव्वलोयपरे तेणे, महामोहं पकुव्व ॥ २८. साहारणट्ठा जे केई, गिलाणम्म उवट्ठिए । पण कुणई किच्चं, मज्झपि से न कुब्वइ ॥ १५६ तथैवानन्तज्ञानिनां जिनानां तेषामवर्णवान् बालः, महामोह नैर्यातकस्य मार्गस्य, s तं तेवयन् भावयति, महामोहं आचार्योपाध्याययोः, आचार्योपाध्यायाभ्यां श्रुतं विनयं च ग्राहितः । तौ चैव खिसयति (निदति ) बालः, महामोहं प्रकरोति ॥ अप्रतिपूजकः स्तब्धः, महामोहं अबहुश्रुतश्च यः कश्चित्, श्रुतेन सम्यक न प्रतितर्पयति । प्रकरोति ॥ स्वाध्यायवादं वदति, महामोहं अतपस्विकश्च यः कश्चित्, तपसा सर्वलोकपरः स्तेनः, महामोहं वरदशिनाम् । प्रकरोति ॥ साधारणार्थं यः कश्चित् ग्लाने प्रभु बहु । प्रकरोति ॥ र्न करोति कृत्यं, प्रविकत्थते । प्रकरोति ॥ प्रविकत्थते । प्रकरोति ॥ उपस्थिते । ममापि स न करोति ॥ समवाय ३० सू० १ २२. जो व्यक्ति अनन्तज्ञानी और वरदर्शी अर्हतु को अवर्णवाद बोलता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है । २३. जो व्यक्ति द्वेषवश नैर्यातृक ( मोक्ष की ओर ले जाने वाले) मार्ग के बहुत प्रतिकूल चलता है तथा उसकी निन्दा के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है । २४. जिन आचार्य अथवा उपाध्याय के पास श्रुत और विनय ( चारित्र) की शिक्षा प्राप्त की, उन्हीं की निन्दा करने वाला अज्ञानी महामोहयीय कर्म का बंध करता है । २५. जो व्यक्ति आचार्य और उपाध्याय का सम्यक् प्रकार से प्रतितर्पण (सेवाशुश्रूषा) नहीं करता, उनकी पूजा नहीं करता और अभिमान करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है । २६. जो व्यक्ति अबहुश्रुत होते हुए भी श्रुत के द्वारा अपना ख्यापन करता है। तथा किसी व्यक्ति द्वारा पूछे जाने पर 'बहुश्रुत मुनि के बारे में सुना है, वे आप ही हैं ?', 'हां, मैं ही हूं, मैंने घोष - विशुद्धि का अभ्यास किया है, बहुत ग्रंथों का पारायण किया है - इस प्रकार जो स्वाध्यायवाद का निर्वाचन करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है । २७. जो व्यक्ति अतपस्वी होते हुए भी तपस्वी के रूप में अपना ख्यापन करता है, वह सबसे बड़ा चोर है। ऐसा व्यक्ति महामोहनीय कर्म का बंध करता है । २८. २६. सहकार' लेने के लिए ग्लान के उपस्थित होने पर जो समर्थ होते हुए भी 'यह मेरी सेवा नहीं करता है'इस दृष्टि से उसका कृत्य ( करणीय Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो समवाय ३० : सू०२-३ शठो निकृतिप्रज्ञानः, कलुषाकूल चेताः आत्मनश्चावोधिकः, महामोहं प्रकरोति ।। २६. सढे नियडीपण्णाणे, कलुसाउलचेयसे अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुवइ ॥ (युग्मम्) ३०. जे कहाहिगरणाई, संपउंजे पुणो पुणो। सव्वतित्थाण भेयाय, महामोहं पकुव्वइ ॥ सेवा) नहीं करता, वह शठ, मायाप्रज्ञान (छद्मग्लानवेषी), पाप से पंकिल चित्त वाला व्यक्ति दुर्लभबोधि होता है। ऐसा व्यक्ति महामोहनीय कर्म का बंध करता है। य: कथाधिकरणानि, संप्रयुङ क्ते सर्वतीर्थानां भेदाय, ___ महामोहं पुनः पुनः ।। ३०. जो व्यक्ति सर्व तीर्थों के भेद के लिए कथा और अधिकरण का बार-बार संप्रयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। प्रकरोति ॥ ३१. जे य आहम्मिए जोए, संपउंजे पुणो पुणो। सहाहे सहीहेडं, महामोहं पकुव्वइ ॥ यश्चार्मिकान् योगान्, संप्रयुङ क्ते पुनः पुनः ।। श्लाघाहेतोः सखिहेतोः, महामोहं प्रकरोति ।। ३१. जो व्यक्ति श्लाघा अथवा मित्रगण के लिए आर्मिक योग (निमित्त, वशीकरण आदि) का बार-बार संप्रयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ३२. जो व्यक्ति मानुषी अथवा पारलौकिक भोगों का अतृप्तभाव से आस्वादन करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ३२. जे य माणुस्सए भोए, यश्च मानुष्यकान् भोगान्, अदुवा पारलोइए। अथवा परलौकिकान् । तेऽतिप्पयंतो आसयइ, तेष्वतृप्यन् आस्वदते, महामोहं पकुव्वइ ॥ __ महामोहं प्रकरोति ॥ ३३. इड्डी जुई जसो वण्णो, ऋद्धिद्य तिर्यशो वर्णः, देवाणं बलवीरियं ।। देवानां बलवीर्यम् । तेसि अवण्णवं बाले, तेषामवर्णवान वाल:, महामोहं पकुव्वइ ॥ महामोहं प्रकरोति ॥ ३३. जो व्यक्ति देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का अवर्णवाद बोलता है-उनका अपलाप करता हैवह महामोहनीय कर्म का बंध करता ३४. अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे। अण्णाणि जिणपूयट्टी, महामोहं पकुव्वइ ॥ अपश्यन् पश्यामि, देवान् यक्षांश्च गुह्यकान् । अज्ञानी जिनपूजार्थी, महामोहं प्रकरोति ॥ ३४. जो अज्ञानी जिन की भांति पूजा का अर्थी होकर देव, यक्ष और गुह्यक को नहीं देखता हुआ भी कहता है कि 'मैं उन्हें देखता हूं', वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २. थेरे णं मंडियपुत्ते तीसं वासाइ स्थविर: मण्डितपुत्र: विशद् वर्षाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्ध श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे मुक्तः अन्तकृत: परिनिर्व तः सर्वदुःख- सव्वदुक्खप्पहीणे। प्रहीणः । ३. एगमेगे णं अहोरत्ते तीसं महत्ता एकैकं अहोरात्रं त्रिंशद्मुहूर्तानि मुहत्तग्गेणं पण्णत्ते। एएसि णं मुहूर्ताग्रेण प्रज्ञातम्। एतेषां त्रिंशतो तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामधेज्जा मुहुर्तानां त्रिंशन्नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा-रोद्द सेते मित्ते तद्यथा- रौद्र श्रेयान् मित्र व युः सुगत वाऊ सुपीए अभियंदे माहिदे पलंबे अभिचन्द्रः माहेन्द्रः प्रलम्ब: ब्रह्म सत्यं २. स्थविर मंडितपुत्र तीस वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ३. मुहूर्त के परिमाण से प्रत्येक अहोरात्र तीस मुहूर्त का होता है। इन तीस मुहूर्तों के तीस नाम हैं, जैसे-रौद्र, श्रेयान्, मित्र, वायु, सुपीत, अभिचन्द्र, माहेन्द्र, प्रलम्ब, ब्रह्म, सत्य, आनन्द, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। समवानो १६१ समवाय ३० : सू० ४-१२ बंमे सच्चे आणंदे विजए वीससेणे आनन्दः विजयः विश्वसेनः प्राजापत्यः विजय, विश्वसेन, प्राजापत्य, उपशम, वायावच्चे उवसमे ईसाणे तिठे उपशमः ईशानः त्वष्टा भावितात्मा ईशान, त्वष्टा, भावितात्मा, वैश्रमण, भावियप्पा वेसमणे वरुणे सतरिसमे वैश्रमणः वरुणः शतऋषभः गन्धर्वः वरुण, शतऋषभ, गन्धर्व, अग्निगंधवे अग्गिवेसायणे आतवं अग्निवश्यायनः आतप: आव्यधः तष्टप: वैश्यायन, आतप, आव्यध, तष्टप, आवधं तद्ववे भूमहे रिसभे भूमहः ऋषभः सर्वार्थ सिद्धः राक्षसः ।। भूमह, ऋषभ, सर्वार्थसिद्ध और सव्वदृसिद्धे रक्खसे। राक्षस । ४. अरे णं अरहा तीसं धणुइं उड्ढे अरः अर्हन् त्रिंशद् धनूंषि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन ४. अर्हन् अर की ऊंचाई तीस धनुष्य की उच्चत्तेणं होत्था। आसीत् । ५. सहस्सारस्स णं देविदस्स देवरण्णो सहस्रारस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य त्रिशद ५. सहस्रारकल्प के देवेन्द्र देवराज के तीस तीसं सामाणियसाहस्सीओ सामानिकसाहस्रयः प्रज्ञप्ताः । हजार समानिक देव थे। पण्णत्ताओ। ६. पासे णं अरहा तोसं वासाइं पार्श्वः अर्हन् त्रिंशद् वर्षाणि अगारमध्ये ६. अर्हन् पार्श्व तीस वर्ष तक गृहवास में अगारमझे वसित्ता (मुंडे उषित्वा (मुण्डो भूत्वा ?) अगारात् रहकर (मुंड होकर), अगार अवस्था भवित्ता ?) अगाराओ अणगारियं अनगारितां प्रव्रजितः। से अनगार अवस्था में प्रवजित हुए थे। पव्वइए। ७. समणे भगवं महावीरे तीसं श्रमणः भगवान् महावीरः त्रिशद् ७. श्रमण भगवान् महावीर तीस वर्ष तक वासाडं अगारमझे वसित्ता वर्षाणि अगारमध्ये उषित्वा गृहवास में रहकर (मुंड होकर), (मुंडे भवित्ता ?) अगाराओ भूत्वा ?) अगारात् अनगारितां अगार अवस्था से अनगार अवस्था में अणगारियं पन्वइए। प्रवजितः। प्रवजित हुए थे। ८. रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशद् निरयावास- ८. रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नरकावास निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। हैं। है. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीसं एकेषां नैरयिकाणां त्रिंशत् की स्थिति तीस पल्योपम की है। पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। मण्डो १०. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां १०. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नैरयिकों नेरइयाणं तीसं सागरोवमाइं नैरयिकाणां त्रिंशत् सागरोपमाणि की स्थिति तीस सागरोपम की है। ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ११. असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइ- असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां ११. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति याणं तीसं पलिओवमाइं ठिई त्रिशत पल्योपमानि स्थितिः तीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। (सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं (सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां (सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों अत्थेगइयाणं तीसं पलिओवमाइं देवानां त्रिशतपल्योपमानि की स्थिति तीस पल्योपम की है।) ठिई पण्णत्ता ?)। स्थितिः प्रज्ञप्ता)। १२ उवरिम - उवरिम- गेवेज्जयाणं उपरितन-उपरितन-वेयकाणां देवानां १२. तृतीय त्रिक की तृतीय श्रेणी के देवाणं जहण्णेणं तीसं सागरोवमाइं जघन्येन त्रिंशत् सागरोपमाणि ग्रंवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १६२ समवाय ३०: सू० १३-१६ १३. जे देवा उवरिम-मज्झिम-गेवेज्ज- ये देवा उपरितन-मध्यम- १३. तृतीय त्रिक की द्वितीय श्रेणी के ग्रैवेयक एसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, ग्रैवेयकेषु विमानेष देवत्वेन उपपन्नाः, विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तीसं तेषां देवानामुत्कर्षेण त्रिंशत् देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १४. ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहिं ते देवाः त्रिशता अर्द्धमासैः १४. वे देव तीस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा आनन्ति वः प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १५. तेसि णं देवाणं तीसाए तेषां देवानां त्रिंशता वर्षसहस्र- १५. उन देवों के तीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहिं आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १६. कुछ भव-सिद्धिक जीव तीस बार भवग्गहहिं त्रिशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिज्झिस्संति बुझिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। तीसाए टिप्पण १. मोहनीय स्थान तोस हैं (तीसं मोहनीय ठाणा) महामोहनीय कर्म-बन्ध के तीस कारणों का उल्लेख दशाश्रुतस्कंध (दशा-नौ) में भी हुआ है। उसमें प्रथम पांच स्थान कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं। वहां दूसरे के स्थान पर पांचवें, तीसरे के स्थान पर दुसरे, चौथे के स्थान पर तीसरे और पांचवें के स्थान पर चौथे कारण का उल्लेख है। शेष कारण समवायांग में उल्लिखित कारणों के समान ही हैं। प्रश्नव्याकरण (वृत्ति, पत्र ८६, ८७) तथा उत्तराध्ययन (वृत्ति, पत्र ६१७, ६१८) में भी महामोहनीय कर्म-बन्ध के तीस कारणों का उल्लेख है। वे दोनों प्रायः समान हैं। प्रश्नव्याकरण की वृत्ति के अनुसार वे इस प्रकार हैं १. त्रस जीवों को पानी में डुबो कर मारना। २. हाथ आदि से मुख आदि अंगों को बंद कर प्राणी को मारना। ३. सिर पर चर्म आदि बांध कर मारना। ४. मुद्गर आदि से सिर पर प्रहार कर मारना। ५. प्राणियों के लिए जो आधारभूत व्यक्ति हैं, उनको मारना । ६. सामर्थ्य होते हुए भी कलुषित भावना से ग्लान की औषधि आदि से सेवा न करना। ७. तपस्वियों को बलात् धर्म से भ्रष्ट करना। ८. दूसरों को मोक्षमार्ग से विमुख कर अपकार करना। ६. जिनदेव की निन्दा करना। १०. आचार्य आदि की निन्दा करना। ११. ज्ञान आदि से उपकृत करने वाले आचार्य आदि की सेवा-शुश्रषा नहीं करना। १२. बार-बार अधिकरण करना। १३. वशीकरण करना। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो समवाय ३० : टिप्पण १४. प्रत्याख्यात भोगों की पुनः अभिलाषा करना। १५. अबहुश्रुती होते हुए भी बार-बार अपने को बहुश्रुती बताना । १६. अतपस्वी होते हुए भी तपस्वी बताना। १७. प्राणियों को घेर, वहां अग्नि जला, धुंए की घुटन से उन्हें मारना। १८. अपने अकृत्य को दूसरों के सिर मढ़ना। १६. विविध प्रकार की माया से दूसरों को ठगना । २०. अशुभ आशय से सत्य को मृषा बताना । २१. सदा कलह करते रहना। २२. विश्वास उत्पन्न कर दूसरों के धन का अपहरण करना। २३. विश्वास उत्पन्न कर दूसरों की स्त्रियों को लुभाना। २४. अकुमार होते हुए भी अपने को कुमार कहना। २५. अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहना । २६. जिसके द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त किया, परोक्ष में उसी के धन की वांछा करना। २७. जिसके प्रभाव से कीर्ति प्राप्त की, उसी को ज्यों-त्यो अन्तराय देना। २८. राजा, सेनापति, राष्ट्रचिन्तक आदि जन-नेताओं को मारना । २६. देव-दर्शन न होते हुए भी 'मुझे देव-दर्शन होता है'-ऐसा कहना । ३०. देवों की अवज्ञा करते हुए अपने आपको देव घोषित करना। २. प्रशास्ता (पसत्थार) वत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अमात्य अथवा धर्मपाठक।' वैदिक कोश में इसका अर्थ स्तुति-पाठक है।' कौटलीय अर्थशास्त्र में इसके दो अर्थ प्राप्त होते हैं (१) कण्टक-शोधनाध्यक्ष–सामाजिक अपराध करने वालों का शोधन करने वाला। (२) आयुधशाला का अध्यक्ष । ३. निगम-नेता श्रेष्ठी (नेयारं निगमस्स वा, सेटिं) व्यापारियों के समूह को 'निगम' कहा जाता है। आज की तरह उस जमाने में भी विभिन्न वर्गों के व्यापारियों के भिन्न-भिन्न संगठन होते थे और उनका एक-एक अध्यक्ष होता था। प्राचीन भारत में शिल्पियों के संगठन को श्रेणी, व्यापारियों के संगठन को निगम और एक साथ माल लाद कर वाणिज्य करने वालों के संगठन को सार्थ कहते थे। श्रेष्ठी निगम के नेता होते थे और वे राज्य द्वारा मान्य साहूकार होते थे। इनके श्रीदेवी से अंकित एक पट्ट बंधा रहता था। ४. प्रतिकूल चलता है (अवयरई) वृत्तिकार ने 'अवयरई' का अर्थ 'अपकार करना' किया है ।' किन्तु 'अवयरई' पाठ है इसलिए इसका संस्कृत रूप हमने 'अपचरति' किया है। १. समवायांगवृत्ति, पत्न ५१ : प्रशास्तार--अमात्य अथवा धर्मपाठकं वा । २. वैदिक कोष, पृ. ३२०॥ ३ कोटलीय अर्थशास्त्र, परिशिष्ट ३, पृ० २८१, फुटनोट नं०५: कष्टकशोधनाध्यक्षः प्रायुधाध्यक्षश्च । देखो-कौटलीय अर्थशास्त्र का चौथा अधिकरण । ४. समवायांगवृत्ति, पत्र ५१ ॥ ५. वही पत्र ५२। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ६. सहकार (साहारण ) ५. स्वाध्यायवाद (सज्झायवाय) प्रस्तुत सूत्र के पाठ संस्करण में हमने 'सब्भाववयं' पाठ की सम्भावना और उसकी समीचीनता का विमर्श किया ।' उसका आधार दशाश्रुतस्कंध ( ६ / २ / २६ ) की वृत्ति में प्राप्त 'सद्भाववाद' शब्द रहा। किन्तु दशाश्रुतस्कंध की चूर्ण में 'सज्झायवाय' ( स्वाध्यायवाद) की व्याख्या मिलती है, जैसे मैं सूत्र का विशुद्ध उच्चारण करने वाला हूं' मैंने बहुत ग्रन्थों का पारायण किया है। इसलिए 'स्वाध्यायवाद' पाठ भी असमीचीन नहीं है । १६४ इसका मूल 'साहारण' शब्द है। इसके संस्कृत रूप तीन हो सकते हैं (१) संधारण - अच्छी प्रकार से धारण करना । (२) स्वाधारण - सहारा देना, उपकार करना । (३) संहरण - संकोचन । एक शब्द 'साहार' भी है, जिसका अर्थ है- सहकार या सहारा यहां 'साहारण' का अर्थ सहकार ही संगत लगता है । ७. श्लाघा ( सहाउं ) यहां श्लाघा के लिए 'सहा' शब्द प्रयुक्त है। यह मूलतः 'साहा' शब्द है । आदि के 'आकार' को ह्रस्व कर 'साहा' के स्थान पर 'सहा' का प्रयोग किया है। इस प्रकार के अन्य प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे साहा (शाखा) के स्थान पर 'सहा' का भी प्रयोग होता है । ८. अतृप्तभाव (ऽतिप्पयंतो ) यहां 'अतिप्पयंतों' का अकार 'ते' के साथ संधि होने के कारण लुप्त है । समवाय ३० : टिप्पण ६. स्थविर मंडितपुत्र ( थेरे णं मंडियपुत्ते ) वाशिष्ठ गोत्री ब्राह्मण थे । जब ये महावीर के पास छद्मस्थ तथा सोलह वर्ष तक केवली पर्याय में रहे। पूरी कर निर्वृत हुए। ये छठे गणधर थे । ' ये मगध जनपद के मौर्यं सन्निवेश के वासी थे। इनके पिता का नाम धनदेव और माता का नाम वीरदेवी था । ये दीक्षित हुए तब इनका आयुष्य ६५ वर्ष का था । ये चौदह वर्ष तक इनका पूरा श्रामण्य काल तीस वर्ष का था और ये ६५ वर्ष की आयु १. अंगसुताणि भाग १, पृ० ८७२ । २. श्रावश्यकचूर्ण, पृ० ३३८, ३३६ । १०. रौद्र राक्षस (रोद्दे रक्खसे ) सूर्यप्रज्ञप्ति ( २० / ८४ ) में ये तीस नाम निम्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं - रुद्र, श्रेयान्, मित्र, वायु, सुपीत, अभिचन्द्र, माहेन्द्र, बलवान् ब्रह्मा, बहुसत्य, ईशान, त्वष्टा, भावितात्मा, वैश्रमण, वारुण, आनन्द, विजय, विश्वसेन, प्राजापत्य, उपशम, गन्धर्व, अग्निवेश्य, शतवृषभ, आतपवान्, अमम, ऋणवान्, भौम, वृषभ, सर्वार्थ और राक्षस । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ एक्कतीसइमो समवायो : इकतीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. इक्कतोसं सिद्धाइगुणा पण्णत्ता, तं एकत्रिंशत् सिद्धादिगुणाः प्रज्ञप्ताः, १. सिद्ध के आदि-गुण' (मुक्त होने के जहातद्यथा प्रथम क्षण में होने वाले गुण) इकतीस हैं, जैसे-- खीणे आभिणिबोहियणाणावरणे क्षीणं आभिनिबोधिकज्ञानावरणं १. आभिनिबोधिक ज्ञानावरण की क्षीणता। खीणे सुयणाणावरणे क्षीणं श्रुतज्ञानावरणं २. श्रुत ज्ञानावरण की क्षीणता। खीणे ओहिणाणावरणे क्षीणं अवधिज्ञानावरणं ३. अवधि ज्ञानावरण की क्षीणता। खोणे मणपज्जवणाणावरणे क्षीणं मनःपर्यवज्ञानावरणं ४. मनःपर्यव ज्ञानावरण की क्षीणता। खोणे केवलणाणावरणे क्षीणं केवलज्ञानावरणं ५. केवल ज्ञानावरण की क्षीणता । खीणे चक्खुदसणावरणे क्षीणं चक्षुर्दर्शनावरणं ६. चक्षु दर्शनावरण की क्षीणता । खीणे अचक्खुदंसणावरणे क्षीणं अचक्षुदर्शनावरणं ७. अचक्षु दर्शनावरण की क्षीणता। खोणे ओहिदसणावरणे क्षीणं अवधिदर्शनावरणं ८. अवधि दर्शनावरण की क्षीणता । खीणे केवलदसणावरणे क्षीणं केवलदर्शनावरणं ९. केवल दर्शनावरण की क्षीणता। खीणा निद्दा क्षीणा निद्रा १०. निद्रा की क्षीणता। खीणा णिहाणिद्दा क्षीणा निद्रानिद्रा ११. निद्रा-निद्रा की क्षीणता । खीणा पयला क्षीणा प्रचला १२. प्रचला की क्षीणता। खीणा पयलापयला क्षीणा प्रचलाप्रचला १३. प्रचला-प्रचला की क्षीणता । खीणा थीणगिद्धी क्षीणा स्त्यानगृद्धिः १४. स्त्यानगृद्धि की क्षीणता। खीणे सायावेयणिज्जे क्षीणं सातवेदनीयं १५. सातवेदनीय की क्षीणता । खोणे असायावेयणिज्जे क्षीणं असातवेदनीयं १६. असातवेदनीय की क्षीणता। खोणे दंसणमोहणिज्जे क्षीणं दर्शनमोहनीयं १७. दर्शन मोहनीय की क्षीणता । खोणे चरित्तमोहणिज्जे क्षीणं चरित्रमोहनीयं १८. चरित्र मोहनीय की क्षीणता । खोणे नेरइयाउए क्षीणं नैरयिकायु: १६. नैरयिक आयुष्य की क्षीणता। खोणे तिरियाउए क्षीणं तिर्यगायुः २०. तिर्यञ्च आयुष्य की क्षीणता। खोणे मणुस्साउए क्षीणं मनुष्यायुः २१. मनुष्य आयुष्य की क्षीणता। खोणे देवाउए क्षीण देवायुः २२. देव आयुष्य की क्षीणता। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ३१ : सू० २-८ २३. उच्चगोत्र की क्षीणता। २४. नीचगोत्र की क्षीणता। २५. शुभनाम की क्षीणता। २६. अशुभनाम की क्षीणता। २७. दानान्त राय की क्षीणता। २८. लाभान्तराय की क्षीणता। २६. भोगान्तराय की क्षीणता । ३०. उपभोगान्तराय की क्षीणता। ३१. वीर्यान्त राय की क्षीणता । २. मंदर पर्वत की पृथ्वीतल पर परिधि ३१६२३ योजन से कुछ कम है। खीणे उच्चागोए क्षीणं उच्चगोत्रं खीणे नियागोए क्षीणं नीचगोत्रं खीणे सुभणामे क्षीणं शुभनाम खोणे असुभणामे क्षीणं अशुभनाम खोणे दाणंतराए क्षीणः दानान्तरायः खोणे लाभंतराए क्षीणः लाभान्तरायः खोणे भोगंतराए क्षीणः भोगान्तरायः खोणे उवभोगंतराए क्षीणः उपभोगान्तरायः खोणे वीरियंतराए। क्षीणः वीर्यान्तरायः । २. मंदरे णं पव्वए धरणितले मन्दरः पर्वतः धरणीतले एकत्रिंशद् एक्कतोसं जोयणसहस्साई छच्च योजनसहस्राणि षट् च त्रयोविंशति तेवीसे जोयणसए किंचिदेसूणे योजनशतं किञ्चिद् देशोनं परिक्षेपेण परिक्खेवेणं पण्णते। प्रज्ञप्तः । ३. जया णं सूरिए सव्वबाहिरियं यदा सूर्यः सर्वबाह्यं मण्डलं उपसंक्रम्य मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ चारं चरति तदा इहगतस्य मनुष्यस्य तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स एकत्रिंशता योजनसहस्रैः अष्टभिश्च एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहि अहि एकत्रिंशता योजनशतैः त्रिंशता षष्ठिय एक्कतीसेहि जोयणसएहि तीसाए भागैर्योजनस्य सूर्यः चक्षुःस्पर्श अर्वाग् सद्विभागेहि जोयणस्स सूरिए आगच्छति । चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। ४. अभिवड़िए णं मासे एक्कतीसं अभिवद्धितः मासः एकत्रिंशत् सातिरेगाणि राइंदियाणि सातिरेकाणि रात्रिन्दिवानि रात्रिन्दि राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। वाग्रेण प्रज्ञप्तः। ५. आइच्चे णं मासे एक्कतीसं आदित्यः मासः एकत्रिशद् राइंदियाणि किंचि विसेसूणाणि रात्रिन्दिवानि किञ्चिद् विशेषोनानि राइंदियग्गेणं पण्णते। रात्रिन्दिवाग्रेण प्रज्ञप्तः। ३. जब सूर्य सर्व-बाह्य-मंडल में उपसंक्रमण कर गति करता है तब वह भरतक्षेत्र में रहने वाले मनुष्य को ३१८३१ योजन दूर से दीख पड़ता है। ४. रात-दिन के परिमाण से अभिवद्धित मास सातिरेक इकतीस दिन-रात का होता है। ५. रात-दिन के परिमाण से आदित्यमास (सूर्यमास) कुछ-विशेष-न्यून इकतीस दिन-रात का होता है। ६. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति अत्थेगइयाणं नेरइयाणं इक्कतीसं एकेषां नैरयिकाणां एकत्रिंशत पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ ने रयिकों की स्थिति इकतीस पल्योपम की है। अहेसत्तमाए पूढवीए अत्थेगइयाणं अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां नेरयाणं इक्कतीसं सागरोवमाइं नैरयिकाणां एकत्रिश सागरोपमाणि ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ७. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कूछ नैरयिकों की स्थिति इकतीस सागरोपम की है। ८. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां इक्कतीसं पलिओवमाइं ठिई एकत्रिशत पल्योपमानि स्थितिः पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ८. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति इकतीस पल्योपम की है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १६७ समवाय ३१ : सू० ६-१४ ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं इक्कतीसं पलिओवमाई देवानां एकत्रिशत पल्योपमानि की स्थिति इकतीस पल्योपम की है। ठिई पण्णता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। मााणार १०. विजय - वेजयंत - जयंत - अपरा- विजय - वैजयन्त-जयन्त- अपराजितानां १०. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरा जियाणं देवाणं जहण्णणं इक्कतीसं देवानां जघन्येन एकत्रिशत सागरोप- जित देवों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। माणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। ११. जे देवा उवरिम-उवरिम- ये देवा उपरितन-उपरितन-वेयक- ११. तृतीय त्रिक की तृतीय श्रेणी के गेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए विमानेष देवत्वेन अपन्नाः, तेषां ग्रैवेयक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्को- देवानामुत्कर्षण एकत्रिंशत् सागरो- वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति इकतीस सेणं इक्कतीस सागरोवमाई ठिई पमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। पण्णत्ता। १२. ते णं देवा इक्कतोसाए अद्धमासाणं ते देवाः एकत्रिशता अर्द्धमासैः १२. वे देव इकतीस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । ऊससंति वा नीससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १३. तेसि णं देवाणं इक्कतीसाए तेषां देवाना एकत्रिशता वर्षसहस्र- १३. उन देवों के इकतीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १४. कुछ भव-सिद्धिक जीव इकतीस बार इक्कतोसाए भवग्गहहिं एकत्रिंशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिन्झिस्संति बुझिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिवास्यन्ति परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । टिप्पण १. सिद्ध के आदि-गुण (सिद्धाइगुणा) आदि-गण का अर्थ है-मुक्त होने के प्रथम क्षण में होने वाला गुण । इनकी उत्पत्ति में क्रम-भावित्व नहीं होता। ये सब युगपद्एकसाथ उत्पन्न होते हैं । ये सहभावी गुण हैं।' प्रस्तुत आलापक में सिद्धों के इकतीस गुणों का निर्देश है । यह निर्देश दो प्रकार से प्राप्त होता है। प्रस्तुत आगम में निर्दिष्ट इकतीस गुण आठ कर्मों के क्षय के आधार पर संगृहीत हैं १. ज्ञानावरण कर्म के क्षय से निष्पन्न ५ (१-५) २. दर्शनावरण कर्म के क्षय से निष्पन्न ३. वेदनीय कर्म के क्षय से निष्पन्न ४. मोहनीय कर्म के क्षय से निष्पन्न (१७-१८) १.मावश्यक, प्रतिक्रमणाध्ययन, पृ० १५१ : सिद्धाणं भादीए गुणा सिद्धादिगुणा, सिद्धेहि सहभाविन इत्यर्थः । ते य अपज्जवसिया । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ३१ : टिप्पण ५. आयुष्य कर्म के क्षय से निष्पन्न ६. गोत्र कर्म के क्षय से निष्पन्न ७. नाम कर्म के क्षय से निष्पन्न ८. अन्तराय कर्म के क्षय से निष्पन्न (१६-२२) (२३-२४) (२५-२६) (२७-३१) दूसरा प्रकार संस्थान, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श तथा वेद के आधार पर इकतीस गुणों का विभाजन इस प्रकार है१. संस्थान के पांच-न परिमंडल, न वृत्त, न त्रिकोण, न चतुष्कोण और न आयत । २. वर्ण के पांच-न कृष्ण, न नील, न लाल, न पीत और न शुक्ल । ३. गंध के दो-न सुगंध और न दुर्गन्ध । ४. रस के पांच-न तिक्त, न कट, न कषाय, न अम्ल और न मधुर । ५. स्पर्श के आठ-न ककर्श, न मृदु, न गुरु, न लघु, न शीत, न उष्ण, न स्निग्ध और न रूक्ष । ६. वेद के तीन-न स्त्रीवेद, न पुरुष वेद, न नपुंसक वेद । ७. न शरीरवान्, न जन्मधर्मा और न लेपयुक्त ।। आत्मा की स्वरूप-व्याख्या में ये गुण आचारांग में भी निर्दिष्ट हैं। २. जब सूर्य... 'दोख पड़ता है (जया णं सूरिए ... हव्वमागच्छइ) : सूर्य के १४८ मंडल होते हैं। मंडल का अर्थ है-ज्योतिष-चक्र का मार्ग या कक्ष। जम्बूद्वीप में १८० योजन में ६५ मंडल हैं और लवणसमुद्र में ३३० योजन में ११६ मंडल हैं। उनमें सर्व-बाह्य अर्थात् समुद्र में रहे हुए मंडलों में अन्तिम मंडल का आयाम-विष्कंभ १००६६० योजन है। गोलाकार के रूप में उसकी परिधि ३१८३१५ योजन होती है। सूर्य इतने क्षेत्र का अवगाहन दो दिन-रात में करता है अर्थात् ६० मुहत्तों में सूर्य ३१८३१५ योजन क्षेत्र को पार करता है। इसके अनुसार एक मुहूर्त में वह ५३०५१३ योजन क्षेत्र को पार करता है। जब सूर्य सर्व-बाह्य-मंडल में होता है, तब दिन बारह मुहूर्त का होता है। आधे दिन के छह मुहूर्त होते हैं । ५३०५१५ को छह से गुणित करने पर दीखने का गतिप्रमाण प्राप्त होता है। वह ३१८३१-१ योजन होता है। अर्थात् सूर्य जब इतना दूर होता है, तब भरतक्षेत्र में रहने वाला मनुष्य उसे देख सकता है ।' ३. अभिवद्धित मास .." (अभिवड्डिए णं मासे...)। जिस वर्ष में अधिक मास होता है, उसे अभिवद्धित वर्ष कहते हैं। उसके ३८३४४ दिन होते हैं अथवा तेरह चन्द्रमास होते हैं। एक-एक चन्द्रमास २९ ३२ दिन का होता है। सातिरेक का अर्थ है-एक अहोरात्र का १२१ भाग १२४ अधिक। ४. आदित्य मास.....(आइच्चे णं मासे......): सूर्य जितने समय में एक राशि का भोग करता है, उतने समय को एक आदित्य-मास कहते हैं। कुछ विशेष-न्यून का अर्थ है-अर्द्ध अहोरात्र जितना न्यून ।' १. अावश्यक, प्रतिक्रमणाध्ययन, पृष्ठ १५१, १५२ । २. आयारो ५/१२७-१३४ । ३. समवायांगवृत्ति, पत्र ५३, ५४ । ४. वही, पन ५४। ५. बही. पत्र ५४। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमो समवायो : बत्तीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. बत्तीसं जोगसंगहा पण्णत्ता, तं द्वात्रिंशत् योगसंग्रहाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा जहासंगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. आलोयणा निरवलावे, आलोचना निरपलाप:, आवईसु दढधम्मया। आपत्सु दृढधर्मता । अणिस्सिओवहाणे य, अनिश्रितोपधानश्च, सिक्खा निप्पडिकम्मया। शिक्षा निष्प्रतिकर्मता। २. अण्णातता अलोभे य, अज्ञातता अलोभश्च, तितिक्खा अज्जवे सुतो। तितिक्षा आर्जवं शुचिः । सम्मदिट्ठी समाही य, सम्यग्दृष्टि: समाधिश्च, आयारे विणओवए॥ आचारः विनयोपगः ।। ३. धिईमई य संवेगे, धृतिमतिश्च संवेगः, पणिही सुविहि संवरे। प्रणिधिः सुविधिः संवरः । अत्तदोसोवसंहारे, आत्मदोषोपसंहारः, सव्वकामविरत्तया ॥ सर्वकामविरक्तता ॥ ४. पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, प्रत्याख्यानं व्युत्सर्ग:, अप्पमादे लवालवे। अप्रमादः लवालवः । झाणसंवरजोगे य, ध्यानसंवरयोगश्च, उदए मारणंतिए ॥ उदये मारणान्तिके ॥ ५. संगाणं च परिणा, संगानां च परिज्ञा, पायच्छित्तकरणेत्ति या प्रायश्चित्तकरणमिति च । आराहणा य मरणंते, आराधना च मरणान्ते, बत्तीसं जोगसंगहा ॥ द्वात्रिंशद् योगसंग्रहाः ॥ १. योग-संग्रह' बत्तीस हैं, जैसे १. आलोचना २. निरपलाप ३. आपत्काल में दृढ़धर्मता ४. अनिश्रितोपधान ५. शिक्षा ६. निष्प्रतिकर्मता ७. अज्ञातता ८. अलोभ ६. तितिक्षा १०. आर्जव ११. शुचि १२. सम्यग्दृष्टि १३. समाधि १४. आचार १५. विनयोपग १६. धृतिमति १७. संवेग १८. प्रणिधि १६. सुविधि २०. संवर २१. आत्मदोषोपसंहार २२. सर्वकामविरक्तता २३. प्रत्याख्यान २४. प्रत्याख्यान २५. व्युत्सर्ग २६. अप्रमाद २७. लवालव २८. ध्यानसंवरयोग २६. मारणान्तिक उदय ३०. संग-परिज्ञा ३१. प्रायश्चित्तकरण ३२. मारणान्तिक आराधना Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १७० समवाय ३२ : सू० २-११ २. बत्तीसं देविदा पण्णत्ता, तं जहा- द्वात्रिंशद् देवेन्द्रा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २. देवेन्द्र बत्तीस हैं, जैसेचमरे बली धरणे भूयाणंदे वेणुदेवे चमरः बली धरणः भूतानन्द: वेणुदेवः भवनपति देवों के बीस इन्द्र---चमर, बली, धरण, भूतानन्द, वेणुदेव, वेणुदालो हरि हरिस्सहे अग्गिसिहे वेणदाली हरिः हरिस्सहः अग्निशिख: वेणुदाली, हरि, हरिस्सह, अग्निशिख, अग्गिमाणवे पुन्ने विसिठे जलकंते अग्निमाणवः पूर्णः विशिष्टः जलकान्तः अग्निमाणव, पूर्ण, विशिष्ट, जलकान्त, जलप्पभे अमियगतो अमितवाहणे जलप्रभः अमितगतिः अमितवाहनः जलप्रभ, अमित गति, अमितवाहन, वेलंबे पभंजणे घोसे महाघोसे वैलम्बः प्रभंजनः घोषः महाघोषः वैलंब, प्रभंजन, घोष और महाघोष । चंदे सूरे सक्के ईसाणे सणंकुमारे चन्द्रः सूरः शक्रः ईशानः सनत्कुमारः ज्योतिषी देवों के दो इन्द्र-चन्द्र और सूर्य । माहिदे बंभे लंतए महासुक्के माहेन्द्रः ब्रह्मः लान्तकः महाशुक्रः वैमानिक देवों के दस इन्द्र-शक्र, सहस्सारे पाणए अच्चुए। सहस्रार: प्राणतः अच्युतः । ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, प्राणत और अच्युत । ३. कथस्स गं अरहओ बत्तोसहिया कुन्थोः अर्हत्: द्वात्रिंशदधिकानि ३. अर्हत् कुन्थ के ३२३२ केवली थे । बत्तीसं जिणसया होत्था। द्वात्रिंशद जिनशतानि आसन् । ४. सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणा- सौधर्मे कल्पे द्वात्रिंशद विमानावास- ४. सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान हैं । वाससयसहस्सा पण्णत्ता। शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । ५. रेवइणक्खत्ते बत्तीसइतारे रेवतीनक्षत्रं द्वात्रिंशत्तारं प्रज्ञप्तम्। ५. रेवती नक्षत्र के बत्तीस तारे हैं । पण्णत्ते। ६. बत्तीसतिविहे णट्टे पण्णत्ते। द्वात्रिंशद् विधं नाट्य प्रज्ञप्तम्। ६. नाट्य बत्तीस प्रकार का है। ७. इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति ७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं एकेषां नरयिकाणांद्वात्रिंशत् की स्थिति बत्तीस पल्योपम की है। पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ८. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइ- अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ८. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ याणं नेरइयाणं बत्तीसं नैरयिकाणां द्वात्रिंशत् सागरोपमाणि नरयिकों की स्थिति बत्तीस सागरोपम सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। की है। है. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां ६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति बत्तीस पलिओवमाई ठिई द्वात्रिंशत् पल्योपमानि स्थितिः बत्तीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १०. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं सौधर्मशानयोः कल्पयोः देवानां अस्ति १०. सीधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों एकेषां द्वात्रिंशत् पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति बत्तीस पल्योपम की है । ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ११. जे देवा विजय - वेजयंत - जयंत- ये देवा विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपरा- ११. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरा अपराजियविमाणेसु देवत्ताए जितविमानेष देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां जित विमानों में देवरूप में उत्पन्न उबवण्णा, तेसि णं देवाणं अत्थेगइ- देवानां अस्ति एकेषां द्वात्रिंशत् सागरो- होने वाले कुछ देवों की स्थिति बत्तीस याणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। पण्णत्ता। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १७१ १२. ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहि ते देवा: द्वात्रिंशता अर्द्धमासै: आनन्ति आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा ऊससंति वा नीससंति वा । निःश्वसन्ति वा । १३. तेसि णं देवाणं बत्तीसाए वाससहस्सेहि आहार समुप्पज्जइ । १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे बत्तीसाए भवग्गहणेह सिज्झि स्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । करिस्सति । तेषां देवानां द्वात्रिशता वर्षसहस- १३. उन देवों के बत्तीस हजार वर्षों से राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये द्वात्रिंशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति टिप्पण १. योग-संग्रह बत्तीस हैं (बत्तीस जोगसंगहा पण्णत्ता ) जैन परंपरा में 'योग' शब्द मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होता है । प्रस्तुत प्रसंग में 'योग' शब्द समाधि का वाचक है। यहां जिन बत्तीस योगों का संग्रहण किया है, वे सब समाधि के कारणभूत हैं । इसे हम 'समाधि सूत्र' भी कह सकते हैं । उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में इनमें से अनेक सूत्रों का उल्लेख है, जैसे - संवेग, अनुप्रेक्षा, आलोचना, तितिक्षा, आर्जव, योग- प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संवर, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, अलोभ आदि सूत्र अर्थबोध तथा तात्पर्य की दृष्टि से अवश्य द्रष्टव्य हैं । बत्तीस योग-संग्रह ये हैं १. आलोचना - अपने प्रमाद का निवेदन करना । २. निरपलाप - आलोचित प्रमाद का अप्रकटीकरण । समवाय ३२ : सू० १२-१४ १२. वे देव बत्तीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । ३. आपत्काल में दृढधर्मता - किसी भी प्रकार की आपत्ति में दृढधर्मी बने रहना । ४. अनिश्रितोपधान दूसरों की सहायता लिए बिना तपः कर्म करना । ५. शिक्षा-सूत्रार्थ का पठन-पाठन तथा क्रिया का आचरण । ६. निष्प्रतिकर्मता - शरीर की सार-संभाल या चिकित्सा का वर्जन । १४. कुछ भव-सिद्धिक जीव बत्तीस बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ७. अज्ञातता - अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन या प्रख्यापन नहीं करना । ८. अलोभ निर्लोभता का अभ्यास करना । ११. शुचि - पवित्रता, सत्य, संयम आदि का आचरण । १२. सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दर्शन की शुद्धि । १३. समाधि - चित्त - स्वास्थ्य | ६. तितिक्षा - कष्ट - सहिष्णुता, परीसहों पर विजय पाने का अभ्यास करना । १०. आर्जव - सरलता । १६. धृतिमति-धैर्ययुक्त बुद्धि, अदीनता । १७. संवेग संसार - वैराग्य अथवा मोक्ष की अभिलाषा । १४. आचार - आचार का सम्यक् प्रकार से पालन करना, उसमें माया न करना । १५. विनयोपग - विनम्र होना, अभिमान न करना । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १८. प्रणिधि - अध्यवसाय की एकाग्रता । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'मायाशल्य' किया है और उसका आचरण न करने का निर्देश दिया है।' आवश्यकवृत्ति में भी 'ही' का अर्थ माया किया है और उसे न करने की बात कही है। किन्तु दशवैकालिक ( ८ / १ ) के 'आयारपणिहि लद्ध” – इस वाक्य के संदर्भ में 'पणिहि' - प्रणिधान का अर्थ चित्त की निर्मलता या समाधि होना चाहिए। अवधान, समाधान और प्रणिधान – ये तीनों समाधि के पर्यायवाची शब्द हैं । राग-द्वेष-मुक्त भाव में चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास प्रणिधि है | इसके दो भेद होते हैं - दुष्प्रणिधि और सुप्रणिधि' । यहां सुप्रणिधि विवक्षित है । १७२ १९. सुविधि - सद् अनुष्ठान । २०. संवर-- आस्रवों का निरोध । २१. आत्मदोषोपसंहार - अपने दोषों का उपसंहरण । २२. सर्वकामविरक्तता - समस्त विषयों से विमुखता । २३. प्रत्याख्यान - मूलगुण विषयक त्याग । २४. प्रत्याख्यान - उत्तरगुण विषयक त्याग । २५. व्युत्सर्ग— शरीर, भक्तपान, उपधि तथा कषाय का विसर्जन । २६. अप्रमाद - प्रमाद का वर्जन । २७. लवालव -- सामाचारी के पालन में सतत जागरूक रहना । 'लव' शब्द कालवाची है । इसका अर्थ है - क्षण । 'लवालव' अर्थात् प्रतिक्षण अप्रमाद की साधना करना । यथालंदक मुनि निरंतर अप्रमाद की साधना करते हैं । वे क्षणभर के लिए भी प्रमाद नहीं करते और यदि कभी प्रमाद आ जाता है तो उसका तत्काल प्रायश्चित्त कर लेते हैं । २८. ध्यानसंवरयोग - महाप्राण ध्यान की साधना करना । आवश्यक नियुक्ति में 'झाणसंवरयोग' का अर्थ 'सूक्ष्म ध्यान किया है।' अवचूर्णिकार ने इसको समझाने के लिए एक घटना का उल्लेख किया है - 'सिम्बवर्द्धनपुर में मुडम्बिक ( मुण्डिकाक ) नाम का राजा राज्य करता था । आचार्य पुष्यभूति ने उसे श्रावक बनाया। उनका बहुश्रुत गीतार्थ शिष्य पुष्यमित्र खिन्न होकर कहीं अन्यत्र विहरण करने लगा । समीप आने वाले शिष्य अगीतार्थ थे । आचार्य ने एक बार पुष्यमित्र को बुला भेजा और सारी जानकारी दे 'सूक्ष्म ध्यान' की साधना में संलग्न हो गए । वे एक कमरे के भीतर निश्चेष्ट अवस्था में मृतवत् लेटे हुए थे । पुष्यमित्र द्वार पर बैठा रहता था। कमरे में प्रवेश निषिद्ध था। एक बार एक शिष्य ने छिपकर कमरे के भीतर झांका और उसने देखा कि आचार्य भूमि पर निश्चेष्ट पड़े हैं। उसने अन्य साधर्मिक साधुओं से कहा - आचार्य दिवंगत हो गए हैं। यह संवाद राजा तक जा पहुंचा । वह आचार्य का परम श्रद्धालु श्रावक था । उसने वहां आकर पूछताछ की। पुष्यमित्र ने सारी बात बताते हुए कहा कि आचार्य ध्यान संलग्न हैं, मृत नहीं। किसी ने भी उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। अनेक शिष्यों ने कहा'पुष्यमित्र सर्व - लक्षण - संपन्न आचार्य के देह से वेताल को साध रहा है।' सबको यह बात यथार्थ लगी । आचार्य के मृतदेह को श्मशान ले जाने के लिए शिविका तैयार की गई । पुष्यमित्र कमरे के भीतर गया और आचार्य के द्वारा पूर्व संकेतित अंगुष्ठ को दबाया । आचार्य सचेत हुए और बोले - 'आर्य ! तुमने मेरे ध्यान में व्याघात क्यों डाला ?' उसने शिष्यों द्वारा प्रचारित बात उन्हें कह सुनाई । ' २६. मारणांतिक उदय - मारणांतिक वेदना का उदय होने पर भी क्षुब्ध न होना, शांत और प्रसन्न रहना । ३०. संग- परिज्ञा- आसक्ति का त्याग । १. समवायांगवृत्ति, पत्र ५५ : पणिहि त्तिप्रणिधि: --- मायाशल्यं न कार्यमित्यर्थः । ३१. प्रायश्चित्तकरण - दोष-विशुद्धि का अनुष्ठान करना । ३२. मारणांतिक आराधना - मृत्यु-काल में आराधना करना । २. श्रावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११६ : पणिहि त्तिप्रणिधिस्त्याज्या, माया न कार्येत्यर्थः । ३. देखें - ठाणं ४ / १०४ १०६ । ४. धावश्यकनियुक्ति, गा० १३३१, भवचूर्णि द्वितीय विभाग, पू० १५९ । ५. मावश्यकनियुक्ति, भवचूर्णि द्वितीय विभाग, पृ० १५६, समवाय ३२ : टिप्पण Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १७३ समवाय ३२ : टिप्पण २. देवेन्द्र बत्तीस हैं (बत्तीसं देविदा) यद्यपि देवेन्द्र चौसठ होते हैं, किन्तु यह बत्तीसवां समवाय है अत: बत्तीस की संख्या का नियमन होने के कारण यहां बत्तीस देवेन्द्रों के नामों का प्रज्ञापन किया गया है। वृत्तिकार के अनुसार सोलह व्यन्तर इन्द्र और आणपण्णीक इन्द्र-ये बत्तीस अल्प ऋद्धि वाले देवेन्द्र होते हैं । प्रस्तुत विभाजन में बत्तीस महद्धिक देवेन्द्र विवक्षित हैं।' ३. नाट्य बत्तीस (बत्तीसतिविहे गट्टे) प्रस्तुत सूत्र में नाट्यों का नामोल्लेख नहीं है । उनकी जानकारी के लिए देखें-'रायपसेणइय सुत्त' (सूत्र ६९-११३)। वृत्तिकार ने पक्षान्तर का उल्लेख करते हुए लिखा है, जिस नाट्य में बत्तीस पात्र हों वैसा नाट्य । १. समवायांगवत्ति, पत्र ५५॥ २. वही, पत्र ५५। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमो समवायो : तेतीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. तेत्तीसं आसायणाओ पण्णत्ताओ, त्रयस्त्रिशदाशात (द)नाः प्रज्ञप्ताः, १. आशातनाएं तेतीस' हैं, जैसेतं जहा तद्यथा१. सेहे राइणियस्स आसन्नं गंता शैक्षः रानिकस्य आसन्नं गन्ता १. शैक्ष रात्निक (पर्याय-ज्येष्ठ) मुनि भवइ-आसायणा सेहस्स। भवति-आशातना शैक्षस्य । से सटकर चलता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २. सेहे राइणियस्स पुरओ गंता शैक्षः रात्निकस्य पुरतो गन्ता भवति-- २. शैक्ष रानिक मुनि से आगे चलता भवइ-आसायणा सेहस्स। आशातना शैक्षस्य। है, यह शैक्षकृत आशातना है। ३. सेहे राइणियस्स सपक्खं गंता शैक्षः रालिकस्य सपक्षं गन्ता भवति-- ३. शैक्ष रानिक मुनि के समपार्श्व भवइ-आसायणा सेहस्स। आशातना शैक्षस्य । (बराबर) चलता है, यह शैक्षकृत आशातना है। ४. सेहे राइणियस्स आसन्नं शक्षः रानिकस्य आसन्नं स्थाता ४. शैक्ष रानिक मुनि से सटकर खड़ा ठिच्चा भवइ-आसायणा भवति-आशातना शैक्षस्य । रहता है, यह शैक्षकृत आशातना है। सेहस्स। ५. सेहे राइणियस्स पुरओ ठिच्चा शैक्षः रात्निकस्य पुरतः स्थाता । ५. शैक्ष रानिक मुनि के आगे खड़ा भवइ-आसायणा सेहस्स। भवति-आशातना शैक्षस्य । रहता है, यह शैक्षकृत आशातना है। ६. सेहे राइणियस्स सपक्खं ठिच्चा शैक्षः रात्निकस्य सपक्षं स्थाता भवति- ६. शैक्ष रालिक मुनि के समपार्श्व में भवइ-आसायणा सेहस्स। आशातना शैक्षस्य । खड़ा रहता है, यह शैक्षकृत आशातना ७. शैक्ष रानिक मुनि से सटकर बैठता है, यह शैक्षकृत आशातना है। ७. सेहे राइणियस्स आसन्नं शैक्षः रात्निकस्य आसन्नं निषत्ता निसीइत्ता भवइ-आसायणा भबति-आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। ८. सेहे राइणियस्स पुरओ शक्षः रात्निकस्य पुरतः निषत्ता निसीइत्ता भवइ-आसायणा भवति-आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। ८. शैक्ष रालिक मुनि के आगे बैठता है, यह शैक्षकृत आशातना है। है. सेहे राइणियस्त सपक्खं शैक्षः रात्निकस्य सपक्षं निषत्ता निसीइत्ता भवइ-आसायणा भवति--आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। ६. शैक्ष रात्निक मुनि के समपार्श्व में बैठता है, यह शैक्षकृत आशातना है । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओ १७५ समवाय ३३ : सू०१ १०. सेहे राइणिएण सद्धि बहिया शैक्षः रात्निकेन सार्द्ध बहिस्तात् । वियारभूमि निक्खंते समाणे विचारभूमि निष्क्रान्तः सन् पूर्वमेव । पुवामेव सोहतराए आयामेइ शैक्षतरः आचमति, पश्चाद् रात्निकःपच्छा राइणिए- आसायणा आशातना शैक्षस्य । सहस्स। १०. रात्निक मुनि के साथ बाह्यविचार-भूमि (शौच-भूमि) जाने पर शैक्ष पहले आचमन (शौच) करता है और रानिक उसके पश्चात्, यह शैक्षकृत आशातना है। ११. सेहे राइणिएण सद्धि बहिया शैक्षः रानिकेन सार्द्ध बहिस्तात् विहारभूमि वा वियारभूमि वा विहारभूमि वा विचारभूमि वा निक्खंते समाणे तत्थ पुत्वामेव निष्कान्तः सन् तत्र पूर्वमेव शैक्षतर: सेहतराए आलोएति, पच्छा आलोचयति, पश्चाद रात्निक:राइणिए-आसायणा सेहस्स। आशातना शैक्षस्य । ११. रात्निक मुनि के साथ बाह्यविहार भूमि (स्वाध्याय-भूमि) और विचार-भूमि जाने पर शैक्ष पहले गमनागमन विषयक आलोचना करता है और रात्निक उसके पश्चात्, यह शैक्षकृत आशातना है। १२. सेहे राइणियस्स रातो वा शैक्षः रात्निकस्य रात्रौ वा विकाले वा वियाले वा वाहरमाणस्स अज्जो व्याहरमाणस्य आर्य ! क: सुप्तः ? क: के सुत्ते ? के जागरे ? तत्थ सेहे जागृतः ? तत्र शैक्षः जाग्रत् रात्निकस्य जागरमाणे राइणियस्स अपडिसु- अप्रतिश्रोता भवति-आशातना णेत्ता भवति-आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य । १२. रात्री या विकाल में रात्निक मुनि द्वारा यह पूछे जाने पर-"आर्य ! कौन सो रहा है और कौन जाग रहा है ?" शैक्ष जागता हुआ भी उसके प्रश्न को सुना-अनसुना कर देता है, यह शैक्षकृत आशातना है। १३. केइ राइणियस्स पुव्वं कश्चिद् रात्निकस्य पूर्वं संलपितुं स्यात्, संलवित्तए सिया, तं हे पुव्वत- तत् शैक्षः पूर्वतरकं आलपति, पश्चाद् रागं आलवेति, पच्छा राइणिए- रात्निकः-आशातना शैक्षस्य । आसायणा सेहस्स। १३. रात्निक को किसी से कोई बात कहनी है, यह बात शैक्ष पहले ही उससे कह देता है, यह शैक्षकृत आशातना है। १४. सेहे असणं वा पाणं वा शैक्षः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता स्वाद्य वा प्रतिगृह्य तत् पूर्वमेव शैक्षतरतं पुत्वमेव सेहतरागस्स आलोएइ, कस्य आलोचयति, पश्चाद् पच्छा राइणियस्स-आसायणा रानिकस्य-आशातना शैक्षस्य।। सेहस्स। १४. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाध लाकर पहले शैक्षतर के सामने उसकी आलोचना (निवेदन) करता है, फिर रानिक मुनि के सामने, यह शैक्षकृत आशातना है। १५. सेहे असणं वा पाणं वा शैक्षः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता वा प्रतिगृह्य तत् पूर्वमेव शैक्षतरकस्य । तं पुत्वमेव सेहतरागस्स उवदंसेति, उपदर्शयति, पश्चाद् रानिकस्य-.. पच्छा राइणियस्स-आसायणा आशातना शक्षस्य । सेहस्स। १५. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर पहले शैक्षतर को दिखाता है, फिर रात्निक को, यह शैक्षकृत आशातना है। १६. सेहे असणं वा पाणं वा शैक्षः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता वा प्रतिगृह्य तत् पूर्वमेव शैक्षतरकं तं पुव्वमेव सेहतरागं उवणिमंतेइ, उपनिमंत्रयति, पश्चाद् रात्निकम्-- पच्छा राइणियं आसायणा आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। १६. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर पहले शैक्षतर को निमंत्रित करता है, फिर रात्निक को, यह शैक्षकृत्त आशातना है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १७६ समवाय ३३ : सू०१ १७. सेहे राइणिएण सद्धि असणं शैक्षः रात्निकेन सार्द्ध अशनं वा पानं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगह्य तद पडिगाहेत्ता तं राइणियं अणा- रात्निकं अनापृच्छ्य यस्मै यस्मै पुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्स- इच्छति तस्मै तस्मै ‘खद्धं-खद्धं' (प्रचुरं- । तस्स खद्धं-खद्धं दलयइ- प्रचुरं) ददाति --- आशातना शैक्षस्य। आसायणा सेहस्स। १७. शैक्ष रानिक मुनि के साथ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर, रात्निक मुनि के पूछे बिना ही, जिसजिस को देना चाहता है उस-उस को वह आहार प्रचुर मात्रा में देता है, यह शक्षकृत आशातना है। १८. सेहे असणं वा पाणं वा शैक्षः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं खाइम वा साइमं वा पडिगाहेत्ता वा प्रतिगृह्य रात्निकेन सार्द्ध आहरन् राइणिएण सद्धि आहरेमाणे तत्थ तत्र शैक्षः ‘खद्धं-खद्धं' (प्रचुरं-प्रचुरं) सेहे खद्धं-खद्धं डायं-डायं ऊसढं- 'डायं-डाय' (पत्रशाकं-पत्रशाक) ऊसढं रसितं-रसितं मणण्णं-मणणं उच्छ्रितं-उच्छितं रसितं-रसित मनोज्ञमणाम-मणामं निद्धं-निद्धं लक्खं- मनोज्ञं मनआपं-मनआपं स्निग्ध-स्निग्धं लुक्खं आहरेत्ता भवइ- रूक्ष-रूक्षं आहर्ता भवति-आशातना आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य । १८. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर रानिक मुनि के साथ खाता हुआ डाक' उच्छृत (ताजा), रसित' मनोज्ञ, मनोभिलषणीय, स्निग्ध और रुक्ष-जो आहार श्रेष्ठ होता है उसे प्रचुर मात्रा में (खद्धं-खद्धं) खाता है, यह शैक्षकृत आशातना है। १६. सेहे राइणियस्स वाहर- शैक्षः रात्निकस्य व्याहरमाणस्य अप्रतिमाणस्स अपडिसुणेत्ता भवइ- श्रोता भवति-आशातना शैक्षस्य । आसायणा सेहस्स। १६. रानिक मुनि के कहने पर शैक्ष उसके वचन को अनसुना कर देता है, यह शैक्षकृत आशातना है।' २०. सेहे राइणियस्स खद्धं-खद्धं शैक्षः रात्निकस्य 'खद्धं-खद्धं' (उच्चैःवत्ता भवति-आसायणा सेहस्स। उच्चैः) वक्ता भवति-आशातना शैक्षस्य। २०. शैक्ष रानिक मुनि के सामने उद्धततापूर्वक बोलता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २१. सेहे राइणियस्स किं' ति शैक्षः रात्निकस्य 'कि' इति वदिता वइत्ता भवति आसायणा भवति-आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। २१. शैक्ष रानिक मुनि को 'क्या है' इस प्रकार कहता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २२. सेहे राइणियं 'तुम'ति वत्ता शैक्षः रात्निकं त्वं' इति वक्ता भवति–आसायणा सेहस्स। भवति-आशातना शैक्षस्य। २२. शैक्ष रालिक मुनि को 'तू' कहता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २३. सेहे राइणियं तज्जाएण- शैक्षः रालिकं तज्जातेन-तज्जातेन तज्जाएण पडिभणित्ता भवइ- प्रतिभणिता भवति–आशातना आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य । २३. रानिक मुनि जो कहता है, शैक्ष वहो प्रत्युत्तर में कह देता है, जैसे"आर्य ! ग्लान की सेवा क्यों नहीं करते हो ?' यह कहने पर शैक्ष कहता है-'तुम क्यों नहीं करते ?', यह शैक्षकृत आशातना है। २४. सेहे राइणियस्स कहं शैक्षः रात्निकस्य कथां कथयतः 'इति । कहेमाणस्स 'इति एवं ति वत्ता न एवं' इति वक्ता न भवति---आशातना भवति - आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य। २४. शैक्ष रानिक मुनि की धर्म-कथा का अनुमोदन नहीं करता, यह शैक्षकृत आशातना है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ समवाय ३३ : सू०१ समवानो २५. सेहे राइणियस्स कहं शैक्षः रात्निकस्य कथां कथयतः न कहेमाणस्स 'नो सुमरसी'ति वत्ता स्मरसीति वक्ता भवति–आशातना भवति–आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य । २५. शैक्ष रानिक मुनि को धर्म-कथा करते समय, 'आपको यह याद नहीं हैं'-इस प्रकार कहता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २६. शैक्ष रानिक मुनि द्वारा की जा रही धर्म-कथा का विच्छेद करता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २६. सेहे राइणियस्स कहं शैक्षः रात्निकस्य कथां कथयतः कथां कहेमाणस्स कहं अच्छिदित्ता आछेत्ता भवति-आशातना शैक्षस्य । भवति–आसायणा सेहस्स। २७. सेहे राइणियस्स कहं शैक्षः रात्निकस्य कथां कथयतः पर्षदं स परिसं भेत्ता भवति- भत्ता भवति-आशातना शैक्षस्य । आसायणा सेहस्स। २८. सेहे राइणियस्स कहं शैक्षः रात्निकस्य कथां कथयतः तस्यां कमाणस तीसे परिसाए परिषदि अनुत्थितायां अभिन्नायां । अणदिताए अभिन्नाए अवच्छिन्नाए अव्यच्छिन्नायां अव्याकृतायां द्वितीयमपि अव्वोगडाए दोच्चं पि तमेव कहं तामेव कथां कथयिता भवतिकहित्ता भवति-आसायणा आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। २७. रात्निक मुनि जब धर्म-कथा करते हैं, तब शैक्ष उस समय परिषद् में भेद डालता है, यह शैक्ष कृत आशातना है। २८. रानिक मुनि धर्म-कथा कर रहे हैं, परिषद् अभी तक उठी नहीं है, भंग नहीं हुई है, व्युच्छिन्न नहीं हुई है, अविभक्त नहीं हुई है- वैसे ही व्यवस्थित है, शैक्ष उस परिषद् में दूसरी बार वही धर्म-कथा करता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २६. शैक्ष रालिक के शय्या, संस्तारक का पैरों से संघटन कर, उन्हें अनुज्ञापित नहीं करता, यह शैक्षकृत आशातना है। २६. सेहे राइणियस्स सेज्जा- शैक्षः रात्निकस्य शय्या-संस्तारकं पादेन संथारगं पाएणं संघट्टित्ता, हत्थेणं संघट्य, हस्तेन अननुज्ञाप्य गच्छतिअणणण्णवेत्ता गच्छति-आसा- आशातना शैक्षस्य । यणा सेहस्स। ३०. सेहे राइणियस्स सेज्जा- शैक्षः रात्निकस्य शय्या-संस्तारके स्थाता। संथारए चिद्वित्ता वा निसीइत्ता वा निषत्ता वा त्वग्वर्तयिता वा वा तुयट्टित्ता वा भवइ–आसायणा भवति-आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। ३१. सोहे राइणियस्स उच्चासणे शैक्षः रात्निकस्य उच्चासने स्थाता वा चिद्वित्ता वा निसीइत्ता वा निषत्ता वा त्वगवर्तयिता वा भवतितुट्टित्ता वा भवति–आसायणा आशातना शैक्षस्य। सहस्स। ३०. शैक्ष रानिक मुनि के शय्या, संस्तारक पर खड़ा होता है, बैठता है या सोता है, यह शैक्षकृत आशातना ३१. शैक्ष रानिक मुनि से ऊंचे आसन पर खड़ा रहता है, बैठता है या सोता है, यह शैक्षकृत आशातना है। ३२. शैक्ष रानिक मुनि के बराबर आसन पर खड़ा रहता है, बैठता है या सोता है, यह शैक्षकृत आशातना है । ३२. सेहे राइणियस्स समासणे शैक्षः रात्निकस्य समासने स्थाता वा चिद्वित्ता वा निसीइत्ता वा निषत्ता वा त्वगवर्तयिता वा भवतितुयट्टित्ता वा भवति-आसायणा आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। ३३. सेहे राइणियस्स आलव- शैक्षः रात्निकस्य आलपतस्तत्रगत एव माणस्स तत्थगते चिय पडिसुणित्ता प्रतिश्रोता भवति–आशातना शैक्षस्य। भवइ-आसायणा सेहस्स। ३३. रात्लिक भुनि के कुछ कहने पर शैक्ष अपने आसन पर बैठे-बैठे ही उसे स्वीकार करता है (या प्रत्युत्तर देता है), यह शैक्षकृत आशातना है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १७८ समवाय ३३ : सू०२-१० २. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमेक्के चमरचञ्चायां राजधान्यां एकैकस्मिन वारे तेत्तीसं-तेत्तीसं भोमा द्वारे त्रयस्त्रिशत्-त्रयस्त्रिंशत् भौमानि पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। २. असुरेन्द्र असुरराज चमर की राजधानी चमरचंचा के प्रत्येक के द्वार पर तेतीसतेतीस भौम (उपनगर, विशेषस्थान) ३. महाविदेहे णं वासे तेत्तीसं महाविदेहः वर्षः त्रयस्त्रिशद् योजन- ३. महाविदेह क्षेत्र का विष्कंभ तेतीस हजार जोयणसहस्साइं साइरेगाई शतानि सातिरेकाणि विष्कम्भेण योजन से कुछ अधिक है। विक्खंभेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः । ४. जया णं सूरिए बाहिराणं अंतरं यदा सूर्यः बाह्यानामन्तरं तृतीयं मण्डलं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं उपसंक्रम्य चारं चरति, तदा इहगतस्य चरइ, तया णं इहगयस्स पुरिसस्स पुरुषस्य त्रयस्त्रिशता योजनसहस्रः तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहि किंचि- किंचिद्विशेषोनैः चक्षुःस्पर्श अर्वाग् विसेसूर्णेहि चक्खुप्फास हव्व- आगच्छति । मागच्छइ। ४. जब सूर्य सर्व-बाह्य-मंडल से अन्तर्वर्ती तीसरे मंडल में गति करता है तब भरतक्षेत्र में रहे हुए मनुष्य को वह कुछ विशेष न्यून तेतीस हजार योजन की दुरी से दिखाई देता है। ५. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ५. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेत्तीस नैरयिकाणां त्रयस्त्रिशत पल्योपमानि की स्थिति तेतीस पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. अहेसत्तमाए पुढवीए काल-महा- अधःसप्तम्यां पृथिव्यां काल-महाकाल- ६. नीचे की सातवीं पृथ्वी के काल, काल-रोरुय-महारोरुएसु नेरइयाण रौरुक (त)-महारौरुकेष नैरयिकाणां महाकाल, रोरुक और महारोरुकउक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत सागरोपमाणि इन चार नरकावासों के नैरयिकों की ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की नेरइयाणं अप्रतिष्ठाननरके नैरयिकाणां अजघन्या- अजहण्णमणुक्कोसेणं तेतीसं नुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। स्थिति: प्रज्ञप्ता। ७. अप्रतिष्ठान-नरक' के नैरयिकों की सामान्य स्थिति (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से मुक्त) तेतीस सागरोपम की ८. असुरकुमाराणं अत्थेगइयाणं देवाणं असुरकुमाराणां अस्ति एकेषां देवानां तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिई त्रयस्त्रिशत् पल्योपमानि स्थितिः पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ८. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम की है। ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई देवानां त्रयस्त्रिंशत् पल्योपमानि की स्थिति तेतीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १०. विजय-वेजयंत जयंत-अपराजिएसु विजय - वैजयन्त - जयन्त· अपराजितेषु १०. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरा विमाणेसु उक्कोसेणं तेतीसं विमानेष उत्कर्षण त्रयस्त्रिशत् जित विमानों में (देवों की) उत्कृष्ट सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति तेतीस सागरोपम की है। For Private & Personal use only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १७६ समवाय ३३ : सू० ११-१४ ११. जे देवा सव्वदृसिद्धं महाविमाणं ये देवाः सर्वार्थसिद्धं महाविमानं ११. सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानां उत्पन्न होने वाले देवों की सामान्य अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं अजघन्यानुत्कर्षण त्रयस्त्रिंशत् स्थिति (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। मुक्त) तेतीस सागरोपम की है। १२. ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं ते देवा त्रयस्त्रिशता अर्द्धमासैः आनन्ति १२. वे देव तेतीस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं । वा नोससंति वा। निःश्वसन्ति वा। १३. तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए तेषां देवानां त्रयस्त्रिशता वर्षसहस्र- १३. उन देवों के तेतीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। समुप्पज्जइ। १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १४. कुछ भव-सिद्धिक जीव तेतीस बार तेत्तीसाए भवग्गहहिं सिज्झि- त्रयस्त्रिशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मच्चिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति। टिप्पण १. आशातनाएं तेतीस हैं (तेत्तीसं आसायणाओ) वत्तिकार ने इसका निरुक्तगत अर्थ इस प्रकार किया है-'आयस्य शातना आशातना-आय का अर्थ है-सम्यग दर्शन आदि की अवाप्ति और शातना का अर्थ है-खंडन, भग। जो आय का नाश करती है, वह आशातना है। इसका अर्थ आत्मा को दुःखित करना भी हो सकता है। प्रस्तुत आलापक में तेतीस आशातनाएं बताई गई हैं। वे सारी शैक्ष से संबंधित हैं। इनके निर्देश से शैक्ष को कर्तव्य. बोध करवाया गया है। आवश्यकवृत्ति में भी ये ही तेतीस आशातनाएं मुख्य रूप से गृहीत हैं । वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने वैकल्पिक रूप में आवश्यक सूत्रान्तर्गत तेतीस आशातनाएं भी मानी हैं' १. अरहन्तों की आशातना। २. सिद्धों की आशातना। ३. आचार्यों की आशातना । ४. उपाध्यायों की आशातना । ५. साधुओं की आशातना। ६. साध्वियों की आशातना। ७. श्रावकों की आशातना। १. समवायांगवृत्ति, पन ५६ : प्रायः-सम्यग्दर्शनाचवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डनं निरुक्तादाशातना। २. पावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ १५८ : अथवा अयमन्य: प्रकारः, प्रहंतो तीर्थकृतामाशातना मादिशब्दात् सिद्धादिग्रहः यावत् स्वाध्याये किञ्चिन्नाधोतं सम्झाए ण सज्झाइयंति बुलं पता Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १८० समवाय ३३ : टिप्पण ८. श्राविकाओं की आशातना। ६. देवताओं की आशातना। १०. देवियों की आशातना। ११. इहलोक की आशातना। १२. परलोक की आशातना । १३. केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आशातना। १४. देव, मनुष्य और असुरों की आशातना। १५. सभी प्राण, भूत, जीव और सत्वों की आशातना। १६. काल की आशातना। १७. श्रुत की आशातना। १८. श्रुतदेवता की आशातना। १६. वाचनाचार्य की आशातना। २०. श्रुत की विपर्यस्तता। २१. पदों का मिश्रण करना । २२. अक्षरों की न्यूनता करना। २३. अक्षरों का आधिक्य करना । २४. पदों की न्यूनता करना। २५. विराम रहित पढना या विनयरहित पढना । २६. उच्चारण की अमर्यादा। २७. योगरहितता। २८. योग्य को श्रुत न देना। २६. अयोग्य को श्रुत देना। ३०. अकाल में स्वाध्याय करना। ३१. उपयुक्त काल में स्वाध्याय न करना। ३२. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करना । ३३. स्वाध्यायिक में स्वाध्याय न करना। वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इन तेतीस आशातनाओं की सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है । देखें-आवश्यक भाग-२, पृष्ठ १५६-१६१ । मूलाचार में आशातना शब्द के स्थान पर 'अत्याशना' या 'आशना' शब्द का प्रयोग मिलता है । इसमें तेतीस अत्याशनाएं ये हैं-पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमाताएं और नौ तत्त्व-इन तेतीस तत्त्वों के प्रति अविनय करना 'आशना' है। २. डाक (डायं-डायं) प्रवचनसारोद्धार के अनुसार 'डाय' का अर्थ बेंगन, ककड़ी, चना, पत्ती आदि का शाक होता है। इसी ग्रंथ में एक दूसरे प्रसंग में 'डाय' का अर्थ मसालों से पकाई हई बथुआ, राई आदि की भाजी किया गया है।' १. मूलाचार २/५४ : पंचवे पत्थिकाया छज्जीवनिकाय महब्बया पंच । पवयणमाउ पयत्था, तेतीससच्चासणा भणिया ।। २. प्रवचनसारोद्धार, पृ० ३३ : डाय होइ पुणो पत्तसागंते-वृन्ताकचिर्भटिकाचणकादय सुसंस्कृताः पनशाकान्ता डायशब्देन भण्यन्ते । ३. वही, २५६/१५: डाप्रो वत्थुलराईम मज्जिया हिंगजीरयाइजुया । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो समवाय ३३ : टिप्पण ३. रसित (रसितं-रसितं) रसित-दाडिम, आम्रफल आदि ।' ४. अनसुना (अपडिसुणेत्ता) __ अप्रतिश्रवण के विषय में दो पाठ प्राप्त हैं-एक बारहवीं आशातना का पाठ है और दूसरा प्रस्तुत पाठ। इस पाठ में रानिक मुनि के प्रति उपेक्षा या अवज्ञा का भाव झलकता है और पूर्वपाठ में मायावृत्ति की झलक है। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार बारहवां पाठ रात्री विषयक और प्रस्तुत पाठ दिवस विषयक है। ५. अनुज्ञापित नहीं करता (अणणुण्णवेत्ता) प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में 'अणणुण्णवेत्ता' की व्याख्या प्राप्त नहीं है । प्रवचनसारोद्धार के अनुसार इसका अर्थ यह होना चाहिए कि रात्निक के उपकरणों का पैरों से संघटन हो जाने पर जो शैक्ष रात्निक से क्षमायाचना नहीं करता, वह आशातना का भागी होता है।' तत्कालीन परम्परा के अनुसार क्षमायाचना के समय संघट्टित उपकरणों का हाथ से स्पर्श किया जाता था। ६. कुछ विशेष न्यून से (किंचिविसेसूणेहि) यहां कुछ विशेष न्यून से एक हजार योजन न्यून विवक्षित है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में चक्षुस्पर्श का प्रमाण ३२००१०४ + २३योजन बताया है। ७. अप्रतिष्ठान नरक (अप्पइट्ठाण-नरए) सातवीं पृथ्वी में पांच नरकावास हैं। उसमें से चार का उल्लेख पूर्व सूत्र में हुआ है। यह उसका पांचवां नरकावास १. प्रवचनसारोद्धार, पु०३४। २. वही, ९/११: अप्पडिसुणणे नवरमिणं दिवस विसमि । ३. वही, २/१४८, पृ० ३२। ४. वही, पृ. ३४। 1. समवायांगवृत्ति, पन्न ५६, १७। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ चोत्तीसइमो समवानो : चौतीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता, तं चतुस्त्रिशत् बुद्धातिशेषाः प्रज्ञप्ताः, १. तीर्थङ्करों के अतिशेष (अतिशय) जहातद्यथा चौतीस हैं, जैसे१. अवट्ठिए केसमंसुरोमनहे। अवस्थितः केशश्मश्रुरोमनखः । १. उनके शिर के केश, दाडी, मूछ, रोम और नख अवस्थित रहते हैं न बढते हैं न घटते हैं। २. निरामया निरुवलेवा निरामया निरुपलेपा गात्रयष्टिः । २. उनका शरीर रोगरहित और गायलट्ठी। निरुपलेप (रज और स्वेद रहित) होता है। ३. गोक्खोरपंडुरे मंससोणिए। गोक्षीरपाण्डुरं मांसशोणितम् । ३. उनका मांस और शोणित दूध की तरह पाण्डुर होता है। ४. पउमुप्पलगंधिए उस्सास- पद्मोत्पलगन्धिकः उच्छ्वास-निःश्वासः। ४. उनके उच्छवास-निःश्वास कमल निस्सासे। और नीलोत्पल की तरह सुगंधित होते ५. पच्छन्ने आहारनीहारे, अहिस्से प्रच्छन्नः आहारनीहारः अदृश्यो । मंसचक्खुणा । मांसचक्षुषा। ५. उनका आहार और नीहार-दोनों प्रच्छन्न होते हैं, मांस-चक्षु द्वारा दृश्य नहीं होते। ६. आगासगयं चक्कं । आकाशगतं चक्रम् । ६. उनके आगे-आगे आकाश में धर्मचक्र चलता है। ७. आगासगयं छत्तं। आकाशगतं छत्रम् । ७. उनके ऊपर आकाशगत छत्र होता है। ८. उनके प्रकाशमय श्वेतवर चामर डुलते हैं। ८. आगासियाओ सेयवरचाम- आकाशिके श्वेतवरचामरे । राओ। है. आगासफालियामयं सपायपीढं आकाशस्फटिकमयं सपादपीठं सोहासणं। सिंहासनम्। १०. आगासगओ कुडभीसहस्स- आकाशगतः 'कुडभी' (ध्वज) सहस्रपरिमंडिआभिरामो इंदज्झओ परिमण्डिताभिरामः इन्द्रध्वजः पुरतो पुरओ गच्छइ। गच्छति। ६. उनके आकाश जैसा स्वच्छ स्फटिकमय पादपीठ सहित सिंहासन होता है। १०. उनके आगे-आगे आकाश में हजारों लघुपताकाओं से शोभित इन्द्रध्वज चलता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र ११. जत्थ जत्थवि य णं अरहंता भगवंतो चि ंति वा निसीयंति वात् तत्व य णं तक्खणादेव संछत्रपत्तपुप्फ पल्लव समाउलो सच्छतो सज्झओ सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ । १२. ईसि पिट्टओ मउडठाणंमि मंडलं अभिसंजाइ, अंधकारेवि य णं दस दिसाओ पभासेइ । १६. सोयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुणं जोयणपरिमंडलं सव्वओ समता संपमज्जिज्जति । १३. बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे । वहुसमरमणीयः भूमिभागः । १४. अहोसिरा कंटया भवंति । १५. उडुविवरीया भवंति । सुहफासा १७. जुत्त फुसिएण य मेहेण निय - रय- रेणुयं कज्जइ । १८ जलथलय भासुर - पभूतेणं बिटट्ठाणा दसवणेणं कुसुमेणं जास्सेहप्पमाणमित्तं पुष्फोवया रे कज्जइ । १६. अमणुण्णाणं सद्द-फरिस-रसरूव-गंधाणं अवकरिसो भवइ । २०. मणुण्णाणं सह-फरिस - रसरूव-गंधाणं पाउभावो भवइ । २१. पच्चाहरओवि हिययगमणोओ सरो । य णं जोयणनोहारी २२. भगवं च णं अद्धमागहीए भासा धम्मम इक्खइ । १८३ यत्र यत्रापि च प्रर्हन्तो भगवन्तः तिष्ठन्ति वा निषीदन्ति वा तत्र तत्रापि च तत्क्षणादेव संच्छन्न पत्रपुष्पपल्लवसमाकुलः सपताकः अभिसंजायते । सच्छत्रः सध्वजः सघण्ट: अशोकवरपादपः ईषत् पृष्ठतः मुकुटस्थाने तेजोमण्डलं अभिसंजायते, अन्धकारेऽपि च दश दिशः प्रभासन्ते । अधः शिरसः कण्टकाः भवन्ति । ऋतवोऽविपरीताः सुखस्पर्शाः भवन्ति । शीतलेन सुखस्पर्शेन सुरभिणा मारुतेन योजनपरिमण्डलं सर्वतः समन्तात् संप्रमार्ण्यते । युक्त पृषतेन च मेघेन निहतरजोकं क्रियते । वृन्त जल-स्थलज भास्वर - प्रभूतेन स्थायिना दशार्द्धवर्णेन कुसुमेन जानूत्सेधप्रमाणमात्रः पुष्पोपचारः क्रियते 1 अमनोज्ञानां शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धानां अपकर्षो भवति । मनोज्ञानां शब्द-स्पर्श-रस-रूप- गन्धानां प्रादुर्भावो भवति । च प्रत्याहरतोपि योजननीहारी स्वरः । भगवाश्च धर्ममाख्याति । हृदयगमनीयः अर्द्धमागध्यां भाषायां समवाय ३४ : सू० १ ११. जहां-जहां अर्हन्त भगवन्त ठहरते हैं, बैठते हैं, वहां-वहां तत्क्षण पत्र से भरा हुआ और पल्लव से व्याकुल, छत्र, ध्वजा, घंटा और पताका सहित अशोकवृक्ष उत्पन्न हो जाता है । १२. मस्तक के कुछ पीछे मुकुट के स्थान में तेजमंडल (भामंडल ) होता है । वह अन्धकार में भी दसों दिशाओं को प्रभासित करता है। १३. उनके पैरों के नीचे का भूमिभाग सम और रमणीय होता है । १४. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं । १५. ऋतुएं अनुकूल और सुखदायी हो जाती हैं। १६. शीतल, सुखद और सुगंधित वायु योजन प्रमाण भूमि का चारों ओर से प्रमार्जन करती है । १७. छोटी फुहार वाली वर्षा द्वारा रज ( आकाशवर्ती) और रेणु ( भूवर्ती) का शमन होता है । १८. भास्वर ऊर्ध्वमुखी जलज और स्थलज पंचवर्ण प्रचुर पुष्पों का घुटने जितना ऊंचा उपचार ( राशीकरण) होता है। १६. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपकर्ष होता है । २०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का प्रादुर्भाव होता है । २१. प्रवचन काल में उनका स्वर हृदयंगम और योजनगामी होता है । २२. भगवान् अर्द्धमागधी भाषा में ' धर्म का व्याख्यान करते हैं । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो १८४ समवाय ३४ : सू०२ २३. वह भाष्यमाण अर्द्धमागधी भाषा सुनने वाले आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग (वन्य-पशु), पशु (ग्राम्य-पशु), पक्षी, सरीसृप आदि की अपनी-अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है। २३ सावि य णं अद्धमागही भासा सापि च अर्द्धमागधी भाषा भाष्यमाणा भासिज्जमाणी तेसि सव्वेसि तेषां सर्वेषां आर्यानार्याणां द्विपदआरियमणारियाणं दुप्पय- चतुष्पद- मृग- पशु-पक्षि - सरोसृपाणां चउप्पय - मिय-पसु-पक्खि-सिरी- आत्मनः हित-शिव-सुखदभाषात्वेन सिवाणं अप्पणो हिय-सिव- परिणमति । सुहदाभासत्ताए परिणमइ। २४. पुव्वबद्धवेरावि य णं पूर्वबद्धवैरा अपि च देवासुर-नाग-सुपर्णदेवासुर - नाग • सुवण्ण - जक्ख- यक्ष-राक्षस-किन्नर-किंपुरुष-गरुड-गंधर्वरक्खस - किन्नर - किंपुरिस-गरुल- महोरगाः अर्हत: पादमूले प्रशान्तचित्तगंधव्व-महोरगा अरहओ पायमूले मानसाः धर्म निशाम्यन्ति । पसंतचित्तमाणसा धम्म निसामंति। २४. पूर्वबद्ध वैर वाले तथा देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व और महोरग अर्हन्त के पास प्रशांत चित्त और प्रशान्त मन वाले होकर' धर्म सुनते हैं। २५. अण्णउत्थिय - पावणियावि अन्ययथिकप्रावनिका अपि च आगताः यण मागया वंदंति। वन्दन्ते। २५. अन्यतीथिक प्रावनिक भी पास में आने पर भगवान् को बन्दन करते २६. अर्हत के सम्मुख वे निरुत्तर हो जाते हैं। २६. आगया समाणा अरहओ आगताः सन्तः अर्हतः पादमूले निष्प्रतिपायमूले निप्पडिवयणा हवंति। वचनाः भवन्ति । २७ जओ जओवि य णं अरहंतो यत्र यत्रापि च अर्हन्तो भगवन्तो भगवंतो विहरंति तओ तओवि विहरन्ति, तत्र तत्रापि च योजनपञ्चय णं जोयणपणवीसाएणं ईतो न विंशत्यां ईतिर्न भवति । भवइ। २८. मारो न भवइ। मारी न भवति। २७. अर्हत् भगवान् जहां-जहां विहार करते हैं, वहां-वहां पचीस योजन में ईति (धान्य आदि का उपद्रव-हेतु) नहीं होती। २८. मारी नहीं होती। २६. सचक्कं न भवइ। स्वचक्र न भवति। २६. स्वचक्र (अपनी सेना का विप्लव) नहीं होता। ३०. परचक्कं न भवइ। परचक्रं न भवति। ३०. परचक्र (दूसरे राज्य की सेना से होने वाला उपद्रव) नहीं होता। ३१. अइबुट्ठी न भवइ। अतिवृष्टिर्न भवति । ३१. अतिवृष्टि नहीं होती। ३२. अणावुट्ठी न भवइ। अनावृष्टिर्न भवति । ३२. अनावृष्टि नहीं होती। ३३. दुन्भिक्खं न भवइ । दुभिक्षं न भवति । ३३. दुर्भिक्ष नहीं होता। ३४. पुव्वुप्पण्णावि य णं उप्पाइया पूर्वोत्पन्ना अपि च औत्पातिकाः व्याधयः ३४. पूर्व उत्पन्न औत्पातिक व्याधियां' वाही खिप्पामेव उवसमंति। क्षिप्रमेव उपशाम्यन्ति। शीघ्र ही उपशान्त हो जाती हैं। २. जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्त्रिंशत् चक्रवर्ति- २. जम्बूद्वीप द्वीप में चक्रवर्ती के विजय चक्कट्टिविजया पण्णत्ता, तं विजयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-द्वात्रिंशद चौतीस हैं, जैसे-महाविदेह में बत्तीस, जहा बत्तीसं महाविदेहे, दो महाविदेहे, द्वौ भरतैरवतयोः । भरत में एक और ऐरवत में एक। भरहेरवए। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाओ १८५ समवाय ३४ : सू० ३-६ ३. जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्त्रिशद् दीर्घवैता- ३. जम्बूद्वीप द्वीप में दीर्घवैताढ्य चौतीस दीहवेयड्डा पण्णत्ता। ढ्यानि प्रज्ञप्तानि । ४. जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपए जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्कृष्टपदे चतुस्त्रिंशत् ४. जम्बूद्वीप द्वीप में उत्कृष्टत: चौतीस चोत्तीसं तित्थंकरा समुप्पज्जति। तीर्थङ्कराः समुत्पद्यन्ते ।। तीर्थङ्कर उत्पन्न होते हैं। ५. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य ५. असुरेन्द्र असुरराज चमर के चौतीस चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा चतुस्त्रिशद् भवनावासशतसहस्राणि लाख भवनावास हैं । पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ६. पढमपंचमछट्ठीसत्तमासु-- चउसु प्रथमपञ्चमषष्ठीसप्तमीषु- चतसृषु ६. पहली, पांचवी, छठी और सातवीं पुढवोसु चोत्तीसं निरयावास- पृथ्वीषु चतुस्त्रिशद् निरयावासशत- इन चार पृथ्वियों में चौतीस लाख सयसहस्सा पण्णता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । नरकावास हैं। टिप्पण १. सूत्र १: इस आलापक की वृत्ति में वृत्तिकार दो स्थानों पर बृहद्वाचना का उल्लेख करते हुए मतान्तर की सूचना देते हैं। उनके अनुसार प्रस्तुत आलापक गत १६ वें और २० वें अतिशय के स्थान पर ये दो अतिशय हैं १. तीर्थंकर का निषीदन स्थान कालागुरु, प्रवरकंदुरुक्क आदि धूपों से अत्यन्त सौरभमय जैसा होता है । २. तीर्थंकरों के दोनों पावों में कड़े और भुजबंध पहने हुए दो यक्ष चामर डुलाते रहते हैं।' पचीसवें और छबीसवें अतिशयों के स्थान पर बृहद्वाचना में दूसरे दो अतिशय माने हैं । वे दो मान्य अतिशय कौन से हैं, इसका उल्लेख वृत्तिकार ने नहीं किया है। वृत्तिकार के अनुसार इनमें से २, ३, ४, ५-ये चार अतिशय जन्मजात होते हैं। इक्कीसवें अतिशय से चौतीसवें अतिशय तक तथा बारहवां अतिशय-ये पन्द्रह कर्मक्षय से उत्पन्न होते हैं। शेष पन्द्रह अतिशय (१, ६ से ११ तथा १३ से २०) देवकृत होते हैं। वृत्तिकार का अभिमत है कि ये अतिशय अन्यान्य ग्रंथों में दूसरे-दूसरे प्रकार से भी प्राप्त होते हैं । उसे मतान्तर मानना चाहिए।' प्रवचनसारोद्धार में निर्दिष्ट चौतीस अतिशयों तथा समवायांग में प्राप्त अतिशयों में अन्तर है। यहां क्रम-भेद का निर्देश नहीं किया गया है, केवल विषय-भेद बतलाया जा रहा है। वह इस प्रकार है ( ५) योजनमात्र क्षेत्र में करोड़ों लोग समा जाते हैं। (७) पूर्वभव के रोग उपशान्त हो जाते हैं। (१०) डमर-स्वचक्र और परचक्र कृत विप्लव नहीं होता। (२२) चतुर्मुखांगता। (२३) देवकृत तीन कोट। उभयो पासिं च .........."यक्षो देवाविति विशतितमः। १. समवायांगवृत्ति, पन्न ५८ : कालागुरुप्रवरकंदुरुक्क . . . . . . . . ."निषीदनस्थानमिति प्रक्रम इत्येकोनविंशतितमः। बृहद्वाचनायामनन्तरोक्तमतिशयद्वयं नाधीयते । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ५६ : बृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमधीयते । ३. समवायांगवृत्ति, पन १८, ५६ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ समवाय ३४ : टिप्पण (२४) नौ स्वर्ण-कमलों का निर्माण । दो कमल भगवान् के दोनों पैरों के नीचे होते हैं और सात पीछे होते हैं। ज्योंज्यों भगवान् चलते हैं, त्यों-त्यों सबसे पीछे का कमल आगे आ जाता । यह क्रम सतत चलता रहता है । (३१) पक्षी प्रदक्षिणा करते हैं । (३२) पवन अनुकूल होता (३३) वृक्ष प्रणत हो जाते हैं । (३४) दुन्दुभि बजती है ।' २. अर्द्धमागधी भाषा में (अद्धमागहीए भासाए ) भगवान् महावीर अर्धमागधी भाषा में प्रवचन करते थे । जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है । इसे उस समय की देवभाषा' और इसका प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा है। यह प्राकृत का ही एक रूप है। यह मगध के आधे भाग में बोली जाती है । इसमें मागधी और दूसरी भाषाओं - अठारह देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं। इसमें मागधी शब्दों के साथ-साथ देश्य शब्दों की भी प्रचुरता है । इसलिए यह अर्द्धमागधी कहलाती है । भगवान् महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे। इसलिए जैन साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है । 'मागधी और देश्य शब्दों का मिश्रण अर्ध मागधी कहलाता है - यह चूर्णि का मत संभवत: सबसे प्राचीन है। इसे आप भी कहा जाता है ।' आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष कहा, उसका मूल आगम का ऋषिभाषित शब्द है ।' तत्त्वार्थ की वृत्ति के अनुसार अर्द्धमागधी भाषा वह होती है जिसमें आधे शब्द मगध देश की भाषा के हों और आधे शब्द भारत की अन्य सभी भाषाओं के हों । इसीलिए अगले तेवीसवें अतिशय की व्याख्या में कहा गया है कि भगवान् की भाषा सभी के लिए सुबोध्य हो जाती है । वृत्तिका' ने प्राकृत आदि छह भाषाओं --- प्राकृत, सौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश में मागधी को गिनाया है । यह अर्द्धमागधी भाषा ही है। इसके लक्षण का निरूपण करते हुए उन्होंने "रसोलंसौ मागध्यां" का उल्लेख किया है । 'र' को 'ल' और 'स' को 'श' हो जाता है, जैसे-नले, हंशे । ३. प्रशान्त चित्त और प्रशान्त मन वाले होकर ( पसंतचित्तमाणसा ) वृत्तिकार ने 'चित्त' का संस्कृत रूप चित्र कर उसका अर्थ विविध किया है। उनके अनुसार इस पद का अर्थ है— राग-द्वेष आदि अनेक प्रकारों के विकारों के कारण जिनके मन विविध प्रकार के हो गए हैं, वैसे वे देव, असुर आदि प्रशान्त मन वाले होकर ( धर्मं सुनते हैं । ) १. प्रवचनसारोद्धार, ४०/४४१-४५० । २. भगवती, ५ / ९३ : देवा णं प्रद्धमागहाए भासाए भाति । ३. पुन्नवणा, १/६२: दासारिया जे गं श्रद्धमागहाए भासाए मासंति । ४. निशीथचूर्णि गद्धविसयमासाणिबद्ध श्रद्धमागहं श्रद्धारसदेसी मासानियतं वा श्रद्धमागहं । ५. प्राकृत व्याकरण (हेम) ८ / १/८३ । ६. ठाणं, ७ / ४८ / १०: छक्कता पागता चेव, दुहा भणितीय ग्राहिया । सरमंडलमि गिज्जेते, पसत्या इसिमासिता || ७. षट्प्राभृत टीका, पृ० १६: सर्वाद्धं मागधीया भाषा भवति। कोऽयं ? प्रद्धं भगवद्भावाया मगधदेश माषात्मक, श्रद्धं च सर्वभाषात्मकम् । ८. समवायांगवृत्ति, पत्र ५६ : प्राकृतादीनां षण्णां भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा 'रसोलंसो मागध्या' मित्यादिलक्षणवती सा प्रसमाश्रितस्वकीय समग्रलक्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते । E. (क) हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण ४ / २८८ । (ख) युवाचार्य महाप्रज्ञ, तुलसी मंजरी ६५९ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १८७ ४. औत्पातिक व्याधियां (उप्पाइया वाही) उत्पात का अर्थ है -- अनिष्टसूचक रुधिरवृष्टि आदि । इनके द्वारा अनेक अनिष्ट घटित होते हैं । वे औत्पातिक कहलाते हैं । व्याधि का अर्थ है ज्वर आदि । वृत्तिकार ने इस प्रकार दोनों को भिन्न माना है । समवाय ३४ : टिप्पण ५. चौतीस तीर्थङ्कर (चोत्तीसं तित्थंकरा ) जम्बूद्वीप में चौतीस विजय हैं- महाविदेह में बत्तीस तथा भरत क्षेत्र में एक और ऐरवत क्षेत्र में एक । इन चौतीस विजयों में एक-एक तीर्थङ्कर हों तो उत्कृष्टतः चौतीस हो सकते हैं। चार तीर्थङ्कर ही एक साथ हो सकते हैं। उनकी संगति इस प्रकार है -- मेरु पर्वत के पूर्व और पश्चिम शिलातल पर दो-दो सिंहासन होते हैं । उन चार सिंहासनों पर चार तीर्थकरों का ही एक साथ अभिषेक हो सकता है। इसलिए मेरु पर्वत की पूर्व दिशावर्ती विजयों में दो तीर्थङ्कर तथा पश्चिम दिशावर्ती विजयों में दो तीर्थङ्कर ही होंगे। उस समय मेरु पर्वत के दक्षिण और उत्तर दिशा में स्थित भरत और ऐरवत क्षेत्र दिन होता है । तीर्थङ्कर दिन में जन्म नहीं लेते। उनका जन्म आधी रात के समय ही होता है । इसलिए उन दोनों क्षेत्रों में उस समय तीर्थङ्करों की उत्पत्ति नहीं होती। ६. चौतीस लाख नरकावास हैं (चोत्तीसं निरयावाससयसहस्सा ) पहली पृथ्वी में तीस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में एक लाख में पांच कम और सातवीं में पांच नरकवास हैं । १. समवाम्रो ३४ / २ । २. समवायांगवृत्ति, पन ५१ : उक्कोसपर चोत्तीसं तिगरा समुप्यति त्तिसमुत्पद्यन्ते सम्भवन्तीत्यर्थः न त्वेकसमये जायन्ते चतुर्णामेवैकदा जन्मसम्भवात् तथाहि मेरी पूर्वापरशिलातलयोद्वे द्वे सिहासने भवतोऽतो द्वौ द्वावेवाभिषिच्येते तो द्वयोर्द्वयोरेव जन्मेति, दक्षिणोत्तरयोस्तु क्षेतयोस्तदानीं दिवससद्भावात् न भरते रावतयोजिनोत्पत्तिरर्द्धन एव जिनोत्पत्तेरिति । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ पणतीसइमो समवायो : पैंतीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पञ्चत्रिंशत् सत्यवचनातिशेषाः १. सत्य-वचन के अतिशय पैतीस हैं। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। २. कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूई कुन्थुः अर्हन् पञ्चत्रिंशद धनूंषि २. अर्हत् कुन्थु पैंतीस धनुष्य ऊंचे थे । उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ३. दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणूई दत्त: वासुदेवः पञ्चत्रिंशद् धनूंषि ३. वासुदेव दत्त पैंतीस धनुष्य ऊंचे थे' ___ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ४. नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूइं नन्दनः बलदेवः पञ्चत्रिंशद् धषि ४. बलदेव नन्दन पैंतीस धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ५. सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए सौधर्मे कल्पे सुधर्मायां सभायां माणवकः ५. सौधर्मकल्प की सुधर्मा सभा में माणवक माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा उरिं च चैत्यस्तम्भः अधः उपरि च अर्द्धत्रयोदश नामक चैत्यस्तंभ के नीचे और ऊपर अद्धतेरस-अद्धतेरस जोयणाणि अर्द्धत्रयोदश योजनानि वर्जयित्वा मध्ये साढ़े बारह साढ़े बारह योजनों को छोड़वज्जेत्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु .. कर मध्य के पैंतीस योजन में वज्रमय वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु पत्रिंशद् योजनेषु वज्रमयेषु गोल गोलवृत्त–वर्तुलाकार पेटियों में जिण-सकहाओ पण्णत्ताओ। वृत्तसमुद्गकेषु जिनसक्थीनि प्रज्ञप्तानि। जिनेश्वर देव की अस्थियां हैं। ६. बितियचउत्थीसु-दोसु पुढवीसु द्वितीयचतुर्योः द्वयोः पृथिव्योः ६. दूसरी और चौथी-इन दो पृध्वियों पणतीसं निरयावाससयसहस्सा पञ्चत्रिंशद् निरयावासशतसहस्राणि में पैतीस लाख नरकावास हैं। पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सत्य वचन के अतिशय पैंतीस हैं (पणतीसं सच्चवयणाइसेसा) वृत्तिकार के अनुसार सत्य-वचन के पैंतीस अतिशेष यहां निर्दिष्ट नहीं हैं। उन्हें दूसरे ग्रंथों में सत्य-वचन के पैतीस प्रकार प्राप्त हुए, वे उन्होंने उल्लिखित किए हैंशब्दाश्रयी अतिशय १. संस्कारवत्--व्याकरण-शुद्ध वचन । २. उदात्त-उदात्त स्वर वाला वचन । ३. उपचारोपेत–अग्राम्य वचन । ४. गम्भीर शब्द- गम्भीर वचन । ५. अनुनादि-प्रतिध्वनि उत्पन्न करने वाला वचन । ६. दक्षिण-सरल वचन । ७. उपरीत राग-मालकोश आदि रागों से युक्त वचन । अर्थाश्रयी अतिशय १. महार्थ-महान् अर्थ वाला वचन । २. अव्याहतपौर्वापर्य-पौर्वापर्य-अविरोधी वचन । ३. शिष्ट-अभिमत सिद्धान्त का प्रतिपादक वचन अथवा शिष्ट-वचन । ४. असंदिग्ध-सन्देह रहित वचन । ५. अपहतान्योत्तर-प्रतिपक्ष द्वारा निकाले जाने वाले दोष से मुक्त वचन । ६. हृदयग्राही। ७. देशकालाव्यतीत-प्रसंगोचित वचन । ८. तत्त्वानुरूप-विवक्षित वस्तु स्वरूपानुसारी वचन । 8. अप्रकीर्णप्रसृत--सुसंबद्ध, अधिकृत और संक्षिप्त वचन । १०. अन्योन्यप्रगृहीत-परस्पर सापेक्ष वचन । ११. अभिजात-वक्ता अथवा प्रतिपाद्य अर्थ की भूमिका के अनुरूप वचन । १२. अतिस्निग्धमधुर- स्नेह और माधुर्यपूर्ण वचन । १३. अपरमर्मवेधी-पर-मर्म का प्रकाशन न करने वाला वचन । १४. अर्थधर्माभ्यासानपेत-अर्थ और धर्म के अभ्यास से प्रतिबद्ध वचन । १५. उदार-अभिधेय अर्थ के गौरव से युक्त वचन । १६. परनिन्दा-आत्मोत्कर्ष-विप्रयुक्त । १७. उपगतश्लाघ-श्लाघनीय वचन । १८. अनपनीत-कारक, काल, लिंग, वचन आदि के व्यत्यय रूप दोषों से मुक्त वचन । १. समवायांग वृत्ति, पन ५६, ६० : सत्यवचनातिशया मागमे न दृष्टाः एते तु ग्रन्थान्तरदृष्टाः सम्भाविताः, वचनं हि गुणवद्वक्तव्यं, तद्यथा-संस्कारवत् १. उदात्तं २. उपचारोपेतं ३. गम्भीरशब्दं . अनुनादि ५. दक्षिणं ६. उपनीतराग ७. महाथ ८. अव्याहतपौर्वापर्य ६. शिष्टं १०. असंदिग्वं ११. अपहृताग्योत्तरं १२. हृदयप्राहि १३. देशकालाव्यतोतं १४. तत्त्वानुरूपं १५. अप्रकीर्णप्रसृतं १६ भन्योऽन्यप्रगृहीतं १७. अभिजातं १८. प्रतिस्निग्धमधुरं १६. अपरमर्मविद्धं २०. अर्थधर्माभ्यासानपेतं २१. उदार २२. परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तं २३. उपगत श्लाघ २४. पनपनीतं २५. उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलं २६. प्रद्भुतं २७. अनतिविलम्वित २८. विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तं २६. अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रं १०. माहितविशेषं ३१. साकारं ३२. सत्त्वपरिग्रहं ३३. अपरिवेदितं ३४. भव्युच्छेदं ३५. चेति वचनं महानुभाववक्तव्यमिति । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १६० समवाय ३५ : टिप्पण १६. उत्पादिताछिन्नकौतुहल-श्रोतृगण में अविच्छिन्न कुतुहल उत्पन्न करने वाला वचन । २०. अद्भुत। २१. अनतिविलम्बित-धाराप्रवाही वचन । २२. विभ्रमादि विमुक्त विभ्रम-वक्ता के मन की भ्रान्ति । विक्षेप-वक्ता की अभिधेय अर्थ के प्रति अनासक्तता। किलिकिंचित्-दोष, भय, अभिलाषा आदि मानसिक भावों का प्रदर्शन । उक्त दोषों तथा इस कोटि के अन्य मानसिक आवेगों से जनित दोषों के संस्पर्श से मुक्त वचन । २३. अनेकजातिसंश्रयाद् विचित्र- अनेक जातियों (वर्णनीयवस्तु के रूप का वर्णनों) के संश्रयण से विचित्र वचन । २४. आहितविशेष-सामान्य वचन की अपेक्षा विशेषता सम्पन्न वचन । २५. साकार-विच्छिन्न वर्ण, पद और वाक्य के द्वारा आकारप्राप्त वचन । २६. सत्वपरिग्रह-साहसपूर्ण वचन । २७. अपरिखेदित-अनायास निकला हुआ वचन । २८. अव्युच्छेद-विवक्षित अर्थ की सिद्धि होने तक अनवच्छिन्न प्रवाह वाला वचन । २-३. पैंतीस धनुष्य ऊंचे (पणतीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं) दत्त सातवें वासुदेव और नन्दन सातवें बलदेव थे । आवश्यक नियुक्ति (गा० ४०३) के अनुसार उनकी ऊंचाई छब्बीस धनुष्य की है और यह सुबोध है, क्योंकि ये दोनों अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल काल में हुए हैं। अरनाथ और मल्लिनाथ की ऊंचाई क्रमशः तीस और पचीस धनुष्य की थी। अतः उनके अन्तराल-काल में होने वाले छठे और सातवें वासुदेव की-ऊंचाई उनतीस और छब्बीस धनुष्य होनी चाहिए। किन्तु प्रस्तुत सूत्रों में सातवें वासुदेव और बलदेव की ऊंचाई पैंतीस-पैंतीस धनुष्य की बतलाई गई है । परन्तु यदि ये दोनों (दत्त और नन्दन) कुन्थु के अन्तराल-काल में होते तो उनकी उक्त ऊंचाई संगत हो जाती। किन्तु उनका अस्तित्व-काल अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल-काल में माना है इसलिए उनकी ऊंचाई का उक्त प्रमाण सहज बुद्धिगम्य नहीं है।' ४. पैंतीस लाख नरकावास हैं (पणतीसं निरयावाससयसहस्सा) दूसरी पृथ्वी में पचीस लाख और चौथी पृथ्वी में दस लाख नरकावास हैं। १. समवायांगवृत्ति, पन ६०: ___ दत्त:-सप्तमवासुदेवः नन्दनः-सप्तम बलदेवः एतयोश्चावश्यकाभिप्रायेण षड्विंशतिर्धनुषामच्चत्वं भवति, सुबोधं च तत्, यतोऽरनाथमल्लिस्वामीनोरन्तरे ताभिहिती यतोऽवाचि--"अरमल्लिअंतरे दोणि केसवा पुरिसपुंडरीय दत्त" त्ति, अरनाथमल्लिनाथयोश्च क्रमेण विशत्पञ्चविंशतिश्च धनुषामुच्चत्वं, एतदन्तरालवत्तिनोश्च वासुदेवयो. षष्ठ सप्तमयोरेकोन त्रिंशत्षड्विंशतिश्च धनुषां यज्यत इति, इहोक्ता तु पञ्चतिशत् स्यात् यदि दत्तनन्दनो कुन्थनाथतीर्थकाले भवतो, न चैतदेवं जिनान्तरेष्वधीयत इति दुरवबोधमिदमिति । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमो समवानो : छत्तीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. छत्तीसं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता, तं षट्त्रिंशद् उत्तराध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, १. उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं', जहा–विणयसुयं परीसहों चाउ- तद्यथा-विनयश्रुतं परीषहः चातुरङ्गीयं जैसे--विनयश्रुत, परीषह, चातुरंगीय, रंगिज्ज असंखयं अकाममरणिज्ज असंस्कृतं अकाममरणीयं पुरुषविद्या असंस्कृत, अकाममरणीय, पुरुषविद्या, पुरिसविज्जा उरन्भिज्जं कावि औरभ्रीय, कापिलीय, नमिप्रव्रज्या, लिज्जं नमिपव्वज्जा दमपत्तयं औरभ्रीयं कापिलीयं नमिप्रव्रज्या द्रम द्रुमपत्रक्र, बहुश्रुतपूजा, हरिकेशीय, बहुसुयपूया हरिएसिज्जं चित्त- पत्रकं बहुश्रुतपूजा हरिकेशीयं चित्रसंभूतं चित्रसंभूत, इषुकारीय, सभिक्षुक, संभूयं उसुकारिज सभिक्खुगं इषुकारीयं सभिक्षुकं समाधिस्थानानि समाधिस्थान, पापश्रमणीय, संजतीय, समाहिठाणाइं पावसमणिज्जं पापश्रमणीयं संयतीयं मृगचारिका मृगचारिका, अनाथप्रव्रज्या, समुद्रसंजइज्जं मिगचारिया अणाह पालीय, रथनेमीय, गौतमकेशीय, अनाथप्रव्रज्या समुद्रपालीयं रथनेमीयं पव्वज्जा समुद्दपालिज्ज रहनेमिज्जं समिति, यज्ञीय, सामाचारी, खलुंकीय, गोयमकेसिज्ज समितीओ जण- गौतमकेशीयं समितयः यज्ञीयं सामाचारी मोक्षमार्गगति, अप्रमाद, तपोमार्ग, इज्जं सामायारी खलंकिज्जं खलुकीयं मोक्षमार्गगतिः अप्रमाद: चरणविधि, प्रमादस्थान, कर्मप्रकृति, मोक्खमग्गगई अप्पमाओ तवो- तपोमार्गः चरणविधिः प्रमादस्थानानि लेश्याध्ययन, अनगारमार्ग और मग्गो चरणविही पमायठाणाई कर्मप्रकृतिः लेश्याध्ययनं अनगारमार्गः जीवाजीवविभक्ति । कम्मपगडी लेसज्झयणं अणगार जीवाजीवविभक्तिश्च । मग्गे जीवाजीवविभत्तीय। २. असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा सभा छत्तीस योजन ऊंची है। २. चमरस्स णं असुरिदस्स असुररणो चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य सभा सभा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाई सुधर्मा त्रिशद् योजनानि उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् ।। ३. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य छत्तीसं अज्जाणं साहस्सीओ षट्त्रिंशद् आर्याणां साहस्यः आसन् । होत्था। ४. चेत्तासोएसु णं मासेसु सइ चैत्राश्वयुजयोः मासयोः सकृत् छत्तीसंगलियं सरिए पोरिसीछायं षट्त्रिंशदङ गुलिकां सूर्यः पौरुषीच्छायां निव्वत्तइ। निर्वर्तयति। ३. श्रमण भगवान् महावीर के छत्तीस हजार आर्याएं थीं। ४. चैत्र और आश्विन मास में एक बार सूर्य प्रहर की छत्तीस अंगुल प्रमाण छाया निष्पन्न करता है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं (छत्तीसं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता) उत्तराध्ययन सूत्र में ये नाम इस प्रकार हैं१. विनयश्रुत १३. चित्रसंभूति २५. यज्ञीय २. परीषह-प्रविभक्ति १४. इषुकारीय २६. सामाचारी ३. चतुरंगीय १५. सभिक्षुक २७. खलुंकीय ४. असंस्कृत १६. ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान २८. मोक्ष-मार्ग-गति ५. अकाम-मरणीय १७. पापश्रमणीय २६. सम्यक्त्वपराक्रम ६. क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय १८. संजयीय ३०. तपोमार्गगति ७. उरभ्रीय १६. मृगापुत्रीय ३१. चरणविधि ८. कापिलीय २०. महानिर्ग्रन्थीय ३२. प्रमादस्थान ६. नमिप्रव्रज्या २१. समुद्रपालीय ३३. कर्मप्रकृति १०. द्रुमपत्रक २२. रथनेमीय ३४. लेश्याध्ययन ११. बहुश्रुतपूजा २३. केशि-गौतमीय ३५. अनगार-मार्ग-गति १२. हरिकेशीय २४. प्रवचन-माता ३६. जीवाजीवविभक्ति २. छत्तीस अंगुल प्रमाण (छत्तीसंगुलियं) वृत्तिकार के अनुसार व्यवहार में चैत्र और आश्विन की पूर्णिमा और निश्चय में मेष और तुला संक्रान्ति के दिन छत्तीस अंगुल (अर्थात् तीन पैर) प्रमाण का प्रहर होता है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ६१॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ सत्ततीसइमो समवाओ : सैंतीसवां समवाय संस्कृत छाया १. कुंथुस्स णं अरहओ सत्ततीसं गणा, कुन्थोः अर्हतः सप्तत्रिंशद् गणाः सत्ततीसं गणहरा होत्था। सप्तत्रिंशद् गणधराः आसन् । हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् कुन्थु के सैंतीस गण और सैंतीस गणधर थे। २. हेमवय-हेरण्णवइयाओ णं जीवाओ हैमवत-हैरण्यवत्यौ जीवे सप्तत्रिंशद्- सत्ततीसं-सत्ततीसं जोयणसहस्साई सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि षट् च छच्च चोवत्तरे जोयणसए चतुःसप्तति योजनशतं षोडशकैकोनसोलसयएगूवीसइभाए जोयणस्स विंशतिभागं योजनस्य किञ्चिद किंचिविसेसूणाओ आयामेणं विशेषोने आयामेन प्रज्ञप्ते। पण्णत्ताओ। २. हैमवत और हैरण्यवत की प्रत्येक जीवा की लम्बाई ३७६७४१६ योजन से कुछ विशेष-न्यून है। १९ ३. सव्वासु णं विजय-वेजयंत-जयंत- सर्वासु विजय-वैजयन्त-जयन्त- अपराजियासु रायहाणीसु पागारा अपराजितासु राजधानीषु प्राकाराः सत्ततीसं-सत्ततीसं जोयणाणि सप्तत्रिंशत-सप्तत्रिंशद योजनानि उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः। ३. विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित-इन सभी राजधानियों के प्राकार सैंतीस-सैंतीस योजन ऊंचे हैं। ४. खुड्डियाए णं विमाणप्पविभत्तीए क्षुद्रिकायां विमानप्रविभक्तौ प्रथमे वर्ग ४. क्षुद्रिकाविमानप्रविभक्ति' के प्रथम वर्ग पढमे वग्गे सत्ततीसं उद्देसणकाला सप्तत्रिंशद् उद्देशनकालाः प्रज्ञप्ताः। में सैंतीस उद्देशन-काल हैं। पण्णत्ता। ५. कत्तियबहुलसत्तमीए णं सुरिए कार्तिकबहुलसप्तम्यां सूर्यः सप्तत्रिंशद् सत्ततीसंगुलियं पोर्रािसच्छायं अंगुलिकां पौरुषीच्छायां निर्वहँ चारं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरइ। चरति। ५. कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्य सैंतीस अंगुल प्रमाण प्रहर की छाया' निष्पन्न कर गति करता है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. कुन्यु गणधर ( कुंथुस्स गणहरा) प्रस्तुत सूत्र के प्रसंग में वृत्तिकार का कथन है कि 'आवश्यक में अहं कुन्थु के तैतीस गणधर बतलाए हैं, उसे मतान्तर मानना चाहिए ।' किन्तु आवश्यक नियुक्ति में जो पाठ आज प्राप्त है उसमें कुन्थु के पैंतीस गणों का उल्लेख हुआ है । के भगवान् महावीर के अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों के जितने गण थे, उतने ही गणधर थे । अतः आवश्यक के अनुसार कुन्थु पैंतीस गणधर सिद्ध होते हैं ।' २. विजयराजधानियों (विजय रायहाणीसु ) जम्बूद्वीप के पूर्व आदि दिशाओं में विजय, वैजयंत आदि चार द्वार हैं। उन द्वारों के नायकों तथा राजधानियों के भी ये ही नाम हैं । वे राजधानियां यहां से दूर असंख्यातवें जम्बू नामक द्वीप में है ।' ३. क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति ( खुड्डियाए णं विमाणव्यविभत्तीए ) यह कालिक श्रुत है । नंदी ( सूत्र ७७) में भी इसका उल्लेख है । ४. प्रहर की छाया ( पोरिसिच्छायं) यदि चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन प्रहर की छत्तीस अंगुल प्रमाण छाया होती है तो वैशाख कृष्णा सप्तमी के दिन ( सात दिन में एक अंगुल की वृद्धि होने से ) सैंतीस अंगुल का प्रहर होगा। इसी प्रकार आश्विन पूर्णिमा को छत्तीस अंगुल का प्रहर होगा और कार्तिक कृष्णा सप्तमी को सैंतीस अंगुल का । १. समवायांगवृत्ति, पक्ष ११: प्रावश्यकेतुतयस्तद् श्रूयते इति मतान्तरम् । २. प्रावश्यक निर्युक्ति, गा० २६७, अवचूर्णि प्रथम विभाग, पु० २११। ३. समवायांगवृति पत्र ६१ । ४. वही, पत्र ६१ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अट्ठतीसइमो समवायो : अड़तीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पासस्स णं अरहओ पुरिसा- पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य १. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व की उत्कृष्ट दाणीयस्स अट्टतीसं अज्जिया- अष्टत्रिंशत् आर्यिकासाहयः उत्कृष्टा श्रमणी-सम्पदा अड़तीस हजार श्रमणियों साहस्सीओ उक्कोसिया अज्जिया- आर्यिकासम्पद् आसीत् । की थी। संपया होत्था। २. हेमवत-हेरण्णवतियाणं जीवाणं हैमवत-हैरण्यवत्योः जीवयोः धनुःपृष्ठं २. हैमवत और हैरण्यवत की प्रत्येक जीवा धणुपट्टे अलुतोसं जोयणसहस्साई अष्टत्रिंशद् योजनसहस्राणि सप्त च के धनुःपृष्ठ का परिक्षेप (परिधि) सत्त य चत्ताले जोयणसए दस चत्वारिंशद् योजनशतं दश एकोन ___३८७४०१० योजन से कुछ विशेषएगूणवीसइभागे जोयणस्स किचि- विंशतिभागं योजनस्य किंचिद्विशेषोनं विसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते। परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् । ३. अत्थस्स णं पव्वयरण्णो बितिए अस्तस्य पर्वतराजस्य द्वितीयं काण्डं ३. पर्वतराज मेरु' का दूसरा काण्ड अड़तीस कंडे अद्रुतीसं जोयणसहस्साइं अष्टत्रिंशद् योजनसहस्राणि ऊर्ध्व- हजार योजन ऊंचा है । उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ते। मुच्चत्वेन प्रज्ञप्तम् । न्यून है। ४. खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए क्षुद्रिकायां विमानप्रविभक्तौ द्वितीये ४. क्षुद्रिकाविमानप्रविभक्ति के दूसरे वर्ग में बितिए वग्गे अद्भुतीसं उद्देसणकाला वर्गे अष्टत्रिंशद् उद्देशनकालाः प्रज्ञप्ताः। अड़तीस उद्देशन-काल हैं । पण्णत्ता। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. हैरण्यवत (हेरण्णवतियाणं ) मूल पाठ में 'एरण्णवय' पद प्राप्त है, किन्तु वास्तविक पद 'हैरण्यवत' है । प्रतीत होता है कि 'हैरण्यवत' के हकार का लोप करने पर 'एरण्णवय' पद बना है । २. अस्त (अत्थस्स) यहां प्रस्तुत सूत्र में 'अत्थ' शब्द है । वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'अस्त' और इसका अर्थ 'मेरु' किया है, क्योंकि सूर्य पर्वत से अन्तरित होकर अस्तंगत होता है, इसलिए उपचार से मेरु पर्वत को भी 'अस्त' कहा गया है।' सोलहवें समवाय में मेरु पर्वत के सोलह नाम आए हैं। उनमें एक नाम है 'अत्थ' । इसके संस्कृत रूप 'अर्थ' और 'अस्त' दोनों होते हैं। देखेंसोलहवें समवाय में मन्दर पर्वत का टिप्पण । १. समवायांगवृत्ति, पत्र ६९ : प्रत्यासत्ति प्रस्तो मे रुतस्तेनान्तरितो रविरस्तं गत इति व्यपदिश्यते । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणचत्तालीसइमो समवानो : उनतालीसवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. नमिस्स णं अरहओ एगूणचता. नमेः अर्हतः एकोनचत्वारिंशद् आधो- १. अर्हत् नमि के उनतालीस सौ लीसं आहोहियसया होत्था । ऽवधिकशतानि आसन् । आधोवधिक (नियत क्षेत्र को जानने वाले अवधिज्ञानी) थे। २. समयखेते णं एगूणवतालीसं समयक्षेत्रे एकोनचत्वारिंशत् कुलपर्वताः २. समय-क्षेत्र में उनतालीस कुल-पर्वत कुलपन्वया पण्णत्ता, तं जहा- प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--त्रिंशद वर्षधराः । हैं, जैसे-तीस वर्षधर, पांच मंदर और तीसं वासहरा, पंच मंदरा, पञ्च मन्दराः चत्वारः इषकाराः । चार इषुकार । चत्तारि उसुकारा। ३. दोच्चचउत्थपंचमछद्रसत्तमासू णं द्वितीयचतुर्थपञ्चमषष्ठसप्तमीसु- ३. दूसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और पंचसु पुढवीसु एगूणवत्तालीसं पञ्चसु पृथिवीषु एकोनचत्वारिंशद् सातवीं-इन पांच पृथ्वियों में निरयावाससयसहस्सा पण्णता। निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। उनतालीस लाख नरकावास हैं।' ४. नाणावरणिज्जस्स मोहणिज्जस्स ज्ञानावरणीयस्य मोहनीयस्य गोत्रस्य ४. ज्ञानावरणीय, मोहनीय, गोत्र और गोत्तस्स आउस्स-एयासि णं आयुषः-एतासां चतसृणां कर्मप्रकृतीनां आयुष्य-इन चार कर्म-प्रकृतियों की चउण्हं कम्मपगडोणं एगणचत्ता. एकोनचत्वारिशद् उत्तरप्रकृतयः उत्तर-प्रकृतियां उनतालीस हैं।' लोसं उत्तरपगडीओ पण्णताओ। प्रज्ञप्ताः । टिप्पण १. समय क्षेत्र (समयखेत्ते) जम्बूद्वीप, धातकीखंड तथा पुष्करार्द्ध को समयक्षेत्र कहते हैं। इसका शब्दार्थ है-कालोपलक्षित भूमि और तात्पर्यार्थ है-मनुष्यलोक ।' २. कुल-पर्वत (कुलपव्वया) कुल-पर्वत का अर्थ है-क्षेत्र की मर्यादा करने वाले पर्वत । तीस वर्षधर पर्वत ये हैं-जम्बूद्वीप में छह, धातकीखंड की पूर्व दिशा के अर्धभाग में छह, पश्चिम दिशा के अर्धभाग में छह, पुष्करा के पूर्वार्ध भाग में छह और पश्चिमार्क में छह । १. समवायांगवृत्ति, पन ६५ : समवेते ति कालोपलक्षितं क्षेत्रं मनुव्यक्षेत्र मित्यर्थः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ११८ समवाय ३६ : टिप्पण मेरु पर्वत पांच हैं -जम्बूद्वीप में एक, धातकीखंड में दो और पुष्कराध में दो। इसी प्रकार धातकीखंड और पुष्करार्ध के पूर्व तथा पश्चिम विभाग करने वाले चार इषुकार पर्वत हैं।' ३. उनतालीस लाख नरकावास (एगणचत्तालोसं निरयावाससयसहस्सा) दूसरी पृथ्वी में २५ लाख चौथी पृथ्वी में १० लाख पांचवीं पृथ्वी में ३ लाख छठी पृथ्वी में ६६६६५ सातवीं पृथ्वी में कुल योग ३६ लाख ४. उत्तर-प्रकृतियां उनतालीस हैं (एगूणचत्तालीसं उत्तरपगडीओ) ज्ञानावरणीय कर्म की मोहनीय कर्म की गोत्र कर्म की आयुष्य कर्म की Wi+ | कुल योग १. समवायांयवृत्ति, पन १२ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० चत्तालीसइमो समवाश्री : चालीसवां समवाय मूल १. अरहओ णं अरिनेमिस्स चत्ता अज्जिया साहसीओ होत्या । २. मंदरचूलिया णं चत्तालीसं जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । ३. संती प्ररहा चत्तालीसं घणूई उड्ढ उच्चणं होत्या । ५. खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तोए ase वग्गे चत्तालीस उद्देसण काला पण्णत्ता । भवणावासस्यसहस्सा पण्णत्ता । ४. भूयानंदस्स णं नागरणो चत्तालीसं भूतानन्दस्य नागराजस्य चत्वारिंशद् भवनवासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । क्षुद्रिकायां विमानप्रविभक्तौ तृतीये वर्गे चत्वारिंशद् उद्देशन कालाः प्रज्ञप्ताः । ६. फग्गुण पुण्णिमासिणीए णं सूरिए चत्ताली संगुलियं पोरिसिच्छायं निव्वट्टइत्ता णं चारं चरइ । ७. एवं कत्तियाएवि पुणिमाए । ८. महासुक्के कप्पे चत्तालीसं विमाणा वाससहस्सा पण्णत्ता । संस्कृत छाया अर्हतः अरिष्टनेमेः चत्वारिंशत् आर्यिका साहस्यः आसन् । मन्दरचूलिका चत्वारिंशद् योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञता । शान्तिः अर्हन् चत्वारिंशद् धनूंषि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । फाल्गुनपूर्णमास्यां सूर्यः चत्वारिंशद् अंगुलिका पौरुषोच्छायां निर्वर्त्य चारं चरति । एवं कार्तिक्यामपि पूर्णिमायाम् । महाशुक्रे कल्पे चत्वारिंशद् विमानावाससहस्राणि प्रज्ञप्तानि । हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् अरिष्टनेमि के चालीस हजार साध्वियां थीं । २. मन्दरपर्वत की चूलिका चालीस योजन ऊंची है। ३. अहंत् शान्ति चालीस धनुष्य ऊंचे थे । ४. नागराज भूतानंद के चालीस लाख भवनावास हैं । ५. क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति के तीसरे वर्ग में चालीस उद्देशन-काल हैं । ६. फाल्गुन की पूर्णिमा को सूर्य चालीस अंगुल प्रमाण प्रहर की छाया निष्पन्न कर गति करता है । ७. कार्तिक की पूर्णिमा को सूर्य चालीस अंगुल प्रमाण प्रहर की छाया निष्पन्न कर गति करता है । ८.महाशुक्रकल्प में चालीस हजार विमानावास हैं । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ एक्कचत्तालीसइमो समवाम्रो : इकतालीसवां समवाय मूल १. नमिस्स णं अरहओ एक्कवतालोस अज्जियासाहसीओ होत्या । २. चउसु पुढवोसु एक्कचत्तालीस चतसृषु पृथिवोष एकचत्वारिंशद् निरयावाससय सहस्सा पण्णत्ता, निरयावासशतसहस्राणि तं जहा - रयणप्पभाए पंकल्पभाए तद्यथा - रत्नप्रभायां तमाए तमतमाए । तमायां तमस्तमायाम् । प्रज्ञप्तानि, पङ्कप्रभायां ३. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एक्कच तालोस उद्देसग काला पण्णत्ता । संस्कृत छाया नमेः अर्हतः एकचत्वारिंशद् आर्यिका - साहस्र्यः आसन् । महत्यां विमानप्रविभक्तौ प्रथमे वर्गे एकचत्वारिंशद् उद्देशन कालाः प्रज्ञप्ताः । टिप्पण १. इकतालीस लाख नरकावास ( एक्कच तालीसं निरयावास सब सहस्सा) २. महतो विमानप्रविभक्ति ( महालियाए णं विमाणपविभतीए ) नंदी (सू०७८) में इसको कालिक श्रुत के अन्तर्गत उल्लिखित किया है । हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् नमि के इकतालीस हजार साध्वियां थीं। रत्नप्रभा में तीस लाख, पंकप्रभा में दस लाख, तमा में ६६६६५ और तमतमा में पांच । २. रत्नप्रभा, पंकप्रभा, तमा और तमतमा इन चार पृथ्वियों में इकतालीस लाख नरकावास हैं ।' ३. महतीविमानप्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में इकतालीस उद्देशन- काल हैं । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ बायालीसइमो समवायो : बयालीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. समणे भगवं महावीरे बायालीसं श्रमणः भगवान् महावीरः द्विचत्वारिं- १. श्रमग भगवान् महावीर कुछ अधिक वासाइं साहियाई सा (मण्णपरियागं शद वर्षाणि साधिकानि श्रामण्यपर्याय बयालीस वर्षों तक' श्रामण्य-पर्याय का पाउणित्ता सिद्ध बुद्धे मुते अंतगडे प्राप्य सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः । पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत परिणिबुडे सम्बदुक्ख पहोणे। परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः । और परिनिर्वृत हुए तथा समस्त दुःखों से रहित हुए। २. जंबुद्दोवस्त णं दोवस्त पुरत्यि- जम्बूदोपस्य द्वोपस्य पौरस्त्यात् मिल्लाओ चरिमंताओ गोथभस्त चरमान्तात गास्तुपस्य आवासपर्वतस्य णं आवासपव्वयस्स पच्चथिमिल्ले पश्चिमं चरमान्तं, एतद् द्विचत्वारिंशद् चरिमंते, एस णं बायालोसं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं जोयणसहस्साई अबाहाते अंतरे प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। २. जम्बूद्वीप द्वीप के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर' बयालीस हजार योजन का है । ३. एवं चउद्दिसि पि दोभासे संखे एवं चतुर्दिक्षु अपि दकावभासः शङ्खः दयसीमे य। दकसीमश्च । ३. इसी प्रकार जम्बूद्वीप के दक्षिणी चरमान्त से दकावभास आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का, जम्बूद्वीप के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त' का और जम्बूद्वीप के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवासपर्वत के दक्षिणी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर बयालीसबयालीस हजार योजन का है। कालोए णं समरे बाबालीसं चंदा कालोदे समुद्रे द्विचत्वारिंशच्चन्द्राः ४. कालोद समुद्र में बयालीस चन्द्रमाओं जोइंस वा जोइंति वा जोइस्संति अघातिपत वा द्योतन्ते वा द्योतिष्यन्ते ने उद्योत किया था, करते हैं और वा, बायालीसं सूरिया पभासिसु वा, द्विचत्वारिंशत् सूर्याः प्राभासिषत करेंगे। वहीं बयालीस सूर्यों ने प्रकाश वा प्रभासिति वा पभासिस्संति वा प्रभासन्ते वा प्रभासिष्यन्ते वा। किया था, करते हैं और करेंगे । वा। ५. संमुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उस्को- सम्मच्छिमभुजपरिसपणां उत्कर्षेण सेणं बायालोसं वाससहस्साई ठिई द्विचत्वारिंशद् वर्षसहस्राणि स्थितिः पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ५. सम्मूच्छिम भुजपरिसर्प की उत्कृष्ट स्थिति बयालीस हजार वर्ष की है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २०२ समवाय ४२ : सू०६-१० ६. नामे णं कम्मे बायालोसविहे नाम कर्म द्विचत्वारिंशद् वियं प्राप्तम्, ६. नाम कर्म के बयालीस प्रकार हैं, जैसे पण्णत्ते, तं जहा -गइनामे जाति. तद्यथा-गतिनाम जाति नाम शरीर- गतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, नामे सरोरनामे सरोरंगोवंगनाने नाम शरोराङ्गोपाङ्गनाम शरीर- शरीरांगोपांगनाम, शरीरबंधननाम, सरीरबंधणनामे सरीरसंवायणनामे बन्धननाम शरीरसंघातननाम शरीरसंघातननाम, संहनननाम, संघयणनामे संठाणनामे वगनामे संहनननाम संस्थाननाम वर्णनाम संस्थाननाम, वर्णनाम, गंधनाम, गंधनामे रसना फासनामे गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम रसनाम, स्पर्शनाम, अगुरुलघुनाम अगरुयलहुयनामे उपवायनामे अगुरुकलघुकनाम उपधातनाम उपघातनाम, पराघातनाम, आनुपूर्वीपराघायनामे आणुपुब्योनामे पराघातनाम आनुपूर्वोनाम उच्छ्वास- नाम, उच्छवासनाम, आतपनाम, उस्सासनामे आतवनामे उज्जोय- नाम आतपनाम उद्योतनाम उद्योतनाम, विहगगतिनाम, त्रसनाम, नामे विहगगइनामे तसनामे विहागतिनाम वसनाम स्थावरनाम स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, थावरनामे सुहुमनामे बायरनामे सूचनाम बादरनाम पर्याप्त नाम पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणपज्जतनामे अपज्जतनाम अपर्याप्तनामसाधारणशरीरनाम शरीरनाम, प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरसाधारणसरोरनाने पतेयसरोर- प्रत्येकशरोरनाम स्थिरनाम अस्थिर- नाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, नामे थिरनामे अथिरनामे सुमनाने नाम शुभनाम अशुभनाम सुभगन म सुभगनाम. दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, असुभनामे सुभगनामे दूभगनामे दुभंगनाम सुस्वरनाम दुःस्वरनाम दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, सुस्तरनामे दुस्स रनामे आएग्ज- आदेपनाम अनादेयनाम यशःकोतिनाम यशकीर्तिनाम, अयशःकीर्तिनाम, नामे अणाएज्जनामे जसोकित्तिनामे अयशःकोतिनाम निर्माणनाम निर्माणनाम और तीर्थङ्करनाम । अजसोकित्तिनामे निम्माणनामे तीर्थकरनाम । तित्थकरनामे। ७. लवणे णं समुद्दे बायालोसं नाग- लव समुदे द्विचत्वारिंशद् नाग- ७. बयालीस हजार नाग लवणसमुद्र की साहस्सोओ अमितरियं वेतं साहयः आन्धतरिकों वेलां आभ्यन्तर वेला को धारण करते हैं। धारेति। धारयन्ति । ८. महालियाए गं विमाणपविभताए महत्यां विमानप्रविभक्तो द्वितीये वर्गे ८. महतीविमानप्रविभक्ति के दूसरे वर्ग में बितिए वणे बापालासं उद्देस ग- द्विचत्वारिंशद् उद्देशनकालाः प्रज्ञप्ताः। बयालीस उद्देशन-काल हैं। काला पण्णत्ता। ६. एगमेगाए ओसप्पिगोए पंचम- एकैकस्यां अवपिण्यां पञ्चमषष्ठ्यौ ६. प्रत्येक अवपिणी के पांचवें (दुःषमा) छद्रोओ समाओ बाबालोतं समे द्विवत्वारिंशद वर्षसहस्राणि कालेन और छठे (एकान्त दुःषमा)-इन दो वाससहस्साई कालेणं पण्णताओ। प्रज्ञप्ते । आरों का कालमान बयालीस हजार वर्ष का है। १०. एगमेगाए उस्सप्पिगोए पडम- एकैकस्यां उत्सपिण्यां प्रयमद्वितोये समे १०. प्रत्येक उत्सपिणी के पहले (एकान्त बीयाओ समाओ बायालोसं द्विचत्वारिंशद् वर्षसहस्राणि कालेन दुःषमा) और दूसरे (दुःषमा)-इन वाससहस्साइं कालेणं पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ते । दो आरों का कालमान बयालीस हजार वर्ष का है। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. कुछ अधिक बयालीस वर्षों तक (बायालोसं वासाइं साहियाई) भगवान् महावीर बारह वर्ष और साढे छह मास तक छद्मस्थ रहे और कुछ न्यून तीस वर्ष तक केवली। भगवान् को केवलज्ञान वैशाख शुक्ला दसमी को हुआ और निर्माण कार्तिक कृष्णा अमावस्था को। इससे यह फलित होता है कि भगवान् २६ वर्ष ५ मास और २० दिन तक केवली रहे। छद्मस्थ अवस्था को मिलाने पर उनका योग ४२ वर्ष ५ दिन होता है। इसीलिए प्रस्तुत सूत्र में कुछ अधिक बयालीस वर्षों का उल्लेख हुआ है। पर्युषणा कल्प में भगवान् महावीर का श्रामण्य-पर्याय-काल बयालीस वर्ष का बतलाया गया है। वहां अतिरिक्त दिनों की विवक्षा नहीं की गई है। २. व्यवधानात्मक अन्तर (अबाहाते अंतरे) 'व्यवधानात्मक'--यह अबाधा शब्द का अनुवाद है। अभयदेव सूरी ने अबाधा का अर्थ ---- 'व्यवधान की अपेक्षा से होने वाला'-किया है। आचार्य मलयगिरि ने इसका शाब्दिक अर्थ भी समझाया है। उन्होंने बाधा का अर्थ 'आक्रमण' किया है। इस आधार पर 'अबाधा' का अर्थ 'अनाक्रमण'-'एक दूसरे की संलग्नता न होना'—किया जा सकता है।' ३. जम्बूद्वीप..... पूर्वी चरमान्त (चउद्दिसि) प्रस्तुत सूत्र में 'चउद्दिसिं' पाठ है। पूर्व दिशा का निरूपण इससे पूर्ववर्ती सूत्र में किया जा चुका है, इसलिए यहां 'तिदिसिं' पाठ होना चाहिए। वृत्तिकार ने तेंतालीसवें समवाय में इस विषय का विमर्श किया है। प्रस्तुत सूत्र में उन्होंने इसका कोई विमर्श नहीं किया। उन्हें यह पाठ प्राप्त था या नहीं, इस विषय में कुछ भी निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता। चारों आवास-पर्वतों की अवस्थिति इस प्रकार है १. पूर्व में गोस्तूप पर्वत २. दक्षिण में दकावभास पर्वत ३. पश्चिम में शंख पर्वत ४. उत्तर में दकसीम पर्वत । १. समवायांगवृत्ति, पत्न ६३ : छद्मस्थपर्याये द्वादश वर्षाणि षण्मासा अर्द्धमासश्चेति, केवलिपर्यायस्तु देशोनानि त्रिंशद् वर्षाणीति, पर्युषणाकल्पे द्विचत्वारिशदेव वर्षाणि महावीरपर्यायोभिहितः, इह तु साधिक: उक्तः, तन्न पर्युषणाकल्पे यदल्पमधिकं तन्न विवक्षितमिति सम्भाव्यत इति । २. वही, पन्न ६३: प्रवाहाए त्ति व्यवधानापेक्षया। ३. जीवाजीवाभिगमवृत्ति, पन्न २२२ : इति बाधनं बाधा-पाक्रमणं तस्यामबाधायां कृत्वेति गम्यते, अपान्तरालेषु मुक्त्वेति भावः। ४. समवायांगवृत्ति, पन ६४: चउद्दिसिपि' ति उक्तदिगन्तवेिन चतस्रो दिश उक्ता अन्यथा एवं तिदिसिपि' सिपायं स्यात् । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेयालीसइमो समवानो : तेंतालीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. तेयालीसं कम्मविवागझयणा त्रयश्चत्वारिंशत् कर्मविपाकाध्ययनानि १. कर्मविपाक के अध्ययन तेंतालीस हैं।' पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । २. पढमचउत्यपंचमासु -तोसु पुढवोसु प्रथमवतुर्यपञ्चमोषु-तिसृषु पृथिवीषु २. पहली, चौथी और पांचवीं-इन तीन तेयालीसं निरयावाससयसहस्सा त्रयश्चत्वारिंशद् निरयावासशत- पृथ्वियों में तेंतालीस लाख नरकावास पण्णत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि ।। ३. जंबुद्दीवस्स णं दोवस्स पुरत्थि- जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य पौरस्त्यात् ३. जम्बूद्वीप द्वीप के पूर्वी चरमान्त से मिल्लाओ चरिमंताओ गोथूभस्स चरमान्तात् गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य गोस्तूप आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त णं आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्ले पोरस्त्यं चरमान्तं, एतत् त्रयश्चत्वारि- का व्यवधानात्मक अन्तर तेंतालीस चरिमंते, एस णं तेयालीसं शद योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं हजार योजन का है। जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। ४. एवं चउडिसिपि दोभासे संखे एवं चतुदिक्षु अपि दकावभासः शङ्खः ४. इसी प्रकार जम्बूद्वीप के दक्षिणी दयसीमे (य?)। दकसीमः (च?)। चरमान्त से दकावभास आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का, जम्बूद्वीप के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवास-पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का और जम्बूद्वीप के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर तेंतालीसतेंतालीस हजार योजन का है। ५. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए महत्यां विमानप्रविभक्तौ तृताये वर्गे ५. महतीविमानप्रविभक्ति के तीसरे वर्ग में ततिये वग्गे तेयालीसं उद्देसणकाला त्रयश्चत्वारिंशद् उद्देशनकालाः तेंतालीस उद्देशन-काल हैं। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. कर्मविपाक के अध्ययन (कम्मविवागज्झयणा) वत्तिकार ने विपाकसूत्र को सामने रख कर प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या की है। वर्तमान में लब्ध विपाकसूत्र के बीस अध्ययन हैं। सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययन सम्मिलित करने पर कर्मविपाक के तेंतालीस अध्ययनों की संख्या पूर्ण हो सकती है। वृत्तिकार ने यह संभावना प्रस्तुत की है। उन्होंने इसका कोई आधार प्रस्तुत नहीं किया है। किन्तु द्वादशांगी के निरूपण में सूत्रकृतांग का कर्मविपाक सम्बन्धी विषय उल्लिखित नहीं है।' कर्मविपाक की पहचान 'विपाकसूत्र' के रूप में करने पर उक्त समस्या उत्पन्न हुई है। यदि हम कर्मविपाक को एक स्वतंत्र आगम मान लेते हैं तो वह समस्या स्वयं सुलझ जाती है। कर्मविपाक, जो आज उपलब्ध नहीं है, के तेंतालीस अध्ययन थे। २. तेंतालीस लाख नरकावास (तेयालीसं निरयावाससयसहस्सा) पहली पृथ्वी में तीस लाख, चौथी पृथ्वी में दस लाख और पांचवीं पृथ्वी में तीन लाख नरकावास हैं। १ समवायांग, प्रकीर्ण समवाय ६६ : वीसं मझयणा। २. समवायांगवृत्ति, पत्र ६४ : एतानि च एकादशाङ्गद्वितीयाङ्गयो: संभाव्यन्ते। ३. समवायांग, प्रकीर्ण समवाय १०॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोयालीसइमो समवायो : चौवालीसवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. चोयालीसं अज्झयणा इसिभासिया चतुश्चत्वारिंशद् अध्ययनानि ऋषि- १. देवलोक से च्युत जीवों द्वारा भाषित दियलोगचुयाभासिया पण्णत्ता। भाषितानि धुलोकच्युताभाषितानि अध्ययन, जिनकी संज्ञा ऋषिभाषित' है, प्रज्ञप्तानि । चौवालीस हैं। २. विमलस्स णं अरहतो चोयालीसं विमलस्य अर्हतः चतुश्चत्वारिंशत् २. अर्हत् विमल के चौवालीस पुरुषयुग' परिसजगाई अणपदि सिद्धाई पुरुषयूगानि अनुपष्ठि सिद्धानि बुद्धानि अनुक्रम से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत बुद्धाइं मुत्ताइं अंतगडाइं परि- मुक्तानि अन्तकृतानि परिनिर्वृतानि और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से णिव्वुयाई सव्वदुक्खप्पहीगाई। सर्वदुःखप्रहीणानि । रहित हुए। ३. धरणस्स णं नागिदस्स नागरण्णो धरणस्य नागेन्द्रस्य नागराजस्य ३. नागराज नागेन्द्र धरण के चौवालीस चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा चतुश्चत्वारिंशद् भवनावासशतसह- लाख भवनावास हैं । पण्णत्ता। स्राणि प्रज्ञप्तानि। ४. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए महत्यां विमानप्रविभक्तौ चतुर्थे वर्गे ४. महतीविमानप्रविभक्ति के चौथे वर्ग में चउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसण- चतुश्चत्वारिंशद् उद्देशनकालाः चौवालीस उद्देशन-काल हैं। काला पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । टिप्पण १. ऋषिभाषित (इसिभासिया) वर्तमान में उपलब्ध ऋषिभाषित सूत्र में पैतालीस अध्ययन प्राप्त होते हैं और वे पैंतालीस अर्हतों द्वारा भाषित हैं।' प्रस्तुत सूत्र में चौवालीस अध्ययनों वाला ऋषिभाषित संगृहीत है। वह कौन-सा है, यह निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता। २. पुरुषयुग (पुरिसजुगाई) इसका अर्थ है-शिष्य-प्रशिष्य से कम से व्यवस्थित युगपुरुष । १. इसिभासिय, पढमा संगहिणी, गा.१-। २. समवायांगवृत्ति, पन ६४: पुरुषा:-शिष्यप्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता युगानीव-कालविशेषा इव क्रमसाधात् पुरुषयुगानि । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणयालीसइमो समवायो : पैंतालीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. समयलेते णं पणयालीसं जोयण- समयक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशद् योजनशत- सयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं सहस्राणि आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तम्। पण्णत्ते। हिन्दी अनुवाद १. समयक्षेत्र (सूर्य-चन्द्रकृत कालमर्यादा वाला क्षेत्र) पैतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। २. सीमंतए णं नरए पणयालीसं सीमन्तकः नरकः पञ्चचत्वारिशद् जोयणसयसहस्साइं आयामविक्ख- योजनशतसहस्राणि आयामविष्कम्भेण भेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः । २. सीमंतक' नरक पैंतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। ३. एवं उडुविमाणे पण्णत्ते। एवं उडुविमानं प्रज्ञप्तम् । ३. उडुविमान' पैतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। ४. ईसिपब्भारा णं पुढवी पण्णत्ता एवं ईषत्प्राग्भारा पृथिवी प्रज्ञप्ता एवं चैव। ४. ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी पैंतालीस लाख चेव। योजन लम्बी-चौड़ी है। ५. धम्मे णं अरहा पणयालीसं धणूई धर्मः अर्हन् पञ्चचत्वारिंशद् धनूंषि ५. अहंत धर्म पैंतालीस धनुष ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ६. मंदरस्स णं पव्वयस्स चउदिसिपि मन्दरस्य पर्वतस्य चतुर्दिक्षु अपि ६. मेरुपर्वत का (लवण समुद्र की आभ्यन्तर पणयालीसं-पणयालीसं जोयण- पञ्चचत्वारिंशद् - पञ्चचत्वारिशद परिधि से) चारो दिशाओं में पैतालीससहस्साई अबाहाते अंतरे पण्णत्ते। योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं पैंतालीस हजार योजन का व्यवधानाप्रज्ञप्तम् । त्मक अन्तर है। ७. सव्वेवि णं दिवड्ढखेत्तिया नक्खत्ता सर्वाण्यपिद्वयर्द्धक्षेत्रकाणि नक्षत्राणि ७. द्वर्धक्षेत्र' के सभी नक्षत्र पैतालीस मुहूर्त पणयालीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्ताश्चन्द्रेण साई तक चन्द्रमा के साथ योग करते थे, जोगं जोइंसु वा जोइंति वा जोइ- योगं अयूयुजन् वा योजयन्ति वा करते हैं और करेंगे। के स्संति वा योजयिष्यन्ति वा। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. तिन्नेव उत्तराई, त्रीण्येवोत्तराणि, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य। पुनर्वसू रोहिणी विशाखा च । एए छ नक्खत्ता, एतानि षड् नक्षत्राणि, पणयालमुहुत्तसंजोगा॥ पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तसंयोगानि ।। वे नक्षत्र ये हैं-उत्तराषाढ़ा, उत्तरफल्गुनी, उत्तरभद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो २०८ ८. • महालियाए णं विमाणपविभत्तीए महत्यां विमानप्रविभक्तौ पञ्चमे वर्गे पंचमे वग्गे पणयालीसं उद्देसण पञ्चचत्वारिंशद् उद्देशनकालाः काला पण्णत्ता | प्रज्ञप्ताः । १. सीमंतक ( सोमंतए) टिप्पण पहली नरक पृथ्वी के पहले प्रस्तट के मध्यभाग में जो गोल नरकेन्द्र है, उसे 'सीमन्तक' कहते हैं । ' २. उडुविमान (उडुविमाणे ) सौधर्म और ईशान देवलोक के प्रथम प्रस्तटवर्ती, चार विमानावलियों के मध्यभागवर्ती गोलाकार विमान केन्द्र को 'उडुविमान' कहते हैं । ' ३. द्वयर्धक्षेत्र (दिवडखेत्तिया ) चन्द्रमा के तीस मुहूर्त्त में भोगे जाने वाले नक्षत्र क्षेत्र को 'सम - क्षेत्र' कहते हैं । पैंतालीस मुहूर्त्त ( ३० + १५ ) तक चन्द्रमा के साथ योग करते हैं।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ६५ : प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे मध्यभागवशीं वृत्तो नरककेन्द्र: सीमन्तक इति । समवाय ४५ : सू० ८ ८. महतीविमानप्रविभक्ति के पांचवें वर्ग में पैंतालीस उद्देशन - काल हैं । २. दही, पन ६५ : सौधर्मेशानयो: प्रथमप्रस्तटवश चतसृणां विमानावलिकानां मध्यभागवत वृत्तं विमानकेन्द्रकमुडुविमानमिति । ३. बही, पत्र ६५ : चन्द्रस्य विशन्मुहसंभोग्यं नक्षत्रक्षेत्रं समयक्षेत्रमुच्यते, तदेव सार्द्धं द्वघद्ध द्वितीयमर्द्ध मस्येति द्वयद्ध मित्येवं व्युत्पादनात् तथाविधं क्षेत्रं येषामस्ति तानि द्वयर्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणि, प्रतएव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताः चन्द्रेण सार्द्धं योगः-- सम्बन्धी योजितवन्ति । ऐसे द्वय्र्ध ( डेढ़ ) सम - क्षेत्र के नक्षत्र Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छायालीसइमो समवानो : छियालीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. दिदिवायस्स गं छायालीसं दृष्टिवादस्य षट्चत्वारिंशद् १. दृष्टिवाद के मातृकापद' छियालीस माउयापया पण्णत्ता। मातृकापदानि प्रज्ञप्तानि । है । २. बंभीए णं लिवीए छायालीसं ब्राह्मयाः लिपेः षट्चत्वारिंशद् २. ब्राह्मी लिपि के मातृकाक्षर' छियालीस माउयक्खरा पण्णत्ता। मातृकाक्षराणि प्रज्ञप्तानि । ३. पभंजणस्स णं वातकुमारिदस्स प्रभञ्जनस्य वातकुमारेन्द्रस्य ३. वायुकुमारेन्द्र प्रभंजन के छियालीस लाख छायालीसं भवणावाससयसहस्सा षट्चत्वारिंशद् भवनावासशतसहस्राणि भवनावास हैं। पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । टिप्पण १. दृष्टिवाद के मातृकापद (दिट्ठीवायस्स णं 'माउयापया) जिस प्रकार अ, आ, इत्यादि अक्षर समस्त वाङमय के मातृकापद (स्रोतभूत) होते हैं उसी प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-ये तीनों दृष्टिवाद के मातृकापद हैं। सिद्धश्रेणी, मनुष्यश्रेणी आदि के विषयभेद से ये छियालीस हैं, ऐसी संभावना वृत्तिकार ने की है।' २. ब्राह्मीलिपि के मातृकाक्षर (बंभीए णं लिवीए'माउयक्खरा) 'अ' से 'क्ष' पर्यन्त वर्ण मातृका कहलाते हैं। वृत्तिकार ने सम्भावित रूप से ४६ मातृकाक्षरों का निर्देश इस प्रकार किया है १. समवायांमवृत्ति, पत्न ६५: द्वादशाङ्गस्य 'माउयापय' त्ति सकलवाङ्मयस्य प्रकारादिमातृकापदानीव दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनस्वेन मातकापदानि उत्पादविगमधौम्यलक्षणानि, वानि च सिवयं णिमनुष्यथ प्यादिना विषयभेदेन कथमपि भिद्यमानानि षट्चत्वारिशद्भवन्तीति सम्भाव्यन्ते । २. जयसेन प्रतिष्ठापाठ, ३७६ : 'प्रकारादिक्षकारान्ता, वर्णा प्रोक्तास्तु मातुकाः।' ३. समवायांगवृत्ति, पत्र ६५: लेख्यविधी षट्चत्वारिंशन्मातृकाक्षराणि, तानि चाकारादीनि हकारान्तानि सक्षकाराणि ऋऋ लल ल इत्येवं तदक्षरपञ्चकवर्जितानि सम्भाव्यन्ते, (स्वरचतुष्टयवर्जनात् विसर्गान्तानि द्वादश पञ्चविंशति: स्पर्शा: चतस्रोऽन्तःस्था: ऊष्माणश्चत्वार: क्षवर्णश्चेति षट्चत्वारिंशद्वर्णाः) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २१० समवाय ४६ : टिप्पण असे अ: तक (ऋ ऋ ल ल को छोड़कर) क से म तक (५४५) य र ल व श ष स ह १२ स्वर २५ व्यंजन ४ अन्तस्थ ४ ऊष्म श्रीयुत् ओझा ने ये ही ४६ अक्षर माने हैं। चीनी यात्री ह्यएन्सेग ने इसके साथ 'ज्ञ' अक्षर जोड़कर ४७ अक्षर माने वैदिक कालीन ब्राह्मी लिपि के सामान्यतः ६४ अक्षर हैं, ऐसा ओझा ने प्रतिपादित किया है। यह संख्या दीर्घ और प्लुत के आधार पर की गई है। १.भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पु. ४६॥ २. वही, पृ.।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ सत्तचालीसइमो समवाश्रो : सैंतालीसवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. जया णं सूरिए सम्वन्भंतरमंडलं यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलं उपसंक्रम्य उवसंकमित्ताणं चारं चरइ तथा णं चारं चरति तदा इहगतस्य मनुष्यस्य इहायरस मणूसस्स सत्तचत्तालीसं सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्रः द्वाभ्यां जोयणसहस्से हि दोहि य तेवट्ठेह च त्रिषष्ठ्या योजनशतैः एकविंशत्या जोसहि एक्कवीसाए य च षष्ठिभागैर्योजनस्य सूर्यः चक्षुः स्पर्श सट्टिभागह जोयणस्स सूरिए अर्वाग् आगच्छति । चक्खुफासं हव्वमागच्छइ । २. येरे णं अग्निभूई सत्तालीसं वासाई अगारमज्झा वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । स्थविर: अग्निभूतिः सप्तचत्वारिंशद् वर्षाणि अगारमध्युष्य मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः । टिप्पण १. ४७२६२६ योजन की दूरी (सत्तचत्तालीसं जोयणसहस्सेहि 'जोयणस्स) जम्बूद्वीप एक लाख योजन का है। आभ्यंतर सूर्यमंडल का विष्कंभ आता है। हिन्दी अनुवाद १. जब सूर्य सर्व आभ्यंतर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है तब यहां १ समवायांगवृत्ति, पत्र ६६ । २. घावश्यक नियुक्ति, गा० ६५०, अवचूर्णि प्रथम विभाग, पृ० ३०७ । रहे हुए मनुष्य को वह ४७२६३२१ ६० योजन की दूरी से दिखलाई पड़ता है ।' उसके दोनों पावों में १५०-१८० योजन अर्थात् ३६० योजन को छोड़ने से वह ६९६४० योजन है। उसकी परिधि ३१५०८६ योजन होती है । इस परिधि को सूर्य साठ मुहूर्त्त में पार करता है । अतः एक मुहूर्त में सूर्य ( ३१५०८९ ÷ ६० ) ५२५१६ योजन गति करता है । जब सूर्य आभ्यंतर मंडल में गति करता है तब दिवस अठारह मुहूर्त का होता है। इसके आधे नौ हुए। एक मुहूर्त्त की गतिको नौ से गुणित करने पर (५२५१०३८x९) ४७२६३ २०८० योजन प्राप्त होते हैं ।' २. स्थविर अग्निभूति सैंतालीस वर्ष तक गृह में रह कर मुंड हुए और अगार से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए । २. सैंतालीस वर्ष (सत्तालीसं वासाइं) आवश्यक निर्वृक्ति में अग्निभूति का गृहवास छियालीस वर्ष का बतलाया है और यहां सैंतालीस वर्ष का। संभव है वे छियालीस वर्षों से कुछ अधिक समय तक गृहवास में रहे हों । अतः यह भेद पूर्णता और अपूर्णता की अपेक्षा से है ।' Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ डयालीसइमो समवाश्रो : अड़तालीसवां समवाय मूल १. एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्क वट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा पण्णत्ता । २. धम्मस्स णं अरहओ अडयालीसं गणा अडयालीसं गहरा होत्था । ३. सूरमंडले णं अडयालीसं एकसट्ठिभागे जोयणस्स विक्खंभेणं पण्णत्ते । संस्कृत छाया एकैकस्य राज्ञः चातुरन्तचक्रवर्तिनः अष्टचत्वारिंशत् पत्तन सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । धर्मस्य अर्हतः अष्टचत्वारिंशद् गणाः अष्टचत्वारिंशद् गणधराः आसन् । सूर्यमण्डलं अष्टचत्वारिंशद् एकषष्ठि - भागं योजनस्य विष्कम्भेण प्रज्ञप्तम् । १. प्रावश्यक निर्युक्ति, अवचूर्णि प्रथम विभाग, १० २११। हिन्दी अनुवाद १. प्रत्येक चातुरंत चक्रवर्ती के अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं । २. अर्हत् धर्म के अड़तालीस गण और अड़तालीस गणधर थे। टिप्पण १. अड़तालीस गण और अड़तालीस गणधर ( अडयालीसं गणा अडयालीसं गणहरा ) आवश्यक निर्युक्ति ( गा० २६७ ) में अर्हत् धर्म के गण और गणधरों की संख्या तैंतालीस तैंतालीस बतलाई गई है।' यह मतान्तर जानना चाहिए । ४८ ६१ ३. सूर्यमण्डल की चौड़ाई योजन है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . एगणपण्णासइमो समवायो : उनचासवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा सप्तसप्तमिका भिक्षुप्रतिमा एकोन- १. सप्तसप्तमिका भिक्षुप्रतिमा उनचास एगणपण्णाए राइदिएहि छन्नउएणं पञ्चाशता रात्रिन्दिवैः षण्णवत्या दिन-रात की अवधि में १९६ भिक्षाभिक्खासएणं अहासुत्तं अहाकप्पं भिक्षाशतेन यथासूत्रं यथाकल्पं दत्तियों से सूत्र, कल्प, मार्ग तथा तथ्य अहामग्गं अहातच्चं सम्मं काएण यथामार्ग यथातथ्यं सम्यक् कायेन के अनुरूप काया से सम्यक् स्पृष्ट, फासिया पालिया सोहिया स्पृष्टा पालिता शोधिता तीरिता पालित, शोधित, पारित, कीर्तित और तोरिया किट्टिया आणाए कोतिता आज्ञया आराधिता चापि आज्ञा से आराधित होती है । आराहिया यावि भवइ। भवति । २. देवकुरु-उत्तरकुरासु णं मण्या देवकुरु-उत्तरकुर्वो मनुजाः एकोन- २. देवगुरु और उत्तरकुरु के मनुष्य उनचास एगूणपण्णाए राइदिएहि संपत्त- पञ्चाशता रात्रिन्दिवैः सम्प्राप्तयौवनाः दिन-रात में यौवन-सम्पन्न हो जाते हैं । जोव्वणा भवंति। भवन्ति । ३. तेइंदियाणं उक्कोसेणं एगूणपण्णं त्रीन्द्रियाणां उत्कर्षेण एकोनपञ्चाशद् ३. श्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति राइंदिया ठिई पणत्ता। राविन्दिवानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। उनचास दिन-रात की है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णासइमो समवानो : पचासवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. मुणिसुव्वयस्स णं अरहओ पंचासं मुनिसुव्रतस्य अर्हतः पञ्चाशद् १. अर्हन् मुनिसव्रत के पचास हजार अज्जियासाहस्सीओ होत्था। आर्यिकासाहयः आसन् । साध्वियां थीं। २. अणंते णं अरहा पण्णासं धणूइं अनन्त: अर्हन् पञ्चाशद् धनू षि २. अर्हन् अनन्त पचास धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ३. पुरिसोत्तमे णं वासुदेवे पण्णासं पुरुषोत्तमः वासुदेवः पञ्चाशद् धनूषि ३. वासुदेव पुरुषोत्तम पचास धनुष्य ऊंचे धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । थे। ४. सव्वेवि णं दोहवेयड्ढा मूले सर्वाण्यपि दीर्घवैताढ्यानि मूले ४. सभी दीर्घ-वैताढ्य पर्वत मूल में पचास पण्णासं-पण्णासं जोयणाणि पञ्चाशत्-पञ्चाशत् योजनानि पचास योजन चौड़े हैं। विक्खंभेणं पण्णत्ता। विष्कम्भेण प्रज्ञप्तानि । ५. लंतए कप्पे पण्णासं विमाणावास- लान्तके कल्पे पञ्चाशद् विमानावास- ५. लान्तककल्प में पचास हजार विमानासहस्सा पण्णत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि। वास हैं। ६. सव्वाओणं तिमिस्सग्रहाखंडगप्प- सर्वाः तमिस्रगुहाखण्डकप्रपातगुहाः ६. सभी तमिस्रगुफाएं तथा खंडप्रपातगुफाएं वायगृहाओ पण्णासं-पण्णासं पञ्चाशत्-पञ्चाशत् योजनानि पचास-पचास योजन लम्बी हैं। जोयणाई आयामेणं पण्णत्ता। आयामेन प्रज्ञप्ताः । ७. सव्वेवि णं कंचणगपव्वया सर्वेऽपि काञ्चनकपर्वताः शिखरतले ७. सभी कांचनक' पर्वत शिखरतल पर सिहरतले पण्णासं-पण्णासं पञ्चाशत्-पञ्चाशत् योजनानि पचास-पचास योजन चौड़े हैं। जोयणाई विक्खंभेणं पण्णता। विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः। टिप्पण १. सभी कांचनक पर्वत (सव्वेवि णं कंचणगपव्वया) उत्तरकुरु क्षेत्र में नीलवत् आदि पांच महाह्रद अनुक्रम से हैं। प्रत्येक ह्रद के पूर्व और पश्चिम दिशा में दस-दस कांचनक-पर्वत हैं। अत: वहां कुल सौ कांचनक-पर्वत हैं। इसी प्रकार देवकुरु क्षेत्र में निषध आदि पांच महाह्रदों के दोनों पावों में कांचनक-पर्वत हैं। वे भी सौ हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में दो सौ कांचनक-पर्वत हुए। वे सभी सौ-सौ योजन ऊंचे और मूल में सौ-सौ योजन चौड़े हैं तथा उनके शिखरों पर उन-उन नाम के देवताओं के भवन हैं।' २. समवायांगवृत्ति, पन ६६,६७। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगपण्णासइमो समवायो : इक्यावनवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. नवण्हं बंभचेराणं एकावण्णं नवानां ब्रह्मचर्याणां एकपञ्चाशद् १. नौ ब्रह्मचर्य अध्ययनों के इक्यावन उद्देसणकाला पण्णत्ता। उद्देशनकालाः प्रज्ञप्ताः । ___ उद्देशन-काल' हैं। २. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररणो चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य सभा २. असुरराज असुरेन्द्र चमर की सुधर्मा सभा सुषम्मा एकावण्णखंभसय- सुधर्मा एकपञ्चाशत् स्तम्भशत- सभा इक्यावन सौ खंभों पर अवस्थित संनिविदा पण्णत्ता। संनिविष्टा प्रज्ञप्ता। ३. एवं चेव बलिस्सवि। एवं चैव बलिनोऽपि । ३. असुरराज असुरेन्द्र बली की सुधर्मा सभा इक्यावन सौ खंभों पर अवस्थित ४. सुप्पमे णं बलदेवे एकावणं सुप्रभः बलदेवः एकपञ्चाशद् ४. बलदेव सुप्रभ' इक्यावन लाख वर्ष के वाससयसहस्साइं परमाउं वर्षशतसहस्राणि परमायुः पालयित्वा परम आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वतः मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा परिणिबुडे सव्वदुक्खप्पहोणे। सर्वदुःखप्रहीणः । सर्व दुःखों से रहित हुए। ५. दंसणावरणनामाणं-दोण्हं कम्माणं दर्शनावरणनाम्नोः द्वयोः कर्मयोः ५. दर्शनावरण और नाम-इन दो कौं एकावणं उत्तरपगडीओ एकपञ्चाशद् उत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । की उत्तर-प्रकृतियां इक्यावन हैं।' पण्णत्ताओ। टिप्पण १. ब्रह्मचर्य उद्देशन-काल (बंभवेराणं "उद्देशणकाला) प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मचर्य का अर्थ है-आचारांग सूत्र। उसके नौ अध्ययन, इक्यावन उद्देशक और इक्यावन उद्देशनकाल हैंअध्ययन उद्देशक उद्देशन-काल (१) शस्त्रप्ररिज्ञा (२) लोकविजय (३) शीतोष्णीय (४) सम्यक्त्व < < 0 6 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २१६ समवाय ५१ : टिप्पण (५) लोकसार (६) धुत (७) महापरिज्ञा (८) विमोक्ष (६) उपधानश्रुत दृत्तिकार ने उद्देशकों का उल्लेख करते हुए अन्त में सात उद्देशकों का उल्लेख किया है। वे कहते हैं-ये सात उद्देशक सातवें अध्ययन के हैं । वह सातवां अध्ययन ब्युच्छिन्न हो गया। अतः उसको अन्त में रखा गया है । समवाय ६/३ में भी यही क्रम है। वहां 'महापरिज्ञा' को नौवां अध्ययन माना है। वास्तव में यह सातवां अध्ययन है। नौवें समवाय को ध्यान में रखकर ही यहां उस अध्ययन के उद्देशक अन्त में गिनाएं हैं। वृत्तिकार ने समवाय ८५/१ की वृत्ति में भी यही क्रम रखा है।' २. सुप्रभ (सुप्पभे) सुप्रभ ये चौथे बलदेव अनंतजित तीर्थङ्कर के समय में हुए हैं । आवश्यकनियुक्ति (गा० ४०६) में उनका आयुष्य पचपन लाख वर्ष का बतलाया है। २. दर्शनावरण की उत्तर-प्रकृतियां (दसणावरणनामाणं "उत्तरपगडीओ) दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तर-प्रकृतियां हैं।' नामकर्म की बयालीस उत्तर-प्रकृतियां हैं।' १. समवायांगवृत्ति, पन्न ६७: प्राचारप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानां शस्त्रारीजादीनां, तत्र प्रयमे सप्तोद्देशका इति सप्तवोद्देशनकाला:, एवं द्वितीयादिषु क्रमेण षट् चत्वार: चत्वारः एवं षट् पञ्च अष्ट चत्वारः सप्तमे महापरिजाया: सप्तोद्देशा: व्युच्छिन्नं च तदिति प्रान्ते प्रागप्यध्ययनोल्लेखे उद्दिष्टं प्रान्त्य एवात्रोद्दिष्टा उद्देशा मपि तस्य क्रमापेक्षया सप्तमस्य चेत्येवमेकपञ्चाशदिति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ८६। ३. समवाय, ९/११॥ .बही, ४२/11 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ बावण्णइमो समवानो : बावनवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दो अनुवाद १. मोहनीय कर्म के नाम बावन हैं, जैसे क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चांडिक्य, भंडन और विवाद । मान, मद, दर्प, स्तंभ, आत्मोत्कर्ष, गर्व, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत और उन्नाम । १. मोहणिज्जस्सणं कम्मस्स बावन्नं मोहनीयस्य कर्मणः द्विपञ्चाशद् नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा- नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाकोहे कोवे रोसे दोसे अखमा क्रोधः कोपः रोषः दोषः अक्षमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे संज्वलनं कलहः चाण्डिक्यं भण्डनं विवाए। विवादः । माणे मदे दप्पे थंभे अत्तुक्कोसे मानः मदः दर्पः स्तम्भः आत्मोत्कर्षः गव्वे परपरिवाए उक्कोसे गर्वः परपरिवादः उत्कर्षः अपकर्षः अवक्कोसे उन्नए उन्नामे। उन्नतः उन्नामः । माया उवही नियडो वलए गहणे माया उपधिः निकृति, वलय: गहनं णूमे कक्के कुरुए दंभे कूडे जिम्हे ‘णूम' कल्कं कुरुकं दम्भः कूटं जैम्हं किब्बिसिए अणायरगया गूहगया किल्विषिकं अनाचरणं गूहनं वञ्चनं वंचगया पलिकुंचणया सातिजोगे। परिकुञ्चनं साचियोगः । लोमे इच्छा मुच्छा कंखा गेहो लोभः इच्छा मूर्छा कांक्षा गृद्धिः तृष्णा तिण्हा भिज्जा अभिज्जा कामासा भिव्या अभिव्या कामाशा भोगाशा भोगासा जीवियासा मरणासा जोविताशा मरणाशा नन्दिः रागः । नंदी रागे। २. गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य पौरस्त्यात् पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् वडवामुखस्य महापातालस्य वलयामुहस्स महापायालस्स पाश्चात्यं चरमान्तं, एतत् द्विपञ्चाशद् पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस णं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं बावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए प्रज्ञप्तम् । अंतरे पण्णत्ते। माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, कुरुक, दंभ, कूट, जैह्म, किल्विषिक, अनाचरण, गृहन, वंचन, परिकुंचन और साचियोग । लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदी और राग । २. गोस्तूप आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त से वडवामुख महापाताल के पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर बावन हजार योजन का है। ३. एवं दओभासस्स णं केउकस्स एवं दकावभासस्य केतुकस्य (च?) (य? ), संखस्स जूयकस्स (य?), शंखस्य यूपकस्य (च ?) दकसीमस्य दयसीमस्स ईसरस्स (य?)। ईश्वरस्य (च?)। ३. इसी प्रकार दकावभास आवास-पर्वत से केतुक महापाताल कलश का, शंख आवास-पर्वत से यूप महापाताल का और दकसीम आवास-पर्वत से ईश्वर महापाताल का व्यवधानात्मक अन्तर बावन-बावन हजार योजन का है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ समवानो समवाय ५२ : सू० ४-५ ४. नाणावरणिज्जस्स नामस्स ज्ञानावरणीयस्य नाम्नः आन्तरायि- ४. ज्ञानावरणीय, नाम और अंतराय अंतरातियस्स-एतासि णं तिहं कस्य-एतासां तिसृणां कर्मप्रकृतीनां इन तीन कर्म-प्रकृतियों की उत्तरकम्मपगडोणं बावन्नं उत्तर- द्विपञ्चाशद् उत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । प्रकृतियां बावन हैं।' पयडीओ पण्णत्ताओ। ५. सोहम्म - सणंकुमार - माहिदेसु- सौधर्म - सनत्कुमार - माहेन्द्रेषु –त्रिषु ५. सौधर्म, सनत्कुमार और माहेन्द्र-इन तिसु कप्पेसु बावन्नं विमाणावास- कल्पेषु द्विपञ्चाशद् विमानावासशत- तीन कल्पों में बावन लाख विमानावास सयसहस्सा पण्मत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । टिप्पण १. मोहनीय कर्म के (मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स) क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय मोहनीय कर्म के अवयव हैं। अवयवों में अवयवी का अथवा खंड में समृदय का उपचार कर इन चारों कषायों के पर्याय-नामों को मोहनीय के नामरूप में उल्लिखित किया है। इनमें क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सतरह और लोभ के चौदह नाम गिनाएं हैं। उनका योग (१०+११+१७-+१४) बावन होता है। २. तीन कर्म-प्रकृतियों की उत्तर-प्रकृतियां बावन हैं (तिण्हं कम्मपगडीणं बावन्नं उत्तरपयडीओ) ज्ञानावरणीय की पांच, नाम की बयालीस तथा अन्तराय की पांच-इस तरह कुल बावन उत्तर प्रकृतियां होती हैं। ३. बावन लाख विमानावास (बावन्नं विमाणावाससयसहस्सा) सौधर्म में बत्तीस लाख, सनत्कुमार में बारह लाख तथा माहेन्द्र में आठ लाख -इस तरह कुल ५२ लाख विमानावास Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवण्णइमो समवानो : तिरपनवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. देवकुरुउत्तरकुरियातो णं जीवाओ देवकुरूत्तरकुर्वोये जीवे त्रिपञ्चाशत्- १. देवकुरु और उत्तरकुरु की जीवा तेवन्न-तेवन्नं जोयणसहस्साई त्रिपञ्चाशत् योजनसहस्राणि तिरपन-तिरपन हजार योजन से कुछ साइरेगाई आयामेणं पण्णताओ। सातिरेकाणि आयामेन प्रज्ञप्ते । अधिक लम्बी है। २. महाहिमवंतरुप्पीणं वासहरपव्व- महाहिमवद्रुक्मिणोः वर्षधरपर्वतयोः २. महाहिमवान और रुक्मी-इन दो याणं जीवाओ तेवन्न-तेवन्तं जीवे त्रिपञ्चाशत-त्रिपञ्चाशद योजन- वर्षधर पर्वतों की प्रत्येक जीवा की जोयणसहस्साई नव य एगतोसे सहस्राणि नव च एकत्रिंशद् योजनशतं __ लम्बाई ५३६३१, योजन है। जोयणसए छच्च एक्कूणवोसइ- षट च एकोनविंशतिभागं योजनस्य भाए जोयणस्स आयामेणं आयामेन प्रज्ञप्ते । पण्णत्ताओ। ३. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य त्रिपञ्चा- ३. श्रमण भगवान् महावीर के एक वर्ष की तेवन्न अणगारा संवच्छरपरियाया शद अनगाराः संवत्सरपर्यायाः पञ्चसू दीक्षा-पर्याय वाले तिरपन अनगार' पांच पंचसु अणुत्तरेसु महइमहालएसु अनुत्तरेषु महातिमहत्सु महाविमानेषु अनुत्तर के अति-विस्तीर्ण महाविमानों महाविमाणेसु देवत्ताए उववन्ना। देवत्वेन उपपन्नाः । में देवरूप में उत्पन्न हुए। ४. संमच्छिम-उरपरिसप्पाणं उक्को- सम्मूच्छिम-उरःपरिसपणा उत्कर्षेण ४. सम्मच्छिम उरपरिसप जीवों की सेणं तेवन्नं वाससहस्सा ठिई त्रिपञ्चाशद वर्षसहस्राणि स्थितिः उत्कृष्ट स्थिति तिरपन हजार वर्ष की पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। टिप्पण १. तिरपन अनगार (तेवन्नं अणगारा) प्रस्तुत सूत्र में एक वर्ष की पर्याय वाले तिरपन अनगारों का कथन है। किन्तु ये अप्रतीत हैं। अनुत्तरोपपातिक में तेतीस श्रमणों का पांच अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होने का उल्लेख हुआ है। उनका श्रामण्य-पर्याय भी अनेक वर्षों का था।' अत: ये अनगार कौन थे, इसका निश्चित उत्तर संभव नहीं है। १. समवायांगवृत्ति, पत्न ६८: संवत्सरमेकं यावत् पर्याय: प्रव्रज्यालक्षणो येषां ते संवत्सरपर्यायाः ..."एते चाप्रतोताः, अनुत्तरोपपातिकांगेषु तु येऽधीयन्ते ते त्रयस्त्रिंशत् बहुवर्षपर्यायाश्चेति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवण्णइमो समवायो : चौवनवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. भरहेरवएसु णं वासेसु एगमेगाए भरतैरवतयोः वर्षयोः एकैकस्यां १. भरत और ऐरवत क्षेत्रों में प्रत्येक ओसप्पिणीए एगमेगाए उस्सप्पि- अवसर्पिण्यां एकैकस्यां उत्सपिण्यां अवपिणी और उत्सर्पिणी में चौवनणीए चउप्पण्णं-चउप्पणं उत्तम- चतुःपञ्चाशत-चतुःपञ्चाशत् उत्तम- चौवन उत्तम पुरुष हुए थे, होते हैं और पुरिसा उपज्जिसु वा उप्पज्जति पुरुषाः उदपदिषत वा उत्पद्यन्ते वा होंगे, जैसे–चौवीस तीर्थङ्कर, बारह वा उप्पज्जिस्संति वा, तं जहा- उत्पत्स्यन्ते वा तद्यथा-चतुर्विशतिः चक्रवर्ती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव । चउवीसं तित्थकरा, बारस तीर्थकराः द्वादश चक्रवत्तिनः, चक्कवट्टी, नव बलदेवा, नव नव बलदेवाः नव वासुदेवाः । वासुदेवा। २. अरहा णं अरिटुनेमी चउप्पण्णं अर्हन अरिष्टनेमिः चतुःपञ्चाशद् २. अर्हत् अरिष्टनेमि चौबन दिन-रात तक राइंदियाइं छउमत्थपरियागं रात्रिन्दिवानि छद्मस्थपर्यायं प्राप्य छद्मस्थ-पर्याय का पालन कर जिन, पाउणित्ता जिणे जाए केवलो जिनो जातः केवली सर्वज्ञः सर्वभाव केवली, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी हुए। सव्वण्ण सम्वभावदरिसी। दी । ३. समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं श्रमणो भगवान् महावीरः एकदिवसे ३. श्रमण भगवान महावीर ने एक दिन में एगनिसेज्जाए चउप्पण्णाई वागर- एकनिषद्यायां चतुःपञ्चाशद् एक ही आसन पर बैठे हुए चौवन प्रश्नों णाई वागरित्था। व्याकरणानि व्याकार्षीत् । का व्याकरण किया-उत्तर दिया।' ४. अणंतस्स णं अरहओ चउप्पणं अनन्तस्य अर्हतः चतुःपञ्चाशद् गणाः ४. अर्हत् अनन्त के चौवन गण और गणा चउप्पण्णं गणहरा होत्था। चतुःपञ्चाशद् गणधराः आसन् । चौवन गणधर थे। टिप्पण १. चौवन प्रश्नों का उत्तर दिया (चउप्पणाई वागरणाइं वागरित्या) भगवान महावीर से किसने कब, क्या और कहां चौवन प्रश्न किए और उन्होंने क्या उत्तर दिए, इसका आज विवरण प्राप्त नहीं है।' २. अर्हत् अनन्त के चौदह गणधर (अणंतस्स णं "चउप्पण्णं गणहरा) __ आवश्यकनियुक्ति में अर्हत् अनन्त के पचास गण तथा पचास गणधर बतलाए हैं। १. समवायांगवृत्ति, पन ६५ : एकेनासनपरिग्रहेण वागरणाइंति व्याक्रियन्ते-अभिधीयन्ते इति व्याकरणानि-प्रश्ने सति निर्वचनतयोच्यमाना: पदार्थाः....."व्याकृतवान् तानि चाप्रतीतानि । २.यावश्यकनियुक्ति गा० २६७, प्रवणि प्रथम विभाग, १११। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणपण्णइमो समवानो : पचपनवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. मल्ली गं अरहा पणपण्णं वास- मल्ली अर्हन् पञ्चपञ्चाशद् वर्षसह- १. अर्हत् मल्ली पचपन हजार वर्ष के परमसहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्धे स्राणि परमायुः पालयित्वा सिद्धः बुद्धः आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुडे मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःख- अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व सव्वदुक्खप्पहीणे। प्रहीणः। दुःखों से रहित हुए। २. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चत्थि- मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्यात् २. मेरु पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से मिल्लाओ चरिमंताओ विजय- चरमान्ताद् विजयद्वारस्य पाश्चात्यं विजयद्वार के पश्चिमी चरमान्त का दारस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते, चरमान्तं, एतत् पञ्चपञ्चाशद् व्यवधानात्मक अन्तर पचपन हजार एस णं पणपण्णं जोयणसहस्साइं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं योजन का हैं। अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम् । ३. एवं चउद्दिसिपि वेजयंत-जयंत- एवं चतुर्दिक्षु अपि वैजयन्त-जयन्त- ३. इसी प्रकार मेरु पर्वत के उत्तरी अपराजियंति। अपराजितं इति । चरमान्त से वैजयन्तद्वार के उत्तरी चरमान्त का, मेरु पर्वत के पूर्वी चरमान्त से जयन्तद्वार के पूर्वी चरमान्त का और मेरु पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से अपराजितद्वार के दक्षिणी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर पचपन-पचपन हजार योजन का है। ४. समणे भगवं महावीरे अंतिमराइ- श्रमणः भगवान् महावीरः अन्तिमरात्रौ ४. श्रमण भगवान् महावीर अंतिम रात्री यंसि पणपण्णं अज्झयणाई पञ्चपञ्चाशद् अध्ययनानि कल्याण- में कल्याणफलविपाक वाले पचपन कल्लाणफलविवागाई, पणपण्णं फलविपाकानि पञ्चपञ्चाशद् अध्ययन तथा पापफलविपाक वाले अझयणाणि पावफलविवागाणि अध्ययनानि पापफलविपाकानि व्याकृत्य पचपन अध्ययनों की प्ररूपणा कर' सिद्ध, वागरित्ता सिद्ध बुद्ध मुत्ते अंतगडे सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिवतः बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वत परिणिव्वुडे सम्वदुक्खप्पहीणे। सर्वदुःखप्रहीणः। हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ५. पढमबिइयासु-दोसु पुढवीसु प्रथमद्वितीययोः-द्वयोः पृथिव्योः ५. पहली और दूसरी-इन पृथ्वियों में पणपणं निरयावाससयसहस्सा पञ्चपञ्चाशद् निरयावासशतसहस्राणि पचपन लाख नरकावास हैं।' पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। ६. सणावरणिज्जनामाउयाणं तिण्हं दर्शनावरणीयनामायुषां-तिसृणां कर्म- ६. दर्शनावरणीय, नाम तथा आयुष्य -- इन कम्मपगडीणं पणपण्णं उत्तर- प्रकृतीनां पञ्चपञ्चाशद उत्तरप्रकृतयः तीन कर्म-प्रकृतियों की उत्तर-प्रकृतियां पगडीओ पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः । पचपन हैं। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. भगवान महावीर "प्ररूपणा कर (भगवं महावीरे "वागरित्ता) आयुष्य की अन्तिम रात्री के अन्तिम प्रहर में भगवान् महावीर मध्यम पापा में हस्तिपाल राजा की कार्य-सभा में पर्यङ्क आसन में स्थित थे। उस दिन कार्तिक अमावस्या थी। स्वाति नक्षत्र था। चन्द्रमायुक्त नागकरण था। प्रातःकाल के समय भगवान् ने पुण्य-कर्मों के शुभ फल को प्रकट करने वाले तथा पाप कर्मों के अशुभ फल को प्रकट करने वाले पचपन पचपन अध्ययनों का व्याकरण किया था। २. पचपन लाख नरकावास (पणपण्णं निरयावाससयसहस्सा) पहली पृथ्वी में तीस लाख तथा दूसरी में पचीस लाख नरकावास हैं ।' ३. उत्तर-प्रकृतियां पचपन हैं (पणपण्णं उत्तरपगडीओ) दर्शनावरणीय कर्म का नौ, नाम कर्म की बयालीस और आयुष्य कर्म की चार-इस तरह कुल उत्तर-प्रकृतियां ५५ हैं । १. समवायांगवृत्ति, पन ६६: सर्वायु:कालपर्यवसानरात्रौ रानेरन्तिमे भागे पापायां मध्यमायां नगर्या हस्तिपालस्य राज्ञः करणसभायां कात्तिकमासामावास्यायां स्वातिनक्षत्रेण चन्द्रमसा युक्तेन नागकरणे प्रत्युषसि पर्यकासननिषण्णः पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि ..."कल्याणस्य-पुण्यस्य कर्मणः फलं-कार्य विपाच्यते-व्यक्तीक्रियते यैस्तानि कल्याणफलविपाकानि, एवं पापफलविपाकानि ब्याकृत्य-प्रतिपाद्य.... २. समवायांगवृत्ति, पन ६६ : प्रथमायां विशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिरिति पञ्चपञ्चाशत् । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पण्णं नक्खत्ता चंदेण सद्धि जोगं जोएंसु वा जोति वा जोइस्संति वा । ५६ छप्पण्णइमो समवाश्रो : छप्पनवां समवाय २. विमलस्स णं अरहओ छप्पण्णं गणा विमलस्य अर्हतः षट्पञ्चाशद् गणाः छप्पणं गहरा होत्या । षट्पञ्चाशद् गणधराः आसन् । १. छप्पन नक्षत्र (छप्पण्णं नवखत्ता) संस्कृत छाया जम्बूद्वीपे द्वीपे षट्पञ्चाशद् नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्द्धं योगं अयूयुजन् वा योजयन्ति वा योजयिष्यन्ति वा । १. अभिजित् २. श्रवण ३. धनिष्ठा ४. शतभिषग् ५. पूर्व भद्रपदा ६. उत्तरभद्रपदा ७. रेवती जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा हैं । प्रत्येक चन्द्रमा के अट्ठाईस - अट्ठाईस नक्षत्र हैं ---- ८. अश्विनी ६. भरणी १०. कृत्तिका ११. रोहिणी १२. मृगशीषं १३. आर्द्रा १४. पुनर्वसु २. छप्पन गण और छप्पन गणधर (छप्पण्णं गणा छप्पण्णं गणहरा) आवश्यकनिर्युक्ति में इनके सत्तावन गण और सत्तावन गणधरों का उल्लेख है।" १. सूर्यप्रज्ञप्ति, १० / १३२ । २. प्रावश्यकनिर्युक्ति, गा० २६७, धवचूर्णि प्रथम विभाग, पु० २११ । टिप्पण १५. पुष्य १६. आश्लेषा १७. मघा १५. पूर्वफल्गुनी १६. उत्तरफल्गुनी २०. हस्त २१. चित्रा हिन्दी अनुवाद १. जम्बूद्वीप द्वीप में छप्पन नक्षत्रों' ने चन्द्रमा के साथ योग किया था, करते हैं और करेंगे। २. अर्हत् विमल के छप्पन गण और छप्पन गणधर थे । २२. स्वाति २३. विशाखा २४. अनुराधा २५. ज्येष्ठा २६. मूला २७. पूर्वाषाढ़ा २८. उत्तराषाढ़ा । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ सत्तावण्णइमो समवायो : सत्तावनवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचलिया- त्रयाणां गणिपिटकानां आचारचूलिका- १. आचारचूलिका को छोड़ कर तीन वज्जाणं सत्तावणं अज्झयणा वर्जानां सप्तपञ्चाशद् अध्ययनानि गणिपिटकों-आचार, सूत्रकृत और पण्णत्ता, तं जहा-आयारे सूयगडे प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आचारः सूत्रकृतं स्थान के सत्तावन अध्ययन हैं।' ठाणे। स्थानम् । २. गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य पौरस्त्यात् २. गोस्तूप आवास-पर्वत के पूर्वी पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् वडवामुखस्य महापातालस्य चरमान्त से वडवामुख महापाताल वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमध्यदेशभागः, एतत् सप्तपञ्चाशद् कलश के बहुमध्यदेशभाग का बहुमज्झदेसभाए, एस गं सत्ता- योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं व्यवधानात्मक अन्तर सत्तावन हजार वणं जोयणसहस्साई अबाहाए प्रज्ञप्तम् । योजन का है। अंतरे पण्णत्ते। ३. एवं दोभासस्स (णं?) केउयस्स एवं दकावभासस्य केतकस्य च. शंखस्य य, संखस्स जयकस्स य, दयसीमस्स यूपकस्य च, दकसीमस्य ईश्वरस्य ईसरस्सय। च । दक्षिणी चरमान्त से केतुक महापाताल कलश के बहुमध्यदेशभाग का, शंख आवास-पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से यूप महापाताल कलश के बहुमध्यदेशभाग का और दकसीम आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त से ईश्वर महापाताल कलश के बहुमध्यदेशभाग का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तावन-सत्तावन हजार योजन का है। ४. मल्लिस्स णं अरहओ सत्तावण्णं मल्ल्याः अर्हतः सप्तपञ्चाशद् मणपज्जवनाणिसया होत्था। मनःपर्यवज्ञानिशतानि आसन्। ४. अर्हत् मल्ली के सत्तावन सौ मनःपर्यवज्ञानी थे। ५. महाहिमवान तथा रुक्मी-इन दो वर्षधर पर्वतों की प्रत्येक जीवा के धनु: ५. महाहिमवंतरुप्पीणं वासधरपव्व- महाहिमवद्रुक्मिणोः वर्षधरपर्वतयोः याणं जीवाणं धणुपट्टा सत्तावणं- जीवयोः धनुःपृष्ठानि सप्तपञ्चाशत्सत्तावण्णं जोयणसहस्साइं दोण्णि सप्तपञ्चाशत् योजनसहस्राणि द्वे च य तेणउए जोयणसए दस य त्रिनवतियोजनशते दश च एकोनएगणवीसइभाए जोयणस्स विंशतिभागं योजनस्य परिक्षेपेण परिक्खेवेणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। पृष्ठ की परिधि ५७२६३१० योजन की Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. तीन गणिपिटकों के अध्ययन (तिण्हं गणिपिडगाणं. अन्झयणा) आचारांग के दो श्रुतस्कंध हैं। उसका अन्तिम अध्ययन है 'विमुक्ति'। यहां आचारचूला के रूप में यही विवक्षित है। उसे छोड़ देने पर आचारांग के चौबीस अध्ययन शेष रहते हैं। तीनों अंगों के सत्तावन अध्ययन इस प्रकार हैं१. आचारांग (प्रथम श्रुतस्कंध)- अध्ययन (द्वितीय श्रुतस्कंध)२. सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कंध)- १६ ॥ 4 (द्वितीय श्रुतस्कंध)३. स्थानांग कुल-५७ अध्ययन १ समवायांगवत्ति, पत्न ६६, ७० प्राचारस्य श्रुतस्कंधद्वयरूपस्य प्रथमांगस्य चुलिका-सर्वान्तिममध्ययनं विमुक्त्यभिधानमाचारचूलिका तद् वर्जा, तत्राचारे प्रयमश्रुतस्कंधे नवाध्ययनानि, द्वितीये षोडश निशीथाध्ययनस्य प्रस्थानान्तरत्वेन इहानाश्रयणात्, षोडशानां मध्ये एकस्याचारचूलिकेति परिहृतत्वात शेषाणि पञ्चदश, सूत्रकृते द्वितीयाङ्गे प्रथमश्रुतस्कधे षोडश, द्वितीये सप्त, स्थानके दशेत्येवं सप्तपञ्चाशदिति । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावण्णइमो समवायो : अट्ठावनवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पढमदोच्चपंचमासु-तिसु पुढवीसु प्रथमद्वितीयपञ्चमीषु-तिसृषु पृथिवीषु १. पहली, दूसरी और पांचवीं--इन तीनों अट्ठावण्णं निरयावाससयसहस्सा अष्टपञ्चाशद् निरयावासशतसहस्राणि पृथ्वियों में अट्ठावन लाख नरकावास पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। २. नाणावरणिज्जस्स वेयणिज्जस्स ज्ञानावरणीयस्य वेदनीयस्य आयुष्क- २. ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयुष्य, नाम आउयनामअंतराइयस्स य-- नाम-आन्तरायिकस्य च-एतासां और अन्तराय-इन पांच कर्मएयासि णं पंचण्हं कम्मपगडीणं पञ्चानां कर्मप्रकृतीनां अष्टपञ्चाशद् प्रकृतियों की उत्तर-प्रकृतियां अट्ठावन अट्ठावण्णं उत्तरपगडीओ पण्ण- उत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । ताओ। ३. गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य पाश्चात्यात् ३. गोस्तूप आवास-पर्वत के पश्चिमी पच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् वडवामुखस्य महापातालस्य चरमान्त से वडवामुख महापाताल कलश वलयामहस्स महापायालस्स बहुमध्यदेशभागः, एतत् अष्टपञ्चाशत् के बहुमध्यदेशभाग का व्यवधानात्मक बहमज्झदेसभाए, एस णं अट्रावणं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं अन्तर अट्ठावन हजार योजन का है। जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। ४. एवं दओभासस्स णं केउकस्स एवं दकावभासस्य केतुकस्य (च?) ४. इसी प्रकार दकावभास आवास-पर्वत (य?), संखस्स जूयकस्स (य?), शंखस्य यूपकस्य (च ?) दकसोमस्य के उत्तरी चरमान्त से केतुक महादयसीमस्स ईसरस्स (य?)। ईश्वरस्य (च?)। पाताल कलश के बहुमध्यदेशभाग का, शंख आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त से यूप महापाताल कलश के बहुमध्यदेशभाग का और दकसीम आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से ईश्वर महापाताल कलश के बहुमध्यदेशभाग का व्यवधानात्मक अन्तर अट्ठावन-अट्ठावन हजार योजन का है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणसट्ठिमो समवानो : उनसठवां समवाय संस्कृम छाया हिन्दी अनुवाद चंटरमण संवच्छरस्स एगमेगे उद चन्द्रस्य संवत्सरस्य एकैकः ऋतः १. चन्द्र-संवत्सर की प्रत्येक ऋत दिन-रात एगूणसर्टि राइंदियाणि राइंदिय- एकोनषष्ठि रात्रिन्दिवानि रात्रिन्दि- के परिमाण से उनसठ दिन-रात की ग्गेणं पण्णत्ते। वाग्रेण प्रज्ञप्तः। होती है। २. संभवे णं अरहा एगूणसट्टि पुव्वसय- सम्भवः अर्हत् एकोनषष्ठि पूर्वशतसह- २. अर्हत् संभव उनसठ लाख पूर्व' तक सहस्साई अगारमज्झावसित्ता स्राणि अगारमध्युष्य मुण्डो भूत्वा गृहवास में रह कर, मुंड होकर, अगार मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः। अवस्था से अनगार अवस्था में प्रवजित अणगारिअं पव्वइए। हुए थे। ३. मल्लिस्स णं अरहओ एगूणसट्ठि मल्ल्याः अर्हतः एकोनषष्ठिः ३. अर्हत् मल्ली के उनसठ सौ अवधिज्ञानी ओहिनाणिसया होत्था। अवधिज्ञानिशतानि आसन्। टिप्पण १. उनसठ दिन-रात (एगूणसढि राइंदियाणि) चन्द्र की गति के आधार पर जो संवत्सर प्रवर्तित होता है, उसे 'चन्द्र-संवत्सर' कहते हैं। इसमें बारह महीने और दो दो महीनों की छह ऋतुएं होती हैं । प्रत्येक ऋतु ५६ दिन-रात की होती है। यहां की विवक्षा नहीं की गई है। स्थानांग में अनेकविध संवत्सरों का उल्लेख है। विशेष जानकारी के लिए देखें-ठाणं ५/२१०-२१३, टिप्पण पृ० ६४८, ६४६ । २. उनसठ लाख पूर्व (एगूणसटुिं पुव्वसयसहस्साई) __ आवश्यकनियुक्ति में इनके गृहवास का काल उनसठ लाख पूर्व तथा चार पूर्वाङ्ग है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्न ७.: यश्चन्द्रगतिमंगीकृत्य संवत्सरो विवक्ष्यते स चन्द्र एव, तन्न च द्वादश मासा: षट् च ऋतवो भवन्ति, तत्र चैकक ऋतुरेकोनपष्टिरानिन्दिवानो रानिन्द्रिवाण भवति कथं एकोनत्रिंशद् रात्रिदिवानि द्वात्रिंशच्च षष्टिभागा अहोरावस्येत्येवंप्रमाण: कृष्णप्रतिपदमारभ्य पौर्णमासीपरिनिष्ठितः चन्द्रमासो भवति द्वाभ्यां च ताभ्यामृतुर्भवति, तत एकोनषष्टिः, अहोरात्राण्यसो भवति, यच्चेह द्विषष्टिभागद्वयमधिकं तन्न विवक्षितम् । २. मावश्यकनियुक्ति, गा० २७६, प्रवचूणि, प्रथम विभाग, पु० २१४ । पण्णरस सहसहस्सा, कुमारवासो म संभवजिणस्स । चोमालीसं रज्जे, चउरंग चेव बोद्धव्वं ।। , Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सट्ठिमो समवायो : साठवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. एगमेगे णं मंडले सूरिए सढ़िए- एकैकं मण्डलं सूर्यः षष्ठया-षष्ठ्या १. सूर्य (एक सौ चौरासी में से) प्रत्येक सट्ठिए मुहुर्तेहिं संघाएइ। मुहूर्तः संघातयति । मंडल को साठ-साठ मुहत्तों से निष्पन्न (पूर्ण) करता है। २ लवणस्स णं समुदस्स सर्टि लवणस्य समुद्रस्य षष्ठिः नागसाहस्रयः २. लवण समुद्र के अग्रोदक' को साठ हजार नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारेंति। अग्रोदकं धारयन्ति। नागदेवता धारण करते हैं। ३. विमले णं अरहा सटुिं धणूइं विमलः अर्हन् षष्ठि धषि ३. अर्हत् विमल साठ धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। . ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ४. बलिस्स णं वइरोणिदस्स सर्टि बलेः वैरोचनेन्द्रस्य षष्ठिः ४. वैरोचनेन्द्र बली के साठ हजार सामाणियसाहस्सीओ पण्णताओ। सामानिकसाहस्यः प्रज्ञप्ताः। सामानिक देव हैं । ५. बंभस्स णं देविंदस्स देवरग्णो सर्टि ब्रह्मणः देवेन्द्रस्य देवराजस्य षष्ठिः ५. देवराज देवेन्द्र ब्रह्म के साठ हजार सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। सामानिकसाहस्रयः प्रज्ञप्ताः। सामानिक देव हैं। ६. सोहम्मीसाणेसु-दोसु कम्पेसु सट्टि सौधर्मशानयोः-द्वयोः कल्पयोः षष्ठिः ६. सौधर्म और ईशान-इन दो कल्पों में विमाणावाससयसहस्सा पण्णता। विमानावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । साठ लाख विमानावास हैं।' टिप्पण १. साठ-साठ मुहूर्तों (सट्टिए-सट्ठिए मुहुर्तेहिं) सूर्य जब मेरु की सम्पूर्ण प्रदक्षिणा करता है तब उसका एक मंडल पूर्ण होता है। एक मंडल को पूर्ण करने में उसे साठ मुहर्त अथवा दो अहोरात्र लगते हैं । जम्बूद्वीप में दो सूर्य हैं। एक दिन एक सूर्य और दूसरे दिन दूसरा सूर्य उदित होता है। इस प्रकार तीसरे दिन सूर्य पुनः स्वस्थान में उदित होता है।' २. अग्रोदक (अग्गोदयं) लवण समुद्र की वेला सोलह हजार योजन ऊंची है। उसके ऊपर दो गाउ प्रमाण वृद्धि-हानि के स्वभाव वाली जो जलशिखा है, उसे 'अग्रोदक' कहा जाता है।' ३. साठ लाख विमानावास (सढि विमाणावाससयसहस्सा) सौधर्म में बत्तीस लाख और ईशान में अट्ठाईस लाख-इस तरह कुल ६० लाख विमानावास हैं। १. समवायांगवृत्ति, पत्न ७०,७१। २. वही, पत्र ७१। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगसट्ठिमो समवायो : इकसठवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स पञ्चसांवत्सरिकस्य युगस्य ऋतुमासेन १. ऋतुमास से अनुमापित पंचसांवत्सरिक रिदुमासेणं मिज्जमाणस्स एगढेि मीयमानस्य एकषष्ठिः ऋतुमासाः युग के ऋतुमास' इकसठ होते हैं। उदुमासा पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । २. मंदरस्स णं पव्वयस्स पढमे कंडे मन्दरस्य पर्वतस्य प्रथमं काण्ड २. मन्दर पर्वत का प्रथम कांड इकसठ एगसट्ठिजोयणसहस्साइं उड्ढं एकषष्ठियोजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन हजार योजन ऊंचा है। उच्चत्तेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम् । ३. चंदमंडलेणं एगसद्धिविभागविभाइए चन्द्रमण्डलं एकष्ठिविभागविभाजितं ३. चन्द्रमण्डल (चन्द्रविमान) योजन के समंसे पण्णत्ते। समांशं प्रज्ञप्तम् । इकसठवें भाग से विभाजित होने पर समांश होता है। ४. एवं सूरस्सवि। एवं सूरस्यापि । ४. सूर्यमण्डल (सूर्यविमान) योजन के इकसठवें भाग से विभाजित होने पर समांश होता है। टिप्पण १. ऋतुमास (उदुमासा) युग में पांच संवत्सर होते हैं (१) चन्द्र संवत्सर (२) चन्द्र संवत्सर (३) अभिवधित संवत्सर (४) चन्द्र संवत्सर (५) अभिवधित संवत्सर । प्रत्येक चन्द्रमास २६३२ दिन का होता है और एक चन्द्रसंवत्सर (२८१२४१२) ३५४१२ दिन का होता है। प्रत्येक अभिवधितमास ३११२१ दिन का होता है और एक अभिवधित संवत्सर १२४ ) ३८३ ૬૨ दिन का होता है। इस प्रकार एक युग में पांच संवत्सरों के कुल दिन । १८३० होते हैं। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २३० समवाय ६१ : टिप्पण प्रत्येक ऋतुमास तीस दिन का होता है, अतः एक युग के (१८३०:३०) इकसठ ऋतुमास होते हैं।' देखें-ठाणं श२११ । २,३. समांश (समंसे) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (वक्ष चार) में चन्द्रमंडल का आयाम-विष्कंभ योजन का भाग तथा सूर्यमंडल का आयाम-विष्कंभ ८१ योजन का , भाग माना है। इसके अनुसार चन्द्रमंडल के छप्पन विभाग (प्रत्येक विभाग योजन का है, वां भाग) तथा सूर्यमण्डल के अड़तालीस विभाग (प्रत्येक विभाग योजन का 1 वां भाग) करने पर समांश (समविभाग) होता है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ७१। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ बावट्ठिमो समवानो : बासठवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पंचसंवच्छरिए णं जुगे बाट्टि पञ्चसांवत्सरिके युगे द्विषष्ठिः पूर्णिमाः १. पंच सांवत्सरिक युग में बासठ पूणिमाएं पुणिमाओ बाढि अमावसाओ द्विषष्ठिः अमावस्याः प्रज्ञप्ताः । और बासठ अमावस्याएं होती हैं। पण्णत्ताओ। २. वासुपुज्जस्स णं अरहो बाढेि वासुपूज्यस्य अहंतः द्विषष्ठिः गणाः २. अर्हत् वासुपूज्य के बासठ गण और गणा बाढि गणहरा होत्था। द्विषष्ठिः गणधराः आसन् । बासठ गणधर थे। ३. सकपक्खस्स णं चंदे बाट्रि भागे शुक्लपक्षस्य चन्द्रः द्विषष्ठि भागान् ३ शुक्लपक्ष का चन्द्र प्रतिदिन बासठ भाग दिवसे-दिवसे परिवइ, ते चेव दिवसे-दिवसे परिवर्द्धते, तश्चैव बढ़ता है । कृष्णपक्ष का चन्द्र प्रतिदिन बहलपक्खे दिवसे-दिवसे बहलपक्षे दिवसे-दिवसे परिहीयते । बासठ भाग घटता है। परिहायइ। ४. सोहम्मीसाणसु कप्पेसु पढमे सौधर्मशानयोः कल्पयोः प्रथमे प्रस्तटे ४. सौधर्म और ईशानकल्प के प्रथम पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए प्रथमावलिकायाः एकैकस्यां दिशि प्रस्तट की, प्रथम आवलिका की प्रत्येक दिसाए बाढि-बाढि विमाणा द्विषष्ठिः-द्विषष्ठिः विमानानि दिशा में बासठ-बासठ विमान हैं । पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ५. सव्वे वेमाणियाणं बाढि सर्वे वैमानिकानां द्विषष्ठिः विमान- ५. प्रस्तट-परिमाण से वैमानिकों के सर्व विमाणपत्थडा पत्थडगगेणं प्रस्तटाः प्रस्तटाग्रेण प्रज्ञप्ताः । विमान-प्रस्तट बासठ' हैं। पण्णत्ता। टिप्पण १. पंच सांवत्सरिक अमावस्याएं (पंचसंवच्छरिए अमावसाओ) एक युग में तीन चन्द्र-संवत्सर और दो अभिवधित संवत्सर होते हैं। प्रत्येक चन्द्र-संवत्सर में बारह चन्द्रमास और प्रत्येक अभिवधित संवत्सर में तेरह चन्द्रमास होते है। इस प्रकार तीन चन्द्र-संवत्सरों में छत्तीस पूर्णिमाएं और छत्तीस अमावस्याएं तथा दो अभिवधित संवत्सरों में छब्बीस पूणिमाएं और छब्बीस अमावस्याएं होती हैं।' १.समवायांगवृत्ति, पत्र ७१: युगे तयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, तेषु षट्त्रिंशत् पौर्णमास्यो भवन्ति, द्वौ चामिद्धितसंवत्सरी भवतः, तत्र चाभिवद्धितसंवत्सरत्रयोदशभिश्चन्द्रमासमंवतीति तयोः षडविंशति: पोर्णमास्य इत्येवं द्विषष्टिस्ता भवन्ति इत्येवममावस्या पपीति। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २३२ समवाय ६२ : टिप्पण २. बासठ गण और बासठ गणध आवश्यकनियुक्ति में इनके छासठ गण और छासठ गणधर बतलाए हैं ।' ३. शुक्ल पक्ष का चन्द्र घटता है (सुक्कपक्खस्स णं चंदे परिहायइ) वृत्तिकार ने सूर्यप्रज्ञप्ति के दो उद्धरणों से यह बताया है कि पूर्ण चंद्रमंडल के ६३१ भाग होते हैं। इनमें एक भाग अवस्थित रहता है, शेष घटते बढ़ते हैं। शुक्लपक्ष में प्रतिदिन बासठ भाग बढ़ते हैं और पूर्णिमा के दिन वह मंडल पूर्णरूप से प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में प्रतिदिन बासठ भाग घटते हैं और अमावस्या के दिन वह मंडल पूर्णरूप से आच्छादित हो जाता है। ४. विमान-प्रस्तट बासठ (बाढि विमाणपत्थडा) सौधर्म ईशान में तेरह, सनत्कुमार-माहेन्द्र में बारह, ब्रह्मलोक में छह, लान्तक में पांच, शुक्र में चार, सहस्रार में चार, आनत-प्राणत में चार, आरण-अच्युत में चार, अवेयक में नौ और अनुत्तर में एक-कुल बासठ विमान-प्रस्तट होते हैं।' १. प्रावश्यकनियुक्ति, गा० २६७, प्रवचूणि प्रथम विभाग, पृ २११॥ २. समवायांगवृत्ति, पत्र ७२। ३.व ही, पन्न ७२ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ तेवट्ठिमो समवानो : तिरसठवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. उसमे णं अरहा कोसलिए तेसट्टि ऋषभः अर्हन् कौशलिक: त्रिषष्ठि १. अर्हत् कौशलिक ऋषभ तिरसठ लाख पुव्वसयसहस्साई महराय- पूर्वशतसहस्राणि महाराजवासमध्युष्य पूर्वो तक महाराज की अवस्था में वासमझावसित्ता मुंडे भवित्ता मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां रह कर मुंड हुए तथा अगार अवस्था अगाराओ अणगारियं पव्वइए। प्रवजितः । से अनगार अवस्था में प्रवजित हुए। २. हरिवासरम्मयवासेसु मणुस्सा हरिवर्षरम्यकवर्षयोः मनुष्याः त्रिषष्ठया २. हरिवर्ष और रम्यकवर्ष के मनुष्य तेवट्रिए राइंदिएहि संपत्तजोव्वणा रात्रिन्दिवैः सम्प्राप्तयौवनाः भवन्ति । तिरसठ दिन-रात में यौवन अवस्था को भवंति। प्राप्त हो जाते हैं। ३. निसहे णं पव्वए तेटुिं सूरोदया निषधे पर्वते त्रिषष्ठिः सूरोदयाः ३. निषध पर्वत पर तिरसठ सूर्योदय पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । (सूर्य-मंडल) हैं। ४. एवं नीलवंतेवि। एवं नीलवत्यपि । ४. नीलवान् पर्वत पर तिरसठ सूर्योदय टिप्पण १,२. तिरसठ सूर्योदय (तेर्वाद सूरोवया) जम्बूद्वीप में दो सूर्य हैं। दोनों का मंडल-क्षेत्र ५१०० योजन का है। इसमें से १८० योजन प्रमाण मंडल-क्षेत्र जम्बुद्वीप में और शेष लवण समुद्र में है । प्रत्येक सूर्य के सारे मंडल १८४ हैं। उनमें से ६५-६५ जम्बूद्वीप में और शेष ११६. ११६ लवण समुद्र में हैं। जम्बूद्वीप के ६५-६५ मंडलों में से दो-दो मंडल उसकी जगती पर हैं। शेष ६३ मंडल निषध पर्वत पर और ६३ मंडल नीलवान् पर्वत पर हैं। निषध पर्वत मेरु के दक्षिण में और पूर्व-पश्चिम में जम्बूद्वीप की जगती तक आयत है और नीलवान् पर्वत मेरु के उत्तर में पूर्व-पश्चिम में जगती तक आयत है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ७३ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसट्ठिमो समवानो : चौसठवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. अट्ठट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा अष्टाष्टमिका भिक्षुप्रतिमा चतुःषष्ठया १. अष्टअष्टमिका भिक्षु-प्रतिमा चौसठ चउसट्ठीए राइंदिहि दोहि य रात्रिन्दिवैः द्वाभ्यां च अष्टाशीत्या दिन-रात की अवधि में २८८ भिक्षाअट्ठासीएहि भिक्खासएहिं भिक्षाशतैः यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग दत्तियों से सूत्र, कल्प, मार्ग और तथ्य अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं यथातथ्यं सम्यक् कायेन स्पृष्टा पालिता के अनुरूप काया से सम्यक् स्पृष्ट, अहातच्चं सम्म काएण फासिया शोधिता तीरिता कीर्तिता आज्ञया पालित, शोधित, पारित, कीर्तित और पालिया सोहिया तोरिया किट्टिया आराधिता चापि भवति । आज्ञा से आराधित होती है। आणाए आराहिया यावि भवइ। २. चउठ्ठि असुरकुमारावास- चतुःषष्ठिः असुरकुमारावासशतसह- २. असुरकुमारावास चौसठ लाख हैं । सयसहस्सा पण्णत्ता। स्राणि प्रज्ञप्तानि। ३. चमरस्स णं रण्णो चउछि चमरस्य राज्ञः चतुःषष्ठिः सामानिक- ३. राजा चमर के चौसठ हजार सामानिक सामाणियसाहस्सीओ पण्णताओ। साहस्रयः प्रज्ञप्ताः । देव हैं। ४. सन्वेवि णं दधिमुहा पव्वया सर्वेऽपि दधिमुखाः पर्वताः पल्यसंस्थान- ४. सभी दधिमुख पर्वत पल्य के आकार पल्ला-संठाण-संठिया सव्वत्थ संस्थिताः सर्वत्र समाः दसयोजन- वाले हैं । वे चौड़ाई में सरीखे हैसमा दस जोयणसहस्साई सहस्राणि विष्कम्भेण, उत्सेधेन सर्वत्र दस हजार योजन की चौड़ाई विक्खंभेणं, उस्सेहेणं चउठि- चतुःषष्ठिः - चतुःषष्ठिः योजनसहस्राणि वाले हैं और उनकी ऊंचाई चौसठचट्ठि जोयणसहस्साई प्रज्ञप्तानि । चौसठ हजार योजन की है। पण्णत्ता। ५. सोहम्मीसाणेसु बंभलोए य–तिसु सौधर्मशानयोः ब्रह्मलोके च–त्रिषु ५ सौधर्म, ईशान और ब्रह्मलोक-इन कप्पेसु चउसट्ठि विमाणा- कल्पेषु चतुःषष्ठिः विमानावासशत- तीन कल्पों में चौसठ लाख विमानावास वाससयसहस्सा पण्णत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । ६. सव्वस्सवि य णं रणो सर्वस्यापि च राज्ञः चातुरन्त-चक्रवत्तिनः ६. सभी चातुरन्त चक्रवर्ती राजाओं के चाउरंतचक्कवटिस्स चउसट्ठि- चतुःषष्ठियष्टिकः महाय॑ः मुक्तामणि- चौसठ लड़ियों वाला महार्घ्य मुक्तालट्ठीए महग्धे मुत्तामणिमए मयः हारः प्रज्ञप्तः । मणिमय हार होता है। हारे पण्णत्ते। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणसट्ठिमो समवायो : पैंसठवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. जंबुद्दीवे णं दीवे पणदि सूरमंडला जम्बूद्वीपे द्वोपे पञ्चषष्ठिः सूरमंडलानि १. जम्बूद्वीप द्वीप में सूर्यमंडल पैंसठ है।' पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । २. थेरेणं मोरियपुत्ते पणसद्विवासाइं स्थविरः मौर्यपुत्रः पञ्चषष्ठिवर्षाणि २. स्थविर मौर्यपुत्र पैसठ वर्ष तक अगारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता अगारमध्युष्य मुण्डो भूत्वा अगारात् अगारवास में रह कर, मुंड होकर, अगाराओ अणगारियं पव्वइए। अनगारितां प्रव्रजितः । अगार अवस्था से अनगार अवस्था में प्रवजित हुए। ३. सोहम्मवडेंसयस्स गं विमाणस्स सौधर्मावतंसकस्य विमानस्य एकैकस्मिन् एगमेगाए बाहाए पटिठ- बाहौ पञ्चषष्ठिः- पञ्चषष्ठिः भौमानि पणसट्ठि भोमा पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ३. सौधर्मावतंसक विमान की प्रत्येक वाहा (शाखा) में पैंसठ-पैसठ भौम हैं। टिप्पण १. सूर्यमंडल पैंसठ हैं (पणढि सूरमंडला) देखें-समवाय ६३ का १, २ टिप्पण । १. पैंसठ वर्ष (पणसद्विवासाई) यहां मौर्यपुत्र का गृहस्थ-पर्याय पैंसठ वर्ष का बतलाया गया है। ये भगवान् महावीर के सातवें गणधर थे। छठे गणधर मंडितपुत्र मौर्यपुत्र के बड़े भाई थे। उनका गृहस्थ-पर्याय तिरपन वर्ष का था। ये दोनों एक साथ हुए थे । आवश्यकनियुक्ति में 'तेवन्न पणसट्ठि' पाठ है। आचार्य मलयगिरि ने इसका व्यत्यय कर मंडितपुत्र का गृहस्थ-पर्याय पैसठ वर्ष का और मौर्यपुत्र का तिरपन वर्ष का प्रमाणित किया है। आचार्य अभयदेव सूरि ने भी यही संभावना की है। यदि हम अर्थ की संगति बैठाते हैं तो पाठ विसंगत हो जाता है। अतः यह संभावना अधिक संगत हो सकती है कि लिपि-दोष से 'मंडियपुत्ते' के स्थान में 'मोरियपुत्ते' पाठ हो गया। १. मावश्यकनियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पत्र २३६ । २ समवायांगवृत्ति, पत्र ७३.७४ : मोर्यपुत्रो भगवतो महावीरस्य सप्तमो गण रस्तस्य पञ्चषष्ठिवर्षाणि गृहस्थपर्यायः, प्रविश्यकेप्येवमेवोक्तो, नवरमेतस्येव यो बृहत्तरो भ्राता मण्डितपुनामिधानं षष्ठी मणधरः तद्दीक्षादिन एव प्रवजितस्तस्यावश्यके त्रिपञ्चाशद्वर्षाणि गृहस्थपर्याय उक्तो न च बोधविषयमपगच्छति यतो बहत्तरस्य पञ्चषष्ठियुज्यते लघुतरस्य निपञ्चाशदिति । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. दाहिणड्ढमणुस्सखेत्ता णं छाट्ठ चंदा पभासेंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा, छार्वाट्ठ सूरिया तवसु वा तवेति वा तविस्संति या । ६६ छावट्ठिमो समवा : छासठवां समवाय २. उत्तरड्ढमणुस्सखेत्ता णं छार्वाट्ठ औत्तरार्द्धमनुष्यक्षेत्राः षट्षष्ठिः चन्द्राः चंदा पभासु वा पभासेति वा प्राभाषित वा प्रभासन्ते वा पभासिस्संति वा, छाट्ठ सूरिया प्रभासिष्यन्ते वा षट्षष्ठिः सूर्याः तवसु वा तवेंति वा तविस्संति अतपन् वा तपन्ति वा तपिष्यन्ति वा । वा । ३. सेज्जंसस्स णं अरहओ छाट्ठ गणा छाट्ठ गणहरा होत्था । ४. आभिणिबोहियाणस्स उक्कोसेणं छार्वाट्ठ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । संस्कृत छाया दाक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्राः षट्षष्ठिः चन्द्राः प्राभासिषत वा प्रभासन्ते वा प्रभासिष्यन्ते वा, षट्षष्ठिः सूर्याः अतपन् वा तपन्ति वा तपिष्यन्ति वा । श्रयांसस्य अर्हतः षट्षष्ठिः गणाः षट्षष्ठिः गणधराः आसन् । णं आभिनिबोधिकज्ञानस्य षट्षष्ठि प्रज्ञप्ता । टिप्पण १. छासठ चन्द्र छासठ सूर्य (छावट्ठ चंदा छाट्ठ सूरिया) १. समवायांगवृत्ति, पत्र ७४ । जम्बूद्वीप लवण समुद्र धातकीखंड कालोदधिसमुद्र पुष्करार्द्ध २ ४ उत्कर्षेण सागरोपमाणि स्थिति: १२ ४२ मनुष्य-क्षेत्र में एक सौ बत्तीस चन्द्र और एक सौ बत्तीस सूर्य हैं। उनका क्रम इस प्रकार है मनुष्य-क्षेत्र चन्द्र ७२ सूर्य २ ४ १२ ४२ ७२ हिन्दी अनुवाद १. दक्षिणार्द्ध मनुष्य-क्षेत्र के छासठ चन्द्रों ने प्रकाश किया था, करते हैं और करेंगे । दक्षिणार्द्ध मनुष्य-क्षेत्र के छासठ सूर्य तपे थे, तपते हैं और तपेंगे। २. उत्तरार्द्ध मनुष्य-क्षेत्र के छासठ चन्द्रों ने प्रकाश किया था, करते हैं और करेंगे । उत्तरार्द्ध मनुष्य-क्षेत्र के छासठ सूर्य तपे थे, तपते हैं और तपेंगे । ३. अर्हत् श्रेयांस के छासठ गण और छासठ गणधर थे । ४. आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागरोपम की है । १३२ १३२ मनुष्य क्षेत्र दो पंक्तियों में विभक्त है— दक्षिण पंक्ति और उत्तर-पंक्ति । प्रत्येक पंक्ति में छासठ छासठ चन्द्र-सूर्य हैं । ' Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ सत्तसट्ठिमो समवाओ : सडसठवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १.पंचसंवच्छरियस्स णं जगस्स पञ्चसांवत्सरिकस्य यूगस्य नक्षत्रमासेन १. नक्षत्रमास से अनुमापित पंचसांवत्सरिक नक्खत्तमासेणं मिज्जमाणस्स मीयमानस्य सप्तषष्ठिः नक्षत्रमासाः युग के नक्षत्र-मास सडसठ होते हैं।' सत्तसटिंठ नक्खत्तमासा पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । २. हेमवत-हेरण्णवतियाओ णं बाहाओ हैमवत-हैरण्यवत्य: बाहवः सप्तषष्ठि- २. हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र की बाहाएं सत्तसटिठ-सत्तसटिठ जोयणसयाई सप्तषष्ठि योजनशतानि पञ्चपञ्चाशत् र योजन लम्बी हैं। पणपण्णाइं तिण्णि य भागा त्रीश्च भागान् योजनस्य आयामेन जोयणस्स आयामेणं पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः। ३. मंदरस्स णं पव्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यात् ३. मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गोतम पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्ताद 'गोतमस्य' द्वीपस्य पौरस्त्यं द्वीप के पूर्वी चरमान्त का व्यवधानागोयमस्स णं दोवस्स पुरथिमिल्ले चरमान्तं, एतत् सप्तषष्ठि योजनसह- त्मक अन्तर सड़सठ हजार योजन का चरिमंते, एस णं सत्तसट्ठि स्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। सन्वेसिपि णं नक्खत्ताणं सर्वेषामपि नक्षत्राणां सीमाविष्कम्भः ४. सभी नक्षत्रों का सीमा-विष्कंभ सड़सठ सीमाविक्खंभेणं सत्ता भागं सप्तषष्ठ्या भागैः भाजितः समांशः की संख्या से भाजित करने पर समांश भइए समंसे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः। होता है। टिप्पण १. नक्षत्र-मास सडसठ होते हैं (सत्तस िनक्खत्तमासा पण्णत्ता) चन्द्रमा जितने समय में सम्पूर्ण नक्षत्र-मंडल का भोग करता है, उसे 'नक्षत्र-मास' कहते हैं । वह २७ दिन का होता है। पंच सांवत्सरिक युग में तीन चन्द्र-संवत्सर तथा दो अभिवधित संवत्सर होते हैं। उसके कुल १८३० दिन होते हैं। इसके अनुसार इस एक युग में (१८३० : २७२१) सडसठ नक्षत्र-मास होते हैं। विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं ५/२१०-२१३, टिप्पण पृ० ६४८, ६४६ । १. समवायांगवृत्ति, पन Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २३८ समवाय ६७ : टिप्पण २. सीमा-विष्कंभ (सीमाविक्खंभेणं) नक्षत्र अट्ठाईस हैं। प्रत्येक नक्षत्र एक अहोरात्र में अमुक-अमुक क्षेत्र का अवगाहन करता है। उस क्षेत्र-अवगाहना में जो नक्षत्र जितने क्षेत्र तक चन्द्रमा के साथ योग करता है, वह उस नक्षत्र का क्षेत्र की दृष्टि से सीमा-विष्कंभ होता है। अभिजित् नक्षत्र द्वारा एक अहोरात्र में अवगाढ़ क्षेत्र के यदि हम सडसठ भाग करते हैं तो नक्षत्र इक्कीस भाग तक चन्द्र के साथ योग करता है अर्थात् क्षेत्र की दृष्टि से अभिजित् नक्षत्र का सीमा-विष्कंभरी है। इसी प्रकार अन्य नक्षत्रों का क्षेत्र की दृष्टि से तथा काल की दृष्टि से सीमा-विष्कंभ इस प्रकार हैंनक्षत्र क्षेत्र-सीमा काल-सीमा १. अभिजित २. शतभिषग्, भरणी, आर्दा, अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा १५ मुहूर्त ३. उत्तरभद्रपदा, उत्तरफल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखा ४५ मुहर्त ple of al ४. शेष पन्द्रह नक्षत्र ३० मुहूर्त १. समवायर्यागवृत्ति, पञ्च ५। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. धायइसंडे णं दीवे चक्क वट्टविजया हाणीओ पण्णत्ताओ। ६८ अट्ठसट्ठिमो समवाश्रो : अड़सठवां समवाय संस्कृत छाया अट्ठर्साट्ठ धातकीषण्डे द्वीपे अष्टषष्ठिः चक्रवत्तिविजया : अष्टषष्ठिः राजधान्यः अट्ठर्साट्ठ प्रज्ञप्ताः । २ धायइसंडे णं दोवे उक्कोसपए अट्ठट्ठ अरहंता समुपज्जसु वा समुपज्जेति वा समुपज्जि संति वा । ३. एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा । एवं चक्रवत्तिनः बलदेवाः वासुदेवाः । ६. एवं चक्कट्टी वासुदेवा । ४. पुक्खरवरदीवड्ढे णं अट्ठर्साट्ठ पुष्करवरद्वीपाद्ध अष्टषष्ठिः चक्रवत्तिarrafविजया अट्ठर्साट्ठ विजयाः अष्टषष्ठिः राजधान्यः यहाणीओ पण्णत्ताओ । प्रज्ञप्ताः । ५. पुक्खरवरदीवड्ढे णं उक्कोसपए अट्ठर्साट्ठ अरहंता समुपज्जसु जे समुपज्जिस्संति वा । वा वा धातकीषण्डे द्वीपे उत्कर्षपदे अष्टषष्ठिः अर्हन्तः समुदपदिषत वा समुत्पद्यन्ते वा समुत्पत्स्यन्ते वा । पुष्करवरद्वीपाद्ध उत्कर्षपदे अष्टषष्ठिः अर्हन्तः समुदपदिषत वा समुत्पद्यन्ते वा समुत्पत्स्यन्ते वा । बलदेवा एवं चक्रवत्तिनः बलदेवाः वासुदेवाः । ७. विमलस्स णं अरहओ अट्ठर्साट्ठ विमलस्य अर्हतः अष्टषष्ठिः समणसाहसीओ उक्कोसिया श्रमणसाहस्य: उत्कृष्टा श्रमणसम्पद् समणसंपया होत्या । आसीत् । हिन्दी अनुवाद १. धातकीखंड द्वीप में चक्रवत्तियों के अड़सठ विजय और अड़सठ राजधानियां हैं । २. धातकीखंड द्वीप में उत्कृष्टतः अड़सठ अहंत् उत्पन्न हुए थे, होते हैं और होंगे । ३. इसी प्रकार चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी अड़सठ अड़सठ उत्पन्न हुए थे, होते हैं और होंगे ।' ४. अर्द्ध पुष्करवरद्वीप में चक्रवत्तियों के अड़सठ विजय और अड़सठ राजधानियां हैं। ५. अर्द्धपुष्करवरद्वीप में उत्कृष्टत अड़सठ अर्हत् उत्पन्न हुए थे, होते हैं और होंगे । ६. इसी प्रकार चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी अड़सठ - अड़सठ उत्पन्न हुए थे, होते हैं और होंगे। ७. अर्हत् विमल के उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा अड़सठ हजार श्रमणों की थी। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण प्रस्तुत आलापक का उल्लेख है कि धातकीषंड में उत्कृष्टत: अड़सठ चक्रवर्ती, अड़सठ वासुदेव होते हैं। वृत्तिकार ने इस संख्या की आलोचना प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि अड़सठ चक्रवर्ती और वासुदेव एक साथ होना संभव नहीं है । जहां चक्रवती होते हैं वहा वासुदेव नहीं होते और जहां वासुदेव होते हैं वहा चक्रवर्ती नहीं होते। यह संख्या अड़सठ विजयों में उनके होने की संभावना से दी गई है। अन्यथा साठ चक्रवर्ती और आठ वासुदेव या साठ वासुदेव और आठ चक्रवर्ती ही एक साथ भिन्न-भिन्न विजयों में हो सकते हैं । अड़सठ कभी नहीं होते।' ___ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति (७/१९६, २००) में जंबूद्वीप में तीस चक्रवर्ती, तीस वासुदेव होने का उल्लेख प्राप्त है। इससे भी उपरोक्त समालोचना ही सिद्ध होती है। समवाय ३४/४ में तथा जम्बूद्वीप में उत्कृष्टतः चौंतीस तीर्थकरों के होने का ही उल्लेख है। १. समवायांगवृत्ति, पन्न ७५,७६ : यद्यपि चक्रवतिनां वासुदेवानां नैकदा प्रष्टषष्टिः सम्भवति यतो जघन्यतोऽप्येककस्मिन् महाविदेहे चतुर्णा चतुर्णा तीर्थंकरादीनामवश्यं भावः स्थानाङ्गदिष्वभिहितः, न चैकक्षेने चक्रवर्ती वासुदेवश्चकदा भवतोऽतः अष्टषष्टिरेवोत्कर्षतश्चक्रवतिना वासुदेवानां चाष्टषष्ट्यां विजयेषु भवति तघापीह सूत्र एक समयेनेत्यविशेषणात कालभेदभाविनां चक्रवत्यादीनां विजयभेदेनाष्टषषिविरुद्धा, अभिलप्यन्ते च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्या भारतकच्छाचभिलापेन चक्रवतिन इति । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणसत्तरिमो समवायो : उनहत्तरवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. समयखेत्ते णं मंदरवज्जा समयक्षेत्रे मन्दरवर्जाः एकोनसप्ततिः १. समयक्षेत्र में उनहत्तर वर्ष (क्षेत्र) एमणसरि वासा वासधरपव्वया वर्षाणि वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ता :, और मेरुवजित उनहत्तर वर्षधर पर्वत पण्णत्ता, तं जहा-पणतीसं वासा, तद्यथा-पञ्चत्रिंशद वर्षाणि, त्रिशद हैं, जैसे-पैतीस वर्ष, तीस वर्षधर तीसं वासहरा, चत्तारि उसुयारा। वर्षधराः, चत्वारः इषुकाराः। और चार इषुकार'। २. मंदरस्स पव्वयस्स पक्चत्थि- मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्यात् मिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्ताद गौतमद्वीपस्य पाश्चात्यं गोयमदीवस्स पच्चथिमिल्ले चरमान्तं, एतत एकोनसप्तति योजनचरिमंते, एस णं एगणसरि सहस्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम । जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। २ मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गौतम द्वीप के पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर उनहत्तर हजार योजन का है। ३. मोहणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं मोहनीयवर्जानां सप्तानां कर्मणां ३. मोहनीय-वजित शेष सात कर्मों की एगूणसरि उत्तरपगडीओ एकोनसप्ततिः उत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । उत्तर-प्रकृतियां उनहत्तर हैं। पण्णत्ताओ। उसस टिप्पण १. पैंतीस वर्ष इषुकार (पणतीसं वासा''उसुयारा) पैंतीस वर्ष ये हैं-पांच मेरु पर्वतों से प्रतिबद्ध सात भरत, सात हैमवत, सात हरिवर्ष, सात रम्यक्वर्ष और सात महाविदेह। तीस वर्षधर पर्वत ये हैं-पांच मेरु पर्वतों से प्रतिबद्ध छह-छह हिमवत वर्षधर पर्वत । चार इषुकार । २. उत्तर-प्रकृतियां उनहत्तर (एगूणसरि उत्तरपगडीओ) ज्ञानावरणीय कर्म की पांच, दर्शनावरणीय कर्म की नौ, वेदनीय कर्म की दो, आयुष्य कर्म की चार, नामकर्म की बयालीस, गोत्र कर्म की दो और अन्तराय कर्म की पांच--ये उनहत्तर उत्तर-प्रकृतियां हैं।' १. समवायांगवृत्ति, पन ०६। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० सत्तरिमो समवायो : सत्तरवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. समणे भगवं महावीरे वासाणं श्रमणः भगवान् महावीरः वर्षाणां १. श्रमण भगवान् महावीर वर्षाऋतु के सवीसइराए मासे वोतिक्कते सविंशतिरात्रे मासे व्यतिक्रान्ते सप्तत्यां पचास दिन-रात बीत जाने तथा सत्तर सत्तरिए राइंदिरहिं सेसेहिं रात्रिन्दिवेषु शेषेषु वर्षावासं परिवसति। दिन-रात शेष रहने पर वर्षावास के वासावासं पज्जोसवेइ। लिए पर्युषित (स्थित) हुए। २. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीय: सप्तति २. पुरुषादानीय अहंद पार्श्व सम्पूर्ण सत्तर सरि वासाई बहुपडिपुण्णाई वर्षाणि बहुप्रतिपूर्णानि श्रामण्यपर्यायं वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्ध प्राप्य सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुड़े परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः । परिनिर्वृत तथा सर्वदुःखो से रहित सव्वदुक्खप्पहोणे। ३. वासुपुज्जे णं अरहा सरि घणूई वासुपूज्यः अर्हन् सप्तति धनूंषि ३. अर्हत् वासुपूज्य सत्तर धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ४. मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स सरि मोहनीयस्य कर्मणः सप्ततिं सागरोपम- ४. मोहनीय कर्म की अबाधाकाल से न्यून सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहू- कोटिकोटी: अबाधोनिका कर्मस्थितिः (सात हजार वर्ष कम) सत्तर कोडाणिया कम्मठिर्ड कम्मणिसेगे कर्मनिषेक: प्रज्ञप्तः । कोड सागर की स्थिति उसका निषेकपण्णत्ते। काल (उदयकाल) होता है। ५. माहिंदस्स णं देविंदस्स देवरणो माहेन्द्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सप्ततिः ५. देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सत्तर हजार सरि सामाणियसाहस्सीओ सामानिकसाहस्यः प्रज्ञप्ताः । समानिक देव हैं। पण्णत्ताओ। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. पर्युषित हुए (पज्जोसवेइ ) प्राचीन परम्परा के अनुसार वर्षावास में मुनि पचास दिन तक उपयुक्त वसति की गवेषणा के लिए इधर-उधर आ जा सकता है। किन्तु भाद्रव शुक्ला पंचमी के दिन उसे जो स्थान प्राप्त हो उसी में स्थित होना पड़ता है। इसे पर्युषणा कहते हैं । यदि कोई स्थान न मिले तो वृक्ष के नीचे ही उसे स्थित हो जाना चाहिए ।' २. अबाधाकाल' निषेक- काल ( अबाहूणिया कम्मणिसेगे) कर्म की स्थिति दो प्रकार की होती है— कर्मत्वापादनात्मक और अनुभवात्मक । जीव जिस क्षण में कर्म पुद्गलों का बंध करता है उसी क्षण से उनमें फलदान की क्षमता उत्पन्न नहीं होती । प्रारम्भ में उनका केवल कर्मात्मक रूप बनता है । इस फलदान रहित स्थिति को 'अबाधाकाल' कहा जाता है। बाधा का अर्थ 'अन्तर' है । कर्म-बन्ध और कर्मोदय के बीच का काल 'अबाधा-काल' है । इसके पूर्ण होने पर कर्म- पुद्गलों का निषेक ( उदय - योग्य रचना) होता है। अबाधा-काल में केवल कर्मत्व का आपादान होता है, अनुभव नहीं होता। इस तथ्य के आधार पर स्थिति के दो रूप बन जाते हैं । मोहनीय कर्म की कर्मात्मक स्थिति सत्तर कोडाकोड सागरोपम की है। उसका अबाधा-काल सात हजार वर्ष का है । इसलिए उसकी अबाधात्मक या निषेकात्मक स्थिति सात हजार वर्ष कम सत्तर कोडाकोड सागरोपम की है। इस सूत्र की दूसरी अर्थ - परम्परा भी प्राप्त होती है। उसके अनुसार मोहनीय कर्म की अबाधा-काल सहित स्थिति सत्तर कोडाकोड सागर और सात हजार वर्ष की है। उसका निषेक-काल सत्तर कोडाकोड सागर का है। इस स्थिति में उसका सात हजार वर्ष का अबाधा-काल छूट जाता है । ' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ७६ : वर्षाणां चतुर्मास प्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिरावे - विशतिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशति दिनेष्यतीतेष्वित्यर्थः, सप्तत्यां च रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपद शुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः वर्षास्वावासो वर्षांवासः - वर्षावस्थानं परिवसति सर्वथा वासं करोति । पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविधवसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति माद्रपद शुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ७७ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ एक्कसत्तरिमो समवानो : इकहत्तरवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स चतुर्थस्य चन्द्रसंवत्सरस्य हेमन्तानां १. चौथे चन्द्र-सम्वत्सर के हेमन्त ऋतु के हेमंताणं एक्कसत्तरीए राइदिएहि एकसप्तत्यां रात्रिन्दिवेषु व्यतिक्रान्तेषु इकहत्तर दिन-रात बीतने पर सूर्य वीइक्कतेहि सव्वबाहिराओ सर्वबाह्यात् मण्डलात् सूर्यः आवृत्ति सर्व-बाह्यमण्डल से आवृत्ति करता है। मंडलाओ सूरिए आउट्टि करेइ। करोति । २. वोरियप्पवायस्स णं एक्कसरि वीर्यप्रवादस्य एकसप्ततिः प्राभृतानि २. वीर्यप्रवाद के प्राभृत इकहत्तर हैं । पाहुडा पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ३. अजिते णं अरहा एक्कसरि अजितः अर्हन् एकसप्तति पूर्वशतसह- ३. अर्हत् अजित इकहत्तर लाख पूर्वो तक' पुव्वसयसहस्साई अगारमझा- स्राणि अगारमध्युष्य मुण्डो भूत्वा गृहस्थावास में रह कर, मुंड होकर, वसित्ता मंडे भवित्ता णं अगाराओ अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः । अगार अवस्था से अनगार अवस्था में अणगारिअंपव्वइए। प्रवजित हुए। ४. सगरे णं राया चाउरंतचक्कवटी सगरो राजा चातुरन्तचक्रवर्ती ४. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा सगर इकहत्तर एक्कसरि पुग्वसयसहस्साई एकसप्तति पूर्वशतसहस्राणि अगार- लाख पूर्वो तक गृहस्थावास में रह कर, अगारमझावसित्ता मुंडे भवित्ता मध्युष्य मुण्डो भूत्वा अगारात मुंड होकर, अगार अवस्था से अनगार णं अगाराओ अणगारिअंपव्वइए। अनगारितां प्रवजितः । अवस्था में प्रवजित हुए। टिप्पण १. सूत्र १ः एक युग में पांच संवत्सर होते हैं। उनमें पहला और दूसरा चन्द्र-संवत्सर, तीसरा अभिवधित संवत्सर, चौथा चन्द्रसंवत्सर और पांचवां अभिवधित संवत्सर होता है । चन्द्र-संवत्सर में २६३२ दिन का चन्द्रमास होता है । इसको बारह से गुणित करने पर एक चन्द्र-संवत्सर और तेरह से गुणित करने पर एक अभिवधित संवत्सर होता है । इस प्रकार इन तीनों (चन्द्र, चन्द्र और अभिवधित) संवत्सरों के कुल दिन । एक सूर्य-संवत्सर के ३६६ दिन होते हैं। तीनसूर्य-संवत्सरों के १०६८ दिन होते हैं। तीन सूर्य-संवत्सरों की अपेक्षा तीन चन्द्र-संवत्सरों में ५४६ दिन न्यून होते हैं। तीन सूर्य-संवत्सर श्रावण कृष्णा छठ को पूरे होते हैं और तीन चन्द्र-संवत्सर आषाढ़ पूर्णिमा को। सूर्य श्रावण कृष्णा सप्तमी को दक्षिणायन Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो २४५ समवाय ७१ : टिप्पण गति करता हुआ चन्द्र युग के चौथे वर्ष की चतुर्थ मास की कार्तिकी पूर्णिमा को ११२ वें मंडल में पहुंचता है। चौथे चन्द्रसंवत्सर में हेमन्त ऋतु मृगशिर कृष्णा १ को प्रारम्भ होता है। सूर्य शेष मंडलों को हेमन्त ऋतु के ७१ दिनो में पार करता हैं, अर्थात् वह माघ शुक्ला १३ को दक्षिणायन से उत्तरायण में गति करता है । ज्योतिष्करंड में पांच युग संवत्सर संबंधी उत्तरायण और दक्षिणायन की तिथियों का अनुक्रम इस प्रकार है' दक्षिणायन श्रावण मास कृष्णा एकम कृष्णा त्रयोदशी पहली आवृत्ति दूसरी आवृत्ति तीसरी आवृत्ति चौथी आवृत्ति पांचवीं आवृत्ति १. समवायांगवृत्ति, पन ७७ । २. बही, पत्र ७७ ॥ उत्तरायण माघमास कृष्ण सप्तमी शुक्ल चतुर्थी कृष्णा एकम कृष्णा त्रयोदशी शुक्ला दशम २. इकहत्तर लाख पूर्वी तक ( एक्कसत्तार पुव्वसयसहस्साइं ) ये अठारह लाख पूर्व तक कुमार अवस्था नें और तिरपन लाख पूर्व तथा एक पूर्वाङ्ग तक राज्य का पालन करते रहे । जो एक पूर्वाङ्ग अधिक है, उसकी यहां विवक्षा नहीं की गई है । ' शुक्ला दशम कृष्णा सप्तमी शुक्ला चतुर्थी Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ बावत्तरिमो समवानो : बहत्तरवां समवाय हिन्दी अनुवाद १. सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख आवास' हैं। २. लवण समुद्र की बाह्य वेला' को बहत्तर हजार नागकुमार देव धारण करते हैं । संस्कृत छाया १. बावरि सुवण्णकुमारा- द्विसप्ततिः सुपर्णकुमारावासशतसहस्राणि वाससयसहस्सा पण्णता। प्रज्ञप्तानि । २. लवणस्स समुहस्स बावरि लवणस्य समुद्रस्य द्विसप्ततिः नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं नागसाहस्यः बाह्या वेलां धारयन्ति । धारंति। ३. समणे भगवं महावीरे बावरि श्रमणः भगवान् महावीरः द्विसप्तति वासाइं सम्वाउयं पालइत्ता सिद्धे वर्षाणि सर्वायुष्क पालयित्वा सिद्धः बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वडे बुद्धः मुक्तः अन्तकृत: परिनिर्वृतः सव्वदुक्खप्पहीणे। सर्वदुःखपहीणः। ४. थेरे गं अयलभाया बावरि स्थविरः अचलभ्राता द्विसप्तति वर्षाणि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्ध: मुक्तः बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिध्वुडे अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः। सव्वदुक्खप्पहीणे। ३. श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष के सर्व आयुष्य का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ४. स्थविर अचलभ्राता' बहत्तर वर्ष के सर्व आयुष्य का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत्त हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ५. अन्भंतरपुक्खरद्धे णं बावरि आभ्यन्तरपुष्कराद्ध द्विसप्ततिः चन्द्रा: ५. आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में बहत्तर चन्द्र चंदा पभासिंस वा पभासेंति वा प्राभासिषत वा प्रभासन्ते वा प्रभासित हुए थे, होते हैं और होंगे। पभासिस्संति वा, बावरि सूरिया प्रभासिष्यन्ते वा, द्विसप्ततिः सूर्याः आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में बहत्तर सूर्य तपे तविस वा तवेंति वा तविस्संति अतपन वा तपन्ति वा तपिष्यन्ति वा। थे, तपते हैं और तपेंगे। वा। ६. एगमेगस्स णं रणो एकैकस्य राज्ञः चातुरन्तचक्रवर्तिनः ६. प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के चाउरंतचक्कवट्टिस्स बावरि द्विसप्ततिः पुरवरसाहस्रयः प्रज्ञप्ताः । बहत्तर हजार पुर होते हैं । पुरवरसाहस्सोओ पण्णत्ताओ। ७. बावरि कलाओ पण्णत्ताओ, द्विसप्ततिः कला: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- ७. कलाएं बहत्तर हैं, जैसे तं जहा१. लेहं लेखः १. लेख-लिपि कला और लेख विषयक कला। २. गणियं गणितं २. गणित-संख्या कला। रूपं ३. रूप-रूप निर्माण कला Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २४७ समवाय ७२: सू०७ नृत्य गीतं वाद्यं ४. नटं ५. गोयं ६. वाइयं ७. सरगयं ८. पुक्खरगयं ६. समतालं १०. जूयं ११. जणवायं स्वरगतं पुष्करगतं समतालं जनवादः १२. पोरेकव्वं १३. अट्ठावयं पुरःकाव्यं अष्टापदं १४. दगमट्टियं दकमृत्तिका १५. अण्णविहिं १६. पाणविहि १७. लेणविहि अन्नविधिः पानविधिः लयनविधिः ४. नाट्य-ताण्डव ५. गीत-गायन विज्ञान ६. वाद्य-वाद्य विज्ञान ७. स्वरगत-स्वर विज्ञान ८. पुष्करगत-मृदङ्ग आदि का विज्ञान ६. समताल-ताल विज्ञान १०. धूत-द्यूत कला ११. जनवाद-विशेष प्रकार की चूत कला। १२. पुर:काव्य-शीघ्रकवित्व १३. अष्टापद-शतरंज खेलने की कला। १४. दकमृत्तिका-जल-शोधन की कला। १५. अन्नविधि-अन्न-संस्कार कला १६. पानविधि-जल-संस्कार कला १७. लयनविधि-पर्वतीय गृह-निर्माण कला। १८. शयनविधि-शय्या-विज्ञान या शयन-विज्ञान। १६. आर्या-आर्या-छन्द २०. प्रहेलिका-पहेली रचने की कला २१. मागधिका-मागधिका छन्द २२. गाथा-संस्कृत से इतर भाषाओं में निबद्ध आर्या छन्द । २३. श्लोक-अनुष्टुप् छन्द २४. गंधयुक्ति-पदार्थ को सुगंधित करने की कला। २५. मधुसिक्थ-मोम के प्रयोग की १८. सयणविहि शयनविधिः १९. अज्जं २०. पहेलियं २१. मागहियं २२. गाहं आर्या प्रहेलिका मागधिका गाथा २३. सिलोगं २४. गंधजुत्ति श्लोकः गन्धयुक्तिः २५. मधुसित्थं मधुसिक्थं कला। २६. आभरणविहि आभरणविधिः २७. तरुणीपडिकम्म तरुणीप्रतिकर्म २६. आभरणविधि-अलंकरण बनाने या पहनने की कला। २७. तरुणीप्रतिकर्म-तरुणी की प्रसाधन कला। २८. स्त्रीलक्षण-सामुद्रशास्त्रोक्त स्त्रीलक्षण विज्ञान । २८. इत्थीलक्खणं स्त्रीलक्षणं Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २४८ समवाय ७२ : सू०७ २६. पुरिसलक्खणं पुरुषलक्षणं ३०. हयलक्खणं हयलक्षणं ३१. गयलक्खणं गजलक्षणं ३२. गोणलक्खणं गोलक्षणं ३३. कुक्कुडलक्खणं कुक्कुटलक्षणं ३४. मिढयलक्खणं मेषलक्षणं ३५. चक्कलक्खणं चक्रलक्षणं ३६. छत्तलक्खणं छत्रलक्षणं ३७. दंडलक्खणं दण्डलक्षणं ३८. असिलक्खणं असिलक्षणं २६. पुरुषलक्षण-सामुद्रशास्रोक्त पुरुषलक्षण विज्ञान । ३०. ह्यलक्षण-सामुद्रशास्रोक्त हयलक्षण विज्ञान । ३१. गजलक्षण-सामुद्रशास्त्रोक्त गजलक्षण विज्ञान । ३२. लोलक्षण-सामुद्रशास्त्रोक्त गोलक्षण विज्ञान । ३३. कुक्कुटलक्षण- सामुद्रशास्त्रोक्त कुक्कुटलक्षण विज्ञान। ३४. मेषलक्षण- सामुद्रशास्त्रोक्त मेषलक्षण विज्ञान । ३५. चक्रलक्षण- ज्योतिष्शास्त्रोक्त चक्रलक्षण विज्ञान । ३६. छत्रलक्षण- ज्योतिष्शास्त्रोक्त छत्रलक्षण विज्ञान। ३७. दंडलक्षण- ज्योतिष्शास्त्रोक्त दंडलक्षण विज्ञान । ३८. असिलक्षण- ज्योतिष्शास्त्रोक्त असिलक्षण विज्ञान । ३६. मणिलक्षण- ज्योतिष्शास्त्रोक्त मणिलक्षण विज्ञान । ४०. काकिणीलक्षण-ज्योतिष्शास्त्रोक्त काकिणीलक्षण विज्ञान । ४१. चर्मलक्षण- ज्योतिष्शास्त्रोक्त चर्मलक्षण विज्ञान। ४२. चन्द्रचरित-चन्द्रगति-विज्ञान ४३. सूर्यचरित--सूर्यगति-विज्ञान ४४. राहुचरित-राहुगति-विज्ञान ४५. ग्रहचरित-ग्रहगति-विज्ञान ४६. सोभाकर-सौभाग्य को जानने की कला। ४७. दुर्भाकर-दुर्भाग्य को जानने की कला। ४८. विद्यागत-रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि विद्या-विज्ञान। ४६. मंत्रगत-मंत्र-विज्ञान ३६. मणिलक्खणं मणिलक्षणं ४०. काकणिलक्खणं काकिणीलक्षणं ४१. चम्मलक्खणं चर्मलक्षणं चन्द्रचरितं सूरचरितं ४२. चंदचरियं ४३. सूरचरियं ४४. राहुचरियं ४५. गहचरियं ४६. सोभाकरं राहुचरितं ग्रहचरितं सोभाकरः ४७. दोभाकरं दुर्भाकरः ४८. विज्जागयं विद्यागतं ४६. मंतगयं मन्त्रगतं Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २४६ समवाय ७२: सू०७ ५०. रहस्सगयं रहस्यगतं ५१. सभासं सभासः ५२. चारं ५०. रहस्यगत-गुप्त वस्तुओं को जानने की कला। ५१. सभास-वस्तुओं को प्रत्यक्ष जानने की कला। ५२. चार-ज्योतिष-चक्र का गतिविज्ञान ५३. प्रतिचार-ग्रहों के प्रतिकूल गति का विज्ञान अथवा चिकित्सा विज्ञान । चारः ५३. पडिचारं प्रतिचारः व्यूह ५४. वूह ५५. पडिवूह प्रतिव्यूह ५४. व्यूह-~-व्यूह रचने की कला ५५. प्रतिव्यूह-व्यूह के प्रति व्यूह रचने की कला। ५६. स्कन्धावारमान- सैन्यसंस्थानशास्त्र। ५६. खंधावारमाणं स्कन्धावारमानं ५७. नगरमाणं ५८. वत्थु माणं ५६. खंधावारनिवेसं नगरमानं वस्तुमानं स्कन्धावारनिवेशः ६०. नगरनिवेसं ६१. वत्थुनिवेसं ६२. ईसत्यं नगरनिवेशः वास्तुनिवेशः इष्वस्त्रं ५७. नगरमान-नगर-शास्त्र ५८. वस्तुमान-वास्तु-शास्त्र ५६. स्कन्धावारनिवेशं- सैन्यसंस्थान रचना की कला। ६०. नगरनिवेश-नगर-निर्माण कला ६१. वास्तुनिवेश-ग्रह-निर्माण कला ६२. इषुअस्त्र-दिव्य अस्त्र संबंधी शास्त्र। ६३. त्सरुप्रगत-खड्गशास्त्र ६४. अश्वशिक्षा ६३. छरुप्पगयं ६४. आससिक्वं ६५. हरिथसिक्खं ६६. धणुव्वेयं ६७. हिरण्णपागं मणिपागं धातूपागं त्सरुप्रगतं अश्वशिक्षा हस्तिशिक्षा धनुर्वेदः सुवण्णपागं हिरण्यपाक: सुवर्णपाक: मणिपाक: धातुपाकः ६५. हस्तिशिक्षा ६६. धनुर्वेद ६८. बाहुजुद्धं दंडजुद्धं मुट्ठिजुद्धं बाहुयुद्ध दण्डयुद्धं मुष्टियुद्धं अस्थियुद्धं अट्ठिजुद्धं जुद्धं निजुद्धं जुद्धातिजुद्धं युद्धं नियुद्धं युद्धातियुद्ध ६६. सुत्तखेड्डं नालियाखेड्डं सूत्रखेटः नालिकाखेट: वृत्तखेलः वट्टखेड्ड ६७. हिरण्यपाक-रजत-सिद्धि की कला। सुवर्णपाक-स्वर्ण-सिद्धि की कला मणिपाक-रत्न-सिद्धि की कला धातुपाक-धातु-सिद्धि की कला ६८. बाहुयुद्ध, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध, अस्थियुद्ध, युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध । ६६. सूत्रखेट-सूत्रक्रीड़ा नालिकाखेट-नली के द्वारा पाशा डाल कर खेला जाने वाला जुआ। वृत्तखेल-वृत्तक्रीड़ा Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो २५० ७०. पत्तच्छेज्जं कडगच्छेज्जं पत्रच्छेद्यं कटकच्छेद्यं पत्रकच्खेद्यं पत्तगच्छेज्जं ७१. सज्जीवं निज्जीवं ७२. सउणरूयं ८. सम्मुच्छिमखयर पंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं उक्कोसेणं बावतार वासहस्सा ठिई पण्णत्ता । सजीव निर्जीव: शकुनरुतम् । सम्मूच्छिम खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां उत्कर्षेण द्विसत्तति वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । टिप्पण समवाय ७२ : सू० ८ ७०. पत्रच्छेद्य - निशानेबाजी, पत्रवेध । कटकच्छेद्य-क्रमपूर्वक छेदने की कला । पत्रकच्छेद्य - पुस्तक के पत्तों- ताड़पत्र आदि को छेदने की कला । ७१. सजीवकरण - मृत धातु को सजीव करना उसको अपने मौलिक रूप में ला देना । निर्जीवकरण - धातुमारण कला ७२. शकुनरुत शकुनशास्त्र । १. बहत्तर लाख आवास (बावर्त्तारं आवाससय सहस्सा ) दक्षिण निकाय के सुपर्णकुमारों के अड़तीस लाख और उत्तर निकाय वालों के चौंतीस लाख आवास हैं । ' २. बाह्य वेला (बाहिरियं वेलं ) यह वेला धातकीखंड द्वीपाभिमुखी है । यह सोलह हजार योजन ऊंची और दस हजार योजन चौड़ी है।' ८. सम्मूच्छिम खेचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति बहत्तर हजार वर्षों की है। ३. अचल भ्राता (अयलभाया ) ये भगवान् महावीर के नौवें गणधर थे। ये ४६ वर्ष गृहस्थावस्था में, १२ वर्ष छद्मस्थ अवस्था में और १४ वर्ष केवली अवस्था में रहे । ४. कलाएं बहत्तर हैं (बावत्तरों कलाओ ) प्रस्तुत आगम के अतिरिक्त ज्ञाताधर्मकथा, औपपातिक, राजप्रश्नीय और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की वृत्ति में भी बहत्तर कलाओं का कुछ नाम और क्रम-भेद के साथ उल्लेख मिलता है। उनका तुलनात्मक अध्ययन इस प्रकार है १. समवायांगवृत्ति, पत्र ७८ । सुवर्णकुमाराणां द्विसप्ततिक्षाणि भवनानि कथं ? दक्षिण निकाये अष्टविशदुत्तरनिकाये तु चतुस्त्रिंशदिति । २. व्ही. पत्र ७८ । वेलां - षोडशसहस्रप्रमाणामुत्सेधतो विष्कम्भतश्च दशसहस्रमानां लवणजलधिशिखां वाह्यां घातकीखण्डद्वीपा भिमुखीम् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो समवाय १. लेहं २. गणियं ३. रूवं ४. नट्ट ५. गीयं ६. वाइयं ७. सरगयं ८. पुक्खरगयं ६. समताल १०. जयं ११. जणवायं १२. पोरेकव्वं १३. अट्ठावय १४. दगमट्टियं १५. अण्णविहि १६. पाणविहि १७. लेणविहि १८. सयणविहि १६. अज्जं २०. पहेलिय २१. माहि २२. गाहं २३. सिलोग २४. गंधजुत्त २५. मधुसित्थं २६. आभरणविहि २७. तरुणीपडिकम्मं २८. इत्थीलक्खणं २६. पुरिसलक्खणं ३०. हयलक्खणं ३१. गयलक्खणं ३२. गोणलक्खणं ३३. कुक्कुडलक्खणं ३४. मिढयलक्खणं ३५. चक्कलक्खणं ३६. छत्तलक्खणं ३७. दंडलक्खणं ३८. असिलक्खणं ३६. मणिलक्खणं ४०. काकणिलक्खणं ज्ञाताधर्मकथा १/१ / ८५ लेहं गणिय रूवं नटं गीयं वाइयं सरगयं पोक्खरगयं समताल जूय जणवाय पासयं अट्ठावयं पोरेकव्वं दमयं अहि पाणविहि वत्थविहि विलेवविहि विहि अज्जं पहेलिय मागहियं गाह गोइयं सिलोयं हिरण्णजुत्ति सुवणजुति चुण्णजुत्ति आभरणविहि तरुणीपडिकम्मं इथिलक्खणं पुरिस लक्खणं हलक्खणं गयलक्खणं गोलक्खणं कुक्कुड लक्खणं छत्तलक्खणं दंड लक्खणं असिलक्खणं २५१ औपपातिक १४६ राजप्रश्नीय ८०५ जम्ब० वृत्ति पत्र १३६-३७ लेहं लेहं गणियं गणियं रूवं पट्ट गीयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जय जणवाय पासगं अट्ठावयं पोरेकव्वं दगमट्टियं अहि अज्ज पहेलिय गाहं गीइयं सिलोयं हिरण्णजुत्ति सुवणजुत्त गंधजुति म अन्नविहि पाणविहि पाणविहि वत्थविहि वत्थविहि विलेवणविहि विवणविहि विहि सयणविहि अज्जं जु आभरणविहि तरुणीपडिकम्मं इत्यलक्खणं पुरिस लक्खणं हयलक्खण गयलक्खणं गोण लक्खणं कुक्कुडलक्खणं छत्तलक्खणं दंडलक्खणं गणिय रूवं नटं गीयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समताल जूय जणवाय पासगं अट्ठावयं पोरेकव्वं पहेलिय मागहियं गाहं गीइयं सीलोग हिरण्णजुति सुवण्णजुत्ति आभरणविहि तरुणीपडिकम्मं इथिलक्खणं पुरिस लक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं कुक्कुडलक्खणं छत्तलक्खणं चक्कलक्खणं दंड लक्खणं असिलक्खणं समवाय ७२ : रूवं नटं गीअं वाइयं सरगयं पोक्खर गयं समतालं ( तालमानं ) जूय जणवायं पासयं अट्ठावयं पोरेकव्वं दगमट्टिय अन्नविहि पाणविहि वत्थविहि विलेवणविहि सयणविहि अज्जं पहेलिय माहि गाहं गीइयं सीलोगं हिरण्णजुत्ति सुवण्णजुति टिप्पण जुत्त आभरणविहि तरुणीपरिकम्मं इत्थि लक्खणं पुरिस लक्खणं लक्खणं गयलक्खण गोणलक्खणं कुक्कुडलक्खणं छत्तलक्खणं दंडraj असिक्खणं Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २५२ समवाय ७२ : टिप्पण असण जम्ब० वृत्ति पत्र १३६-३७ मणिलक्खणं कागणिलक्षण वत्युविज्ज खंधावारमाणं नगरमाणं चारं पडिचारं बुहं पडिवूह चक्कवहं गरुडवूह सगडवूह जुद्धं समवाय ज्ञाताधर्मकथा १/१/८५ औपपातिक १४६ राजप्रश्नीय ८०५ ४१. चम्मलक्खण मणिलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं ४२. चंदचरियं कागणिलक्षणं मणिलक्षणं कागणिलक्खणं ४३. सूरचरियं वत्थुविज्ज काक णिलक्खणं वत्थुविज्ज ४४. राहुचरियं खंधारमाणं वत्थुविज्ज णगरमाण ४५. गहचरियं नगरमाण खधावारमाणं खंधावारमाणं ४६. सोभाकर नगरमाण चारं ४७. दोभाकरं पडिवूह पडिचारं ४८. विज्जागयं चारं पडिवूह ४६. मंतगयं पडिचारं चारं पडिवह ५०. रहस्सगयं चक्कव्ह पडिचारं चक्कवूह ५१. सभासं गरुलयूह चच्चव्हं गरुलवह ५२- चारं सगडवूह गरुलवूह सगडवूह ५३. पडिचारं सगडवूह जुद्ध ५४. वूह निजुद्ध निजुद्ध ५५. पडिवूह जुद्धाइजुद्धं निजुद्ध जुद्धजुद्ध ५६. खंधावारमाण अट्ठिजुद्ध अट्ठिजुद्ध ५७. नगरमाणं मुट्ठिजुद्ध मुट्ठिजुद्ध मुट्ठिजुद्ध ५८. वत्थुमाणं बाहुजुद्ध बाहुजुद्ध बाहजुद्ध ५६. खंधावारनिवेस लयाजुद्ध लयाजुद्ध लयाजुद्ध ६०. नगरनिवेस ईसत्थं ईसत्थं ६१. वत्थुनिवेसं छरुप्पवायं छरुप्पवाद छरुप्पवायं ६२. ईसत्थं धणुवेयं धणुवेदं धणुवेयं ६३. छरुप्पगयं हिरण्णपागं हिरण्णपागं हिरण्णपागं ६४. आससिक्ख सुवण्णपागं सुवण्णपाग सुवण्णपागं ६५. हरिथसिक्खं वट्टखेड्ड सुत्तखेड्डं ६६. धणुव्वेयं सुत्तखेडडं सुत्तखेड्डं वट्टखेड्ड ६७. हिरण्णपागं सुवण्णपागं ) नालियाखेड्ड णालियाखेड्डं णालियाखेड्डं मणिपागं धातुपागं ) ६८. बाहुजुद्धं दंडजुद्धं मुट्ठिजुद्ध अछिजुद्धं जुद्धं ) पत्तच्छेज्ज पत्तच्छेज्जं पत्तच्छेज्ज निजुद्धं जुद्धातिजुद्धं ) ६६. सुत्तखेड्ड नालियाखेड्डं कडच्छेज्ज कडगच्छेज्ज कडगच्छेज्ज वट्टखेड्डं ७०. पत्तच्छेज्ज कडगच्छेज्जं सज्जीवं सज्जीवं सज्जीवं पत्तगच्छेज्जं ७१. सज्जीवं निज्जीवं निज्जीव निज्जीवं निज्जीवं ७२. सउणरुयं सउणरुतं सउणरुयं सउणरुयं ईसत्थं नियुद्ध जुद्धातियुद्ध दिठ्ठिजुद्ध मुट्ठिजुद्धं बाहुजुद्ध लयाजुद्ध ईसत्थं छरुप्पवायं धणुव्वेयं हिरण्णपागं सुवण्णपागं सुत्तखेड्ड वत्थखेड्डं वट्टखेड्ड नालिआखेड्डं पत्तच्छेज्ज कडच्छेज्ज सज्जीवं निज्जीवं सउणरु Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २५३ समवाय ७२ : टिप्पण जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (२/६४) में बहोत्तर कलाओं का उल्लेख है। वृत्तिकार ने उनका विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है१. लेख-अक्षर-विन्यास की कला। (देखें-लेख शब्द का टिप्पण) २. गणित-जोड़, बाकी आदि पाटीगणित । ३. रूप-शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र, चित्र आदि में विभिन्न रूपों का निर्माण । ४. नाट्य--अभिनययुक्त और अभिनयरहित नाट्य । ५. गीत-गान विज्ञान । ६. वादित-तत, वितत आदि वाद्यविज्ञान । ७. स्वरगत-षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि स्वर विज्ञान, जो संगीत के मूलभूत तत्त्व हैं। ८. पुष्करगत-मृदंग, अंग्य आदि वाद्य विषयक विज्ञान । ये संगीत के परम प्रधान अंग हैं, इसलिए इनका वाद्य से भिन्न कथन किया गया है। ६. समताल-गीत आदि का कालमान 'ताल' कहलाता है। ताल संबंधी सम-विषम काल का ज्ञान कराने वाला विज्ञान । १०. द्यूत-द्यूतकला। ११. जनवाद-विशेष प्रकार का द्यूत । १२. पाशक-पाशाओं से खेला जाने वाला द्यूत । १३. अष्टापद-शतरंज खेलने का विज्ञान । १४. पुरःकाव्य-आशु कविता का विज्ञान । १५. दमकमृत्तिका-जल-शोधन का विज्ञान । १६. अन्नविधि-अन्न-संस्कार का विज्ञान । १७. पानविधि-जल-संस्कार विज्ञान, अथवा जलपान के गुणों और दोषों का विज्ञान । जैसे-भोजन के बीच जलपान अमृत होता है और भोजन के अन्त में जलपान विष होता है। १८. वस्त्रविधि-वस्त्र पहनने का विज्ञान। वस्त्र के दैविक आदि नौ कोण होते हैं। उनको कहां-कैसे धारण करने का विज्ञान। १६. विलेपनविधि-यक्षकर्दम-कपूर, अगरु, कंकोल । कस्तूरी और चंदन आदि गन्ध-द्रव्यों के मिश्रण का विज्ञान । २०. शयनविधि-राजा, राजपुत्र, मंत्री, सेनापति, पुरोहित आदि का शय्या-विज्ञान अथवा स्वप्न विज्ञान । २१. आर्या-मात्राछंद के निर्माण का विज्ञान । २२. प्रहेलिका-गूढ आशय वाले पद्यों के निर्माण का विज्ञान । २३. मागधिका-मागधिका छन्द में पद्य-निर्माण का विज्ञान । २४. गाथा-संस्कृत से भिन्न भाषाओं में निबद्ध आर्या छन्द के निर्माण का विज्ञान । २५. गीतिका-जिसमें पहला-दूसरा चरण सदृश और तीसरा-चौथा चरण आर्या छंद का हो, उसे गीतिका कहते हैं। उसके निर्माण का विज्ञान । २६. श्लोक-अनुष्टुप् श्लोक-निर्माण का विज्ञान । २७. हिरण्ययुक्ति-चांदी को यथास्थान योजित करने का विज्ञान । २८. स्वर्णयुक्ति-स्वर्ण को यथास्थान योजित करने का विज्ञान । २६. चूर्णयुक्ति विविध गंधचूर्णों के निर्माण का विज्ञान । ३०. आभरणविधि-आभूषण बनाने या पहनने का विज्ञान । ३१. तरुणीपरिकर्म-स्त्रियों की प्रसाधन कला, जिससे उनके अवयवों के वर्ण आदि सुन्दर बनते हों। ३२. स्त्रीलक्षण-सामुद्रशास्त्रोक्त स्त्रीलक्षण विज्ञान । ३३. पुरुषलक्षण–सामुद्रशास्त्रोक्त पुरुषलक्षण विज्ञान । ३४. हयलक्षण-घोड़े के लक्षणों को जानने का विज्ञान । ३५. गजलक्षण-हाथी के लक्षणों को जानने का विज्ञान । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो २५४ ३६. गोणलक्षण- गाय के लक्षणों को जानने का विज्ञान । ३७. कुर्कुटलक्षण — कुक्कुट के लक्षणों को जानने का विज्ञान । ३८. छत्रलक्षण - छत्र के लक्षणों को जानने का विज्ञान | ३६. दंडलक्षण - डंडे के लक्षणों - शुभ-अशुभ को जानने का विज्ञान । ४०. असिलक्षण -- तलवार के लक्षणों - शुभ-अशुभ को जानने का विज्ञान । ४१. मणिलक्षण - रत्नपरीक्षा के ग्रन्थ में उक्त मणि के दोष गुण को जानने का विज्ञान । ४२. काकणी - चक्रवर्ती के काकणी रत्न के लक्षणों को जानने का विज्ञान । ४३. वास्तुविधा -- वास्तुशास्त्र प्रसिद्ध गृहभूमि के गुण-दोष को जानने का विज्ञान । ४४. स्कन्धावारमान सेना परिमाण का विज्ञान । ४५. नगरमान नगर निर्माण का विज्ञान । ४६. चार - ग्रहगति विज्ञान | ४७. प्रतिचार - ग्रहों की प्रतिकूल गति को जानने का विज्ञान अथवा रोग के प्रतिकार का विज्ञान । ४८. व्यूह - व्यूह रचना का विज्ञान । ४६. प्रतिव्यूह - शत्रुओं की व्यूह रचना को भंग करने का विज्ञान । ५०. चक्रव्यूह - चक्र के आकार की सैन्य रचना के निर्माण का विज्ञान | ५१. गरुडव्यूह - गरुड के आकार की सैन्य रचना के निर्माण का विज्ञान । ५२. शकटव्यूह - शकट के आकार की सैन्य रचना के निर्माण का विज्ञान । ५३. युद्ध - कुक्कुट, बैल आदि की तरह लड़ने के लिए योद्धाओं का दौड़ना । ५४. नियुद्ध - मल्लयुद्ध का विज्ञान । ५५. युद्धातियुद्ध - महायुद्ध का विज्ञान । ५६. दृष्टियुद्ध – शत्रु - योद्धाओं के साथ आंखों को निर्निमेष रखकर लड़ने का विज्ञान । ५७. मुष्टियुद्ध-मुट्ठियों से लड़ने का विज्ञान । ५८. बाहूयुद्ध — भुजाओं से लड़ने का विज्ञान, परस्पर एक-दूसरे को पकड़ने की इच्छा से भुजाओं को फैलाकर दौड़ना । ५६. लतायुद्ध - जैसे लतावृक्ष के मूल से ऊपर तक उसे आवेष्टित कर लेती है, वैसे ही योद्धा अपने प्रतिद्वन्दी के शरीर को गहरा आवेष्टित कर, उसे भूमि पर गिरा देने का विज्ञान । ६०. ईषुशास्त्र - नागबाण आदि दिव्य अस्त्र आदि के प्रयोग का विज्ञान । ६१. त्सरुप्रवाद - खड़ग - शिक्षा शास्त्र । ६२. धनुर्वेद - धनुःशास्त्र । ६३. हिरण्यपाक -- चांदी - निर्माण का विज्ञान । ६४. सुवर्णपाक स्वर्ण निर्माण का विज्ञान । ६५. सूत्रखेल - सूत्रक्रीड़ा का विज्ञान । ६६. वस्त्रखेल --- वस्त्रक्रीड़ा का विज्ञान । समवाय ७२ : टिप्पण ६७. नालिका खेल - नली से पाशा डालकर द्यूत खेलने का विज्ञान । ६८. पत्रच्छेद्य - एक सौ आठ पत्रों में से किसी विवक्षित पत्र को बाण से छेदने का हस्त कौशल सिखाने वाला विज्ञान । ६६. कच्छेद्य-कट की भांति क्रमशः वस्तु भंग करने का विज्ञान । ७०. सजीव - मृत धातु को सजीव करना उसको मौलिक रूप में लाने का विज्ञान । ७१. निर्जीव-स्वर्ण आदि धातुओं को मारने का विज्ञान, पारद को मूच्छित करने का विज्ञान । ७२. शकुनरुत --- वसन्तराज आदि शकुन शास्त्रों में उक्त विज्ञान ।' समवायांगवृत्ति पत्र ७९ में इन बहत्तर कलाओं की विशेष व्याख्या नहीं है। वहां केवल प्रथम छह कलाओं का अर्थबोध कराया गया है । वृत्तिकार ने नाट्यकला के लिए 'भरतशास्त्र' गीतकला के लिए 'विशाखिलशास्त्र' तथा शेष कलाओं के १. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति २ / ६४, वृत्ति पत्र ११७- १३९ । 1 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २५५ समवाय ७२: टिप्पण लिए लौकिकशास्त्र देखने का निर्देश दिया है।' ५. लेख (लेहं) लेख के दो प्रकार हैं-लिपि और विषय । लिपि अनेक प्रकार की है-ब्राह्मी, यवनी आदि-आदि ।' वृत्ति में लिपि के विषय, आधार तथा अक्षरों की अभिव्यक्ति के प्रकार बतलाए गए हैं। लिपि के विषय हैं-स्वामि-भृत्य, पिता-पुत्र, गुरुशिष्य, भार्या-पति, शत्रु-मित्र आदि । पत्र (ताडपत्र, भोजपत्र आदि), वल्क, काष्ठ, दन्त, लोह, ताम्र, रजत आदि-ये लिपि के आधार हैं।' लेखन, उत्कीर्ण, स्यूत-सीना, व्यूत-बुनना, छिन्न, भिन्न, दग्ध और संक्रान्ति-ठप्पा मारना-ये अक्षरों की अभिव्यक्ति के साधन हैं। प्राचीनकाल में कागज पर विविध प्रकार की स्याही से लिखा जाता था। ताडपत्र व भोजपत्र पर तीखी नोक वाली लोहे की कलम से अक्षर उत्कीर्ण किए जाते थे । आज जिस प्रकार कपड़ों पर कसीदा निकाला जाता है, उसी प्रकार प्राचीन भारत में डोरों से सीकर कपड़ों पर चित्र या नाम भी उल्लिखित कर देते थे। किसी पदार्थ को छील कर, काष्ठ आदि को भेद कर-टुकड़े-टुकड़े कर-अक्षरों के आकार बना लिए जाते थे। किसी वस्तु को अत्यन्त गर्म कर काष्ठ पर उसको इधर-उधर घुमा कर अक्षर बनाए जाते थे । संक्रान्ति से अक्षरों को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया आज के लिथो या मुद्रण से मिलती है। अत्यन्त सूक्ष्म लिपि में लिखना, अति-स्थूल लिखना, विषमता से लिखना, पंक्तियों की वक्रता, असमान वर्गों को सदृशता से लिखना, (अर्थात् 'प' और 'य' लिखते समय उनके आकार-प्रत्याकार को एक बना देना) तथा अक्षरों के अवयवों का विभाग न करना, जैसे-वरवणिका के स्थान हर 'वखणिका' लिख देना, ये सारे लेखन के दोष माने जाते थे। वर्तमान में ईस्वीसन् की दूसरी शताब्दी के ताडपत्रीय लेख तथा चौथी शताब्दी के भोजपत्रीय लेख उपलब्ध होते हैं । कागज पर लिखी हुई अत्यन्त प्राचीन प्रति ईस्वी सन् की पांचवीं शताब्दी की उपलब्ध होती है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ७८,७६: ......"कला : विज्ञानानीत्यर्थः, ताश्च कलनीयभेदाद् द्विसप्ततिर्भवन्ति, तन्न लेखन...............। नाट्यकला..."स्वरूपं चान भरतशास्त्रादबसेयम्...... गीतकला..."इयं च विशाखिलशास्त्रादवसेया'.....। वाइयं ति वाद्यकला, सा च ततविततशुषिरधनवाद्यानां चतुष्पञ्च (व्ये) कप्रकारतया त्रयोदशधा''इत्यादिक : कलाविभागो लौकिकशास्त्रेभ्योऽवसेयः, वह च द्विसप्ततिरिति कलासंख्योक्ता, बहुतराणि च सूत्रे तन्नामाग्यपलभ्यन्ते, तवच कासांचित् कासुचिदन्तायोवगन्तव्य इति। २. (क) समवायांगवृत्ति, पत्न ७८, ७६ । (ब) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्ष २, सू०३०, वृत्ति पन १३६-१३९ । ३. समवायांगवृत्ति, पत्न ७८ : पनवल्ककाष्ठदम्तलोहताम्ररजतादयोऽक्षराणामाधाराः। 1. वही पत्र ७८ : लेखनोत्कीर्णनस्यूतव्युतछिन्नभिन्नदग्धसंक्रान्तितोऽशराणि भवन्ति । ५. वही, पन्न ७८ : पतिकायमतिस्थौल्यं, वैषम्यं पंक्तिवत्रता । पतुल्यानाञ्च सादृश्यमभागोऽवयवेषु च ॥ ६. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ.२। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ तेवत्तरिमो समवानो : तिहत्तरवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. हरिवासरम्मयवासियाओ ण हरिवर्षरम्यकवर्षीये जीवे त्रिसप्तति- १. हरिवर्ष और रम्यक वर्ष की जीवा जीवाओ तेवरि-तेवरि त्रिसप्तति योजनसहस्राणि नव च ७३६०१ १७ - १ योजन लम्बी है। जोयणसहस्साई नव य एक्कुत्तरे एकोत्तर योजनशतं सप्तदश च जोयणसए सत्तरस य एकूणवीसइ- एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्धभागे जोयणस्स अद्धभागं च भागं च आयामेन प्रज्ञप्ते । आयामेणं पण्णताओ। १९२ २. विजए णं बलदेवे तेवत्तरि विजयः बलदेवः त्रिसप्तति वर्षशतसह- २. बलदेव विजय तिहत्तर लाख वर्षों के वाससयसहस्साइं सव्वाउयं स्राणि सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः सर्व आयु' का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत हुए तथा परिणिव्व. सव्वदुक्खप्पहीणे। सर्वदुःखप्रहीणः । सर्व दुःखों से रहित हुए। टिप्पण १. तिहत्तर लाख वर्षों के सर्व आयु (तेवतरि वाससयसहस्साइं सव्वाउयं) आवश्यकनियुक्ति में इनका आयुष्य सतहत्तर लाख वर्ष माना है।' वृत्तिकार अभयदेवसूरि के अनुसार यह मतान्तर है। हरिवंशपुराण में इनका आयुष्य सत्तासी लाख बतलाया है।' १. आवश्यकनियुक्ति, गा० ४०६, प्रवचूणि प्रथम विभाग, पृ० २४४। २. समवायांगवृत्ति, पत्न ७६॥ ३. हरिवंशपुराण, ६०/३२२ । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ चोवत्तरिमो समवानो : चौहत्तरवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. थेरे णं अग्गिभूई गणहरे चोवतरि स्थविरः अग्निभूतिः गणधरः चतुः- १. स्थविर गणधर अग्निभूति चौहत्तर वर्ष वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे सप्ततिं वर्षाणि सर्वायुष्कं पालयित्वा के सर्व आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुडे सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत सव्वदुक्खप्पहीणे। __ सर्वदुःखप्रहीणः। हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। २. निसहाओ णं वासहरपव्वयाओ निषधात् वर्षधरपर्वतात् तिगिछिद्रहात् २. निषध वर्षधर पर्वत के तिगिछिद्रह से तिगिछिद्दहाओ सोतोतामहानदी शीतोदामहानदी चतुःसप्तति योजन- शीतोदा महानदी कुछ अधिक चौहत्तर चोवतरि जोयणसयाइं साहियाइं शतानि साधिकानि उत्तरमुखी प्रोद्य । सौ योजन उत्तर दिशा की ओर बह उत्तराहुत्ति पहित्ता वज्रमय्या जिह्विकया चतुर्योजनायामया कर चार योजन लम्बी और पचास वतिरामतियाए जिभियाए पञ्चाशद् योजनविष्कम्भया वज्रतले योजन चौड़ी वज्ररत्नमय जिह्वा से चउजोयणायामाए पण्णासजोयण- कुण्ड महता घटमुखप्रवत्तितेन मुक्ता- महान् घटमुख से प्रवर्तित, मुक्तावविखंभाए वइरतले कुंडे महया वलीहारसंस्थानसंस्थितेन प्रपातेन लिहार के संस्थान से संस्थित प्रपात घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहार- महता शब्देन प्रपतति । से महान् शब्द करती हुई वज्रतल कुंड संठाणसंठिएणं पवाएणं महया (शीतोदा प्रपात ह्रद) में गिरती है। सद्देणं पवडइ। ३. एवं सीतावि दक्खिणहुत्ति एवं शीता अपि दक्षिणमुखी भणितव्या। ३. इसी प्रकार नीलवान वर्षधर पर्वत के भाणियवा। केसरी द्रह से शीता महानदी कुछ अधिक चौहत्तर सौ योजन दक्षिण दिशा की ओर बह कर...."वज्रतल कुंड (शीता प्रपात ह्रद) में गिरती है। ४. चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चतुर्थवर्जासु षट्सु पृथ्वीषु चतुःसप्ततिः ४. चौथी पृथ्वी के अतिरिक्त शेष छह चोवतरि निरयावाससयसहस्सा निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। पृथ्वियों में चौहत्तर लाख नरकावास पण्णत्ता। टिप्पण १. चौहत्तर वर्ष के सर्व आयु (चोवतरि वासाइं सव्वाउयं) गृहस्थ पर्याय ४६ वर्ष, छद्मस्थ पर्याय १२ वर्ष और केवली पर्याय १६ वर्ष ।' १. समवायांगवृत्ति, पत्न ७६, ८० Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ पणतरिमो समवाश्रो: पचहत्तरवां समवाय मूल १. सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ पण्णत्तर जिणसया होत्था । २. सीतले णं अरहा पण्णत्तर पुव्वसहस्साई अगारमज्भावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिअं पव्वइए । संस्कृत छाया सुविधेः पुष्पदन्तस्य अर्हतः पञ्चसप्ततिः जिनशतानि आसन् । शीतलः अर्हन् पञ्चसप्तति पूर्वसहस्राणि अगारमध्युष्य मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः । ३. संती णं अरहा पण्णत्तरं शान्तिः अर्हन् पञ्चसप्ततिं वर्षसहस्राणि वाससहस्साइं अगारवासमज्झा - अगारवासमध्युष्य मुण्डो भूत्वा अगारात् वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारितां प्रव्रजितः । अणगारयं पव्वए । टिप्पण १. पचहत्तर हजार पूर्वी तक ( पण्णर्त्तारं पुण्वसहस्साइं ) कुमारावस्था - २५ हजार पूर्व राज्यपालन - ५० हजार पूर्व, कुल ७५ हजार पूर्व । १. समवायांगवृत्ति, पक्ष ८० : शीतलस्य पञ्चसप्ततिः पूर्वसहस्राणि गृहवासे, कथं ? पञ्चविशति: कुमारत्वे पञ्चाशच्च राज्य इति । हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् सुविधि पुष्पदंत के पचहत्तर सौ केवली थे । २. अर्हतु शीतल पचहत्तर हजार पूर्वी तक ' गृह्वास में रह कर, मुंड होकर, अगार अवस्था से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए । २. पचहत्तर हजार वर्षो तक ( पण्णत्तर वाससहस्साइं ) कुमारावस्था — २५ हजार वर्ष, मांडलिक राजा - २५ हजार वर्ष, चक्रवर्ती - २५ हजार वर्ष, कुल ७५ हजार वर्ष । ३. अर्हत् शान्ति पचहत्तर हजार वर्षों तक गृहवास में रह कर, मुंड होकर, अगार अवस्था से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए । २. बही, पन ८० शान्तिः पञ्चसप्ततिवर्षसहस्राणि गृहवासमध्येध्य प्रव्रजित, कथं ? पञ्चविंशतिः कुमारत्वे, पञ्चविंशति: माण्डलिकत्वे, पञ्चविशति: चक्रवचित्वे इति । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ छावत्तरिमो समवानो : छिहत्तरवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. छावरि विज्जुकुमारा- षट्सप्ततिः विद्युत्कुमारावासशतसह- १. विद्युत्कुमार देवों के छिहत्तर लाख वाससयसहस्सा पण्णत्ता। स्राणि प्रज्ञप्तानि । आवास हैं। २. एवं एवं २. इसी प्रकार संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा दीवदिसाउदहीणं, विज्जुकुमारिदथणियमगीणं । छहँपि जुगलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ द्वीपदिगुदधीनां, विद्युत्कुमारेन्द्रस्तनिताग्नीनाम् । षण्णामपि युगलकानां, षट्सप्ततिः शतसहस्राणि ॥ द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार-इन छह देव-निकाय युगलों में प्रत्येक निकाय के छिहत्तरछिहत्तर लाख' आवास हैं। टिप्पण १. छिहत्तर लाख (छावत्तरिमो सयसहस्सा) ये भवनवासी देव दो दिशाओं में रहते हैं, अतः इनके दो निकाय हो जाते हैं-दक्षिण निकाय और उत्तर निकाय । इन्हीं को यहां युगल कहा गया है। प्रत्येक निकाय के छिहत्तर लाख आवास होते हैं-दक्षिण निकाय के चालीस लाख और उत्तर निकाय के छत्तीस लाख' । १. समवायोगवृत्ति, पन ८०। तत्र विद्युत्कुमाराणां भवनावासलक्षाणि दक्षिणस्यां चत्वारिंशदुत्तरस्यां व षट्त्रिंशदिति षट्सप्ततिरिति, एवमिति इदमेव भवनमानं शेषाणां द्वीपकुमारादिभवनपतिनिकायानाम् । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ सत्तत्तरिमो समवा : सतहत्तरवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी भरतो राजा चातुरन्तचक्रवर्ती सत्तर पुव्वसय सहस्साई सप्तसप्तति पूर्वंशतसहस्राणि कुमारकुमारवासमभावसित्ता महाराया- वासमध्युष्य महाराजाभिषेकं संप्राप्तः । भिसेयं संपत्ते । २. अंगवंसाओ णं सतर्त्तारं रायाणो अङ्गवंशात् सप्तसप्ततिः राजानः मुण्डाः मुंडे भवित्ता णं अगाराओ भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिताः । अणगारिअं पव्वइया | ३. गद्दतोयसियाणं देवाणं सतर्त्तारं गर्द्दतोयतुषितयोर्देवयोः सप्तसप्ततिः देवसहस्सा परिवारा पण्णत्ता । देवसहस्राणि परिवाराः प्रज्ञप्ताः । ४. एगमेगे णं मुहते सत्ततर लवे एकैक: मुहूर्तः सप्तसप्ततिं लवान् लवग्गेणं पण्णत्ते । लवाग्रेण प्रज्ञप्तः । टिप्पण हिन्दी अनुवाद १. चातुरंत चक्रवर्ती राजा भरत सतहत्तर लाख पूर्वो तक' कुमार अवस्था में रहने के पश्चात् महाराजा के अभिषेक को प्राप्त हुए थे। २. अंग वंश ( अंग राजा की सन्तति) के सतहत्तर राजा मुंड होकर अगार अवस्था से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए थे । ३, गर्दतोय और तुषित - इन दो देवनिकायों का परिवार सतहत्तर हजार देवों का है । १. सतहत्तर लाख पूर्वी तक ( सतर्त्तार पुव्वसयसहस्साई ) राजा भरत भगवान् ऋषभ के ज्येष्ठ पुत्र थे । जब भगवान् ऋषभ का आयुष्य छह लाख पूर्व का हुआ, तब भरत का जन्म हुआ। भगवान् ऋषभ तिरासी लाख पूर्व की अवस्था में दीक्षित हुए। उनके प्रव्रजित होने पर भरत राजा बने । उस समय उनका आयुष्य सतहत्तर लाख पूर्व का था । ४. प्रत्येक मुहूर्त्त लव प्रमाण से सतहत्तर लव' का होता है । १. समवायांगवृत्ति पत्र ८० : तत्र मरतचक्रवर्ती ऋषमस्वामिन: षट्सु पूर्वलक्षेष्यतीतेषु जात:, प्रशीतितमे च तत्रातीते भगवति च प्रव्रजिते राजा संवृत्तः ततश्च त्यशीत्याः षट्सु निष्कषितेषु सप्तसप्ततिस्तस्य कुमारवासो भवतीति । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रौ २६१ २. सतहत्तर हजार देवों (सत्ततर देव सहस्सा ) स्थानांग में गर्दतोय के सात देव और उसके परिवार के देव सात हजार तथा तुषित के सात देव और उसके परिवार के देव सात हजार बतलाए हैं।' प्रस्तुत सूत्र से यह भिन्न है। संभव है यह वाचना-भेद हो । स्थानांग के आधार पर यह कल्पना भी की जा सकती है कि सूत्रकार ने सात और सात हजार की संख्या का सूचन 'सत्तसत्तरि" सहस्स..' इन शब्दों के द्वारा की हो और दो अकों (७७) की समानता के कारण प्रस्तुत समवाय में उसका समावेश किया हो । दूसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि प्रस्तुत सूत्र का पाठ 'सत्त सत्त देव सहस्सा परिवारा' रहा हो और लिपिकाल में उसका परिवर्तन हो जाने के कारण उसका स्थान सातवें समवाय की अपेक्षा सतहत्तरवें समवाय में कर दिया गया हो । वृत्तिकार ने गर्दतोय और तुषित — दोनों के संयुक्त परिवार की संख्या सतहत्तर हजार बतलाई है ।' ३. लव (लवे) हृष्ट, नीरोग और निरुपक्लेश प्राणियों के श्वासोच्छ्वास को 'प्राण' कहा जाता है। ऐसे सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त्त होता है। दूसरे शब्दों में ३७७३ प्राणों का एक मुहूर्त्त होता है ।' १. ठाणं, ७/१०१। २. समवायांगवृत्ति, पन ८० गतोयानां तुषितानां च देवानामुभयपरिवार संख्यामीलनेन सप्तसप्ततिर्देवसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तानीति । ३. वही, पन ८० हस धनव गल्लस, निरुव किटुस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पात्ति बुच्चई ।। १ ।। सत्त पाणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लेवे । लवाणं सतत किए एस मुहुते विमाहिए ।। २ ।। समवाय ७७ : टिप्पण Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अट्ठसत्तरिमो समवाश्रो : अठत्तरवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. सक्कस्स णं देविदस्त देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रमण: वेसमणे महाराया अट्ठसत्तरीए महाराज: अष्टसप्तत्याः सुपर्णकुमारसुवण्णकुमारदीवकुमारावासस्य द्वीपकुमारावासशत सहस्राणां आधिपत्यं पौरपत्यं भर्तृत्वं स्वामित्वं महाराजत्वं आज्ञा - ईश्वर - सैनापत्यं कुर्वन् पालयन् विहरति । सहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं भट्टितं सामित्तं महारायत्तं आणा - ईसर - सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ । २. थेरे णं अकंपिए अट्ठसतर वासाइं सव्वायं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणि वडे सव्वक्खप्पहीणे । स्थविर: अकम्पितः अष्टसप्ततिं वर्षाणि सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्ध: मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः । ३. उत्तरायणनियट्टे णं सूरिए उत्तरायणनिवृत्तः सूर्यः प्रथमात् पढमाओ मंडलाओ एगूण- मण्डलात् एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले चालीस मे मंडले अहर्त्तार अष्टसप्तति एकषष्टिभागान् दिवस - सभाए दिवसखेत्तस्स क्षेत्रस्य निव रजनीक्षेत्रस्य निबुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवर्ध्य चारं चरति । अभिनिवुत्ता णं चारं चरइ । ४. एवं दक्खिणायणनियट्टेवि । एवं दक्षिणायननिवृत्तोऽपि । हिन्दी अनुवाद १. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रमण' सुपर्णकुमार निकाय और द्वीपकुमार निकाय के अठत्तर लाख आवासों का आधिपत्य, पौरपत्य, भर्तृत्व, स्वामित्व, महाराजत्व तथा आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करता हुआ, उनका पालन करता हुआ विचरता है । २. स्थविर अकंपित अठत्तर वर्ष के सर्व आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ३. उत्तरायण से निवृत्त सूर्य प्रथम मंडल से उनतालीसवें मंडल में दिवस-क्षेत्र को ७८ ६१ मुहूर्त्त प्रमाण न्यून और रात्री-क्षेत्र को इसी प्रमाण में अधिक करता हुआ गति करता है' । ४. दक्षिणायन से निवृत्त सूर्य प्रथम मंडल से उनतालीसवें मंडल में दिवस-क्षेत्र को ७८ मुहूर्त्त प्रमाण अधिक और रात्री ६१ क्षेत्र को इसी प्रमाण में न्यून करता हुआ गति करता है । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. वैश्रमण (वेसमणे) शक्र के चार लोकपाल हैं - सोम, यम, वरुण और वैश्रमण । वैश्रमण उत्तर दिशा के लोकपाल हैं। ये भवनपति निकाय में रहने वाले सुपर्णकुमार और द्वीपकुमार के देव तथा देवी और व्यन्तर तथा व्यन्तरियों पर आधिपत्य - अनुशासन करते हैं। इनमें दक्षिण दिशा में सुपर्णकुमारों के अड़तीस लाख और द्वीपकुमारों के चालीस लाख भवन हैं। दोनों की सम्मिलित संख्या अठत्तर लाख है । वैश्रमण लोकपाल द्वीपकुमार देवों पर आधिपत्य करता है - यह बात भगवती सूत्र में उल्लिखित नहीं है । प्रस्तुत सूत्र में उसका उल्लेख है । वृत्तिकार के अनुसार यह मतान्तर है ।' प्रस्तुत सूत्र में नेतृत्व के द्योतक पांच शब्द प्रयुक्त हुए हैं । उनका अर्थबोध इस प्रकार है १. आधिपत्य - अनुशासन २. पौरपत्य - अग्रगामिता ३. भर्तृत्व-संरक्षण और पोषण ४. स्वामित्व - स्वामिभाव ५. महाराजत्व - लोकपालभाव । २. अठत्तर वर्ष (अट्टसर वासाई ) गृहस्थ पर्याय- ४८ वर्ष छद्मस्थ पर्याय ६ वर्ष केवली पर्याय - २१ वर्ष कुल योग ७८ वर्ष ३, ४. सूर्य गति करता है ( सूरिए "चरइ ) टिप्पण सूर्य जब दक्षिणायन में गति करता है तब प्रत्येक मंडल में मुहूर्त्त प्रमाण दिन घटता है और इतने ही प्रमाण में रात ६१ बढ़ती है । इस प्रकार जब सूर्य उनतालीसवें मंडल में पहुंचता है तब और इसी प्रमाण में रात बढ़ती है। सूर्य जब उत्तरायण में गति करता है तब प्रत्येक मंडल में ७८ रात घटती है । इस प्रकार उनतालीसवें मंडल में६१ ३. समवायांगवृत्ति, पत्र ८१ । ४. वही, पत्र ८१ । X ३६ ७८ ६१ मुहूर्त्त प्रमाण दिन घटता है २ - मुहूर्त्त प्रमाण दिन बढ़ता है और इतने ही प्रमाण में ६१ १. समवायांगवृत्ति, पक्ष ८१ द्वीपकुमाराधिपत्यमेतस्य भगवत्यां न दृश्यते, इह तूक्तमिति मतान्तरमिदम् । २. वही पत्र ८१ : प्राधिपत्यं – प्रधिपतिकर्म्म पोरेबच्चं – पुरोबत्तित्वं अग्रगामित्वमित्यर्थः, मट्टित्वं - भतृत्व - पोषकत्वं सामित्तं स्वामित्वं स्वामिभावं महाराति महाराजत्वं लोकपालत्वमित्यर्थः । मुहूर्त्त प्रमाण दिन बढ़ता है और रात घटती है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ एगूणासीइमो समवायो : उन्नासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. वलयामुहस्स णं पायालस्स वडवामुखस्य पातालस्य अधस्तनात् १. वडवामुख पातालकलश के नीचे के हेट्रिल्लाओ चरिमंताओ इमोसे चरमान्तात अस्याः रत्नप्रभायाः चरमान्त से इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रयणप्पभाए पुढवीए हेठिल्ले पृथिव्याः अधस्तनं चरमान्तं, एतत् नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक चरिमंते, एस णं एगणासोई एकोनाशीति योजनसहस्राणि अबाधया अन्तर उन्नासी हजार योजन का है।' जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे अन्तरं प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। २. एवं केउस्सवि ईसरस्सवि। जूयस्सवि एवं केतुकस्यापि ईश्वरस्यापि । यूपस्यापि ३. छट्ठोए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ षष्ठ्याः पृथिव्याः बहुमध्यदेशभागात् छटुस्स घणोदहिस्स हेट्ठिल्ले षष्ठस्य घनोदधेः अधस्तन चरमान्तं, चरिमंते, एस णं एगूणासोति एतत् एकोनाशीति योजनसहस्राणि जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। २. इसी प्रकार केतु पातालकलश, यूप पातालकलश और ईश्वर पातालकलश के विषय में जानना चाहिए।' ३. छठी पृथ्वी के बहुमध्यदेशभाग से छठे धनोदधि के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर उन्नासी हजार योजन' का है। ४. जंबुद्दोवस्स णं दोवस्स बारस्स य जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य द्वारस्य च द्वारस्य ४. जम्बूद्वीप द्वीप के प्रत्येक द्वार का बारस्स य एस णं एगूणासोइं च एतत् एकोनाशोति योजनसहस्राणि व्यवधानात्मक अन्तर कुछ अधिक जायणसहस्साइं साइरेगाइं सातिरेकाणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । उन्नासी हजार योजन' का है। अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। टिप्पण १,२. उन्नासी हजार योजन (एगूणासीइं जोयणसहस्साई) वडवामुख आदि चार पातालकलश पूर्व आदि चार दिशाओं में हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। उसमें से एक हजार योजन समुद्रगत है। पातालकलशों की अवगाहना एक लाख योजना की है। स अवगाहना को छोड़ देने पर कलशों के चरमान्त से पृथ्वी का चरमान्त उन्नासी हजार रह जाता है। १ समवायांगवृत्ति, पन ८२। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रौ ३. उन्नासी हजार योजन ( एगुणासीइं जोयणसहस्साई साइरेगाई) । छठी पृथ्वी का बाल्य एक लाख सोलह हजार योजन का है। उसका बहुमध्यदेशभाग अट्ठावन हजार योजन का है। छठे घनोदधि का बाहुल्य बीस हजार योजन का है। दोनों को मिलाने से ( ५८००० + २०००० ) = अठत्तर हजार योजन होते हैं । वृत्तिकार ने यहां तीन मत प्रस्तुत किए हैं १. सूत्रकार ने संभवत: छठे घनोदधि का बाहुल्य इक्कीस हजार योजन माना हो । २. ग्रन्थान्तरों के मतानुसार यह अन्तर पांचवीं पृथ्वी का होना चाहिए, क्योंकि पांचवीं पृथ्वी का बहुमध्यदेशभाग उनसठ हजार योजन का है और पांचवें घनोदधि का बाहुल्य बीस हजार योजन का है। २६५ १ समवायांगवृत्ति पत्र ८२ । २. वही, पन ८२ । ३. यहां छठी पृथ्वी का बहुमध्यदेशभाग एक हजार योजन अधिक ( अर्थात् उनसठ हजार योजन ) विवक्षित है । 'बहु' शब्द इस आशय का सूचक माना जा सकता है । " ४. कुछ अधिक उन्नासी हजार योजन ( एगूणासीइं जोयणसहस्साइं साइरेगाई) जम्बूद्वीप की जगती की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं- पूर्व में विजय, पश्चिम में वैजयन्त, उत्तर में जयन्त और दक्षिण में अपराजित । प्रत्येक द्वार का विष्कंभ चार-चार योजन का है और प्रत्येक द्वार की द्वार-शाखा दो-दो गाउ की है । जम्बूद्वीप की परिधि ३१६२२७ योजन ५ कोश १२८ धनुष्य और १३-३- अंगुल की है। इसमें से चारों द्वारों तथा द्वारशाखाओं का विष्कंभ (४÷४४) १८ योजन निकाल लेने पर शेष ३१६२०६ योजन रहे। इनको चार से प्राजित करने पर ७६०५२ योजन आता है । यही उनका साधिक अन्तर हैं । समवाय ७६ : टिप्पण Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असीइइमो समवायो : अस्सिवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. सेजसे गं अरहा असीई धणूई श्रेयांसः अर्हन् अशीति धनू षि १. अर्हत् श्रेयांस अस्सी धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । २. तिविठ्ठ णं वासुदेवे असीइं धणूइं त्रिपृष्ठः वासुदेवः अशीति धनूषि २. वासुदेव त्रिपृष्ठ अस्सी धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ३. अयले गं बलदेवे असीइ धणइं अचलः बलदेवः अशीति धनू षि ३. बलदेव अचल अस्सी धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तण होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ४. तिविठू णं वासुदेवे असोइं त्रिपृष्ठ: वासुदेवः अशीति वर्षशतसह- ४. वासुदेव त्रिपृष्ठ अस्सी लाख वर्ष तक वाससयसहस्साई महाराया स्राणि महाराजः आसीत् । महाराज रहे। होत्था। ५. आउबहुले णं कंडे असोई अब्बहुलं काण्डं अशोति योजनसहस्राणि ५. रत्नप्रभा का अप्कायबहुल काण्ड जोयणसहस्साई बाहल्लेणं बाहल्येन प्रज्ञप्तम् । अस्सी हजार योजन मोटा है। पण्णत्ते। ६. देवेन्द्र देवराज ईशान के अस्सी हजार सामानिक देव हैं। ६.ईसाणस्स णं देविदस्स देवरणो ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अशीतिः असीइं सामाणियसाहस्सोओ सामानिकसाहस्रयः प्रज्ञप्ताः । पण्णत्ताओ। ७. जंबुद्दीवे णं दीवे असीउतरं जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीत्युत्तरं योजनशतं जोयणसयं ओगाहेता सूरिए अवगाह्य सूर्यः उत्तरकाष्ठोपगतः प्रथम उत्तरकट्रोवगए पढम उदयं करेई। उदयं करोति । ७. जम्बूद्वीप द्वीप में एक सौ अस्सी योजन' का अवगाहन कर उत्तर दिशा में गया हुआ सूर्य प्रथम उदय करता है-उदित होता है। टिप्पण १. एक सौ अस्सी योजन (असोउत्तरं जोयगसयं) जम्बूद्वीप में दो सूर्य हैं। उनके १८४-१८४ मंडल हैं। इतने ही उनके उदय-स्थान हैं । जम्बूद्वीप में सूर्यों का मंडल-क्षेत्र १८०-१८० योजन का है। उत्तरायण की ओर गति करता हुआ सूर्य लवणसमुद्र से जम्बूद्वीप की ओर १८० योजन का अवगाहन कर जब १८४वें मंडल में पहुंचता है तब वह सूर्य का सर्वाभ्यन्तर मंडल कहलाता है । यही सूर्य का प्रथम उदय स्थान है और यही उत्तरायण का अन्तिम अहोरात्र है। १. समवायांगवृत्ति, पन १२। , Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कासीइइमो समवायो : इक्यासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा एकाशीत्या १. नव-नवमिका भिक्षु-प्रतिमा इक्यासी एक्कासीइ राइंदिरहि चउहि य रात्रिन्दिवः चतुर्भिश्च पञ्चोत्तरैः दिन-रात की अवधि में ४०५ भिक्षापंचुत्तरेहि भिक्खासएहि अहासुत्तं भिक्षाशतैः यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग दत्तियों से सूत्र, कल्प, मार्ग और तथ्य अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं यथातथ्यं सम्यक् कायेन स्पृष्टा पालिता के अनुरूप, काया से सम्यक स्पृष्ट, सम्मं काएण फासिया पालिया शोधिता तीरिता कीर्तिता आज्ञया पालित, शोधित पारित, कीर्तित और सोहिया तोरिया किट्टिया आणाए आराधिता चापि भवति । आज्ञा से आराधित होती है। आराहिया यावि भवति। २. कुंथुस्स णं अरहओ एक्कासीति कुन्थोः अर्हतः एकाशीतिः मनःपर्यव- २. अर्हत् कुन्थु के इक्यासी सौ मनःपर्यवमणपज्जवनाणिसया होत्था। ज्ञानिशतानि आसन् । ज्ञानी थे। ३. विआहपण्णत्तोए एकासीति व्याख्याप्रज्ञप्त्यां एकाशीतिः ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति में इक्यासी महायुग्मशत' महाजुम्मसया पण्णत्ता। महायुग्मशतानि आसन् । टिप्पण १. इक्यासी महायुग्मशत (एकासीति महाजुम्मसया) वृत्तिकार के अनुसार 'शत' शब्द अध्ययनों का द्योतक है। उन अध्ययनों में कृतयुग्म आदि लक्षणवाली राशि विशेष का विवरण है। भगवती सूत्र के पैतीसवें से चालीसवें शतक तक महायुग्मों का वर्णन है। वहां उनका क्रम यह है१. एकेन्द्रिय के महायुग्मशत -१२ २, द्वीन्द्रिय के महायुग्मशत -१२ ३. त्रीन्द्रिय के महायुग्मशत -१२ ४. चतुरिन्द्रिय के महायुग्मशत ५. असन्नी पंचेन्द्रिय के महायुग्मशत -१२ ६. सन्नी पंचेन्द्रिय के महायुग्मशत - कुल योग १ १ समवायांगवृत्ति, पत्र ८३ : याख्याप्रज्ञप्त्यामेकाशीतिमहायुग्मशतानि प्रज्ञप्तानि, इह च शतशब्देनाध्ययनान्युज्यन्ते, तानि कृतयुग्मादिलक्षण राशिविशेष विचाररूपाणि प्रवान्तराध्ययनस्वभावानि तदवगमावगम्यानीति । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासीतिइमो समवायो : बयासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. जंबुद्दीवे दोवे बासीतं मंडलसयं जम्बूद्वीपे द्वीपे व्यशीतिः मण्डलशत १. जम्बूद्वीप द्वीप में एक सौ बयासी जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं यत् सूर्यः द्विःकृत्वः संक्रम्य चारं मंडल'--सूर्यमार्ग हैं। सूर्य उनमें दो चारं चरइ, तं जहा- चरति, तद्यथा-निष्कामश्च बार संक्रमण कर गति करता हैनिक्खममाणे य पविसमाणे य। प्रविशंश्च । जम्बूद्वीप से निष्क्रमण करता हुआ और जम्बूद्वीप में प्रवेश करता हुआ। २. समणे भगवं महावीरे बासीए श्रमणः भगवान् महावीरः द्वयशीत्या २. श्रमण भगवान् महावीर का बयासी राइदिएहिं वोइक्कतेहिं गब्भाओ रात्रिन्दिवेषु व्यतिक्रान्तेषु गर्भात् गर्भ दिन-रात बीत जाने पर एक गर्भ से गन्भं साहरिए। सहतः। दूसरे गर्भ में संहरण किया गया। ३. महाहिमवंतस्स गंवासहरपव्वयस्स महाहिमवतः वर्षधरपर्वतस्य ३. महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर उवरिल्लाओ चरिमंताओ उपरितनात् चरमान्तात् सौगन्धिकस्य के चरमान्त से सौगन्धिक कांड के नीचे सोगंधियस्स कंडस्स हेटिल्ले काण्डस्य अधस्तनं चरमान्तं, एतत् के चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर चरिमंते, एस णं बासीई द्वयशीति योजनशतानि अबाधया बयासी सौ योजन' का है। जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे अन्तरं प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। ४. एवं रुप्पिस्सवि। एवं रुक्मिणोऽपि। ४. रुक्मी वर्षधर पर्वत के ऊपर के चरमान्त से सौगन्धिक कांड के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर बयासी सौ योजन का है। टिप्पण १. एक सौ बयासी मंडल (बासीतं मंडलसयं) सूर्य के गति करने के १८४ मंडल हैं। इनमें सर्वाभ्यन्तर और सव-बाह्य-मंडल में सूर्य एक-एक बार जाता है और शेष १८२ मंडलों में, जम्बूद्वीप में प्रवेश करता हुआ तथा उससे निष्क्रमण करता हुआ, दो-दो बार गति करता है। जम्बुद्वीप के पैंसठ मंडल हैं। तो भी जम्बूद्वीप संबंधी सूर्य की गति का उल्लेख होने के कारण अन्य बाह्य-मंडलों का भी यहां उन्हीं में समावेश किया गया है। १. समवायर्यागवृत्ति, पन ८॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री २६६ २. बयासी दिन-रात ( बासीए राईदिएहि ) श्रमण भगवान् महावीर आषाढ़ शुक्ला छठ को देवानन्दा के गर्भ में आए । बयासी दिन-रात बीत जाने पर अर्थात् आश्विन कृष्णा त्रयोदशी को शक्रेन्द्र की आज्ञा से, हरिणेगमेषी देव ने देवानन्दा के गर्भ से महावीर का अपहरण कर त्रिशला महारानी के गर्भ में रख दिया। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ८३ । ३. बयासी सौ योजन (बासीइ जोयणसयाई) रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन कांड हैं- खरकांड, पंककांड और अब्बहुलकांड । खरकांड सोलह प्रकार का है। सभी कांड हजार-हजार योजन प्रमाण के हैं । सौगंधिककांड आठवां है। अतः वहां तक आठ हजार योजन हुए । महाहिमवान् दूसरा वर्षधर पर्वत है । वह दौ सौ योजन ऊंचा है। उसके ऊपर के चरमान्त से सौगंधिककांड के नीचे के चरमान्त तक व्यासी सौ योजन का अन्तर है । समवाय ८२ : टिप्पण Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ यासिइइमो समवा : तिरासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. समणे भगवं महावीरे श्रमण भगवान् महावीरः द्वयशीतिबासीइराइदिएहि वीइक्कंतेहि रात्रिन्दिवेषु व्यतिक्रान्तेषु त्र्यशीतितमे तेयासीइमे राइदिए वट्टमाणे रात्रिन्दिवे वर्तमाने गर्भात् गर्भ संहृतः । भाओ भं साहरिए । २. सीयलस्स णं अरहओ तेसीति गणा तेसीति गहरा होत्था । ३. थेरे णं मंडियपुत्ते तेसीइं वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे सव्वदुक्खपहीणे । शीतलस्य अहंत: त्र्यशीतिः गणाः त्र्यशीतिः गणधराः आसन् । स्थविर: मण्डितपुत्रः त्र्यशीति वर्षाणि सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिवृतः सर्वदुःखप्रहीणः । ४. उसमे णं अरहा कोसलिए तेसीइं ऋषभ: अर्हन् कौशलिक : त्र्यशीति पुव्वसय सहस्साई अगारवास - पूर्वशतसहस्राणि मभावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारअं पव्वइए । ५. भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी भरतः राजा चातुरन्तचक्रवर्ती त्र्यशीति तेसीइं पुव्वसय सहस्साइं पूर्वशतसहस्राणि अगारमध्युष्य जिनः अगारमभावसित्ता जिणे जाए जातः केवली सर्वज्ञः सर्वभावदर्शी । केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी । अगारवासमध्युष्य मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः । टिप्पण १. तिरासी गण और तिरासी गणधर (तेसीति गणा तेसीति गणहरा ) क्ति में इनके इक्यासी गण और इक्यासी गणधर बतलाए गए हैं । २. तिरासी वर्ष के सर्व आयु (तेसोई वासाइं सव्वाउयं) हिन्दी अनुवाद १. श्रमण भगवान् महावीर का बयासी दिन-रात बीत जाने पर तथा तिरासिवें दिन-रात के वर्तने पर एक गर्भ से दूसरे गर्भ में संहरण किया गया। २. अर्हत् शीतल के तिरासी गण और तिरासी गणधर थे । ३. स्थविर मंडितपुत्र तिरासी वर्ष के सर्व आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए । ४. कौशलिक अर्हत् ऋषभ तिरासी लाख पूर्वी तक अगारवास में रहकर, मुंड होकर अगार अवस्था से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए । ४. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत तिरासी लाख पूर्वी तक अगारवास में रहकर जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी हुए । sage का गृहस्थ पर्याय ५३ वर्ष, छद्मस्थ पर्याय १४ वर्ष और केवली पर्याय १६ वर्ष का था । ३. तिरासी लाख पूर्वी तक (तेसीइं पुव्वसय सहस्साइं ) चक्रवर्ती भरत कुमार अवस्था में ७७ लाख पूर्व तथा चक्रवर्ती राजा के रूप में ६ लाख पूर्व तक रहे । १. प्रावश्यक नियुक्ति गा० २६७, अवचूर्णि प्रथम विभाग, पू२११ । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ चउरासिइइमो समवायो : चौरासिवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. चउरासीइं निरयावाससयसहस्सा चतुरशीतिः निरयावासशतसहस्राणि १. नरकावास चौरासी लाख' हैं । पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । २. उसमे णं अरहा कोसलिए ऋषभः अर्हन् कौशलिकः चतुरशीति २. कौशलिक (कोशल देश में उत्पन्न) चउरासीइं पुत्वसयसहस्साई पूर्वशतसहस्राणि सर्वायुष्क पालयित्वा अर्हत् ऋषभ चौरासी लाख पूर्वो के सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः पूर्ण आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुत्ते अंतगडे परिणिन्वुड़े सव्व- सर्वदुःखप्रहीणः । मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा दुक्खप्पहीणे। सर्व दुःखों से रहित हुए। ३. एवं भरहो बाहुबली बंभी सुंदरी। एवं भरतः बाहुबली ब्राह्मी सुन्दरी। ३. इसी प्रकार भरत, बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी चौरासी-चौरासी लाख पूर्वो के पूर्ण आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ४. सेज्जंसे णं अरहा चउरासीइं श्रेयांसः अर्हन् चतुरशीति वर्षशतसह- ४. अर्हत् श्रेयांस चौरासी लाख वर्षों के वाससयसहस्साइं सव्वाउयं स्राणि सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः पूर्ण आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, पालइत्ता सिद्ध बुद्धे मुत्ते अंतगडे मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए परिणिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे। सर्वदुःखप्रहीणः । तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ५. तिविठ्ठ णं वासुदेवे चउरासीइं त्रिपृष्ठः वासुदेवः चतुरशीति ५. वासुदेव त्रिपृष्ठ चौरासी लाख वर्षों के वाससयसहस्साई सव्वाउयं वर्षशतसहस्राणि सर्वायुष्कं पालयित्वा पूर्ण आयु का पालन कर अप्रतिष्ठान पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नरए अप्रतिष्ठाने नरके नैरयिकत्वेन उपपन्नः। नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न नेरइयत्ताए उववण्णे। ६. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देबराजस्य चतुरशीतिः ६. देवेन्द्र देवराज शक्र के चौरासी हजार चउरासीई सामाणियसाहस्सीओ सामानिकसाहस्यः प्रज्ञप्ताः । सोमानिक देव हैं। पण्णत्ताओ। ७. सम्वेवि गं बाहिरया मंदरा सर्वेऽपि बाह्याः मन्दराः चतुरशीति- ७. बाहर के सभी मन्दरपर्वत चौरासी चउरासीइं . चउरासीइं चतुरशीति योजनसहस्राणि चौरासी हजार योजन' ऊंचे हैं। जोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः। पण्णत्ता। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २७२ समवाय ८४ : सू० ८-१८ ८. सव्वेवि णं अंजणगपव्वया सर्वेपि अञ्जनकपर्वताः ८. सभी अञ्जन पर्वत चौरासी-चौरासी चउरासीइं-चउरासीइं जोयण- चतुरशीति-चतुरशीति योजनसहस्राणि हजार योजन ऊंचे हैं। सहस्साइं उड्ढं उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः । पण्णत्ता। ६. हरिवासरम्मयवासियाणं जीवाणं हरिवर्षरम्यकवर्षीययो र्जीवयोः धनु:- ६. हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की जीवा के घणुपट्टा चउरासीई-चउरासीइं पृष्ठानि चतुर ते-चतुरशीति धनुःपृष्ठ का परिक्षेप ८४०१६ जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई योजनसहस्राणि षोडशयोजनानि चत्तारि य भागा जोयणस्स चतुरश्चभागान योजनस्य परिक्षेपेण योजन है। परिक्खेवेणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। १०. पंकबहलस्स णं कंडस्स पंकबहुलस्य काण्डस्य उपरितनात् १०. पंकबहुलकांड के ऊपर के चरमान्त से उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेदिल्ले चरमान्तात् अधस्तनं चरमान्तं, एतत् नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक चरिमंते, एस णं चोरासीइंजोयण- चतुरशीति योजनसहस्राणि अबाधया अन्तर चौरासी लाख योजन का है। सयसहस्साइं अबाहाए अंतरे अन्तरं प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। ११. वियाहपण्णत्तीए णं भगवतीए व्याख्याप्रज्ञप्त्यां भगवत्यां चतुरशीतिः ११. भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति के पद-परिमाण चउरासीई पयसहस्सा पदग्गेणं पदसहस्राणि पदाग्रेण प्रज्ञप्तानि । से चौरासी हजार पद' हैं। पण्णत्ता। १२. चोरासीइं नागकुमारवाससय- चतुरशीतिः नागकुमारावासशतसह- १२. नागकुमार देवों के आवास चौरासी सहस्सा पण्णत्ता। स्राणि प्रज्ञप्तानि। लाख हैं। १३. चोरासीइं पइण्णगसहस्सा चतुरशीतिः प्रकीर्णकसहस्राणि १३. प्रकीर्णक चौरासी हजार' हैं । पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। १४. चोरासीई जोणिप्पमुहसयसहस्सा चतुरशीतिः योनिप्रमुखशतसहस्राणि १४. योनि-प्रमुख (योनि-द्वार) चौरासी पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । लाख हैं। १५. पुव्वाइयाणं सीसपहेलिया- पूर्वादिकानां शीर्षप्रहेलिकापर्यवसानानां १५. पूर्व से लेकर शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त पज्जवसाणाणं सटाणटाणंतराणं स्वस्थानस्थानान्तराणां चतुरशीत्या स्वस्थान (पूर्व का अंक) से स्थानान्तर चोरासीए गुणकारे पण्णत्ते। गुणकारः प्रज्ञप्तः। (उत्तर का अंक) चौरासी लाख से गुणित होता है। १६. उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स ऋषभस्य अहंतः कोशलिकस्य १६. कोशलिक अर्हत् ऋषभ के चौरासी चउरासीइं गणा चउरासीइं चतुरशीति: गणाः चतुरशीतिः गणधराः । गण और चौरासी गणधर थे। गणहरा होत्था। आसन् । १७. उसभस्स णं कोसलियस्स ऋषभस्य कौशलिकस्य ऋषभसेन- १७. कौशलिक अर्हत् ऋषभ के ऋषभसेन उसभसेणपामोक्खाओ चउरासीई प्रमुखाः चतुरशीतिः श्रमणसाहस्रयः प्रमुख चौरासी हजार श्रमण थे । समणसाहस्सीओ होत्था। आसन् । १८. चउरासीइं विमाणावास- चतुरशीतिः विमानावासशतसहस्राणि १८. वैमानिकों के सभी विमान सयसहस्सा सत्ताणउइंच सहस्सा सप्तनवतिश्च सहस्राणि त्रयोविंशतिश्च सहस्सा सप्तनवातश्च सहस्राणि त्रयाविशातश्च ८४६७०२३ हैं, ऐसा कहा गया है। तेवीसं च विमाणा भवंतीति विमानानि भवन्तीति आख्यातम । मक्खायं। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. चौरासी लाख नरकावास (चउरासीइं निरयावाससयसहस्सा ) चौरासी लाख नरकावासों का विवरण इस प्रकार है पहली नारकी में ३० लाख, दूसरी में २५ लाख, तीसरी में १५ लाख, चौथी में १० लाख, पांचवीं में ३ लाख, छठी में ६६६६५ और सातवीं में ५ नरकावास हैं। इनका कुल योग ८४ लाख है । २. चौरासी 'हजार योजन (चउरासीइंजोयणसहस्साइं ) जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के अतिरिक्त शेष चार मेरुपर्वतों की ऊंचाई चौरासी चौरासी हजार योजन की है । ३. चौरासी हजार पद (चउरासीइं पयसहस्सा ) प्रस्तुत सूत्र में भगवती सूत्र के चौरासी हजार पद बतलाए गए हैं । किन्तु नन्दी सूत्रगत द्वादशांगी के वर्णन में उल्लिखित पद-परिमाण से इसकी संगति नहीं है । वहां भगवती के दो लाख अठासी हजार पद बतलाए हैं।' वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट मत को ध्यान में रख कर उसे 'मतान्तर' कहा है।' ये दोनों मत दों वाचनाओं के हो सकते हैं । ४. चौरासी हजार प्रकीर्णक (चोरासीइं पइण्णगसहस्सा ) भगवान् ऋषभ के चौरासी हजार शिष्य थे। नंदीसूत्र के अनुसार भगवान् ऋषभ के चौरासी हजार शिष्यों द्वारा रचित चौरासी हजार प्रकीर्णक थे । ५. चौरासी लाख योनि प्रमुख ( चोरासीइं जोणिप्पमुहसयसहस्सा ) योनि का अर्थ है 'उत्पत्ति-स्थान' और प्रमुख का अर्थ है 'द्वार' । योनि प्रमुख अर्थात् उत्पत्ति के द्वार । योनियां चौरासी लाख बतलाई गई हैं। उनका विवरण इस प्रकार है— योनि-संख्या स्थान पृथ्वीकाय अप्काय तेजस्काय १७ लाख ७ लाख ७ लाख ७ लाख १० लाख १४ लाख २ लाख २ लाख २ लाख नारक ४ लाख देव ४ लाख पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ४ लाख मनुष्य १४ लाख -- इन सबका कुल योग चौरासी लाख होता है । वायुकाय प्रत्येक वनस्पति साधारण वनस्पति द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय १. नंदी, सू० ४८ । २. समवायांगवृत्ति पत्र ८५ : व्याख्याप्रज्ञप्त्यां भगवत्यां चतुरशीतिः पदसहस्त्राणि पदाग्रेण पदपरिमाणेन मतांतरेण तु प्रष्टादश पदसहस्रपरिमाणत्वादाचा रस्थ, एतद् द्विगुणत्वात् शेषाङ्गानां, व्याख्याप्रज्ञप्तिद्वे लक्षे भ्रष्टाशीतिश्च सहस्राणीति पदानां भवतीति । ३. नंदी, सू० ७८ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २७४ समवाय ८४ : टिप्पण जीवों के उत्पत्ति-स्थान असंख्य हैं किन्तु समान वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान वाले स्थानों को एक मान कर उन्हें चौरासी लाख कहा गया है। ६. शीर्षप्रहेलिका स्वस्थान स्थानान्तर (सोसपहेलिया सट्ठाणट्ठाणंतराणं) जैन गणित के अनुसार संख्या के अट्ठाईस स्थान हैं-पूर्वाङ्ग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हुहूकांग, हुहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। - चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है । इसको चौरासी लाख से गुणन करने से एक पूर्व की संख्या प्राप्त होती है। इसी प्रकार पूर्व की संख्या को पुन: चौरासी लाख से गुणन करने पर एक त्रुटितांग की संख्या प्राप्त होती है । इसी क्रम से शीर्षप्रहेलिका की संख्या प्राप्त होती है। इसके १९४ अंक होते हैं। यह सबसे बड़ी संख्या है। इसके बाद संख्यात, असंख्यात और अनन्त—इन तीन शब्दों से संख्या को व्यवहृत किया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में स्वस्थान का अर्थ 'पूर्व पद' और स्थानान्तर का अर्थ 'उत्तर पद' है। ७. वैमानिकों के "विमान (विमाणावास "विमाणा) विमानों की संख्या का विवरण इस प्रकार हैदेवलोक विमान संख्या देवलोक विमान संख्या सौधर्म ३२ लाख सहस्रार ६ हजार २८ लाख आनत-प्राणत सनत्कुमार १२ लाख आरण-अच्युत ३ सौ माहेन्द्र ८ लाख नीचे के तीन प्रैवेयक १ सौ ११ ब्रह्मलोक ४ लाख मध्य के तीन अवेयक १ सौ ७ लान्तक ५० हजार ऊपर के तीन ग्रैवेयक १ सौ शुक्र अनुत्तर ईशान ४ सौ ४० हजार कुल योग ८४६७०२३ १. देखें-स्थानांग, २/३८७ का टिप्पण, पृष्ठ १४०.१४२ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ पंचासइइमो समवा: पचासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. आयारस्स णं भगवओ आचारस्य भगवत: सचूलिकाकस्य सचूलियागस्स पंचासीइं पञ्चाशीतिः उद्देशनकालाः प्रज्ञप्ताः । उद्देसणकाला पण्णत्ता । २. धायइडस्स णं मंदरा पंचासीइं धातकीषण्डस्य मन्दरौ पञ्चाशीति जोयणसहस्सा इं सव्वग्गेणं योजनसहस्राणि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तौ । पण्णत्ता । ३. रुपए णं मंडलियपव्वए पंचासीइं रुचक: माण्डलिकपर्वतः पञ्चाशीति जोयणसहस्सा इं सव्वग्गेणं योजनसहस्राणि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः । पण्णत्ते । ४. नंदणवण स णं हेट्ठिल्लाओ नन्दनवनस्य अधस्तनात् चरमान्तात् चरिमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स सौगन्धिकस्य काण्डस्य अधस्तनं हेट्ठिल्ले चरिमंते, एस णं पंचासीइं चरमान्तं एतत् पञ्चाशीति योजनजोयणसयाई अबाहाए अंतरे शतानि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते । हिन्दी अनुवाद १. चूलिका सहित आचारांग सूत्र के उद्देशकाल' पचासी हैं। २. धातकीषंड के दोनों मेरु पर्वतों का पूर्ण परिमाण पचासी पचासी हजार योजन' है । ३. रुचक मांडलिक पर्वत का पूर्ण परिमाण पचासी हजार योजन' है । टिप्पण १. आचारांग के उद्देशन काल (आयारस्स'' उद्देशनकाला ) आचारांग सूत्र की पांच चूलिकाएं हैं। पांचवीं चूलिका का नाम 'निशीथ है । उसे स्वतन्त्ररूप प्राप्त है, इसलिए वह यहां गृहीत नहीं है । आचार और आचारचूला के उद्देशन- काल इस प्रकार हैं आचार ४. नन्दनवन के नीचे के चरमान्त से सौगन्धिक काण्ड के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर पचासी सौ योजन का है । समवाय ५१/१ में ‘आचार' के नौ अध्ययनों के ५१ उद्देशन- काल बतलाए हैं। देखें ५१ / १ का टिप्पण | Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २७६ समवाय ८५ : टिप्पण आचारचूला इसकी चार चूलिकाओं के उद्देशन-काल इस प्रकार हैं। पहली चूलिका के सात अध्ययनों के पचीस उद्देशक और पचीस उद्देशन-काल क्रमशः ये हैं-११, ३, ३, २, २, २, २-२५ । दूसरी चूलिका के सात अध्ययन हैं और प्रत्येक अध्ययन का एक-एक उद्देशन-काल है-७। तीसरी और चौथी चूलिका का एक-एक अध्ययन और एक-एक उद्देशन-काल है-२। इस प्रकार सारे उद्देशन-काल ५१+२५+७+१+१=८५ होते हैं।' २. घातकोषंड 'मेरु पर्वत (धायइसंडस्समंदरा) __धातकीषंड के मेरुपर्वत एक हजार योजन भूमि में तथा चौरासी हजार योजन ऊंचे हैं। दोनों का योग करने पर पचासी हजार योजन होते हैं। वृत्तिकार का कथन है कि इसी प्रकार पुष्करार्द्ध के मेरुपर्वतों का पूर्ण परिमाण भी ८५-८५ हजार योजन है। किन्तु सूत्रकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है। सूत्र की प्रतिपादन शैली विचित्र होती है।' ३. मांडलिक पर्वत (मंडलियपव्वए) रुचक तेरहवां द्वीप है। उसके अन्दर प्राकार की आकृति वाला रुचक द्वीप के दा विभाग करने वाला रुचक नाम का पर्वत है। वह मंडलाकार से स्थित है, इसीलिए इसे 'मांडलिक-पर्वत' कहा गया है। यह एक हजार योजन भूमि में और चौरासी हजार योजन ऊपर है।' १. समवायांगवृत्ति, पन ८६ २. समवायांगवृत्ति, पत्र ०६: घातकीखंडमन्दरी सहस्त्रमवगाढो चतुरशीतिसहस्त्राण्युच्छ्रिताविति पञ्चाशीतियोजनसहस्त्राणि सर्वाग्रेण भवतः, पुष्करार्द्धमन्दरावप्येवं, नवरं सूत्रे नाभिहिती विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति । ३. समवायांगवृत्ति, पत्र ८६ : रुचको-रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्राकाराकृती रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः, अत एवं माण्डलिकपर्वतो मण्डलेन व्यवस्थितत्वात्, स च सहस्त्रमवगाढचतुरशीतिरुच्छित इति पञ्चाशीति; सहस्त्राणि सर्वागणेति । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छलसीइइमो समवायो : छियासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ सुविधेः पुष्पदन्तस्य अर्हत: षडशीतिः १. अर्हत् सुविधि पुष्पदंत के छियासी गण छलसीइंगणा छलसोई गगहरा गणाः षडशोतिः गणधराः आसन् । और छियासी गणधर' थे। होत्था। थे। २. सुपासस्स णं अरहओ छलसीइं सुपार्श्वस्य अर्हतः षडशीतिः २. अर्हत् सुपार्श्व के छियासी सौ वादी वाइसया होत्था। वादिशतानि आसन् । ३. दोच्चाए णं पुढवीए द्वितीयायाः पृथिव्याः बहुमध्यदेश- ३. दूसरी पृथ्वी के बहुमध्यदेशभाग से बहमज्झदेसभागाओ दोच्चस्स भागात् द्वितीयस्य घनोदधेः अधस्तनं दूसरे घनोदधि के नीचे के चरमान्त का घणोदहिस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते, एस चरमान्तं, एतत् षडशीति योजनसह- व्यवधानात्मक अन्तर छियासी हजार णं छलसीइं जोयणसहस्साई स्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । योजन का है। अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। टिप्पण १. छियासी गण और छियासी गणधर (छलसीइंगणा छलसोई गणहरा) आवश्यकनियुक्ति में इनके अठासी गण और अठासी गणधर बतलाए हैं।' १ मावश्यकनियुक्ति, गा० २६६, भवणि, प्रथम विभाग. ५. २१०। , Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ सत्तासीइइमो समवायो : सत्तासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. मंदरस्स णं पव्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यात् पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात गोस्तृपस्य आवासपर्वतस्य गोथभस्स आवासपव्वयस्स पाश्चात्यं चरमान्तं, एतत् पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस जं सप्ताशीति योजनसहस्राणि अबाधया सत्तासीई जोयणसहस्साई अन्तरं प्रज्ञप्तम । अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। हिन्दी अनुवाद १. मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवास-पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तासी हजार योजन का है। २.मंदरस्स णं पम्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य दाक्षिणात्यात् दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात दकावभोसस्य आवासदओभासस्स आवासपब्वयस्स पर्वतस्य उत्तरीयं चरमान्तं, एतत् उत्तरिल्ले चरिमंते, एस णं सप्ताशीति योजनसहस्राणि अबाधया सत्तासीइं जोयणसहस्साई अन्तरं प्रज्ञप्तम् । अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। २. मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से दकावभास आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तासी हजार योजन का है। ३.मंदरस्सणं पव्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्यात पच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् शंखस्य आवासपर्वतस्य संखस्स आवासपव्वयस्स पौरस्त्यं चरमान्तं, एतत सप्ताशीति परथिमिल्ले चरिमंते, एस णं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं सत्तासीइं जोयणसहस्साई प्रज्ञप्तम् । अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ३. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तासो हजार योजन का है। ४.मंदरस्स णं पव्वयस्स उत्तरिल्लाओ मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरीयात चरिमंताओ दगसीमस्स चरमान्तात दकसीमस्य आवासपर्वतस्य आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले दाक्षिणात्यं चरमान्तं, एतत सप्ताशीति चरिमते, एस णं सत्तासीइं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं जोयणसहस्साई अबाहाए प्रज्ञप्तम् । अंतरे पण्णत्ते। दकसीम आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तासी हजार योजन का है। ५. छण्डं कम्मपगडीणं आतिम- षण्णां कर्मप्रकृतीनां आदिम उपरितन- उरिल्लवज्जाणं सत्तासीई वर्जानां सप्ताशीतिः उत्तरप्रकृतयः उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः । ५. आदि अन्त की कर्म-प्रकृतियों को छोड़ कर शेष छह कर्म-प्रकृतियों की उत्तर-प्रकृतियां सत्तासी हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २७६ ६. महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ महाहिमवत्कूटस्य उपरितनात् चरिमंताओ सोगंषियस्स कंडस्स चरमान्तात् सौगन्धिकस्य काण्डस्य हेटिल्ले चरिमंते, एस णं अधस्तनं चरमान्तं, एतत् सप्ताशीति सत्तासीइं जोयणसयाई अबाहाए योजनशतानि अबाधया अन्तरं अंतरे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम् । समवाय ८७ : सू० ६-७ ६. महाहिमवंत कूट के उपरितन चरमान्त से सौगंधिक कांड के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तासी सौ योजन का है। ७. एवं रुप्पिकूडस्सवि। एवं रुक्मिकूटस्यापि। ७. रुक्मीकूट के उपरितन चरमान्त से सौगंधिक कांड के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तासी सौ योजन का है। टिप्पण १. उत्तर-प्रकृतियां सत्तासी (सत्तासीई उत्तरपगडीओ) ज्ञानावरणीय और अन्तराय कर्म की उत्तर-प्रकृतियों को छोड़कर शेष छह कर्मों की उत्तर-प्रकृतियां इस प्रकार हैंदर्शनावरणीय कर्म की-6 वेदनीय कर्म की -२ मोहनीय कर्म की -२८ आयुष्य कर्म की -४ नाम कर्म की -४२ गोत्र कर्म की कुल योग ८७ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अट्ठासीइइमो समवानो : अठासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स एकैकस्य चन्द्रमःसूर्यस्य अष्टाशीतिः अट्ठासीई-अट्ठासीई महग्गहा अष्टाशीति: महाग्रहाः परिवारः परिवारो पण्णतो। प्रज्ञप्तः। १. प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के अठासीअठासी महाग्रहों का परिवार है।' २. दिट्टिवायस्स णं अट्ठासीइं सुत्ताई दृष्टिवादस्य अष्टाशोति: सूत्राणि २. दृष्टिवाद के सूत्र अठासी हैं, जैसे पण्णत्ताई, तं जहा-उज्जसूयं प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-ऋजुसूत्रं ऋजुसूत्र, परिणतापरिणत, बहुभंगिक, परिणयापरिणयं बहभंगियं परिणतापरिणतं बहभडिकं विजय- विजयचरित, अनन्तर, परंपर, सामान विजयचरियं अणंतरं परंपरं चरितं अनन्तरं परम्परं सामानं (सत्) (सत्), संयूथ, संभिन्न, यथात्याग, सामाणं संजहं संभिण्णं आहच्चायं संयूथं संभिन्नं ययात्यागं सोवस्तिकः सौवस्तिकघंट, नन्दावर्त्त, बहुल, पृष्टासोवत्थियं घंटं नंदावतं बहुलं घण्ट: नन्दावतः बहुल: पृष्टापृष्टः पृष्ट, व्यावर्त, एवंभूत, व्यावतं, ट्रापुठं वियावत्तं एवंभूयं व्यावतः एवंभूत: यावर्तः वर्तमानपदं वर्तमानपद, समभि दुयावत्तं वत्तमाणुपयं समभिरूढं समभिरूढः सर्वतोभद्रं पन्यासः । पन्यास, दुष्प्रतिग्रह । सव्वओभदं पण्णासं दुप्पडिग्गहं। दुष्प्रतिग्रहः । इच्चेइयाई बावीसं सुत्ताइं इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि ये बाईस सूत्र स्व-समय-परिपाटी छिण्णच्छेयनइयाणि ससमयसुत्त- छिन्नच्छेदनयिकानि स्वसमयसूत्र- (जैनागम पद्धति) के अनुसार परिवाडीए। परिपाट्या। छिन्नछेद-नयिक होते हैं। इच्चेइयाई बावीसं सत्ताइं इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि अच्छिण्णच्छेयनइयाणि आजीविय- अच्छिन्नच्छेदनयिकानि आजीवकसूत्र- सुत्तपरिवाडीए। परिपाट्या। ये बाईस सूत्र आजीवक परिपाटी के अनुसार अछिन्नछेद-नयिक होते हैं। इच्चेइयाई बावीसं सुताई इत्येतानि द्वाविंशति: सूत्राणि त्रिक- तिगनइयाणि तेरासियसुत्त- नयिकानि त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्या। परिवाडीए। ये बाईस सूत्र पैराशिक परिपाटी के अनुसार त्रिक-नयिक होते हैं। इच्चेइयाई बावीसं सुत्ताइं इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि चउक्कनइयाणि ससमयसुत्त- चतुष्कनयिकानि स्वसमयसूत्रपरि- परिवाडीए। पाट्या । ये बाईस सूत्र स्व-समय-परिपाटी के अनुसार चतुष्क-नयिक होते हैं। एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीइ एवमेव सपूर्वापरेण अष्टाशीतिः सूत्राणि सूत्ताई भवंति त्ति मक्खायं। भवंतीति आख्यातम् । इन सबका योग करने पर अठासी सूत्र होते हैं। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २८१ समवाय ८८: सू. ३-८ ३. मन्दर पर्वत के पूर्वीय चरमान्त से गोस्तूप आवास-पर्वत के पूर्वीय चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर अठासी हजार योजन का है। ३. मंदरस्स णं पध्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यात् परथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य गोथभस्स आवासपव्वयस्स पौरस्त्यं चरमान्तं, एतत अष्टाशीति परथिमिल्ले चरिमंते, एस णं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं अट्टासीइं जोयणसहस्साइं प्रज्ञप्तम्।। अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ४. मंदरस्स णं पव्वयस्स दक्खिणि- मन्दरस्य पर्वतस्य दाक्षिणात्यात् ल्लाओ चरिमंताओ दओभासस्स चरमान्तात् दकावभासस्य आवासआवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले पर्वतस्य दाक्षिणात्यं चरमान्तं, एतत चरिमंते, एसणं अदासीइंजोयग- अष्टाशीति योजनसहस्राणि अबाधया सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्तं। अन्तरं प्रज्ञप्तम् । ५ मंदरस्स पव्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्यात् चरमा- पच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ न्तात शंखस्य आवासपर्वतस्य पाश्चात्यं संखस्स आवासपव्वयस्स चरमान्तं, एतत अष्टाशीति पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस णं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं अट्रासीइं जोयणसहस्साई प्रज्ञप्तम् । अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ४. मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से दकावभास आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर अठासी हजार योजन का है। ५. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवास-पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर अठासी हजार योजन का है। ६. मन्दर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर अठासी हजार योजन का है। ६. मंदरस्स णं पव्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरीयात् उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात दकसोमस्य आवासपर्वतस्य दगसीमस्स आवासपव्वयस्स उत्तरीयं चरमान्तं, एतत् अष्टाशीति उत्तरिल्ले चरिमंते, एस ण योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं अट्ठासीइं जोयणसहस्साइं प्रज्ञप्तम् । अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ७. बाहिराओ णं उत्तराओ कट्ठाओ बाह्यायाः उत्तरस्याः काष्ठायाः सूर्यः सरिए पढम छम्मासं अयमोणे प्रथमं षण्मासं आयान चतुश्चत्वाचोयालीसइममडलगते अट्रासोति रिंशत्तममण्डलगत: अष्टाशोर्ति इगसट्ठिभागे मुहत्तस्स दिवसखेतस्स एकषष्ठिभागान् मुहर्तस्य दिवसक्षेत्रस्य निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स निवर्य, रजनीक्षेत्रस्य अभिनिवऱ्या अभिनिवुड्ढेत्ता सूरिए चारं सूर्यः चारं चरति । चरइ। ७. सर्वाभ्यन्तर मंडलात्मक उत्तर दिशा से पहले छह मास तक दक्षिणायन की ओर गति करता हुआ सूर्य जब चौवालीसवें मण्डल में आता है तब मुहूर्त प्रमाण दिवस-क्षेत्र की हानि तथा मुहूर्त प्रमाण रात्री-क्षेत्र की वृद्धि करता हुआ गति करता है। ८. दक्षिण दिशा से दूसरे छह मास तक उत्तरायण की ओर गति करता हुआ सूर्य जब चौवालीसवें मंडल में आता है तब , मुहूर्त प्रमाण रात्री-क्षेत्र की हानि तथा 5, मुहूर्त प्रमाण दिवसक्षेत्र की वृद्धि करता हुआ गति करता ८. दक्षिणकट्ठाओ णं सूरिए दोच्चं दक्षिणकाष्ठायाः सूर्यः द्वितीयं षण्मासं छम्मासं अयमीणे चोयालीसतिम- आयान् चतुश्चत्वारिंशत्तममण्डलगत: मंडलगते अदासीई इगसद्रिभागे अष्टाशीति एकषष्ठिभागान महतस्य मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रजनीक्षेत्रस्य निवऱ्या, दिवसक्षेत्रस्य विवसखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता अभिनिवर्ध्य सूर्यः चारं चरति । णं सूरिए चार चरइ। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सूत्र १ प्रस्तुत आलापक में चन्द्र और सूर्य-दोनों के परिवार का उल्लेख है। वृत्तिकार का कथन है कि यद्यपि यह परिवार चन्द्र का ही सुना जाता है, किन्तु सूर्य भी ज्योतिष चक्र का इन्द्र होने के कारण उसका भी यही परिवार जानना चाहिए।' २,३. दृष्टिवाद के सूत्र अठासी (दिट्ठिवायस्स णं अट्ठासीई सुत्ताई) देखें-समवाय २२/२ का टिप्पण। ४,५. सूर्य गति करता है (सूरिए "चरइ) सूर्य जब दक्षिणायन में गति करता है तब दिन अठारह मुहूर्त का होता है। वह प्रत्येक मंडल को दो अहोरात्र में पार करता है। प्रत्येक मंडल में - मुहर्त प्रमाण दिन कम होता जाता है। इस प्रकार जब वह चौवालीसवें मंडल में जाता तान है तब प्रमाण दिन कम हो जाता है। इसी प्रकार चौवालीसवें मंडल में रात-- मुहर्त प्रमाण बढ़ती है। सूर्य जब उत्तरायण में गति करता है तब प्रति मंडल में - मुहूत्तं प्रमाण दिन बढ़ता है और इसी प्रमाण में रात कम होती जाती है। जब सूर्य चौवालीसवें मंडल में पहुंचता है, तब दिन 5 मुहूर्त प्रमाण अधिक और उसी प्रमाण में रात कम होती है। १. समवायांयवृत्ति, पत्र : एकैकस्यासंख्यातानामपि प्रत्येकमित्यर्थः, चन्द्रमाश्च सूर्यश्च चन्द्रम सूर्य तस्य चन्द्रसूर्ययुगलस्य इत्ययः, षष्टाशीतिमहाग्रहा: एते च यद्यपि चन्द्रस्यैव परिवारोऽन्यत्न श्रयते तथापि सूर्यस्यापोन्द्रत्वादेत एव परिवारतयाऽवसेया इति । २. समवायांगवृत्ति, पब ८७, ८५। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणणउइइमो समवाओ : नवासिवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. उसभे णं अरहा कोसलिए इमोसे ऋषभः अर्हन् कौशलिकः अस्याः १. कौशलिक अर्हत् ऋषभ इस अवसर्पिणी ओसप्पिणीए ततियाए समाए अवसपिण्याः तृतीयायाः समायाः के तीसरे-सुषम-दुःषमा आरे के पच्छिमे भागे एगणणउइए पश्चिमे भागे एकोननवत्यां अर्द्धमासेषु पश्चिम भाग (अन्त) में, नवासी अद्धमासेहिं सेसेहि कालगए शेषेषु कालगत: व्यतिक्रान्तः समुद्यातः अर्द्धमास शेष रहने पर कालगत हुए, वीइक्कंते समुज्जाए छिन्नजातिजरामरणबन्धन: सिद्धः बुद्धः संसार का पार पा गए, ऊर्ध्वगामी छिण्णजाइजरामरणबंधणे सिद्धे मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः हुए, जन्म, जरा और मरण के बन्धन बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिबुडे सर्वदुःखप्रहीणः । को छिन्न कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सव्वदुक्खप्पहीणे। अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। २. समणे भगवं महावोरे इमोसे श्रमणः भगवान महावीरः अस्याः ओसप्पिणीए चउत्थीए समाए अवसपिण्याः चतुर्थ्याः समायाः पश्चिमे पच्छिमे भागे एगूणणउइए भागे एकोननवत्यां अर्द्धमासेषु शेषेषु अद्धमासेहिं सेसेहि कालगए कालगतः व्यतिक्रान्तः समुद्यात्: वोइक्कते समुज्जाए छिण्णजाइ- छिन्नजातिजरामरणबन्धनः सिद्धः बुद्धः जरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः अंतगडे परिणिव्वुडे सव्वदुक्ख- सर्वदुःखप्रहीणः । प्पहोणे। २. श्रमण भगवान् महावीर इस अवसर्पिणी के चौथे-दुःषम-सुषमा-आरे के पश्चिम-भाग (अन्त) में, नवासी अर्द्धमास शेष रहने पर कालगत हुए, संसार का पार पा गए, ऊर्ध्वगामी हुए, जन्म, जरा और मरण के बन्धन को छिन्न कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दु:खों से रहित हुए। ३. हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी हरिषेण: राजा चातुरन्तचक्रवर्ती ३. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा हरिषेण एगूणणउई वाससयाई महाराया एकोननवति वर्षशतानि महाराजः नवासी सौ वर्षों तक महाराज रहे ।' होत्था। आसीत् । ४. संतिस्स णं अरहओ एगूणणउई शान्तेः अर्हत: एकोननवतिः ४. अर्हत् शान्ति की उत्कृष्ट साध्वीअज्जासाहस्सीओ उक्कोसिया आर्यासाहयः उत्कृष्टा आर्यासम्पद् सम्पदा नवासी हजार आर्याओं की अज्जासंपया होत्था। आसीत् । थी। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सूत्र ३ हरिषेण दसवें चक्रवर्ती थे। उनका संपूर्ण आयु दस हजार वर्ष का था। उन्होंने नवासी सौ वर्षों तक राज्य किया और ग्यारह सौ वर्षों तक कुमार-अवस्था, मांडलिक राजा तथा मुनि के रूप में रहे।' समवाय ६७/८ में उनका सम्पूर्ण गृहवास सतानवें सौ वर्ष बताया है। इसका तात्पर्य है कि वे तीन सौ वर्षों तक मुनि के रूप में रहे। वृत्तिकार का कथन है कि उनकी गृहस्थ-पर्याय सतानवे सौ वर्षों से कुछ कम (देशोनानि) और प्रव्रज्या-काल तीन सौ वर्षों से कुछ अधिक का था। २. नवासी हजार आर्याओं (एगूणणउई अज्जसाहस्सीओ) आवश्यकनिर्यक्ति में इनकी साध्वी-सम्पदा ६१६०० बतलाई है । समवायांग के वृत्तिकार ने इसे मतान्तर माना है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ८८ : हरिषेणचक्रवर्ती दशमस्तस्य च दश वर्षसहस्राणि सर्वायुस्तन च शतोनानि नव सहस्त्राणि राज्यं शेषाण्येकादश शतानि कुमारत्वमाण्डलिकत्वानगारत्वेष प्रवसेयानि। २. समवायांगवृत्ति, पत्र १२: हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तनवति वर्षशतानि गृहमध्युषितस्त्रीणि चाधिकानि प्रव्रज्या पालितवान् दशवर्षसहस्रत्वात् तदायुष्कस्येति । 1. आवश्यकनियुक्ति, गा० २८४, भवणि प्रथम विभाग, पृ. २०५। १.समवायांगवृत्ति, पन्न ८८। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० एउइइमो समवायो : नब्बेवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. सीयले णं अरहा नउई धणूई उड्ढं शीतलः अर्हन् नवति धषि १. अर्हत् शीतल नब्बे धनुष्य ऊंचे थे। उच्चत्तेणं होत्था। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । २. अजियस्स णं अरहो नउइं गणा अजितस्य अर्हतः नवति: गणाः नवतिः २. अर्हत् अजित के नब्बे गण और नब्बे नउइं गणहरा होत्था। गणधराः आसन् । गणधर थे। ३. संतिस्स णं अरहओ नउई गणा शान्तेः अर्हतः नवतिः गणा: नवतिः ३. अर्हत् शान्ति के नब्बे गण और नब्बे नउई गणहरा होत्था। गणधराः आसन् । गणधर थे। ४. सयंभुस्स ण वासुदेवस्स स्वयंभुवः वासुदेवस्य नवतिवर्षाणि ४. वासुदेव स्वयम्भू नब्बे वर्षों तक दूसरे णउइवासाइं विजए होत्था। विजय आसीत् । राज्यों को जीतने में लगे रहे। ५. सव्वेसि णं वट्टवेयड्ढपव्वयाणं सर्वेषां वृत्तवैताढ्यपर्वतानां उपरितनात् ५. सभी वृत्तवताढय पर्वतों के उपरितन उवरिल्लाओ सिहरतलाओ शिखरतलात सौगन्धिककाण्डस्य शिखरतल से सौगंधिक कांड के नीचे सोगंधियकंडस्स हेदिल्ले चरिमंते, अधस्तनं चरमान्तं, एतत् नवति के चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर एस णं नउइं जोयणसयाइं योजनशतानि अबाधया अन्तरं नौ हजार योजन का है। अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम् । टिप्पण १. सूत्र २,३ आवश्यकनियुक्ति में अजित के पचानवे गण और पचानवे गणधर बतलाए हैं तथा शांति के छत्तीस गण और छत्तीस गणधर बतलाए हैं। समवायांगवृत्ति के अनुसार ये दोनों मतान्तर हैं।' १.प्रावश्यकनियुक्ति, गा० २६६, प्रवचूणि प्रथम विभाग, पृ० २१०। २. वहो, गा० २६७, प्रवचूणि प्रथम विभाग, पु० २११ । ३. समवायांगवत्ति, पत्न८८: ...."पावश्यके तु पञ्चनवतिरजितस्य षट्त्रिंशत् तु शान्तेरुक्तास्तदिदमपि मतान्तरमिति । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारणउइइमो समवायो : इक्यानबेवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. एक्काणउई परवेयावच्च- एकनवतिः परवैयावृत्त्यकर्मप्रतिमाः १. दूसरों के वैयावृत्यकर्म की प्रतिमाएं कम्मपडिमाओ पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः । इक्यानबे हैं। २. कालोए णं समुद्दे एक्काणउई कालोदः समुद्रः एकनवति योजनशत- २. कालोद समुद्र का परिक्षेप इक्यानबे जोयणसयसहस्साइं साहियाइं सहस्राणि साधिकानि परिक्षेपेण लाख योजन से कुछ अधिक है। परिक्खेवेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः । ३. कुंथुस्स णं अरहओ एक्काणउई कुन्थोः अर्हतः एकनवतिः आधोवधिक- ३. अर्हत् कुन्थु के इक्यानवे सौ आधोवधिक अहोहियसया होत्था। शतानि आसन् । ज्ञानी थे। ४. आउय-गोय-वज्जाणं छण्हं आयुष्य-गोत्र-वर्जानां षण्णां ४. आयुष्य और गोत्रकर्म को छोड़ कर कम्मपगडीणं एक्काणउई कर्मप्रकृतीनां एकनवतिः उत्तरप्रकृतयः शेष छह कर्म-प्रकृतियों की उत्तरउत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ। प्रज्ञप्ताः । प्रकृतियां इक्यानबे हैं। टिप्पण १. दूसरों के वैयावृत्यकर्म की प्रतिमाएं इक्यानबे (एक्काणउई परवेयावच्चकम्मपडिमाओ) वैयावृत्यकर्म का अर्थ है-भक्त, पान आदि का सहयोग देने की प्रवृत्ति और प्रतिमा का अर्थ है-अभिग्रह । वृत्तिकार के अनुसार इक्यानबे प्रतिमाओं का विवरण कहीं भी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने संभावित रूप में इक्यानबे प्रकारों का उल्लेख किया है। दर्शनगुण से विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति दस प्रकार का शुश्रूषा विनय होता है-सत्कार, अभ्युत्थान, सम्मान, आसनाभिग्रह, आसन-अनुप्रदान, कृतिकर्म, अंजलिप्रग्रह, अभिमुख गमन, स्थिरवास वालों की पर्युपासना और पहुंचाने जाना। अनाशातना विनय साठ प्रकार का है—तीर्थङ्कर, धर्म, आचार्य, वाचक, स्थविर, कुल, गण, संघ, सांभोगिक, क्रिया, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-इन पन्द्रह की अनाशातना, भक्ति, बहमान और वर्णवाद करना। औपचारिक विनय के सात प्रकार हैं१. अभ्यास-आसन-गुरू के समीप बैठना। २. छन्दोनुवर्तन----गुरू के अभिप्राय के अनुसार चलना । ३. कृत-प्रतिकृति-प्रसन्न होने पर गुरू सूत्र आदि की वाचना देंगे-ऐसा मान कर शुश्रुषा करना । ४. कारितनिमित्तकरण-शास्त्र का सम्यक अध्ययन कराने पर विशेष विनय करना। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाना २८७ समवाय ६१ : टिप्पण ५. दुःखार्तगवेषण-दुःख से पीड़ित व्यक्तियों के दुःख की गवेषणा करना। ६. देश-काल को जानना। ७. सर्वार्थ-अनुमति-सब विषयों में अनुमति देना। वैयावृत्य चौदह प्रकार का है-प्रव्राजनाचार्य, दिगाचार्य, उद्देशाचार्य, समुद्देशाचार्य, वाचानाचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, सार्मिक, कुल, गण, संघ-इन चौदह की वैयावृत्य करना।' इस प्रकार विनय के कुल प्रकार (१०+६०-७+१४) ६१ होते हैं। २. इक्यानबे लाख योजन से कुछ अधिक (एक्काणउई जोयणसयसहस्साई साहियाइं) कुछ अधिक से यहां ७०६०५ योजन, १७१५ धनुष्य और साधिक ८७ अंगुल ग्रहण किया गया है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ८८, ८६: परेषां-पात्मव्यतिरिक्तानां यावत्यकर्माणि-भक्तपानादिभिरुपष्टम्मक्रियास्तद् विषयाः प्रतिमा:-अभिग्रहविशेषाः........", एतानि च प्रतिमात्वेनाभिहितानि क्वचिदपि मोपलब्धानि, केवलं विनयवैयावृत्यभेदा एते संभवन्ति, ....." इत्येकनवतिविनयभेदा एते एव अभिग्रहविषयीभता: प्रतिमा उच्यन्ते इति । २. समवायांगवृत्ति, पत्न ८६ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारणउइइमो समवानो : बानबेवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. बाणउइं पडिमाओ पण्णत्ताओ। द्विनवतिः प्रतिमाः प्रज्ञप्ताः । १. प्रतिमाएं बानबे हैं। २. थेरे णं इंदभूती बाणउई वासाई स्थविरः इन्द्रभूतिः द्विनवति वर्षाणि २. स्थविर इन्द्रभूति बानबे वर्ष के पूर्ण सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः मुक्तः आय का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, मुत्ते अंतगडे परिणिव्वडे अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः । अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व सव्वदुक्खप्पहीणे। दुःखों से रहित हुए। ३. मंदरस्स णं पव्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य वहुमध्यदेशभागात् ३. मन्दर पर्वत के बहुमध्यदेशभाग से बहुमझदेसभागाओ गोथुभस्स गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य पाश्चात्यं गोस्तूप आवास-पर्वत के पश्चिमी आवासपव्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरमान्तं, एतत् द्विनवति योजनसह- चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर चरिमंते, एस णं बाणउइं स्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । बानबे हजार योजन का है। जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ४. एवं चण्उहंपि आवासपव्वयाणं। एवं चतुर्णामपि आवासपर्वतानाम् । ४. इसी प्रकार मन्दर पर्वत के बहुमध्य देशभाग से दकावभास आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का, शंख आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त का और दकसीम आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर बानबे-बानबे हजार योजन का है। टिप्पण १. प्रतिमाएं बानबे (बाणउई पडिमाओ) यहां बानबे प्रतिमाओं का नामोल्लेख नहीं है। वृत्तिकार ने दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति (गाथा ४४-५१) के आधार पर उनका विवरण प्रस्तुत किया है। प्रतिमाओं के मूल प्रकार पांच हैं-समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसं लीनताप्रतिमा और एकविहारप्रतिमा। समाधिप्रतिमा के दो प्रकार हैं-श्रुतसमाधिप्रतिमा और चारित्रसमाधिप्रतिमा। श्रुतसमाधिप्रतिमा के बासठ प्रकार हैं। आचारांग में इसके पांच प्रकार प्राप्त हैं। आचार-चूला में सेंतीस, स्थानांग Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो २८8 समवाय ६२ : टिप्पण सोलह और व्यवहार सूत्र में चार - इस प्रकार बासठ प्रकार हो जाते हैं । यद्यपि ये चारित्र प्रतिमाएं हैं किन्तु ये विशिष्ट श्रुतवान् मुनि के होती हैं, इसलिए इन्हें 'श्रुतप्रतिमा' कहा गया, ऐसा सम्भव है । चारित्रसमाधिप्रतिमा के पांच प्रकार हैंसामायिक चारित्रप्रतिमा, छेदोपस्थापनीय चारित्रप्रतिमा, परिहारविशुद्ध चारित्रप्रतिमा, सूक्ष्मसंपराय चारित्रप्रतिमा और यथाख्यात चारित्रप्रतिमा । उपधानप्रतिमा के दो प्रकार हैं- भिक्षप्रतिमा और उपासकप्रतिमा । भिक्षु प्रतिमाएं बारह हैं ( समवाय १२ ) । उपासक प्रतिमाएं ग्यारह हैं ( समवाय ११ ) । विवेकप्रतिमा और प्रतिसंलीनताप्रतिमा का कोई प्रकार भेद नहीं है । एकविहारप्रतिमा बारह भिक्षुप्रतिमा के अन्तर्गत गिनी गई है, इसलिए वह यहां पृथक् विवक्षित नहीं है । प्रतिमाओं का कुल योग इस प्रकार है' - समाधिप्रतिमा – ६२ + ५=६७ उपधानप्रतिमा - १२+११=२३ विवेकप्रतिमा प्रतिसंलीनताप्रतिमा — १ १ कुल योग ९२ इस प्रसंग में ठाणं २ / २४३-२४८ के आलापक और उनके टिप्पण पृष्ठ १३२-१३७ द्रष्टव्य हैं । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. चंदप्पहस्स णं अरहओ तेणउई गणा ते उई गणहरा होत्था । २. संतिस ६३ ते उइमो समवा : तिरानवेवां समवाय णं अरहओ तेणउई उसव्विसया होत्या । ३. ते उइमंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे निवट्टमाणे वा समं अहोरत्तं विसमं करे | संस्कृत छाया चन्द्रप्रभस्य अर्हतः त्रिनवतिः गणाः त्रिनवतिः गणधराः आसन् । शान्तेः अर्हतः त्रिनवतिः चतुर्दशपूर्विंशतानि आसन् । त्रिनवतिमण्डलगत : सूर्य: अतिवर्तमानो निवर्तमानो वा समं अहोरात्रं विषमं करोति । टिप्पण हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् चन्द्रप्रभ के तिरानवे गण और तिरानवे गणधर थे । २. अर्हत् शांति के तिरानवे सौ चौदहपूर्वी थे । १. सूर्य विषम कर देता है ( सूरिए "विसमं करेs) २ ६१ जब दिन और रात पन्द्रह - पन्द्रह मुहूर्त के होते हैं तब उन्हें 'सम अहोरात्र' कहा जाता है। जब सूर्य सर्व आभ्यंतरमंडल में रहता है तब अठारह मुहूर्त्त का दिन और बारह मुहूर्त की रात्री होती है और जब सूर्य सर्व बाह्य-मंडल में रहता है तब अठारह मुहूर्त्त की रात्री और बारह मुहूर्त्त का दिन होता है। शेष एक सौ तिरासी मंडलों में प्रतिमंडल - भाग की वृद्धि या हानि होती है। जब दिन बढ़ता है तब रात घटती है और जब रात बढ़ती है तब दिन घटता है । इस १ प्रकार जब सूर्य बानवें मंडल में आता है तब तक (६६९२ ) ३ मुहर्त की हानि या वृद्धि होती है । मुहूर्त्त प्रमाण की विवक्षा न कर हम जब अठारह मुहुत्तों में से घटाते हैं तो पन्द्रह मुहूर्त्त और जब बारह मुहूर्तीों में मिलाते हैं तो पन्द्रह मुहूर्त होते हैं । अत: बानवें मंडल के अर्धभाग में दिन-रात की समानता होती है और बाद में विषमता। इसीलिए बानवें मंडल से प्रारम्भ कर जब सूर्य तिरानवें मंडल में आता है तब दिन-रात विषम हो जाते हैं । १ ६१ ६१ १ समवायांगवृत्ति, पक्ष १० ३. तिरानवे मंडल में रहा हुआ सूर्य अतिवर्तन ( सर्व बाह्य-मंडल से सर्वाभ्यंतर-मंडल की ओर जाता हुआ ) तथा निवर्तन करता हुआ ( सर्भाभ्यंतरमंडल से सर्व बाह्य-मंडल की ओर जाता हुआ ) सम अहोरात्र को विषम कर देता है । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ चउर उइइमो समवा : चौरानवेवां समवाय मूल संस्कृत छाया १ निसनोलवंतियाओ णं जीवाओ नैषधनोलवत्यौ जीवे चतुर्नवतिचरणउइंच उणउई जोयण- चतुर्नवत योजन सहस्राणि एकं सहस्साई एक्कं छप्पण्णं जोयणसयं षट्पञ्चाशत् योजनशतं द्वौ च एकोनदोणि य एगूणवीसइभागे विंशतिभागान् योजनस्य आयामेन जोयणस्स आयामेणं प्रज्ञप्ते | पण्णत्ताओ । २. अजियस्स णं अरहओ चरणउई हिसिया हथ / अजितस्य अर्हतः चतुर्नवतिः अवधिज्ञानिशतानि आसन् । हिन्दी अनुवाद १. निषध और नीलवान् पर्वत की प्रत्येक जीवा ६४१५६- योजन लम्बी है । १६ २ अर्हत् अजित के चौरानवे सौ अवधिज्ञानी थे । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ पंचाउ इमो समवाओ : पंचानवेवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. सुपासस्स णं अरहओ पंचाणउहं सुपार्श्वस्य अर्हतः पञ्चनवतिः गणाः गणा पंचाणउ गहरा होत्था । पञ्चनवतिः गणधराः आसन् । २. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्त चरिमंताओ जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य चरमान्तात् चउद्दिसि लवणसमुद्दे पंचाणउई चतुर्दिक्षु लवणसमुद्रं पञ्चनवतिपंचा उ जोयणसहस्साई पञ्चनवति योजनसहस्राणि अवगाह्य ओगाहित्ता चत्तारि महापायाला चत्वारः महापातालाः प्रज्ञप्ताः, पण्णत्ता, तं जहा- वलयामुहे तद्यथा - वडवामुखः केतुकः यूपकः, har जूते ईसरे । ईश्वरः । उभयपार्श्वतः ३. लवणसमुद्दस्स उभओ पासंपि लवणसमुद्रस्य पंचाण उई-पंचाणउ पदेसाओ पञ्चनवतिः पञ्चनवतिः प्रदेशाः उस्सेहपरिहाणीए पण्णत्ताओ । उद्वेधोत्सेधपरिहान्या प्रज्ञप्ताः । ४. कुंथू णं अरहा पंचाणउ कुन्थुः अर्हन् पञ्चनवति वर्षसहस्राणि वाससहस्साई परमाउं पालइत्ता परमायुः पालयित्वा सिद्धः बुद्धः मुक्तः सिद्धे बुद्ध मुत्ते अंतगडे अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः । परिणठवडे सव्वदुक्खप्पहीणे । ५. थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउइवासाई स्थविर : मौर्यपुत्रः पञ्चनवति वर्षाणि सव्वाजयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे सर्वायुः पालयित्वा सिद्ध: बुद्ध: मुक्तः मुत्ते अंतगड़े परिणिबुडे अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः । सव्वदुक्खपहीणे । हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् सुपार्श्व के पंचानवे गण और पंचानवे गणधर थे । २. जम्बूद्वीप द्वीप के चरमान्त से चारों दिशाओं में लवण समुद्र का पंचानवेपंचानवे हजार योजन अवगाहन करने पर वहां चार महापाताल कलश हैं, जैसे -- वडवामुख, केतुक, यूपक और ईश्वर । ३. लवण समुद्र के दोनों पाश्र्वों (नीचे) और ऊपर) में पंचानवे -पंचानवे प्रदेशों का' अतिक्रमण करने पर गहराई या ऊंचाई के रूप में एक-एक प्रदेश की हानि होती है । ४. अर्हतु कुन्थु पंचानवे हजार वर्षों के सर्व आयुष्य का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए । ५. स्थविर मौर्यपुत्र पंचानवे वर्षों के सर्व आयुष्य का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. पंचानवे-पंचानवे प्रदेशों का (पंचाणउई-पंचाणउइं पदेसाओ) लवण समुद्र के मध्य भाग में दस हजार योजन प्रमाण क्षेत्र है। उसकी गहराई समभूतल से हजार योजन की है। वहां से जब हम पंचानवे प्रदेश आगे बढ़ते हैं तब गहराई में एक प्रदेश की हानि होती है। इस प्रकार एक-एक प्रदेश की हानि होते-होते जब हम पंचानवे हजार योजन प्रमाण क्षेत्र का उल्लंघन करते हैं तब एक हजार योजन प्रमाण गहराई की हानि होती है। इसी प्रकार लवण समुद्र के मध्य भाग की अपेक्षा से समुद्रतट की ऊंचाई एक हजार योजन की है। वहां समभूतलरूप समुद्रतट से जब हम पंचानवे प्रदेश आगे जाते हैं तब ऊंचाई में एक प्रदेश की हानि होती है। इस क्रम से जब पंचानवे हजार योजन प्रमाण क्षेत्र का उल्लंघन होता है तब एक हजार योजन प्रमाण ऊंचाई की हानि होती है।' २. पंचानवे हजार वर्षों के सर्व आयुष्य का (पंचाणउई वाससहस्साई परमाउं) कुमारावस्था- २३७५० वर्ष मांडलिक राजा- २३७५० वर्ष चक्रवर्ती- २३७५० वर्ष प्रव्रज्या अवस्था- २३७५० वर्ष कुल योग ६५००० वर्ष ३. पंचानवे वर्षों के सर्व आयुष्य का (पंचाणउइवासाइं सव्वाउयं) गृहस्थावस्था -६५ वर्ष छद्मस्थावस्था –१४ वर्ष केवली अवस्था -१६ वर्ष कुल योग ६५ वर्ष १. समवायोगवृत्ति, पत्र १ २. वही, पत्र ६१ ३. वही, पत्न ६१ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छण्णउइइमो समवानो : छियानवेवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. एगमेगस्स णं रणो एकैकस्य राज्ञः चातुरन्तचक्रवर्तिनः १. प्रत्येक चातुरंत चक्रवर्ती राजा के चाउरंतचक्कवट्टिस्स छण्णउई- षण्णवतिः षण्णवतिः ग्रामकोटयः छियानवे-छियानबे कोटि ग्राम होते हैं । छण्णउइं गामकोडीओ होत्था। आसन् । २. वाउकुमाराणं छण्णउई वायुकुमाराणां षण्णवतिः २. वायुकुमार देवों के छियानवे लाख भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। भवनावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । भवनावास हैं। ३. ववहारिए णं दंडे छण्णउइं व्यावहारिकः दण्डः षण्णवति ३. व्यावहारिक दंड, अंगुल-मान से, अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। अङ गुलानि अङ गुलप्रमाणेन । छियानवे अंगुल लम्बा होता है। ४. ववहारिए णं षणू छण्णउई व्यावहारिकं धनुः षण्णवति अङ गुलानि ४. व्यावहारिक धनुष्य, अंगुल-मान से, अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। अङ गुलप्रमाणेन । छियानवे अंगुल लम्बा होता है । ५. ववहारिया णं नालिया छण्णउई व्यावहारिकी नालिका षण्णवति ५. व्यावहारिक नालिका, अंगुल-मान से, अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। अङ गुलानि अङ गुलप्रमाणेन । छियानवे अंगुल लम्बी होती है। ६. ववहारिए णं जुगे छण्णउई व्यावहारिकः युगः षण्णवति अङ गुलानि ६. व्यावहारिक युग, अंगुल-मान से, अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। अङ गुलप्रमाणेन । छियानवे अंगुल लम्बा होता है। ७. ववहारिए णं अक्खे छण्णउई व्यावहारिक: अक्षः षण्णवति ७. व्यावहारिक अक्ष, अंगुल-मान से, अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। अङ गुलानि अङ गुलप्रमाणेन । छियानवे अंगुल लम्बा होता है। ८. ववहारिए णं मुसले छण्णउई व्यावहारिक: मुशलः षण्णवति ८. व्यावहारिक मुशल, अंगुल-मान से, अंगुलाई अंगुलपमाणेणं। अङ गुलानि अङ गुलप्रमाणेन। छियानवे अंगुल लम्बा होता है । ६. अब्भंतराओ आतिमुहुत्ते छण्णउइ- आभ्यन्तरात् आदिमुहूर्तः ६. जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल में रहता अंगुलछाए पण्णत्ते। षण्णवत्यङ गुलच्छायः प्रज्ञप्तः । है, उस दिन का प्रथम मुहर्त छियानवे अंगुल की छाया' वाला होता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सूत्र २: वायकुमार देवों के दक्षिण दिशा में पचास लाख और उत्तर दिशा में छियालीस लाख भवनावास होते हैं।' २. सूत्र ३: जिसके द्वारा गाउ आदि का प्रमाण किया जाता है उसे 'व्यावहारिक दंड' कहते हैं। दंड चार हाथ का होता है। प्रत्येक हाथ चौबीस अंगुल का होता है, अतः प्रामाणिक दंड छियानबे अंगुल का होता है। अव्यावहारिक दंड का माप नियत नहीं होता । वह छोटा-बड़ा भी हो सकता है।' ३. छियानवे अंगुल को छाया (छण्णउइ-अंगुलछाए) जब सूर्य आभ्यन्तर मंडल में रहता है तब दिन अठारह मुहूर्त का होता है। उस समय एक मुहूर्त बारह अंगुल वाले शंकु के प्रमाण से छियानवे अंगुल की छाया वाला होता है। छाया-गणित के अनुसार शंकु की लम्बाई को मुहूत्तों की संख्या से गुणित किया जाता है-१८x१२%=२१६ । इसका आधा करने पर १०८ आते हैं। इसमें शंकु का प्रमाण (१२ अंगुल) निकालने पर शेष छियानवे रहते हैं।' १. समवायांगवृत्ति, पन्न ६१: वायकुमाराणां षण्णवतिभवनलक्षाणि, दक्षिणस्यां पञ्चाशत उत्तरस्यां च षट्चत्वारिंशतो भावादिति । १. समवायांगवृत्ति, पत्न ६१ : व्यावहारिको येन गव्यूतादि प्रमाण चिन्त्यते, अव्यावहारिकस्तु लघुः दीर्घा वा भवत्युक्तप्रमाणात्, दण्डो हि चतु:कर उक्त:, करश्चतुर्विशत्यंगुल: एवं चतुर्विशतौ चतुर्गुणितायां षण्णवतिः स्यादेवेति । ३. समवायांगवृत्ति, पन ११ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ सत्तारणउइइमो समवाओ : सत्तानवेवां समवाय मूल संस्कृत छाया १. मंदरस्स णं पव्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्यात् पच्चत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पाश्चात्यं चरमान्तं एतत् सप्तनवति पच्चत्थिमिले चरिमंते, एस णं योजनसहस्राणि सत्ताणउइं जोयणसहस्साइं अबहाए अंतरे पण्णत्ते । अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । २. एवं चउदिसिपि । एवं चतुर्दिक्षु अपि । ३. अट्टहं कम्मपगडीणं सत्ताणउई अष्टानां कर्मप्रकृतीनां सप्तनवतिः उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ । उत्तरप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । ४. हरिसेणे णं राया चाउरंत हरिषेणः राजा चातुरन्तचक्रवर्ती चक्कवट्टी देसूणाई सत्ताणउई देशोनानि सप्तनवति वर्षशतानि वाससयाई अगारमज्भावसित्ता अगारमध्युष्य मुण्डो भूत्वा अगारात् मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अनगारितां प्रव्रजितः । अणगारिअं पव्वइए । हिन्दी अनुवाद १. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के पश्चिमी अन्तर चरमान्त का व्यवधानात्मक सत्तानवे हजार योजन का है। २. मन्दर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से दकावभास आवास पर्वत के उत्तरी चरमान्त का मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से शंख आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त का, मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से दकसीम आवास पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सत्तानवे - सत्तानवे हजार योजन का है। ३. आठों कर्म प्रकृतियों की प्रकृतियां सत्तानवे हैं । उत्तर ४. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा हरिषेण कुछ कम सत्तानवे सौ वर्षों तक अगारवास में रह कर, मुंड होकर, अगार अवस्था से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारणउइइमो समवायो : अठानवेवां समवाय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १.नंदणवणस्स णं उवरिल्लाओ नन्दनवनस्य उपरितनात चरमान्तात चरिमंताओ पंडयवणस्स हेढिल्ले पण्डकवनस्य अधस्तनं चरमान्तं, एतत् चरिमंते, एस णं अट्ठाणउई अष्टनवति योजनसहस्राणि अबाधया जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे अन्तरं प्रज्ञप्तम् । पण्णते। १. नंदनवन के उपरितन चरमान्त से पण्डकवन के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक अंतर अठानवे हजार योजन का है। २. मंदरस्स णं पग्वयस्स मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चात्यात पच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् गोस्तूपस्य आवासपर्वतस्य गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पौरस्त्यं चरमान्तं, एतत् अष्टनवति पुरथिमिल्ले चरिमंते, एस णं योजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं अट्ठाणउइं जोयणसहस्साई प्रज्ञप्तम् । अबाहाए अंत्तरे पण्णत्ते। २. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गोस्तूप आवास-पर्वत के पूर्वी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर अठानवे हजार योजन का है। ३. एवं चउदिसिपि। एवं चतुर्दिक्षु अपि । ३. मन्दर पर्वत के उत्तरी चरमन्ति से दकावभास आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का, मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से शंख आवास-पर्वत के पश्चिमी चरमान्त का और मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से दकसीम आवास-पर्वत के उत्तरी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर अठानवे-अठानवे हजार योजन का है। ४. दाहिणभरहद्धस्स णं धणुपट्टे दक्षिणभरतार्द्धस्य धनुःपृष्ठं अष्टनवति अट्ठाणउई जोयणसयाई योजनशतानि किञ्चिद्नानि आयामेन किंचणाई आयामेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम् । ४. दक्षिण भरत का धनुःपृष्ठ कुछ न्यून अठानवे सौ योजन लम्बा है । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो २६८ समवाय ९८ : सू०५-७ ५. उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढम उत्तरस्यां काष्ठायां सूर्यः प्रथमं षण्मासं ५. प्रथम छह मासी तक उत्तर दिशा में छम्मासं अयमीणे आयान् एकोनपञ्चाशत्तममण्डलगत: गति करता हुआ सूर्य उनचासवें मंडल एगणपंचासतिममंडलगते अष्टनवति एकषष्टिभागान् मुहूर्तस्य । ___ में दिवस-क्षेत्र को , मुहूर्त प्रमाण न्यून अट्ठाणउइ एकसट्ठिभागे मुहत्तस्स दिवसक्षेत्रस्य निवर्ध्य, रजनीक्षेत्रस्य दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता अभिनिवर्ध्य सूर्यः चारं चरति । और रात्रि-क्षेत्र को इसी प्रमाण में रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता गं अधिक करता हुआ गति करता है। सूरिए चारं चरइ। ६. दक्खिणाओ णं कट्ठाओ सूरिए दक्षिणस्यां काष्ठायां सूर्यः द्वितीयं ६. दूसरी छह मासी तक दक्षिण दिशा में दोच्चं छम्मासं अयमीणे षण्मासं आयान् एकोनपञ्चाशत्तम- गति करता हआ सूर्य उनचासवें मंडल एगूणपण्णासइममंडलगते मण्डलगतः अष्टनवति एकषष्टिभागान में रात्री-क्षेत्र को मुहूर्त प्रमाण न्यून अट्ठाणउइ एकसट्ठिभाए मुहुत्तस्स मुहूर्तस्य रजनीक्षेत्रस्य निवऱ्या, रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसक्षेत्रस्य अभिनिवर्ध्य सूर्यः चारं और दिवस-क्षेत्र को इसी प्रमाण में दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं चरति । अधिक करता हुआ गति करता। सूरिए चारं चरइ। रेवतीप्रथमज्येष्ठपर्यवसानानां एकोन- ७. रेवती नक्षत्र से ज्येष्ठा नक्षत्र तक के एगूणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउई विंशत्याः नक्षत्राणां अष्टनवतिः ताराः उन्नीस नक्षत्रों के, तारा प्रमाण से, ताराओ तारग्गेणं पण्णत्ताओ। ताराग्रेण प्रज्ञप्ताः । अठानवे तारा हैं। लगत टिप्पण १. अठानवे तारा (अट्ठाणउताराओ) वृत्तिकार ने नक्षत्रों के ताराओं की संख्या का निर्देश किया है। उनके अनुसार सत्तानवे की संख्या प्राप्त होती है। उन्होंने सत्तानवे की संख्या को ग्रन्थान्तर का अभिमत माना है। उनके अनुसार किसी एक नक्षत्र का एक तारक अधिक होना चाहिए।' सूर्यप्रज्ञप्ति (१०/६२) के कुछ आदर्शों में अनुराधा के पांच तारों वाला पाठ मिलता है। उसकी वत्ति (पत्र १३१) में जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (७/१३१) की दो गाथाएं उद्धृत हैं। उसके अनुसार अनुराधा के चार तारा ही हैं। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति के कुछ आदर्शों में मिलने वाले पांच तारों के उल्लेख के अनुसार अठानवें तारों की संख्या घटित हो जाती १. समवायर्यागवृत्ति, पत्र ६२,६: सर्वतारामीलने यथोक्त ताराग्रमेकोमं ग्रन्थान्तराभिप्रायेण भवति, मधिकृतग्रन्धाभिप्रायेण त्वेषामेकतरस्य एकताराधिकत्वं सम्भाव्यते ततो यथोक्ता तत्संख्या भवतीति। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो २६४ समवाय ४८: टिप्पण समवाय स्थानांग ३/५५६ ३/५५६ नक्षत्र रेवती अश्विनी भरती. कृतिका रोहिणी मृगशिर आर्द्रा पुनर्वसु Mr murm or m ५/२३७ ३/५५६ १/२५१ ५/२३७ ३/५५६ पुष्य r अश्लेषा मघा पूर्वफल्गुनी उत्तरफल्गुनी चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा xxx ७/१४५ २/४४५ २/४४६ ५/२३७ १/२५२ १/२५३ ५/२३७ ४/६५४ २/५५६ r ! Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ रणवणउइइमो समवायो : निन्यानवेवां समवाय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. मंदरे णं पव्वए णवणउई मन्दरः पर्वतः नवनवति योजनसहस्राणि जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तः । पण्णत्ते। १. मन्दर पर्वत निन्यानवे हजार योजन ऊंचा है। २. नंदणवणस्स णं पुरथिमिल्लाओ नन्दनवनस्य पौरस्त्यात् चरमान्तात् चरिमंताओ पच्चथिमिल्ले पाश्चात्य चरमान्त, एतत् नवनवति चरिमंते. एस ण णवणउडं योजनशतानि अबाधया अन्तरं जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। २. नन्दन वन के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर निन्यानवे सो योजन का है। ३. नंदणवणस्स णं दक्खिणिल्लाओ नन्दनवनस्य दाक्षिणात्यात् चरमान्तात् चरिमंताओ उत्तरिल्ले चरिमंते. उत्तरीयं चरमान्तं, एतत् नवनवति एस णं णवणउई जोयणसयाई योजनशतानि अबाधया अन्तरं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम् । ३. नन्दन वन के दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर निन्यानवे सौ योजन का है। ४. पदमे सरियमंडले णवणउडं प्रथम सूर्यमण्डलं नवनवति योजन- जोयणसहस्साइं साइरेगाइं सहस्राणि सातिरेकाणि आयाम- आयामविक्खंभेणं पण्णते। विष्कम्भेण प्रज्ञप्तम् । ४. प्रथम सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई निन्यानवे हजार योजन से कुछ अधिक ५. दूसरे सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई निन्यानवे हजार योजन से कुछ अधिक . ५. दोच्चे सरियमंडले णवणउइं द्वितीयं सूर्यमण्डलं नवनवति जोयणसहस्साई साडियाडं योजनसहस्राणि साधिकानि आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तम् । ६. तइए सरियमंडले णवणउइं तृतीयं सूर्यमण्डलं नवनवति जोयणसहस्साइं साहियाई योजनसहस्राणि साधिकानि आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते। आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तम् । ६. तीसरे सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई निन्यानवे हजार योजन से कुछ अधिक ७. इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अञ्जनस्य अंजणस्स कंडस्स हेट्रिल्लाओ काण्डस्य अधस्तनात् चरमान्तात् चरिमंताओ वाणमंतर-भोमेज्ज- वानव्यन्तर-भौमेयविहाराणां उपरितनं विहाराणं उवरिल्ले चरिमंते, एस चरमान्तं, एतत् नवनवति णं णवणउइं जोयणसयाई योजनशतानि अबाधया अन्तरं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम्। ७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अंजन कांड के नीचे के चरमान्त से वानमंतरों के भौमेय विहारों के उपरितन चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर निन्यानवे सौ योजन का है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. प्रथम सूर्य-मंडल को कुछ अधिक है (पढमे सूरियमंडले “साधिकानि ..) कुछ अधिक का अर्थ है-६४० योजन अधिक ।' २. दूसरे सूर्य-मण्डल की कुछ अधिक है (दोच्चे सूरियमंडले 'साधिकानि.) कुछ अधिक का अर्थ है-६४५.३० योजन अधिक।' ३. तीसरे सूर्यमण्डल को कुछ अधिक है (तइए सूरियमंडले “साधिकानि ) कुछ अधिक का अर्थ है---६५१ . योजन अधिक ।' जम्बूद्वीप एक लाख योजन का है। उसके चारों ओर एक सौ अस्सी योजन प्रमाण तक सूर्य का मंडल-क्षेत्र है। जम्बूदीप के आयाम-विष्कंभ से (१८०४२) ३६० योजन कम करने पर (१०००००-३६०) ६६६४० योजन का प्रथम सूर्य-मंडल होता है । मंडलों के बीच का अन्तर दो-दो योजन का है और सूर्य विमान का विष्कंभ - योजन का है। इनका दुगुना (२६४२) ३४ होता है। दूसरे सूर्य-मंडल की लम्बाई-चौड़ाइ (१९६४०+५३५)६६६४५३१ योजन की है। इसी प्रकार तीसरे सूर्य-मंडल की लम्बाई-चौड़ाई (१६६४५३५+५३५) ६९६५१ ६, योजन की है । इसी प्रकार प्रत्येक मंडल में ५३५ योजन अधिक होता जाता है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र ६३ । २. वही, पन्न ६३ ३. वही. पत्र १३॥ 1. वही, पन ६३। , Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सततमो समवाश्रो : सौवां समवाय मूल १. दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं इंदिसते अछट्ठह भिक्वास अहासुतं अहाकप्पं अहामगं अहातच्च सम्मं कारण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आणाए आराहिया यावि भवइ । २. सर्याभिसयानक्खत्ते एक्कसयतारे शतभिशग्नक्षत्रं एकशततार प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते । ३. सुविही पुप्फदंते णं अरहा एगं धणुस उड़ढं उच्चतेणं होत्था । ४. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वासस्यं सव्वायं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वडे सव्वदुक्खप्पहीने । ५. थेरे णं अज्जसुहम्मे एक्कं वासस्यं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वडे सव्वदुक्खप्पहोणे । ६. सव्वेवि णं दीहवेयड्ढपव्वया एगमेगं गाउयसयं उड्ढं उच्चतेणं पण्णत्ता । ७. सव्वेवि णं चुल्लहिमवंत सिहरी - वासहरपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, एगमेगं गाउयसयं उव्वेहेणं पण्णत्ता । संस्कृत छाया दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा एकेन रात्रिन्दिवशतेन अर्द्धषष्ठः भिक्षाशतैः यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथातथ्यं सम्यक् कायेन स्पृष्टा पालिता शोधिता तीरिता कीर्तिता आज्ञया आराधिता चापि भवति । सुविधिः पुष्पदन्तः अर्हन् एकं धनुःशत ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः एकं वर्षशतं सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः । स्थविरः आर्यसुधर्मा सर्वायुष्कं पालयित्वा मुक्तः अन्तकृतः सर्वदुःखप्रहीणः । एकं वर्षशतं सिद्धः बुद्ध: परिनिर्वृतः सर्वेऽपि दोर्घत्रेताढ्यपर्वताः एकेक गव्यूतिशतं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः । सवऽपि क्षुल्ल हिमवत्- शिखरिवर्षधरपर्वताः एकैकं योजनशतं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, एकैकं गव्यूतिशतं उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः । हिन्दी अनुवाद १. दशदशमिका भिक्षु प्रतिमा सौ दिनरात की अवधि में ५५० भिक्षा दत्तियों से सूत्र, कल्प, मार्ग और तथ्य के अनुरूप, काया से सम्यक् स्पृष्ट, पालित, शोधित, पारित, कीर्तित और आज्ञा से आराधित होती है । २. शतभिषक नक्षत्र के सौ तारे हैं । ३. अर्हत् सुविधि पुष्पदन्त सौ धनुष्य ऊंचे थे । ४. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व सौ वर्षों की पूर्ण आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ५. स्थविर आर्य सुधर्मा सौ वर्षों की पूर्ण आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए । ६. सभी दीर्घ वैताढ्य पर्वत सौ-सौ गाउ (कोस ) ऊंचे हैं । ७. सभी क्षुल्लहिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत सौ-सौ योजन ऊंचे और सौ-सौ गाउ जमीन में गहरे हैं । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री ३०३ ८. सव्वेविणं कंचणगपव्वया एगमेगं सर्वेऽपि काञ्चनकपर्वताः जोयणसयं उड्ढ उच्चतेणं, योजनशतं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, एगमेगं गाउयसयं उब्वेहेणं, गव्यूतिशतं उद्वेघेन, एकैकं योजनशतं एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खमेणं मूले विष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः । पण्णत्ता । टिप्पण १. सौ वर्षों की पूर्ण आयु का ( वासस्यं सव्वाउयं ) स्थविर आर्य सुधर्मा भगवान् महावीर के पांचवें गणधर थे । गृहस्थावस्था - ५० वर्ष छद्मस्थावस्था ४२ वर्ष केवली अवस्था - ८ वर्ष कुल योग – १०० वर्ष एकैकं एकैकं समवाय १०० : सू० ८ ८. सभी कांचनक पर्वत सौ-सौ योजन ऊंचे, सौ-सौ गाउ गहरे और सौ-सौ योजन मूल में चोड़े हैं । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. चंदप्प मे णं अरहा दिवढं ari उड्ढं उच्चतेणं होत्था । २. आरणे क विवढं विमाणावासस्यं पण्णत्तं । ३. एवं अचुवि । पण समवाप्रो : प्रकीर्णक समवाय ४. सुपासे णं अरहा दो धणुसयाई उड़ढं उच्चत्तेणं होत्था । ५. सव्वेवि णं महाहिमवंतरुप्पी - वासहरपव्वया दो दो जोयणसयाई उड़ उच्चत्तेणं, दो दो गाउयसयाइं उब्वेहेणं पण्णत्ता । ६. जंबुद्दी ன் दीवे दो कचणपव्वयसया पण्णत्ता । ७. पउमप्पमे णं अरहा अड्ढाइज्जाई धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या । ८. असुरकुमाराणं देवाणं पासायवडेंसगा अढाइज्जाई जोयणसमाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । 8. सुमई णं अरहा तिष्णि घणुसयाई उड्ढं उच्चतेणं होत्या । संस्कृत छाया चन्द्रप्रभः अर्हन् छ्यर्द्धं धनुः शतं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । आरणे कल्पे यर्द्ध विमानावासशतं प्रज्ञप्तम् । एवं अच्युतेऽपि । सुपार्श्व: अर्हन् द्वे धनुः शते ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । सर्वेऽपि महाहिमवद् रुक्मिवर्षधरपर्वताः द्वे द्वे योजनशते ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, द्वे द्वे गव्यूतिशते उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः । जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वे काञ्चनपर्वतशते प्रज्ञप्ते | पद्मप्रभः अर्हन् अर्द्ध तृतीयानि धनुःशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । असुरकुमाराणां देवानां प्रासादावतंसका अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः । सुमति: अर्हन् त्रीणि धनुःशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् चन्द्रप्रभ डेढ़ सौ धनुष्य ऊंचे थे । २. आरण कल्प में डेढ़ सौ विमानावास हैं । ३. अच्युत कल्प में डेढ़ सौ विमानावास हैं । ४. अर्हत् सुपार्श्व दो सौ धनुष्य ऊंचे थे । ५. सभी महाहिमवंत और रुक्मी वर्षधर पर्वत दो सौ दो सौ योजन ऊंचे और दो सौ-दो सौ गाउ गहरे हैं । ६ जम्बुद्वीप द्वीप में दो सौ कंचन पर्वत 1 ७. अर्हत् पद्मप्रभ ढाई सौ धनुष्य ऊंचे थे । ८. असुरकुमार देवों के प्रासादावतंसक ढाई सौ योजन ऊंचे हैं । ६. अर्हत् सुमति तीन सौ धनुष्य ऊंचे थे । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो ३०५ प्रकीर्णक समवाय : सू० १०-१५ १०. अरिटुनेमी गं अरहा तिण्णि अरिष्टनेमिः अर्हन् त्रीणि वर्षशतानि १०. अर्हत् अरिष्टनेमि तीन सौ वर्षों तक वाससयाई कुमार (वास ?) कुमार (वास ? ) मध्युष्य मुण्डो भूत्वा कुमार अवस्था में रह कर, मुंड होकर मज्भावसित्ता मुंडे भवित्ता (अगारात् अनगारितां ?) प्रवजितः। (अगार अवस्था से अनगार अवस्था (अगाराओ अणगारिअं ?) में ?) प्रवजित हुए। पव्वइए। ११.वेमाणियाणं देवाणं विमाणपागारा वैमानिकानां देवानां विमानप्राकाराः ११. वैमानिक देवों के विमानों के प्राकार तिण्णि तिणि जोयणसयाई त्रीणि त्रीणि योजनशतानि तीन सौ-तीन सौ योजन ऊंचे हैं । उडढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ताः। १२. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य त्रीणि १२. श्रमण भगवान् महावीर के तीन सौ तिण्णि सयाणि चोद्दसपुव्वीणं शतानि चतुर्दशपूर्विणां आसन् । मुनि चौदहपूर्वी थे। होत्था। १३. पंचधणुसइयस्स णं अंतिम- पञ्चधनु:शतिकस्य अन्तिमशारीरिकस्य १३. पांच सौ धनुष्य की अवगाहना वाले मारीरियस सिद्धिगयस्स सिद्धिगतस्य सातिरेकाणि त्रीणि चरमशरीरी जीवों के सिद्ध होने पर सातिरेगाणि तिणि धणुसयाणि धनु:शतानि जीवप्रदेशावगाहना उनके जीव प्रदेशों की अवगाहना तीन जीवप्पदेसोगाहणा पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। सौ धनुष्य से कुछ अधिक होती है। १४. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणी- पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य १४. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के साढे यस्स अद्भुट्ठसयाई चोद्दसपुव्वीणं अर्द्धचतुर्थशतानि चतुर्दशपूर्विणां सम्पद् तीन सौ चौदहपूर्वी मुनियों की सम्पदा संपया होत्या। आसीत् । थी। १५. अभिनंदणे णं अरहा अट्ठाई अभिनन्दनः अर्हन् अर्द्धचतुर्थानि १५. अर्हत् अभिनन्दन साढ़े तीन सौ धनुष्य धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्या। धनुःशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ऊंचे थे। १६. संभवे णं अरहा चत्तारि सम्भवः अर्हन् चत्वारि धनुःशतानि १६. अर्हत् संभव चार सौ धनुष्य ऊंचे थे। धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । होत्था। १७. सव्वेवि णं णिसढ-नीलवंता सर्वेऽपि निषध-नीलवन्त: वर्षधरपर्वताः १७. सभी निषध और नीलवान् वर्षधर वासहरपध्वया चत्तारि-चत्तारि चत्वारि-चत्वारि योजनशतानि पर्वत चार सौ चार सौ योजन ऊंचे उड्ढे उच्चत्तणं, ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, चत्वारि-चत्वारि तथा चार सौ चार सौ गाउ गहरे हैं। चत्तारि-चत्तारि गाउयसयाइं गव्यूतिशतानि उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः । उम्वेहेणं पण्णता। १८. सव्वेवि णं वक्खारपत्वया णिसढ- सर्वेऽपि वक्षस्कारपर्वताः निषध- १८. सभी वक्षस्कार पर्वत निषध और नीलवंतवासहरपब्वयंतेणं चत्तारि- नीलवद्वर्षधरपर्वतान्तेन चत्वारि- नीलवान् वर्षधर पर्वतों के पास चार चत्तारि जोयणसयाई उड्ढं चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, सौ चार सौ योजन ऊंचे तथा चार सौ उच्चत्तेणं, चत्तारि-चत्तारि चत्वारि-चत्वारि गव्यूतिशतानि चार सौ गाउ गहरे हैं । गाउयसयाई उन्वेहेणं पण्णत्ता। उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १६. आणय- पाणएसु- दोसु चत्तारि विमाणसया पण्णत्ता । कप्पेसु २०. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेवमणयासुरम्मि लोगम्मि वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाइया होत्या । २१. अजिते णं अरहा अद्धपंचमाई धणुसयाई उड़दं उच्चतेणं होत्या । २२. सगरे णं राया चाउरंतचक्कबट्टी अद्धपंचमाई धणुसयाई उड् उच्चत्तेणं होत्था । २३. सव्वेवि णं वक्खारपव्वया सीयासीतोयाओ महानईओ मंदरं वा पव्वयं पंच-पंच जोयणसघाई उड़ढं उच्चत्तेणं, पंच-पंच गाउयसयाई उब्वेहेणं पण्णत्ता । २४. सब्वेविणं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसयाई उड्ढं उज्चत्तेणं, मूले पंच-पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता | २५. उसमे णं अरहा कोसलिए पंच घाई उड्ढ उच्चत्तेनं होत्था । २६. भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी पंच धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होया । ३०६ आनत - प्राणतयोः - द्वयोः कल्पयोः चत्वारि विमानशतानि प्रज्ञप्तानि । श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य चत्वारि शतानि वादिनां सदेवमनुजासुरे लोके वादे अपराजितानां उत्कृष्टा वादिसम्पद् आसीत् । सगरः राजा चातुरन्तचक्रवर्ती अर्द्ध पञ्चमानि धनुः शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । अजितः अर्हन् अर्द्धपञ्चमानि २१ अर्हत् अजित साढ़े चार सौ धनुष्य धनुःशतानि उर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ऊंचे थे । सर्वेऽपि वक्षस्कारपर्वताः शीता - शीतोदे महानद्यौ मन्दरं वा पर्वतं पञ्च पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, पञ्चपञ्च गव्यूतिशतानि उद्वेधेन प्रज्ञप्ताः । सर्वाण्यपि वर्षधरकूटानि पञ्च पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, मूले पञ्च पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण प्रज्ञप्तानि । ऋषभः अर्हन् कौशलिकः पञ्च धनुः शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । भरतः राजा चातुरन्तचक्रवर्ती पञ्च धनुः शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत । २७. सोमणस - गंधमादण - विज्जुप्पम - सौमनस-गन्धमादन- विद्युत्प्रभमाल्यवतां मालवंता णं वक्खारपव्वया णं वक्षस्कारपर्वतानां मन्दरपर्वतान्तेन मंदरपव्वयं तेणं पंच-पंच पञ्च पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चजोयणसयाइं उड़ढं उच्चतेणं, पंच त्वेन, पञ्च पञ्च गव्यूतिशतानि पंच गाउयसयाई उब्वेहेणं पण्णत्ता । ऊद्वेधेन प्रज्ञप्ताः । प्रकीर्णक समवाय: सू० १६-२७ १६. आनत और प्राणत- इन दो कल्पों में चार सौ विमान हैं। २० श्रवण भगवान् महावीर के उत्कृष्ट वादी-सम्पदा चार सौ मुनियों की थी। वे देव, मनुष्य और असुरलोक में होने वाले किसी भी वाद में अपराजित थे । २२. चातुरंत चक्रवर्ती राजा सगर साढ़ चार सौ धनुष्य ऊंचे थे । २३. सभी वक्षस्कार पर्लत शीता और शीतोदा महानदियों और मंदर पर्वत के समीप पांच सौ पांच सौ योजन ऊंचे तथा पांच सौ पांच सौ गाउ गहरे हैं। २४. सभी वर्षधर पर्वतों के कूट पांच सौ पांच सौ योजन ऊंचे तथा मूल में पांच सौ पांच सौ योजन चौड़े हैं । २५. कौशलिक अर्हत् ऋषभ पांच सौ धनुष्य ऊंचे थे । २६. चातुरंत चक्रवर्ती राजा भरत पांच सौ धनुष्य ऊंचे थे । २७. सौमनस, गंधमादन, विद्युयुत्प्रभ और माल्यवत् वक्षस्कार पर्वत मंदर पर्वत के पास पांच सौ पांच सौ योजन ऊंचे तथा पांच सौ पांच सौ गाउ गहरे हैं। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री २८. सव्वेवि णं वक्खारवव्वयकूडा सर्वाण्यपि वक्षस्कारपर्वतकुटानि हरिहरिस्सहकुटवर्जीनि पञ्च पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, मूले पञ्च पञ्च योजनशतानि आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तानि । हरि-हरि सहकूडवज्जा पंच-पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चतेणं, मूले पंच-पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता । २९. सव्वेवि णं नंदणकूडा बलकूडवज्जा पंच-पंच जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले पंच-पंच जोयणसा आयाम विक्खंभेणं पण्णत्ता । ३०. सोहम्मी सासु कप्पेसु बिमाणा पंच-पंच जोयणसयाई उड्ढ उच्चत्तेणं पण्णत्ता । कप्पे विमाणा छ-छ जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । ३१. सणकुमार- माहिंदेसु ३२. चुल्ल हिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरिमंताओ चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स समे धरणितले, एस णं छ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पणते । ३३. एवं सिहरीकूडस्सवि । ३४. पारस णं अरहओ छ सया वाणं सदेवासुरे लोए बाए अपराजिआणं उक्कोसिया वाइपया होत्या । ३५. अभिचंदे णं कुलगरे छ धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था । ३६. वासुपुज्जेणं अरहा छहि पुरिससहि सद्धि मुंडे भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । ३०७ सर्वाण्यपि नन्दनकूटानि बलकूटवर्जानि पञ्च पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, योजनशतानि प्रज्ञप्तानि । मूले पञ्च पञ्च आयाम विष्कम्भेण सौधर्मेशानयोः कल्पयोः विमानानि पञ्च पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि । सनत्कुमार- माहेन्द्रयोः कल्पयोः विमानानि षट् षट् योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि । क्षुल्ल हिमवत्कूटस्य उपरितनात् चरमान्तात् क्षुल्ल हिमवतः वर्षधर - पर्वतस्य समं धरणीतलं एतत् षट् योजनशतानि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् एवं शिखरिकूटस्यापि । पार्श्वस्य अर्हतः षट्शतानि वादिनां सदेवमनुजासुरे लोके वादे अपराजितानां उत्कृष्टा वादिसम्पद् आसीत् । वासुपूज्य : अर्हन् षड्भिः पुरुषशतैः सार्द्धं मुण्डो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः । प्रकीर्णक समवाय: सू० २८-३६ २८. हरि और हरिस्सह कूटों के अतिरिक्त वक्षस्कार पर्वतों के सभी कूट पांच सौ पांच सौ योजन ऊंचे तथा मूल में पांच सौ पांच सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं । २६. बलकूट के अतिरिक्त नन्दनवन के सभी कूट पांच सौ पांच सौ योजन ऊंचे तथा मूल में पांच सौ पांच सौ योजन लम्बेचोड़ हैं। ३०. सौधर्म और ईशान कल्पों में विमान पांच सौ पांच सौ योजन ऊंचे हैं। ३१. सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में विमान छह सौ छह सौ योजन ऊंचे हैं । ३२. क्षुल्ल हिमवत्कूट के उपरितन चरमान्त से क्षुल्लहिमवत् वर्षधर पर्वत के समभूतल का व्यवधानात्मक अन्तर छह सौ योजन का है । ३३. शिखरीकूट के उपरितन चरमान्त से शिखरी वर्षधर पर्वत के समभूतल का व्यवधानात्मक अन्तर छह सौ योजन का है। अभिचन्द्रः कुलकरः षट् धनुःशतानि ३५. कुलकर अभिचन्द्र छह सौ धनुष्य ऊंचे ' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । थे । ३४. अहं पार्श्व के उत्कृष्ट वादीसम्पदा छह सौ मुनियों की थी । वे देव, मनुष्य और असुरलोक में होने वाले किसी भी वाद में अपराजित थे । ३६ अर्हत् वासुपूज्य छह सौ पुरुषों के साथ मुंड होकर अगारवास से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए थे । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३०८ प्रकीर्णक समवाय : सू० ३७-४५ ३७. बंभ-लंतएसु कप्पेसु विमाणा ब्रह्म-लान्तकयोः कल्पयोः विमानानि ३७. ब्रह्म और लान्तक कल्पों में विमान सत्त-सत जोयगसयाई उड्ढे सप्त-सप्त योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्च- सात सौ सात सौ योजन ऊंचे हैं । उच्चत्तेणं पण्णत्ता। त्वेन प्रज्ञप्तानि। ३८. समस्त णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त ३८. श्रमण भगवान् महावीर के सात सौ सत्त जिणसया होत्था । जिनशतानि आसन् । केवली थे। ३६. समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त ३६. श्रमण भगवान् महावीर के सात सौ वेउव्वियसया होत्था। वैक्रियशतानि आसन् । मुनि वैक्रियलब्धिसंपन्न थे। ४०. अरिट्रनेमी णं अरहा सत्त अरिष्टनेमिः अर्हन् सप्त वर्षशतानि ४०. अर्हत् अरिष्टनेमि कुछ न्यून' सात सौ वाससयाई देसूणाई केवलपरियागं देशोनानि केवलपर्यायं प्राप्य सिद्धः वर्षों तक केवल-पर्याय का पालन कर पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिपरिणिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहोणे। सर्वदुःखप्रहीणः । निर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित ४१. महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ महाहिमवत्कूटस्य उपरितनात् ४१. महाहिमवत् कूट के उपरितन चरमान्त चरिमंताओ महाहिमवंतस्स चरमान्तात् महाहिमवतः वर्षधरपर्वतस्य से महाहिमवत् वर्षधर पर्वत के समवासहरपव्वयस्स समे धरणतले, समं धरणोतल, एतत् सप्तयोजनशतानि भूतल का व्यवधानात्मक अन्तर सात एस णं सत्त जोयणसयाई अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । सो योजन का है। अबाहाए अंतरे पण्णते। ४२. एवं रुप्पिकूडस्सवि। एवं रुक्मिकूटस्यापि । ४२. रुक्मीकूट के उपरितन चरमान्त से रुक्मी वर्षधर पर्वत के सम-भूतल का व्यवधानात्मक अन्तर सात सौ योजन का है। ४३. महालक्क - सहस्सारेसु – दोसु महाशुक्र-सहस्रारयोः-द्वयोः कल्पयोः ४३. महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में विमान कप्पेस विमाणा अट्र-(अट्र ?) विमानानि अष्ट- (अष्ट ?) जोयणसयाइ उड्ढं उच्चत्तेणं योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। ४४. इसीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे ४४. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम कांड में पढमे कंडे अट्रसु जोयणसएस काण्डे अष्टसु योजनशतेषु आठ सौ योजन तक वानमंतर देवों के वाणमंतर . भोमेज्जविहारा वानमन्तरभौमेयविहाराः प्रज्ञप्ताः । भौमेय विहार हैं। पण्णत्ता। ४५. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ४५. श्रमण भगवान् महावीर के अनुत्तरोप अट्रसया अणुत्तरोववाइयाणं अष्टशतानि अनुत्तरोपपातिकानां पातिक देवों में उत्पन्न होने वाले, देवाणं गहकल्लाणाणं ठिइकल्ला- देवानां गतिकल्याणानां स्थिति- कल्याणकारी गति वाले, कल्याणकारी णाणंआ गमेसिभहाणं उक्कोसिआ कल्याणानां आगमिष्यदभद्राणां उत्कृष्टा स्थिति वाले, आगामी जन्म में मोक्ष अणुत्तरोववाइयसंपया होत्या। अनुत्तरोपपातिकसम्पद् आसीत् । प्राप्त करने वाले (आगमिष्यद् भद्र) आठ सौ मुनियों की उत्कृष्ट अनुत्तरोप For Private & Personal use only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३०९ प्रकीर्णक समवाय : सू० ४६-५३ ४६. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसमरणिज्जाओ भूमिभागाओ बहुसमरणीयात् भूमिभागात् अष्टभिः अहि जोयणसहि सूरिए चारं योजनशतैः सूर्यः चारं चरति । चरति । ४६. इस रलप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमिभाग से आठ सौ योजन पर सूर्य गति करता है। ४७. अरहओ णं अरिट्रनेमिस्स अटू अर्हतः अरिष्टनेमेः अष्टशतानि वादिनां ४७. अर्हत् अरिष्टनेमि के उत्कृष्ट वादी सयाई वार्डणं सदेवमणयासरम्मि सदेवमनुजासुरे लोके वादे संपदा आठ सौ मुनियों की थी। लोगम्मि वाए अपराजियाणं अपराजिताना उत्कृष्टा वादिसम्पद मनुष्य और असुरलोक में होने वाले उक्कोसिया वाइसंपया होत्था। आसीत् । किसी भी वाद में अपराजित थे। ४८ आणय - पाणय - आरणच्चएस आनत-प्राणत-आरणाच्युतेष कल्पेषु कप्पेस विमाणा नव-नव विमानानि नव-नव योजनशतानि जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्तानि । पण्णत्ता। ४८. आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों में विमान नौ सौ नौ सौ योजन ऊंचे हैं। ४६. निसहकूडस्स णं उवरिल्लाओ निषधकूटस्य उपरितनात् शिखरतलात् ४६. निषधकूट के उपरितन चरमान्त से सिहरतलाओ णिसढस्स निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य समं धरणीतलं, निषध वर्षधर पर्वत के सम-भूतल का वासहरपव्वयस्स समे धरणितले, एतत् नव योजनशतानि अबाधया व्यवधानात्मक अन्तर नौ सौ योजन एस णं नव जोयणसयाई अन्तरं प्रज्ञप्तम् । का है। अबाहाए अंतरे पण्णते। ५०. एवं नोलवंतकूडस्सवि। एवं नीलवत्कूटस्यापि । ५०. नीलवत्कूट के उपरितन चरमान्त से नीलवत् वर्षधर पर्वत के सम-भूतल का व्यवधानात्मक अन्तर नौ सौ योजन का है। ५१. विमलवाहणे णं कुलगरे णं नव विमलवाहनः कुलकरः नव धनुःशतानि ५१. कुलकर विमलवाहन नो सौ धनुष्य धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं ऊर्ध्वमुच्चत्वेन आसीत् । ऊंचे थे। होत्था। ५२. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ५२ इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् नवसु भूमिभाग से नौ सौ योजन पर सबसे नहिं जोयणसहि सव्वुपरिमे योजनशतेषु सर्वोपरितनं तारारूपं चारं ऊपर के तारागण गति करते हैं। तारारूवे चारं चरइ। चरति । ५३. निसढस्स णं वासधरपव्वयस्स निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उपरितनात् ५३. निषध वर्षधर पर्वत के उपरितन उवरिल्लाओ सिहरतलाओ शिखरतलात अस्याः रत्नप्रभायाः शिखरतल से इस रत्नप्रभा पृथ्वी के इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवाए पृथिव्याः प्रथमस्य काण्डस्य बहुमध्य- प्रथम काण्ड के बहुमध्यदेशभाग का पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभाए, देशभागः, एतत् नवयोजनशतानि व्यवधानात्मक अन्तर नौ सौ योजन का एस णं नव जोयणसयाई अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो प्रकीर्णक समवाय : सू० ५४-६२ ५४. एवं नीलवंतस्सवि। एवं नीलवतोऽपि। ५४. नीलवान् वर्षधर पर्वत के उपरितन शिखरतल से इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम काण्ड के बहुमध्यदेशभाग का व्यवधानात्मक अन्तर नौ सौ योजन का है। ५५. सम्वेविणं गेवेज्जविमाणा दस- सर्वाण्यपि ग्रैवेयविमानानि दश-दश ५५. सभी ग्रैबेयक विमान हजार-हजार दस जोयणसयाई उड्ढं योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन योजन ऊंचे हैं । उच्चत्तेणं पण्णता। प्रज्ञप्तानि । ५६. सम्वेविणं जमगपव्वया दस-दस सवंऽपि यमकपर्वताः दश-दश जोयणसयाई उडढं उच्चत्तेणं, योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, दश-दश दस-दस गाउयसयाई उम्वेहेणं, गव्यूतिशतानि उद्बधन, मूले दश-दश मुले दस-दस जोयणसयाई योजनशतानि आयामविष्कम्भेण आयामविक्खंभेणं पण्णता। प्रज्ञप्ताः । ५६. सभी यमक पर्वत हजार-हजार योजन ऊंचे, हजार-हजार गाउ गहरे और मूल में हजार-हजार योजन लम्बे-चौड़े ५७. एवं चित्त-विचित्तकला वि एवं चित्रविचित्रकूटान्यपि ५७. चित्रकूट और विचित्रकूट पर्वत' भाणियब्वा। भणितव्यानि । हजार-हजार योजन ऊंचे, हजार-हजार गाउ गहरे और मूल में हजार-हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। ५८. सव्वेवि णं वट्टवेयपव्वया दस- सर्वेऽपि वृत्तवैताढ्यपर्वताः दश-दश ५८. सभी वृत्तवैताठ्यपर्वत हजार-हजार दस जोयणसयाई उडढं उच्चतेणं, योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, दश-दश योजन ऊंचे, हजार-हजार गाउ गहरे, दस-दस गाउयसयाइं उब्वेहेणं, गव्यूतिशतानि उद्वेधेन, सर्वत्र समाः सर्वत्र सम तथा पल्य-संस्थान से सम्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया, पल्यकसंस्थानसंस्थिताः, मूले दश-दश संस्थित और मूल में हजार-हजार मूले दस-दस जोयणसयाई योजनशतानि आयामविष्कम्भेण योजन लम्बे-चौड़े हैं। विक्खं मेणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । ५६. सव्वेवि णं हरिहरिस्सहकूडा सर्वाण्यपि हरि-हरिस्सहकूटानि ५६. वक्षस्कारकूट के अतिरिक्त सभी हरिकूट वक्खारकडवज्जा दस-दस वक्षस्कारकूटवर्जानि दश-दश और हरिस्सहकूट हजार-हजार योजन जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, मूले ऊंचे और मूल में हजार-हजार योजन मुले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं दशयोजनशतानि विष्कम्भेण चौड़े हैं। पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ६०. एवं बलकूडावि नंदणकूडवज्जा। एवं बलकूटान्यपि नन्दनकूटवर्जानि। ६०. नन्दनकूट के अतिरिक्त सभी बलकूट हजार-हजार योजन ऊंचे और मूल में हजार-हजार योजन चौड़े हैं। ६१. अरहा वि अरिटुनेमो दस अर्हन् अपि अरिष्टनेमिः दशवर्षशतानि ६१. अर्हत् अरिष्टनेमि हजार वर्षों की पूर्ण वाससयाइं सव्वाउयं पालइत्ता सर्वायुष्कं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः मुक्तः आयु' का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे अन्तकृतः परिनिर्वृतः सर्वदुःखप्रहीणः। अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व परिणिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे। दुःखों से रहित हुए। ६२. पासस्स णं अरहओ दस सयाई पार्श्वस्य अर्हतः दशशतानि जिनानां ६२. अर्हत् पार्श्व के हजार जिन (केवली) जिणाणं होत्था। आसन् । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३११ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६३-७१ ६३. पासस्स णं अरहो दस पार्श्वस्य अर्हतः दश अन्तेवासिशतानि ६३. अर्हत् पार्श्व के हजार अन्तेवासी अंतेवासिसयाई कालगयाइं कालगतानि व्यतिक्रान्तानि समुद्यातानि कालगत हुए, संसार का पार पा गए, वोडक्कता समज्जायाई छिन्नजातिजरामरणबंधनानि सिद्धानि ऊर्ध्वगामी हुए, जन्म, जरा और मरण छिष्णजाइजरामरणबंधणाई बुद्धानि मुक्तानि अन्तकृतानि के बंधन को छिन्न कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सिद्धाइं बुद्धाई मुत्ताई अंतगडाई परिनिर्वृतानि सर्वदुःखप्रहीणानि। अन्तकृत और परिनिर्वत हुए तथा सर्व परिणिन्वुयाई सन्वदुक्खप्पहीणाई। दुःखों से रहित हुए। ६४. पउमद्दह-पुंडरीयद्दहा य दस-दस पद्मद्रह-पुण्डरीकद्रहौ च दश-दश ६४. पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह हजार-हजार जोयणसयाई आयामेणं पण्णत्ता। योजनशतानि आयामेन प्रज्ञप्तौ । योजन लम्बे हैं। ६५. अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं अनुत्तरोपपातिकानां देवानां विमानानि ६५. अनुत्तरोपपातिक देवों के विमान ग्यारह विमाणा एक्कारस जोयणसयाइं एकादश योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सौ योजन ऊंचे हैं। उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ६६. पासस्स णं अरहओ इक्कारससयाई पार्श्वस्य अर्हतः एकादश शतानि ६६. अर्हत् पार्श्व के वैक्रियलब्धिसम्पन्न वेउन्वियाणं होत्था। वैक्रियकाणां आसन् । ___ मुनि ग्यारह सौ थे। ६७. महापउम-महापुंडरीयदहाणं दो- महापद्म-महापुण्डरीकद्रही द्वे-ढे ६७. महापद्मद्रह और महापुण्डरीकद्रह दो-दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं योजनसहस्राणि आयामेन प्रज्ञप्तौ । हजार योजन लम्बे हैं। पण्णत्ता। ६८. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ६८. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के वज्रकांड के वडरकंडस्स उवरिल्लाओ वज्रकाण्डस्य उपरितनात् चरमान्तात् उपरितन चरमान्त से लोहिताक्षकांड चरिमंताओ लोहियक्खस्स कंडस्स लोहिताक्षस्य काण्डस्य अधस्तन के नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक हेट्ठिल्ले चरिमंते, एस णं तिण्णि चरमान्तं, एतत् त्रीणि योजनसहस्राणि । अन्तर तीन हजार योजन का है। जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम । पण्णत्ते। ६६. तिगिच्छ-केसरिदहा णं चत्तारि- तिगिच्छ-केसरिद्रही चत्वारि-चत्वारि चत्तारि जोयणसहस्साइं आयामेणं योजनसहस्राणि आयामेन प्रज्ञप्तौ । पण्णत्ता। तिगिच्छद्रह और केसरीद्रह चार-चार हजार योजन लम्बे हैं। ७०. धरणितले मंदरस्स णं पव्वयस्स धरणीतले मन्दरस्य पर्वतस्य बहुमध्य- ७०. धरणीतल (सम-भूतल) में मन्दर पर्वत बहुमज्झदेसभाए रुयगनाभीओ देशभागे रुचकनाभितः चतुर्दिक्षु के वहुमध्यदेशभाग में नाभिरूप रुचक चउदिसि पंच-पंच जोयणसहस्साई पञ्च-पञ्च योजनसहस्राणि अबाधया प्रदेशों से चारों दिशाओं में मन्दर पर्वत अबाहाए मंदरपब्वए पण्णते।। मन्दरपर्वतः प्रज्ञप्तः । का व्यवधानात्मक अन्तर पांच-पांच हजार योजन' का है। ७१. सहस्सारे णं कप्पे विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता। छ सहस्रारे कल्पे पट विमानावाससहस्राणि ७१. सहस्रार कल्प में छह हजार विमान हैं। प्रज्ञप्तानि । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३१२ प्रकीर्णक समवाय : सू० ७२-८० ७२. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नस्य ७२. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नकांड के रयणस्स कंडस्स उरिल्लाओ काण्डस्य उपरितनात चरमान्तात् उपरितन चरमान्त से पुलककांड के चरिमंताओ लगस्स कंडस्स पूलकस्य काण्डस्य अधस्तनं चरमान्तं, नीचे के चरमान्त का व्यवधानात्मक हेट्रिल्ले चरिमंते, एस णं सत्त एतत सप्तयोजनसहस्राणि अबाधया अन्तर सात हजार योजन का है। जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे अन्तरं प्रज्ञप्तम् । पण्णत्ते। ७३. हरिवास-रम्मया णं वासा हरिवर्ष-रम्यकौ वर्षे अष्ट (अष्ट ?) ७३. हरिवर्ष और रम्यकवर्ष का विस्तार अट्ठ-(अट्ठ ?) जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि सातिरेकाणि विस्तरेण साधिक आठ-आठ हजार योजन का साइरेगाइं वित्थरेणं पण्णत्ता। प्रज्ञप्ती। है। ७४. दाहिणड्ढभरहस्स णं जीवा दक्षिणार्द्धभरतस्य जीवा प्राचीन- ७४. दक्षिणार्ध भरत की जीवा पूर्व-पश्चिम णायया दहओ समूह प्रतीचीनायता द्विधातः समुद्रं स्पृष्टा नव दिशा की ओर लम्बी और दोनों ओर पुट्ठा नव जोयणसहस्साई योजनसहस्राणि आयामेन प्रज्ञप्ता। से समुद्र का स्पर्श करती हुई नौ हजार आयामेणं पण्णत्ता। योजन लम्बी" है। ७५. मंदरे णं पव्वए धरणितले दस मन्दरः पर्वतः धरणीतले दश जोयणसहस्साई विक्खंभेणं योजनसहस्राणि विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः। पण्णते। ७५. मन्दर पर्वत धरणीतल पर दस हजार योजन चौड़ा है। ७६. जंबदीवेणं दीवे एग जम्बद्रीपः द्वीपः एक योजनशतसहस्राणि ७६. जम्बूद्वीप द्वीप एक लाख योजन लम्बाजोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः। चौड़ा है। पण्णत्ते। ७७. लवणे णं जोयणसयसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते। चक्कवाल लवणः समुद्रः द्वे योजनशतसहस्राणि ७७. लवण समुद्र का चक्रवाल-विष्कभ चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । (गोलाई) दो लाख योजन का है। ७८. पासस्स णं अरहओं तिणि पार्श्वस्य अर्हतः तिस्रः शतसाहस्रयः ७८. अर्हत् पार्श्व के उत्कृष्ट श्राविका सयसाहस्सोओ सत्तावास च सप्तविंशतिश्च सहस्राणि उत्कृष्टा सम्पदा तीन लाख सत्ताईस हजार सहस्साई उक्कोसिया साविया- श्राविका-सम्पद् आसीत् । श्राविकाओं की थी। संपया होत्था। ७६.घायसंडे णं दीवे चत्तारि धातकीषण्डः द्वीपः चत्वारि ७६. धातकीषंड द्वीप का चक्रवालविष्कभ जोयणसयसहस्साइं चक्कवाल- योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण चार लाख योजन का है। विक्खंभेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः । ८०. लवणस्स णं समुदस्स लवणस्य समुद्रस्य पौरस्त्यात् पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ चरमान्तात् पाश्चात्यं चरमान्तं, एतत् पच्चथिमिल्ले चरिमंते, एस णं पञ्च योजनशतसहस्राणि अबाधया पंच जोयणसयसहस्साई अबाहाए अन्तरं प्रज्ञप्तम् । अंतरे पण्णते। ८०. लवण समुद्र के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर पांच लाख योजन का है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ८१. भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छपुवस सहस्सा रायमज्झा - सत्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । णं दीवस पुरथिमिल्लाओ asयंताओ धायsisचक्कवालस्स पच्चत्थि - मिल्ले चरिमंते, ( एस णं ? ) सत्त जोयणसयसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । ८२. जंबूदीवस्स ८४. अजियस णं अरहओ साइरेगाई नव ओहिनाणिसहस्साइं होत्था । ८३. माहिदे णं कप्पे अट्ट विमाणा - माहेन्द्रे कल्पे अष्ट विमानावासशतवाससय सहस्साइं पण्णत्ताई । सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । ८५. पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वासय सहस्सा इं सव्वाउयं पालइत्ता पंचमाए पुढवीए नरएसु नेता उववण्णे । ८६. समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवरगहणाओ छट्ठे पोट्टिलभवगहणे एवं वासकोड सामण्णपरियागं पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे सम्वट्ठे विमा देवत्ता उववण्णे । ८७. उस सिरिस्स भगवओ चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोवमको डाकोडी अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । दुवालसंग - पर्द ३१३ भरतः राजा चातुरन्तचक्रवर्ती षट् पूर्वंशतसहस्राणि राज्यम भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितः । जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य पौरस्त्यात् वेदिकान्तात् धातकीषण्डचक्रवालस्य पाश्चात्यं चरमान्तं ( एतत् ? ) सप्त योजनशतसहस्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । अजितस्य अर्हतः सातिरेकाणि नव अवधिज्ञानिसहस्राणि आसन् । पुरुषसिंहः वासुदेव: दश वर्षशतसहस्राणि सर्वायुष्कं पालयिष्वा . पञ्चम्यां पृथिव्यां नरकेषु नैरयिकत्वेन उपपन्नः । श्रमणः भगवान् महावीर : तीर्थंकरभवग्रहणात् षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे एकां वर्षकोटि श्रामण्यपर्यायं प्राप्य सहस्रारे कल्पे सर्वार्थ विमाने देवत्वेन उपपन्नः । ऋषभश्रियः भगवतः चरमस्य च महावीरवर्द्धमानस्य एकां सागरोपमकोटिकोटिं अबाघया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । द्वादशाङ्गपदम् ८८. दुवाल संगे गणिपिडगे पण्णत्ते, द्वादशाङ्गगणिपिटकं प्रज्ञप्तम्, तद्यथातं जहा - आयारे सूयगडे ठाणे आचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायः समवाए विआहपण्णत्ती णाया - व्याख्याप्रज्ञप्ति: ज्ञात-धर्मकथा: धम्मकाओ उवासगदसाओ उपासकदशाः अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइय- अनुत्तरोपपातिकदशाः प्रश्नव्याकरणानि अन्तकृत दशाः ओ पहावगरणाई विवागसुए विपाकश्रुतं दृष्टिवादः । दिट्टिवाए । प्रकीर्णक समवाय: सू० ८१-८८ ८१. चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत छह लाख पूर्वी तक राज्य कर, मुंड होकर, अगार अवस्था से अनगार अवस्था में प्रव्रजित हुए थे । ८२. जम्बूद्वीप द्वीप की पूर्वी वेदिका के चरमान्त से धातकीपंड के चक्रवाल के पश्चिमी चरमान्त का व्यवधानात्मक अन्तर सात लाख योजन का है । ८३. माहेन्द्र कल्प में आठ लाख विमान हैं । ८४. अर्हत् अजित के कुछ अधिक नौ हजार " अवधिज्ञानी थे । ८५. वासुदेव पुरुषसिंह" ( पांचवें वासुदेव) दस लाख वर्ष के पूर्ण आयु का पालन कर, पांचवीं पृथ्वी के नरकों में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए । ८६. श्रमण भगवान् महावीर तीर्थंकर भवग्रहण (जन्म) से पूर्व छठे पोट्टिल भवग्रहण" में एक करोड़ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन कर सहस्रार देवलोक में सर्वार्थं विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए । ८७. भगवान् श्री ऋषभ से चरम तीर्थंङ्कर महावीर वर्द्धमान का व्यवधानात्मक अन्तर एक कोडाकोड सागरोपम का है । द्वादशांग-पद ८८. गणिपिटक के बारह अंग हैं, " जैसे १. आचार ८. अन्तकृतदशा २. सूत्रकृत ६. अनुत्तरोपपातिकदशा ३. स्थान ४. समवाय १०. प्रश्नव्याकरण ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ११. विपाकश्रुत ६. ज्ञात-धर्मकथा १२० दृष्टिवाद । ७. उपासकदशा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३१४ प्रकीर्णक समवाय : सू०८६ २६. आचार क्या है ? ५९. से कि तं आयारे? अथ कोऽयमाचारः? आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आचारे श्रमणानां निर्ग्रन्थानां आचारभाग -टाण- गोचर -विनय -वैनयिक -स्थान -गमन गमण-चंकमण-पमाण-जोगजंजण- चंक्रमण -प्रमाण - योगयोजन - भाषाभासा-समिति- गुत्ती - सेज्जोवहि- समिति - गुप्ति - शय्योपधि -भक्तपानभत्तपाण · उग्गमउप्पायणएसणा- उद्गमोत्पादनेषणाविशोधि - शुद्धाशुद्धविसोहि • सुद्धासुद्धग्गहण - वय- ग्रह्ण-व्रत - नियम - तप - उपधानणियमतवोवहाण - सुप्पसत्थ- सूप्रशस्तमाख्यायते। माहिज्जइ। आचार में श्रमण-निर्ग्रन्थों के सुप्रशस्त आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम-विशुद्धि, उत्पादनविशुद्धि, एषणा-विशुद्धि, शुद्धाशुद्धग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप-उपाधान का निरूपण किया गया है। से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तं जहा-णाणायारे दंसणायारे तद्यथा—ज्ञानाचार: दर्शनाचारः चरित्तायारे तवायारे वीरिया- चरित्राचार: तप आचारः वीर्याचारः । यारे। संक्षेप में आचार पांच प्रकार का है,६ जैसे-१. ज्ञान आचार २. दर्शन आचार ३. चरित्र आचार ४. तप: आचार ५. वीर्य आचार। आयारस्स णं परित्ता वायणा आचारस्य परीता: वाचना: संख्येयानि संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तयः पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संख्येयाः वेष्टकाः संख्येयाः श्लोकाः संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ संख्येयाः नियुक्तयः । निज्जत्तीओ। आचार की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा (वेष्टक) संख्येय हैं, श्लोक (अनुष्टुप् आदि वृत्त) संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं। से गं अंगट्टयाए पढमे अंगे दो स अङ्गार्थतया प्रथममङ्गम् द्वौ सयक्खंधा पणवीसं अज्झयणा श्रतस्कन्धौ पञ्चविंशतिः अध्ययनानि पंचासीई उद्देसणकाला पंचासीइं पञ्चाशीतिः उद्देशनकालाः पञ्चाशीतिः समसणकाला अट्ठारस समद्देशनकालाः अष्टादश पदसहस्राणि पयसहस्साई पदग्गेणं, संखेज्जा पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः अक्खरा अणंता गमा अणंता गमाः अनन्ताः पर्यायाः परीताः प्रसाः पज्जवा परित्ता तसा अणंता अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः थावरा सासया कडा णिबद्धा निबद्धाः निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा भावा: आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते आधविज्जंति पण्णविज्जति दर्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदयन्ते। परूविजंति दसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति । वह अङ्ग की दृष्टि से पहला अंग है। इसके दो श्रुतस्कंध, पचीस अध्ययन, पचासी उद्देशन-काल, पचासी समुद्देशनकाल, पद परिमाण से अठारह हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम (अर्थपरिच्छेद) और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं गाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते पणविज्जति परूविज्जति उपदय॑ते । सोऽयमाचारः । दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति सेत्तं आयारे। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-आचारमय, ‘एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार आचार में चरण-करण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है आचार। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रौ ६०. से किं तं सूयगडे ? सूयगडे परसमया ससमयपरसमया ३१५ अथ किं तत् सूत्रकृतम् ? णं ससमया सूइज्जंति सूत्रकृते स्वसमयाः सूच्यन्ते परसमयाः सूइज्जति सूच्यन्ते स्वसमयपरसमयाः सूच्यन्ते सूइज्जंति जीवाः सूच्यन्ते अजोवाः सूच्यन्ते अजीवा जीवाजीवाः सूच्यन्ते लोकः सूच्यते अलोकः सूच्यते लोकालोकः सूच्यते । जीवा सूइज्जति सूइज्जति जीवाजीवा सूइज्जंति लोगे सुइज्जति अलोगे सुइज्जति लोगालोगे सुइज्जति । सूत्रकृते जीवाजीवपुण्यपापाश्रव संवरनिर्जराबन्धमोक्षावसानाः पदार्थाः सूयगडे णं जीवाजीव- पुण्णपावासव संवर निज्जर बंध मोक्खावसाना पयत्था सूइज्जंति, सूच्यन्ते श्रमणानां अचिरकालसमणाणं अचिरकालपव्वइयाणं प्रव्रजितानां कुसमय मोह-मोहकुसमयमोह - मोहमइमोहियाणं मतिमोहितानां सन्देहजात सहजबुद्धिपरिणाम- संशयितानां पापकर-मलिनमतिगुण-विशोधनार्थं आशीतस्य संदेहजाय सहजबुद्धि परिणाम संसइयाणं पावकर - मइलम-गुणविसोत्थं किरियावा दिसतस्स चउरासीए अक्रियावादिनां सीए अज्ञानिकवादिनां, आसीतस्स क्रियावादिशतस्य चतुरशीत्याः सप्तषष्ट्याः अकरवाई बत्तीस वि वेणइवाई - तिह तेसट्टानं अगदियितयागं वह किच्चा समए ठाविज्जति । द्वात्रिंशतो वैनयिकवादिनां त्रयाणां त्रिषष्टिकानां अन्य दृष्टिकरातानां व्यूहं कृत्वा स्वसमये स्थाप्यते । नाणादिट्ठतवयण निस्सारं नानादृष्टान्तवचन- निस्सारं सुष्ठ सुट्ठ दरिसयंता विविवित्थरा दर्शयन्तौ विविध विस्तारानुगमपरमगम- परमसम्भाव-गुण - विसिट्टा सद्भाव-गुण-विशिष्टी मोक्षपथाव मोक्aहोयारगा उदारा तारकौ उदारौ अज्ञानतमोऽन्धकारअण्णा मंधकारदुग्गे दोवभूता दुर्गेषु दीपभूतौ सोपाने चैव सिद्धिसोवाणा चेव सिद्धिसुगइ सुगतिगृहोत्तमस्य निःक्षोभ निष्प्रकम्पौ घरुत्तमस्स णिक्खोभ-निप्पकंपा सूत्रार्थी । सुत्तत्था । - सूयगडस्स णं परिता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुतीओ। सूत्रकृतस्य परीताः वाचना: संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः, प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टका: संख्येया: श्लोकाः संख्येयाः निर्युक्तयः । प्रकीर्णक समवाय: सू० ६० ६०. सूत्रकृत क्या है ? सूत्रकृत में स्व- समय की सूचना पर समय की सूचना तथा स्व-समय पर समयदोनों की सूचना दी गई है । जीवों की सूचना, अजीवों की सूचना तथा जीवअजीव - दोनों की सूचना दी गई है। लोक की सूचना, अलोक की सूचना तथा लोकअलोक - दोनों की सूचना दी गई है। इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष पर्यन्त पदार्थों की सूचना दी गई है । इसमें कुतीर्थिकों के अयथार्थ बोध से उत्पन्न मोह-व्यूह से मूढ़ मति वाले, संदेहजात और सहजबुद्धि के परिणाम से संदिग्ध मन वाले नव प्रव्रजित श्रमणों की पापकारी मलिन बुद्धि के गुण का विशोधन करने के लिए एक सौ अस्सी क्रियावादियों, चौरासी अक्रियावादियों, सड़सठ अज्ञानवादियों तथा बत्तीस वैनयिकवादियों - इस प्रकार तीन सौ तिरसठ अन्य दृष्टियों का व्यूह ( प्रतिक्षेप) कर स्व- समय की स्थापना की गई है । इसके सूत्र और अर्थ कुतीर्थिकों द्वारा उपन्यस्तदृष्टान्त वचन की निस्सारता का सम्यक् प्रदर्शन करते हैं । ये विविध विस्तरानुगम और परमसद्भाव- इन दोनों गुणों से विशिष्ट हैं । ये मोक्षपथ के अवतारक, उदार, अज्ञानरूपी तमस् अन्धकार से दुर्गम तत्त्व मार्ग के लिए दीपभूत हैं । ये सिद्धिगति रूप उत्तम प्रासाद के लिए सोपानतुल्य हैं तथा निःक्षोभ और निष्प्रकंप 1 सूत्रकृत की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येव हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, और नियुक्तियां संख्येय हैं । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र सेणं अंगवाए दोच्चे अंगे दो सुयक्खंधा तेवोसं अयणा तेत्तीस उद्देसणकाला तेतीसं समुद्देणकाला छत्तीसंपदसहस्साई पग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण विज्जंति परुविज्जति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति । से एवं आया एवं णाया एवं बिष्णाया एवं परूवणया पण विज्जति दंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं सूयगडे । अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता चरण-करण एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते परूविज्जति उपदर्श्यते । तदेतत् सूत्रकृतम् । निदंसिज्जति १. से कि तं ठाणे ? ठाणे णं ससमया ठाविज्जंति परसमया ठाविज्जंति ससमय परसमया ठाविज्जंति जोवा ठाविज्जंति अजीवा ठाविज्जंति जीवाजीवा ठाविज्जंति लोगे ठाविज्जति अलोगे ठाविज्जति लोगालोगे ठाविज्जति । ठाणे णं दव्व-गुण-खेत्त-कालपज्जव पयत्थाणं संगी १. सेला सलिलाय समुद्दसुरभवगविमाण आगर नदीओ । हिओ पुरिसज्जाया, सरा य गोत्ता य जोइसंचाला ॥ ३१६ तत् अङ्गार्थतया द्वितीयमङ्गम् द्वौ श्रुतस्कन्धौ त्रयोविंशतिः अध्ययनानि त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकाला: त्रयस्त्रिशत् समुद्देशन कालाः षट्त्रिंशत् पदसहस्राणि पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ता पर्यायाः परीताः साः अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । अथ किं तत् स्थानम् ? स्थाने स्वसमयाः स्थाप्यन्ते परसमया: स्थाप्यन्ते स्वसमयपरसमयाः स्थाप्यन्ते जीवाः स्थाप्यन्ते अजोवा: स्थाप्यन्ते जोवाजोवा: स्थाप्यन्ते लोकः स्थाप्यते अलोक: स्थाप्यते लोकालोकः स्थाप्यते । - - स्थाने द्रव्य - गुण क्षेत्र काल-पर्यवा: पदार्थानाम्--- संग्रहणी गाथा शैलाः सलिलाश्च समुद्र सूरभवनविमानआकरनद्य: । निधय: पुरुषजाताः, स्वराश्च गोत्राणि च ज्योतिः संचाराः ॥ प्रकीर्णक समवाय: सू० ६१ यह अंग की दृष्टि से दूसरा अंग है । इसके दो श्रुतस्कंध, तेईस अध्ययन, तेतीस उद्देशन - काल" तेतीस समुद्देशनकाल, पद-प्रमाण से छत्तीस हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्यय करने वाला 'एवमात्म |' सूत्रकृतमय, 'एवं ज्ञाता' 'और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार सूत्रकृत में चरण करण- प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है सूत्रकृत । १. स्थान क्या है ? स्थान में स्व- समय की स्थापना, परसमय की स्थापना तथा स्व-समय पर समय - दोनों की स्थापना की गई है। जीवों की स्थापना, अजीवों की स्थापना तथा जीव अजीव - दोनों की स्थापना की गई है। लोक की स्थापना, अलोक की स्थापना तथा लोक- अलोकदोनों की स्थापना की गई है । इसमें पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यंव की स्थापना की गई है। इसमें पर्वत, सलिला ( महानदी ), समुद्र, सूर्य, भवन, विमान, आकर, नदी (छोटी नदी), निधि, पुरुषों के प्रकार, स्वर, गोत्र, ज्योतिष्चक्र का संचलन - इन सबका प्रतिपादन किया गया है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३१७ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६२ एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवत्तव्वयं एकविधवक्तव्यकं द्विविधवक्तव्यकं जाव दसविहवतव्वयं जोवाण यावत् दशविधवक्तव्यकं जीवानां पोग्गलाण य लोगट्ठाइणं च पुद्गलानां च लोकस्थायिनां च प्ररूपणा परूवणया आघविज्जति। आख्यायते । इसमें एक विध वक्तव्यता (पहले स्थान में), द्विविध वक्तव्यता (दूसरे स्थान में) यावत् दशविध वक्तव्यता (दसवें स्थान में) है। इसमें जीव, पुद्गल और लोकस्थायी (धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों) की प्ररूपणा की गई है। स्थान की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। ठाणस्स णं परित्ता वायणा स्थानस्य परीता: वाचना: संख्येयानि संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तयः पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संख्येयाः वेष्टकाः संख्येयाः श्लोकाः संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ संख्येयाः नियुक्तयः संख्येयाः संग्रहण्यः । निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ। से गं अंगट्ठयाए तइए अंगे एगे तत् अङ्गार्थतया तृतीयमङ्गम् एकः सुयक्खंधे दस अज्झयणा एक्कवीसं श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि एकविंशतिः उद्देसणकाला एक्कवीसं समुद्देसण- उद्देशन कालाः एकविंशतिः काला बावतरि पयसहस्साई समुद्देशनकालाः द्विसप्ततिः पदसहस्राणि पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः अणंता गमा अणंता पज्जवा गमाः अनन्ताः पर्यवाः परीताः त्रसाः परित्ता तसा अणंता थावरा अनन्ता: स्थावराः शाश्वताः कृताः सासया कडा णिबद्धा णिकाइया निबद्धाः निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः जिणपण्णत्ता भावा आधविजंति भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते पण्णविज्जति परूविज्जति प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति। यह अंग की दृष्टि से तीसरा अंग है। इसके एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशन-काल", इक्कीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से बहत्तर हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला विण्णाया एवं चरण-करण एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते 'एवमात्मा,-स्थानमय, ‘एवं ज्ञाता, परूवणया आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दय॑ते निदय॑ते और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस पण्णविज्जति परूविज्जति उपदर्श्यते । तदेतत् स्थानम् । प्रकार स्थान में चरण-करण-प्ररूपणा इंसिज्जति निदंसिज्जति का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन उवदंसिज्जति । सेत्तं ठाणे। निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है स्थान । १२. से कि तं समवाए ? अथ कोऽयं समवायः? ६२. समवाय क्या है ? समवाए णं ससमया सूइज्जंति समवाये स्वसमयाः सूच्यन्ते परसमयाः । समवाय में स्वसमय की सूचना, परपरसमया सूइज्जति ससमय- सच्यन्ते स्वसमय-परसमयाः सच्यन्ते समय की सूचना तथा स्वसमय और परसमया सूइज्जति जीवा जीवाः सूच्यन्ते अजीवाः सूच्यन्ते परसमय—दोनों की सूचना दी गई है। जीवों की सूचना, अजीवों की सूचना सूइज्जति अजीवा सूइज्जति जीवाजीवाः सूच्यन्ते लोकः सूच्यते तथा जीव-अजीव-दोनों की सूचना जीवाजोवा सूइज्जति लोगे अलोकः सूच्यते लोकालोकः सूच्यते । दी गई है। लोक की सूचना, अलोक सूइज्जति अलोगे सूइज्जति की सूचना तथा लोक-अलोक-दोनों की सूचना दी गई है। लोगालोगे सूइज्जति। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३१८ प्रकोणक समवाय : सू० ६२ इसमें कुछ पदार्थों की एक, दो, तीन, चार आदि के क्रम से एकोतरिका परिवृद्धि का प्रतिपादन किया गया है । इसमें द्वादशांग गणिपिटक का पल्लवपरिमाण (या पर्यव-परिमाण) बतलाया गया है। इसमें एक से सौ स्थानों तक तथा जगजीवों के लिए हितकर बारह प्रकार के विस्तार वाले भगवान् श्रुतज्ञान का संक्षेप में समाचार बणित किया गया समवाए णं एकादियाणं एगत्थाणं समवाये एकादिकानां एकार्थानां एगुत्तरियपरिवुड्ढोय, दुवालसंगस्स एकोत्तरिकापरिवृद्धिश्च, द्वादशाङ्गस्य य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे च गणिपिटकस्य पल्लवाग्रं समनुगीयते, समणुगाइज्जइ, ठाणगसयस्स स्थानकशतस्य द्वादशविधविस्तरस्य बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स श्रुतज्ञानस्य जगज्जीवहितस्य भगवतः जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समासेन समाचारः आख्यायते, तत्र च समायारे आहिज्जति, तत्थ य नानाविधप्रकारा: जीवाजीवाश्च णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिता: विस्तरेण अपरेऽपि च वणिया वित्थरेण अवरे वि य बहुविधाः विशेषाः नरक-तिर्यङ-मनुजबहुविहा विसेसा नरग-तिरिय- सुरगणानां आहारोच्छवास-लेश्यामणुय-सुरगणाणं आहारुस्सास- आवाससंख्या - आयत-प्रमाण- उपपातलेस- आवाससंख - आययप्पमाण च्यवन-अवगाहना-अवधि-वेदन-विधानउववाय • चयण - ओगाहणोहि- उपयोग-योग-इन्द्रिय-कषायाः, विविधा वेयण - विहाण - उवोग - जोग- च जीवयोनिः विष्कम्भोत्सेध-परिरयइंदिय-कसाय, विविहा य प्रमाणं विधिविशेषाश्च मन्दरादीनां । जीवजोणी विक्खंभुस्सेह-परिरय- महोधराणां कुलकर-तीर्थकर-गणधराणां । प्पमाणं विधिविसेसा य समस्तभरताधिपानां चक्रिणां चैव मंदरादीणं महोधराण कुलगर- चक्रधर-हलधराणां च वर्षाणां च तित्थगर-गणहराणं समतभरहा- निर्गमाश्च समायाः । हिवाण चक्कोणं चेव चक्कहरहलहराण य वासाण य निग्गमा य समाए। इसमें नाना प्रकार के जीवों और अजीवों का विस्तार से वर्णन है। इनके अतिरिक्त इसमें और भी बहुत प्रकार के विशेष, जैसे-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगण के आहार, श्वासोच्छवास, लेश्या, आवासों की संख्या, उनकी लम्बाई-चौड़ाई आदि का प्रमाण, उपपात, च्यवन, अवगाहना, अवधिज्ञान, वेदना, भेद, उपयोग, योग, इन्द्रिय और कषाय का वर्णन है। इसमें विवध प्रकार की जीव-योनियों का, मन्दर आदि पर्वतों के विष्कंभ (विस्तार), उत्सेध (ऊंचाई) और परिधि का प्रमाण तथा पर्वतों के भेदों का वर्णन है। इसमें कुलकर, तीर्थङ्कर, गणधर, समग्न भरत के अधिपति चक्रवर्ती, चक्रधर (वासुदेव) और हलधर (बलदेव) का वर्णन है। इसमें भरत आदि क्षेत्रों का निर्गम (प्रत्येक क्षेत्र की पहले की अपेक्षा से अधिकता) बतलाया गया है। एए अण्णे य एवमादित्य वित्थरेणं एते अन्ये च एवमादयः अत्र विस्तरेण अत्था समासिज्जंति। अर्थाः समाश्रियन्ते। इसमें इनका तथा इसी प्रकार के दूसरे पदार्थों का भी विस्तार से वर्णन हुआ समवायस्सणं परित्ता वायणा समवायस्य परीताः वाचनाः संख्येयानि संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तय: पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा संख्येयाः वेष्टकाः संख्येयाः श्लोकाः सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तोओ संख्येयाः नियुक्तयः संख्येयाः संग्रहण्यः । संखेज्जाओ संगहणोओ। समवाय की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३१६ प्रकोणक समवाय : सू० ६३ से णं अंगट्रयाए चउत्थे अंगे एगे सः अङ्गार्थतया चतुर्थमङ्गं एक अज्झयणे एगे सुयक्खंधे एगे अध्ययनं एकः श्रुतस्कन्धः एक: । उद्देसणकाले एगे समुद्देसणकाले उद्देशनकालः एक: समुद्देशनकालः एगे चोयाले पदसयसहस्से एकचत्वारिंशत् पदशतसहस्राणि पदग्गेणं, संखेज्जाणि अक्खराणि पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः अणंता गमा अणंता पज्जवा गमा: अनन्ताः पर्यवाः परीतास्त्रसाः परित्ता तसा अणंता थावरा अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः सासया कडा णिबद्धा णिकाइया निबद्धाः निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते पण्णविज्जंति परूविज्जंति दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदय॑न्ते । दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति। यह अंग की दृष्टि से चौथा अंग है। इसमें एक अध्ययन, एक श्रुतस्कंध, एक उद्देशन-काल, एक समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से एक लाख चौवालीस हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं 'आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आधविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते पणविज्जति परूविज्जति उपदर्श्यते । सोऽसौ समवायः। दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं समवाए। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-समवायमय, ‘एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' बन जाता है । इस प्रकार समवाय में चरण-करण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है समवाय। ६३. से कि तं वियाहे ? अथ केयं व्याख्या? वियाहे णं ससमया वियाहिज्जंति व्याख्यायां स्वसमयाः व्याख्यायन्ते परसमया वियाहिज्जंति परसमयाः व्याख्यायन्ते ससमयपरसमया वियाहिज्जति स्वसमयपरसमयाः व्याख्यायन्ते जीवाः जीवा वियाहिज्जति अजीवा व्याख्यायन्ते अजीवाः व्याख्यायन्ते वियाहिज्जति जीवाजीवा जीवाजीवाः व्याख्यायन्ते लोक: वियाहिज्जंति लोगे वियाहिज्जइ व्याख्यायते अलोकः व्याख्यायते अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे लोकालोकः व्याख्यायते । वियाहिज्जइ। ६३. व्याख्या (व्याख्याप्रज्ञप्ति) क्या है ? व्याख्या में स्वसमय की व्याख्या, परसमय की व्याख्या तथा स्वसमयपरसमय-दोनों की व्याख्या की गई है। जीवों की व्याख्या, अजीवों की व्याख्या तथा जीव-अजीव-दोनों की व्याख्या की गई है । लोक की व्याख्या, अलोक की व्याख्या तथा लोक-अलोकदोनों की व्याख्या की गई है। वियाहे णं नाणाविह-सुर-नरिंद- व्याख्यया नानाविध-सुर-नरेन्द्ररायरिसि . विविहसंसइय- राजऋषि - विविधसंशयित - पृष्टानां पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण जिनेन विस्तरेण भाषिताना द्रव्य-गुणभासियाणं दव्व-गुण-खेत-काल- क्षेत्र - काल - पर्यव - प्रदेश- परिणामपज्जव-पदेस - परिणाम - जहत्थि- यथास्तिभाव - अनुगम - निक्षेप - नयभाव-अणुगम-निक्खेव-णय-प्पमाण- प्रमाण - सुनिपुणोपक्रम - विविधप्रकारसुनिउणोवक्कम - विविहप्पगार इसमें विविध प्रकार के संशय वाले नाना प्रकार के देव, नरेन्द्र और राजर्षि द्वारा पूछे गए छत्तीस हजार प्रश्नों तथा भगवान् महावीर द्वारा किए गए विस्तृत व्याकरणों के निदर्शन द्वारा, शिष्य-हित के लिए, बहुविध श्रुत और अर्थ का व्याख्यान किया गया है । वे व्याकरण द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्यव, प्रदेश, परिणाम, यथा-अस्तिभाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण, सुनिपुण Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३२० प्रकट - प्रदर्शितानां प्रकाशितानां लोकालोकसंसारसमुद्र- रुन्द पागड- पयं सियाणं लोगालोगपगासियाणं संसारसमुद्द-रुंद - उत्तरण-समत्थाणं सुरपति ( विस्तीर्ण) - उत्तरण - समर्थानां सुरपतिसंपूजया भविय - जणपय- संपूजितानां भव्य जनप्रजाहृदयाहिययाभिनंदियाणं तमरय भिनन्दितानां तमोरजोविध्वंसनानां विद्धसणाणं सुविट्ट-दोवभूय-ईहा- सुदृष्ट-दीपभूत-ईहा-मति-बुद्धि-वर्द्धनानां मतिबुद्धि-वद्धणाणं छत्तीससहस्स - षट्त्रिंशत्सहस्रान्यूनकानां व्याकरणानां दर्शनाः श्रुतार्थ बहुविधप्रकाराः शिष्यहितार्थाश्च गुणहस्ताः । मणयाणं वागरणाणं दंसणा सुयत्थ-बहुविप्पगारा सीसहियत्थाय गुणहत्था । विग्राहस्त णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पवित्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुओ संखेज्जाओ संगणीओ । से णं अंगट्टयाए पंचमे अंगे एगे सुयक्खंधे एगे साइरेगे अज्झणसते दस उद्देगसहस्साई दस समुद्दे सगसहस्साइं छत्तीसं वागरणसहसाई चउरासीई पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जाई अक्खराई अनंता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा अनंता थावरा सासया कडा णिवद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति परुविज्जति पण्णविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति । परूवणया पण्णविज्जति दंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं वियाहे । व्याख्यायाः परीता वाचना: संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तयः संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः श्लोकाः संख्येया: नियुक्तय: संख्येयाः संग्रहण्यः । से एवं आया एवं णाया एवं स एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विष्णाया एवं चरण-करण एवं चरण-करण - प्ररूपणा आख्यायते आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते परूविज्जति उपदर्श्यते । सेयं व्याख्या | निदंसिज्जति सा अङ्गार्थतया पञ्चमं अङ्गम् एकः श्रुतस्कन्धः एकसातिरेकं अध्ययनशतं दश उद्देशक सहस्राणि दश समुद्देशकसहस्राणि षट्त्रिंशद् व्याकरणसहस्राणि चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ता पर्यवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । प्रकीर्णक समवाय: सू० ६३ उपक्रम आदि विविध प्रकार से स्पष्टरूप से प्रदर्शित हैं। उन व्याकरणों में लोक और अलोक पर प्रकाश डाला गया है । वे इन्द्रों द्वारा पूजित ( श्लाघित हैं ) । वे भव्य प्रजा-जन के हृदय को आनन्द देने वाले हैं ! वे तम और रज का ध्वंस करने वाले हैं। वे सुदृष्ट होने के कारण दीप के समान प्रकाशी तथा ईहा, मति और बुद्धि के संवर्धक हैं । वे अर्थ- बोधरूप गुण की प्राप्ति कराने के लिए सिद्धहस्त हैं । व्याख्या की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक और संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्येय संग्रहणियां संख्येय हैं । यह अंग की दृष्टि से पांचवां अंग है । इसके एक श्रुतस्कंध, कुछ अधिक सौ अध्ययन ( शतक), दस हजार उद्देशक, दस हजार समुद्देशक, छत्तीस हजार व्याकरण, पद-प्रमाण से चौरासी हजार पद संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन - प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। इसका सम्यक अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा' - व्याख्यामय, 'एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार व्याख्या में चरण करण- प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है व्याख्या | Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र ३२१ ४. से कि तं नायाधम्मक हाओ ? अथ कास्ता ज्ञात-धर्मकथा: ? नाया धम्मक हासु णं नायाणं ज्ञात-धर्मकथासु ज्ञातानां नगराणि नगराई उज्जाणाई चेइआई उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः ariडाई रायाणो अम्मापियरो अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्याः समोसरणाइं धम्मायरिया धर्मकथा: ऐहलौकिक - पारलौकिकाः धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया ऋद्धिविशेषाः भोगपरित्यागाः प्रव्रज्याः इडिविसेसा भोगपरिच्चाया श्रुतपरिग्रहाः तपउपधानानि पर्यायाः पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा संलेखना: तोवहाणाई परियागा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुल पच्चायातो पुणबोहिलाभो अंत किरियाओ य आघविज्जंति पण्णविज्जति परुविज्जति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति । - प्रव्रजितानां नाया धम्महासु णं पव्वइयाणं ज्ञात-धर्मकथासु विणयकरण जिणसामि विनयकरण जिनस्वामि शासनवरे सासणवरे संजमपइण्ण- पालण संयमप्रतिज्ञा पालन धृति मतिबिइ-मइ - ववसाय - दुल्लभाणं, तव व्यवसाय दुर्लभानां तपोनियमनियम - तवो वहाण - रणदुद्धरभर तपउपधान- रण- दुर्घरभरभग्न- निःसहभग्गा - णिसहा णिसट्टा, निःसृष्टानां घोरपरीषह - पराजिताऽसहघोरपरीसह पराजिया -सह- प्रारब्ध-रुद्ध - सिद्धालयमार्ग-निर्गतानां, आशावदोषपारद्ध रुद्ध - सिद्धालयमग्ग- विषयसुख - तुच्छ निग्गयाणं, विसयसुह तुच्छ मूच्छितानां विराधित-चारित्र-ज्ञानआसावसदसमुच्छियाणं, विरा हिय चरित नाण दंसणजइगुण- विविहप्पगार निस्सारसुण्णयाणं संसार-अपार- दुक्ख दुग्गइ-भव - विविहपरंपरा पवंचा । दर्शन-तिगुण- विविध प्रकार-नि:सारशून्यकानां संसार-अपार-दुःख-दुर्गतिभव - विविध परम्परा -प्रपञ्चाः । - - - - धीराण य जिय-परिसह कसायसेण्ण धिइ धणिय संजम - उच्छाहनिच्छियाणं आराहियनाण- दंसण-चरित-जोग - निस्सल्ल - सुद्ध सिद्धालयमग्गमभिमुहाणं - प्रायोपगमनानि सुकुल प्रत्याजातिः अन्तक्रियाश्च आख्यायन्ते प्रज्ञा प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । भक्तप्रत्याख्यानानि देवलोकगमनानि पुनर्बोधिलाभ: - - - निदश्यन्ते - धीराणां च जित - परीषह - कषाय- सैन्य - धृति-धनिक- संयम - उत्साहनिश्चितानां आराधित ज्ञान दर्शन - चारित्र-योगनिःशल्य-शुद्ध- सिद्धालयमार्गाभिमुखानां - प्रकीर्णक समवाय: सू० ६४ ४. ज्ञात-धर्मकथा क्या है ? ज्ञात-धर्मकथा में ज्ञातों (दृष्टान्तभूत व्यक्तियों) के नगर, उद्यान. चैत्य, वनषंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, लौकिक ओर पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-ग्रहण, तपउपधान, दीक्षा- पर्याय का काल, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ, और अन्तक्रिया का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। इसमें कर्म को दूर करने वाले जिनेश्वर देव के उत्तम शासन में प्रव्रजित होने पर भी जो संयम की प्रतिज्ञा के पालन में दुर्लभ धृति, मति और व्यवसाय वाले हैं, जो तप, नियम, तप उपधान रूपी संग्राम में दुर्धर भार से भग्न, निरन्तर असक्त और मुक्ताङ्ग (जुआ डाल देने वाले) हैं, जो घोर परीषहों से पराजित, सदनुष्ठान के प्रारम्भ में असमर्थ, पथ-रुद्ध होने के कारण मोक्षमार्ग से निर्गत हैं, जो विषय सुखों की तुच्छ आशा के वशवर्ती होकर दोषों में मूच्छित हैं, जो चारित्र, ज्ञान और दर्शन के विराधक तथा विविध प्रकार के यति गुणों में निस्सार होने के कारण उनसे शून्य हैं, उन व्यक्तियों के संसार में होने वाले अपार दुःख, दुर्गति तथा जन्म की विविध परम्परा के प्रपञ्च का आख्यान किया गया है। इसमें धीर पुरुषों का जिन्होंने परीषह और कषायरूपी सेना को जीत लिया है, जो धृति के धनी हैं, जिनका संयम में निश्चित उत्साह है, जिन्होंने ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा योग की आराधना की. है, जो निःशल्य और शुद्ध सिद्धालय Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३२२ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६४ सुरभवण - विमाण - सुक्खाइं सुरभवन-विमान-सौख्यानि अनुपमानि अणोवमाइं भुत्तूण चिरं च भुक्त्वा चिरं च भोगभोगान् तान् भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि दिव्यान् महार्हान् ततश्च । महरिहाणि ततो य कालक्कम- कालक्रमच्युतानां, यथा च पुनर्लब्धच्चुयाणं जह य पुणो सिद्धिमार्गाणां अन्तक्रिया । लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया। के मार्ग के अभिमुख हैं, जो अनुपम देव-भवन के वैमानिक सुखों को प्राप्त करते हैं, जो चिरकाल तक दिव्य और महामहनीय भोगों को भोग कर तथा कालक्रम से वहां से च्युत होकर, जिस प्रकार वे पुन: सिद्धिमार्ग को प्राप्त कर अंतक्रिया करते हैं-उनका आख्यान किया गया है। चलियाण य सदेव-माणुस्स- चलितानां च सदेव-मानुष धीरकरणधीरकरण-कारणाणि बोधण- कारणानि बोधन-अनुशासनानि गुणअणुसासणाणि गुण-दोस- दोष-दर्शनानि । दरिसणाणि। इसमें संयम-मार्ग से विचलित मुनियों में धैर्य उत्पन्न करने वाले, बोध और अनुशासन भरने वाले तथा गुण और दोष का संदर्शन देने वाले देव तथा मनुष्य सम्बन्धी दृष्टान्तों का निरूपण दिद्रुते पच्चए य सोऊण दृष्टान्तान् प्रत्ययाँश्च श्रुत्वा लोकमुनयः लोगमणिणो जह य ठिया यथा च स्थिता: शासने जरा-मरणसासणम्मि जर-मरण-नासणकरे। नाशनकरे । आराहिय - संजमा य आराधित-संयमाश्च सुरलोकसुरलोगपडिनियत्ता ओति प्रतिनिवत्ता: उपयान्ति यथा शाश्वतं जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं । शिवं सर्वदुःखमोक्षम् । इसमें दृष्टान्तों और प्रत्ययों (बोधि के हेतुभूत वाक्यों) को सुन कर लौकिक मुनि (शुक्र परिव्राजक आदि) जिस प्रकार से जरा-मरण का नाश करने वाले जिनशासन में स्थित हुए, संयम की आराधना कर देवलोक में उत्पन्न हुए, पुनः वहां से मनुष्य जन्म प्राप्त कर जिस प्रकार शाश्वत, शिव और सब दुःखों से मुक्ति देने वाले निर्वाण को प्राप्त करते हैं उसका आख्यान किया गया है। एए अण्णे वित्थरेण य। य एवमादित्य एते अन्ये च एवमादय: अत्र विस्तरेण ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं। च । ज्ञात-धर्मकथा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। नाया-धम्मकहासु णं परित्ता ज्ञात-धर्मकथासु परीताः वाचना: वायणा सखेज्जा अणुओगदारा संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येया: संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः वेढा संखेज्जा सिलोगा खेज्जाओ श्लोकाः संख्येयाः निर्यक्तयः संख्येयाः निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संग्रहण्यः । सांगहणीओ। से णं अंगट्टयाए छठे अंगे दो ताः अङ्गार्थतया षष्टमङ्गं द्वौ सुअक्खंधा एगणतीसं अज्झयणा, श्रुतस्कन्धौ एकोनत्रिंशद अध्ययनानि, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तानि समासत: द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तं जहा--चरिता य कप्पिया य। तद्यथा-चरितानि च कल्पितानि च । यह अंग की दृष्टि से छठा अंग है। इसके दो श्रतस्कंध और उनतीस अध्ययन५ हैं। संक्षेप में वे दो प्रकार के हैं-चरित (घटित) और कल्पित । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो दस धम्मकहाणं वग्गा । तत्थ णं एगमेगा धम्मकहाए पंच-पंच अक्खाइयासया । एगमेगाए अक्खाइयाए पंच-पंच sarasयासया । एगमेगाए वक्वाइयाए पंच-पंच अक्खाइयवक्वाइयसयाई एवामेव सवावरेणं पञ्च पञ्च आख्यायिका - उपाख्यायिकाशतानि - अट्ठाओ एवमेव सपूर्वापरेण भवतीति आख्यायिकाकोटयः एगुणतीसं आख्याताः । एकोनत्रिंशत् उद्देशनकाला: एगूणतोस एकोनत्रिंशत् समुद्देशनकाला: संख्येयानि संखेज्जाई पदशतसहस्राणि पदाग्रेण संख्येयानि सहस्साई पयगोणं, अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ताः संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा पर्यवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः स्थावराः अनंता पज्जवा परिता तसा शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिता: अनंता थावरा सासया कडा जिनप्रज्ञप्ताः भावा: आख्यायन्ते निबद्धाणिकाइया जिष्णपण्णत्ता प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दश्यन्ते निदर्यन्ते भावा आधविज्जति पण्णविज्जंति उपदर्श्यन्ते । परुविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । tears कोडोओ मक्खायाओ । उद्देणकाला समुद्देणकाला ३२३ दश धर्मकथानां वर्गाः । तत्र एकैकस्यां धर्मकथायां पञ्च पञ्च एकैकस्यां पञ्च पञ्च एकैकस्यां ६५. से किं तं उवासगदसाओ ? आख्यायिकाशतानि । आख्यायिकायां उपाख्यायिकाशतानि । उपाख्यायिकायां से एवं आया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चरण-करण अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता एवं चरण-करण - प्ररूपणा आख्यायते आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते परूविज्जति उपदर्श्यते । तदेताः ज्ञात-धर्मकथा: । दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं णायाधम्मकहाओ । परूवणया पण विज्जति अर्द्धचतुर्थ्यः भवन्तीति उवासगदसासु णं उवासयाणं नगराई उज्जाणाई चेइआई वणसंडाई रायाणो अम्मापियरो अथ कास्ता उपासकदशा: ? उपासकदशासु उपासकानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि वनपण्डानि राजानः अम्बापितरौ समवसरणानि समोसरणाइं धम्मायरिया धर्माचार्याः धर्मकथा: ऐहलौकिकधम्म कहाओ इहलोइय-परलोइया पारलौकिका : ऋद्धिविशेषाः, उपासकानां च शीलव्रत-विरमण-गुणप्रत्याख्यान - पौषधोपवासप्रतिपादनानि श्रुतपरिग्रहाः तपउपधानानि प्रतिमाः उपसर्गाः संलेखना: भक्तप्रत्याख्यानानि विसेस, उवासयाणं च सीलव्वय- वेरमण-गुण- पच्चक्खाणपोसहोववास पडिवज्जणयाओ सुपरिग्गहा तोवहाणाई पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ प्रकीर्णक समवाय: सू० ६५ धर्मकथा के दस वर्ग हैं। प्रत्येक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायि काएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में पांचपांच सौ उप-आख्यायिकाएं है। प्रत्येक उप-आख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिक उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार कुल मिला कर इसनें साढ़े तीन करोड आख्यायिकाएं हैं ऐसा कहा है"। इसमें उनतीस उद्देशन - काल, उनतीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय पदसहस्र ( पांच लाख छिहत्तर हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं । इसमें परिमित स जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा' - ज्ञात-धर्मकथामय, एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार ज्ञात-धर्मकथा में चरण करण- प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है ज्ञातधर्मकथा | ६५. उपासकदशा क्या है ? उपासकदशा में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धिविशेष, उनके शीलव्रत ( अणुव्रत ), विरमण ( राग आदि की विरति ), गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास का स्वीकरण, श्रुत-ग्रहण, तप उपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भक्त Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : सू० ६५ ३२४ भतपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाइं प्रायोपगमनानि देवलोकगमनानि देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाई सुकुलप्रत्याजातिः पुनर्बोधिलाभः पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ अन्तक्रियाश्च आख्यायन्ते । य आघविज्जति। प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। उवासगदसासु णं उवासयाणं उपासकदशासु उपासकानां ऋद्धिरिद्धिविसेसा परिसा वित्थर- विशेषाः परिषद् विस्तरधर्मश्रवणानि धम्म-सवणाणि बोहिलाभ- बोधिलाभ-अभिगम - सम्यक्त्वविशुद्धता अभिगम-सम्मत्तविसुद्धया थिरत्तं स्थिरत्वं मूलगुण-उत्तरगुणातिचाराः मूलगुण - उत्तरगुणाइयारा स्थितिविशेषाश्च बहुविशेषाः ठिइविसेसा य बहुविसेसा प्रतिमाभिग्रह-ग्रहण-पालनानि उपसर्गापडिमाभिग्गहगहण - पालणा ध्यासनानि निरुपसर्गाश्च, तपांसि च उवसग्गाहियासणा णिरुवसग्गा विचित्राणि शीलव्रत-विरमणय, तवा य विचित्ता, सोलव्वय- गुण-प्रत्याख्यान - पौषधोपवासाः, वेरमण - गुण - पच्चक्खाण- अपश्चिममारणान्तिकात्मसंलेखना - पोसहोववासा, अपच्छिममार- जोषणाभिः आत्मानं यथा च । णंतियायसंलेहणा - झोसणाहिं भावयित्वा, बहूनि भक्तानि अनशनतया अप्पाणं जह य भावइत्ता, बहूणि च छेदयित्वा, उपपन्नाः भत्ताणि अणसणाए य छेयइत्ता कल्पवरविमानोतमेषु यथा अनुभवन्ति उववण्णा कप्पवर विमाणुत्तमेसु सूरवरविमानवरपुण्डरीकेषु सौख्यानि । जह अणुभवंति सुरवरविमाण , अनुपमानि क्रमेण भुक्त्वा उत्तमानि, वरपोंडरीएसु सोक्खाई ततः आयुःक्षयेण च्युताः सन्त: यथा अणोवमाइं कमेण भोत्तूण जिनमते बोधि लब्ध्वा च संयमोत्तम, उत्तमाई, तओ आउक्खएणं चुया समाज तमोरजओघविप्रमुक्ताः उपयान्ति यथा लण य संजमुत्तमं, अक्षयं सर्वदुःखमोक्षम् । तमरयोघविप्पमुक्का उति जह अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं । इसमें उपासकों के ऋद्धि-विशेष, परिषद्”, विस्तार से धर्म-श्रवण, बोधि-लाभ, अभिगम, सम्यक्त्व-विशुद्धि, स्थैर्य, मूलगुणों और उत्तरगुणों के अतिचार, स्थिति-विशेष (उपासकपर्याय का कालमान), अनेक प्रकार की प्रतिमाओं और अभिग्रहों का ग्रहण और पालन, उपसर्गों का सहन, निरुपसर्गता, विचित्र तप, शीलवत, विरमण, गुणवत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास, अपश्चिम-मारणान्तिक आत्मसंलेखना के आसेवन से आत्मा को जिस प्रकार भावित करते हैं तथा अनेक भक्तों (भोजन समयों) का अनशन के रूप में छेदन कर उत्तम कल्प देवलोक के विमानों में उत्पन्न होकर जिस प्रकार वरपुंडरीक तुल्य सुरवर विमानो में अनुपम सुखों का अनुभव करते हैं तथा उन उत्तम सुखों को क्रमश: भोग कर, आयु क्षीण होने पर वहां से च्युत होकर जिस प्रकार जिनमत में बोधि और उत्तम संयम को प्राप्त करते हैं तथा तम और रज के प्रवाह से विप्रमुक्त होकर जिस प्रकार अक्षय और सब दुःखों से मुक्ति देने वाले निर्वाण को प्राप्त करते हैं-उसका आख्यान किया गया है। एते अण्णे य एवमाइअत्था एते अन्ये च एवमादयोऽर्थाः विस्तरेण वित्थरेण य। ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं। च। उवासगदसासु णं परित्ता वायणा उपासकदशासु परीता: वाचनाः । संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः । पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा प्रतिपत्तयः संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः सिलोगा संखेज्जाओ निज्जत्तीओ श्लोकाः संख्येयाः नियू संखेज्जाओ संगहणीओ। संग्रहण्यः । उपासकदशा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३२५ प्रकीर्णक समवाय : सू० ९६ से णं अंगठ्याए सत्तमे अंगे एगे ताः अङ्गार्थतया सप्तममङ्गम् एकः सुयक्खंधे दस अज्झयणा दस श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि दश उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला उद्देशनकालाः दश समुद्देशन काला: संखेज्जाइं पयसयसहस्साई संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण, पयग्गेणं, संखेज्जाइं अक्खराइं संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अणंता गमा अणंता पज्जवा अनन्ताः पर्यवाः परोतास्त्रसाः अनन्ताः परित्ता तसा अणंता थावरा स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धाः सासया कडा णिबद्धा णिकाइया निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ता: भावाः जिणपण्णता भावा आधविज्जति आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते पण्णविनंति परूविज्जति निदर्श्यन्ते उपदयन्ते । दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति। यह अंग की दृष्टि से सातवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, दस उद्देशन-काल, दस समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से संख्येय लाख पद (ग्यारह लाख बावन हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्थव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आधविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते पण्णविज्जति परूज्जिति दंसिज्जति उपदयते । तदेता उपासकदशाः। निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं उवासगदसाओ। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-उपासकदशामय, एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार उपासकदशा में चरणकरण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है उपासकदशा। ६६. से कितं अंतगडदसाओ? अथ कास्ता: अन्तकृतदशा: ? ६६. अन्तकृतदशा क्या है ? अंतगडदसासू गं अंतगडाणं अन्तकृतदशासु अन्तकृतानां नगराणि नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः वणसंडाइं रायाणो अम्मापिपरो अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्याः समोसरणाई धम्मायरिया धर्मकथाः ऐहलौकिक-पारलौकिकाः धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया __ ऋद्धिविशेषाः भोगपरित्यागाः प्रव्रज्याः इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया श्रुतपरिग्रहाः तप-उपवानानि प्रतिमाः पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा बहुविधाः, क्षमा आर्जवं च, शौचं च तवोवहाणाई पडिमाओ सत्यसहितं, सप्तदशविधश्च संयमः, बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं उत्तमं च ब्रह्म, आकिञ्चन्यं तपस्त्यागः च, सोअं च सच्चसहियं, समितिगुप्तयश्चैव, तथा अप्रमादयोगः, सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च स्वाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयोयोरपि बंभ, आकिंचणया तवो चियाओ लक्षणानि । समिइगुत्तीओ चेव, तह अप्पमायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हंपि लक्खणाई। अन्तकृतदशा में अन्तकृत (तद्भव मोक्षगामी) जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पार-लौकिक ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, आर्जव, मार्दव, शौच, सत्य, सतरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, अकिंचनता, तप, त्याग (दान), समिति, गुप्ति, अप्रमादयोग तथा उत्तम स्वाध्याय और ध्यानइन दोनों के लक्षण आख्यात हैं। पत्ताण य संजमुत्तमं प्राप्तानां च संयममुत्तमं जितपरीषहाणां जियपरीसहाणं चउव्विह- चतुर्विधकर्मक्षये यथा केवलस्य लाभः, कम्मक्खयम्मि जह केवलस्स इसमें उत्तम संयम को प्राप्त करने तथा परीषहों को जीतने पर, चार कर्मों (घातीकर्मों) के क्षय होने से जिस Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्र भो, परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ सुणिह पायोवगओ य जो जहि, जत्तियाणि भत्ताणि छेत्ता अंतगडो मुणिवरो तम यो विप्पक्को, मोक्ख सुहमतरं च पत्ता | एए अण्णे य वित्थाणं परूवेई | अंतगडदसासु णं परिता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ । सेणं अंगाए अट्टमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्भवणा सत्त art दस उद्देणकाला दस समुद्देणकाला संखेज्जाई पयसय सहस्साई पथग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा अनंता थावरा सासवा कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जति परुविज्जंति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । एवमा अत्या एते अन्ये च एवमादयोऽर्थाः विस्तरेण प्ररूप्यन्ते । सज्ज उवदंसिज्जति 1 अंतगडदसाओ । ३२६ पर्यायों यावरच यथा पालितो मुनिभिः, प्रायोपगतश्च यो यत्र, यावन्ति भक्तानि छेदयित्वा अन्तकृतो मुनिवर: तमोरज-ओध-विप्रमुक्तः मोक्षसुखमनुत्तरं च प्राप्ताः । अन्तकृतदशासु परीता: वाचनाः संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येया: प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टकाः संख्पेया: श्लोका: संख्येया: नियुक्तय: संख्येयाः संग्रहण्यः । से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विष्णाया एवं चरण-करण एवं चरण- करण- प्ररूपणा आख्यायते आघविज्जति, प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते परूविज्जति उपदर्श्यते । तदेता अन्तकृतदशाः । निदंसिज्जति परूवणया पण विज्जति 1 सेत्तं ताः अङ्गार्थतया अष्टममङ्गम् एकः श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि सप्त वर्गाः दश उद्देशन कालाः दश समुदेशनकाला: संख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ताः पर्यवाः परीताः साः अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः भावा: आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । ६७. से किं तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ? अथ कास्ता: अनुत्तरोपपातिकदशाः ? प्रकीर्णक समवाय: सू० ६७ प्रकार केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, जिस प्रकार मुनियों ने जितना पर्याय पाला, जिन्होंने प्रयोपगमन अनशन किया तथा जितने भक्तों (भोजन समयों) को छेद कर, तम और रज के प्रवाह से मुक्त होकर अन्तकृत हुए तथा अनुत्तर मोक्ष सुख को प्राप्त हुएइन सबका आख्यान किया गया है। ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं । अन्तकृतदशा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं । यह अंग की दृष्टि से आठवां अंग है । इसके एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, सात वर्ग दस उद्देशन-काल, दस समुद्देशनकाल, पद-प्रमाण से संख्येय लाख पद ( तेईस लाख चार हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं । इसमें परिमित बस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत कृत, निबद्ध और निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा' - अन्तकृत दशामय, एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार अन्तकृतदशा में चरणकरण प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है अन्तकृतदशा । ६७. अनुत्तरोपपातिकदशा क्या है ? Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३२७ प्रकोणक समवाय : सू० ६७ अणुत्तरोववाइयदसासु णं अनृत्तरोपपातिकदशासु अनुत्तरोपपातिअणुत्तरोववाइयाणं नगराई कानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाई वनखण्डानि राजानः अम्बापितरौ रायाणो अम्मापियरो समवसरणानि धर्माचार्याः धर्मकथा: समोसरणाई धम्मायरिया ऐहलौकिक-पारलौकिकाः ऋद्धिविणेषाः धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया भोगपरित्यागाः प्रवज्या: श्रतपरिग्रहा: इडिढविसेसा भोगपरिच्चाया तप-उपधानानि पर्यायाः संलेखना: पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा भक्तप्रत्याख्यानानि प्रायोपगमनानि तवोवहाणाई परियागा सालेहणाओ अनुत्तरोपपत्तिः सुकुलप्रत्याजातिः । भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई पुनर्बोधिलाभ: अन्तक्रियाश्च अणुत्तरोववत्ति सुकूलपच्चायाती आख्यायन्ते । पुणबोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविजंति। अनुत्तरोपपातिक दशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न व्यक्तियों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनपंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, दीक्षा-पर्याय, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, अनुत्तर विमान में उत्पत्ति, सुकुल में पुनरागमन, पुनः वोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। अणुत्तरोववातियदसासु णं अनुत्तरोपपातिकदशामु तीर्थकरसमवतित्थकरसमोसरणाई परममंगल- सरणानि परममाङ्गल्यजगद्धितानि जगहियाणि जिणातिसेसा य जिनातिशेषाश्च बहुविशेषाः । बहुविसेसा जिणसीसाणं चेव जिन शिष्याणां चैव श्रमणगणप्रवरसमणगणपवरगंधहत्थीणं गन्धहस्तिनां स्थिरयशसां परीषहसैन्यथिरजसाणं परिसहसेण्ण-रिउ-बल- रिपू-बल-प्रमर्दनानां तपोदिप्त-चारित्रपमद्दणाणं तब-दित्त-चरित्त- ज्ञान - सम्यक्त्वसार - विविधप्रकारगाण-सम्मत्तसार - विविहप्पगार- विस्तर-प्रशस्तगुण-संयुतानां अनगारवित्थर-पसत्थगुण - संजुयाण महर्षीणां अनगारगुणानां वर्णक:, अणगारमहरिसीणं अणगारगणाण उत्तमवरतपो विशिष्टज्ञान-योगयुक्तानां वण्णओ, उत्तमवरतव-विसिटणाण- यथा च जगद्धितं भगवत: यादृशाश्च जोगजुत्ताणं जह य जगहियं ऋद्धिविशेषाः देवासुरमानुषानां भगवओ जारिसा य रिद्धिविसेसा परिषदां प्रादुर्भावाश्च जिनसमीपे, यथा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं च उपासते जिनवरं यथा च पाउब्भावा य जिणसमीवं, जह य परिकथयति धर्म लोकगुरुः उवासंति जिणवरं, जह य अमरनरसुरगणानां श्रुत्वा च तस्य परिकहेंति धम्मं लोगगुरू भाषित अवशेषकर्म-विषयविरक्ताः अमरनरसुरगणाणं, सोऊण य नराः यथा अभ्यपयन्ति धर्ममूदारं तस्स भासियं अवसेसकम्म- संयमं तपश्चापि बहुविधप्रकारं, यथा विसयविरत्ता नरा जह अब्भवेति बहूनि वषाणि अनुचर्य आराधित-ज्ञान- धम्ममुरालं संजमं तवं चावि दर्शन-चारित्र-योगा: जिनवचनानुगतबहुविहप्पगारं, जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाण - सण - चरित्त-जोगा इसमें परम मंगल और जगत् के लिए हितकर तीर्थङ्कर के समवसरण, उनके बहुविशिष्ट अतिशय तथा श्रमणगण में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, स्थिर यश वाले, परीषह सैन्य रूपी रिपु-बल का मर्दन करने वाले, तपोदिप्त चारित्र, ज्ञान और सम्यक्त्व से सफल, विविध प्रकार के विस्तार वाले प्रशस्त गुणों से संयुक्त, जो अगगार महषि हैं, जो उत्तम, श्रेष्ठ तप वाले तथा विशिष्ट ज्ञान-योग से युक्त हैं, उन जिन-शिष्यों के मुनि-गुणों का वर्णन किया गया है। इसमें जैसे भगवान् महावीर का शासन जगत् के लिए हितकर है, देव-असुर और मनुष्य पर्षदों के जिस प्रकार के ऋद्धि-विशेष तथा जिनेश्वर देव के समीप प्रादुर्भाव होता है, जिस प्रकार वे जिनेश्वर की उपासना करते हैं, जिस प्रकार लोकगुरु (महावीर) देव, नर और असुरों के गणों में धर्म-देशना देते हैं, जिस प्रकार भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म सुन कर अवशेष (क्षीणप्राय) कर्म वाले, विषयों से विरक्त मनुष्य अनेक प्रकार के संयम और तपरूपी उदार धर्म को स्वीकार करते हैं, जिस प्रकार वे अनेक वर्षों तक तप और संयम का पालन कर ज्ञान, दर्शन, Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३२८ प्रकोणक समवाय : सू० ६७ जिणवयणमणुगय - महियभासिया महित-भाषिताः जिनवरान् हृदयेन जिणवराण हियएणमणुणेत्ता, जे अनुनीय, ये च यत्र यावन्ति भक्तानि य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेदयित्वा, लब्ध्वा च समाधिमुत्तमं छेयइत्ता लभ्रूण य समाहिमुत्तमं ध्यान योगयुक्ताः उपपन्नाः झाणजोगजुत्ता उववण्णा मुनिवरोत्तमाः यथा अनुत्तरेषु मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु प्राप्नुवन्ति यथा अनुत्तरं तत्र । पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विषयसौख्यं, ततश्च च्युताः क्रमेण । विसयसोक्खं, तत्तो य चुया कमेणं करिष्यन्ति संयताः यथा च काहिति संजया जह य अन्तक्रियाम् । अंतकिरियं। चारित्र और योग की आराधना करते हैं, आचार आदि से अनुगत और पूजित जिनवचन का निरूपण कर जिनेश्वर को हृदय में प्राप्त कर जो जहां जितने भक्तों का छेदन कर, उत्तम समाधि को पाकर, ध्यान-योग से युक्त जिस प्रकार उत्तम मुनिवर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं और जिस प्रकार वहां अनुत्तर विषय सुखों को पाते हैं, वहां से च्युत होकर, क्रम से संयमी बन कर जिस प्रकार अन्तक्रिया करते हैं-उनका आख्यान किया गया है। एए अण्णे य एवमाइअत्था एते अन्ये च एवमादयः अर्थाः वित्थरण। विस्तरेण। ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं। अनुत्तरोपपातिक दशा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। अणुत्तरोववाइयवसासु णं परित्ता अनुत्तरोपपातिकदशासु परीताः वायणा संखेज्जा अणुओगदारा वाचना: संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा संख्येयाः प्रतिपत्तयः संख्येयाः वेष्टकाः वेढा संखेज्जा सिलोगा संख्येयाः श्लोकाः संख्येयाः नियुक्तयः संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संख्येयाः संग्रहण्यः । संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे एगे ताः अङ्गार्थतया नवममङ्गम् एकः । सुयक्खंधे दस अज्झयणा तिण्णि श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि त्रयो वर्गाः । वग्गा दस उद्देसणकाआ दस दश उद्देशनकालाः दश समूहशनकालाः समुद्देसणकाला संखेज्जाइं संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण, पयसयसहस्साइं पयग्गेणं, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ता: गमाः संखेज्जाणि अक्खराणि अणंता अनन्ताः पर्यवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा स्थावरा: शाश्वताः कृता: निबद्धाः अणंता थावरा सासया कडा निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः भावा: णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भावा आघविज्जंति पण्णविज्जति दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्यन्ते । परूविज्जति दंसिज्जंति निदंसिर्जति उवदंसिज्जंति। यह अंग की दृष्टि से नौवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, तीन वर्ग, दस उद्देशन-काल, दस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय लाख पद (छियालीस लाख आठ हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित बस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत. कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आघविज्जति इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'- अनुत्तरोपपातिकदशामय, 'एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है । इस प्रकार अनुत्तरोपपातिकदशा में चरण-करण-प्ररूपणा का Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो पण्णविज्जति दंसिज्जति दंसिज्जति । सेत्तं अणुत्तरोवाइयदसाओ । ३२६ परूविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते निदंसिज्जति उपदर्श्यते । तदेता अनुत्तरोपपातिकदशाः । ६८. से किं तं पण्हावागरणाणि ? वारणे अट्ठत्तरं परिणसयं अट्ठत्तरं अपसिणसयं अट्ठत्तरं पण सणस विज्जाइसया, नागसुवर्णाहि सद्धि दिव्वा संवाया आघविज्जंति । महत्था आघविज्जति । विविहत्य भासा भासियाणं अतिसय-गुण-उवसम णाणप्पगारआयरिय भासियाणं वित्थरेणं - पण्हावागरणदसासु णं ससमयप्रश्नव्याकरणदशासु स्वसमयपरसमयपरसमय पण्णवय पत्तेयबुद्ध- प्रज्ञापक प्रत्येकबुद्ध - विविधार्थभाषाभाषितानां अतिशय-गुण-उपशमज्ञानप्रकार आचार्य - भाषितानां विस्तरेण वीरमहर्षिभि: विविधविस्तरविविहवित्थर - भाषितानां च जगद्धितानां भासियाणं च जगहियाणं आदर्शाङ्गुष्ठबाहु - असि - मणिक्षौमा - अगं - बाहु-असि-मणि खोम दित्यादिकानां विविधमहाप्रश्नविद्याआतिच्चमातियाणं विविहमहा- मनः प्रश्नविद्या- दैवतप्रयोगप्रधानगुणप सिणविज्जा-मणपसिणविज्जा प्रकाशिकानां सद्भूतद्विगुणप्रभावनरdaruओगहाण - गुणप्पासियाणं गणमति विस्मयकारिणां सन्भूय विगुणप्पभाव नरगणमइ- अतिशयातीतकालसमये दमतीर्थकरोविम्हयकारीणं अतिसयमतीत - त्तमस्य स्थितिकरणकारणानां कालसमए दम तित्थकरुत्तमस्स दुरधिगमदुरवगाहस्य सर्वसर्वज्ञसम्मतस्य ठितिकरण-कारणाणं दुरहिगम- बुधजनविवोधकरस्य प्रत्यक्षकप्रत्ययदुरवगाहस्स सव्वसव्वष्णुसम्मयस्स कराणां प्रश्नानां विविधगुणमहार्थाः बुहजण विबोहकरस्स पच्चक्खय- जिनवरप्रणीताः आख्यायन्ते । पच्चय करणं पण्हाणं विविहगुणजिणवरप्पणीया - - पावागरण णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडवत्तोओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगणीओ । अथ कानि तानि प्रश्नव्याकरणानि ? प्रश्नव्याकरणेषु अष्टोत्तरं प्रश्नशतं अष्टोत्तरं अप्रश्नशतं अष्टोत्तरं प्रश्नाप्रश्नशतं विद्यातिशयाः, नागसुपर्णैः साधं दिव्याः संवादा: आख्यायन्ते । - प्रश्नव्याकरणेषु परीताः वाचना: संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः श्लोका: संख्येया: निर्युक्तय: संख्येयाः संग्रहण्यः । प्रकीर्णक समवाय: सू० ६८ आख्यान, प्रज्ञापन प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है अनुत्तरोपपातिक दशा । ६८. प्रश्नव्याकरण क्या है ? प्रश्नव्याकरण में एक सौ आठ प्रश्न", एक सौ आठ अप्रश्न", एक सौ आठ प्रश्न- अप्रश्न" विद्या के अतिशय " तथा नाग और सुपर्ण देवों के साथ हुए दिव्य संवादों का आख्यान किया गया है । इसमें स्व-समय और पर समय के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्धों द्वारा विविध अर्थवाली भाषा में भाषित, नाना प्रकार के अतिशय गुण और उपशम वाले आचार्यों द्वारा विस्तार से कथित तथा वीर महर्षियों द्वारा विविध विस्तार से कथित, जगत् के लिए हितकर, आदर्श, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, वस्त्र और आदित्य आदि से सम्बन्धित विविध प्रकार की महाप्रश्नविद्याओं" और मनः प्रश्न- विद्याओं" के अधिष्ठायक देवों के प्रयोग - प्राधान्य से गुणों को प्रकाशित करने वाली, सद्भूत द्विगुण प्रभाव से मनुष्य गण की बुद्धि को विस्मत करने वाली, सुदूर अतीत काल में उपशम प्रधान उत्तम तीर्थंकर के स्थितिकरण (स्थापना) में कारणभूत, दुर्बोध, दुरवगाह तथा अबुधजन को प्रबोध देने वाले, सर्व सर्वज्ञों द्वारा सम्मत प्रवचन -तत्त्व का प्रत्यक्ष प्रत्यय कराने वाली प्रश्न- विद्याओं के, जिनवर -प्रणीत विविध गुण वाले महान् अर्थों का आख्यान किया गया है। प्रश्नव्याकरण की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्यंय हैं और संग्रहणियां संख्ये हैं । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३३० प्रकीर्णक समवाय : सू० ६६ से णं अंगट्टयाए दसमे अंगे एगे तानि अङ्गार्थतया दशममङ्गम् एकः सुयक्खंधे (पणयालीसं श्रुतस्कन्ध: (पञ्चचत्वारिंशद अज्झयणा? ) पणयालीसं उद्देसण- अध्ययना: ?) पञ्चचत्वारिंशद् काला पणयालीसं समुद्देसणकाला उद्देशनकालाः पञ्चचत्वारिंशद् संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि समुद्देशनकालाः संख्येयानि पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अणंता पदशतसहस्राणि पदाग्रेण, संख्येयानि गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ताः अणंता थावरा सासया कडा पर्यवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः स्थावराः णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता शाश्वताः कृता: निबद्धाः निकाचिताः भावा आघविज्जंति पण्णविज्जति जिनप्रज्ञप्ताः भावाः आख्यायन्ते। परूविज्जति सिज्जति प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते निसिज्जति उवदंसिज्जति । उपदय॑न्ते। यह अंग की दृष्टि से दसवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध (पैतालीस अध्ययन" ?), पैंतालीस उद्देशन-काल, पैतालीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय लाख पद (बानवे लाख सोलह हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दयते निदर्श्यते पण्णविज्जति परूविज्जति उपदर्श्यते। तदेतानि प्रश्नदसिज्जति निदंसिज्जति व्याकरणानि। उवदंसिज्जति । सेत्तं पण्हावागरणाई। EE. से किं तं विवागसुए? अथ किं तत् विपाकश्रुतम् ? विवागसए णं सुक्कडदुक्कडाणं विपाकश्रुते सुकृतदुष्कृतानां कर्मणां कम्माणं फलविवागे फलविपाकः आख्यायते। आधविज्जति। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-प्रश्नव्याकरणमय, ‘एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' बन जाता है। इस प्रकार प्रश्नव्याकरण में चरणकरण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है प्रश्नव्याकरण"। ६६. विपाकश्रुत क्या है ? विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फल-विपाक का आख्यान किया गया है। वह संक्षेप में दो प्रकार का हैदुःखविपाक और सुख विपाक । उनमें दस दुःखविपाक हैं और दस सुखविपाक । दुःखविपाक क्या है ? से समासओ दुविहे पण्णत्ते, स समासतः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथातं जहा-दुहविवागे चेव, दुःखविपाकश्चैव सुखविपाकश्चैव । तत्र सुहविवागे चेव । तत्थ णं दह दश दुःखविपाका: दश सुखविपाकाः । दुहविवागाणि वह सुहविवागाणि। से कि तं दुहविवागाणि ? अथ के ते दुःखविपाका:? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई दुःखविपाकेषु दुःखविपाकानां नगराणि उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाई उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्या: धम्मायरिया धम्मकहाओ धर्मकथाः नगरगमणानि संसारप्रबन्धः नगरगमणाई संसारपबंधे दुःखपरम्परा च आख्यायते। तदेते दुहपरंपराओ य आघविज्जति। दुःखविपाकाः । सेत्तं दुहविवागाणि। से कि तं सुहविवागाणि? अथ के ते सुखविपाकाः ? दुःखविपाक में दुःखविपाक वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, नगर-गमन, संसार का प्रबन्ध और दुःख परम्पराओं का आख्यान किया गया है। वह दुःख विपाक है। सुखविपाक क्या है ? Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३३१ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६६ सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराई सुखविपाकेषु सुखविपाकानां नगराणि उज्जाणाई चेइयाइं वणसंडाइं उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः रायाणो अम्मापियरो अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्या: समोसरणाई धम्मायरिया धर्मकथाः ऐहलौकिक-पारलौकिकाः । धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया ऋद्धिविशेषाः भोगपरित्यागा: प्रव्रज्या: इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया श्रुतपरिग्रहाः तपउपधानानि पर्याया: पव्वज्जाओ सयपरिग्गहा संलेखना: भक्तप्रत्याख्यानानि तवोवहाणाई परियागा प्रायोपगमनानि देवलोकगमनानि संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई सूकूलप्रत्याजाति: पूनर्बोधिलाभः पाओवगमणाई देवलोगरामणा अन्तक्रियाश्च आख्यायन्ते । सुकुलपच्चायाती पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविज्जति । सुखविपाक में सुखविपाक वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनपंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, दीक्षा-पर्याय, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, देवलोक-गमन, सुकुल में पुनरागमन, पुन: बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। दुहविवागेसु णं पाणाइवाय- दुःखविपाकेषु प्राणातिपात-अलीकवचनअलियवयण - चोरिक्ककरण- चौर्यकरण - परदारमैथनससङ्गतया परदारमेहुणससंगयाए महतिव्व- महतोकषाय-इन्द्रियप्रमाद-पापप्रयोगकसाय-इंदियप्पमाय - पावप्पओय- अशभाध्यवसानसञ्चितानां कर्मणां असुहझवसाण-संचियाण कम्माण पापकानां पापअनुभाग-फलविपाकाः पावगाणं पावअणुभाग-फलविवागा निरयगति-तिर्यग्योनि - बहुविध-व्यसनणिरयगति-तिरिक्खजोणि-बहुविह- शतपरम्पराप्रबद्धानां मनुजत्वेऽपि वसणसय - परंपरापबद्धाण, आगतानां यथा पापकर्मशेषण पापका मणयत्तेवि आगयाणं जहा भवन्ति फलविपाकाः । पावकम्मसेसेण पावगा होंति फलविवागा। दुःखविपाक में प्रागातिपात, मृपावाद, चौर्यकरण, परदार-मैथुन, परिग्रह के द्वारा महातीव्र कषाय, इन्द्रिय, प्रमाद, पाप-प्रयोग और अशुभ अध्यवसाय के द्वारा संचित पापकर्मों के अशुभ अनुभाग वाले फल विपाक का आख्यान किया गया है। नरकगति और तिर्यञ्च योनि में बहुविध व्यसनशत (सैकड़ों कष्टों) की परम्परा से बद्ध जीवों के मनुष्य जन्म में आ जाने पर भी जिस प्रकार अवशिष्ट कर्मों के फलविपाक अशुभ होते हैं उनका आख्यान किया गया है। वहवसणविणास - नासकण्णोठें- वधवृषणविनाश-नाश- कौंष्ठाङ गुष्ठगुटकरचरणनहच्छेयणजिब्भछेयण- करचरणनखच्छेदन - जिह्वाछेदनअंजण-कडग्गिदाहण - गयचलण- अञ्जन-कटाग्निदाहन-गज- चरणमर्दनमलणफालणउल्लंबण - सूललया- स्फाटन-उल्लम्बन-शूल-लता-लकुटयष्टि लउडलटिभंजण - तउसोसगतत्त- भजन-त्रपु-सोसक-तप्त - तैलकलकलतेल्लकलकलअभिसिंचणकुंभिपाग- अभिसिञ्चन - कुम्भोपाक - कम्पनकंपण - थिरबंधण-वेहवज्झकत्तण- स्थिरबन्धन-वेध-वर्द्धकर्तन-प्रतिभयकर - पतिभयकर - करपलीवणादि- करप्रदीपनादिदारुणानि दुःखानि दारुणाणि दुक्खाणि इसमें वध, वृषण-विनाश (नपुंसककरण), नासिका, कान, होठ, अंगुष्ठ, हाथ, चरण और नखों का छेदन, जीभ का छेदन, लोहे की गर्म शलाका से आंखों का आंजना, कटाग्नि से जलाना, हाथी के पैरों से कुवलना, विदारण करना, ऊंचे लटकाना, शूल, लता, लकड़ी और लाठी से शरीर का भंग करना, उबलते हुए वपु, शीसे और गरम तेल से सींचना, कुंभी में पकाना, ठंडे प्रयोगों से शरीर को प्रकंपित करना, निबिड़ रूप से बांधना, वेधना (शस्त्र से भेदन करना), चमड़ी उधेड़ना, हाथों में भय उत्पन्न करने वाली अग्नि जलाना-आदि अनुपम Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६६ दारुण दुःखों का आख्यान किया गया समवानो ३३२ अणोवमाणि बहुविविहपरंपराणु- अनुपमानि बहुविधिपरम्परानुबद्धाः न बद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए। मुच्यन्ते पापकर्मवल्ल्या। अवेदयित्वा अवेयइत्ता हु त्थि मोक्खो नास्ति मोक्षः तपसा धृति-धणिय तवेण धिइ-धणिय-बद्ध-कच्छेण (अत्यर्थ)-बद्ध-कक्षेण शोधनं तस्य सोहणं तस्स वावि होज्जा। वापि भवेत् । दुखों की बहुत विविध परंपरा से अनुबद्ध जीव पाप कर्मरूपी वल्ली से मुक्त नहीं होते। कर्मों का वेदन किये बिना उनसे छुटकारा नहीं होता अथवा प्रबल धृतिबल से कटिबद्ध तप के द्वारा उसका शोधन भी हो सकता है। एत्तो य सुहविवागेसु सील-संजम- इतश्च सुखविपाकेषु शोल-संयम-नियमणियम-गुण - तवोवहाणेसु साहुसु गुण-तप उपधानेषु साधुषु सुविहितेषु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पओग- अनुकम्पा।शयप्रयोग - त्रिकालतिकाल - मइविसुद्ध - भत्तपाणाई मतिविशुद्धभक्तपानानि प्रयतमनसा पयतमणसा हिय-सुह-नोसेस- हित - सुख - निःश्रेयस- तीव्रपरिणामतिव्वपरिणाम - निच्छियमई निश्चितमतयः प्रदाय प्रयोगशुद्धानि पयच्छिऊणं पओगसुद्धाइं जह य यथा च निवर्त्तयन्ति तु बोधिलाभं, निव्वत्तेति उ बोहिलाभ, जह य यथा च परीतीकुर्वन्ति नर-निरयपरित्तीकरेंति नर-निरय-तिरिय- तिर्यक्-सुरगति - गमन - विपुलपरिवर्तसुरगतिगमण - विपुलपरियट्ट- अरतिभय - विषाद - शोक - मिथ्यात्वअरति - भय - विसाय . शैलसङ्कटं अज्ञानतमोऽन्धकारसोक - मिच्छत्त . सेलसंकडं 'चिक्खिल्ल' सुदुस्तरं जरा-मरण-योनि अण्णाणतमंधकार - चिक्खिल्ल- संक्षुब्ध-चक्रवालं षोडश कषाय-श्वापदसुदुत्तारं जर-मरण-जोणि- प्रकाण्ड-चण्डं अनादिकं अनवदग्रं संखुभियचक्कवालं सोलसकसाय- संसारसागरमिमं, यथा च निबध्नन्ति सावय-पयंड-चंडं अणाइयं आयुष्कं सुरगणेषु, यथा च अनुभवन्ति अणवदग्गं संसारसागरमिणं, जह सुरगणविमानसौख्यानि अनुपमानि, य निबंधंति आउगं सुरगणेसु, जह ततश्च कालान्तरच्युतानां इहैव य अणुभवंति सुरगणविमाण- नरलोकमागतानां आयुर्वपु-वर्ण-रूपसोक्खाणि अणोवमाणि, ततो य जाति-कुल - जन्म-आरोग्य- बुद्धि-मेधाकालंतरच्चुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ-वउ-वण्णरूव-जाति-कुल - जम्म - आरोग्गबुद्धि-महा-विसेसा मित्तजण-सयण सुखविवाक में शील, संयम, नियम, गुण और तप-उपधान को धारण करने वाले सुविहित साधुओं को अत्यन्त आदर वाले, हितकारक, सुखकारक और कल्याणकारक तीव्र अध्यवसाय तथा निश्चित मति वाले व्यक्ति अनुकम्पा के आशय-प्रयोग से तथा दान देने की त्रैकालिक मति से विशुद्ध तथा प्रयोग-शुद्ध (दाता, दानव्यापार की अपेक्षा से शुद्ध) भक्त-पान दे कर जिस प्रकार बोधि को प्राप्त करते हैं, उसका आख्यान किया गया है। इसमें नर, नारक, तिर्यञ्च और देवगति में गमन करने के लिए विपुल आवर्त वाले, अरति, भय, विषाद, शोक और मिथ्यात्वरूपी पर्वतों से संकुल, अज्ञानरूपी अंधकार से परिपूर्ण, दुःख से पार किए जाने वाले कीचड़ से युक्त, जरा-मरण और जन्म से संक्षुब्ध चक्रवाल से युक्त, सोलह कषाय रूपी अत्यन्त रौद्र श्वापदों से युक्त अनादि-अनन्त संसार सागर को जिस प्रकार परिमित करते हैं-उसका आख्यान किया गया। जिस प्रकार देवलोक में जाने के लिए वे आयुष्य का बंध करते हैं, जिस प्रकार देव-विमानों के अनुपम सुखों का अनुभव करते हैं, वहां से कालान्तर में च्युत हो इसी मनुष्य लोक में आकर विशिष्ट प्रकार के आयुष्य, शरीर, वर्ण, रूप, जाति, कुल, जन्म, आरोग्य, बुद्धि और मेधा को प्राप्त करते हैं तथा Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो धण धण्ण विभव समिद्धिसार विशेषा: सविसेस भोभवाण सुहविवागोत्तमे । अणुवरयपरंपरानुबद्धा असुभाष सुभाण चैव कम्माण भासिआ बहुविहा विवागा विवागसूयम्मि जिणवरेण भगवया संवेगकारणत्था | मित्रजन-स्वजन-धन-धान्य बहुविकाम - विभव समृद्धिसार - समुदयविशेषाः सोक्खाण बहुविधकामभोगोद्भवानां सौख्यानां विपषु । अवि य एवमाइया, बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविज्जति । विवागसुअस्स णं परिता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पवित्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तोओ संखेज्जाओ संगहणीओ । सेणं अंगट्टयाए एक्कारसमे अंगे वोसं अज्झषणा वीसं उद्देणकाला वीसं समुद्दे सणकाला संखेज्जाई पयस्य सहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जाई अक्खराई अनंता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा अनंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जंति परुविज्जंति निदंसिज्जंति दंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । से एवं आया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चरण-करण आधविज्जति परूवणया ३३३ - अनुपरतपरम्परानुबद्धाः अशुभानां शुभानां चैव कर्मणां भाषिता: बहुविधा: विपाकाः विपाकश्रुते भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः । अन्येऽपि च एवमादिका बहुविधा विस्तरेण अर्थप्ररूपणा आख्यायते । विपाकश्रुतस्य परीता: वाचनाः संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येया: प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टका: संख्येया: श्लोका: संख्येयाः निर्युक्तयः संख्येयाः संग्रहण्यः । तत् अङ्गार्थतया एकादशमङ्गं विशतिः अध्ययनानि विंशतिः उद्देशनकाला: विशतिः समुद्देशनकाला : संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ताः पर्यवा: परोतास्त्रसा: अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धाः निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः भावा: आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । अथ एवमात्मा एव ज्ञाता एवं विज्ञाता एवं चरण- करण- प्ररूपणा आख्यायते प्रकीर्णक समवाय: सू० ह विशिष्ट प्रकार के मित्रजन, स्वजन, धनधान्य, वैभव, समृद्धि और सार ( सुगन्धी द्रव्य) के समुदय को प्राप्त करते हैं तथा बहुविध कामभोगों से उत्पन्न विशिष्ट प्रकार के सुखों को उत्तम शुभ विपाक वाले जीव प्राप्त करते हैं— उनका आख्यान किया गया है | वैराग्य उत्पन्न करने के लिए भगवान् जिनेश्वर देव ने अविच्छिन्न परम्परा से अनुबद्ध अशुभ और शुभ कर्मों के अनेक प्रकार के विपाकों का वर्णन इस विपाकश्रुत में किया है । ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं । विपाकश्रुत की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्ये हैं । यह अङ्ग की दृष्टि से ग्यारहवां अंग है । इसके बीस अध्ययन, बीस उद्देशनकाल, बीस समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से संख्येय लाख पद ( एक करोड़ चौरासी लाख बत्तीस हजार ), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला, 'एवमात्मा' - विपाकश्रुतमय ' एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री पण्णविज्जति परुविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उबदंसिज्जति । सेत्तं विवागसुए । १००. से कि तं दिट्टिवाए ? दिट्टिवाए णं सव्वभावपरूवणया आघविज्जति । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहापरिकम्मं सुत्ताई पुव्वगयं १०१. से किं तं परिकम्मे ? परिकम्मे तं जहा सिद्धसेणियापरिकम्मे मनुस्ससेणिया परिकम्मे सेणियापरिकम्मे ओगणसेणियापरिकम्मे उवसंपज्जण सेणियापरिकम्मे विप्पजहण सेणियापरिकम्मे चुयाचुय सेणियापरिकम्मे । १०२. से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ? सिद्धसेणियापरिकम्मे चोदसविहे पण्णत्ते, तं जहा तत् परिकर्म ? सत्तविहे पण्णत्ते, परिकर्म सप्तविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा माज्यापयाणि, एगट्टियपयाणि, अट्ठपयाणि, पाढो, आगासपयाणि केभूयं, रासिबद्ध, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारडिग्गहो, नंदावत्तं, सिद्धावत्तं । सेत्तं सिद्धसेणियापरिकम्मे । १०३. से कि तं मणुस्स सेणियापरिकम्मे ? मणुस्ससेणियापरिकम्मे चोहसविहे पण्णत्ते तं जहा - ३३४ प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते उपदर्श्यते । तदेतद् विपाकश्रुतम् । अथ कोऽसौ दृष्टिवाद: ? दृष्टिवादे सर्वभावप्ररूपणा आख्यायते । स समासतः पंचविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा - परिकर्म सूत्राणि अनुयोगः चूलिका । पूर्वगतं सिद्धश्रेणिकापरिकर्म मनुष्यश्रेणिका परिकर्म पृष्ट श्रेणिकापरिकर्म अवगाहनश्रेणिकापरिकर्म उपसम्पादनश्रेणिकापरिकर्म विप्रहाणश्रेणिकापरिकर्म च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्म । Rafi तत् सिद्धश्रेणिक परिकर्म ? सिद्धश्रेणिकापरिकर्म प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- चतुर्दशविध मातृकापदानि एकार्थपदानि अर्थपदानि, पाठ, आकाशपदानि, केतुभूतं, राशिबद्ध, एकगुणं द्विगुणं, त्रिगुणं, केतुभूतप्रतिग्रहः, संसारप्रतिग्रहः, नन्द्यावर्त्तं, सिद्धावर्तम् । तदेतत् सिद्धश्रेणिकापरिकर्म । अथ किं तत् मनुष्य श्रेणिकापरिकर्म ? मनुष्यश्रेणिका परिकर्म प्रज्ञप्तम्, तद्यथा चतुर्दशविध प्रकीर्णक समवाय: सू० १००-१०३ प्रकार विपाकश्रुत में चरण-करणप्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है विपाकश्रुत । १००. दृष्टिवाद" क्या है ? दृष्टिवाद में सर्व भावों की प्ररूपणा की गई है। संक्षेप में वह पांच प्रकार का है - १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत", ४. अनुयोग, ५. चूलिका " । १०१. परिकर्म क्या है ? परिकर्म सात प्रकार का है— १. सिद्धश्रेणिका परिकर्म २. मनुष्य श्रेणिका परिकर्म ३. स्पृष्ट श्रेणिका परिकर्म ४. अवगाहनश्रेणिका परिकर्म ५. उपसंपादनश्रेणिका परिकर्म ६. विप्राणश्रेणिका परिकर्म ७. च्युतायुश्रेणिका परिकर्म १०२. सिद्धश्रेणिका परिकर्म क्या है ? सिद्धश्रेणिका परिकर्म चौदह प्रकार का है— १. मातृकापद २. एकार्थकपद ३. अर्थपद ४. पाठ ८. एक गुण ६. द्विगुण १०. त्रिगुण ११. केतुभूतप्रतिग्रह १२. संसारप्रतिग्रह १३. नन्द्यावर्त १४. सिद्धावर्त । ५. आकाशपद ६. केतुभूत ७. राशिबद्ध यह सिद्धश्रेणिका परिकर्म है । १०३. मनुष्य श्रेणिका परिकर्म क्या है ? मनुष्यश्रेणिका परिकर्म चौदह प्रकार का है— Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३३५ प्रकोणक समवाय : सू० १०४-१०६ माउयापयाणि, एगट्टियपयाणि, मातृकापदानि, एकाथिकपदानि, १. मातृकापद ८. एकगुण अट्ठपयाणि, पाढो, आगासपयाणि, अर्थपदानि, पाठः, आकाशपदानि, २. एकाथिकपद ६. द्विगुण केउभूयं, रासिबद्धं, एगगुणं, केतुभूतं, राशिबद्धं, एकगुणं, द्विगुणं, ३. अर्थपद १०. त्रिगुण दुगुणं तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, त्रिगुणं, केतुभूतप्रतिग्रहः, संसार- ४. पाठ ११. केतुभूतप्रतिग्रह संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, प्रतिग्रहः, नन्द्यावर्त्त, मनुष्यावर्त्तम् । ५. आकाशपद १२. संसारप्रतिग्रह मणस्सावत्तं। ६. केतुभूत १३. नन्द्यावर्त ७. राशिबद्ध १४. मनुष्यावर्त । सेत्तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे। तदेतत् मनुष्यश्रेणिकापरिकर्म । यह मनुष्यश्रेणिका परिकर्म है। १०४. से किं तं पुट्ठसेणियापरिकम्मे ? अथ किं तत् स्पृष्टश्रेणिकापरिकर्म ? १०४. स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म क्या है ? पुट्ठसेणियापरिकम्मे एक्कारसविहे स्पृष्टश्रेणिकापरिकर्म एकादशविधं स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार पण्णत्ते, तं जहाप्रज्ञप्तम्, तद्यथा का हैपाढो, आगासपयाणि, केउभूयं, पाठः आकाशपदानि, केतुभूतं, राशिबद्धं, । १. पाठ ७. त्रिगुण रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, एकगुणं, द्विगुणं, त्रिगुणं, केतुभूतप्रतिग्रहः, २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, संसारप्रतिग्रहः, नन्द्यावर्त, स्पृष्टा- ३. केतुभूत ६. संसारप्रतिग्रह नंदावत्तं, पुट्ठावत्तं । वर्तम् । ४. राशिबद्ध १०. नंद्यावर्त ५. एकगुण ११. स्पृष्टावर्त । ६. द्विगुण । सेत्तं पुट्ठसेणिया परिकम्मे। तदेतत् स्पृष्टश्रेणिकापरिकर्म । यह स्पृष्टश्रेणिका परिकर्म है। १०५. से किं तं ओगाहणसेणिया- अथ किं तत् अवगाहनश्रेणिकापरिकर्म ? १०५ अवगाहनश्रेणिका परिकर्म क्या है ? परिकम्मे ? ओगाहणसेणियापरिकम्मे अवगाहनश्रेणिकापरिकर्म एकादशविध एक्कारसविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रज्ञप्तम्, तद्यथा अवगाहनश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है पाढो, आगासपयाणि, केउभूयं, पाठः, आकाशपदानि, केतुभूतं, रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, राशिबद्धं, एकगुणं, द्विगुणं, त्रिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो केतुभूतप्रतिग्रहः संसारप्रतिग्रहः, नंदावत्तं, ओगाहणावत्तं । नन्द्यावर्त, अवगाहनावर्तम् । १. पाठ ७. त्रिगुण २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह ३. केतुभूत ६. संसारप्रतिग्रह ४. राशिबद्ध १०. नंद्यावर्त ५. एकगुण ११. अवगाहनावर्त । ६. द्विगुण । सेत्तं ओगाहणसेणियापरिकम्मे। तदेतत् अवगाहनश्रेणिकापरिकर्म । यह अवगाहनश्रणिका परिकर्म है। १०६. से कि तं उवसंपज्जणसेणिया- अथ किं तत् १०६. उपसंपादनश्रेणिका परिकर्म क्या है ? परिकम्मे ? उपसंपादनश्रेणिकापरिकर्म? उवसंपज्जणसेणियापरिकम्मे उपसंपादनश्रेणिकापरिकर्म एकादविधं उपसंपादनथेणिका परिकर्म ग्यारह एक्कारसविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रज्ञप्तम्, तद्यथा प्रकार का है Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकोणक समवाय : सू० १०७-१०६ पाढो, आगासपयाणि, केउभूयं, पाठः, आकाशपदानि, केतुभूतं, १. पाठ ७.त्रिगुण रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, राशिबद्धं, एकगुणं, द्विगुणं, त्रिगुणं, २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, केतुभूतप्रतिग्रहः, संसारप्रतिग्रहः, ३ केतुभूत ६. संसारप्रतिग्रह नंदावत्तं, उवसंपज्जणावत्तं। नन्द्यावर्त्त, उपसंपादनावर्तम् । ८. राशिबद्ध १०. नंद्यावर्त ५. एकगुण ११. उपसंपादनावर्त । ६. द्विगुण । सेत्तं उवसंपज्जणसेणिया तदेतत् उपसंपादनश्रेणिकापरिकर्म । यह उपसंपादनश्रेणिका परिकर्म है। परिकम्मे । १०७. से कि तं विप्पजहणसेणिया- अथ किं तत् विप्रहाणश्रेणिकापरिकर्म? १०७. विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म क्या है ? परिकम्मे ? विप्पजहणसेणियापरिकम्मे विप्रहाणश्रेणिकापरिकर्म एकादशविधं विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार एक्कारसविहे पण्णत्ते तं जहा- प्रज्ञप्तम्, तद्यथा का हैपाढो, आगासपयाणि, केउभूयं, पाठः, आकाशपदानि, केतुभूतं, १. पाठ ७ त्रिगुण रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, राशिबद्धं, एकगुणं, द्विगुणं, २ आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, त्रिगुणं, केतुभूतपतिग्रहः, संसारप्रति ग्रहः, ३. केतुभूत ६. संसारप्रतिग्रह नंदावत्तं, विप्पजहणावत्तं। नन्द्यावर्त्त, विप्रहाणावर्तम् । ४. राशिबद्ध १०. नंद्यावर्त ५. एकगुण ११. विप्रहाणावर्त ।। ६. द्विगुण। सेत्तं विप्पजहणसेणियापरिकम्मे। तदेतत विप्रहाणश्रेणिकापरिकर्म । यह विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म है। १०८. से कि तं चयाचुयसेणिया- अथ किं तत् च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्म? १०८. च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म क्या है ? परिकम्मे ? चुयाचुयसेणियापरिकम्मे एक्का- च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्म एकादशविधं च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म ग्यारह रसविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रज्ञप्तम्, तद्यथा प्रकार का हैपाढो, आगासपयाणि, केउभूयं, पाठः, आकाशपदानि, केतुभूतं, १. पाठ ७. त्रिगुण रासिबद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, राशिबद्धं, एकगुणं, द्विगुणं, २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो त्रिगुणं, केतुभूतप्रतिग्रहः, संसारप्रतिग्रहः, ३. केतुभूत ६. संसारप्रतिग्रह नंदावत्तं, चुयाचुयावत्तं। नन्द्यावर्त्त, च्युताच्युतावर्तम् । ४. राशिबद्ध १०, नंद्यावर्त ५. एकगुण ११. च्युताच्युतावर्त । ६. द्विगुण । सेत्तं चुयाचुयसेणियापरिकम्मे। तदेतत् च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्म। यह च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म है। १०६. इच्चेयाइं सत्त परिकम्माइंछ इत्येतानि सप्त परिकर्माणि षट १०६. ये सात परिकर्म हैं। इनमें प्रथम छह ससमइयाणि सत्त आजीवियाणि, स्वसामयिकानि सप्त आजीविकानि षट स्व-समय के प्रज्ञापक हैं और सातवां छ चउक्कणइयाणि सत्त तेरासि- चतष्कनयिकानि सप्त त्रैराशिकानि । (च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म) आजीवक याणि । मत का प्रज्ञापक हैं । तथा छह परिकर्म चार नय वाले हैं और एक (सातवां) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३३७ प्रकीर्णक समवाय : सू० ११०-११२ एवामेव सपुव्वावरेणं सत्त एवमेव सपर्वापरेण सप्तपरिकर्माणि परिकम्माइं तेसीति भवंतीति- त्र्यशीतिः भवन्तीत्याख्यातानि । मक्खायाइं । सेत्तं परिकम्मे। तदेतत् परिकर्म। त्रैराशिक-तीन नय वाला है। इस प्रकार कुल मिलाकर इन सात परिकर्मों के तिरासी भेद होते हैं। यह परिकर्म ११०. से कि तं सुत्ताई? अथ कानि तानि सूत्राणि ? ११०. सूत्र क्या है ? सुत्ताइं अट्ठासोतिभवंतीति- सूत्राणि अष्टाशीतिः सूत्र अट्ठासी हैं, ऐसा कहा गया है, मक्खायाइं तं जहाभवन्तीत्याख्यातानि, तद्यथा जैसेउज्जुगं, परिणयापरिणयं, ऋजुकं, परिणतापरिणतं, बहुभंगिकं, १. ऋजुक १२. नंद्यावर्त बहुभंगिय, विजयचरियं, अणंतरं, विजयचरित, अनन्तरं, परम्परं, सत्, २. परिणतापरिणत १३. बहुल परंपरं, सामाणं, संजूह, भिण्णं, संयूथं, भिन्न, यथात्यागः, सौवस्तिकं ३. बहुभंगिक १४. पृष्टापृष्ट आहच्चायं, सोवत्थियं घंट, घण्टं, नन्द्यावतं, बहुलं, पृष्टापृष्टं, ४. विजयचरित १५. व्यावर्त नंदावत्तं, बहुलं, पुट्ठापुढें, व्यावर्त, एवंभूतं, यावर्त, वर्तमानपदं, ५. अनंतर १६. एवंभूत वियावत्तं, एवंभूयं, दुआवत्तं, समभिरूढं, सर्वतोभद्रं, पन्यासं, ६. परंपर १७. द्विकावर्त वत्तमाणुप्पयं, समभिरूढं, द्विप्रतिग्रहम् । १८. वर्तमानपद सव्वओभई, पण्णासं, दुपडिग्गहं । ८. संयूथ १६. समभिरूढ़ ६. भिन्न २०. सर्वतोभद्र १०. यथात्याग २१. पन्यास ११. सौवस्तिक घंट २२. द्विप्रतिग्रह। ७. सत् १११. इच्चेयाइं बावीसं छिण्णछेयनइयाणि सुत्तपरिवाडीए। सुत्ताई इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि १११. ये बाईस सूत्र स्व-समय की परिपाटी ससमय- छिन्नच्छेदनयिकानि स्वसमयसूत्र (जैनागम पद्धति) के अनुसार छिन्नछेदपरिपाट्या। नयिक होते हैं। इच्चेयाई बावीसं सुत्ताई इत्येतानि द्वाविंशतिः अच्छिपणछेयनइयाणि आजोविय- अच्छिन्नच्छेदनयिकानि सुत्तपरिवाडीए। सूत्रपरिपाटया। सूत्राणि आजीविक ये बाईस सूत्र आजीवक परिपाटी के अनुसार अच्छिन्नछेद-नयिक होते हैं। ये बाईस सूत्र त्रैराशिक परिपाटी के अनुसार त्रिक-नयिक होते हैं। इच्चेयाई बावीस सुत्ताई इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि तिकनइयाणि तेरासियसुत्त- त्रिकनयिकानि त्रैराशिकसूत्रपरिपरिवाडीए। पाट्या। इच्चेयाई बावीस सुत्ताई इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि चउक्कनइयाणि ससमयसुत्त- चतुष्कनयिकानि स्वसमयसूत्रपरि- परिवाडीए। पाट्या। ये बाईस सूत्र स्व-समय परिपाटी के अनुसार चतुष्क-नयिक होते हैं । इस प्रकार कुल मिलाकर अट्ठासी सूत्र होते हैं । यह सूत्र है। एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीति एवमेव सपूर्वापरेण अष्टाशीतिः सुत्ताइं भवतीतिमक्खायाणि। सूत्राणि भवन्तीति आख्यातानि । तानि सेत्तं सुत्ताई। एतानि सूत्राणि। ११२. से कि तं पुव्वगए ? अथ किं तत् पूर्वगतम् ? ११२. पूर्वगत क्या है ? Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३३८ प्रकीर्णक समवाय : सू० ११३-१२४ पुव्वगए चउद्दसविहे पण्णत्ते, पूर्वगतं चतुर्दश विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- पूर्वगत चौदह प्रकार का हैतं जहाउप्पायपुव्वं, अग्गेणीयं, वीरियं, उत्पादपूर्वं, अग्रेणीयं, वीर्य, १. उत्पादपूर्व ८. कर्मप्रवाद अत्थिणत्थिप्पवायं, नाणप्पवायं, अस्तिनास्तिप्रवाई, ज्ञानप्रवादं २. अग्रेणीय ६. प्रत्याख्यान सच्चप्पवाय, आयप्पवायं, सत्यप्रवादं, आत्मप्रवादं, कर्मप्रवाद, ३. वीर्य १०. विद्यानुप्रवाद कम्मप्पवायं, पच्चक्खाणं, प्रत्याख्यानं, विद्यानुप्रवाद, अवन्ध्यं, ४. अस्ति-नास्तिप्रवाद ११. अवंध्य विज्जाणुप्पवायं, अवंझ, पाणाउं, प्राणायुः, क्रियाविशालं, ५. ज्ञानप्रवाद १२. प्राणायु किरियाविसालं, लोबिंदुसारं। लोकबिन्दुसारम् । ६. सत्यप्रवाद १३. क्रियाविशाल ७. आत्मप्रवाद १४. लोकबिन्दुसार । ११३. उप्पायपुव्वस्स णं दस वत्थू, उत्पादपूर्वस्य दश वस्तूनि, चत्वारि ११३. उत्पाद पूर्व के दस वस्तु" और चार चत्तारि चूलियावत्थू पण्णत्ता। चूलिकावस्तूनि प्रज्ञप्तानि । चूलिका-वस्तु" हैं । ११४. अग्गेणियस्स णं पुव्वस्स चोद्दस अग्रेणीयस्य पूर्वस्य चतुर्दश वस्तूनि, ११४. अग्रेणीय पूर्व के चौदह वस्तु और वत्थू, बारस चूलियावत्थू पण्णत्ता। द्वादश चूलिकावस्तूनि प्रज्ञप्तानि। बारह चूलिका-वस्तु हैं। ११५. वीरियस्स णं पुवस्स अट्ठ वत्थू, वीर्यपूर्वस्य अष्ट वस्तूनि, अष्ट ११५. वीर्य पूर्व के आठ वस्तु और आठ अट्ट चूलियावत्थू पण्णत्ता। चूलिकावस्तुनि प्रज्ञप्तानि। चूलिका-वस्तु हैं। ११६. अत्थिणत्थिप्पवायस्स णं पुव्वस्स अस्तिनास्तिप्रवादस्य पूर्वस्य ११६. अस्ति-नास्तिप्रवाद पूर्व के अट्ठारह अट्ठारस वत्थ, दस चूलियावत्थू अष्टादश वस्तूनि, दश चूलिकावस्तूनि वस्तु और दस चूलिका-वस्तु हैं। पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ११७. नाणप्पवायस्स णं पुव्वस्स बारस ज्ञानप्रवादस्य पूर्वस्य द्वादश वस्तूनि ११७. ज्ञानप्रवाद पूर्व के बारह वस्तु हैं। वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ११८. सच्चप्पवायस्स णं पुवस्स दो सत्यप्रवादस्य पूर्वस्य द्वे वस्तूनी प्रज्ञप्ते। ११८. सत्यप्रवाद पूर्व के दो वस्तु हैं। वत्य पण्णत्ता। ११६. आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स सोलस आत्मप्रवादस्य पूर्वस्य षोडश वस्तूनि ११६. आत्मप्रवाद पूर्व के सोलह वस्तु हैं । वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । १२०. कम्मप्पवायस्स णं पुवस्स तीसं कर्मप्रवादस्य पूर्वस्य त्रिंशद् वस्तूनि १२०. कर्मप्रवाद पूर्व के तीस वस्तु हैं । वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । १२१. पच्चक्खाणस्स णं पुवस्स वीसं प्रत्याख्यानस्य पूर्वस्य विंशतिः वस्तूनि १२१. प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु हैं । वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । १२२. विज्जाणुप्पवायस्स णं पुव्वस्स विद्यानुप्रवादस्य पूर्वस्य पञ्चदश १२२. विद्यानुप्रवाद पूर्व के पन्द्रह वस्तु हैं । पनरस वत्थू पण्णत्ता। वस्तूनि प्रज्ञप्तानि । १२३. अवंझस्स णं पुवस्स बारस अवन्ध्यस्य पूर्वस्य द्वादश वस्तूनि १२३. अवंध्य पूर्व के बारह वस्तु हैं । वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। १२४. पाणाउस्स णं पुव्वस्स तेरस पत्थू प्राणायुषः पूर्वस्य त्रयोदश वस्तूनि १२४. प्राणायु पूर्व के तेरह वस्तु हैं । पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३३६ प्रकीर्णक समवाय : सू० १२५-१२८ १२५. किरियाविसालस्स णं पुवस्स क्रियाविशालस्य पूर्वस्य त्रिंशद् वस्तूनि १२५. क्रियाविशाल पूर्व के तीस वस्तु हैं । तीसं वत्थू पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । चिया- विशांत. १२६. लोबिंदसारस्स णं पुवस्स लोकबिन्दुसारस्य पूर्वस्य पञ्चविंशति: १२६. लोकबिन्दुसार पूर्व के पच्चीस वस्तु हैं । पणुवीसं वत्थू पण्णत्ता। वस्तूनि प्रज्ञप्तानि । १. दस चोइस अद्वारसेव दशचतुर्दश अष्टाष्टादशैव, इन तीन गाथाओं में चौदह पूवों के बारस दुवे य वत्थणि । द्वादश द्वे च वस्तूनि। वस्तुओं और चूलिका-वस्तुओं का वही सोलस तोसावीसा, षोडश त्रिशद प्रतिपादन है जो उक्त गद्यभाग में किया पण्णरस अणुप्पवायंमि ॥ पञ्चदशानुप्रवादे गया है। २. बारस एक्कारसमे, द्वादश एकादशे, बारसमे तेरसेव वत्थूणि। द्वादशे त्रयोदशैव वस्तूनि । तीसा पुण तेरसमे, त्रिंशत् पुनस्त्रयोदशे, चोदसमे पण्णवीसाओ। चतुर्दशे पञ्चविंशतिः ॥ ३. चत्तारि दुवालस अट्ठ, चत्वारि द्वादश अष्ट, चेव दस चेव चूलवत्थूणि। चैव दश चैव चूलवस्तूनि । आतिल्लाण चउण्हं, आदिकानां चतुर्णा, सेसाणं चलिया णत्थि ।। शेषाणां चूलिका नास्ति ।। सेत्तं पुव्वगए। तदेतत् पूर्वगतम् । यह पूर्वगत है। १२७. से कि तं अणुओगे ? अथ कोऽसौ अनुयोग:? १२७. अनुयोग क्या है ? अणुओगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- अनुयोगः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- अनुयोग दो प्रकार का हैमूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे मूलप्रथमानुयोगश्च कण्डिकानुयोगश्च ।। मूलप्रथमानुयोग । कंडिकानुयोग । १२८. से कि तं मूलपढमाणुओगे ? अथ कोऽसौ मूलप्रथमानुयोगः? १२८. मूलप्रथमानुयोग क्या है ? गूलपढमाणुओगे-एत्थ णं अरहंताणं मूलप्रथमानुयोगे-अत्र अर्हतां भगवतां इसमें अरहंत भगवान् के पूर्वभव, भगवंताणं पुन्वभवा, देवलोग- पूर्वभवाः, देवलोकगमनानि, आयुः, देवलोकगमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, गमणाणि, आउं, चवणाणि, जम्म- च्यवनानि, जन्मानि च अभिषेकाः, । अभिषेक, राज्य की श्रेष्ठ श्री, शिविका, णाणि य अभिसेया, रायवर- राजवरश्रियः, शिविकाः, प्रव्रज्याः, प्रव्रज्या, तप और भक्त, केवलसिरोओ, सोयाओ, पव्वज्जाओ, तपांसि च भक्तानि, केवलज्ञानोत्पादाः, ज्ञानोत्पत्ति, तीर्थ-प्रवर्तन, संहनन, तवा य भत्ता, केवलणाणुप्पाता, तीर्थप्रवर्तनानि च, संहननं, संस्थानं, संस्थान, ऊंचाई, आयुष्य, वर्ण-विभाग, तित्थपवत्तणाणि य, संघयणं, उच्चत्वं, आयूष्क, वर्णविभागः, शिष्या:, शिष्य, गण, गणधर, साध्वी, प्रतिनी, संठाणं, उच्चत्तं, आउयं, वण्ण- गणाः, गणधराश्च, आर्याः, प्रवत्तिन्यः, चतुर्विध संघ का परिमाण, जिन विभातो, सीसा, गणा, गणहरा य, संघस्य चतुर्विधस्य यद् वापि परिमाणं, (केवली), मनःपर्यवज्ञानी, अवधि- - अज्जा, पवत्तिणीओ, संघस्स जिन-मनःपर्यव-अवधिज्ञानिनः, ज्ञानी, सम्यक्त्व, श्रुतज्ञानी, वादी, चउन्विहस्स जं वावि परिमाणं, सम्यक्त्वश्रुतज्ञानिनश्च, जिण - मणपज्जव - ओहिनाणी, समत्तसुयनाणिणो य, वाई, Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३४० प्रकीर्णक समवाय : सू० १२९-१३० अणत्तरगई गई य जत्तिया, जत्तिया अनुत्तरगतिश्च यावन्तः, यावन्तः सिद्धा, पातोवगता य जे जहि सिद्धाः, प्रायोपगताश्च ये यत्र यावन्ति जत्तियाई भत्ताइं छेयइत्ता अंतगडा भक्तानि छेदयित्वा अन्तकृताः मणिवरुत्तमा तम-रओघ- मूनिवरोत्तमाः तमो-रज-आघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च विप्रमुक्ताः सिद्धिपथमनुत्तरं च प्राप्ताः। पत्ता । जितने अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं, जितने सिद्ध हुए हैं, जिन्होंने प्रायोपगमन अनशन किया है तथा जितने भक्तों का छेदन कर जो उत्तम मुनिवर अन्तकृत हुए हैं, तम और रज से विप्रमुक्त होकर अनुत्तर सिद्धि-पथ को प्राप्त हुए हैं उनका वर्णन है । एए अण्णे य एवमादी भावा एते अन्ये च एवमादिभावाः । मूलपढभाणुओगे कहिया मूलप्रथमानुयोगे कथिता आख्यायन्ते । आघविज्जति पण्णविज्जति प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दयन्ते निदर्श्यन्ते परूविज्जति सिज्जति उपदर्श्यन्ते । सोऽसौ मूलप्रथमानयोगः । निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । सेत्तं मूलपढमाणुओगे। तथा इस प्रकार के अन्य भावों का कथन, आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन हुआ है । यह मूलप्रथमानुयोग है। १२६. से कि तं गंडियाणुओगे ? अथ कोऽसौ कण्डिकानुयोगः ? १२६. कण्डिकानुयोग क्या है ? गंडियाणुओगे अगविहे पण्णत्ते, कण्डिकानुयोगः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, कण्डिकानुयोग अनेक प्रकार का है, तं जहातद्यथा जैसेकुलगरगंडियाओ, तित्थगर- कुलकरकण्डिकाः, तीर्थकरकण्डिकाः, कुलकरकंडिका, तीर्थकरकंडिका, गंडियाओ, गणधरगंडियाओ, गणधरकण्डिकाः, चक्रवत्तिकण्डिकाः, गणधरकंडिका, चक्रवर्तीकंडिका, दशारचक्कवट्टिगंडियाओ, दसार- दशारकण्डिकाः, बलदेवकण्डिका:, कंडिका, बलदेवकंडिका, वासुदेवकंडिका, गंडियाओ, बलदेवगंडियाओ, वासुदेवकण्डिका:, हरिवंशकण्डिका:, हरिवंशकंडिका, भद्रबाहुकंडिका, वासदेवगंडियाओ, हरिवंस- भद्रबाहकण्डिकाः, तपःकर्मकण्डिकाः, तपःकर्मकंडिका, चित्रांत रकंडिका", गंडियाओ, भद्दबाहगंडियाओ, चित्रान्तरकण्डिका:, उत्सपिणी- उत्सर्पिणीकंडिका, अवसर्पिणीकंडिका, तबोकम्मगंडियाओ, चित्तंतर- कण्डिकाः, अवसर्पिणीकण्डिका:, देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति गंडियाओ, उस्सप्पिणीगंडियाओ, अमर - नर-तिर्यग - निरयगति-गमन- में गमन तथा विविध परिवर्तन का ओसविणांगडियाओ, अमर-नर- विविध-परिवर्तनानुयोगः, एवमादिका: अनुयोग इत्यादि कंडिकाओं का तिरिय-निरय - गइ-गमण-विविह- कण्डिकाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, परियट्टणाणुओगे, एवमाइयाओ प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदयन्ते उपदश्यन्ते। निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। गंडियाओ आधविज्जति सोऽसौ कण्डिकानयोगः । यह कंडिकानुयोग है। पण्णविज्जंति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति। सेत्तं गंडियाणओगे। १३०. से कि तं चूलियाओ? अथ कास्ता: चूलिकाः ? १३०. चूलिका क्या है ? चलियाओ-आइल्लाणं चउण्हं चूलिका:-आदिमानां चतुर्णा पूर्वाणां पुव्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुब्वाई चूलिकाः, शेषाणि पूर्वाणि अचूलिकानि। अचूलियाई । सेत्तं चूलियाओ। तदेताः चूलिकाः । प्रथम चार पूर्षों में चूलिकाएं हैं, शेष पूर्वो में चूलिकाएं नहीं हैं । यह चूलिका Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री १३१. दिट्टिवायरस णं परिता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संवेज्जाओ वित्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संग्रहणीओ । सेणं अंगाए बारसमे अंगे एगे सुखंधे चोदस पुव्वाई संखेज्जा वत्थू संखेज्जा चूलवत्थू संखेज्जा पाहुडा संखेज्जा पाहुडपाडा संखेज्जाओ पाहुडियाओ संखेज्जाओ पाहुडपाहुडियाओ संखेज्जाणि पय सय सहस्सा णि पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा अनंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण विज्जति दंसिज्जति उवदंसिज्जति । परू विज्जं ति निदंसिज्जं ति से एवं आया एवं जाया एवं विष्णाया एवं परूवणया पण विज्जति अथ एवमात्मा ' एवं ज्ञाता' ' एवं चरण-करण विज्ञाता' एवं चरण- करण- प्ररूपणा आघविज्जति आख्यायते प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दश्यते परुविज्जति निदर्श्यते उपदर्श्यते । सोऽसौ दृष्टिवादः । दंसिज्जति निदंसिज्जति तदेतत् द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् | उवदंसिज्जति । सेत्तं दिट्टिवाए । तं दुवासंगे गणिपिडगे । १३२. इच्चेतं दुबालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अणंता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरतं संसारकंतारं अणुपरिर्यासु । इच्चेतं दुबालसंगं गणिपिडगं पडपणे काले परित्ता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टांत । ३४१ प्रकीर्णक समवाय: सू० १३१-१३२ दृष्टिवादस्य परीताः वाचना: संख्येयानि १३१. दृष्टिवाद की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तयः अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः श्लोकाः संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येया: निर्युक्तः संख्येयाः संग्रहण्यः । संख्येय हैं, निर्युक्तियां संख्येय हैं और ग्रहणियां संख्ये हैं । स अङ्गार्थतया द्वादशमङ्ग एक: श्रुतस्कन्धः चतुर्दश पूर्वाणि संख्येन वस्तूनि संख्येयानि चूलावस्तूनि संख्येयानि प्राभृतानि संख्येयानि प्राभृतप्राभृतानि संख्येयाः प्राभृतिका: संख्येयाः प्राभृतप्राभृतिका संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ता: पर्यंवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः स्थावरा: शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः भावा: आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटक अतीते काले अनन्ताः जीवाः आज्ञया विराध्य चातुरन्तं संसारकान्तारं अनुपर्य वर्तिषत । इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं प्रत्युत्पन्ने काले परीताः जीवा आज्ञया विराध्य चातुरन्तं संसारकान्तारं अनुपरिवर्तन्ते । यह अंग की दृष्टि से बारहवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध, चौदह पूर्व, संख्येय वस्तु ( दो सौ पच्चीस वस्तु), संख्येव चूलिका वस्तु (चौतीस चूलिकावस्तु) संख्येय प्राभृत, संख्येय प्राभृतप्राभृत, संख्येय प्राभृतिका, संख्येय प्राभृत- प्राभृतिका, पद- प्रमाण से संख्येय लाख पद संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा' - दृष्टिवादमय, ' एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है । इस प्रकार दृष्टिवाद में चरणकरण- प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है दृष्टिवाद । यह है द्वादशांग गणिपिटक । १३२. अतीत काल में अनन्त जीवों ने इस द्वादशांग गणिपिटिक की आज्ञा का पालन न करने के कारण विराधना कर चातुरंत संसार के कांतार में पर्यटन किया था । वर्तमान काल में परिमित जीव इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा का पालन न करने के कारण विराधना कर चातुरंत संसार के कांतार में पर्यटन करते हैं । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३४२ प्रकीर्णक समवाय : सू० १३३ इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं अनागते अणागए काले अणंता जीवा काले अनन्ताः जोवा: आज्ञया विराध्य आणाए विराहेत्ता चाउरतं चातुरन्तं संसारकान्तारं अनुपरिसंसारकंतारं अगुपरियट्टिस्संति। वतिष्यन्ते । भविष्य काल में अनन्त जीव इस द्वादशांग गणिपिटिक की आज्ञा का पालन न करने के कारण विराधना कर चातुरंत संसार के कांतार में पर्यटन करेंगे। इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं अतीते अतीते काले अणंता जीवा आणाए काले अनन्ता: जीवाः आज्ञया आराध्य आराहेत्ता चाउरतं संसारकंतारं चातुरन्तं संसारकान्तारं व्यत्यवाजिषुः । विइवइंसु। अतीत काल में अनन्त जीवों ने इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा का पालन करने के कारण आराधना कर चातुरंत संसार के कांतार को पार किया था। इच्चेतं वालसंगं गणिपिडगं इत्येतद द्वादशाङ्गं गणिपिटक पड़प्पण्णे काले परित्ता जीवा प्रत्युत्पन्ने काले अनन्ताः जीवा: आज्ञया आणाए आराहेत्ता चाउरंतं आराध्य चातुरन्तं संसारकान्तारं संसारकतारं विइवयंति । व्यतिव्रजन्ति । वर्तमान काल में परिमित जीव इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा का पालन करने के कारण आराधना कर चातुरंत संसार के कांतार को पार करते हैं। इच्चेतं वालसंगं गणिपिडगं इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकं अनागते अणागए काले अणंता जीवा काले अनन्ताः जीवाः आज्ञया आराध्य आणाए आराहेता चाउरतं चातुरन्तं संसारकान्तारं संसारकंतारं विइवइस्संति । व्यतिव्रजिष्यन्ति । भविष्य काल में अनन्त जीव इस द्वादशांग गणिपिटक की आज्ञा का पालन करने के कारण आराधना कर चातुरंत संसार के कांतार को पार करेंगे। १३३. दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण द्वादशाङ्गं गणिपिटकं न कदाचिद् १३३. यह द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं कयाइ णासी, ण कयाइ णत्थि, नासीत्, न कदाचिद् नास्ति, न था -ऐसा नहीं है, कभी नहीं हैण कयाइ ण भविस्सइ। भवि कदाचिद न भविष्यति। अभूत् च, ऐसा नहीं हैं, कभी नहीं होगा-ऐसा च, भवति य, भविस्सति य। भवति च, भविष्यति च । ध्रुवं निचितं भी नहीं है । वह था, है और रहेगा। धवे णितिए सासए अक्खए अव्वए शाश्वतं अक्षयं अव्ययं अवस्थितं वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अवट्ठिए णिच्चे। नित्यम्। अव्यय, अवस्थित और नित्य है। से जहाणामए पंच अत्थिकाया ण तद् यथानामकं पञ्चास्तिकायाः न जैसे पांच अस्तिकाय कभी नहीं थेकयाइ ण आसी, ण कयाइ कदाचिद् न आसन्, न कदाचिद् न ऐसा नहीं है, कभी नहीं हैं ऐसा नहीं णत्थि, ण कयाइ ण भविस्ति । सन्ति, न कदाचिद् न भविष्यन्ति । है, कभी नहीं होंगे-ऐसा भी नहीं विच, भवति य, भविस्ांति अभूवंश्च, भवन्ति च, भविष्यन्ति च। है। वे थे, हैं और होंगे। वे ध्रुव, य। धुवा णितिया सासया ध्रुवाः निचिताः शाश्वताः अक्षयाः नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अक्खया अव्वया अवट्ठिया अव्ययाः अवस्थिताः नित्याः । अवस्थित और नित्य हैं। णिच्चा। एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण एवमेव द्वादशाङ्ग गणिपिटकं न इसी प्रकार द्वादशांग गणिपिटक कभी कयाइ ण आसी, ण कयाइ णत्थि, कदाचिद् न आसीत्, न कदाचिद् । नहीं था—ऐसा नहीं है, कभी नहीं ण कयाइ ण भविस्सइ। भुवि नास्ति, न कदाचिद् न भविष्यति।। है-ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगाच, भवति य, भविस्सइय। अभूत् च, भवति च, भविष्यति च।। ऐसा भी नहीं है। वह था, है और होगा। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३४३ affare सास अक्ख अव्वए ध्रुवं निचितं शाश्वतं अक्षयं अव्ययं rage free । अवस्थितं नित्यम् । १३४. एत्थ णं दुवाल संगे गणिपिडगे अनंता भावा अनंता अभावा अनंता हेऊ अनंता अहेऊ अनंता कारणा अनंता अकारणा अनंता जीवा अनंता अजीवा अनंता भवसिद्धिया अनंता अभवसिद्धिया अनंता सिद्धा अनंता असिद्धा आघविज्जति पण्णविज्जंति परूविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । रासि-पदं १३५. दुवे रासी पण्णत्ता, तं जहाजीवरासी अजीवरासी य । १३६. अजीवरासी दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - रूविअजीवरासी अरूवि अजीवरासी य । १३७. से कि तं अरुविअजीवरासी ? अरूविअजीवरासी पण्णत्ते, तं जहा दसविहे १. धम्मत्थिकाए, २. धम्मथिकायस्स देसे, ३. धम्मत्थिकायस्त पदेसा, ४. अधम्मथिका, ५. अधम्मत्थिकायस्स देसे, ६. अधम्मत्थिकायस्त पदेसा, ७. आगासत्किए, ८. आगासत्थिकायस्त देसे, ६. आगासत्थिकायस्स पदेसा, १०. अद्धासमए । १३८. जाव - १३६. से किं तं अणुत्तरोववाइआ ? अणुत्ववाइआ पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा -- विजय- वेजयंत अत्र द्वादशाङ्गे गणिपिटके अनन्ता १३४. इस द्वादशांग गणिपिटक में अनन्त भावाः अनन्ता अभावाः अनन्ताः हेतवः भाव, अनन्त अभाव, अनन्त हेतु अनन्ता: अहेतवः अनन्तानि कारणानि अनन्त अहेतु अनन्त कारण, अनन्त अनन्तानि अकारणानि अनन्ताः जीवाः अकारण, अनन्त जीव, अनन्त अजीव, अनन्ताः अजीवाः अनन्ताः भवसिद्धिकाः अनन्त भवसिद्धिक, अनन्त अभवअनन्ताः अभवसिद्धिकाः अनन्ताः सिद्धाः सिद्धिक, अनन्त सिद्ध, अनन्त असिद्धअनन्ताः असिद्धा: आख्यायन्ते इनका आख्यान, प्रज्ञापन प्ररूपण, प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया उपदर्श्यन्ते । गया है । राशि-पदम् द्वौ राशी प्रज्ञप्तौ तद्यथाजीवराशि: अजीवराशिश्च । अजीवराशि: द्विविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा - रूप्यजीवराशिः अरूप्यजीवराशश्च । अथ कोsसौ अरूप्यजीवराशि: ? अरूप्यजीवराशि: दशविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा धर्मास्तिकायः, धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, अधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायस्य देशः, अधर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, आकाशास्तिकायः, आकाशास्तिकायस्य देशः, आकाशास्तिकायस्य प्रदेशाः, अध्वा समयः । प्रकीर्णक समवाय: सू० १३४- १३६ वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । यावत् - अथ के ते अनुत्तरोपपातिका: ? अनुत्तरोपपातिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - विजय वैजयन्त - जयन्त - राशि- पद १३५. राशि दो हैं, जैसे- जीव राशि और अजीव राशि | १३६. अजीव राशि दो प्रकार की है, जैसेरूपीअजीवराशि और अरूपीअजीवराशि | १३७. अरूपी अजीवराशि क्या है ? अरूपी अजीवराशि दस प्रकार की है, जैसे- १. धर्मास्तिकाय, २. धर्मास्तिकाय देश, ३. धर्मास्तिकाय प्रदेश, ४. अधर्मास्तिकाय, ५. अधर्मास्तिकाय देश, ६. अधर्मास्तिकाय प्रदेश, ७. आकाशास्तिकाय, ८. आकाशास्तिकाय देश, ६. आकाशास्तिकाय - प्रदेश, १०. अध्वा समय । १३८. यावत् १३६. अनुत्तरोपपातिक देवों के कितने प्रकार हैं ? अनुत्तरोपपातिक देवों के पांच प्रकार हैं, जैसे – विजय, वैजयन्त, Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ समवायो प्रकोणक समवाय : सू० १४०-१४२ जयंत-अपराजित-सव्वसिद्धिया। अपराजित-सर्वार्थसिद्धिकाः। तदेते जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिक । सेत्तं अणुत्तरोववाइआ। अनुत्तरोपपातिकाः । सोऽसौ ये अनुत्तरोपपातिक देव हैं। यह सेतं पंचिदियसंसारसमावण्ण- पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवराशिः। पंचेन्द्रिय-संसार-समापन्न-जीवराशि है। जीवरासी। पज्जत्तापज्जत्त-पदं पर्याप्त-अपर्याप्त-पदम् पर्याप्त-अपर्याप्त-पद १४०. दुविहा रइया पण्णत्ता, तं द्विविधाः नैरयिकाः प्राप्ताः, तद्यथा- १४०. नैरयिक दो प्रकार के हैं, जैसे जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। पर्याप्ताश्च अपर्याप्ताश्च । एवं दण्डक: पर्याप्त और अपर्याप्त । इसी प्रकार एवं दडओ भाणियव्वा जाव भणितव्यः यावत वैमानिक इति । शेष वैमानिक तक के दंडकों के लिए वेमाणियत्ति। यही वक्तव्यता है। आवास-पदं अवास-पदम् आवास-पद १४१. इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां कियत १४१. इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने नरका केवइयं ओगाहेत्ता केवइया अवगाह्य कियन्तो निरयाः प्रज्ञप्ताः। वास हैं और कितने क्षेत्र का अवगाहन णिरया पण्णत्ता? करने पर वे प्राप्त होते हैं ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां । गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का बाहल्य पढवीए असोउत्तरजोयणसय- अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण सहस्सबाहल्लाए उरि एगं उपरि एक योजनसहस्रं अवगाह्य । है। उसमें ऊपर से एक हजार योजन जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं अधश्चैक योजनसहस्र वर्जयित्वा मध्ये । का अवगाहन कर तथा नीचे से एक जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अष्टसप्ततौ योजनशतसहस्रे, अत्र हजार योजन का वर्जन कर, मध्य के अट्रहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ रत्नप्रभायाः पृथिव्याः नेरयिकाणां एक लाख अठत्तर हजार योजन प्रमाण णं रयणप्पभाए पुढवीए रइयाणं विशद निरयावासशतसहस्राणि रत्नप्रभा पृथ्वी में नैरयिकों के तीस तीसं गिरयावाससयसहस्सा भवन्तीति व्याख्यातम। ते नरका लाख नरकावास हैं, ऐसा मैंने कहा है। भवंतीति मक्खायं । ते णं णरया अन्तर्वत्ताः बहिश्चतुरस्राः अधःक्षुरप्र वे नरकाबास अन्तर में वृत्त, बाहिर में अंतो वा बाहि चउरंसा अहे संस्थान संस्थिताः नित्यान्धकारतमसाः चतुष्कोण और नीचे खुरपे की आकृति खुरप्प-संठाण-संठिया णिच्चंधया- व्यपगतग्रह - चन्द्र - सूर - नक्षत्र वाले हैं। वे निरन्तर अन्धकार से रतमसा ववगयगह - चंद - सूर- ज्यौतिषपथाः मेद-वसा-पूय-रुधिर-मांस तमोमय, ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र और णक्खत्त-जोइसपहा मेद-बसा-पूय- चिक्खिल्ल-लिप्तानुलेपनतलाः अशुचयः ज्योतिष की प्रभा से शून्य, मेद-चर्बीहर ' मताचाखल्लालताणु विस्राः परमदूरभिगन्धाः कापोतअग्नि रस्सी, लोही और मांस के कीचड़ से लेवणतला असुई वीसा वर्णाभाः कर्कशस्पर्शाः दुरविसह्याः पंकिल तल वाले, अशुचि, अपक्वगंध परमभिगंधा काऊअगाण- अशुभाः निरयाः अशुभाः नरकेषु से युक्त, उत्कृष्ट दुर्गन्ध वाले, कापोत वजाभा कक्खडफासा वेदनाः । (कृष्ण) अग्निवर्ण की आभा वाले, दुरहियासा असुभा णिरया कर्कशस्पर्श से युक्त और असह्य वेदना असुभाओ णरएसु वेयणाओ। वाले हैं। वे नरकावास अशुभ हैं और उनमें अशुभ वेदनाएं हैं। १४२. एवं सत्तवि भाणियवाओ जं जासु एवं सप्तापि भणितव्याः, यत् यासु १४२. इसी प्रकार सातों नरकों के विषय में जहां जो घटित हो वैसा कहना चाहिए। युज्यते Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो ३४५ प्रकोणक समवाय : सू० १४३ संगहणी गाहा १. आसीयं बत्तीसं, अट्ठावीसं तहेव वीसं च। अट्ठारस सोलसगं, अछुत्तरमेव बाहल्लं ॥ संग्रहणी गाथा आशीतं द्वात्रिंशद्, अष्टाविंशतिः तथैव विंशतिश्च । अष्टादश षोडशकं, अष्टोत्तरमेव बाहल्यम् ॥ १. नरकवासों का बाहल्य (मोटाई)पहली पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार योजन, दूसरी पृथ्वी का एक लाख बत्तीस हजार योजन, तीसरी पृथ्वी का एक लाख अट्ठाईस हजार योजन, चौथी पृथ्वी का एक लाख बीस हजार योजन, पांचवीं पृथ्वी का एक लाख अठारह हजार योजन, छट्ठी पृथ्वी का एक लाख सोलह हजार योजन और सातवीं पृथ्वी का एक लाख आठ हजार योजन। २. तीसा य पण्णवीसा, त्रिंशद् च पञ्चविंशतिः, पण्णरस दसेव सयसहस्साई। पञ्चदश दशैव शतसहस्राणि। तिण्णेगं पंचूणं, त्रीण्येक पञ्चोनं, पंचेव अणुत्तरा नरगा॥ पञ्चैव अनुत्तरा नरकाः ॥ (दोच्चाए णं पुढवीए, तच्चाए णं (द्वितीयायां पृथिव्यां, तृतीयायां पुढवीए, चउत्थीए पुढवीए, पृथिव्यां, चतुर्थ्यां पृथिव्यां, पञ्चम्यां पंचमीए पुढवीए, छट्ठीए पुढवीए, पृथिव्यां, षष्ठयां पृथिव्यां, सप्तम्यां सत्तमीए पुढवीए-गाहाहिं पृथिव्यां-गाथाभिः भणितव्याः।) भाणियव्वा ।) २. नरकावासों की संख्यापहली पृथ्वी में तीस लाख, दूसरी पृथ्वी में पच्चीस लाख, तीसरी पृथ्वी में पन्द्रह लाख, चौथी पृथ्वी में दस __ लाख, पांचवीं पृथ्वी में तीन लाख, छट्ठी पृथ्वी में निन्यानवे हजार नौ सौ पंचानवे और सातवीं पृथ्वी में पांच अनुत्तर नरकावास । १४३. सत्तमाए णं पुढवीए केवइयं सप्तम्यां पृथिव्यां कियत् अवगाह्य १४३. सातवीं पृथ्वी में कितने नरकावास हैं ओगाहेत्ता केवइया णिरया कियन्तो निरयाः प्रज्ञप्ताः ? और कितने क्षेत्र का अवगाहन करने पण्णत्ता? पर प्राप्त होते हैं ? गोयमा! सत्तमाए पुढवीए गौतम ! सप्तम्यां पृथिव्यां अष्टोत्तर- गौतम ! सातवीं पृथ्वी का बाहल्य एक अठत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए योजनशतसहस्रबाहल्यायां उपरि लाख आठ हजार योजन प्रमाण है। उरि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई अद्धत्रिपञ्चाशत् योजनसहस्राणि उसमें ऊपर से साढ़े बावन हजार ओगाहेत्ता हेद्रा वि अद्धतेवणं अवगाह्य अधोऽपि अर्द्धत्रिपञ्चाशत योजन अवगाहित कर तथा नीचे से जोयणसहस्साई वज्जेता मज्झे योजनसहस्राणि वर्जयित्वा मध्ये त्रिष साढ़े बावन हजार योजन वजित कर तिसु जोयणसहस्सेसु, एत्थ गं योजनसहस्रेषु, अत्र सप्तम्यां पृथिव्यां तथा मध्य के तीन हजार योजन में सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच नरयिकाणां पञ्च अनुत्तराः महामहान्तः सातवीं पृथ्वी के नैरयिकों के अनुत्तर अणुत्तरा महइमहालया महानिरया महानिरया: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-काल: तथा अत्यन्त विशाल पांच महानरकापण्णता, तं जहा--काले महाकाले महाकाल: रौरवं महारौरवं अप्रतिष्ठानं वास हैं, जैसे—काल, महाकाल, रौरव, रोरुए महारोरुए अप्पइदाणे नामं नाम पञ्चमकम् । ते नरका: वत्ताश्च महारौरव और अप्रतिष्ठान । उनमें पंचमए । ते गं नरया वटटेय त्र्यनाश्च अधःक्षुरप्र-संस्थान-संस्थिताः रौरव नरकावास वृत्त और शेष चार तंसा य अहे खुरप्प-संठाण-संठिया नित्यान्धकारतमसा: व्यपगतग्रह-चंद्र त्रिकोण हैं। वे नीचे खुरपे की आकृति णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंदसूर-नक्षत्र-ज्यौतिषपथाः मेद-वसा-पूय वाले हैं। वे निरन्तर अन्धकार से सूर-णक्खत्त-जोइसपहा भेद-वसा तमोमय, ग्रह-चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र और Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३४६ प्रकीर्णक समवाय : सू० १४४ पूय-रुहिर- मंसचिक्खिल्ललित्ताणु- रुधिर-मांस - चिविखल्ल-लिप्तानुलेपनलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भि- तला: अशुचयः विस्राः परमदुरभिगन्धाः गंधा काऊअगणिवण्णाभा कापोतअग्निवर्णाभाः कर्कशस्पर्शाः कवखडफासा दुरहियासा असुभा दुरधिसह्याः अशुभाः नरकाः अशुभाः नरगा असुभाओ नरएसु नरकेषु वेदनाः । वेयणाओ। ज्योतिष की प्रभा से शुन्य, मेद-चर्बी, रस्सी-लोही-मांस के कीचड़ से पंकिल तल वाले, अशुचि, अपक्वगंध से युक्त, उत्कृष्ट दुर्गन्ध वाले, कापोत (कृष्ण) अग्निवर्ण की आभा वाले, कर्कशस्पर्श से युक्त और असह्य वेदना वाले हैं। वे नरकावास अशुभ हैं और उनमें अशुभ वेदनाएं हैं। १४४. केवडया णं भंते ! असरकमारा- कियन्त: भदन्त ! असुरकुमारावासाः १४४. भंते ! असुरकुमारों के आवास कितने वासा पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां पुढवीए असीउत्तरजोयणसय- अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां सहस्हबाहल्लाए उरि एगं उपरि एक योजनसहस्रं अवगाह्य अधः जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं चैक योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अष्टसप्ततौ योजनशतसहस्र, अत्र अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ रत्नप्रभायां पृथिव्यां चतुःषष्टिः णं रयणप्पभाए पुढवीए चउढेि असुरकुमारावासशतसहस्राणि । असुरकुमारावाससयसहस्सा प्रज्ञप्तानि । तानि भवनानि बहिर्वृत्तानि पण्णत्ता । ते णं भवणा बाहिं वट्टा अन्तश्चतुरस्राणि अधःपुष्करकणिकाअंतो चउरंसा अहे पोक्खर- संस्थान-संस्थितानि उत्कीर्णान्तरकण्णिया-संठाण - संठिया उक्कि- विपुल-गंभीर-खात-परिखाणि अट्टालकण्णंतर-विपुल-गंभीर-खात-फलिया चरिक - द्वारगोपुर - कपाट- तोरणअट्टालय-चरिय-दारगोउर-कवाड- प्रतिद्वार-देशभागानि यन्त्र-मुशलतोरण-पडिदुवार - देसभागा जंत- मुसुण्ढि - शतघ्नी - परिवारितानि मुसल-मुसंढि-सतग्घि- परिवारिया अयोध्यानि अष्टचत्वारिंशद्-कोष्ठकअउज्झा अडयाल - कोट्टय-रइया रचितानि अष्टचत्वारिंशत्कृतअडयाल • कय - वणमाला वनमालानि 'लाउल्लोइय' (उपलेपन लाउल्लोइय - महिया गोसीस- संमार्जन) महितानि गोशीर्ष-सरसरक्तसरसरतचंदण- दद्दर - दिण्णपंचं- चन्दन - दर्दर - दत्तपञ्चागुलितलानि गुलितला कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क- कालागुरु - प्रवर - कुन्दुरुष्क - तुरुष्कतुरुक्क-डभंत - धूव - मघमघेत- दह्यमान-धूप - मघमघायमानगंधुधुयाभिरामा सुगंधि-वरगंध- गन्धोद्धराभिरामाणि सुगन्धि-वरगन्धगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छा सण्हा गन्धिकानि गन्धवतिभूतानि अच्छानि गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का बाहल्य एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण है। उसमें ऊपर से एक हजार योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से एक हजार योजन का वर्जन कर मध्य के एक लाख अठत्तर हजार योजन रत्नप्रभा पृथ्वी में असुरकुमारों के चौसठ लाख आवास हैं। वे भवन बाहर से वृत्त, भीतर से चतुष्कोण, नीचे से पुष्करकणिका की आकृति वाले हैं। वे भूमि को खोद कर बनाई हुई विपुल और गम्भीर खाई और परिखा से युक्त हैं। उनके देश-भाग में अट्टालक, चरिका, गोपुर-द्वार, कपाट, तोरण और प्रतिद्वार हैं। वे यंत्र, मुशल, मुसुंढी और शतघ्नी से परिपाटित हैं। वे दूसरों के द्वारा अयोध्य (अपराजित) हैं। वे अड़तालीस कोठों से रचित हैं। वे अड़तालीस प्रकार की वनमालाओं (पत्तों की मालाओं) से युक्त हैं। उनका भूमिभाग गोबर से लिपा हुआ और भीतें खडिया से पुती हुई हैं। उन भीतों पर गोशीर्ष और सरस-रक्तचन्दन के पांच अंगुलीयुक्त हस्ततल के सघन छापे लगे हुए हैं। वे कालागुरु, प्रवर कुन्दुरुष्क (धूप विशेष) तथा तुरुष्क (दशांग आदि धूप विशेष) के जलने से निकले हुए धुंए के महकते गन्ध से उत्कट रमणीय हैं। वे सुगन्धी चूर्णो से सुगन्धित गन्धगुटिका Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमवानी ३४७ प्रकोणक समवाय : सू० १४५-१४८ लण्हा घटा मट्ठा नोरया णिम्मला श्लक्ष्णानि लष्टानि घृष्टानि मृष्टानि जैसे लग रहे हैं। वे स्वच्छ, चिकने, वितिमिरा विसुद्धा सप्पमा समि. नोरजांसि निर्मलानि वितिमिराणि घुटे हुए, घिसे हुए, प्रमाजित, नीरज, निर्मल, अन्धकार रहित, विशुद्ध, रीया सउज्जोया पासाईया विशुद्धानि सप्रभाणि समरो चोनि प्रभायुक्त, किरणों से युक्त, उद्योत दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। सोद्योतानि प्रास दीयानि दर्शनीयानि वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि । दर्शनीय, अभिरूप (कमनीय) और प्रतिरूप-प्रत्येक द्रष्टा के लिए स्मरणीय हैं। १४५ एवं जस्स जंकमती तं तस्स, जं एव यस्य यत् क्रमते तत्तस्य, यत् यत् १४५. इसी प्रकार सभी भवनपति आवासों जं गाहाहि भणियं तह चेव गाथाभिः भणितं तथा चैव वर्णक: के लिए जहां जो घटित हो, उनका वण्णओ संक्षेप गाथाओं में है और उनका वर्णन असुरकुमारावास की भांति है। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा चतुःषष्ठिः असुराणा, चतुरशीतिश्च भवति नागानाम ।। द्विसप्ततिः सुपर्णानां, वायुकुमाराणां षण्णवतिः ।। १. असुरकुमारों के चौसठ लाख, नागकुमारों के चौरासी लाख, सुपर्णकुमारों के बहत्तर लाख और वायुकुमार के छानवे लाख आवास हैं। १. चउसट्टो असुराणं, चउरासोइं च होइ नागाणं। बावरि सुवन्नाण, वायुकुमाराण छण्णउति ॥ २. दीवदिसाउदहोणं, विज्जुकुमारिदथणियमग्गीणं ।। छण्हंपि जुवलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ।। दीपदिशाउदधीनां, विद्यत्कूमारेन्द्रस्तनितअग्नीनाम् । षण्णामपि युगलकानां, षट्सप्ततिः शतसहस्राणि ।। २. दीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार-इन छहों युगलों (दक्षिण और उत्तर दिशावासी भवनपति देवों) के छिहत्तर-छिहत्तर लाख आवास हैं। १४.केवड्या णं भंते! पढवीकाइया- कियन्तः भदन्त । कियन्तः भदन्त! पृथ्वीकायिकावासाः १४६. भंते ! पृथ्वी काय के आवास कितने वीमाHिETaTAT. वासा पण्णता? प्रज्ञप्ता:? गोयमा! असंखेज्जा पुढवीकाइया- गौतम ! असंख्येयाः वासा पण्णत्ता। पृथ्वीकायिकावासाः प्रज्ञप्ताः । गौतम ! पृथ्वीकाय के आवास असंख्य १४७. एवं जाव मणुस्सत्ति। एवं यावत् मनुष्य इति । १४७. इसी प्रकार शेष चार स्थावरकाय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य के आवास असंख्य-असंख्य हैं। १४८. केवइया णं भंते ! वाणमंतरावासा कियन्तः भदन्त ! वानमन्त रावासाः १४८. भंते ! वानमंतर देवों के आवास पण्णत्ता? प्रज्ञप्ता:? कितने हैं ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूढवीए रयणामयस्स कंडस्स रत्नमयस्य काण्डस्य योजनसहस्रजोयणसहस्सबाहल्लस्स उरि एगं बाहल्यस्य उपरि एक जोयणसयं ओगाहेता हेटा चेगं योजनशतं अवगाह्य अध: चैक गौतम ! इस रलप्रभा पृथ्वी का रत्नमय काण्ड एक हजार योजन मोटा है। उसके ऊपर से एक सौ योजन का अवगाहन कर तथा नीचे से सौ योजन Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकोणक समवाय : सू० १४६ वजित कर मध्य के शेष आठ सौ योजन में वानमंतर देवों के असंख्य लाख तिरछे भौमेय नगरावास हैं। समवाओ ३४८ जोयणसयं वज्जेता मज्झे अट्ठसु योजनशतं वर्जयित्वा मध्ये अष्टसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमंतराणं योजनशतेष, अत्र वानमन्तराणां देवानां देवाणं तिरियमसंखेज्जा तिर्यग् असंख्येयानि भौमेयनगरावासभोमेज्जनगरावाससयसहस्सा शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । पण्णत्ता। ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा तानि भौमेयानि नगराणि बहिर्वृत्तानि अंतो चउरंसा, एवं जहा अन्तश्चतुरस्राणि, एवं यथा भवणवासीणं तहेव नेयम्वा, भवनवासिनां तथैव नेतव्यानि, नवरंनवरं---पडागमालाउला सुरम्मा पताकामालाकुलानि सुरम्याणि पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा प्रासादीयानि दर्शनोयानि अभिरूपाणि पडिरूवा। प्रतिरूपाणि । वे भौमेय नगर बाहर से वृत्त, भीतर से चतुष्कोण और नीचे पुष्कर-कणिका की आकृति वाले हैं। वे भूमि को खोद कर (सूत्र १४४ की भांति) सुगन्धित गन्धगुटिका जैसे लग रहे हैं । वे पताका की माला से आकुल, सुरम्य, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। १४६. केवडया णं भंते! जोइसियाणं कियन्तः भदन्त ! ज्योतिष्काणां १४६. भन्ते ! ज्योतिष देवों के विमानावास विमाणावासा पण्णता? विमानावासाः प्रज्ञप्ताः? कितने हैं ? गोयमा ! इमोसे णं रय गप्पभाए गौतम ! अस्या: रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ बहुसमरमणीयात् भूमिभागाद् भूमिभागाओ सतनउयाई सप्तनवति योजनशतानि ऊर्ध्व उत्पत्य, जोयणसयाई उड्ढे उप्पइत्ता, एत्य अत्र दशोत्तरयोजनशतबाहल्ये तिर्यग् णं नसुत्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियं ज्योतिर्विषये ज्योतिष्काणां देवानां जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं असंख्येयाः ज्योतिष्कविमानावासाः असंखेज्जा जोइसियविमाणावासा प्रज्ञप्ताः । ते ज्योतिष्कविमानावासाः पण्णता। ते णं अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासिताः विविधजोइसियविमाणावासा अब्भुग्ग- मणिरत्न-भक्तिचित्राः, वातोद्धृतयमूसियपहसिया विविहमणिरयण- विजय-वैजयन्ती-पताका- छत्रातिच्छत्रभत्तिचित्ता वाउद्ध्य-विजय- कलिता: तुङ्गाः, गगनतलानुलिहन्वेजयंती - पडाग - छत्तातिछत्त- शिखराः जालान्तररत्नपञ्जरोन्मीलिता कलिया, तुंगा गगणतलमणुलिहंत- इव मणि-कनक-स्तूपिकाकाः विकसितसिहरा जालंतररयण- शतपत्र-पुण्डरीक - तिलक-रत्नार्द्धचन्द्रपंजरुम्मिलितव्व मणि-कणग- चित्राः अन्तर् बहिश्च श्लक्ष्णाः थभियागा विगसित-सयपत्त- तपनीयवालुका-प्रस्तटाः सुखस्पर्शाः पुंडरीय-तिलय - रयणड्डचंद-चित्ता अंतो बहिं च सहा तवणिज्जबालुगा-पत्थडा सुहफासा गौतम ! इस रलप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाने पर वहां एक सौ दस योजन के बाहल्य में तिरछे ज्योतिषिक क्षेत्र में ज्योतिष देवों के असंख्य ज्योतिषिक विमानावास हैं। वे चारों दिशाओं में प्रसृत प्रबल प्रभा से शुक्ल, विविध प्रकार के मणि और रत्नों की भक्तियों (धाराओं) से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले, वातप्रकम्पित विजय-वैजयन्ती पताका तथा छत्रातिछत्रों से युक्त और अत्यन्त ऊंचे हैं। उनके शिखर गगनतल को छू रहे हैं। उनकी खिड़कियों के अन्तराल में, पिंजरे से निकाल कर रखी हुई वस्तु की भांति, अनावृत रत्न रखे हुए हैं। उनके मणि और स्वर्ण की स्तुपिकाएं हैं। उनके द्वार विकसित शतपत्र और पुंडरीक कमलों से, उनकी भित्तियां तिलक से और द्वार के अग्र-प्रदेश रत्नमय अर्द्धचन्द्रों से चित्रित हैं। वे भीतर और बाहर से कोमल, स्वर्णमय बालुकाओं के प्रस्तट वाले, सुख-स्पर्श वाले, सुन्दर रूप वाले, मन को प्रसन्न Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३४६ प्रकोणक समवाय : सू० १५०-१५१ सस्सिरीयरूवा पासाईया सश्रोकरूपाः प्रासादीयाः दर्शनीयाः करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और वरिसणिज्जा अभिरूवा पडिख्वा। अभिरूपाः प्रतिरूपाः । प्रतिरूप हैं। १५०. केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा कियन्तः भदन्त ! पण्णता? प्रज्ञप्ताः ? वैमानिकावासा १५०. भंते ! वैमानिक देवों के आवास कितने हैं ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए गौतम ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पुढवीए बहुसमरणिज्जाओ बहुसमरमणीयात् भूमिभागाद् ऊर्ध्व भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय- चन्द्रमः-सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र- तारारूपाणि गहगण - नक्खत्त - तारारूवाणं व्यतिव्रज्य बहूनि योजनानि वोइवइत्ता बहूणि जोयणाणि बहूनि योजनशतानि बहूनि योजनसहबहूणि जोयणसयाणि बहूणि स्राणि बहूनि योजनशतसहस्राणि बहूनि जोयणसहस्साणि बहूणि योजनकोटी: बहूनि योजनकोटिकोटी: जोयणसयसहस्साणि बहओ असंख्येयाः योजनकोटिकोटोः ऊर्ध्व जोयणकोडीओ बहूओ दूरं व्यतिव्रज्य, अत्र वैमानिकानां जोयणकोडाकोडीओ असंखेज्जाओ देवानां सौधर्मशान-सनत्कमार-माहेन्द्रजोयणकोडाकोडोओ उड्ढे दूरं ब्रह्म - लान्तक - शुक्र-सहस्रार- आनतवोइवइत्ता, एत्थ णं वेमाणियाणं प्राणत-आरण-अच्युतेषु ग्रेवयानुत्तरेषु देवाणं सोहम्मीसाण-सणंकुमार- च चतुरशीतिः विमानावासशतसहस्राणि माहिद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार- सप्तनवतिः सहस्राणि त्रयोविंशति: च आणय - पाणय - आरणच्चएसु विमानानि भवन्तीत्याख्यातानि । गेवेज्जमणुत्तरेसु य चउरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खाया। गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र, और तारारूपों (ताराओं) का उल्लंघन कर अनेक योजन, अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक कोटि योजन, अनेक कोटा-कोटि योजन ऊपर दूर जाने पर वैमानिक देवों के सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक के तथा नौ ग्रेवेयक और पांच अनुत्तर विमानों के ८४६७०२३ विमान हैं । तेणं विमाणा अच्चिमालिप्पभा तानि विमानानि अचिर्मालिप्रभाणि भासरासिवण्णाभा अरया नोरया भासराशिवर्णाभानि अरजांसि हिम्मला वितिमिरा विसुद्धा नीरजांसि निर्मलानि वितिमिराणि सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा विशुद्धानि सर्वरत्नमयानि अच्छानि घट्टा मट्ठा णिप्पंका श्लक्ष्णानि लष्टानि घृष्टानि मृष्टानि णिक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया निष्पानि निष्कङ्टच्छायानि सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा सप्रभाणि समरीचीनि सोद्योतानि अभिरूवा पडिरूवा। प्रासादीयानि दर्शनीयानि अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि । वे सूर्य जैसी प्रभा वाले, प्रकाशपुंज" के वर्ण जैसी आभा वाले, अरज, नीरज, निर्मल, अन्धकार रहित, विशुद्ध, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने, घुटे हुये, घिसे हुए, प्रमाजित, निष्पङ्क, निरावरण दीप्ति वाले, प्रभायुक्त, किरणों से युक्त, उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप १५१. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया सौधम भदन्त ! कल्पे कियन्त: १५१. भंते ! सौधर्म देवलोक में कितने विमाणावासा पण्णत्ता ? विमानावासाः प्रज्ञप्ताः ? विमानावास हैं ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावास- गौतम ! द्वात्रिंशद् विमानावासशत- गौतम ! इसमें बत्तीस लाख सयसहस्सा पण्णत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । विमानावास हैं। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० समवायो प्रकोणक समवाय : सू० १५२-१५४ १५२. एवं ईसाणाइसु -अट्ठावीसं बारस एवं ईशानादिषु-अष्टाविंशतिः द्वादश १५२. इसी प्रकार-ईशान देवलोक में अटु चत्तारि-एयाई सयसहस्साई, अष्ट चत्वारि-एतानि शतसहस्राणि अट्ठाईस लाख, सनत्कुमार देवलोक में बारह लाख, माहेन्द्र देवलोक में आठ पण्णासं चत्तालीसं छ–एयाइं पञ्चाशत् चत्वारिंशद् षट्-एतानि । लाख, ब्रह्म देवलोक में चार लाख, सहस्साई, आणए पाणए चत्तारि, सहस्राणि, आनते प्राणते चत्वारि, लान्तक देवलोक में पचास हजार, आरणच्चुए तिण्णि-एयाणि आरणाच्युतयोः त्रीणि -एतानि शुक्र देवलोक में चालीस हजार, सहस्रार देवलोक में छह हजार, आनत सयाणि । एवं गाहाहि भाणियव्वं- शतानि । एवं गाथाभि: भणितव्यम् और प्राणत देवलोकों में चार सौ, आरण और अच्युत देवलोकों में तीन संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा सौ-विमानावास हैं। १. बत्तोसट्ठावीसा, १. द्वात्रिंशत् अष्टविशतिः, १,२. कल्प विमानावासों की संख्या का बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा। द्वादश अष्ट चतुः शतसहस्र ।। पुननिदेश दो संग्रहणी गाथाओं में इस प्रकार हैपण्णा चत्तालोसा, पञ्चाशत् चत्वारिंशत्, १. बत्तीस लाख ६. पचास हजार छच्चसहस्सा सहस्सारे ॥ षट् च सहस्र सहस्रारे ।। २ अट्ठाईस लाख ७. चालीस हजार २. आणयपाणयकप्पे, २- आनतप्राणतकल्पे, ३. बारह लाख ८. छह हजार चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिन्नि। चत्वारि शतानि आरणाच्युतयोः त्रीणि । ४. आठ लाख ६.१०. चार सौ ५. चार लाख ११. १२. तीन सौ । सत्त विमाणसयाई, सप्त विमानशतानि, इन चार (९-१२) देवलोकों में सात चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥ चतुष्वपि एतेषु कल्पेषु ॥ सो विमानावास हैं। ३. एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु, ३. एकादशोत्तरं अधस्तनेषु, ३. नौ ग्रैवेयक देवलोकों के विमानासत्तुत्तरं च मज्झिमए। सप्तोत्तरं च मध्यमेषु । वासों की संख्या इस प्रकार हैसयमेगं उवरिमए, शतमेकं उपरितनेषु, अधस्तन तीन वेधकों में-REE पंचव अणुत्तरविमाणा॥ विमानावास, मध्यम तीन ग्रंवेयकों मेंपञ्चैव अनुत्तरविमानानि ।। १०७ विमानावास, उपरीतन तीन ग्रेवेयकों में-१०० विमानावास । अनुत्तर देवलोक के पांच विमानावास ठिइ-पदं स्थिति-पदम् स्थिति-पद १५३. नेरडयाणं भंते! केवइयं कालं नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं १५३. भंते ! नरयिकों की स्थिति कितने ठिई पण्णता? स्थितिः प्रज्ञप्ता? काल की है ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वास- गौतम! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि सहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं साग- उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत सागरोपमाणि रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम की। १५४. अपज्जतगाणं भंते ! नेरइयाणं अपर्याप्तकानां भदन्त ! नैरयिकाणां १५४. भंते ! अपर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति केवइयं कालं ठिई पण्णता ? कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? कितने काल की है ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहुर्त गौतम ! उनकी स्थिति जघन्यत: और उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं। उत्कणापि अन्तर्मुहूर्त्तम् । उत्कृष्टत: अन्तर्मुहुर्त की है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : सू० १५५-१६० १५५. पज्जत्तगाणं भंते! नेरइयाणं पर्याप्तकानां भदन्त ! नैरयिकाणां १५५. भंते ! पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति केवयं कालं ठिई पण्णत्ता? कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? कितने काल की है ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वास- गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि सहस्साइं अंतोमुत्तूणाई उक्को- अन्तर्मुहूर्तोनानि, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतो. सागरोपमाणि अन्तर्मु हतॊनानि। गौतम ! उनकी स्थिति जघन्यतः दस हजार वर्ष में अन्तर्मुहूर्त न्यून और उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम में अन्तर्मुहर्त न्यून है। मुहत्तणाई। १५६. इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए, अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, एवं १५६. रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों (नरकों) की एवं जाव विजय-वेजयंत-जयंत- यावत् विजय-वेजयन्त-जयन्त- यावत् भंते ! विजय, वैजयन्त, जयंत अपराजियाणं भंते! देवाणं अपराजितानां भदन्त ! देवानां कियन्तं और अपराजित देवों की स्थिति कितने केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? काल की है ? गोयमा ! जहणणं बत्तीसं साग- गौतम ! जघन्येन द्वात्रिंशत सागरोपरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं साग- माणि उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत रोवमाई। सागरोपमाणि। गौतम ! उनकी स्थिति जघन्यत: बत्तीस सागरोपम और उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम की है। १५७. सव्वटटे अजहण्णमणुक्कोसेणं सर्वार्थे अजघन्यानुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् १५७. सर्वार्थसिद्ध की स्थिति जघन्यतः और तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम की है। पण्णत्ता। सरीर-पदं शरीर-पदम् शरीर-पद प ति भंते ! सरीरा पण्णता? कति भदन्त ! शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? १५८. भंते ! शरीर कितने हैं ? गोयमा! पंच सरीरा पण्णत्ता, गौतम ! पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तं जहा-ओरालिए वेउन्विए तद्यथा-औदारिकं वैक्रियं आहारक आहारए तेयए कम्मए। तैजसं कर्मकम् । गौतम ! शरीर पांच हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कर्मक (कार्मण)। १५६. ओरालियसरीरे णं भंते ! कइविहे औदारिकशरीरं भदन्त ! कतिविधं १५६. भंते ! औदारिक शरीर कितने प्रकार पण्णते? प्रज्ञप्तम् ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं गौतम ! पञ्चविघं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- गौतम ! वह पांच प्रकार का है, जैसेजहा-एगिदियओरालियसरोरे एकेन्द्रियऔदारिकशरीरं यावत् गर्भा- एकेन्द्रिय औदारिकशरीर यावत् जाव गम्भवक्कंतियमणुस्स- वक्रान्तिकमनुष्यपञ्चेन्द्रियऔदारिक - गर्भावक्रान्तिक - मनुष्य - पञ्चेन्द्रियपंचिदियओरालियसरीरे य। शरीरं च । औदारिक-शरीर। १६०. ओरालियसरीरस्स णं भंते! औदारिकशरीरस्य भदन्त! कियन्महती १६०. भंते ! औदारिक शरीर की अवगाहना केमहालिया सरीरोगाहणा शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? कितनी बड़ी है ? पण्णत्ता? गोयमा! जहण गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयअसंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं भागं उत्कर्षेण सातिरेक योजनसाइरेगं जोयणसहस्सं। सहस्रम् । गौतम! जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्टतः हजार योजन से कुछ अधिक । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३५२ प्रकोणक समवाय : सू० १६१-१६४ १६१. एवं जहा ओगाहणासंठाणे ओरा- एवं यथा अवगाहनासंस्थानं औदारिक- १६१. इस प्रकार जैसे 'अवगाहना संस्थान' लियपमाणं तहा निरवसेसं । एवं प्रमाणं तथा निरवशेषम् । एवं यावत् । नामक प्रज्ञापना के इक्कीसवें पद में प्रतिपादित है कि 'मनुष्य की उत्कृष्ट जाव मणस्सेत्ति उक्कोसेणं तिण्णि मनुष्यस्येति उत्कर्षेण त्रीणि गव्यूतानि ।। अवगाहना तीन गाउ की है' तक गाउयाई। औदारिक का प्रमाण अविकलरूप से ज्ञातव्य है। भदन्त ! वैक्रियशरीरं १६२. भंते ! वैक्रियशरीर कितने प्रकार का १६२. कइविहे णं भंते ! वेउव्वियसरीरे पण्णत्ते? कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते- गौतम ! द्विविधं प्रज्ञप्तम्- एकेन्द्रिय- गौतम ! वह दो प्रकार का हैएगिदियवेउब्वियसरीरेय वैक्रियशरीरं च पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर और पञ्चेन्द्रियपंचिदियवेउव्वियसरीरे य। च। वैक्रिय-शरीर। १६३. एवं जाव ईसाणकप्पपज्जत। एवं यावत्ईशानकल्पपर्यन्तम् । १६३. इस प्रकार प्रज्ञापना पद इक्कीस में वणित ईशान कल्प पर्यन्त वक्तव्य है। सणंकुमारे आढत्तं जाव अणत्तरा सनत्कुमारे आरब्धं यावत् अनुत्तरा भवधारणिज्जा तेसि रयणी रयणी भवधारणीया तेषां रनि: रत्निः परिपरिहायइ। हीयते। सनत्कुमार देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना छह हाथ की है। वहां से अनुत्तर विमान तक के देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना एकएक रत्नि हीन होती है। सरीरे? १६४. आहारयसरीरे णं भंते ! कइविहे अहारकशरीरं भदन्त ! कतिविधं १६४. भंते ! आहारक शरीर कितने प्रकार पण्णते? प्रज्ञप्तम् ? गोयमा ! एगाकारे पण्णत्ते। गौतम ! एकाकारं प्रज्ञप्तम् । गौतम ! वह एक आकार वाला है। जइ एगाकारे पण्णत्ते, किं मणुस्स- यदि एकाकारं प्रज्ञप्तं, कि मनुष्य- भंते ! यदि एक आकार वाला है तो आहारयसरीरे? अमणुस्सआहारय- आहारकशरीरम् ? अमनुष्यआहारक- क्या वह मनुष्य-आहारक-शरीर है या शरीरम् ? अमनुष्य-आहारक-शरीर ? गोयमा ! मणुस्सआहारयसरीरे, गौतम ! मनुष्यआहारकशरीरं, नो । गौतम ! वह मनुष्य-आहारक-शरीर है, णो अमणुस्सआहारगसरीरे। अमनुष्यआहारकशरीरम् । अमनुष्य-आहारक-शरीर नहीं है। जइ मणुस्सआहारयसरीरे, कि यदि मनुष्यआहारकशरीरं, कि । भंते ! यदि मनुष्य-आहारक-शरीर है गम्भवक्कंतियमणुस्सआहारग . गर्भावक्रान्तिक-मनुष्यआहारकशरीरम्? । तो क्या वह गर्भावक्रान्तिक-मनुष्यसरीरे? संमुच्छिममणुस्स- सम्मूच्छिममनुष्यआहारकशरीरम् ? आहारक-शरीर है या सम्मूर्च्छमआहारगसरीरे ? मनुष्य-आहारक-शरीर है ? गोयमा! गम्भवक्कंतियमणुस्त- गौतम ! गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारक- गौतम ! वह गर्भावक्रान्तिक-मनुष्यआहारयसरीरे नो समुच्छिम- शरीरं, नो सम्मूच्छिममनुष्यआहारक- आहारकशरीर है, सम्मूर्छममनुष्यमणस्सआहारयसरीरे। शरीरम्। आहारक शरीर नहीं है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३५३ भवतियमस्सआहारग- यदि गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीरं, सरीरे, कि कम्मभूमगगन्भवक्कं किं कर्मभूमिकगर्भावक्रान्तिकमनुष्यतियमणुस्स आहार यसरी रे ? आहारकशरीरम् ? अकर्मभूमिकअम्मभूमभवक्कं तियमणुस्स गर्भावक्रान्तिक- मनुष्य आहारकशरीरम् ? आहार यसरी रे ? गोयमा ! कम्मभूमग- गन्भववकं - गौतम ! कर्मभूमिक-गर्भावक्रान्तिकनो मनुष्यआहारकशरीरं, नो अकर्मभूमिकगर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् । तिय मणुस्स आहार यसरीरे, अकम्मभूम गगन्भववकं तियमणुस्सआहार यसरी रे । जइ कम्मभूमग-गन्भवक्कंतिय- यदि कर्मभूमिक- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं, कि संख्येयवर्षायुष्कगर्भावक्रान्तिकमनुष्यकर्मभूमिक भक् तियमणुस्स आहारय आहारकशरीरम् ? असंख्येयवर्षायुष्कसरीरे ? असंखेज्जवासाउयकम्म- कर्मभूमिक गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहार यसरी रे, संखेज्जवासाउय कि कम्मभूमग - - भूमग भवक्कं तियमणस्स आहारकशरीरम् ? आहारय सरीरे ? - गोयमा ! संखेज्जवासाज्यकम्म- गौतम ! संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिकभूमग भववतियमणुस्स गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीरं, नो आहार यसरीरे, नो असंखेज्ज - असंख्येयवर्षायुष्क कर्मभूमिवासाज्य-कम्मभूमग - गब्भवक्कं- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् ? तियमणुस्स आहारय सरीरे । जइ संखेज्जवासाज्य - कम्मभूमगभववकं तियमणुस्स आहारय: सरीरे, कि पज्जत्तय संखेज्जवासाउय कम्मभूमग - गब्भवक्कंतियमस्स आहारयसरी रे ? अपज्जतय संखेज्जवासाज्य कम्मभूमग गन्भवक्कंतियमणुस्स आहारय सरीरे ? - - गोयमा ! पज्जत्तय संखेज्जवासाउय गौतम ! पर्याप्त क- संख्येय वर्षायुष्क-कर्म भूमिक- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं, नो अपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिक गर्भावान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् । कम्मभूमगगन्भवक्कतियमणुस्सआहारयसरीरे, नो अपज्जत्तयसंखेज्जवासाउय कम्मभूमगभवतियमणुस्स आहारय सरीरे । यदि संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिकगर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीरं, किं पर्याप्तक- संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीरम् ? अपर्याप्तक- संख्येयवर्षायुष्क- कर्मभूमिकगर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीरम् ? प्रकीर्णक समवाय: सू० १६४ भंते! यदि गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है तो क्या वह कर्मभूमिजगर्भावक्रान्तिक मनुष्य आहारकशरीर है या अकर्मभूमि- गर्भावान्तिकमनुष्यनाहारकशरीर ? गौतम ! वह कर्मभूमि- गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है, अकर्म भूमिज - गर्भावान्तिक मनुष्य आहारक शरीर नहीं है । भंते! यदि कर्मभूमिज गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है तो क्या वह संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहार कशरीर है या असंख्येय वर्षायुष्क - कर्मभूमिज गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारक शरीर ? गौतम ! वह संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज गर्भावान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है, असंख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिजगर्भावान्तिक मनुष्य आहारकशरीर नहीं भंते ! यदि संख्येयवर्षायुष्क-कर्म भूमिजगर्भावान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है तो क्या वह पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज गर्भावान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है या अपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है ? - - गौतम ! वह पर्याप्तक-संख्येय वर्षायुष्ककर्मभूमिज गर्भावान्तिक मनुष्यआहारक- शरीर है, अपर्याप्तक- संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर नहीं है । - Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो प्रकोणक समवाय : सू० १६४ जइ पज्जत्तय-संखेज्जवासाउय- यदि पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मकम्मभूमग - गब्भवक्कंतियमणुस्स भूमिक - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकआहारयसरीरे, किं सम्मद्दिट्ठि- शरीरं, किं सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकपज्जत्तय - संखेज्जवासाउय-कम्म- संख्येयवर्षायुष्क . कर्मभूमिक-गर्भाभूमग - गम्भवक्कंतियमणुस्स वक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् ? आहारयसरीरे ? मिच्छदिट्ठि- मिथ्यादृष्टि - पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्कपज्जत्तय-संखेज्जवासाउय-कम्मभू- कर्मभूमिक - गर्भावक्रान्तिक-मनुष्यमग . गम्भवक्कंतियमणुस्स - आहारकशरीरम् ? सम्यग्मिथ्यादृष्टिआहारयसरीरे? सम्मामिच्छदिट्ठि- पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिकपज्जत्तय-संखेज्जवासाउय-कम्म - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् ? भूमग - गब्भवक्कंतियमणुस्स - भंते ! यदि पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज-गर्भावक्रान्तिक- मनुष्यआहारकशरीर है तो क्या वह सम्यक्दृष्टिपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिजगर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है या मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज-गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर है या सम्यक् मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारक शरीर है? आहारयसरीरे ? गौतम ! वह सम्यक्दृष्टि पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिक-मनुष्य - आहारक-शरीर है, मिथ्याष्टि-पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर नहीं है तथा सम्यक्मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्य आहारकशरीर भी नहीं है। गोयमा! सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तय- गौतम ! सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमग- संख्येयवर्षायुष्क . कर्मभूमिकगम्भवक्कंतियमणुस्साहारय - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं, नो । सरोरे, नो मिच्छदिट्ठि-पज्जत्तय- मिथ्यादृष्टि - पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्कसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमग- कर्मभूमिक - गर्भावक्रान्तिकमनुष्य - गम्भवक्कंतियमणुस्स - आहारय- आहारकशरीरं, नो सम्यग्मिथ्यादृष्टिसरीरे, नो सम्मामिच्छदिदि- पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिकपज्जत्तय-संखेज्जवासाउय- कम्म- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् ? भूमग • गम्भवक्कंतियमणुस्सआहारयसरीरे। जइ सम्मद्दिदि-पज्जत्तय-संखेज्ज- यदि सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तकवासाउय-कम्मभूमग - गब्भवक्कं- संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिक-गर्भातियमणुस्स-आहारयसरीरे, किं वक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं, किं । संजय- सम्मदिट्टि - पज्जत्तय- संयत - सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तक-संख्येय - संखेज्जवासाउय - कम्मभूमग- वर्षायुष्क - कर्मभूमिक - गर्भावक्रान्तिकगब्भवक्कंतियमणुस्स - आहारय - मनुष्यआहारकशरीरम्? असंयत-सम्यग्सरीरे ? असंजय-सम्मद्दिदि- दृष्टि-पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मपज्जत्तय-संखेज्जवासाउय - कम्म- भूमिक-गर्भावक्रान्तिक-मनुष्य-आहारकभूमग - गम्भवक्कंतियमणुस्स- शरीरम् ? संयतासंयत-सम्यग्दृष्टिआहारयसरीरे ? संजयासंजय- पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिक - सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तय- संखेज्जवासा- गर्भावक्रान्तिकमनुष्य-आहारकशरीरम्? उय-कम्मभूमग - गम्भवक्कंतियमणुस्स आहारयसरीरे ? गोयमा! संजय-सम्मद्दिष्टि- गौतम ! संयत-सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तकपज्जत्तय - संखेज्जवासाउय-कम्म- संख्येयवर्षायष्क - कर्मभूमिक- भूमग - गम्भवक्कंतियमणुस्स- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं, नो आहारयसरीरे, नो असंजय-सम्म- असंयत - सम्यगदृष्टि - पर्याप्तक भंते ! यदि सम्यक्दृष्टि - पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है तो क्या वह संयत-सम्यक्ष्टि - पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है या असंयत-सम्यक्ष्टि - पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है या संयतासंयतसम्यक्दृष्टि-पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है ? गौतम ! वह संयत-सम्यक्दृष्टि पर्याप्तक-संख्येयवर्षायूष्क - कर्मभमिजगर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है, असंयत-सम्यक्रष्टि-पर्याप्तक - संख्येय. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णक समवाय : सू० १६४ वर्षायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर नहीं है तथा संयतासंयत - सम्यक्दृष्टि - पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्क कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर भी नहीं समवानो ३५५ दिद्वि-पज्जत्तय - संखेज्जवासाउय- संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिककम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्स - गर्भावक्रान्तिकआहारकशरीरं, नो आहारयसरीरे, नो संजयासंजय- संयतासंयत - सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तकसम्मद्दि ट्ठि-पज्जत्तय-संखेज्जवासा- संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिकउय-कम्मभूमग - गब्भवक्कंतिय - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरोरम् । मणुस्स-आहारयसरीरे। जइ संजय-सम्मद्दिद्वि-पज्जत्तय- यदि संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमग- संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिकगब्भवक्कंतियमणस्स - आहारय- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं सरीरे, कि पमत्तसंजय-सम्मद्दिष्ट्रि- किं प्रमत्तसंयत - सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकपज्जत्तय-संखेज्जवासाउय - कम्म- संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिकभूमग - गब्भवक्कंतियमणुस्स- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् ? आहारयसरीरे ? अपमत्तसंजय- अप्रमत्तसंयत - सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तकसम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तय-संखेज्जवासा - संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिक य- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् ? मणुस्स-आहारयसरीरे? भंते ! यदि संयत-सम्यक्ष्टि -पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है तो क्या वह प्रमत्तसंयत - सम्यष्टिपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिजगर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है या अप्रमत्तसंयत-सम्यक्दृष्टि - पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुप्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है ? गौतम ! वह प्रमत्तसंयत-सम्यकदृष्टिपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिजगर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है, अप्रमत्तसंयत - सम्यकदृष्टि - पर्याप्तकसंख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर नहीं है। गोयमा ! पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि- गौतम! प्रमत्तसंयत - सम्यग्दृष्टिपज्जत्तय-संखेज्जवासाउय - कम्म- पर्याप्तक - संख्येयवर्षायूष्क- कर्मभूमिकभूमग - गब्भवक्कंतियमणुस्स- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं, नो । आहारयसरीरे, नो अपमत्तसंजय- अप्रमत्तसंयत - सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तकसम्मद्दिष्टि-पज्जत्तय- संखेज्जवासा- संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिकउय - कम्मभूमग - गम्भवक्कंतिय- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् । मणुस्स-आहारयसरीरे। जइ पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि- यदि प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक- पज्जत्तय - संखेज्जवासाउय-कम्म- संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिकभूमग - गब्भवतियमणस्स- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरं आहारयसरीरे, कि इड्ढिपत्त- कि ऋद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टिपमत्तसंजय - सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तय- पर्याप्तक -संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिकसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग- गब्भ- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीरम् ? वक्कंतियमगुस्सआहारयसरीरे ? अनुद्धिप्राप्त - प्रमत्तसंयत - सम्यग्दृष्टिअणिड्ढिपत्त - पमत्तसंजय - सम्म- पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिकद्दिट्ठि-पज्जत्तय - संखेज्जवासाउय- गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरोरम् ? कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्स - आहारयसरोरे ? भंते ! यदि प्रमत्तसंयत-सम्पदृष्टिपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क - कर्मभूमिजगर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है तो क्या वह ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयतसम्यक्दृष्टि-पर्याप्तक - संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है या अऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यक्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारक शरीर है ? गोयमा ! इडिपत्त-पमत्तसंजय- गौतम ! ऋद्धिप्राप्त - प्रमत्तसंयतसम्मद्दिद्वि-पज्जत्तय-संखेज्जवासा- सम्यग्दृष्टि - पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्कउय - कम्मभूमग - गब्भवक्कंतिय- कर्मभूमिक • गर्भावक्रान्तिकमनुष्यमणुस्स-आहारयसरोरे, नो अणि- आहारकशरीरं, नो अनृद्धिप्राप्त गौतम ! वह ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयतसम्यकदृष्टि - पर्याप्तक-संख्येयवायूष्ककर्मभूमिज - गर्भावक्रान्तिकमनुष्यआहारकशरीर है, अऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो डिपत्त पमत्तसंजय सम्मद्दिट्टि पज्जतय संखेज्जवासाज्य कम्म भूमग गन्भवक्कं तियम गुस्स आहारयसरीरे । - - १६६. आहारयसरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं देसूणा रयणी arti पडण्णा रणी । १६५. आहारयसरीरे णं भंते! कि संठिए आहारकशरीरं भदन्त ! किं संस्थितं १६५. भंते ! आहारक-शरीर किस संस्थान पण्णत्ते ? से संस्थित है ? प्रज्ञप्तम् ? गोयमा ! समचउरंस संठाणसंठिए गौतम ! पण्णत्ते । समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम् । १६८. एवं जाव १६९. गेवेज्जस्स णं भंते ! देवस्स मारणंतिय समुग्धातेणं समोहयस्स यासरीरस्स के महालिया सरोरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ती विक्खभ बाहल्लेणं, _ जहणणं अहे जाव विज्जाहरसेढीओ, उक्कोसेणं अहे जाव अहोलोइया गामा, तिरियं जाव मनुस्सखेत्तं उड़ढं जाव सयाई विमाणाइं । ३५६ प्रमत्तसंयत सम्यग्रडष्टि- पर्याप्तकसंख्येय वर्षायुष्क कर्मभूमिगर्भावकान्तिक मनुष्य आहारकशरीरम् । १६७. तेयासरीरे णं भंते! कतिविहे तैजसशरीरं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? १६७. भंते । तैजस शरीर कितने प्रकार का पण्णत्ते ? है ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्तेएगिदियतेया सरीरे य बेंदियतेयासरीरे य तेंदियतेयासरीरे य चरदियतेयासरीरेय पंचेंदियतेयासरीरे य । १७०. एवं अणुत्तरोववाइया वि । प्रकीर्णक समवाय: सू० १६५-१७१ सम्यकदृष्टि- पर्याप्तक - संख्येय वर्षायुष्ककर्मभूमि- गर्भावान्तिक मनुष्य आहारकशरीर नहीं है । आहारकशरीरस्य कियन्महती शरीरा - १६६. भंते ! आहारक- शरीर की शरीराववगाहना प्रज्ञप्ता ? गाना कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! गौतम ! जघन्यतः कुछ न्यून एक रत्नि और उत्कृष्टतः परिपूर्ण रत्नि । जघन्येन देशोनो रत्नि: उत्कर्षेण प्रतिपूर्णो रत्नि: । गौतम ! पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्एकेन्द्रियतैजसशरीरं च द्वीन्द्रियतैजसशरीरं च त्रीन्द्रियतैजसशरीरं च चतुरिन्द्रियतैजसशरीरं च पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरं च । एवं यावत् ग्रैवेयस्य भदन्त । देवस्य मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य तैजसशरीरस्य कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! शरीरप्रमाणमात्री विष्कम्भबाहल्याभ्यां आयामेन जघन्येन अधो यावत् विद्याधरश्रेणी, उत्कर्षेण अधो यावत् अधोलौकिकग्रामान् तिर्यक् यावत् मनुष्यक्षेत्रं उर्ध्वं यावत् स्वकानि विमानानि । एवं अनुत्तरोपपातिका अपि । १७१. एवं कम्मयसरीरं पि भाणिपव्वं । एवं कर्मशरीरमपि भणितव्यम् । गौतम ! वह सम-चतुष्कोण संस्थान से संस्थित है । गौतम ! वह पांच प्रकार का है, जैसे- १. एकेन्द्रिय तैजस शरीर २. द्वीन्द्रिय तेजस शरीर ३. त्रीन्द्रिय तेजस शरीर ४ चतुरिन्द्रिय तेजस शरीर ५. पञ्चेन्द्रिय तैजस शरीर । १६८. इसी प्रकार प्रज्ञापना पद इक्कीस यहां वक्तव्य है । १६६. भंते! ग्रैवेयक देव के मारणान्तिक समुद्घात से समवहुत तेजस शरीर की शरीरावगाहना कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! वह चोड़ाई और मोटाई में शरीर प्रमाणमात्र, लंबाई में नीचे जघन्यतः विद्याधर की श्रेणी तक और उत्कृष्टतः अधोलौकिक गावों तक, तिरछे में मनुष्य क्षेत्र तक और अपनेअपने विमान की पताका तक होती है । १७०. इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देवों के विषय में भी जानना चाहिए । १७१. कार्मण शरीर की वक्तव्यता तैजस शरीर के समान ही है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ प्रकोणक समवाय : सू० १७२-१७४ अवधि-पद अवधि-पदम् संग्रहणी गाथा समवानो ओहि-पदं संगहणी गाहा १. भेदे विसय संठाणे, अन्भंतर बाहिरे य देसोही। ओहिस्स वडि-हाणी, पडिवाती चेव अपडिवाती॥ १. भेदो विषयः संस्थान, आभ्यन्तरबाह्यौ च देशावधिः । अवधेः वृद्धि-हानी, प्रतिपातिश्चैव अप्रतिपातिः ।। भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर, बाह्य, देश, सर्व, वृद्धि, हानि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती-ये अवधिज्ञान के द्वार १७२. कइविहे गं भंते ! ओही पण्णते? कतिविधः भदन्त ! अवधिः प्रज्ञप्तः ? १७२. भंते ! अवधिज्ञान कितने प्रकार का गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते- गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्त:भवपच्चइए य खओवसमिए य। भवप्रत्ययिकश्च क्षायोपशमिकश्च । एवं एवं सव्वं ओहिपदं भाणियध्वं । सर्व अवधिपदं भणितव्यम । गौतम ! वह दो प्रकार का हैभवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक । यहां सम्पूर्ण अवधि पद (प्रज्ञापना पद ३३) वक्तव्य है। वेदना-पद वेदना-पदम् संग्रहणी गाथा वेयणा-पदं संगहणी गाहा १. सीता य दव्व सारीर, साय तह वेयणा भवे दुक्खा। अब्भुवगमवक्कमिया, णिदाए चेव अणिदाए॥ १. शीता च द्रव्यशारीरी, साता तथा वेदना भवेद्दुःखा। आभ्युपगमिक्यौपक्रमिक्यौ, निदया चैव अनिदया । शीत वेदना, उष्ण वेदना, शीतोष्ण वेदना, द्रव्य वेदना, क्षेत्र वेदना, काल वेदना, भाव वेदना, शारीरिकी वेदना, मानसिकी वेदना, शारीर-मानसिकी वेदना, सात वेदना, असात वेदना, सात-असात वेदना, सुख वेदना, दुःख वेदना और सुख-दुःख वेदना, आभ्युपगमिकी वेदना, औपक्रमिकी वेदना, निदा वेदना और अनिदा वेदना-ये वेदना के द्वार हैं। १७३. नेरडया णं भंते! कि सीतवेयणं नैरयिकाः भदन्त ! कि शीतवेदनां १७३. भंते ! रयिक क्या शीत वेदना का वेदंति? उसिणवेयणं वेदंति? वेदयन्ति. उष्णवेदनां वेदयन्ति ? वेदन करते हैं अथवा उष्ण वेदना का सीतोसिणवेयणं वेदंति? शीतोष्णवेदनां वेदयन्ति ? वेदन करते हैं अथवा शीतोष्ण वेदना का वेदन करते हैं ? गोयमा! नेरइया सोतं वि वेदणं गौतम ! नैरयिका: शीतामपि वेदनां वेदेति, उसिणं पि वेदणं वेदेति, वेदयन्ति, उष्णमपि वेदनां वेदयन्ति, नो णो सीतोसिणं वेदणं वेति । एवं शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति। एवं चैव चेव वेयणापदं भाणियन्वं । वेदनापदं भणितव्यम। गौतम ! नैरयिक शीत वेदना का भी वेदन करते हैं, उप्ण वेदना का भी वेदन करते हैं किन्तु शीतोष्ण वेदना का वेदन नहीं करते। यहां सम्पूर्ण वेदना पद (प्रज्ञापना पद ३५) वक्तव्य है। लेसा-पदं लेश्या-पदम् लेश्या-पद १७४. कइ णं भंते ! लेसाओ कति भदन्त ! लेश्याःप्रज्ञप्ताः ? पण्णत्ताओ? १७४. भंते ! लेश्याएं कितनी हैं ? Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३५८ प्रकीर्णक समवाय : सू० १७५-१७७ गोयमा! छ लेसाओ पण्णत्ताओ, गौतम ! षट लेश्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातं जहा-किण्हलेसा नीललेसा कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा तेजःलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या। एवं सुक्कलेसा। एवं लेसापयं भाणि- लेश्यापदं भणितव्यम । यव्वं । गौतम ! लेश्याएं छह हैं, जैसेकृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तैजसले श्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। यहां लेश्या पद (प्रज्ञापना पद १७/२-६) वक्तव्य है। आहार-पद आहार-पदम् संग्रहणी गाथा आहार-पदं संगहणी गाहा १. अणंतरा य आहारे, आहाराभोगणाऽवि य। पोग्गला नेव जाणंति, अज्झवसाणा य सम्मत्ते॥ १. अनन्तराश्च आहारे आहाराभोगतापि च । पुदगलान्नैव जानन्ति अध्यवसानानि च सम्यक्त्वम् ।। अनन्तर आहार, आभोग आहार, अनाभोग आहार, पुद्गलों को नहीं जानना, अध्यबसान और सम्यक्त्वये आहार के द्वार हैं। १७५. नेरडया णं भंते ! अणंतराहारा नैरयिकाः भदन्त ! अनन्तराहाराः १७५. भंते ! क्या नैरयिक अनन्तर आहार तओ निव्वत्तणया तओ परियाइ- ततः निर्वर्तनं ततः पर्यादानं ततः (उपपात क्षेत्र-प्राप्ति के उसी क्षण आहार) करते हैं ? तदन्तर निर्वर्तन यणया तओ परिणामणया तओ परिणामनं ततः परिचारणं ततः पश्चाद् (शरीर-रचना), पर्यादान (अंगपरियारणया तओ पच्छा- विकरणम् ? प्रत्यंगों से ग्रहण), परिणमन, परिचाविकुव्वणया ? रण (शब्द आदि विषयों का उपभोग) और विक्रिया (नानारूपकरण) करते हंता गोयमा! नेरइया णं हन्त गौतम ! नैरयिका अनन्तराहाराः अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया ततः निर्वर्तनं ततः पर्यादान ततः ततो परियाइयणया तओ परि- परिणामनं ततः परिचारणं ततः पश्चाद् णामणया तओ परियारणया तओ विकरणम् । एवं आहारपदं पच्छा विकुव्वणया। एवं आहार- भणितव्यम् । पदं भाणियब्वं । गौतम ! हां, नैरयिक अनन्तर आहार, तदनन्तर निर्वर्तन, पर्यादान, परिणमन, परिचारण और विक्रिया करते हैं। यहां आहार पद६ वक्तव्य है। आउगबंध-पदं आयुष्कबन्ध-पदम् आयुष्यबंध-पद १७.कविहे णं भंते ! आउगबंध कतिविध: भदन्त ! आयुष्कबन्धः १७६. भंते ! आयुष्य-बंध कितने प्रकार का पण्णते? प्रज्ञप्तः ? गोयमा ! छविहे आउगबंधे गौतम ! षड्विधः आयुष्कबन्धः प्रज्ञप्तः, गौतम ! आयुष्य-बंध छह प्रकार का पण्णत्ते, तं जहा-जाइनाम- तद्यथा-जातिनामनिधत्तायुष्क: गति- है, जैसे-१. जातिनामनिषिवत आयु निधत्ताउके गतिनामनिधत्ताउके नामनिधत्तायुष्क: स्थितिनामनिधत्ता- २. गतिनामनिषिक्त आयु ३. स्थितिठिइनामनिधत्ताउके पएसनाम- युष्क: प्रदेशनामनिधत्तायुष्कः अनुभाग- नामनिषिक्त आयु ४. प्रदेशनाम निषिक्त निधत्ताउके अणुभागनामनिधत्ता- नामनिधत्तायुष्क: अवगाहनानामनिधत्ता- आयु ५. अनुभागनामनिषिक्त आयु उके ओगाहणानामनिधत्ताउके। युष्कः। ६ अवगाहनानामनिषिक्त आयु । १७७. नेरडयाणं भंते ! कइविहे आउग- नैरयिकाणां भदन्त ! बंधे पण्णते? आयुष्कबन्धः प्रज्ञप्त: ? कतिविध: १७७. भंते ! नैरयिकों के कितने प्रकार का आयुष्य-बंध होता है? Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३५९ प्रकीर्णक समवाय : सू० १७८-१८४ गोयमा! छविहे पण्णत्ते, तं गौतम! षडविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-- गौतम ! वह छह प्रकार का है, जैसेजहा–जातिनामनिधत्ताउके जातिनामनिधत्तायुष्कः गतिनामनिघत्ता- १ जातिनामनिषिक्त आयु २. गतिगइनामनिधत्ताउके ठिइनाम- युष्क: स्थितिनामनिधत्तायुष्क: प्रदेश- नामनिषिक्त आयु ३. स्थितिनामनिधत्ताउके पएसनामनिधत्ताउके नामनिधत्तायुष्कः अनूभागनामनिधत्ता- निषिक्त आयु ४. प्रदेशनामनिषिक्त ओगाहणाणामनिधत्ताउके। युष्क: अवगाहनानामनिधत्तायुष्कः । आयु ५. अनुभागनामनिषिक्त आयु ६. अवगाहनानामनि षिक्त आयु। १७८. एवं जाव वेमाणियत्ति। मानिका इति । १७८. इसी प्रकार शेष वैमानिक तक के दंडकों के लिए यही वक्तव्यता है। उववाय-उव्वट्टणा-विरह-पदं उपपात-उद्वर्तना-विरह-पदम् उपपात-उद्वर्तना-विरह-पद १७९. निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं निरयगतिः भदन्त ! कियन्तं कालं १७९. भंते ! नरकगति में उपपात का विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? विरहिता उपपातेन प्रज्ञप्ता ? विरहकाल कितना है? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, गौतम ! जघन्येन एक समयं, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः एक समय का और उक्कोसेणं बारसमुहुत्ते। द्वादशमुहूर्तान् । उत्कृष्टतः बारह मुहूर्त का है। १८०. एवं तिरियगई मणुस्सगई एवं तिर्यग्गति: मनुष्यगति: देवगतिः। १८०. इसी प्रकार तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति देवगई। और देवगति के उपपात का विरहकाल बारह-बारह मुहूर्त का है । १८१.सिद्धिगई णं भंते! केवइयं कालं सिद्धगतिः भदन्त ! कियन्तं कालं १८१. भंते ! सिद्धिगति में सिद्ध होने का विरहिया सिझणयाए पण्णत्ता। विरहिता सिद्धतया प्रज्ञप्ता? विरहकाल कितना है ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं गौतम ! जघन्येन एक समय, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः एक समय और उक्कोसेणं छम्मासे। षण्मासान् । उत्कृष्टतः छह मास। १८२. एवं सिद्धिवज्जा उव्वट्टणा। एवं सिद्धिवर्जा उद्वर्तना ! १८२. इसी प्रकार सिद्धिगति को वर्जकर चारों गतियों की उद्वर्तना का विरहकाल बारह-वारह मुहर्त का है। १८३. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां १८३. भंते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में नरयिकों पुढवीए नेरइया केवइयं कालं नैरयिकाः कियन्तं कालं विरहिताः के उपपात का विरहकाल कितना है ? विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? उपपातेन प्रज्ञप्ताः ? गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, गौतम ! जघन्येन एक समयं, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः एक समय और उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। चतुर्विंशतिः मुहूर्तान् । उत्कृष्टत: चौबीस मुहूर्त। एवं उववायदंडओ भाणियव्वो, एवं उपपातदण्डको भणितव्यः, इसी प्रकार उपपात और उद्वर्तन के उव्वद्रणादंडओ वि। उद्वर्तनादण्डकोऽपि। विषय में जानना चाहिए। आगरिस-पदं आकर्ष-पदम् आकर्ष-पद १८४. नेरइया णं भंते ! जातिनाम- नैरयिकाः भदन्त ! जातिनामनिषिक्ता- १८४. भंते ! नैरयिक जातिनामनिषिवत निहत्ताउगं कतिहि आगरिसेहि यष्क कतिभिराकर्षेः प्रकुर्वन्ति ? आयुष्य कितने आकर्षों से बांधता पगरेंति ? Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३६० प्रकीर्णक समवाय सू० १८४-१८८ गोयमा ! सिय एक्केण सिय गौतम ! स्यात् एकेन स्यात् द्वाभ्यां गौतम ! नरयिक जीव कभी एक दोहि सिय तीहि सिय चहि सिय स्यात् त्रिभिः स्यात् चतुर्भिः स्यात् आकर्ष से, कभी दो आकर्षों से, कभी पंचहि सिय छहि सिय सहि सिय पञ्चभिः स्यात् षड्भिः स्यात् सप्तभिः तीन आकर्षों से, कभी चार आकर्षों से, कभी पांच आकर्षों से, कभी छह अहि, नो चेव णं नवहिं। स्यात् अष्टभिः, नो चैव नवभिः । आकर्षों से, कभी सात आकर्षों से और कभी आठ आकर्षों से जातिनामनिषिक्त आयुष्य बांधता है, किन्तु नौ आकर्षों से कदापि नहीं बांधता। १५. एवं सेसाणि वि आउगाणि जाव एवं शेषाण्यपि आयुष्काणि यावत् १८५. इसी प्रकार आयुष्य के गतिनामनिषिक्तवेमाणियत्ति। वैमानिका इति। आयु आदि शेष पांच प्रकार ज्ञातव्य हैं। शेष वैमानिक तक के दंडकों के लिए यही वक्तव्यता है। संघयण-पदं संहनन-पदम् संहनन-पद १८६. कइविहे णं भंते ! संघयणे कतिविधं भदन्त ! संहननं प्रज्ञप्तम् ? १८६. भंते ! संहनन कितने प्रकार का है ? पण्णते? गोयमा ! छविहे संघयणे गौतम ! षड्विधं संहननं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! संहनन छह प्रकार का है, पण्णत्ते, तं जहा-वइरोसभनाराय- तद्यथा-वज्रर्षभनाराचसंहननं ऋषभ- जैसे-१. वज्रऋषभनाराच संहनन संघयणे रिसभनारायसंघयणे नाराचसंहननं नाराचसंहननं २. ऋषभनाराच संहनन ३. नाराच नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे अर्द्धनाराचसंहननं कीलिकासंहननं संहनन ४. अर्द्धनाराच संहनन खीलियासंघयणे छेवट्टसंघयणे। सेवार्तसंहननम् । ५. कीलिका संहनन ६. सेवात संहनन । १७. नेरइया णं भंते ! किसंघयणी? नैरयिकाः भदन्त ! किसंहननाः? १८७. भंते ! नरयिक किस संहनन वाले गोयमा ! छण्हं संघयणाणं गौतम! षण्णां संहननानां असंहननाः- होते हैं ? असंघयणी-णेवटी व छिरा नैवास्थीनि नैव शिरा: नैव स्नायवः, ये गौतम ! नैरयिकों के इन छह संहननों व हारू, जे पोग्गला अणिद्वा पुद्गला: अनिष्टाः अकान्ताः अप्रियाः में से एक भी नहीं होता। वे असंहननी अकंता अप्पिया असुभा अमणुण्णा अशुभाः अमनोज्ञाः अमनआपाः ते तेषां हैं। उनके न अस्थि होता है, न शिरा अमणामा ते तेसि असंघयणताए असंहननतया परिणमन्ति । और न स्नायु । जो पुद्गल अनिष्ट, परिणमंति। अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और मनः प्रतिकूल होते हैं वे उनके असंहनन के रूप में परिणत होते हैं। १८८. असुरकुमारा णं भते ! किसंघ- असरकमारा: भदन्त ! किंसंहननाः १८८. भंते ! असुरकुमार किस संहनन वाले यणी पण्णता? प्रज्ञप्ता:? होते हैं ? गोयमा! छण्हं संघयणाणं गौतम! षण्णां संहननानां गौतम ! असुरकुमारों के इन छह असंघयणी-णेवट्ठी णेव छिरा असंहननाः-नैवास्थीनि नैव शिराः नैव । संहननों में से एक भी नहीं होता। वे णेव हारू, जे पोग्गला इट्ठा कंता स्नायवः, ये पुद्गलाः इष्टाः कान्ताः असंहननी हैं। उनके न अस्थि होता है, पिया सुभा मणुण्णा मणामा ते प्रियाः शुभाः मनोज्ञा: मनआपाः ते न शिरा और न स्नायु । जो पुद्गल तेसि असंघयणत्ताए परिणमंति। तेषां असंहननतया परिणमन्ति । इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ और मनोनुकूल होते हैं वे उनके असंहनन के रूप में परिणत होते हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १८. एवं जाव थणिय कुमारत्ति । १६१. एवं जाव संमुच्छि मपचदिय तिरिक्खजोणियत्ति | १६०. पुढवीकाइया णं भंते! किसंघ- पृथ्वीकायिका : भदन्त ! किंसंहनना: १६०. भंते ! यणी पण्णत्ता ? प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! सेवार्त्तसंहननाः प्रज्ञप्ताः । गोमा ! छेवट्टसंघयणी पण्णत्ता । १२. गन्भवक्कतिया छविहसंघयणी । १३. समुच्छिममणुस्सा णं छेवट्टसंघ सम्मूच्छिममनुष्याः सेवार्त्तसंहननाः । यणी । १६५. जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया य । १९६. कइविहे णं भंते ! पण्णत्ते ? ३६१ एवं यावत् स्तनितकुमारा इति । गोयमा ! छवि ठाणे पण्णत्ते, तं जहा - समचरं जग्गोहपरि मंडले साती खुज्जे वामणे हंडे । १६८. असुरकुमारा पण्णत्ता ? एवं यावत् सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति । १६. पुढवी मसूरयसंठाणा पण्णत्ता । गर्भावक्रान्तिकाः षड्विधसंहननाः । १४. गन्भवक्कंतियमणुस्सा छव्विह- गर्भावक्रान्तिकमनुष्याः षड्विधसंहननाः १६४. गर्भावक्रान्तिक मनुष्यों के हों संहनन होते हैं । संघयणी पण्णत्ता । प्रज्ञप्ताः । संठाणे कतिविधं भदन्त ! संस्थानं प्रज्ञप्तम् ? यथा असुरकुमाराः तथा वानमन्तराः ज्योतिष्काः वैमानिकाश्च । १६७. रइया णं भंते ! पण्णत्ता ? किसंठाणा नैरयिकाः भदन्त ! प्रज्ञप्ता: ? गोमा ! हुंडठाणा पण्णत्ता । गौतम ! हुण्डसंस्थाना: प्रज्ञप्ताः । किसंठाणसंठिया गोयमा ! समचउरंसठाणसंठिया पण्णत्ता जाव थणियत्ति । गौतम! षड्विधं संस्थानं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि कुब्जं वामनं हुण्डम् । प्रकोणक समवाय: सू० १८६-१६६ १८. स्तनितकुमार तक के सभी भवनपति देव असंहननी होते हैं । असुरकुमाराः प्रज्ञप्ता: ? गौतम! समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः । यावत् स्तनिता इति । पृथ्वीकायिक जीव किस पृथिवी मसूरकसंस्थाना प्रज्ञप्ता । संहनन वाले होते हैं ? गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के सेवार्त संहनन होता है । १९१. इसी प्रकार ( यावत् ) सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों के केवल सेवा संहनन होता है । १९२. गर्भावक्रान्तिक तियंञ्चों के छहों संहनन होते हैं । १९३. सम्मूच्छिम मनुष्यों के सेवार्त्त संहनन होता है। किंसंस्थाना : १९७. भंते! नैरयिक किस संस्थान वाले होते हैं ? गौतम ! वे हुण्ड संस्थान वाले होते हैं । १९५. वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की वक्तव्यता असुरकुमार देवों के समान है । १९६. भंते! संस्थान कितने प्रकार के हैं ? किंसंस्थान -संस्थिताः १६८. भंते! असुरकुमार किस संस्थान वाले होते हैं ? गौतम ! वे समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं । स्तनितकुमार तक के सभी भवनपति देव समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं । गौतम ! संस्थान छह प्रकार के हैं, जैसे - १. समचतुरस्र २. न्यग्रोधपरिमण्डल ३. सादि ४. कुब्ज ५. वामन ६. हुण्ड । १६. पृथ्वी के जीव मसूर संस्थान वाले होते हैं । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो २००. आऊ थिवुयसंठाणा पण्णत्ता। आपः स्तिबुकसंस्थाना: प्रज्ञप्ताः। प्रकीर्णक समवाय : सू० २००-२११ २००. पानी के जीव स्तिबुक (जल का बुलबुला) संस्थान वाले होते हैं। २०१. तेऊ सूइकलावसंठाणा पण्णता। तेजः सूचिकलापसंस्थानं प्रज्ञप्तम् । २०१. तेजस् के जीव सूचीकलाप के संस्थान वाले होते हैं। २०२. वाऊ पडागठाणा पण्णत्ता। वायुः पताकासंस्थानः प्रज्ञप्तः। २०२. वायु के जीव पताका-संस्थान वाले होते हैं। २०३. वणप्फई पण्णत्ता। नाणासठाणसंठिया वनस्पतिः प्रज्ञप्तः । नानासंस्थान-संस्थितः २०३. वनस्पति के जीव नाना प्रकार के संस्थान वाले होते हैं। २०४. बेइंदिय-तेइंदिय - चरिदिय - द्वीन्द्रिय - त्रीन्द्रिय - चतुरिन्द्रिय- २०४. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मुच्छिमपंचेंदिय • तिरिक्खा सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चः हुण्ड- सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च हुण्ड हुंडसंठाणा पण्णत्ता। संस्थानाः प्रज्ञप्ताः। संस्थान वाले होते हैं। २०५. गब्भवक्कंतिया छन्विहसंठाणा गर्भावक्रान्तिकाः षड्विधसंस्थानाः २०५. गर्भावक्रान्तिक तिर्यञ्च छहों संस्थान पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । वाले होते हैं। २०६. सम्मुच्छिममणुस्सा हुंडसंठाण- सम्मूच्छिममनुष्याः संठिया पण्णत्ता। संस्थिताः प्रज्ञप्ताः । हुण्डसंस्थान- २०६. सम्मूच्छिम मनुष्य हुण्ड संस्थान वाले होते हैं। २०७. गब्भवक्कंतियाणं मणुस्साणं गर्भावक्रान्तिकानां मनुष्याणां २०७. गर्भावक्रान्तिक मनुष्य छहों संस्थान छविहा संठाणा पण्णत्ता। षडविधानि संस्थानानि प्रज्ञप्तानि । वाले होते हैं। २०८. जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया। यथा असुरकूमारास्तथा वानमन्तरा: २०८. वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक ज्योतिष्काः वैमानिकाः। देव असुरकुमार की भांति समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं। वेय-पदं वेद-पदम् वेद-पद २०६. कइविहे णं भंते ! वेए पण्णते ? कतिविधः भदन्त ! वेदः प्रज्ञप्तः ? २०६. भंते ! वेद कितने प्रकार के हैं ? गोयमा! तिविहे वेए पण्णत्ते, गौतम! त्रिविधः वेदः प्रज्ञप्तः, गौतम ! वेद तीन प्रकार के हैं, जैसेतं जहा-इत्थीवेए पुरिसवेए तद्यथा-स्त्रीवेद: पुरुषवेदः नपुंसकवेदः। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । नपुंसगवेए। २१०. नेरइया णं भंते ! कि इत्थीवेया परिसवेया णपुंसगवेया पण्णत्ता? गोयमा! णो इथिवेया णो पुंवेया, णपुंसगवेया पण्णत्ता। नैरयिकाः भदन्त ! किं स्त्रीवेदा: २१०. भंते ! क्या नरयिक स्त्रीवेद, पुरुषवेद पुरुषवेदाः नपंसकवेदा प्रज्ञप्ताः ? या नपुंसकवेद होते हैं ? गौतम! नो स्त्रीवेदाः नो परुषवेदाः. गौतम ! वे स्त्रीवेद नहीं होते, पुरुषवेद नपुंसकवेदाः प्रज्ञप्ताः । नहीं होते किन्तु नपुंसकवेद होते हैं। २११. असुरकुमाराणं भंते ! कि इत्थि- असुरकुमाराः भदन्त ! किं स्त्रीवेदाः २११. भंते ! क्या असुरकुमार स्त्रीवेद, वेया पुरिसवेया नपुंसगवेया? पुरुषवेदाः नपुंसकवेदाः ? पुरुषवेद या नपंसक वेद होते हैं ? Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३६३ प्रकोणक समवाय : सू० २१२-२१७ गोयमा! इत्थिवेया पुरिसवेया, गौतम ! स्त्रोवेदाः पुरुषवेदाः, नो गौतम ! वे स्त्रीवेद होते हैं, पुरुषवेद णो णपुंसगवेया जाव थणिय त्ति। नपुंसकवेदाः यावत् स्तनिता इति । होते हैं किन्तु नपुंसकवेद नहीं होते। स्तनित कुमार तक के सभी भवनपति देव स्त्रीवेद और पुरुषवेद होते हैं, नपुंसकवेद नहीं होते। २१२. पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणप्फइ-बि- पृथिवी-अप-तेजो-वायू-वनस्पति-द्वि-त्रि- २१२. पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति, ति - चरिदिय - संमुच्छिमपंचि- चतुरिन्द्रिय - सम्मूच्छिम-पञ्चेन्द्रिय- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, दियतिरिक्ख - समुच्छिममणुस्सा तिर्यक् . सम्मूच्छिममनुष्याः सम्मूच्छिम, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, णपुंसगवेया। नपुंसकवेदाः। सम्मूच्छिम मनुष्य--ये सब नपुंसकवेद होते हैं। २१३. गब्भवक्कंतियमणुस्सा पंचदिय- गर्भावक्रान्तिकमनुष्याः तिरिया य तिवेया। तिर्यञ्चश्च त्रिवेदाः। पञ्चेन्द्रिय- २१३. गर्भावक्रान्तिक मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रिवेद-तीनों वेदों से युक्त होते हैं। २१४. जहा असुरकुमारा तहा वाण- यथा असुरकुमारा: तथा वानमन्तराः २१४. वानमंतर, ज्यौतिष्क और मालिक मंतरा जोइसिया वेमाणियावि। ज्योतिष्काः वैमानिका अपि । देव असुरकुमार की भांति स्त्रीवेद और पुरुषवेद होते हैं, नपुंसकवेद नहीं होते। समवसरण-पदं समवसरण-पदम् । समवसरण-पद २१५. ते णं काले णं ते णं समए णं तस्मिन् काले तस्मिन् समये कल्पस्य २१५. उस काल में और उस समय में श्रमण कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं जाव समवसरणं नेतव्यम्, यावत् गणधराः भगवान् महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर थे। यहां कल्पसूत्रगणहरा सावच्चा निरवच्चा सापत्याः निरपत्याः व्युच्छिन्नाः । पर्युषणाकल्प का 'समवसरण' प्रकरण वोच्छिण्णा। ज्ञातव्य है। वर्तमान के साधु सुधर्मास्वामी की संतति हैं। शेष सब गणधरों की सन्ततियां विच्छिन्न हो गई। कुलगर-पदं कुलकर-पदम् कुलकर-पद २१६. जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे अतीतायां २१६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में अतीत तीयाए ओसप्पिणीए सत्त कुलगरा अवसर्पिण्यां सप्त कुलकराः बभूवुः, अवपिणी में सात कुलकर हुए थे, होत्या, तं जहा- तद्यथा जैसे१. मित्तदामे सुदामे य, मित्रदामः सुदामश्च, १. मित्रदाम २. सुदाम ३. सुपार्श्व सुपासे य सयंपमे। सुपार्श्वश्च स्वयंप्रभः। ४. स्वयंप्रभ ५. विमलघोष ६. सुघोष विमलघोसे सुघोसे य, विमलघोष: सुघोषश्च, ७. महाघोष। महाघोसे य सत्तमे॥ महाघोषश्च सप्तमः॥ २१७. जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे जम्बूद्वीपे द्वोपे भारते वर्षे अतीतायां २१७. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में अतीत नीयाए उम्सप्पिणीए दस कलगरा उत्सपिण्यां दश कुलकरा: बभूवः, उत्सपिणी में दस कुलकर हुए थे, होत्या, तं जहा तद्यथा Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : सू० २१८-२२० १. सयंजले सयाऊ य, स्वयंजल: शतायुश्च, १. स्वयंजल २. शतायु ३. अजितसेन अजियसेणे अणंतसेणे य। अजितसेनः अनन्तसेनश्च। ४. अनन्तसेन ५. कर्कसेन ६. भीमसेन कक्कसेणे भीमसेणे, कर्कसेनः भीमसेनः, ७. महाभीमसेन ८. दृढरथ ६. दशरथ महाभीमसेणे य सत्तमे। महाभीमसेनश्च सप्तमः ।। १०. शतरथ"। दढरहे दसरहे सतरहे। दृढरथः दशरथः शतरथः । २१८. जंबुद्दीवे णं दोवे भारहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे अस्यां २१८. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस इमोसे ओसप्पिणीए सत्त कुलगरा अवसपिण्यां सप्त कुलकराः बभूवुः, अवसर्पिणी में सात कुलकर हुए थे, होत्या, तं जहातद्यथा जैसे१. पढमेत्थ विमलवाहण, प्रथमोऽत्र विमलवाहनः, १. विमलवाहन ५. प्रसेनजित् चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे। चक्षुष्मान् यशस्वो चतुर्थोभिचंद्रः ।। २. चक्षुष्मान् ६. मरुदेव तत्तोय पसेणइए, ततश्च प्रसेनजित्, ३. यशस्वी ७. नाभि। मरुदेवे चेव नाभी य॥ मरुदेवश्चैव नाभिश्च ॥ ४. अभिचन्द्र २१९. एतेसिणं सत्तण्हं कूलगराणं सत्त एतेषां सप्तानां कूलकराणां सप्त भार्याः २१६. इन सात कलको माता भारिआ होत्या, तं जहा- बभूवुः, तद्यथा जैसे१. चंदजस चंदकंता, चन्द्रयशाः चन्द्रकान्ता, १. चन्द्रयशा ५. चक्षुष्कान्ता सुरुव-पडिरूव चक्खुकंता य।। सुरूप-प्रतिरूपा चक्षष्कान्ता च । २. चन्द्रकान्ता ६. श्रीकान्ता सिरिकता मरुदेवी, श्रीकान्ता मरुदेवी, ३. सुरूपा ७. मरुदेवी। कुलगरपत्तोण णामाई॥ कुलकरपलीनां नामानि॥ ४. प्रतिरूपा तित्थगर-पदं तीर्थकर-पदम् तीर्थकर-पद २२०. जंबहीवे णं दीवे भारहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्ष अस्या २२०. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस इमोसे ओसप्पिणीए चउवोसं अवसपिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकराणां । अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थङ्करों के तित्थगराणं पियरो होत्था, पितरः बभूवुः, तद्यथा चौबीस पिता थे, जैसेतं जहा१. गाभी य जियसत्तू य, नाभिश्च जितशत्रुश्च, १. नाभि १३. कृतवर्मा जियारी संवरे इ य। जितारिः संवर इति च । २. जितशत्रु १४. सिंहसेन मेहे धरे पइठे य, मेघो घरः प्रतिष्ठश्च, ३. जितारि १५. भानु महसेणे य खत्तिए॥ महासेनश्च क्षत्रियः॥ ४. संवर १६ विश्वसेन २. सुग्गीवे ५. मेघ दढरहे विहू, १७. सूर सुग्रीवः दृढरथः विष्णुः, ६. धर वसुपुज्जे य खत्तिए। क्षत्रियः। वासुपूज्यश्च १८. सुदर्शन ७. प्रतिष्ठ कयवम्मा सीहसेणे य, १६. कुंभ सिंहसेनः, कृतवर्मा ८. महासेन क्षत्रिय २०. सुमित्र भाणू विस्ससेणे इ य॥ भानुः विश्वसेन इति च ॥ ६. सुग्रीव २१. विजय ३. सूरे सुदंसणे कुंभे, सूरः सुदर्शनः कुम्भः , १०. दृढ़रथ २२. समुद्रविजय सुमित्तविजए समुद्दविजये य।। सुमित्रः विजयः समुद्रविजयश्च । ११. विष्णु २३. राजा अश्वसेन राया य आससेणे, राजा च अश्वसेनः, १२. वासुपूज्य क्षत्रिय २४. सिद्धार्थ सिद्धत्थेच्चिय खत्तिए । सिद्धार्थः एव क्षत्रियः ।। क्षत्रिय। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३६५ प्रकोणक समवाय : सू० २२१-२२३ ४. उदितोदितकुलवंसा, उदितोदितकुलवंशाः, तीर्थ-प्रवर्तक जिनवरों के पिता विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया। विशुद्धवंशाः गुणैः उपेताः ।। उदितोदित कुल-वंश वाले, विशुद्ध वंश तित्थप्पवत्तयाणं, तीर्थप्रवर्तकानां, वाले और गुणों से उपेत थे। एए पियरो जिणवराणं ॥ एते पितरो जिनवराणाम् ।। २२१. जंबुद्दोवे णं दोवे भारहे वासे जम्बूद्वीपे द्वोपे भारते वर्षे अस्यां २२१. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस इमोसे ओसप्पिणोए चउवीस, अवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिस्तोर्थक राणां अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थङ्करों की तित्थगराणं मायरो होत्था, मातरो बभूवुः, तद्यथा चौबीस माताएं थीं, जैसेतं जहा१. मरुदेवा विजया सेणा, मरुदेवा विजया सेना, १. मरुदेवा १३. श्यामा २. विजया सिद्धार्था मंगला सुसोमा च। सिद्धत्था मंगला सुसीमा य। १४. सुयशा ३. सेना १५. सुव्रता पुहवी लक्खण रामा, पृथ्वी लक्ष्मणा रामा, ४. सिद्धार्था १६. अचिरा नंदा विण्हू जया सामा॥ नन्दा विष्णु: जया श्यामा । ५. मंगला १७. श्री २. सुजसा सुन्वय सुयशा अइरा, १८. देवी सुव्रता अचिरा, ६. सुसीमा ७. पृथ्वी १६. प्रभावती सिरिया देवी पभावई। श्रीः देवो च प्रभावतो । ८. लक्ष्मणा २०. पद्मा पउमा वप्पा सिवा य, पद्मा वप्रा शिवा च, ६. रामा २१. वप्रा वामा तिसला देवो य जिणमाया ॥ वामा त्रिशला देवी च जिनमाता ।। १०. नंदा २२. शिवा ११. विष्णु २३. वामा १२. जया २४. त्रिशला। २२२. जंबहीवे गं दोवे भरहे वासे जम्बूद्वीपे द्वोपे भरते वर्षे अस्यां २२२. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस इमोसे ओसप्पिणोए चउवीसं अवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकराः अवसर्पिणी में चौबीस तीर्थङ्कर हुए थे, तित्थगरा होत्था, तं जहा- बभूवुः, तद्यथा जैसेउसमे अजिते संभवे अभिणंदणे ऋषभः अजितः सम्भव: अभिनन्दनः १. ऋषभ १३. विमल सुमती पउमप्पमे सुपासे चंदप्पहे सुमतिः पद्मप्रभः सुपार्श्व: चन्द्रप्रभः २. अजित १४. अनन्त ३ संभव १५. धर्म सुविही सीतले सेज्जसे वासुपुज्जे सुविधिः शीतलः श्रेयांसः वासुपूज्यः ४. अभिनन्दन १६. शान्ति विमले अणंते धम्मे संतो कुंथू अरे विमलः अनन्तः धर्मः शान्तिः कुन्थुः अरः ५. सुमति मल्लो मुणिसुव्वए णमो अरिट्ठ- मल्ली मुनिसुव्रतः नमिः अरिष्टनेमिः ६. पद्मप्रभ १८. अर णेमी पासे बद्धमाणे य। पार्श्व वर्द्धमानश्च । ७. सुपार्श्व १६. मल्ली ८. चन्द्रप्रभ २०. मुनिसुव्रत ६. सुविधि २१. नमि १०. शीतल २२. अरिष्टनेमि ११. श्रेयांस २३. पार्श्व १२. वासुपूज्य २४. वर्धमान। २२३. एएसि चउवीसाए तित्थगराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां २२३. इन चौबीस तीर्थङ्करों के पूर्वभव में चउवीसं पुव्वविया णामधेज्जा चतुर्विंशतिः पूर्वभविकानि नामधेयानि चौबीस नाम थे, जैसेहोत्या, तं जहा बभूवुः, तद्यथा Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H समवानो प्रकोणक समवाय : सू० २२४ १. पढमेत्य वइरणामे, १. प्रथमोऽत्र वज्रनाभः विमले तह विमलवाहणे चेव । विमलस्तथा विमलवाहनश्चेव । तत्तो य धम्मसोहे, ततश्च धर्मसिंहः, सुमिते तह धम्ममित्ते य॥ सुमित्रस्तथा धर्ममित्रश्च ।।। २. सुंदरबाहू तह दोहबाहू, २. सुन्दरबाहुस्तथा दीर्घबाहुः, जुगबाहू लट्ठबाहू य। युगबाहुः लष्टबाहुश्च । दिण्णेय इंददत्ते दत्तश्च इन्द्रदत्तः, सुंदर माहिंदरे चेव ॥ सुन्दरः माहेन्द्रश्चैव ।। ३. सोहरहे मेहरहे, ३. सिंहरथः मेघरथः, रुप्पी य सुदंसणे य बोद्धव्वे। रुक्मी च सुदर्शनश्च बोद्धव्यः । तत्तो य नंदणे खल, ततश्च नन्दनः खलु, सोहगिरी चेव वोसइमे। सिंहगिरिश्चैव विशतितमः ।। ४. अदोणसत्त संखे, ४. अदोनसत्त्वः शङ्खः, सुदंसणे नंदणे य बोद्धव्वे। सुदर्शनः नन्दनश्च बोद्धव्यः । ओसप्पिणीए एए, अवपिण्यां एते, तित्थकराणं तु पुत्वभवा॥ तीर्थकराणां तु पूर्वभवाः ।। १. वज्रनाभ १३. सुन्दर २. विमल १४. माहेन्द्र ३. विमलवाहन १५. सिंहरथ ४. धर्मसिंह १६. मेघरथ ५. सुमित्र १७. रुक्मी ६. धर्ममित्र १८. सुदर्शन ७. सुंदरबाहु १६. नंदन ८. दीर्घबाहु २०. सिंहगिरि ६. युगबाहु २१. अदीनसत्त्व १०. लष्टबाहु २२. शंख ११. दत्त २३. सुदर्शन १२. इन्द्रदत्त २४. नन्दन। २२४. एएसिणं चउवीसाए तित्थकराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां २२४. इन चौबीस तीर्थडरों के चौबीस चउवीसं सोया होत्था, तं जहा- चतुविशतिः शिबिकाः बभूवुः, तद्यथा- शिबिकाएं थीं, जैसे१. सोया सुदंसणा सुप्पभा य, १. शिबिका सुदर्शना सुप्रभा च, १. सुदर्शना १३. विमला सिद्धत्थ सुप्पसिद्धा य। सिद्धार्था सुप्रसिद्धा च। २. सुप्रभा १४. पंचवर्णा विजया य वेजयंती, विजया च वैजयन्ती , ३. सिद्धार्था १५. सागरदत्ता जयंती अपराजिया चेव ॥ जयन्ती अपराजिता चैव ।। ४. सुप्रसिद्धा १६. नागदत्ता २. अरुणप्पभ चंदप्पभ, २. अरुणप्रभा चन्द्रप्रभा, ५. विजया १७. अभयकरी सूरप्पह अग्गिसप्पभा चेव । सूरप्रभा अग्निसप्रभा चैव। ६. वैजयन्ती १८. निर्वृतिकरी विमला ७. जयन्ती य विमला १९. मनोरमा पंचवण्णा, च पञ्चवर्णा, सागरदत्ता तह णागदत्ता य॥ सागरदत्ता तथा नागदत्ता च ।। ८. अपराजिता २०. मनोहरा ६. अरुणप्रभा २१. देवकुरु ३. अभयकर णिन्तुतिकरो, ३. अभयकरी नितिकरी, १०. चन्द्रप्रभा २२. उत्तरकुरु मणोरमा तह मणोहरा चेव। मनोरमा तथा मनोहरा चैव । ११. सूरप्रभा २३. विशाला देवकुरु उत्तरकुरा, देवकुरुः उत्तरकूरः, १२. अग्निप्रभा २४. चन्द्रप्रभा। विसाल चंदप्पभा सोया ॥ विशाला चन्द्रप्रभा शिबिका। ४. एयातो सोयाओ सॉस, ४. एताः शिविकाः सर्वेषां. सर्वजीववत्सल सब जिनवरों को ये चेव जिणरिदाणं। चैव जिनवरेन्द्राणाम् । शिबिकाएं सब ऋतुओं में कल्याणकारी सव्वजगवच्छलाणं, सर्वजगत्वत्सलानां, छाया से युक्त होती हैं। सव्वोतुयसुभाए छायाए ॥ सर्तुकशुभया छायया ।। ५. पुदिव उक्खित्ता, ५. पूर्वमुत्क्षिप्ताः, शिबिका को सर्वप्रथम हर्ष से पुलकित माणुसेहि साहट्ठरोमकूवेहि। मानुषैः संहृष्टरोमकूपैः। रोम कूपवाले मनुष्य उठाते हैं और पच्छा वहति सीयं, पश्चाद् वहन्ति शिबिका, तत्पश्चात् असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र असुरिंदसुरिंदनागिदा ॥ असुरेन्द्रसुरेन्द्रनागेन्द्राः ॥ वहन करते हैं। वे चल-चपल कंडलों Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो ३६७ प्रकीर्णक समवाय : सू० २२५-२२६ ६. चलचवलकंडलधरा, ६. चलचपलकुण्डलधराः, सच्छंदविउवियाभरणधारी । स्वच्छन्दविकृताभरणधारिणः । सुरअसुरवंदियाणं, सुरासुरवन्दितानां, वहंति सीयं जिणिवाणं ॥ वहन्ति शिबिकां जिनेन्द्राणाम् ।। ७. पुरओ वहति देवा, ७. पुरतो वहन्ति देवाः, नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि। नागाः पुनः दक्षिणे पावें । पच्चस्थिमेण असूरा, पश्चिमेन असुराः, गरुला पुण उत्तरे पासे ॥ गरुडाः पुनः उत्तरे पावं ।। को धारण किए हुए, अपनी इच्छा से विनिर्मित आभरणों को धारण किए हुए, सुर-असुरों से वंदित जिनवरों की शिबिका को वहन करते हैं। पूर्व पार्श्व में देवता, दक्षिण पार्श्व में नागकुमार, पश्चिम पार्श्व में असुरकुमार और उत्तर पार्श्व में गरुड देव उसे वहन करते हैं। य २२५.१. उसभो बारवईए अवसेसा निक्खंत्ता विणीयाए, १. ऋषभश्च अरिद्ववरणेमी। द्वारवत्या तित्थयरा, अवशेषाः जम्मभूमोसु ॥ निष्क्रान्ता विनीतायाः, २२५. भगवान् ऋषभ ने विनीता नगरी से, अरिष्टवरनेमिः। अरिष्टनेमि ने द्वारवती से और शेष तीर्थकराः, तीर्थङ्करों ने अपनी-अपनी जन्मभूमि से जन्मभूमिभ्यः ।। निष्क्रमण किया था-प्रव्रज्या के लिए घर से निकले थे। २२६. १. सब्वेवि एगदूसेण, गिया जिणवरा चउवीसं। ण य णाम अलिगे, ण य गिहिलिगे कुलिगे व॥ १. सर्वेऽपि __ एकदूष्येण, २२६. सभी चौबीस तीर्थङ्कर एक दूष्य से निर्गता जिनवराः चतुविशतिः । निर्गत हए थे, अन्यलिंग, गहिलिंग या न च नाम अन्यलिङ्गे, कुलिंग से नहीं। न च गृहिलिङ्गे कुलिङ्गे वा।। २०. .एक्को भगवं वीरो, १. एको भगवान् वारः, २२७. भगवान् महावीर अकेले प्रवजित हुए पासो मल्ली य तिहि-तिहिं सहि। पार्श्वः मल्ली च त्रिभिः त्रिभिः शतैः थे । पार्श्वनाथ और मल्लीनाथ तीन भयपि वासुपुज्जो, भगवानपि वासुपूज्यः, । सौ-तीन सौ पुरुषों के साथ और छहिं पुरिससएहि निक्खंत्तो॥ षभिः पुरुषशतैः निष्क्रान्तः ।। भगवान् वासुपूज्य छह सौ पुरुषों के २. उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं, २. उग्राणां भोगानां राजन्यानां, साथ प्रवजित हुए थे। भगवान् ऋषभ च खत्तियाणं च। च क्षत्रियाणां च। चार हजार उग्र, भोग (भोज), चाहिं सहस्सेहिं उसभो, चतुभिः सहस्रः ऋषभः, राजन्य और क्षत्रियों के साथ प्रवजित सेसा उ सहस्सपरिवारा॥ शेषास्तु सहस्रपरिवाराः ॥ हुए थे और शेष तीर्थङ्कर हजार-हजार व्यक्तियों के साथ प्रवजित हुए थे। २२१.१.समइत्थ णिच्चभत्तंण, णिग्गओ वासुपुज्जो जियो चउत्थेणं। पासो मल्ली वि य, अट्ठमेण सेसा उ छठेणं ॥ १. सुमतिः अत्र नित्यभक्तेन, २२८. भगवान् सुमति नित्यभक्त (उपवास निर्गत: वासुपूज्य: जिनः चतुर्थेन। रहित) प्रवजित हुए, वासुपूज्य चतुर्थ पावः मल्ल्यपि च, भक्त (एक उपवास), पार्श्व और अष्टमेन शेषास्तु षष्ठेन ॥ मल्ली अष्टम भक्त (तीन उपवास) और शेष बीस तीर्थङ्कर छट्ठ भक्त (दो उपवास) कर प्रव्रजित हुए थे। २२९. एएसि णं चउवीसाए तित्थगराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां २२६. इन चौबीस तीर्थङ्करों को प्रथम भिक्षा चउवीसं पढमभिक्खादया होत्था, चतुर्विंशतिः प्रथमभिक्षादातारो बभूवुः, देने वाले ये चौवीस व्यक्ति थे, जैसेतं जहा तद्यथा Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो प्रकीर्णक समवाय : सू०२३०-२३१ १. सेन्जसे बंभदत्ते, १.श्रेयांसः । ब्रह्मदत्तः, सुरिददत्ते य इंदवत्ते य। सुरेन्द्रदत्तश्च इन्द्रदत्तश्च । तत्तो य धम्मसीहे, ततश्च धर्मसिंहः, सुमित्त तह धम्ममित्ते य॥ सुमित्रस्तथा धर्ममित्रश्च ।। २. पुस्से पुणव्वसू पुण्णणंद, २. पुष्यः पुनर्वसुः पुण्य (पूर्ण? ) नन्दः, सुणंदे जये य विजये य। सुनन्दः जयश्च विजयश्च । पउमेय सोमदेवे, पद्मश्च सोमदेवः, महिंददत्ते य सोमदत्ते य॥ महेन्द्रदत्तश्च सोमदत्तश्च ।। ३. अपराजिय वीससेणे, ३. अपराजितः विश्वसेनः, वीसतिमे होइ उसभसेणे य। विशतितमः भवति ऋषभसेनश्च । दिण्णे वरदत्ते, वरदत्तः, धन्ने बहुले य आणुपुव्वीए॥ धन्यः बहुलश्च आनुपूर्व्या ॥ विसुद्धलेसा, ४. एते विशुद्धलेश्याः, जिणवरभत्तीए पंजिलिउडा य। जिनवरभक्त्या प्राञ्जलिपुटाश्च । तं कालं तं समयं, तं कालं तं समयं, पडिलाई जिणरिदे॥ प्रतिलाभन्ति जिनवरेन्द्रान ॥ १. श्रेयांस १३. विजय २. ब्रह्मदत्त १४. पद्म ३. सुरेन्द्रदत्त १५. सोमदेव ४. इन्द्रदत्त १६. महेन्द्रदत्त ५. धर्मसिंह १७. सोमदत्त ६. सुमित्र १८. अपराजित ७. धर्ममित्र १६. विश्वसेन ८. पुष्य २०. ऋषभसेन ६. पुनर्वसु २१. दत्त १०. पुण्यनन्द २२. वरदत्त ११. सुनन्द २३. धन्य १२. जय २४. बहुल"। इन विशुद्ध लेश्या वाले व्यक्तियों ने जिनवर भक्ति से प्राञ्जलिपुट होकर, उस काल और उस समय में जिनवरों को प्रतिलाभित किया-भिक्षा दी। २३०. १. संवच्छरेण भिक्खा, १. संवत्सरेण भिक्षा, २३०. लोकनाथ ऋषभ ने प्रथम भिक्षा एक लद्धा उसमेण लोगणाहेण। लब्धा ऋषभेण लोकनाथेन। वर्ष पश्चात् प्राप्त की थी। शेष सभी सेसेहि बोयदिवसे, शेष द्वितीयदिवसे, तीर्थङ्करों ने प्रथम भिक्षा दूसरे दिन लद्धाओ पढमभिक्खाओ। लब्धाः प्रथमभिक्षाः ॥ प्राप्त की थी। २. उसभस्स पढमभिक्खा, २. ऋषभस्य प्रथमभिक्षा, लोकनाथ ऋषभ को प्रथम भिक्षा में खोयरसो आसि लोगणाहस्स। क्षोदरस आसीत् लोकनाथस्य । इक्षुरस मिला और शेष तीर्थङ्करों को सेसाणं परमण्णं, शेषाणां परमान्न, अमृतरसतुल्य परमान्न (क्षीर) प्राप्त अमयरसरसोवमं आसि ॥ अमृतरसरसोपमं आसीत् ॥ हुआ था। ३. ससिपि जिणाणं, ३. सर्वेषामपि जिनानां, सभी जिनवरों को जहां प्रथम भिक्षा जहियं लद्धाओ पढमभिक्खातो। यत्र लब्धाः प्रथमभिक्षाः।। प्राप्त हुई वहां शरीर-प्रमाण सुवर्ण की तहियं वसुधाराओ, तत्र वसुधाराः, वृष्टि हुई थी। सरीरमेत्तीओ वुढाओ॥ शरीरमात्र्यः वृष्टाः ॥ २३१. एतेसि णं चउवीसाए तित्थगराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां २३१. चौबीस तीर्थङ्करों के चौबीस चैत्य वृक्ष चउवीसं चेइयरुक्खा होत्था, चतुर्विंशतिः चैत्यवृक्षाः बभूवुः, थे, जैसेतं जहा तद्यथा१. णग्गोह . सत्तिवण्णे, १. न्यग्रोध - सप्तपणौं, १. न्यग्रोध ६. माली साले पियए पियंगु छत्ताहे। शालः प्रियक: प्रियङ गुः छत्राहः । २. सप्तपर्ण १०. प्लक्ष सिरिसे य जागरुक्खे, शिरीषश्च नागरुक्षः, ३. शाल ११. तिदुक माली य पिलखुरुक्खे य॥ माली च प्लक्षरुक्षश्च ।। ४. प्रियाल १२. पाटल २. तेंदुग पाडल जंबू, २. तिन्दुक - पाटल . जम्बू, ५. प्रियंगु १३. जंबु आसोत्थे खलु तहेव दधिवण्णे। अश्वत्थः खलु तथैव दधिपर्णः ।। ६. छत्राक १४. अश्वत्थ गंदीरक्खे तिलए य, नन्दीरुक्षस्तिलकश्च, ७. शिरीष १५. दधिपर्ण अंबयरक्खे असोगे य॥ आम्रकरुक्षः अशोकश्च ॥ ८. नागवृक्ष १६. नंदि Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३. चंपय वडले वेडसरुव खे साले asardar ४. बत्तीसई asuorat य णिच्चोउगो ओच्छष्णो ५. तिष्णं य ६. सच्छत्ता य तहा, धायई रुक्ख व गाउयाई, asuorat जिणस्स उसभस्स । सेसाणं पुण रुक्खा, सरीरतो बारसगुणा उ ॥ असोगो, सालरुवखेणं ॥ सपडागा, सवेइया तोरणेह उववेया । वड्ढमाणस्स, जिणवराणं ॥ धणूई, ४. द्वात्रिंशद् वद्धमाणस्स । चैत्रुक्षश्च नित्यर्त्तुक: अवच्छन्नः सुर असुर गरुल महिया, चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ २३२. एतेसि णं चवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पढमसीसा होत्था, तं जहा १. पढमेत्य उसभसेणे, वीए पुण होइ सीहसेणे उ । चारू य वज्जणाभे, चमरे तह सुन्वते विदन्भे ॥ वाराहे २. दिण्णे पुण, आनंदे गोथुभे सुहम्मे य । मंदर जसे अरिट्ठे, चक्काउह सयंभु कुंभे य ॥ ३. भिसए य इंदे कुंभे, वरदत्तं दिष्ण इंदभूती य । उदितोदितकुलवंसा, विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया ॥ तित्थष्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सा जिणवराणं ॥ २३३. एएसि णंचवीसाए तित्थगराणं arati पढम सिसिणीओ होत्या, तं जहा ३६६ ३. चम्पकबकुलो च वेतसीरुक्षो शालश्च चैत्रुक्षा ५. त्रीण्येव चैत्यरुक्ष : शेषाणां शरीरतो ६. सच्छत्रा : सवेदिका: एतेषां चतुर्विंशतिः तद्यथा तथा, धातकीरुक्षः । वर्द्धमानस्य, जिनवराणाम् ।। धनूंषि, वर्द्धमानस्य । अशोकः, शालरुक्षेण ॥ जिनस्य गव्यूतानि ऋषभस्य । एतेषां चतुर्विंशतिः तद्यथा पुनः रुक्षाः, द्वादशगुणास्तु ॥ सुर असुर गरुडमहिताः, चैत्यक्षा जिनवराणाम् ॥ सपताका, तोरणैः उपेताः । १. प्रथमोsa ऋषभसेन:, द्वितीय: पुनः भवति सिंहसेनस्तु ! चारुश्च चमरस्तथा सुव्रतः वज्रनाभः, विदर्भः ॥ प्रकीर्णक समवाय: सू० २३२-२३३ १७. तिलक २१. बकुल १८. आम्र २२. वेतस २३. धातकी २४. शाल । २. दत्तः वाराहः पुन:, आनन्दः गो ( को ) स्तुभः सुधर्मा च । अरिष्टः, कुम्भश्च ॥ मन्दरः यशाः चक्रायुधः स्वयम्भूः ३. भिषक् च इन्द्रः वरदत्तो दत्तः उदितोदितकुलवंशाः, विशुद्धवंशाः गुणैः उपेताः ॥ तीर्थ प्रवर्त्तकानां कुम्भः, इन्द्रभूतिश्च । प्रथमाः शिष्याः जिनवराणाम् ।। १६. अशोक २०. चम्पक चतुर्विंशतेस्तीर्थकराणां १३२. चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम शिवम प्रथमशिष्याः बभूवुः, चौबीस थे, जैसे- भगवान् वर्द्धमान का अशोक चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुष्य ऊंचा, नित्य ऋतु ( सब ऋतुओं में समानरूप से फलाफूला ) और शालवृक्ष से अवच्छन्न था । जिनवर ऋषभ का चैत्यवृक्ष तीन गाउ ऊंचा था। शेष तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष उनके शरीर से बारह गुना ऊंचे थे । जिनवरों के चैत्यवृक्ष छत्र, पताका, वेदिका और तोरण सहित तथा सुर, असुर और गरुड़ देवों द्वारा पूजित थे । १. ऋषभ सेन २. सिंहसेन ३. चारु ४. वज्रनाभ ५. चमर ६. सुव्रत ७. विदर्भ १३. मन्दर १४. यश १५. अरिष्ट ८. दत्त ६. वाराह १६. चक्रायुध १७. स्वयंभू १८. कुंभ १६. भिषक् २०. इन्द्र २१. कुम्भ १०. आनन्द २२. वरदत्त ११. गो ( को ) स्तुभ २३. दत्त १२. सुधर्मा २४. इन्द्रभूति । तीर्थ प्रवर्तक जिनवरों के प्रथम शिष्य उदितोदित कुल और वंश वाले, विशुद्ध वंश वाले और गुणों से उपेत थे । चतुर्विंशतेस्तीर्थकराणां २३३. चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम शिष्याएं चौबीस थीं, जैसे प्रथमशिष्या आसन्, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो १. बंभी फग्गू सम्मा, अतिराणी कासवी रई सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा, धारिणि धरणी य धरणिधरा ॥ २. पउमा सिवा सुइ अंजू, भावियप्पा य रक्खिया । बंधू पुप्फवती चेव, अज्जा धणिला य आहिया ॥ ३. जक्खिणी पुप्फचूला य चंदणऽज्जा उदितोदित कुलवंसा, विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया । तित्थष्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सी जिणवराणं ॥ चक्कवट्टि पर्द २३४. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टि पियरो होत्या, तं जहा१. उसमे सुमित्तविजए, समुद्दविजए य अस्ससेणे य । विस्ससेणे य सूरे, सुदंसणे कत्तवीरिए य ॥ २. पउमुत्तरे महाहरी, विजए राया तहेव य । बम्हे बारसमे बुत्ते, पिउनामा atrai || चन्दनार्या य आहिया । २३५. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टि माय होत्या, तं जहा१. सुमंगला जसवती, भद्दा सहदेवी अइर सिरि देवी । तारा जाला मेरा, वप्पा चुलणी अपच्छिमा ॥ २३६. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टी होत्या, तंजा ३७० १. ब्राह्मी फल्गुः शर्मा, अतिराज्ञी काश्यपी रतिः सोमा । सुमना वारुणी सुलसा, धारणी धरणी च धरणिधरा ॥ २. पद्मा शिवा शुचिः अञ्जः, भावितात्मा च रक्षिका । बन्धू: पुष्पवती चैव, आर्या धनिला च आख्याता ।। ३. यक्षिणी पुष्पचूला च, च आख्याता । उदितोदित कुलवंशाः, विशुद्धवंशाः गुणैः तीर्थप्रवर्त्तकानां उपेताः । प्रथमाः शिष्याः जिनवराणाम् ॥ बभूवुः, तद्यथा— १. ऋषभः समुद्रविजयश्च विश्वसेनश्च सुदर्शनः २. पद्मोत्तरः विजयः राजा ब्रह्मा पितृनामानि चक्रवर्ति-पदम् चक्रवर्ती पद जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अस्यां २३४. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिण्यां द्वादश चक्रवर्तिपितरो अवसर्पिणी में बारह चक्रवर्तियों के बारह पिता थे, जैसे सुमित्रविजयः, अश्वसेनश्च । सूरः, कार्त्तवीर्यश्च ॥ महाहरिः, तथैव च । प्रकीर्णक समवाय: सू० २३४-२३६ १३. धरणिधरा १४. पद्मा १५. शिवा १६. शुचि द्वादश: उक्तः, चक्रवर्तिनाम् ॥ बभूवुः, तद्यथा— १. सुमंगला यशस्वती, भद्रा सहदेवी अचिरा श्री देवी । तारा ज्वाला मेरा, वप्रा चुलनी अपश्चिमा || १. ब्राह्मी २. फल्गु ३. शर्मा ४. अतिराज्ञी जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अस्यां २३६. अवसर्पिण्यां द्वादश चक्रवर्तिनो बभूवुः, तद्यथा- ५. काश्यपी ६. रति ७. सोमा ८. सुमना ६. वारुणी १७. अंजू १८. भावितात्मा रक्षिका १०. सुलसा ११. धारणी १२. धरणी २२. यक्षिणी २३. पुष्पचूला २४ आर्या चन्दना । तीर्थ प्रवर्तक जिनवरों की प्रथम शिष्याएं उदितोदित कुलवंशवाली, विशुद्ध वंश वाली और गुणों से उपेत थीं । १६. बन्धू २०. पुष्पवती २१. आर्या धनिला १. ऋषभ २. सुमित्र विजय ३. समुद्रविजय ४. अश्वसेन ५. विश्वसेन ६. सूर जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अस्यां १३५. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिण्यां द्वादश चक्रवर्तिमातरो अवसर्पिणी में बारह चक्रवर्तियों की बारह माताएं थीं, जैसे १. सुमंगला ७. देवी २. यशस्वती ८. तारा ६. ज्वाला ३. भद्रा ४. सहदेवी ५. अचिरा ६. श्री ७. सुदर्शन ८. कार्त्तवीर्य ६. पद्ममोत्तर १०. महाहरि ११. विजयराजा १२. ब्रह्मा १०. मेरा ११. वप्रा १२. चुलनी । के भरत क्षेत्र में इस जम्बूद्वीप द्वीप अवसर्पिणी में बारह चक्रवर्ती हुए थे, जैसे -- Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३७१ प्रकीर्णक समवाय : सू० २३७-२४० १. भरहो सगरो मघवं, सणंकुमारो य रायसद्लो । संती कुंथु य अरो, हवइ सुभूमो य कोरव्वो॥ २. नवमो य महापउमो, हरिसेणो चेव रायसददुलो। जयनामो य नरवई, बारसमो बंभवत्तो य॥ १. भरतः सगरो मघवा, सनत्कुमारश्च राजशार्दूल: । शान्तिः कुन्थुश्च अरः, भवति सुभूमश्च कौरव्यः ।। २. नवमश्च महापद्मः, हरिषेणश्चैव राजशार्दूलः । जयनामा नरपतिः, द्वादशः ब्रह्मदत्तश्च ।। १. भरत ७. अर २. सगर ८. कुरुवंशज सुभूम ३. मघवा ६. महापद्म ४ राजशार्दूल १०. राजशार्दूल सनत्कुमार हरिषेण ५. शान्ति ११. नरपति जय ६. कुन्थु १२. ब्रह्मदत्त।" २३७. एएसि णं बारसण्हं चक्कवट्टीणं एतेषां द्वादशानां चक्रवत्तिनां द्वादश २३७. इन बारह चक्रवतियों के बारह स्त्रीबारस इत्थिरयणा होत्था, स्त्रीरत्नानि बभूवुः, तद्यथा रत्न थे, जैसेतं जहा१. पढमा होइ सुभद्दा, १. प्रथमा भवति सुभद्रा, १. सुभद्रा ७. सूर्यश्री भद्दा सुणंदा जया य विजया य । भद्रा सुनन्दा जया च विजया च । २. भद्रा ८. पद्मश्री कण्हसिरि सूरसिरि, कृष्णश्री: सूरश्रीः , । ३. सुनन्दा ६. वसुन्धरा पउमसिरि वसंघरा देवी॥ पद्मश्री: वसुन्धरा देवी।। ४. जया १०. देवी लच्छिमई कुरुमई, लक्ष्मीमती कुरुमती, ५. विजया ११. लक्ष्मीमती इत्थिरयणाण नामाइं॥ स्त्रीरत्नानां नामानि॥ ६. कृष्णश्री १२. कुरुमती। बलदेव-वासुदेव-पदं बलदेव-वासुदेव-पदम् बलदेव-वासुदेव-पद २३८. जंबट्टीवे णं दीवे भरहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अस्यां २३८. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस इमीसे ओसप्पिणीए नव बलदेव- अवसपिण्यां नव बलदेव-वासुदेवपितरो अवसर्पिणी में नौ बलदेवों और नौ वासुदेवपितरो होत्था, तं जहा- बभूवुः, तद्यथा वासुदेवों के नौ पिता थे, जैसे१. पयावती य बंभे, १. प्रजापतिश्च ब्रह्मा, १. प्रजापति ६. महासिंह रोट्टे सोमे सिवेति य। रुद्रः सोमः शिव इति च । २. ब्रह्मा ७. अग्निसिंह महसिहे अग्गिसिहे, महासिंहः अग्निसिंहश्च, ३. रुद्र ८. दशरथ दसरहे नवमे य वसुदेवे ॥ दशरथो नवमश्च वसुदेवः ।। ४. सोम ६. वसुदेव । ५. शिव २३६. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अस्यां २३६. जम्द्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस इमीसे ओसप्पिणीए णव वासुदेव- अवसपिण्यां नव वासुदेवमातरो बभूवुः, अवसर्पिणी में नौ वासुदेवों की नौ मायरो होत्था, तं जहा- तद्यथा माताएं थीं, जैसे१. मियावई उमा चेव, १. मृगावती उमा चैव, १. मृगावती ६. लक्ष्मीमती पहवी सीया य अम्मया। पृथ्वी सीता च अम्बका । २. उमा ७. शेषवती लच्छिमती सेसवती, लक्ष्मीमती शेषवती, ८. कैकयी केकई देवई इय॥ कैकयी देवकी इति ॥ ४. सीता ६. देवकी। ५. अम्बका ३. पृथ्वी २४०. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इभीसे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अस्यां २४०. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस ओसप्पिणीए णव बलदेव मायरो अवसपिण्यां नव बलदेवमातरो बभूवः, अवसर्पिणी में नौ बलदेवों की नौ होत्था, तं जहातद्यथा माताएं थीं, जैसे . Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३७२ प्रकोणक समवाय : सू० २४१ १. भद्दा तह सुप्पभा य विजया य जयंती णवमिया बलदेवाण सुभद्दा य, सुदंसणा। वैजयंती, अपराइया॥ रोहिणी, मायरो॥ १. भद्रा तथा सुप्रभा च विजया च जयन्ती नवमिका बलदेवानां सुभद्रा च, सूदर्शना। वैजयन्ती, अपराजिता ॥ १. भद्रा २. सुभद्रा ३. सुप्रभा ४. सुदर्शना ५. विजया ६. वैजयन्ती ७. जयन्ती ८. अपराजिता ६. रोहिणी। रोहिणी, मातरः ।। २४१. जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे अस्यां २४१. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में इस इमाए ओसप्पिणीए नव दसार- अवसपिण्यां नव दशारमण्डलानि बभूवुः, अवसर्पिणी में नौ दशारमंडल (वासुदेव मंडला होत्था, तं जहा- तद्यथा-उत्तमपुरुषाः मध्यमपुरुषाः और बलदेव का समुदाय) हुए थे, उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा प्रधानपुरुषाः ओजस्विन: तेजस्विनः जैसे-उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, पाणपरिसा ओयंसी तेयंसी वर्चस्विन: यशस्विनः छायावन्तः कान्ता: प्रधान' पुरुष, ओजस्वी, तेजस्वी, वच्चंसी जसंसी छायंसी कंता सोमाः सुभगाः प्रियदर्शनाः सुरूपाः । वर्चस्वी, यशस्वी, शोभायुक्त, कान्त, सोमा सुभगा पियदसणा सुरूवा सूखशीला: सुखाभिगमाः सोम, सुभग, प्रियदर्शन, सुरूप, सुखसुहसीला सुहाभिगमा सव्वजण- सर्वजननयनकान्ताः ओघबला: शील, सुखाभिगम (सर्वजनगम्य), सभी णयण-कंता ओहबला अतिबला अतिबला: महाबलाः अनिहताः जनों के चक्षुष्प्रिय, ओघ (अव्यवच्छिन्न) महाबला अणिहता अपराइया अपराजिता: शत्रुमर्दना: रिपुसहस्रमान- बल वाले, अति बल वाले, महाबल सत्तुमद्दणा रिपुसहस्स-माण-महणा मथनाः सानुक्रोशा: अमत्सराः अचपलाः वाले, अनिहत (निरुपक्रम आयुष्य साणुक्कोसा अमच्छरा अचवला अचण्डा: मित-मञ्जुल-प्रलाप-हसिताः वाले), अपराजित, शत्रु का मर्दन करने अचंडा मिय-मंजुल-पलाव-हसिया गम्भीर - मधुर - प्रतिपूर्ण- सत्यवचनाः वाले, हजारों शत्रुओं के मान को मथने गंभीर-मधुर-पडिपुण्ण-सच्चवयणा अभ्युपगत-वत्सलाः शरण्याः लक्षण- वाले, दयालु, अमत्सर (गुणग्राही), अब्भुवगय-वच्छला सरणा व्यञ्जन-गुणोपेताः मानोन्मान-प्रमाण- अचपल, अचंड (मृदु), मित-मंजुल लक्खणवंजण-गुणोववेया माणु- प्रतिपूर्ण - सुजात - सर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः बोलने वाले, शरणागत के लिए वत्सल, म्माण - पमाणपडिपुण्ण - सुजात- शशिसौम्याकार - कान्त - प्रिय-दर्शनाः शरण्य, लक्षण-व्यञ्जन और गुणों से सव्वंग-सुंदरंगा ससिसोमागार-कंत- अमर्षणाः प्रकाण्डदण्डप्रकार उपेत, मान-उन्मान और प्रमाण से पिय-दसणा अमसणा पयंडदंडप्प- गम्भीरदर्शनीयाः तालध्वजोद्विद्ध-गरुड प्रतिपूर्ण सुजात सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर यार-गंभीर-वरिसणिज्जा तालद्ध- केतवः महाधनविकर्षकाः महासत्त्व वाले, चन्द्रमा की भांति सौम्याकार, ओन्विद्ध-गरुल-केऊ महाधणु- सागरा: दुर्द्धराः धनुर्धराः धीरपुरुषाः कान्त और प्रियदर्शन वाले, कर्मठ, विकडगा महासत्तसागरा दुद्धरा युद्ध-कीर्तिपुरुषाः विपुल-कुलसमुद्भवाः प्रकांड दंडनीति वाले, गंभीर भाव में धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्ध-कित्ति- महारत्न-विघटकाः अर्द्धभरतस्वामिनः दर्शनीय, तालध्वज वाले (बलदेव) पुरिसा विउलकुल-समुन्भवा सोमाः राजकुलवंशतिलकाः अजिताः तथा उच्छितगरुडध्वज वाले (वासुदेव), महारयण-विहाडगा अद्धभरह- अजितरथाः हल-मुशल-कणक-पाणयः बड़े-बड़े धनुष्यों को चढ़ाने वाले, महान् सामी सोमा रायकुल-वंस-तिलया शङ्ख - चक्र - गदा - शक्ति- नन्दकधराः । सत्व के सागर, दुर्धर, धनुर्धर, धीर अजिया अजियरहा हल-मुसल- प्रवरोज्ज्वल शुक्लान्त - विमल-कौस्तुभ पुरुष और युद्ध में यश प्राप्त करने कणग-पाणी संख-चक्क-गय-सत्ति- किरीटधारिणः कुण्डल-उद्योतिताननाः ।। वाले, विपुलकुल में उत्पन्न, महारत्न नंदगधरा पवरुज्जल-सुक्कंत- पुण्डरीकनयनाः एकावली-कण्ठ-लगित- (वन) को अंगुष्ठ-तर्जनी से चूर्ण विमल-गोथुभ-तिरीडधारी कुंडल- वक्षस: श्रीवत्स-सुलाञ्छना: वरयशसः करने बाले, अधं भरत के स्वामी, उज्जोइयाणणा पुंडरीय-णयणा सर्वर्तुक-सुरभि-कुसुम - सुरचित-प्रलम्ब- सोम, राजकुलवंश के तिलक, अजित, एकावलि-कंठलइयवच्छा सिरि- शोभमान-कान्त-विकसच्चित्र-वरमाला- अजेय रथ वाले, हल-मूशल (बलदेव बच्छ-सुलंछणा वरजसा सव्वोउय- रचितवक्षसः अष्टशत-विभक्त-लक्षण- के अस्त्र) तथा कणक (बाण)-शंखसुरभि-कुसुम-सुरइत-पलंबसोभंत - प्रशस्त - सुन्दर - विरचिताङ्गाङ्गाः चक्र-गदा, शक्ति और नंदक (वासुदेव Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री कंत-विक संत-चित्त- वरमालरइय वच्छा अट्ठसय विभत्त-लक्खणपत्थ- सुंदर - विरइयंगमंगा मत्त गयवरद-ललिय विक्कम विल सियगई सारय- नवथणियमधुरगंभीर कोंच-निग्घोस दुदुभिसरा कत्तिगनीलपीय कोसेयवाससा पवरदित्ततेया नरसोहा नरवई नरिंदा नरवसभा मरुयवसभकप्पा अभ िराय-य-लच्छीए दिप्पमाणा नीलग-पीतग-वसणा दुवे ga रामकेसवा भायरो होत्था, तं जहा - संग्रहणी गाहा १. तिविट्ठू यदुविट्ठू य, यंभू पुरिसुत्तमे । पुरिससोहे तह पुरिसपुंडरीए, दत्ते नारायणे कण्हे ॥ २. अयले सुप्पभे आणंदे रामे - विजए भद्दे, य सुदंसणे । णंदणे पउमे, यावि अपच्छिम || २४२. एतेसि णं णवहं बलदेव वासु देवा goवभविया नव नव नामधेज्जा होत्या, तं जहा ३७३ मत्तगजवरेन्द्र- ललित - विक्रम-विलसितगतयः शारद-नवस्तनितमधुरगम्भीरकौञ्चनिर्घोष - दुन्दुभिस्वराः कटीसूत्रकनील-पीत- कौशेयवाससः प्रवरदीप्ततेजस: नरसिंहाः नरपतयः नरेन्द्राः नरवृषभाः मरुकवृषभकल्पाः अभ्यधिकं राज-तेजो-लक्ष्म्या दीप्यमानाः नीलकपीतक - वसनाः द्वौ द्वौ रामकेशव भ्रातरौ बभूवतुः, तद्यथा संग्रहणा गाथा १. पृष्ठच स्वयम्भूः पुरुषसिंहस्तथा दत्तः २. अचलो द्विपृष्ठश्च पुरुषोत्तमः । पुरुषपुण्डरीकः, कृष्णः ।। नारायणः सुप्रभश्च आनन्द: रामश्चापि विजयो नन्दनः भद्रः, सुदर्शनः । पद्मो, अपश्चिमः || एतेषां नवानां पूर्वभविकानि नव नव नामधेयानि बभूवुः, तद्यथा— प्रकीर्णक समवाय: सू० २४२ के अस्त्र) को धारण करने वाले, प्रवरउज्ज्वल शुक्लांत और निर्मल कौस्तुभ मणि को मुकुट में धारण करने वाले, कुंडलों से उद्योतित मुख वाले तथा कमल की भांति विकसित नयन वाले थे। उनके गले में पहना हुआ एकावली हार वक्ष तक लटक रहा था। उनके वक्ष पर श्रीवत्स का चिन्ह था। वे यशस्वी थे। उनके वक्षस्थल पर सब ऋतुओं के सुरभि-कुसुमों से सुरचित, प्रलम्ब शोभायमान, कमनीय, विकस्वर, विचित्र वर्ण वाली उत्तम माला थी । उनके अंगोपाङ्ग पृथक्-पृथक् एक सौ आठ लक्षणों से प्रशस्त और सुन्दर थे । उनकी गति मत्त गजवरेन्द्र के ललित विक्रम - (संचरण) विलास जैसी थी । उनका स्वर शरद ऋतु के नवगर्जारव, क्रौंचपक्षी के निर्घोष तथा दुंदुभिनाद जैसा मधुर-गंभीर था। वे कटिसूत्र तथा नील और पीत कौशेय वस्त्रों से प्रवर- दीप्त तेज वाले, नरसिंह, नरपति, नरेन्द्र, नरवृषभ, मरुदेश के वृषभ तुल्य", अभ्यधिक राज्यतेज की लक्ष्मी से देदीप्यमान, नील और पीत वस्त्र वाले दो-दो राम और केशव भाई थे, जैसे त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, दत्त, नारायण और कृष्ण – ये नौ वासुदेव थे । अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नंदन, पद्म और राम-ये नौ बलदेव थे । बलदेववासुदेवानां २४२. इन नौ बलदेवों और नौ वासुदेवों के पूर्वभव के नौ-नौ नाम थे, जैसे Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३७४ प्रकोणक समवाय सू० २४३-२४५ १. विस्सभूई पव्वयए, १. विश्वभूति: पर्वतक:, १. विश्वभूति ६. प्रियमित्र धणरत्त समुदत्त सेवाले। धनदत्तः समुद्रदत्त: शैवालः । २. पर्वतक ७. ललितमित्र पियमित्त ललियमित्ते, प्रियमित्र: ललितमित्रः, ३. धनदत्त ८. पुनर्वसु पुणव्वसू गंगदत्ते य॥ पुनर्वसुः गङ्गदत्तश्च ॥ ४. समुद्रदत्त ६. गंगदत्त । ५. शैवाल २. एयाई नामाई, २. एतानि नामानि, ये वासुदेवों के पूर्वभव के नाम थे। पृन्वभवे आसि वासुदेवाणं। पूर्वभवे आसन् वासुदेवानाम् । बलदेवों के नाम यथाक्रम कहूंगाबलदेवाणं, अतो बलदेवानां, १. विषनंदी ६. वाराह जहक्कम कित्तइस्सामि ॥ यथाक्रम कीर्तयिष्यामि ।। २. सुबन्धु ७. धर्मसेन ३. विसनंदो ३. सागरदत्त ८. अपराजित सुबंध य, ३. विषनन्दी सुबन्धुश्च, ४. अशोक ९. राजललित। सागरदत्ते असोगललिए य । सागरदत्तः अशोक: ललितश्च । ५. ललित वाराह धम्मसेणे, वाराहः धर्मसेनः, अपराइय रायललिए य॥ अपराजितः राजललितश्च ।। एत्तो २४३. एतेसि णं नवण्हं वासुदेवाणं पुव्व- एतेषां नवानां वासुदेवानां पूर्वभविकाः २४३. इन नौ वासुदेवों के पूर्वभविक नौ भविया नव धम्मायरिया होत्था, नव धर्माचार्याः बभूवुः, तद्यथा धर्माचार्य थे, जैसेतं जहा१. संभूत सुभद्दे सुदंसणे, १. सम्भूतः सुभद्रः सुदर्शनः, १. संभूत ६. गंगदत्त य सेयंसे कण्ह गंगदत्ते य। च श्रेयांसः कृष्णः गंगदत्तश्च । २. सुभद्र ७. सागर सागरसमुद्दनामे, सागरसमुद्रनामानौ, ३. सुदर्शन ८. समुद्र दुमसेणे य णवमए॥ द्रुमसेनश्च नवमकः ॥ ४. श्रेयान्स ६. द्रुमसेन । ५. कृष्ण २. एते धम्मायरिया, २. एते धर्माचार्याः, कीत्तिपुरुष वासुदेवों के ये नौ धर्माचार्य कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं। कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम् । थे। आसिहं, पूर्वभवे ___ आसन्, इन नौ वासुदेवों ने पूर्वभव में निदान जत्थ निदाणाई कासोय॥ यत्र निदानान्यकार्युः ॥ किए थे। पुन्वभवे २४४. एएसि णं नवण्हं वासुदेवाणं एतेषां नवानां वासुदेवानां पूर्वभवे २४४. इन नौ वासुदेवों के पूर्वभव में नौ पुन्वभवे नव निदाणभूमिओ नव निदानभूम्य: बभूवुः, तद्यथा-- निदान"-भूमियां थीं, जैसेहोत्था, तं जहा१. महुरा य कणगवत्यू, १. मथुरा च कनकवस्तु, १. मथुरा ६. काकन्दी सावत्थी पोयणं च रायगिह। श्रावस्ती पोतनं च राजगृहम् । २. कनकवस्तु ७. कौशांबी कायंदी कोसंबी, काकन्दी कौशाम्बी, ३. श्रावस्ती ८. मिथिलापुरी मिहिलपुरी हथिणपुरं च॥ मिथिलापुरी हास्तिनपुरं च ॥ ४. पोतनपुर ६. हास्तिनपुर । ५. राजगृह २४५. एतेसि णं नवण्हं वासुदेवाणं नव एतेषा नवाना वासुदेवानां नव २४५. इन नौ वासुदेवों के निदान करने के नियाणकारणा होत्था, तं जहा- निदानकारणानि बभूवः, तद्यथा- नौ कारण थे, जैसे Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३७५ प्रकोणक समवाय : सू० २४६-२४८ ना द्यूतञ्च १. गावी जवे य इत्थी पराइयो भज्जाणुराग परडडी माउया संगामे, रंगे। गोट्ठी, इय॥ १.गौ: स्त्री पराजितो भार्यानुरागः परद्धिः मातृका संग्राम:, रङ्गे। गोष्ठी, इति ।। १. गाय के द्वारा गिरना २. संग्राम में पराजय ३. चूत में पराजय ४. स्त्री का हरण ५. रण में पराजय ६. भार्या का हरण ७. गोष्ठी (राजसभा) में अपमान की अनुभूति ८. पर-ऋद्धि का प्रसंग ६. माता का अपमान । २४६. एएसि णं नवण्हं वासुदेवाणं नव एतेषां नवानां वासुदेवानां नव २४६. इन नौ वासुदेवों के नौ प्रतिशत्रु थे, पडिसत्तू होत्था, तं जहा- प्रतिशत्रवो बभूवुः, तद्यथा जैसे१. अस्सग्गीवे तारए, १. अश्वग्रीवः १. अश्वग्रीव तारकः, ६. बलि मेरए महु केढवे निसुभे य। मेरको मधुकैटभः निशुम्भश्च । २. तारक ७. प्रभराज" बलि पहराए (रणे? ) तह, बलिः प्रभराज: (प्रहरण:? ) तथा, ३. मेरक ८. रावण रावणे य नवमे जरासंधे ॥ रावणश्च नवमो जरासन्धः ।। ४. मधुकैटभ ६. जरासंध । ५. निशुंभ २. एए खलु पडिसत्तू, २. एते खलु प्रतिशत्रवः, ये कीत्तिपुरुष वासुदेवों के प्रतिशत्रु थे। कित्तोपुरिसाण वासुदेवाणं। कोतिपुरुषाणां वासुदेवानाम् । ये सब चक्र-योधी थे और ये सब अपने सव्वे वि चक्कजोहो, सर्वेपि चक्रयोधिनः, ही चक्र से वासुदेव द्वारा मारे गए। सव्वे वि हया सचक्केहि ॥ सर्वेपि हता: स्वचक्रः ।। FREP रामा:, २४७.१. एक्को य सत्तमाए, १. एकश्च सप्तम्यां, २४७. काल धर्म को प्राप्त होकर एक वासुदेव पंच य छटीए पंचमा एक्को। पञ्च च षष्ठयां पंचम्यां एकः । सातवीं पृथ्वी में, पांच छद्री पृथ्वी में, एक्को य चउत्थीए, एकश्च चतुर्थ्या, एक पांचवी पृथ्वी में, एक चौथी पृथ्वी कण्हो पुण तच्चपुढवीए॥ कृष्णः पुनस्तृतीयपृथिव्याम् ।। में और कृष्ण तीसरी पृथ्वी में गए। २. अणिदाणकडा रामा, २. अनिदानकृता सभी राम (बलदेव) निदान किए बिना सवेविय केसवा नियाणकडा। सर्वेपि च केशवा निदानकृताः । होते हैं और वे सभी ऊर्ध्वगामी होते उड्ढंगामी रामा, ऊर्ध्वगामिनो रामा:, हैं। सभी केशव (वासुदेव) निदानकेसव सव्वे अहोगामी॥ केशवाः पूर्वक होते हैं और वे सभी अधोगामी सर्वेऽधोगामिनः ।। होते हैं। ३. अद्वैतकडा रामा, ३. अष्टान्तकृता रामा, आठ राम (बलदेव) अंतकृत (मोक्षएगो पुण बंभलोयकप्पमि । एक: पुन: ब्रह्मलोककल्पे । गामी) हुए और एक (बलभद्र ) एक्का से गम्भवसही, एका तस्य गर्भवसतिः, ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुआ। वह सिज्झिस्सइ आगमेस्साणं॥ सेत्स्यति आगमिष्यताम् (मध्ये) ॥ आगामी काल में एक गर्भवास कर सिद्ध होगा। एरवय-तित्थगर-पदं ऐरवत-तीर्थकर-पदम् ऐरवत-तीर्थकर-पद २४८. जंबुद्दीवे णं दोवे एरवए वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरवते वर्षे अस्यां २४८. जम्बूद्वीप द्वीप के ऐरवत क्षेत्र में इस इमीसे ओसप्पिणोए चउवीसं अवपिण्यां चतविशतिः तीर्थकराः अवसपिणी में चौबीस तीर्थकर हुए थे, तित्थगरा होत्था, तं जहा- बभूवुः, तद्यथा जैसे१. चंदाणणं सुचंदं च, १. चन्द्राननं सूचन्द्रं च, १. चन्द्रानन ५. ऋषिदत्त अग्गिसेणं च नंदिसेणं च । अग्निषेणं च नन्दिषेणं च । २. सुचन्द्र ६. व्रतधारी इसिदिण्णं वयहारि, ऋषिदत्तं व्रतधारिणं, ३. अग्निषेण ७. श्यामचन्द्र वंदिमो सामचंदं च॥ वन्दामहे श्यामचन्द्रं च ॥ ४. नंदिषेण Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो प्रकोणक समवाय : सू० २४६-२५१ युक्तिषेणं, २.वंदामि जुत्तिसेणं, २. वन्दे ८. युक्तिषेण १७. अतिपावं अजियसेणं तहेव सिवसेणं । अजितसेनं तथैव शिवसेनम् । ६. अजितसेन १८. सुपार्श्व बुद्धं च देवसम्म, बुद्धं च देवशर्माणं, १०. शिवसेन १६. मरुदेव सययं निक्खित्तसत्थं च ॥ सततं निक्षिप्तशस्त्रं च ।। ११. देवशर्मा २०. धर ३. असंजलं जिणवसहं, ३. असंज्वलं जिनवषभ, १२. निक्षिप्तशस्त्र २१. श्योमकोष्ठ वंदे य अणंतयं अमियणाणि । वन्दे च अनन्तकं अमितज्ञानिनम् । १३. असंज्वल २२. अग्निषेण उवसंत च धुयरयं, उपशान्तं च धुतरजसं, १४. अनन्तक २३. अग्निपुत्र वंदे खलु गुत्तिसेणं च॥ वन्दे खलु गुप्तिषेणं च ।। १५. उपशान्त २४. वारिषेण । ४. अतिपासं च सुपासं, ४. अतिपावं च सुपावं, १६. गुप्तिषण देवसरवंदियं च मरुदेवं। देवेश्वरवन्दितं च मरुदेवम् । णिव्वाणगयं च धरं, निर्वाणगतं च धरं, खीणदुहं सामकोठें च॥ क्षीणदु:खं श्यामकोष्ठं च॥ ५. जियरागमग्गिसेणं, ५. जितरागं अग्निषेणं, वंदे खोणरयमग्गिउत्तं च। वन्दे क्षीणरजसं अग्निपुत्रं च । वोक्कसियपेज्जदोसं व्यवकृष्ट प्रेयो दोषं च, वारिसेणं गयं सिद्धि ।। वारिषेणं गतं सिद्धिम् ॥ भावि-कुलगर-पदं __भावि-कुलकर-पदम् भावी-कुलकर-पद २४६. जंबहीवे णं दीवे भरहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे २४६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सत्त आगमिष्यन्त्यां उत्सपिण्यां सप्त कुलकराः उत्सर्पिणी में सात कुलकर होंगे, जैसेकूलगरा भविस्सति, तं जहा-- भविष्यन्ति, तद्यथा१. मितवाहणे सुभूमे य, १. मित्रवाहनः सुभूमश्च, १. मित्रवाहन ५. दत्त सुप्पमेय सयंपभे। सुप्रभश्च स्वयंप्रभः । २. सुभूम ६. सूक्ष्म दत्ते सुहमे सुबंधू य, दत्तः सूक्ष्मः सुबन्धुश्च, ३. सुप्रभ ७. सुबंधु । आगमेस्साण होक्खति ॥ आगमिष्यतां (मध्ये) भविष्यन्ति ॥ ४. स्वयंप्रभ १०. जबडीवे णं दोवे भरहे वासे जम्बद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे आगमिष्यन्त्यां २५०. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी आगमिस्साए ओसप्पिणोए दस अवसपिण्यां दश कुलकरा: भविष्यन्ति, कुलगरा भविस्संति, तं जहा जहा तद्यथा१. विमलवाहणे सीमंकरे, १.विमलवाहनः सोमंकरः, १. विमलवाहन ६. दृढधनु सोमंधरे खेमकरे खेमंधरे। सोमंधरः क्षेमकरः क्षेमंधरः। २. सीमंकर ७. दशधनु दढधण दसधण, दशधनुः, ३. सीमंधर ८. शतधनु सयधणू पडिसूई संमूइत्ति ॥ शतधनुः प्रतिश्रुतिः सन्मतिः ॥ ४. क्षेमकर ६. प्रतिश्रुति ५. क्षेमंधर १०. सन्मति । दृढधनुः भावि-तित्थगर-पदं भावि-तिर्थकर-पदम् भावी-तीर्थकर-पद २५१. जंबुद्दीवे णं दोवे भरहे वासे जम्बद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे आगमिष्यन्त्यां २५१. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी आमिस्साए उस्सप्पिणोए चउ- उत्सपिण्यां चतुर्विंशतिस्तोर्थकरा: उर्पिणी में चौबीस तीर्थङ्कर होंगे, वीसं तित्थगरा भविस्संति, तं भविष्यन्ति, तद्यथा जैसेजहा Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अर्हन्, समवानो ३७७ प्रकोणक समवाय : सू० २५२ १. महापउमे सूरदेवे, १. महापद्म: सूरदेव:, १. महापद्म १३ अमम सुपासे य सयंपमे। सुपार्श्वश्च स्वयंप्रभः । २. सूरदेव १४ निष्कषाय सव्वाणुभूई अरहा, सर्वानुभूति: अर्हन्, ३. सुपार्श्व १५. निष्पुलाक देवउत्ते य होक्खति ।। देवपुत्रश्च भविष्यति । ४. स्वयंप्रभ १६. निर्गम २. उदए पेढालपुत्ते य, २. उदक: पेढालपुत्रश्च, ५. सर्वानुभूति १७ चित्रगुप्त पोट्रिले सतए ति य। पोट्रिल: शतक इति च । ६. देवपुत्र १८. समाधि मुणिसुव्वए य अरहा, मुनिसुव्रतश्च अर्हन, ७. उदक १६. संवर सव्वभावविदू जिणे ।। सर्वभावविद् जिनः ।। ८. पेढालपुत्र २०. अनिवति ३. अममे णिक्कसाए य, ३. अमम: निष्कषायश्च, ६. पोट्टिल २१. विजय निष्पुलाकश्च निप्पुलाए य निम्ममे । निर्ममः । १०. शतक २२. विमल चित्तउत्ते समाहो चित्रगुप्तः य, समाधिश्च, ११. मुनिसुव्रत २३. देवोपपात आगमिस्साए होक्खइ ।। आगमिष्यन्त्यां भविष्यति ॥ १२. सर्वभावविद् २४. अनन्तविजय। ४. संवरे अणियट्टी य, ४. संवरः अनिवर्तिश्च, विजए विमलेति य। विजयः विमल इति च । देवोववाए अरहा, देवोपपात: अणंतविजए ति य॥ अनन्तविजय इति च ॥ ये चौबीस तीर्थङ्कर आगामी काल में ५. एए वुत्ता चउवीस, ५. एते उक्ताश्चतुर्विंशतिः, भरतक्षेत्र में धर्मतीर्थ के उपदेशक भरहे वासम्मि केवली। भरते वर्षे केवलिनः।। होंगे। आगमेस्साण होक्खंति, आगमिष्यतां (मध्ये) भविष्यन्ति, धम्मतित्थस्स देसगा। धर्मतीर्थस्य देशकाः ।। २५२. एतेसि णं चउवोसाए तित्थगराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां १५२. इन चौबीस तीर्थङ्करों के पूर्वभविक पुव्वभविया चउवोसं नामधेज्जा पूर्वभविकानि चतुर्विंशति: नामधेयानि नाम चौबीस थे, जैसेभविस्संति, तं जहा- भविष्यन्ति, तद्यथा१. सेणिय सुपास उदए, १. श्रेणिक: सुपार्श्व: उदकः, १. श्रेणिक १३. वासुदेव पोट्टिल अणगारे तह दढाऊ य। पोट्टिलः अनगारस्तथा दृढायुश्च । २. सुपार्श्व १४. बलदेव कत्तिय संखे य तहा, कात्तिकः शङ्खश्च तथा, ३. उदक १५. रोहिणी नंद सुनंदे सतए य बोद्धव्वा ।। नन्द: सुनन्दः शतकश्च बोद्धव्याः ।। ४. पोट्टिल अनगार १६. सुलसा २. देवई च्चेव सञ्चइ, २. देवका चैव सत्यको, ५. दृढायु १७. रेवती तह वासुदेव बलदेवे। तथा वासुदेवः बलदेवः । ६. कार्तिक १८. मृगाली रोहिणि सलसा चेव, रोहिणी सुलसा चैव, ७. शंख १६. भयाली तत्तो खलु रेवई चेव ।। ततः खलु रेवती चैव ।। ८. नंद २०. कृष्णद्वीपायन ३. ततो हवइ मिनालो, ३. ततो ६. सुनंद २१. नारद भवति मृगालिः, १०. शतक २२. अम्मड़ बोद्धव्वे खलु तहा भयाला या बोद्धव्य: खलु तथा भयालिश्च । दीवायणे ११. देवकी २३. दारुमड य कण्हे, द्वीपायनश्च १२. सत्यकी २४. स्वातिबुद्ध । तत्तो खलु नारए चेव ।। ततः खलु नारदश्चैव ।। ४. अंबडे दारुमडे य, ४. अम्मड: दारुमडश्च, साईबुद्धे य होइ बोद्धव्वे। स्वातिबुद्धश्च भवति बोद्धव्यः । उस्सप्पिणी आगमस्साए, उत्सपिण्यां आगमिष्यन्त्यां, आगामी उत्सपिणी में होने वाले तित्थगराणं तु पुत्वभवा ।। तोर्थकराणा तु पूर्वभवाः ।। तीर्थङ्करों के ये पूर्वभविक नाम हैं । कृष्णः , Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३७८ प्रकीर्णक समवाय : सू० २५३-२५६ २५३. एतेसि गं चउवीसाए तित्थगराणं एतेषां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां २५३. इन चौबीस तीर्थङ्करों के चौबीस पिता, चउवीसं पियरो भविस्संति, चउ- चतुर्विशतिः पितरो भविष्यन्ति, चौबीस माताएं, चौबीस प्रथम-शिष्य, वीसं मायरो भविस्संति, चउवीसं चतुर्विंशति: मातरो भविष्यन्ति, चौबीस प्रथम-शिष्याएं, चौबीस प्रथमपढमसीसा भविस्संति, चउवीसं चतुर्विंशतिः प्रथमशिष्याः भविष्यन्ति, भिक्षादायक और चौबीस चैत्यवृक्ष पढमसिस्सिणोओ भविस्संति, चतूविशति: प्रथमशिष्याः भविष्यन्ति, होगे। चउवोसं पढमभिक्खादा भविस्संति, चतुर्विंशतिः प्रथमभिक्षादाः भविष्यन्ति, चउवीसं चेइयरुक्खा भविस्संति। चतुर्विंशति: चैत्यवक्षाः भविष्यन्ति । भावि-चक्कवट्टि-पदं भावि-चक्रवत्ति-पदम् भावी-चक्रवर्ती-पद २५४. जंबद्दोवे णं दोवे भरहे वासे आग- जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे आगमिष्यन्त्यां २५४. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी मेस्साए उस्सप्पिणोए बारस उत्सर्पिण्यां द्वादश चक्रवत्तिनो । उत्सर्पिणी में बारह चक्रवर्ती होंगे, चक्कवट्टी भविस्संति, तं जहा- भविष्यन्ति, तद्यथा जैसेसंगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. भरहे य दोहदंते, १. भरतश्च दीर्घदन्तः, १. भरत ७. श्रीसोम गूढदते य सुद्धदंते य। गूढदन्तश्च शुद्धदन्तश्च । २. दीर्घदन्त ८. पद्म सिरिउत्ते सिरिभूई, श्रीपुत्र: श्रीभूतिः ।। ३. गूढदन्त ६. महापद्म सिरिसोमे य सत्तम ।। श्रीसोमश्च सप्तमः ।। ४. शुद्धदन्त १०. विमलवाहन २. पउमे य महापउमे, २. पद्मश्च महापद्मः, ५. श्रीपुत्र ११. विपुलवाहन विमलवाहणे विपुलवाहणे चेव। विमलवाहनः विपुलवाहनश्चैव। ६. श्रीभूति १२. रिष्ट । रिठे बारसमे वृत्ते, रिष्ट: द्वादशः उक्तः, आगमेसा भरहाहिवा ।। आगमिष्यन्तो भरताधिपाः ।। २५५. एएसि णं बारसण्हं चक्कबट्टोणं एतेषां द्वादशानां चक्रवर्तिनां द्वादश २५५. इन बारह चक्रवतियों के बारह पिता, बारस पियरो भविस्संति, वारस पितरो भविष्यन्ति. द्वादश मातरो बारह माताएं और बारह स्त्री-रत्न मायरो भविस्संति, बारस इत्थी- भविष्यति टादश स्त्रीरत्तानि होंगे। रयणा भविस्संति भविष्यन्ति । भावि-बलदेव-वासुदेव-पदं भावि-बलदेव-वासुदेव-पदम् भावी-बलदेव-वासुदेव-पद २५६. जंबुट्टीवे णं दोवे भरहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे आगमिष्यन्त्यां २५६. जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी आगमिस्साए उस्सप्पिणोए नव उत्सपिण्यां नव बलदेव-वासूदेवपितरो उत्सपिणी में नौ बलदेव-वासुदेवों के बलदेव-वासुदेवपिथरो भविस्संति, भविष्यन्ति, नव वासुदेवमातरो नौ पिता, नौ वासुदेवों की नौ माताएं, नववासूदेवमायरो भविस्संति, नव भविष्यन्ति, नव बलदेवमातरो नौ बलदेवों की नौ माताएं और नौ बलदेवमायरो भविस्संति, नव भविष्यन्ति, नव दशारमण्डलानि दशारमण्डल होंगे, जैसेदसारमंडला भविस्संति, तं भविष्यन्ति, तद्यथाजहाउत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा उत्तमपुरुषाः मध्यमपुरुषाः प्रधानपुरुषाः उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष, प्रधानपुरुष, पहाणपूरिसा ओयसो तेयंसी एवं ओजस्विनः तेजस्विनः एवं स चव ओजस्वी, तेजस्वी यावत् नील-पीत सो चेव वण्णओ भाणियव्वो जाव वर्णक: भणितव्य: यावत नीलक-पीतक- वस्त्र वाले दो-दो राम और केशव नोलग-पीतग-वसणा दुवे-दुवे वसनाः द्वौ द्वौ राम-केशवौ भ्रातरौ भाई होंगे, जैसेरामकेसवा भायरो भविस्संति, भविष्यतः, तद्यथातं जहा Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३७६ प्रकीर्णक समवाय : सू० २५७-२५८ नंद, नंदमित्र, दीर्घबाहु, महाबाहु, अतिबल, महाबल, बलभद्र, द्विपृष्ठ और त्रिपृष्ठ-ये नौ वासुदेव होंगे। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. नंदे य नंदमित्ते, १. नन्दश्च नन्दमित्र:, दोहबाहू तहा महाबाह। दीर्घबाहस्तथा महाबाहुः। __ अइबले महाबले, अतिबल: महाबलः, बलभद्दे य सत्तमे ।।। बलभद्रश्च सप्तमः ।। २. दुविठू य तिविठू य, २. द्विपृष्ठश्च त्रिपृष्ठश्च, आगमेसाण वहिगो। आगमिष्यतां (मध्ये) वृष्णयः । जयंते विजय भद्दे, जयन्त: विजयः सुप्पमेय सुदंसणे । सुप्रभश्च सुदर्शनः । आणंदे नंदणे पउमे, आनन्द: नन्दनः पद्मः, संकरिसणे य अपच्छिमे ।। संकर्षणश्च अपश्चिमः ।। जयंत, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दन, पद्म और संकर्षण-ये नौ बलदेव होंगे। २५७. एएसि णं नवण्हं बलदेव-वासु- एतेषां नव बलदेव-वासुदेवानां २५७. इन नौ बलदेव-वासुदेवों के नौ-नौ देवाणं पुव्वभविया णव नामधेज्जा पूर्वभविकानि नव नामधेयानि पूर्वभविक नाम, नौ धर्माचार्य, नौ भविस्मंति. नव धम्मायरिया भविष्यन्ति, नव धर्माचार्याः निदान भूमियां, नौ निदान-कारण और भविस्संति, नव नियाणभूमीओ भविष्यन्ति, नव निदानभूम्यः नौ प्रतिशत्रु होंगे, जैसेभविस्संति, नव नियाणकारणा भविष्यन्ति, नव निदानकारणानि भविस्संति, नव पडिसत्त भवि- भविष्यन्ति, नव प्रतिशत्रवः स्संति, तं जहा भविष्यन्ति, तद्यथा१. तिलए य लोहजंघे, १.तिलकश्च लोहजङ्घः, १. तिलक ६. अपराजित वरइजंघे य केसरी पहराए। वनजङ्गश्च केसरी प्रभराजः । २. लोहजघ ७. भीम अपराइए य भीमे, अपराजितश्च भीमः, ३. वज्रजंघ८. महाभीम महाभोमे य सुग्गीवे ॥ महाभीमश्च सुग्रीवः ।। ४. केसरी ६. सुग्रीव । ५. प्रभराज २. एए खलु पडिसत्तू, २. एते खलु प्रतिशत्रवः, । ये कीर्तिपुरुष वासुदेवों के प्रतिशत्रु कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम् ।। होंगे। ये सब चक्र-योधी होंगे और ये सव्वेवि चक्कजोहो, सर्वेऽपि चक्रयोधिनः, सब अपने ही चक्र से वासुदेव द्वारा हमिहिति सचक्केहि ।। वधिष्यन्ते स्वचक्रः ।। मारे जायेंगे। एरवय-भावि-तित्थगर-पदं ऐरवत-भावि-तीर्थकर-पदम् ऐरवत-भावी-तीर्थकर-पद २५८. जंबहीवे णं दीवे एरवए वासे जम्बूद्वीपे द्वोपे ऐरवते वर्षे २५८. जम्बुद्वीप द्वीप के ऐरवत क्षेत्र में आगमिस्साए उस्सप्पिणोए आगमिष्यन्त्यां उत्सपिण्यां चतुर्विंशति: आगामी उत्सपिणी में चौबीस तीर्थङ्कर चउवीसं तित्थकरा भविस्संति, तीर्थकरा भविष्यन्ति, तद्यथा-- होंगे, जैसेतं जहा--- १. सुमंगले य सिद्धत्थे, १. सुमङ्गलश्च सिद्धार्थः, १. सुमंगल णिव्वाणे य महाजसे। निर्वाणश्च महायशाः। २. सिद्धार्थ धम्मज्झए य अरहा, धर्मध्वजश्च अर्हन्, ३. निर्वाण आगमिस्साण होक्खइ ।। आगमिष्यतां (मध्ये) भविष्यति ।। ४. महायश ५. धर्मध्वज Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री २. सिरिचंदे महाचंदे सागरे आगमिस्साण ३. सिद्धत्थे महाघो सच्चसेणे आगमिस्साण ५. सुपासे ४. सूरसेणे य महा य सव्वाणंदे य देवउत्ते य सुव्वए ६. विमले य य अरहा, होक्खइ || पुण्घो से य ७. एए एरवयम्मि य उत्तरे य अरहा देवाणंदे य आगमिस्साण य आमिस्साण धम्मतित्थस्स अरहा, कोस । अरहे अरहा अनंत विजए || आगमस्साण होक्ख || वृत्ता पुष्क के ऊ केवली | य, केवली । अरहा, होक्ख || अरहा, केवली । अरहा, होक्ख ॥। अरहा, महाबले। अरहा, होक्खइ ॥ चडवोर्स, केवली । होक्खति, देसगा । २५६. बारस चक्कवट्टी भविस्संति, बारस चक्कवट्टिपियरा भविस्सति, बारस मायरो भविस्ांति, बारस इत्थीरयणा भविस्सति । नव बलदेव - वासुदेवपियरो भविस्संति, णव वासुदेवभायरो भविस्सति, जब बलदेवमायरो भविस्संति, व दसारमंडला भविस्संति, उत्तमपुरिया मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा जाब दुबे दुवे राम केसवा भायरो भविस्संति, णव पडिसत्तू भविस्संति, नव भवणामधे णव २. श्राचन्द्रः महाचन्द्रश्च श्रुतसागरश्च अर्हन्, आगमिष्यतां (मध्ये ) भविष्यति ।। ३. सिद्धार्थः पुण्यघोषश्च केवली | महाघोषश्च सत्यसेनश्च ३५० अर्हन्, आगमिष्यतां (मध्ये ) भविष्यति ।। ४. शूरसेनश्च महासेनश्च सर्वानन्दश्च देवपुत्रश्च ५. सुपार्श्वः अर्हन् अर्हन् पुष्पकेतु:, केवली । ७. एते अर्हन्, सुकौशलः । अनन्तविजयः, आगमिष्यतां (मध्ये ) भविष्यति । अर्हन्, उत्तरः च ऐरवते सुव्रतः च अर्हन्, केवली । अर्हन्, भविष्यति || ६. विमल: महाबलः । अर्हन् देवानन्दश्च आगमिष्यतां (मध्ये ) भविष्यति ॥ अर्हन्, चतुर्विंशतिः, केवलिनः । एरवय- भावि चक्क वट्टि -बलदेव वासुदेव ऐरवत भावि चक्रवर्ति-बलदेव वासुदेव पदं पदम् आगमिष्यतां ( मध्ये ) भविष्यन्ति, धर्मतीर्थस्य देशकाः ॥ द्वादश चक्रवर्तिनो भविष्यन्ति द्वादश चक्रवातपितरा भविष्यन्ति द्वादश भातरो भविष्यन्ति द्वादश स्त्रोरत्नानि भविष्यन्ति । नव बलदेव - वासुदेव - पितरो भविष्यन्ति, नव वासुदेवमातरो भविष्यन्ति, नव बलदेवमातरो भविष्यन्ति, नव दशारमण्डलानि भविष्यन्ति । उत्तमपुरुषा: मध्यमपुरुषाः प्रधानपुरुषाः यावत् द्वौ द्वौ राम-केशवी भ्रातरौ भविष्यतः । नव प्रतिशत्रवो भविष्यन्ति, नव पूर्वभव-नामवेपानि, नव धर्माचार्याः, नव निदानभूम्यः, नव निदानकारणानि, प्रकोर्णक समवाय: सू० २५६ ६. श्रीचन्द्र ७. पुष्पकेतु ८. महाचन्द्र ६. श्रुतसागर १०. पुण्यघोष ११. महाघोष १२. सत्य सेन १३. शूरसेन १४. महासेन १५. सर्वानन्द १६. देवपुत्र १७. सुपार्श्व १८. सुव्रत १६. सुकौशल २०. अनन्त विजय २१. विमल २२. उत्तर २३. महाबल २४. देवानन्द । ये चौबीस तीर्थङ्कर आगामी उत्सर्पिणी में ऐरवत क्षेत्र में धर्म- तीर्थं के उपदेशक होंगे ।" ऐरवत-भावी - चक्रवर्ती - बलदेव वासुदेव पद २५६. बारह चक्रवर्ती, उनके बारह पिता, बारह माताएं और बारह स्त्रीरत्न होंगे । नौ बलदेव वासुदेवों के नौ पिता, नौ वासुदेवों की नौ माताएं, नौ बलदेवों की नौ माताएं और नौ दशारमण्डल होंगे। उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष, प्रधानपुरुष यावत् दो-दो राम और केशव भाई होंगे। उनके नौ प्रतिशत्रु, पूर्वभव के नौ नाम, नौ धर्माचार्य, नौ निदानभूमियां और नौ निदान - कारण होंगे। एक बलदेव का देवलोक से पुनरागमन Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३८१ धम्मायरिया, णव णियाणभूमीओ, आयात, ऐरवते णव णियाणकारणा, आयाए, भणितव्याः । एरवए आगमिस्साए भाणियव्वा । प्रकोणक समवाय : सू० २६०-२६१ आगमिष्यन्त्यां और फिर मोक्षगमन होगा। ये सब आगामी काल में ऐरवत क्षेत्र में होंगे। २६०. एवं दोसुवि भाणियव्वा। आगमिस्साए एवं द्वयो रपि भणितव्याः । आगमिष्यन्त्यां २६०. इसी प्रकार आगामीकाल में दोनों क्षेत्रों (भरत और ऐरवत) में यह सब प्रतिपाद्य है। निक्खेव-पदं निक्षेप-पदम् निक्षेप-पद २६१. इच्चेयं एवमाहिज्जति, तं जहा- इत्येतत् एवमाहीयते, तद्यथा- २६१. इस प्रकार उक्त अर्थाधिकारों के कारण कूलगरवंसेतिय, एवं कुलकरवंश: इति च, एवं तीर्थकरवंश: प्रस्तुत सूत्र के निम्न नाम फलित होते तित्थगरवंसेति य, चक्कवाद । इति च, चक्रवर्तिवंश: इति च, दशारवंश हैं, जैसे -- कुलकरवंश, तीर्थङ्करवंश, व दसारवंसेति य, गणधरवंसेति इति च, गणधरवंश: इति च, ऋषिवंश: चक्रवर्तीवंश, दशारवंश, गणधरवंश, य, इसिवंसेति य, जतिवंसेति य, इति च, यतिवंश: इति च, मुनिवंश: ऋषिवंश, यतिवंश, मुनिवंश, श्रुत, मुणिवसेति य, सुतेति वा, सुतंगेति इति च, श्रुतं इति वा, श्रुतांग इति वा, श्रुतांग, श्रुतसमास, श्रुतस्कन्ध, समवाय वा, सुयसमासेति वा, सुयखंधेति श्रुतसमासः इति वा, श्रुतस्कन्धः इति और संख्या। वा, समाएति वा संखेति वा । वा, समवायः इति वा, संख्या इति वा। प्रस्तुत अंग समस्त तथा अध्ययनरूप में समत्तमंगमक्खायं अज्झयणं समस्तमङ्गमाख्यातं अध्ययनम् ।। आख्यात है।" -ति बेमि। - इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. तीन सौ धनुष्य से कुछ अधिक ( सातिरेगाणि तिष्णि धणुसयाणि) सू० १३ : जब चरमशरीरी व्यक्ति शैलेशीकरण करता है तब शरीर के शून्य स्थान को पूरित कर वह अपने शरीर की अवगाहना का १/३ भाग संकुचित करता है। उसके जीव- प्रदेश तब सघन हो जाते हैं। वह शरीर की अवगाहना के २/३ भाग से सिद्ध गति को प्राप्त होता है । प्रस्तुत सूत्र में सातिरेक तीन सौ धनुष्य का अर्थ है - ३३३. १ / ३ धनुष्य । यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है । ' २. छह सौ धनुष्य ऊंचे (छ धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं) सू० ३५ : इस अवसर्पिणी में सात कुलकर हुए थे । उनमें अभिचन्द्र चौथे कुलकर थे । वृत्तिकार ने उनकी ऊंचाई ६५० धनुष्य मानी है।' इससे यह संभावना की जा सकती है कि वृत्तिकार ने 'सातिरेगाणि छ धणुसयाई' पाठ की व्याख्या की है। ३. कुछ न्यून (देसूणाई) सू० ४० : अरिष्टनेमि का छद्मस्थकाल चउपन दिन का था । प्रस्तुत सूत्र का 'देसूणाई' शब्द इसी का द्योतक है । ' ४. सभी यमक पर्वत ( सव्वेवि णं जमगपव्वया) सू० ५६ : उत्तरकुरु के नीलवर्षधर पर्वत के उत्तरीय भाग में शीता महानदी के दोनों तटों पर 'यमक' नाम के दो पर्वत हैं । उत्तरकुरु पांच हैं । उन पांचों में दस 'यमक' पर्वत हैं । ५. चित्रकूट और विचित्रकूट ( चित्त - विचित्तकूडा) सू० ५७ : देवकुरु में एक चित्रकूट और एक विचित्रकूट पर्वत है। पांच देवकुरुओं में पांच चित्रकूट और पांच विचित्रकूट पर्वत हैं । ' ६. पल्य-संस्थान (पल्लगसंठाण) सू ५८ : इसकी आकृति अनाज भरने के बड़े कोठे के समान है । ७. हजार वर्षों की पूर्ण आयु (दस वाससयाई सव्वाउयं) सू० ६१ : अहं अरिष्टनेमि तीन सौ वर्षों तक कुमार अवस्था में रहे और सात सौ वर्षों तक अनगार अवस्था में रहे थे । ' १. समवायांगवृत्ति, पत्र १४ : चरमशरीरस्य सिद्धिगतस्य सातिरेकाणि वीणि शतानि धनुषां जीवप्रदेशावगाहना प्रज्ञप्ता, यतोऽसो शेलेशीकरणसमये शरीररन्ध्रपूरणेन देहविभागं विमुच्य घनप्रदेशो भूत्वा देवि भागद्वया वगाहनः सिद्धिमुपगच्छति, सातिरेकत्वं चैवं । तिनि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागे य होइ बोद्धव्वो । एसा खलु सिद्धाणं उनकोसोगाहणा भणिया || २. बही, पत्र १६: प्रभिचन्द्रः कुलकरोऽस्याम वसविण्यां सप्तानां कुलकराणां चतुर्थः, तस्योच्छ्रयः षट् धनुः शतानि पञ्चाशदधिकानि । ३. वही, पत्र ६६ : 'देसूणाई' ति चतुः पञ्चाशतो दिनानामूनानि, तत्प्रमाणत्वात् छद्यस्थकालस्येति, ४. वही पत्र ६८ : उत्तरकुरुषु नीलवद्वर्षधरस्य उत्तरतः शीताया महानद्या उभयोः कूलयोढौं यमकाभिधानौ पर्वतौ स्तः ते च पञ्चस्वप्युत्तरकुरुषु द्वयोर्द्वयोर्भावाद्दश । ५. वही, पन १८ : पञ्चसु देवकुरुषु यमकवत्तत्सद्भावात् पञ्च चित्रकूटाः पञ्च विचित्रकूटाः इति । ६. वही वृत्ति, पत्र १८: 'मरहृते' त्यादि, कुमारत्वे त्रीणि वर्षशतान्यन गारत्वे सप्तेश्येवं दश शतानि । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो ३८३ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ८-१३ ८. तीन हजार योजन (तिणि जोयणसहस्साइं) सू०६८ : रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम काण्ड का नाम है-खरकाण्ड । उसके सोलह विभाग हैं। उनमें से प्रथम चार विभाग ये हैंरत्नकाण्ड, वज्रकाण्ड, वैड काण्ड और लोहिताक्षकाण्ड । इन चारों में हजार-हजार योजन का अन्तर है। इस प्रकार दूसरे विभाग वज्रकाण्ड से चौथे विभाग लोहिताक्ष का अन्तर तीन हजार योजन रह जाता है।' ६. तिगिच्छ (तिगिच्छ) सू० ६६ : तिगिच्छ द्रह निषध वपंधरपर्वत पर है। वह धृति देवी का निवास स्थान है। केसरीद्रह नील वर्षधरपर्वत पर है। वह कीत्ति देवी का निवास स्थान है। १०. पांच-पांच हजार योजन (पंच-पंच जोयणसहस्साई) सू०७० : तिर्यग् लोक के मध्य में आठ रुचक प्रदेश हैं। यही दिशाओं और अनुदिशाओं का उद्भव स्थान है। इसके चारों दिशाओं में मन्दर पर्वत का व्यवधानात्मक अन्तर पांच-पांच हजार योजन का है, क्योंकि इसका विष्कंभ दस हजार योजन का है। ११. हजार योजन लम्बी (जोयणसहस्सा आयामेणं) सू०७४ : प्रस्तुत सूत्र में दक्षिणार्ध भरत की जीवा नौ हजार योजन लंबी बताई है। वृत्तिकार ने स्थानान्तर का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वह जीवा नौ हजार सात सौ अड़तोलीस योजन बारह कला की है । यह स्थानान्तर अन्वेषणीय है।" १२. कुछ अधिक नौ हजार अवधिज्ञानी (साइरेगाई नव ओहिनाणिसहस्साई) सू० ८४ : वृत्तिकार ने 'साइरेगाणि' से चार सौ का ग्रहण किया है। वस्तुत: प्रस्तुत पाठ 'सहस्र' समवाय के अन्तर्गत आना चाहिए था, पर यहां 'लक्ष' समवाय के अन्तर्गत उल्लिखित हुआ है। वृत्तिकार ने इसकी आलोचना करते हुए तीन विकल्प प्रस्तुत किए हैं-१. लक्ष शब्द से सहस्र शब्द का साधर्म्य है २. सूत्र की गति विचित्र होती है ३. लिपिकर्ता के प्रमाद के कारण। १३. सूत्र ८५ प्रस्तुत प्रसंग में पुरुषसिंह वासुदेव का पांचवें नरकगमन का उल्लेख है। स्थानांग में छठी नरक का उल्लेख है। दोनों अंगों में यह अन्तर क्यों है, इसका समाधान प्राप्त नहीं है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र १८: रत्नप्रभापथिव्या: प्रथमस्य षोडशविभागस्य खरकाण्डाभिधानकाण्डस्य प्रथमं रत्नकाण्ड ,वचकाई नाम काण्डं द्वितीयं, बडूर्यकाण्ड तृतीगं, लोहिताक्षकाण्ड चतुर्थं, तानि च प्रत्येकं साहसिकमिति तयाणां यथोक्तमन्तरं भवतीति । २. वही, पत्र ६८ : तिगिच्छिकेसरिह्रदो निषधनीलबद्वषधरोपरिस्थितौ धुतिकोत्तिदेवीनिवासाविति । ३. बही. प०१८, ६९: 'अट्ठपएसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारंमि । एसप्पभवो दिसाणं एसेव भवे प्रणदिसाणं ।। रुचक एवं नाभिचक्रस्य तुम्बमिवेति रुचकनाभिः, ततश्चतसृष्वपि दिक्ष पञ्च पञ्च सहस्राणि मेरस्तस्य दशसहस्रविष्कम्भत्वादिति । ४. वही, पन्न ६६ नव सहस्राण्यायामत होक्ता, स्थानान्तरे तु तद्विशेषोऽयं 'नव सहस्राणि सप्त शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि द्वादश च कला'। ५. वही, पन ह8: सातिरेकाणि नवावधिज्ञानी सहवाणि, प्रतिरेकश्चत्वारि शतानि, इदं च सहस्रस्थानकमपि लक्षस्थानकाधिकारे यदधीतं तत् सहस्रशब्दसाधम्याद्विचिन्नत्वाद्वा सूत्रगतेलेखकदोषावेति । ६. ठाणं १०/७८: पुरिससीहे णं वासुदेवे ........"छट्ठीए तयाए पूढवीए रइयत्ताए उबवण्णे। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण १४-१७ १४. छठे पोट्टिल भवग्रहण (छठे पोट्टिलभवग्गहणे) सू०८६ : भगवान् महावीर के छह भवों की संगति वृत्तिकार ने इस प्रकार प्रस्तुत की है१. पोट्टिल नाम का राजपुत्र । २. देवभव । ३. अग्रछत्रा नगरी में नन्दन नाम का राजपुत्र । ४. दशवें देवलोक में देवरूप में उत्पन्न । ५. ब्राह्मण कुण्डग्राम में देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरण । ६. त्रिशला महारानी के गर्भ से उत्पन्न । इन छह भवों को ग्रहण किए बिना प्रस्तुत सूत्र का कथन संगत नहीं होता। इसलिए यह यथार्थ ही कहा है कि तीर्थंकर भवग्रहण से पूर्व छठे भव में। १५. गणिपिटक के बारह अंग हैं (दुवालसंगे गणिपिडगे) सू० ८८-१३४ : तुलना के लिए देखें-नंदी, सूत्र ८१-१२६ । १६. आचार पांच प्रकार का है (से समासओ पंचविहे) सू० ८६ : आचार के पांच प्रकार हैं१. ज्ञान आचार-श्रुतज्ञान के अध्ययन का व्यवहार । २. दर्शन आचार-सम्यक्त्वी का व्यवहार या दृष्टिकोण । ३. चारित्र आचार-साधुओं का समिति-गुप्तिरूप व्यवहार । ४. तपःआचार-बारह प्रकार के तप का अनुष्ठान । ५. वीर्य आचार-ज्ञान आदि के अर्जन में शक्ति का अगोपन ।' १७. सू० ८६ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ शब्दों का अर्थ इस प्रकार है१. वाचना-सूत्र और अर्थ देना। २. अनुयोगद्वार-उपक्रम, अध्ययन । ३. प्रतिपत्ति-मतान्तर। ४. वेढा-वेष्टक नाम का छन्द अथवा एकार्थक शब्दों का संकलन । ५. नियुक्ति-सूत्र के प्रतिपाद्य को स्पष्ट करने वाली युक्ति । प्रस्तुत प्रसंग में आचारांग सूत्र के दो श्रुतस्कंध और पद परिमाण अठारह हजार बताया है । अठारहवें समवाय में भी चूलिकासहित आचारांग का पद परिमाण अठारह हजार बताया है। किन्तु वृत्तिकार ने वहां स्पष्ट करते हुए लिखा है आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययन हैं और वह नव ब्रह्मचर्य के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में पांच १. समशयांगवृत्ति, पन्न १६ । 'समणे' त्यादि, यतो भगवान् पोट्टिलाभिधान राजपुत्रो बभूव, ततवर्षकोटि प्रवज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदितिद्वितीयः ततो नन्दनाभिधानो राजसूनः छवामनगाँ जज्ञे इति तृतीयः, तत्रवर्षलक्षणं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशम देवलोके पुष्पोन्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मण कुण्डग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानाया: कुक्षावृत्पन्न इति पञ्चमस्तता व्यशीतितमे दिवसे क्षत्रिय - कूण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थ महाराजस्य विशलाभिधान पार्यायाः कुक्षाविन्द्रवचनकारिणा हरिनगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं षष्टं श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठ भवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठुच्यते तीर्थकर भवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे । २. वही, पन्न १.०: ज्ञानाचार:-श्रुतज्ञानविषयः कालाध्ययनविनयाध्ययनादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा, 'दर्शनाचार:' सम्यक्तवतां व्यवहारो नि:शङ्कितादिरूपोऽष्टधा, 'चारित्राचार' चारितिणां समित्यादिपालनात्मको व्यवहारा द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठितिः, 'वोर्याचारो' ज्ञानादिप्रयोजनेषु वीर्यस्यागोपनम् । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ प्रकीर्णक समवाय: टिप्पण १८-२१ चूलिकाएं हैं । अठारह हजार का पद परिमाण प्रथम श्रुतस्कंध का है, दूसरे का नहीं। कहा भी है- नववंभचेरमइओ अट्ठारस पयसहस्सीओ वेओ ......। सूत्र के उल्लेख विचित्र होते हैं । उनका अभिप्राय गुरु से ही जाना जा सकता है।' समवाश्रो प्रस्तुत समवाय में उक्त पद-परिमाण की संगति के विषय में वृत्तिकार कहते हैं कि दो श्रुतस्कन्धों का जो उल्लेख है, वह पूरे आचारांग सूत्र प्रमाण है और जो अठारह हजार पद-परिमाण कहा गया है वह केवल प्रथम श्रुतस्कंध का ही परिमाण है। सूत्र - रचना विचित्र होती है। उसका तात्पर्यं गुरु से ही जाना जा सकता है।' १८. एवमात्मा ( एवं आया ) सू० ८६ : वृत्तिकार का कथन है कि यह पाठ अन्य आदर्शो में कहीं नहीं मिला । नन्दीसूत्र में यह पाठ व्याख्यात है, अतः यहां भी उसका ग्रहण किया गया है। इसका अर्थ है- आचारमय बन जाना । एवं णाया आचारांग को पढ़कर उसका पूरा ज्ञान कर लेता है। एवं विष्णाया विज्ञाता का अर्थ है - विशिष्ट ज्ञाता अथवा मतान्तरों को जानने वाला। # चरण-करण चरण का अर्थ है - महाव्रत, श्रमणधर्म, संयम आदि । करण का अर्थ है- पिण्डविशुद्धि, समिति आदि ।' १६. सूत्र ६० : देखें - सूत्रकृतांग १२ / १ का टिप्पण | २०. तेईस अध्ययन ( तेवीसं अज्झयणा ) सू० ६० : सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कंध में सात अध्ययन हैं । २१. तेतीस उद्देशन काल (तेत्तीस उद्देसणकाला ) सू०६० : प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययनों में पहले अध्ययन के चार, दूसरे के तीन, तीसरे के चार, चौथे के दो, पांचवें के दो और शेष ग्यारह अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं। दूसरे श्रुतस्कंध के सात अध्ययनों के सात उद्देशक हैं। इस प्रकार सूत्रकृतांग के २६ + ७ तेतीस उद्देशनकाल हैं । १. समवायांगवृति पत्र ३४ : प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य – चूडासमन्वितस्य तस्यपिण्डेषणाद्याः पञ्च चूलाः द्वितीयधुत स्कन्धात्मिकाः स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मक प्रथमश्रुतस्कन्धरूप:, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानां यदाह"नवबंभरमइयो अट्ठारस पयसहस्सीम्रो वेम्रो । हवइ य संपंचचुलो बहुबहुतरम्रो पयगेणं ॥ १॥" त्ति यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चूलिका सत्ताप्रतिपादनार्थं न तु पद प्रमाणाभिधानार्थं यतोऽवाचि नन्दीटीका कृता - अट्टारसपयसहस्वाणि पुण पढमसुखंधस्स नवबंभचेरमइयस्स पमाणं, बिचित्तत्याणि य सुत्ताणि गुरुवएसो तेसि प्रत्यो जाणियव्वों' । २. वही, पक्ष १०१ : तद्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितं यत्पुनरष्टादश पद सहस्राणि तनवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथम श्रुतस्कन्धस्य प्रमाणं विचिनार्थबद्धानि च सूत्राणि, गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति । ३. वही, पन १०१ : इदं सूत्रं पुस्तकेषु न दृष्टं नन्वां तु दृश्यते इतीह व्याख्यातमिति एवं क्रियासारमेव ज्ञानमितिख्यापनार्थम् । ४ वही, पन १०१ : इदमधीत्य एवं ज्ञाता भवति यथैवेोक्तमिति एवं विन्नाय त्ति, विविधो विशिष्टो वा ज्ञाता विज्ञाता एवं विज्ञाता भवति, तन्त्रान्तरीयञ्चाता भवति । ५. वही पत्र १०२ : चरणं व्रतश्रमणधम्मं संयमाद्यनेकविधं करणं-पिण्डविशुद्धिसमित्याद्यनेकविधम् । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो ३८६ प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण २२-२७ २२. दस अध्ययन " (दस अज्झयणा') सू०६१ : __स्थानांग सूत्र के दस स्थान हैं। दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान के चार-चार उद्देशक, पांचवें स्थान के तीन उद्देशक और शेष छह स्थानों के एक-एक उद्देशक है। इस प्रकार सारे ४+४+४+३+६ इक्कीस उद्देशन काल हैं।' २३. एकोत्तरिका (एगुत्तरिय ) सू० ६२ : वृत्तिकार का कथन है कि सौ की संख्या तक एक-एक के परिमाण से वृद्धि होती गई है। यह एकोतरिका परिवृद्धि है। आगे वह क्रम नहीं है। २४. चौरासी हजार पद (चउरासीई पयसहस्साई) सू० ६३ : प्रस्तुत सूत्र के चौरासी हजार पद माने हैं। सामान्यतः यह मान्यता है कि प्रथम अंग आचारांग से द्वितीय अंग का पद प्रमाण द्विगुणित होता है। इसी प्रकार भगवती का पद प्रमाण समवायांग से दुगुना दो लाख अस्सी हजार होना चाहिए। किन्तु वह यहां इष्ट नहीं है। २५. उनतीस अध्ययन (एगणतीसं अज्झयणा) सू०६४ : ज्ञाताधर्मकथा अंग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में घटित घटनाओं के उन्नीस उदाहरण प्रस्तुत हैं और दूसरे श्रुतस्कंध में दस धार्मिक कथाएं हैं। इसी के आधार पर ज्ञाता और धर्मकथा-इन दो पदों से यह नाम व्युत्पन्न हुआ है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रथम श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन ही विवक्षित हैं। २६. वर्ग (वग्गा) सू०६४ वर्ग का अर्थ है-समूह । ये दस हैं। यहां यह शब्द अध्ययन के अर्थ में प्रयुक्त है। २७. सू० ६४ : ज्ञाताधर्म कथा आगम के दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन हैं। प्रथम दस अध्ययनों में आख्यायिका की संभावना नहीं है। शेष नौ अध्ययनों में आख्यिायिकाएं हैं। प्रत्येक अध्ययन की ५४०-५४० आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका की ५००-५०० उप-आख्यायिकाएं हैं और प्रत्येक उप-आख्यायिका की ५००-५०० आख्यायिका-उप-आख्यायिकाएं हैं। उनका कुल योग Ex५४०४५००४५००=१२१५०००००० । दूसरे श्रुतस्कंध के दस वर्ग (अध्ययन) हैं। प्रत्येक वर्ग में ५००-५०० आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका की ५००-५०० उप-आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक उप-आख्यायिका की ५००-५०० आख्यायिका-उप-आख्यायिकाएं हैं। उनका कुल योग है-१०४५००४५००-५००=१२५००००००० । वत्तिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में प्रतिपादित साढे तीन करोड़ आख्यायिकाओं की संख्या की संगति करते हुए लिखा है कि पूनरुक्त कथनों का शोधन कर देने पर यह संख्या प्राप्त होती है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र १०४-१०५: एकविंशतिकद्देशनकालाः कथं? द्वितीयततीयचतुर्थेष्वध्ययनेषु चत्वारश्चत्वार उद्देशका: पञ्चमे नय इत्येते पञ्चदश, शेषास्तु षट, षण्णामध्ययनानां षद्देशनकालत्वादिति । २. वही, पन्न १.१: तन शतं यावदेकोत्तरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति। ३, वही, पत्र १०७-१०८: चतुरशीति: पदसहस्राणि पदाग्रेणेति समवायापेक्षया द्विगूणताया इहानाश्रयणदन्यथा तद्विगुणत्वे वे लक्षे प्रष्टाशीतिः सहस्राणि च भवन्तीति । ४. वहीं, पत्र ११०: 'नायाधम्मकहासुग' मित्यादि कण्ठ्यमानिगमनात्, नवरं 'एकूणवीसमज्झयण' ति प्रथमथ तस्कन्धे एकोनविंशतिद्वितीये च दर्शति, तथा 'दस घम्मकहाण बग्गा'। ५. वही, पत्र ११0: वर्ग इति समूहः ततश्चाधिकारसमूहात्मकान्यध्ययनान्येव दश वर्गा दृष्टव्याः । वही, पन ११०। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३८७ प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण २८-३३ २८. प्रतिमा (पडिमा) सू० ६५ : वृत्तिकार ने प्रतिमा के दो अर्थ किए हैं१. श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं । २. कायोत्सर्ग। २६. परिषद् (परिसा) सू०६५ : परिषद का अर्थ है-परिवार विशेष । परिषद् दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यंतर । बाह्य परिषद में दास, दासी मित्र आदि होते हैं और आभ्यंतर परिषद् में माता, पिता, पुत्र, पुत्री आदि होते हैं।' ३०. दस उद्देशन काल (दस उद्देसणकाला) सूत्र ६७ : नंदी सूत्र में अनुत्तरोपपातिकदशा के तीन वर्ग और तीन उद्देश्य-काल बतलाए हैं। वर्ग एक साथ पूरा का पूरा उद्दिष्ट होता है, अतः तीन ही उद्देशन-काल होते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में यहां उद्देशन-कालों की संख्या दस बतलाई है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अभिप्राय ज्ञात नहीं है।' ३१. प्रश्न (पसिण) सूत्र १८: यहां अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न आदि मंत्रविद्याओं की संज्ञा 'प्रश्न' है।' विद्यानुवाद में अंगुष्ठ आदि विद्याओं को अल्पविद्या माना है। इनकी संख्या सात सौ है। व्यक्ति के अंगूठे को देखकर उसके शुभाशुभ का निर्देश करना अंगुष्ठ विद्या है। यह देवता-अधिष्ठित ही होती है। ३२. अप्रश्न (अपसिण) सूत्र ६८ : मंत्र की विधि से जाप करने पर कुछ विद्याएं सिद्ध हो जाती हैं। वे बिना प्रश्न किए ही व्यक्ति को शुभ-अशुभ का निर्देश कर देती हैं। इन्हें अप्रश्न कहा जाता है। ३३. प्रश्न-अप्रश्न (पसिणापसिण) सूत्र ६८ : जो विद्या अंगुष्ठ आदि के सद्भाव या अभाव में शुभ-अशुभ का कथन करती है, वह प्रश्न-अप्रश्न विद्या कहलाती है।' निशीथ भाव तथा चूणि में यह उल्लेख है कि स्वप्न विद्या का ही अपर नाम प्रश्नाप्रश्न है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि विद्या से अभिमंत्रित घंटिका कानों के पास बजाई जाती है, तब देवता शुभाशुभ का कथन करते हैं। इसे 'इंखिनी' विद्या भी कहा जाता है। देवता अतीत या वर्तमान में प्राप्त लाभ तथा भविष्य में प्राप्तव्य लाभ और अलाभ का निर्देश भी करता है। वह १. समवायांगवृत्ति, पत्र १११: 'पडिमानो' ति एकादश उपासक प्रतिमाः कायोत्सर्ग वा। २. वही, पन १११: परिषद:-परिवार विशेषा यथा मातापितृपुनादिका अभ्यन्तरपरिसत्, दासी दास मित्रादिका वामपरिषदिति । ३. वही. पन ११४॥ वर्गश्च युगपदेवोद्दिश्यते इत्यतस्त्रय एवोद्देशनकाला भवन्तीत्येवमेव च नन्द्यामभिधीयन्ते, इह तु दृश्यन्ते दशेत्यनाभिप्रायो न ज्ञायत इति । ४. वही, पन्न ११५: तनाङ्गुष्ठबाहुप्रश्नादिका मन्त्रविद्या: प्रश्नाः । ५. राजवार्तिक १/२०: तवाङ्गुष्ठसेनादीनामल्पविद्यानां सप्तशतानि । ६. समवायांगवृत्ति, पन ११५ : या पुनर्विद्या मन्त्रविधिना जप्यमाना अपुष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति एताः प्रश्नाः । ७. वही, पन ११५: तपाङ्गुष्ठादिप्रश्नभावं तदभावं च प्रतीत्य या विद्या: शुभाशुभं कथयन्ति ता: प्रश्नाप्रश्नाः । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाप्रो प्रकोणक समवाय : टिप्पण ३४-३८ माता-पिता की मृत्यु कब हुई या होगी उसका भी निर्देश करता है।' ३४. विद्या के अतिशय (विज्जाइसया) सूत्र ६८ : स्तम्भन विद्या, स्तोभविद्या, वशीकरण, विद्वेषीकरण, उच्चाटन आदि विद्याओं को 'विद्यातिशय' माना है।' ३५. महाप्रश्नविद्याओं (महापसिणविज्जा) सूत्र ६८ : वाणी के द्वारा पूछने पर ही जो उत्तर देती हैं वे महाप्रश्न विद्याएं कहलाती हैं। इनके अधिष्ठाता देवता होते हैं।' ३६. मनःप्रश्नविद्याओं (मणपसिणविज्जा) सूत्र ६८ : मन में उठे हुए प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्याएं । इनके अधिष्ठाता देवता होते हैं।' ३७. पैंतालीस अध्ययन (पणयालीसं अज्झयणा) सूत्र ६८: प्रस्तुत प्रसंग में अध्ययनों का निर्देश किसी भी आदर्श में प्राप्त नहीं है, किन्तु उद्देशन-काल से पूर्व अध्ययन का निर्देश अवश्य ही होना चाहिए। नंदी (६०) म इसके अध्ययनों की संख्या पैतालीस बतलाई है, अतः यहां भी उसकी संभावना की गई है। वृत्तिकार ने इसके दस अध्ययन माने हैं और उसके आधार पर दस उद्देशन-काल होने चाहिए, ऐसी मान्यता व्यक्त की है। पैंतालीस उद्देशन-कालों की मान्यता को उन्होंने वाचनान्तर माना है।' ३८. सूत्र १८: प्रस्तुत आगम के विषय-वस्तु के बारे में विभिन्न मत प्राप्त होते हैं । स्थानांग में इसके दस अध्ययन बतलाए गए हैंउपमा, संख्या, ऋषि-भाषित, आचार्य-भाषित, महावीर-भाषित, क्षौमक प्रश्न, कोमल प्रश्न, आदर्श प्रश्न, अंगुष्ठ प्रश्न और बाहप्रश्न ।' इनमें वर्णित विषय का संकेत अध्ययन के नामों से मिलता है। १. निशीथमाष्य, गाथा ४२६०, ४२६१ : पसिणापसिणं सुविणे, विज्जासिद्धं तु साहति परस्स । महवा पाइंखिणिया, घंटियसिद्रं परिकहेति ।। लाभालामसुहदुई, प्रणभूय इमं तुमे सुहिहिं वा । जीवित्ता एवइयं, कालं सुहिणो मया तुज्झं ।। सुविणयविज्जाकहियं कधितस्स पसिणापसिणं भवति । अहवा-विज्जाभिमंतिया घटिया कण्णमूले चालिज्जति, तत्थ देवता कधिति, कहेंतस्स पसिणापसिणं भवति, स एव इंखिणी भण्णाति । पुच्छगं भणति-प्रतीतकाले वट्टमाणे वा इमो ते लाभो लद्धो, मणागते वो इमं भविस्यति । एवं मलाभं पि निहिस्सति, एवं सुहदुक्खे वि संवादेति । महवा भन्नति-सुहीहिं ते इमं लद्धमणभूतं वा । महबा भणाति-मातापितादिते सुहिणो एवतियं कालं जीविया अमगे काले एव मता। १. समवायांगवृत्ति, पत्न ११५: विद्यातिशयाः स्तम्भस्तोमवशीकरणविद्वेषीकरणोच्चाटनादयः । 1. वही, पत्र ११५: विविधमहाप्रश्नविद्याश्च-वाचव प्रश्ने सत्युत्तरदायिन्य: । ..वही, पन्न ११५: मन प्रश्न विद्याम्च-मनः प्रश्तितार्थोत्तरदायिन्यस्तासां देवतानितदधिष्ठातृदेवतास्तेषाम्। ५. वही, पन्न ११६: 'पणयालीस मित्यादि यद्यपीहाध्ययनानां दशत्वादशीवोद्देश्यवकाला भवन्ति व्यापि वाचनान्तरापेक्षया पञ्चचत्वारिंशदिति सम्भाव्यते इति 'पणयालीस' मित्याद्यविरुद्धमिति । १.ठाणं १०/११६: पण्हावागरणदसाणं दस प्रज्झषणा पण्णता, तं जहा-उवमा, संखा, इसिभासियाई, मायरियभासियाई, महावीरभासियाई, खोमगपसिगाई, कोमलपसिणाई, भद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाह। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ प्रकीर्णक समवाय: टिप्पण ३६-४० समवायांग और नंदी के अनुसार प्रस्तुत आगम में नाना प्रकार के प्रश्नों, विद्याओं और दिव्य-संवादों का वर्णन है । ' नंदी में इसके पैंतालीस अध्ययनों का उल्लेख है । स्थानांग से उसकी कोई संगति नहीं है। समवायांग में इसके अध्ययनों का उल्लेख नहीं है, किन्तु उसके 'पण्हावागरणदसासु' इस आलापक ( पैराग्राफ) के वर्णन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है। कि समवायांग में प्रस्तुत आगम के दस अध्ययनों की परम्परा स्वीकृत है । उक्त आलापक में बतलाया गया है कि प्रश्नव्याकरणदसा में प्रत्येकबुद्धभाषित, आचार्यभाषित, वीरमहर्षिभाषित, आदर्शप्रश्न, अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्त, अतिप्रश्न, मणिप्रश्न क्षीमप्रश्न, आदित्यप्रश्न आदि-आदि प्रश्न वर्णित हैं । इन नामों की स्थानांग में निर्दिष्ट दस अध्ययनों के नामों के साथ तुलना की जा सकती है। यद्यपि उद्देशन - काल पैंतालीस बतलाए गए हैं फिर भी अध्ययनों की संख्या का स्पष्ट निर्णय नहीं किया जा सकता। गंभीर विषय वाले अध्ययन की शिक्षा अनेक दिनों तक दी जा सकती है । समवाश्रो तत्वार्थवार्तिक के अनुसार प्रस्तुत आगम में अनेक आक्षेप और निक्षेप के द्वारा हेतु और नय से आश्रित प्रश्नों का उत्तर दिया गया है, लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया गया है।" जयधवला के अनुसार प्रस्तुत आगम आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेदनी इन चारों कथाओं तथा प्रश्न के आधार पर नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन और मरण का वर्णन करता है। उक्त ग्रन्थों में प्रस्तुत आगम का जो विषय वर्णित है वह आज उपलब्ध नहीं है । आज जो उपलब्ध है उसमें पांच आश्रवों (हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्यं और परिग्रह) तथा पांच संवरों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) का वर्णन है । नंदी में उसका कोई उल्लेख नहीं है । समवायांग में आचार्यभाषित आदि अध्ययनों का उल्लेख है तथा जयधवला में आक्षेपणी आदि चारों कथाओं का उल्लेख है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत आगम का उपलब्ध विषय भी प्रश्नों के साथ रहा हो, बाद में प्रश्न आदि विद्याओं की विस्मृति हो जाने पर वह भाग प्रस्तुत आगम के रूप में बचा हो । यह अनुमान भी किया जा सकता है कि प्रस्तुत आगम के प्राचीन स्वरूप के विच्छिन्न हो जाने पर किसी आचार्य के द्वारा नए रूप में रचना की गई हो । नंदी में प्रस्तुत आगम की जिस वाचना का विवरण है, उसमें आश्रवों और संवरों का वर्णन नहीं है, किन्तु नंदीचूर्ण में उनका उल्लेख मिलता है।" यह संभव है कि चूर्णिकार ने उपलब्ध आकार के आधार पर उनका उल्लेख किया है। निशीथ भाग्य के चूर्णिकार विभिन्न विद्याओं की चर्चा करते हुए एक महत्त्वपूर्ण सूचना देते हैं कि प्राचीन काल में प्रश्नव्याकरण सूत्र में ( प्रश्नाप्रश्न आदि) ये विद्याएं थीं।' इस सूचना से यह निश्चित कहा जा सकता है कि चूर्णिकार के काल में जो प्रश्नव्याकरण था, उसमें इन विद्याओं का उल्लेख नहीं था । ३६. दृष्टिवाद ( दिट्टिवाए) सूत्र १०० : संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं-दृष्टिवाद और दृष्टिपात । जिस शास्त्र में सभी दृष्टियों ( दर्शनों) का विमर्श किया जाता है, वह दृष्टिवाद कहलाता है। जिस शास्त्र में सभी दृष्टियों (नयों) से वस्तुसत्य का विचार किया जाता है, वह दृष्टिपात कहलाता है । दृष्टिवाद प्रायः व्यवच्छिन्न है । नंदी तथा प्रस्तुत सूत्र में समागत द्वादशांगी के प्रकरण में उसका कुछ विवरण प्राप्त होता है । ४०. परिकर्म (परिकम्मं ) सूत्र १०० : परिकर्म का अर्थ है - संस्कारित करना । यह एक प्रकार की प्राथमिक विधि है जिससे सूत्र ग्रहण करने वाले साधक १. (क) समवाप्रो, पइण्णगसमवाओ सूत्र १८: पहा वागरणेसु भट्ठत्तर पसिणसयं प्रट्टुत्तरं प्रपसिणसयं प्रट्टुत्तरं परिणापसिणसयं विज्जाइसया, नागसुवण्णेद्दि सद्धि दिग्वा संवाया प्राघविज्जति । (ख) नंदी, सूत्र ६० । २. तवार्थदार्तिक १/२०० ७३, ७४ : प्रक्षेपविक्षेपतुनयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम् । तस्मिल्लो किकर्ब विकानामर्थानां निर्णयः । २. कसायपाहुड भाग १, ५० १३१, १३२ : पहवायरणं णाम अंगं प्रक्खेवणी-विक्खेवणी-संवेयणी- णिन्वेयणीणामाम्रो चउग्विहं कहा पहादो ण-मुट्ठि चिता-लाहालाह- सुखदुक्ख जीवियमरणाणि च वण्णेदि । ४. नंदी सुत्र, चूर्णि सहित पु० ६४ । ५. विशीय भाष्य गाया ४२८६, चूषि परिया एते पण्डुला करणे पुण्वं प्रासी । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३६० प्रकोणक समवाय : टिप्पण ४१-४४ में सूत्र-ग्रहण की योग्यता संपादित की जाती है । यह दृष्टिवाद को ग्रहण करने तथा उसे समझने की प्रणाली है। जिस प्रकार गणित शास्त्र के अभ्यास के लिए संकलन, व्यवकलन, गुणन, भाग आदि सोलह परिकों का ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी प्रकार दृष्टिवाद में प्रवेश करने से पूर्व परिकर्म का प्राथमिक ज्ञान अपेक्षित होता है। विवक्षित परिकर्म के सूत्रार्थ को जान लेने पर ही अध्येता शेष सूत्ररूप दृष्टिवाद श्रुत को ग्रहण करने में योग्य हो सकता है, अन्यथा नहीं। ४१. पूर्वगत (पुव्वगयं) सूत्र १०० : इसके सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं। एक मत तो यह है कि तीर्थङ्कर तीर्थ-प्रवर्तन के समय गणधरों के समक्ष पूर्व की वाचना कहते हैं । ये पूर्व समस्त सूत्रों के आधारभूत होते हैं तथा पहले कहे जाने के कारण 'पूर्व' कहलाते हैं। ___ गणधर जब सूत्र की रचना करते हैं तब आचार आदि के क्रम से उनकी रचना और स्थापना होती है । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थागम की दृष्टि से सर्व प्रथम 'पूर्वगत' का प्रतिपादन किया जाता है और सूत्रागम की दृष्टि से आचार आदि के क्रम से अंगों की रचना और स्थापना की जाती है। दूसरा मत यह है कि तीर्थङ्करों ने सर्वप्रथम पूर्वगत को व्याकृत किया और गणधरों ने भी सर्वप्रथम पूर्वगत की ही रचना की और बाद में आचार आदि की रचना हुई। यह मत अक्षर-रचना की दृष्टि से है, स्थापना की दृष्टि से नहीं। कई यह शंका उपस्थित करते हैं कि आचार की दृष्टि से नियुक्ति में 'सव्वेसि आयारो पढमो'-ऐसा उल्लेख हुआ है, इससे यह स्पष्ट होता है कि आचार की रचना पहले हुई थी। इसका समाधान यह है कि यह कथन आगमों की स्थापना के आधार पर हुआ है, न कि रचना के आधार पर। नंदीचूणि में भी इसी आशय का उल्लेख है। ४२. सूत्र १०० दृष्टिवाद के पांचों विभागों के क्रम के विषय में तीन मत प्राप्त होते हैं१. परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । २. परिकर्म, सूत्र, अनुयोग, पूर्वगत और चूलिका । ३. पूर्वगत, परिकर्म, सूत्र, अनुयोग और चूलिका । तत्त्वार्थराजवार्तिक १/२०, अभिधान चिन्तामणि २/१६० तथा लोकप्रकाश ३/७६३ में दूसरे क्रम से इन पांच विभागों का निर्देशन हुआ है। जो ऐसा मानते हैं कि गणधरों ने सर्वप्रथम पूर्वो की रचना की, उनके अनुसार तीसरे क्रम से रचना-व्यवस्था होती तत्त्वार्थ राजवात्तिक १/२० में अनुयोग के स्थान पर प्रथमानयोग और अभिधानचिन्तामणि २/१६० तथा लोकप्रकाश ३/७६३ में पूर्वानुयोग का प्रयोग हुआ है। ४३. वस्तु (वत्थू) सूत्र ११३ : अध्ययन (परिच्छेद) की भांति जो नियत अर्थ के अधिकार से प्रतिबद्ध होता है, उसे वस्तु कहते हैं ।' ४४. चूलिकावस्तु (चूलियावत्थू) सूत्र ११३ : चूला का अर्थ है चोटी । उक्त या अनुक्त अर्थ का संग्रह करने वाली ग्रंथ-पद्धति को चूला कहा गया है । १. नंदीसुत्तम् (चूणि सहित), पृष्ठ ०२ : परिकम्मे त्ति जोग्गकरणं जहा गणितस्स सोलस परिकम्मा, तग्गहितसुत्तत्यो सेसगणितस्स जोग्गो भवति । एवं गहितपरिकम्मसुत्तत्यो सेससुत्तादिविढिवाद सुत्तस्स जोग्गो भवति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र १११। 1. नंदीसुत्तम् (चुणि सहित), पृष्ठ ०५ । 1-५. समवायांयवृति, पब १२२ । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३६१ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ४५-५३ ४५. अनुयोग (अणुओगे) सूत्र १२७ : ___ अनुयोग का अर्थ है-अनुरूप अथवा अनुकूल योग। इसका तात्पर्य यह है कि सूत्र का अपने अभिधेय के अनुरूप संबंध करना। ४६. मूलप्रथमानुयोग (मूलपढमाणुओगे) सूत्र १२७ : । तीर्थडुरों के सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जिस भव में हुई थी, उस भव के विषय वाले अनुयोग को 'मूलप्रथमानुयोग' कहा गया है। ४७. कंडिकानुयोग (गंडियाणुओगे) सूत्र १२७ ! कंडिका का अर्थ है-समान वक्तव्यता के अधिकार का अनुसरण करने वाली वाक्य-पद्धति । उसका अनुयोग अर्थात् अर्थ प्रकट करने की विधि । ४८ चित्रांतरकंडिका (चित्तंतरगंडियाओ) सूत्र १२६ : इसमें भगवाम् ऋषभ तथा अजित के अन्तराल काल में उनके वंशज राजा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए तथा मोक्ष में गए, उनका प्रतिपादन है। ४६. सूत्र १२६ ईसा की सातवीं शताब्दी के आस-पास रची हुई, 'पञ्चकल्पणि' में कहा गया है कि कालकाचार्य ने कंडिकायें रची थीं। ५०. सूत्र १३८ : देखें प्रज्ञापना, पद १। ५१. सूत्र १४० यहां यावत् शब्द से असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधि कुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार स्तनित कुमार, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, मनुष्य, वानव्यन्तर तथा ज्योतिष्क-गृहीत हैं। ५२. प्रकाशपुंज (भासरासि) सूत्र १५० : वृत्तिकार ने भासराशि का अर्थ सूर्य किया है, किन्तु इसका शब्दार्थ है प्रकाशराशि। प्रकाशराशि सूर्य, चन्द्र या अन्य कोई भी प्रकाशात्मक वस्तु हो सकती है। भासराशि (भस्मराशि) एक ग्रह का नाम है तथा राख की ढेर का नाम भी भस्मराशि है। यहां भासराशि का अर्थ प्रकाशपुंज अधिक उपयुक्त लगता है, क्योंकि 'अचिमाली जैसी प्रभावाला' यह विशेषण इसके पहले आ चुका है। ५३. बत्तीस सागरोपम (बत्तोसं सागरोवमाइं) सूत्र १५६ : समवाय ३१/8 में इन देवों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम की बतलाई है और यहा इनकी स्थिति बत्तीस सागरोपम ही प्रतिपादित है। प्रज्ञापना (४/२६४) तथा उत्तराध्ययन (३६/२४३) में इनकी स्थिति इकतीस सागरोपम १-३. समवायांगवृत्ति, पन १२२ ।। 1. सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृष्ठ । ५. देखें-ठाण १/१४१-१६ । ६. समवायांगवृत्ति, पत्र १२६ : भासाता प्रकाशानां राशि:-माससाशि:-पावित्यः । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३६२ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ५४-५६ उल्लिखित है । प्रस्तुत सूत्र में किसी दूसरे मत या वाचना का उल्लेख संकलित है ।' ५४. एक-एक रत्नि हीन होती है (रयणी रयणी परिहायइ) सूत्र १६३ : भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान में सात हाथ, सनत्कुमार और माहेन्द्र में छह हाथ, ब्रह्म और लान्तक कल्प में पांच हाथ, महाशुक्र और सहस्रार में चार हाथ, आनत और प्राणत में तीन हाथ, ग्रेवेयक में दो हाथ और अनुत्तर में एक हाथ । यह देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना है।' ५५. सूत्र १७२ (१) : अवधिज्ञान के ग्यारह द्वार हैं--- १. भेद ---अवधिज्ञान के दो भेद होते हैं -- भवप्रत्यधिक - तद्-तद् भव में निश्चित रूप से होने वाला अवधिज्ञान । देव और नारकों का। क्षायोपशमिक --आत्म-पवित्रता से लब्ध । मनुष्य और तिर्यञ्चों का। २. विषय-अवधिज्ञान का विषय चार प्रकार का है-- द्रव्यतः . जघन्यत:-तेजस और भाषा के अन्तरालवर्ती पुद्गल । उत्कृष्टतः-सभी रूपी द्रव्य । क्षेत्रत:--जघन्यतः-अंगुल का असंख्यातवां भाग। उत्कृष्टतः-लोक प्रमाण असंख्येय खंड। कालत:---जघन्यतः-आवलिका का असंख्यातवां भाग । उत्कृष्टतः ---असंख्य अतीत और अनागत उत्सपिणी और अवसपिणी । भावतः----जघन्यतः -प्रत्येक द्रव्य के चार पर्याय -वर्ण, गंध, रस और स्पर्श । उत्कृष्टतः-प्रत्येक द्रव्य के असंख्य पर्यायों या सर्वद्रव्यों की अपेक्षा से अनन्त पर्यायों के वर्ण आदि । ३. संस्थान-अवधिज्ञान का आकार इस प्रकार है ... नारकों का छोटी नौका अथवा जल में प्रवाहित काष्ठ समूह के आकारवाला, भवनपति देवों का पल्य के आकारवाला, व्यन्तरदेवों का पटह के आकारवाला, ज्यातिष्क देवों का झल्लरी के आकारवाला, कल्पोपपन्न देवों के मृदङ्ग के आकारवाला, अवेधक देवों का पुष्पावली से रचित शिवरवाली छाब के आकारवाला, अनुत्तर देवों का कुमारी के चोली के आकारवाला अर्थात् लोकनाली के आकारवाला तथा तिर्यञ्च और मनुष्यों का विविध आकारवाला। ४. आभ्यन्तर-नियत अवधि-नारक, देव तथा तीर्थङ्करों का। ५. बाह्य --अनियत अवधि -शेष सभी प्राणियों का। ६. देश-अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाश्य वस्तुओं के एक देश (अंश) को जानने वाला। ७. सर्व --अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाश्य वस्तुओं के सर्व देश--सभी अंशों को जानने वाला। ८. वृद्धि, ६. हानि-तिर्यञ्च और मनुष्यों का अवविज्ञान वर्द्धमान या हीयमान होता है। शेष जीवों का अवधिज्ञान अवस्थित होता है। १०. प्रतिपाती। ११. अप्रतिपाती।' ५६. आहार पद (आहार पद) सूत्र १७५ : प्रज्ञापना के अठावीसवें पद का नाम 'आहार पद' है। किन्तु यहां वह विवक्षित नहीं है। प्रस्तुत विषय उसमें उल्लिखित १. समवायांगवृत्ति, पान १३०: इह च विजयादिषु जघन्यतो वानिशत्सागदोपमायुक्तानि, गन्धहस्त्यादिष्वपि तथैव दृश्यते, प्रज्ञापनाया त्वेकत्रिशरतति मतान्तरमिदम् । २. वही, पन्न १३२, १३३: 1. (क) नंदी, हारिभद्रीयावृत्ति, पृष्ठ ३०, ३१ । (ख) समवायांगवृत्ति, पत्र ११४। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ५७-६३ नहीं है। यह विषय चौतीसवें पद से प्राप्त है। उसका नाम 'परिचारणा पद' है। उसका आहार वर्णन वाला भाग इसमें गृहीत है । 'आहार पद' के द्वारा प्रस्तुत पद का आहार वर्णनात्मक भाग विवक्षित है।' ५७. आयुष्यबंध छह प्रकार का है (छविहे आउगबंधे) सूत्र १७६ : एक साथ जितने कर्म-पुद्गल जिस रूप में भोगे जाते हैं, उस रूप-रचना का नाम निषेक है। निधत्त का अर्थ है कर्म का निषेक के रूप में बंध होना। जिस समय आयु का बंध होता है, तब वह जाति आदि छहों के साथ निधित्त-निषिक्त होता है। अमुक आयु का बंध करने वाला जीव उसके साथ-साथ एकेन्द्रिय आदि पांच जातियों में से किसी एक जाति का, नरक आदि चार गतियों में से एक गति का, अमुक समय की स्थिति-काल मर्यादा का, अवगाहना-औदारिक या वैक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर का तथा आयुष्य के प्रदेशों-परमाणु संचयों का और उसके अनुभाग-विपाक-शक्ति का भी बंध करता है । ५८. सूत्र १८० रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में विरहकाल क्रमश: इस प्रकार है-चौईस मुहूर्त, सात अहोरात्र, पन्द्रह अहोरात्र, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास । सामान्यगति की अपेक्षा से यहां बारह मुहर्त बतलाया गया है। तिर्यञ्च और मनुष्य गति का विरह-काल जो बारह मुहूर्त का बताया है वह गर्भावक्रान्ति की अपेक्षा से है। देवगति का कथन सामान्य गति की अपेक्षा से है। ५६. सिद्धगति · (सिद्धिवज्जा) सूत्र १८२ : सिद्धों की उद्वर्तना नहीं होती । वे अपुनरावृत्त होते हैं।' ६०. सू० १८४ : आकर्ष का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का ग्रहण । आयुष्य बंध का अव्यवसाय तीव्र होता है तो एक ही आकर्ष से जातिनामनिषिक्त आयुष्य का बंध हो जाता है । अव्यवसाय मंद होता है तो दो आकर्ष होते हैं । वह मन्दतर होता है तो तीन आकर्ष और मन्दतम होता है तो चार आकर्ष हो जाते हैं। इस प्रकार अध्यवसाय के तारतम्य के आधार पर आठ आकर्ष तक हो जाते हैं। ६१. सू० २१७ : स्थानांग में तीसरे कुलकर का नाम अनन्तसेन और चौथे का नाम अजितसेन है।' स्थानांग की मुद्रितप्रति में चौथे कुलकर का नाम 'अमितसेन' मिलता है तथा हस्तलिखित आदर्शों में 'अतितसेन' और 'अजितसेन' मिलता है। स्थानांग की मुद्रित प्रति में पांचवें कुलकर का नाम 'तर्कसेन' प्राप्त है। समवायांग की मुद्रित प्रति में इसके स्थान पर 'कार्यसेन' तथा हस्तलिखित आदर्श में 'कर्कसेन' मिलता है। ६२. सू० २२३ : देखें-हरिवंशपुराण, ६०/१५१-१५५ । ६३. सू० २२४ : देखें--हरिवंशपुराण, ६०/२२१-२२५ । १. समवायांगवृत्ति, पन १३५ : प्रज्ञापनायाश्चतुस्तिशतमं परिचारणापदाख्यं पदमिह भणितव्यमिति, इदं चानाहारविचारप्रधानतया पाहारपदमुक्तमिति । २,३ समवायांगवृत्ति, पन १३७ : 1. समवायांगवृत्ति, पन्न १३७ । १. ठा१०/१४॥ ..देखें-मंगसुत्ताणि माग १, पृष्ठ ६४२, पाद टिप्पण न.३। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ३६४ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ६४-६५ ६४. सू० २२६ : देखें-हरिवंशपुराण, ६०/२४५-२४६ । ६५. सू० २३० (१,२) : श्वेताम्बर' तथा दिगम्बर–दोनों परंपराओं में तीर्थंकरों के दीक्षाकालीन तप का उल्लेख समान हैवासुपूज्य उपवासमल्ली और पार्श्व- तेला (तीन उपवाम) शेष बीस तीर्थंकर- बेला (दो उपवास) तीर्थंकर सुमति के दीक्षाकाल में कोई तप नहीं था। तीर्थंकरों के प्रथम भिक्षा (दीक्षाकालीन तप की पारणा) के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्ब रपरंपरा में भिन्न-भिन्न उल्लेख प्राप्त होते हैं। समवायांग में संकलित संग्रह गाथाओं के अनुसार प्रथम भिक्षा का क्रम इस प्रकार है ऋषभ-प्रथम भिक्षा एक वर्ष बाद । शेष तीर्थंकर-प्रथम भिक्षा दूसरे दिन । दिगम्बर साहित्य के अनुसारऋषभ---प्रथम भिक्षा एक वर्ष बाद । शेष तीर्थंकर-प्रथम भिक्षा तीसरे दिन । श्वेताम्बर साहित्य में प्राप्त प्रथम भिक्षा के उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि बेले और तेले की तपस्या में दीक्षित होने वाले तीर्थंकर तपस्या के अन्तिम दिन दीक्षित होते हैं और दूसरे दिन उनको प्रथम भिक्षा प्राप्त हो जाती है-तपस्या का पारणा हो जाता है। उत्तरपुराण से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। वहां ऐसे अनेक उल्लेख हैं कि तीर्थंकर दीक्षित होने के दूसरे ही दिन भिक्षा के लिए जाते हैं और उन्हें प्रथम भिक्षा प्राप्त होती है। किन्तु हरिवंश पुराण में जो तीसरे दिन की बात आई है, उसका आशय ज्ञात नहीं होता। यदि हम यह माने कि तीर्थंकरों ने दीक्षित होते समय उपवास, बेले या तेले की तपस्या स्वीकार की तो भी तीसरे दिन भिक्षा-प्राप्ति की बात संगत नहीं बैठती और यदि हम यह माने कि वे तीर्थंकर उन-उन तपस्याओं में दीक्षित हुए तो भी उक्त तथ्य की संगति नहीं होती। क्योंकि सभी का पारणा दूसरे दिन नहीं होता-किसी का दूसरे दिन, किसी का तीसरे दिन और किसी का चौथे दिन होता । लिपि या मुद्रण के प्रमाद से द्वितीय दिन के स्थान में तृतीय दिन हो गया हो, ऐसी संभावना की जा सकती है। ___ इस प्रकार विमर्श करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थंकर उपवास, वेले या तेले के दिन दीक्षित होते हैं और दूसरे दिन प्रथम भिक्षा प्राप्त करते हैं। १. (क) समवायांग, प्रकीर्णक समवाय, २२८ । (ख) आवश्यक नियुक्ति, गाथा २२८, प्रवचूणि प्रथम भाग, पृष्ठ २०३ : सुमईत्थ निच्चमत्तेण, निग्ग मो वासुपूज्ज जियो चउत्थेम। पासो मल्लावि म भट्टमेण सेसा उ छद्रेणं ॥ २. हरिवंशपुराण ६०/२१६, २१७ : निष्क्रांति: सुमतेर्भुक्त्वा, मल्ले: साष्टमभक्तका। तथा पार्श्वजिनस्यापि, जयाजस्य चतुर्थका ।। षष्ठमक्तमृतां दीक्षा, शेषाणं तीर्थदर्शिनाम् । ३. समवायांग, प्रकोणक समवाय, २३० । 1. हरिवंशपुराण /R0 वर्षेण पारणाचस्य, जिनेन्द्रस्य प्रकीर्तिता । वतीयदिबसेऽन्येषां पारणा प्रथमा पता ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ३६५ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ६६-६८ ६६. सू० २३० (३): प्रस्तुत सूत्र में शरीर-प्रमाण सुवर्णवृष्टि का उल्लेख है। किन्तु उसकी संख्या उल्लिखित नहीं है। आवश्यक नियुक्ति और हरिवंश पुराण' में उल्लेख है कि तीर्थंकरों ने जहां प्रथम भिक्षा प्राप्त की थी वहां उत्कृष्टतः साढे बारह करोड़ तथा जघन्यतः साढे बारह लाख स्वर्णमुद्राओं की वर्षा हुई थी। ६७. चैत्य-वृक्ष (चेइयरुक्खा) सूत्र २३१ : देखें-उत्तराध्ययन ६/६ का टिप्पण। ६८. सू० २३१ : प्रस्तुत सूत्र में चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस चैत्य-वृक्ष बताए गए हैं। उनकी पहचान इस प्रकार है१. न्यग्रोध-बरगद, शमी-विजयादशमी को पूजा जाने वाला वृक्ष विशेष । २. सप्तपर्ण-छतिवन वृक्ष । ३. शाल-साखू वृक्ष । ४. प्रियाल-पियाल, चिरौंजी का वृक्ष । ५. प्रियंगु-मालकंगुनी। ६. छत्राक-कुकुरमुत्ता, जल-बबूला। ७. शिरीष-शीशम जैसा अति मृदु पुष्प वाला वृक्ष । ८. नागवृक्ष-नागलता, नागकेसर। इसके स्थान पर 'नागरुक' शब्द का भी प्रयोग होता है। उसका अर्थ है नारंगी का वृक्ष । ६. माली-वृक्ष-विशेष । आप्टे की डिक्शनरी में मालक का अर्थ निम्ब वृक्ष किया है। १०. प्लक्ष–पाकर का वृक्ष । ११. तिदुक-तेंदु । वह वृक्ष जिसकी पक्की लकड़ी आबनूस कहलाती है। १२. पाटल-पाढर का वृक्ष । १३. जंबु-जामुन का वृक्ष । १४. अश्वत्थ-पीपल का वृक्ष । १५. दधिपर्ण १६. नंदि-तुन (तून) का पेड़ जिसके फूलों से पीला रंग बनता है। १७. तिलक-तिल का पौधा । १८. आम्र-आम्र वृक्ष । १६. अशोक—वह वृक्ष जिसके पत्ते आम्रवृक्ष की तरह लंबे-लंबे और किनारे पर लहरदार होते हैं। २०. चंपक-चंपक का वृक्ष । २१. बकुल-मौलसिरी का वृक्ष । २२. वेतस-बैंत का पौधा । २३. धातकी-धव वृक्ष । २४. शाल-साखू वृक्ष । १. अावश्यकनियुक्ति गाथा, ३३२, प्रवचूर्णी प्रथम विभाग, पृष्ठ २२७ : प्रद्धतेरसकोडी, अक्कोसा तत्य होइ वसुहारा । अद्धतेरस लक्खा, जहणिमा होइ वसुहारा ॥ २. हरिवंशपुराण, ६०/२५० : पर्धत्रयोदशोत्कर्षाद्वसुधारासु कोटयः । तावत्येव सहस्राणि दशघ्नानि जघन्यतः ।। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ६९-७५ ६६. सूत्र २३१: देखें--हरिवंशपुराण ६०/१८२-२०५। ७०. सूत्र २३३ : प्रवचनसारोद्धार (३०७-३०६) में इनके नाम इस प्रकार है-- १. ब्राह्मी २ फल्गु ३. श्यामा ४. अजिता ५ काश्यपि ६. रति ७. सोमा ८. सुमना ६. वारुणी १०. सुयशा ११. धारिणी १२. धरणी १३. धरा १४. पद्मा १५. शिवा १६. शुभा १७. दामिनी १८. रक्षी १६. बंधुमति २०. पुष्पवती २१. अनिला २२. यक्षदत्ता २३. पुष्पचूला २४. चन्दना । ७१. सूत्र २३४ : अनेक हस्तलिखित आदर्शों में 'अश्वसेन' पाठ उपलब्ध नहीं है। वहां 'विश्वसेन' पाठ है। विश्वसेन पांचवें चक्रवर्ती के पिता का नाम था। किन्तु इन आदर्शों के आधार पर यदि हम 'अश्वसेन' पाठ स्वीकार नहीं करते हैं तो 'विश्वसेन' नाम चौथे चक्रवर्ती के पिता का ठहरता है । यह गलत है। आवश्यक नियुक्ति में 'अश्वसेन' पाठ स्वीकृत है । वह उचित है।' ७२. सूत्र २३६: भगवान् ऋषभ के समय में भरत, अजित के समय में सगर, धर्मनाथ और शांतिनाथ के अन्तराल काल में मघवा और सनत्कुमार, शांति-कन्थु और अर-ये तीनों चक्रवर्ती और तीर्थङ्कर दोनों थे; अर और मल्ली के अन्तराल काल में सुभूम, मुनिसुव्रत के समय में पद्मनाभ, नमि के समय में हरिषेण, नमि और नेमि के अन्तराल काल में जय तथा अरिष्ट और पार्श्व के अन्तराल काल में ब्रह्म-ये चक्रवर्ती हुए।' ७३. सूत्र २३८ : प्रस्तुत गाथा स्थानांग ६/१६ से ली गई है। समवायांग की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में सोम के पश्चात् रुद्र का उल्लेख मिलता है। आवश्यक नियुक्ति में भी यह गाथा प्राप्त है । उसमें एक नाम का भेद है । वहां 'महासिंह' के स्थान पर 'महाशिव' है। ७४. मध्यम (मज्झिम) सूत्र २४१ : तीर्थङ्कर और चक्रवर्ती की तुलना में बलदेव-वासुदेव का बल, ऐश्वर्य आदि कम होता है और प्रतिवासुदेव की तुलना में उनका बल, ऐश्वर्य आदि अधिक होता है, इस प्रकार दो कोटियों के मध्यवर्ती होने के कारण उन्हें मध्यम पुरुष कहा गया ७५. प्रधान (पहाण) सूत्र २४१ : अपने समय के मनुष्यों की अपेक्षा बलदेव-वासुदेव का शौर्य आदि अधिक होता है, इसलिए वे प्रधान-पुरुष कहलाते 1. (क) हस्तलिखित प्रादर्शों में गाथा दय : उसमे सुमितविजए, समुद्दविजए य विस्ससेणे य । सूरिए सुदंसणे पउमुत्तर करावीरिए चेव ॥१॥ महाहरी य विजए य, पउमे राया तहेव य । बम्हे बारसमे वृत्त, पिउनामा चक्कवट्टीणं ॥२॥ (ख) मावश्यकनियुक्ति, गाथा ३९६, ४००: २.मावश्पनियुक्ति, गाथा ४१७-४१६ । ३. समवायांग हस्तलिखित प्रति । ४.मावश्यकनियुक्ति, गाथा ११ । ८...समवायांगवृत्ति, पERI Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ७६-८० ७६. मरुदेश के वृषभ तुल्य (मरुयवसभकप्पा) सूत्र २४१ : वृत्तिकार ने 'मरुयवसभकप्पा' का अर्थ 'मरुत्वषभकल्प-देवराज तुल्य किया है। किन्हीं आदर्शों में 'मरुय' के स्थान में 'मरुत' पाठ मिलता है। इस 'तकार' श्रुति के कारण ही संभवतः वृत्तिकार का ध्यान 'मरुत्'-देवता की ओर गया है । 'मस्य' का अर्थ 'मरुदेश' होता है। मरुदेश के वृषभ धुरा को वहन करने में अत्यन्त क्षम होते हैं। धुरा-वहन की क्षमता के कारण बलदेव-वासुदेव को मरदेश के वृषभ की उपमा से उपमित किया गया है। ७७. सूत्र २४१ देखें-हरिवंश पुराण ६०/२८८, २८६ । ७८. निदान (निदाण) सूत्र २४४ : निदान का अर्थ है-तपोबल के आधार पर किया जाने वाला ऐहिक समृद्धि का संकल्प । ७६. द्यूत में पराजय (जुवे पराइओ) सूत्र २४५ (१) : यद्यपि गाथा में चूत का दूसरा स्थान है और संग्राम का तीसरा। किन्तु निदान-हेतुओं के सम्बन्ध की दृष्टि से संग्राम का स्थान दूसरा और द्यूत का तीसरा है । वासुदेव के पूर्वभव की नामसूचि में पर्वतक दूसरा और धनदत्त तीसरा वासुदेव है। इससे ज्ञात होता है कि यहां गाथा-रचना की दृष्टि से व्यत्यय किया गया है। ८०. सूत्र २४५ समवायांग के वृत्तिकार ने इन निदान-कारणों की कोई व्याख्या नहीं की है । आवश्यक नियुक्ति की दीपिका (पत्र १५) में उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : १. राजा विश्वभूति मुनि पर्याय में जब गाय के धक्के से गिर पड़ा तब उसने यह निदान किया-'भवान्तर में मैं अमित बल वाला होऊ।' २. महाराज पर्वतक के पास एक रूपवती वेश्या थी। बन्ध्यशक्ति नाम के राजा ने उसकी मांग की। पर्वतक के इन्कार करने पर उससे संग्राम किया और उसे पराजित कर बन्दी बना लिया। कालान्तर में पर्वतक दीक्षित हुआ और यह निदान किया कि मैं भावीजन्म में बन्ध्य का वध करने की शक्ति प्राप्त करूं । ३. राजा बलि ने धनमित्र राजा को चूत में पराजित किया। धनमित्र ने दीक्षा ले राजा बलि को मारने का निदान किया। ४. राजा समुद्रदत्त ने अपनी पत्नी का हरण हो जाने पर हरण करने वाले के वध के लिए निदान किया। ५. राजा शैवाल जब रण में हार गया तब उसने विजयी राजा के वध के लिए निदान किया। ६. महाराज प्रिय मित्र की भार्या का हरण हो जाने पर उन्होंने हरण करने वाले के वध के लिए निदान किया। ७. राजा ललितमित्र सभा में बैठा था। मंत्री ने कहा-राजकुमार राज्य योग्य हो गया है। उसे राज्य देना चाहिए। राजा ने इसे अपना अपमान समझा। दीक्षित होने पर उसने मंत्री के वध का निदान किया। ८. एक बार विद्याधर पुनर्वसु त्रिभुवनानन्द चक्रवर्ती की पुत्री को हरण कर जा रहा था। चक्रवर्ती ने अपने सैनिक भेजे । पुनर्वसु उनसे लड़ने लगा। कन्या हाथ से नीचे गिर पड़ी। उसे बहुत खेद हुआ। चक्रवर्ती की महान ऋद्धि का उसे भान हुआ। दीक्षित हो उसने निदान किया कि मैं भवान्तर में इस लड़की (चक्रवर्ती की पुत्री) का पति बनूं । ६. एक सेठ का पुत्र था। उसका नाम था गंगदत्त । माता का अपमान देखकर उसने जनप्रिय राजा होने का निदान किया। १. समवायांगवृत्ति, पत्र १४७ : मरुद्वषभकल्पा:-देवराजोपमाः। २. पावश्यकनियुत्ति दीपिका, पन ६५ : इह किल 'गावीए संगामें ति पाठो दृश्यते, परं सम्बन्धेषु निदानहेतव एवं दृश्यन्ते, ततः प्राकृतत्वाद् व्यत्ययोऽपि पटते । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३६८ प्रकीर्णक समवाय: टिप्पण८० उत्तरपुराण में निदान के कारण और वासुदेवों के पूर्वभववर्ती नाम भिन्न आए हैं। उनका संक्षेप इस प्रकार है— १. विश्वनंदी ( ५७ / ७० - ८२ ) - मगध देश में राजगृह नाम का नगर था। विश्वभूति वहां का राजा था। उसकी रानी का नाम जैनी था। उसके एक पुत्र हुआ । उसका नाम विश्वनंदी रखा गया। महाराज विश्वभूति के भाई का नाम विशाखभूति था । उसके पुत्र का नाम विशाखनंदी था। विश्वभूति ने अपने भाई को राज्य भार सौंपकर दीक्षा स्वीकार कर ली। राजगृह में एक नन्दन नाम का बगीचा था। वह विश्वनंदी को बहुत प्यारा था। एक बार विशाखनंदी ने जबरदस्ती उस उपवन को अपने अधीन कर लिया। विश्वनंदी और विशाखनंदी के मध्य युद्ध हुआ । विशाखनंदी हारकर भाग गया । विश्वनंदी का मन वैराग्य से भर गया और वह अपने चाचा विशाखभूति के साथ आचार्य संभूत के पास दीक्षित हो गया। एक दिन वह मथुरा में आया। वहां एक छोटे बछड़े वाली गाय ने क्रोध से उसे धक्का दिया । वह भूमि पर गिर पड़ा। विशाखनंदी, जो युद्ध में हारकर भाग गया था, वह उस समय वहीं एक वेश्या के घर पर झरोखे में बैठा था। मुनि विश्वनंदी को गिरते देख वह हंसा और व्यंग से बोला- 'तुम्हारा पराक्रम आज कहां गया ? ' - ये शब्द मुनि को तीर की भांति चुभे और तत्काल उसने निदान किया, और मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ । वहां से च्युत होकर पोतनपुर नगर के राजा प्रजापति की रानी मृगावती के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम त्रिपृष्ठ रखा गया । २. सुषेण, (५८/५६-७८ ) : कनकपुर के राजा सुषेण के पास गुणमंजरी नाम की नर्तकी थी । वह अत्यन्त रूपवती और कला कुशल थी । एक बार मलयदेश के राजा विन्ध्यशक्ति ने उस नर्तकी की मांग की। सुषेण ने दूत की भर्त्सना की । विन्ध्यशक्ति सुषेण से 'युद्ध करने कनकपुर आ पहुंचा। सुषेण पराजित हुआ। कुछ समय बाद वह विरक्त हो दीक्षित हो गया । किन्तु विन्ध्यशक्ति पर उसका क्रोध बढता रहा । अन्त में उसने निदान किया। वहां प्राण त्यागकर प्राणत स्वर्ग में अनुपम नामक विमान में देव बना । कालान्तर में वहां से च्युत होकर द्वारावती नगरी के राजा ब्रह्म की रानी उषा के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम द्विपृष्ठ रखा गया । ३. सुकेतू (५१ / ६३-८४ ) : में आसक्त कुणाल देश में श्रावस्ती नाम का नगर था। वहां सुकेतु नाम का राजा राज्य करता था। वह द्यूत रहता था। एक बार उसने अपना सर्वस्व हार दिया। शोक से व्याकुल हो वह सुदर्शनाचार्य के पास पहुंचा और जैन दीक्षा ग्रहण कर ली । दीर्घकाल तक कठोर तपस्या करते हुए उसने अन्त में निदान किया कि 'इस तप के द्वारा मेरे कला, गुण, चातुर्य और बल प्रगट हों ।' ४. वशुषेण (६०/ ४९-५६) : पोतनपुर नगर के राजा वसुषेण की रानी का नाम नंदा था। वह अत्यन्त रूपवती थी। मलयदेश के राजा चण्डशासन ने उसका हरण कर लिया । दुःखी होकर राजा वसुषेण श्रेय नामक गणधर के पास दीक्षित हो गया । घोर तपस्या कर यह निदान किया कि इस तपस्या का कुछ फल हो तो मैं ऐसा राजा बनूं, जिसका कोई अतिक्रमण न कर सके । मरकर बारहवें स्वर्ग में गया। वहां से च्युत होकर द्वारावती नगरी के राजा सोमपुत्र की रानी सीता के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम पुरुषोत्तम रखा गया । ५. श्री विजय ( ६२ / ३७८-४०६ ) : पूर्वभव में ये विद्याधर के अधिपति थे । इनका नाम श्रीविजय था । एक दिन इन्होंने अमरगुरु और देवगुरु नामक दो श्रेष्ठ मुनियों को नमस्कार किया और उनसे अपने तथा पिता के पूर्वभवों का संबंध पूछा । उन्होंने सारा वृतान्त कह सुनाया । उसे सुनकर श्रीविजय ने भोगों का निदान किया। ६. नाम अज्ञात ( ६५ / १७४, १७५ ) : पूर्वभव में इसने राजा सुकेत के आश्रय से शल्य सहित तप किया था इनका निदान का कारण प्राप्त नहीं है । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो ३६६ प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ८१ ७. नाम अज्ञात ( ६६ / १०२-१०५ ) : पूर्वभव में वह अयोध्या नगर का राजपुत्र था। पिता के लिए यह प्रिय नहीं था, इसलिए पिता ने अपने छोटे भाई को युवराज पद दे दिया । उसने समझा कि यह सारा कार्य मंत्री ने किया है, इसलिए उस पर कुपित हुआ । कालान्तर में वह शिवगुप्त मुनि के पास दीक्षित हो गया। मंत्री के प्रति बैर बढ़ता गया । ग्रन्थकार ने निदान का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है | ८. चन्द्रचूल (६७ / ८- १४४ ) : मलयराष्ट्र में रत्नपुर नाम का नगर था। वहां प्रजापति नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम गुणकान्ता था । उसने एक पुत्र का प्रसव किया। उसका नाम इन्द्रचूल रखा गया। उसने एक सेठ की पुत्री से बलात्कार किया । राजा ने उसे मृत्यु-दंड दिया। मंत्री ने यह भार अपने ऊपर लिया और उसे एक मुनि के पास छोड़ दिया। उसने दीक्षा ली। एक बार वह खड्गपुर नगर के बाहर आतापना में स्थित था। उस समय वासुदेव पुरुषोतम दिग्विजय कर नगर में आ रहे थे । उनकी ऋद्धि को देखकर उसने निदान किया । ६. निर्नामक (७१/१६६-२६८ ) : एक बार देवकी ने वरदत्त गणधर से पूछा- 'भगवन् ! मेरे घर पर दो-दो कर छह मुनिराज भिक्षा के लिए आए थे । उनको देखकर मेरे मन में कुटुम्बियों जैसा स्नेह उत्पन्न हुआ था। इसका कारण स्पष्ट करें। गणधर ने सारा वृतान्त बताते हुए अन्त में कहा - 'ये छहों व्यक्ति तेरे पुत्र थे । कंस के भय के कारण नैगमषि देव ने उन्हें अलका सेठानी के यहां रख दिया था। अलका ने उनका पालन किया है। ये इसी भव में मुक्त होंगे। जो तेरा निर्नामक नाम का पुत्र था, उसने तपश्चर्या करते समय निदान करके मारने वाला कृष्ण हुआ है । 'पूर्वभव में उत्तरपुराण में वासुदेवों तथा बलदेवों के पूर्वभविक नामों में अंतर है। इसी प्रकार वासुदेवो के पूर्वभविक धर्माचार्यों के नाम, निदान भूमियां तथा निदान के कारण भी भिन्न रूप से उल्खिखित हैं वासुदेवों के पूर्वभविक नाम - १. विश्वनंदी २. सुषेण ३. सुकेतू ४. वसुषेण ५. श्रीविजय ६. अज्ञात ७. अज्ञात ८. चन्द्रचूल . निर्नामक । बलदेवों के पूर्व भविक नाम - १. विशाखभूति २. वासुरथ ३. मित्रनंदी ४. महाबल ५. अपराजित ६. अज्ञात ७. अज्ञात ८. विजय ६. शंख । वासुदेवों के पूर्वभविक धर्माचार्य १. सम्भूत २. सुव्रत ३. सुदर्शनाचार्य ४. श्रेय ५. नन्दन ६. अज्ञात ७. शिवगुप्त ८. महाबल ६. द्रुमसेन । वासुदेवों के पूर्वभव की निदान-भूमियां १. मथुरा २. कनकपुर ३. श्रावस्ती ४. पोदनपुर ५. प्रभाकरी ६. अज्ञात ७ अयोध्या ८ खड़गपुर ६. अज्ञात । वासुदेवों के निदान के कारण १. गाय के द्वारा गिरना २. युद्ध में पराजय ३. द्यूत में पराजय ४. स्त्री का हरण ५. भोग ६. अज्ञात ७. राज्य का अपहरण ८. परॠद्धि दर्शन &. एश्वर्य दर्शन । ८१. प्रभराज ( पहराए ) ( रणे ? ) सू० २४६ ( १ ) : समवायांग में दो स्थानों (प्रकीर्णक समवाय २४६ तथा २५७ ) पर पहराए' पाठ मिलता है। प्रथम स्थान में 'पहराय' सातवें प्रतिवासुदेव का नाम है और दूसरे स्थान में वह होने वाले पांचवें प्रतिवासुदेव का नाम है । इसका संस्कृत रूप 'प्रमराज' या 'पथराज' हो सकता है । आचार्य हेमचन्द्र ने सातवें प्रतिवासुदेव का नाम ' प्रल्हाद' माना है।' प्रल्हाद का प्राकृतरूप 'पल्हाए' हो सकता है। उसके लिए 'पहराए' रूप निर्माण की आवश्यकता नहीं होती । हरिवंशपुराण में सातवें प्रतिवासुदेव का नाम 'प्रहरण' है। 'पहाए' का इस नाम से संबंध ज्ञात होता है। यहां ऐसी परिकल्पना करना असंगत नहीं १. अभिधावचिन्तामणि कोषः १/१६३ । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४०० प्रकोणक समवाय : टिप्पण ८२-८६ होगा कि मूलतः दोनों स्थानों में ही 'पहरणे' पाठ रहा है, किन्तु लिपि-परिवर्तन के काल में 'पहरणे' का 'पहराए' पाठ हो गया है प्राचीनलिपि उत्तरकालीनलिपि पहराए। (पहरणे) पहराए प्राचीनलिपि में एक एकार की मात्रा वर्ण के पूर्व लिखी जाती थी और एकार के आगे एक मात्रा और लिखने पर 'ण' का आकार बन जाता था। इस सादृश्य के कारण प्रस्तुत पाठ में परिवर्तन हुआ, यह मानना कोई जटिल परिकल्पना नहीं है। ५२. सू० २४६ : हरिवंशपुराण (६०/२६१, २६२ में ये नाम इस प्रकार हैं१. अश्वग्रीव २. तारक ३. मेरुक ४. निशुंभ ५. मधुकैटभ ६. बलि ७. प्रहरण ८. रावण ६. जरासंध । उत्तरपुराण (पर्व ५७ से ७२) के अनुसार ये नाम इस प्रकार हैं १. अश्वग्रीव २. तारक ३. मधु ४. मधुसूदन ५. दमितारि ६. निशुंभ ७. बलीन्द्र ८. रावण ६. जरासंध । ८३. सू० २४८: प्रवचनसारोद्धार (गाथा २६६-२६८) में इनके नाम इस प्रकार हैं १. बालचन्द्र २. श्रीसिचय ३. अग्निषेण ४. नन्दिषेण ५. श्रीदत्त ६. व्रतधर ७. सोमचन्द्र ८. दीर्घ सेन ६. शतायु १०. सत्यकी ११. युक्तिषेण १२. श्रेयांस १३. सिंहसेन १४. स्वयंजल १५. उपशान्त १६. देवसेन १७. महावीर्य १८. पार्श्व १९. मरुदेव २०. श्रीधर २१. स्वामिकोष्ठ २२. अग्निसेन २३. अग्रदत्त (मार्गदत्त) २४. वारिसेन । ८४. स० २४६ : उत्तरपुराण (७/४६३-४६६) के अनुसार आगामी उपिणी में सोलह कुलकर होंगे । उनके नाम इस प्रकार हैं १. कनक २. कनकक्रय ३. कनकराज ४. कनकध्वज ५. कनकपुंगव ६. नलिनपुत्र ७. नलिनपुत्र ८. नलिनराज ६. नलिनध्वज १०. नलिनपुंगव ११. पद्म १२. पद्मप्रभ १३. पद्मराज १४. पद्मध्वज १५. पद्मपुंगव १६. महापद्म । २५. स० २५० स्थानांग १०/१४४ में ये नाम कुछ व्यत्यय के साथ मिलते हैं १. सीमंकर २. सीमंधर ३. क्षेमंकर ४. क्षेमंधर ५. विमलवाहन ६. सम्मति ७. प्रतिश्रुत ८. दृढ़धनु ६. दशधनु १०. शतधनु। ८६. सू०२५१. उत्तरपुराण (७६/४७७-४८१) में ये नाम इस प्रकार उल्लिखित हैं१. महापद्म २. सुरदेव ३. सुपार्श्व ४. स्वयंप्रभ ५. सर्वात्मभूत ६. देवपुत्र ७. कुलपुत्र ८. उदक . प्रोष्ठिल १०. जयकीति ११. मुनिसुव्रत १२. अरनाथ १३. अपाय १४. निष्कषाय १५. विपुल १६. निर्मल १७. चित्रगुप्त १८. समाधिगुप्त १६. स्वयंभू २०. अनिवर्ती २१. विजय २२. विमल २३. देवपाल २४ अनन्तवीर्य । प्रवचन सारोद्धार (२६३-२६५) में ये नाम इस प्रकार हैं१. पद्मनाभ २. सुरदेव ३. सुपार्श्व ४. स्वयंप्रभ ६. देवश्रुत ७. उदय . पेढाल ६. पोट्टिल १०. शतकीर्ति ११. मुनिसुव्रत १२. अमम १३. निष्कषाय १४.निष्पुलाक १५. निर्मम १६. चित्रगुप्त १७. समाधि १८. संवरक १६. यशोधर २०. विजय २१. मल्लि २२. देवजिन २३. अनन्तवीर्य २४. भद्रजिन । हरिवंशपुराण ६०/५२८-५६२ (भद्रकृत) Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४०१ प्रकीर्णक समवाय : टिप्पण ८७-६१ ८७. सू० २५२ उत्तरपुराण (७६/४७१-४७५) में ये नाम इस प्रकार हैं१. श्रेणिक २. सुपार्श्व ३. उदङ्क ४. प्रोष्ठिल ५. कटपू ६. क्षत्रिय ७ श्रेष्ठी ८. शंख ६. नन्दन १०. सुनन्द ११. शशाङ्क १२. सेवक १३. प्रेमक १४. अतोरण १५. रेवत १६. वासुदेव १७. भगलि १८. वागलि १६. द्वैपायन २०. कनकपाद २१. नारद २२. चारुपाद २३. सत्यकिपुत्र । __उत्तरपुराणकार ने ये तेईस नाम गिनाकर, 'एक अन्य' ऐसा उल्लेख कर चोईस की संख्या पूरी की है। 'एक दूसरे से उनका क्या तात्पर्य था यह ज्ञात नहीं है। १८. सू० २५४ उत्तरपुराण (७६/४८२-४८४) में ये नाम इस प्रकार है१. भरत २. दीर्घदन्त ३. मुक्तदन्त ४. गूढदन्त ५. श्रीषेण ६. श्रीभूति ७. श्रीकान्त ८. पद्म ६. महापद्म १०. विचित्रवाहन ११. विमलवाहन १२. अरिष्टसेन । हरिवंशपुराण ६०/५६२-५६५ । ८९. सू० २५६ : उत्तरपुराण (७६/४८५-४८६) में ये नाम इस प्रकार हैंनौ नारायण (वासुदेव)१. नंदी २. नंदिमित्र ३. नंदिसेन ४. नंदिभूति ५. सुप्रसिद्धबल ६. महाबल ७. अतिबल ८. त्रिपृष्ठ ६. द्विपृष्ठ । नौ बलभद्र (बलदेव) १. चन्द्र २. महाचन्द्र ३. चक्रधर ४. हरिचन्द्र ५. सिंहचन्द्र ६. वरचन्द्र ७. पूर्णचन्द्र ८. सूचन्द्र ९. श्रीचन्द्र । ६०. सू० २५८: ऐरवत में होने वाले तीर्थंकरों की नामावलि में चौबीस के स्थान पर पचीस नाम हैं । सिद्धार्थ नाम दो बार आया है। यदि एक स्थान में सिद्धार्थ को विशेषण माना जाए तो चौबीस तीर्थङ्करों के नाम शेष रह जाते है। ६१. सू० २६१ : प्रस्तुत सूत्र में कुलकर, तीर्थंकर, चक्रवर्ती और दशार-इनके वंशों का प्रतिपादन किया गया है, इसलिए इसके उक्त नाम-कुलकरवंश, तीर्थंकरवंश, चक्रवर्तीवंश और दशारवंश-सार्थक हैं। गणधर, ऋषि, यति और मुनि-इनके वंशों का प्रतिपादन 'कप्पस्स समोसरणं नेयव्वं' (प्रकीर्णक समवाय, सू० २१५) इस समर्पित सूत्र के द्वारा हुआ है, इसलिए इसके ये नाम-गणधरवंश, ऋषिवंश, यतिवंश और मुनिवंश-भी सार्थक हैं। प्रस्तुत सूत्र के द्वारा कालिक अर्थो का अवबोध होता है, इसलिए यह 'श्रुत' है। यह 'श्रुतपुरुष' का एक अंग है, इसलिए यह 'श्रुतांग' है। इसमें अर्थों का संक्षेप में प्रतिपादन हुआ है, इसलिए यह 'श्रुतसमास' है। इसमें श्रुत का समुदाय है, इसलिए यह 'श्रुतस्कन्ध' है। इसमें जीव, अजीव आदि पदार्थों का समवायन (प्रतिपाद्य रूप में एकत्रीकरण) है, इसलिए यह 'समवाय' है। इसमें पदार्थों का प्रतिपादन संख्या-आधारित है, इसलिए यह 'संख्या' है। इस प्रकार सूत्रकार ने उपसंहार सूत्र में प्रस्तुत सूत्र के चौदह नामों का निर्देश किया है। प्रस्तुत सूत्र में आचारांग और सूत्रकृतांग की भांति दो खंड नहीं हैं तथा इसमें उद्देशक आदि के विभाग नहीं हैं। इसकी समस्त (अखंड) अंग तथा अध्ययन के रूप में रचना की गई है।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र १४७,१४८ । . Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट पहला–तुलना दूसरा-विशेषनामानुक्रम तीसरा विशेषनाम-वर्गानुक्रम Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ तुलना (समवाओ-ठाणं-प्रवचनसारोद्धार-आवश्यकनियुक्ति आदि) समवाओ ११२ ओवाइयं तुलनात्मक परिशिष्ट ठाणं १०२ समवाओ २०१६ २०१७ २०१८ २०१६ ३१ ठाणं २४५० २।४५१ २१४५२ २।४५३ ३।२४ ३३२ १८ १।१० १।११ १३१२ १।१३ १।१४ ३३३ ३।४ ११११ १११२ १२१५ ३।१४ १९ ३३१५ १।१० १।१३ ४१ ४२ ३।२१ ३२३८५ ३१५०५ ३।५२८,५२६ ३।१२६ ३११२७ ४१७५ ४१६० ४१२४१ ४१५७८ ४१२६० ४१६५४ ४१६५५ १११६ १३१७ १२१८ १२१६ १२२० १२२१ श२२-२५ १।२६ १२२७ ११२८ २।१ २२२ २।३ : दुविहे बंधणे पण्णत्ते, तंजहा- रागबंधणे चेव, दोसबंधणे चेव। २४ ५१ ५।११५ ४१४८१ १२२५१ २२५२ १।२५३ २०७६ २।३६० २।३६१ : दुविहे बंधे पण्णत्ते, तंजहापेज्जबंधे चेव दोसबंधे चेव । ५२ ५५: पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहासद्दा रूवा गंधा रसा फासा। ५२१०६: पंच आसवदारा पण्णत्ता तं जहामिच्छत्तं अविरती पमादं कसाता जोगा। पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहासद्दा रूवा रसा गंधा फासा। ५१४: पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहामिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा। રાજ ર૪૪૬ २।४३ २४४४ ર૪૪૯ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समबानो ४०६ परिशिष्ट १ समवाओ ७३ समवाओ १५: पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहासम्मत्तं विरई अप्पमाया अकसाया अजोगा। ७४ ७.५ ७७ ७।१३ ७१४ पंच निज्जरढाणा पण्णत्ता, तं जहापाणाइवायाओ वेरमणं मुसावायाओ वेरमणं अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं परिग्गहाओ वेरमणं। ५७ ५८ ५।९-१३ ठाणं ५११०: पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहासम्मत्तं विरती अपमादो अकसातित्तं अजोगित्तं। ५।१२६ : पंचहि ठाणेहि जीवा रतं वमंति, तं जहापाणातिपातवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिण्णादाणवेरमणेणं मेहुणवेरमणेणं परिग्गहवेरमणेणं । ५२२०३ ५।१६६ ५।२३७ ठाणं ७७६ ७१५१ ७१५० ७.१४५ ७/१२ ७।६३ ७।१०२ ७१०३ ७।१०४ ८।२१ ८।१७: अट्ठ समितीतो पण्णत्ताओ... ७११७ ७।१८ ७।१६ ८.१ चार: अट्ठ पवयणमायाओ पण्णत्ताओ.. ८४ ८५ ८६३ ८।६४ ८१६२ ८.११४: ८६ ८७: ६२ ६।३ : छविहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहाअणसण ओमोदरिया वित्तिसंखेवो रसपरिच्चाओ कायकिलेसो संलीणया। अटुसामइए केवलिसमुग्धाए अट्ठसमतिते केवलिसमुग्धाते पण्णत्ते, तं जहा पप्णत्ते तं जहापढमे समए दंडं करेइ, पढमे समए दंडं करेति, बीए समए कवाडं करेइ, बीए समए कवाडं करेति, तइए समए मंथं करेइ, ततिए समते मंथं करेति, चउत्थे समए मंथंतराइं पूरेइ, चउत्थे समते लोगं पूरेति, पंचमे समए मंथंतराइं पंचमे समए लोगं पडिसाहरइ, छठे समए मंथं पडिसाहरति, छठे समए पडिसाहरइ, सत्तमे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे कवाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे समए कवाडं पडिसाहरति, समए दंडं पडिसाहरइ, ततो अट्ठमे समए दंडं पच्छा सरीरत्थे भवइ। पडिसाहरति । छविहे बाहिरते तवे पण्णत्ते, तं जहाअणसणं ओमोदरिया भिक्खातरिता रसपरिच्चाते कायकिलेसो पडिसंलीणता। ६।६६ : छविहे अब्भंतरिते तवे पण्णत्ते, तं जहापायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं सज्झाओ झाणं विउस्सग्गो। ६।१८ ६।१२६ ६।१२७ ७/२७: सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहाइहलोगभते परलोगभते आदाणभते अकम्हाभते वेयणभते मरणभते असिलोगभते। ७११३८ ६१४: छविहे अभिंतरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहापायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं सज्झाओ झाणं उस्सग्गो। ६६ ६८ ७१: सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहाइहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए आजीवभए मरणभए असिलोगभए। ७२ ८८: ८।३७ : पासस्स णं अरहओ पुरिसा- पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणिअस्स अट्ठ गणा अट्ट दाणितस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तं जहा- गणहरा होत्था, तं जहासुंभे य सुंभघोसे य, सुभे अज्जघोसे वसिट्ठे बंभयारि य। वसिठे बंभचारी सोमे सिरिधरे चेव, सोमे सिरिधरे वीरभद्दे जसे इय ।। वीरभद्दे जसोभद्दे । काम ८।११६ १: ।: Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो परिशिष्ट १ समवाओ १०६ १०१११ १०।१२ १०११३ १०।१४,१५ १०।१७ १०११८ १०।२० १०१२१ ११।१ १२।१ १३०१ १४१७ १४८ समवाओ नव बंभचेरगुत्तीओ ठाणं णव बंभचेरगृत्तीतो पण्णत्ताओ, तं जहा- पण्णत्ताओ, तं जहानो इत्थी-पसू-पंडग संसत्ताणि विवित्ताई सपणासणाई सिज्जासणाणि सेवित्ता भवइ । सेवित्ता भवति-णो इत्थि संसत्ताई णो पसुसंसत्ताई णो पंडगसंसत्ताई। नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ। णो इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति । नो इत्थीणं ठाणाई से वित्ता णो इत्थिठाणाई सेवित्ता भवइ । भवति । नो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई णो इत्थीमिंदिताई मणोरमाइं आलोइत्ता मणोहराई मणोरमाई निज्झाइत्ता भवइ। आलोइत्ता णिज्झाइत्ता भवति। नो पणीयरसभोई भवइ। णो पणीतरसभोती (भवति ?) नो पाणभोयणस्स अतिमायं णो पाणभोयस्स अतिमातआहारइत्ता भवइ। माहारते सता भवति । नो इत्थीणं पुवरयाई पुव- णो पुव्वरतं पुव्वकीलियं कीलियाई सुमरइत्ता भवइ। सरेत्ता भवति । नो सद्दाणुवाई नो रूवाणुवाई णो सद्दाणुवाती गो नो गंधाणुवाई नो रसाणुवाई रूवाणुवाती णो सिलोगाणुनो फासाणुवाई नो वाती (भवति ?)। सिलोगाणवाई। नो सायासोक्ख-पडिबद्धे यावि णो सातसोक्खपडिबद्धे यावि भव। भवति ६२ ।४ ६।३ ६२ ६४ ६५६ १६।२ १६३ १७६ २०११ ठाणं २१११ २२।१ २५५१ ठाणं १०११२५ १०।१२४ १०।१२६ १०।१२७ १०११२८ १०।१२६ १०।१३० १०।१३१ १०।१३२ दसासुयक्खंधो दसा ६ दसा ७ सूयगडो २।२ ठाणं ७१६७,६८ ७५२,५३ ४१८४-८७ जंबुद्दीवपण्णती वक्खार ४ २४११-४१६ दसासुयक्खंधो दसा १ दसा २ उत्तरज्झयणाणि ।सू० ३ आयारचूला १५४३-७८; पण्हावागरणाई, संवरदार दसासुयक्खंधो दसाह ठाणं २३५३-३६२, ३७६-३८४ दसासुयक्खंधो दसा ३ ठाण ४१४८२ ७।१३ ८।१०४ ओवाइयं तुलनात्मक परि शिष्ट ६४१ ४१३२६ १०११५१ ३२५३४ ४१३०६ ठाणं ४१६४८ ५।१५६ ५।१५६ ५।१६० ५।२२६ ३०१ ३२।२ ४२।२,३ ४५११-४ ४६१ ६।१५ ६४।१ ७२।७ ठाणं १०१ ६।१६ ६।१७ ६।१८ १।११ ६।१४ १०।१६ १०१३ १०१२६ १०१४ १०७६ १०१५ १०८० १०७ १०११७० १०८ : १०।१४२ : अकम्मभूमियाणं मणुआणं सुसमसुसमाए णं समए दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए दसबिहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवत्थिया पण्णता, तं जहा- हब्वमागच्छंति, तंजहा ८१२१ ६५२ १००१ पइण्णग १२ समवाओ १७ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवायो ४०८ परिशिष्ट १ ६७६ इण्णग ३१ ६।१०७ पइण्णग २२३ : सप्त० ४४ : समवाओ ३४ ६१७८ समवाओ पढमेत्थ बइरणाभे, वज्जनाह विमलवाहण ६७६ विमले तह विमल विउलबल महाबला अइबलो वाहणे चेव । ७।१०५ तत्तो य धम्मसीहे, अवराइयो य नंदी, ८।११२ सुमित्त तह धम्म पउम महापउम पउमा य॥ ८.११५ मित्ते य॥ ८.११६ २२३: सप्त० ४५, ४६ : ८.११३ सुंदरबाहू तह दीहबाहू, नलिणीगुम्मो पउमुत्तरो अ ६।६४ जुगबाहू लट्ठबाहू य ।। तह पउमसेण पउमरहा। ६।६५ दिण्णे य इंददत्ते, दढरह मेहरहावि अ, १०।१५८ सुंदर माहिंदरे चेव ॥ सीहावह धणवई चेव ॥ १०१३६ सीहरहे मेहरहे, वेसमणो सिरिवम्मो, २१३२७ रुप्पी य सुदंसणे य बोद्धव्वे । सिद्धत्थो सुप्पइट्ट आणंदो। ४१३३६ तत्तो य नंदणे खलु, नंदण नामा पुब्वि, ६७७ सीहगिरी चेव वीसइमे ॥ पढमो चक्की निवा सेसा ॥ १०७८ अदीणसत्त संखे, त्रि० पु० ८८-१३४ नंदी ७६-१२६ सुदंसणे नंदणे य बोद्धव्वे । वज्रनाभ, विमलवाहन २१६ ठाणं ७।६१ ओसप्पिणीए एए, (विमल), विमलकीर्ति (विमल २१७: ठाणं १०।१४३ : तित्थकराणं तु पुवभवा ।। वाहन), महाबल, पुरुषसिंह, सयंजले सयाऊ य, सयज्जले सयाऊ य, अपराजित, नंदिसेण, पद्म, अजियसेणे अणंतसेणे य। अणंतसेणे त अजितसेणे त । महापद्म, पद्मोत्तर, नलिनकक्कसेणे भीमसेणे, कक्कसेणे भीमसेणे, गुल्म, पद्मोत्तर, पद्मसेन, महाभीमसेणे य सत्तमे ।। महाभीमसेणे त सत्तमे ॥ पद्मरथ, दृढ़रथ, मेघरथ, दढरहे दसरहे सतरहे । दढरहे दमरहे सयरहे ॥ सिंहावह, धनपति, महाबल, २१८: ७।६२ सुरश्रेष्ठ, सिद्वार्थ, संख, पढमेत्य विमलवाहण, आ० नि० १५५ सुवर्णबाहु, नंदन। चक्खुम जसमं चउत्थ २२४ : सप्त० १५०-१५२ : मभिचंदे। जंबुद्दीवपण्णत्ती, वक्खार २: सीया सुदंसणा सुप्पभा य, सिबिया सुदंसणा सुप्पभा य, तत्तो य पसेणइए, सुमई पडिस्सुई सीमकरे सिद्धत्व सुप्पसिद्धा य । सिद्धत्थ अत्थसिद्धा य। मरुदेवे चेव नाभी य॥ सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे विजया य वेजयंती, अभयंकरा य निव्वुइकरा, विमलवाहणे चक्खुमं जसमं जयंती अपराजिया चेव ।। मणोहर मणोरमिया ॥ अभिचंदे चंदाभे पसेणई अरुणप्पभ चंदप्पभ, सूरपहा सुक्कपहा, मरुदेवे णाभी उसभे। सूरप्पह अग्गिसप्पभा चेव। विमलपहा पुहवि देवदिन्ना य । ठाणं ७।६३ विमला य पंचवण्णा, सागरदत्ता तह नागदत्त, आ०नि०१५६ सागरदत्ता तह णागदत्ता य ।। सव्वट्ठ विजया य ।। आ०नि० ३८७-३८६ अभयकर णिव्वुतिकरी, तह वेजयंतिनामा, प्रव० ३२२-३२४ मणोरमा तह मणोहरा चेव। जयंति अपराजिया य देवकुरू । त्रि०० देवकुरु उत्तरकुरा, बारवई अविसाला, आ०नि०३८५, ३८६ विसाल चंदप्पभा सीया ॥ चंदपहा नरसहसबुज्झा। प्रव० ३२०, ३२१ त्रि० पु० २२४ : आ०० १५।२८ : वि०पू० Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवानो ४० परिशिष्ट १ पुचि उक्खित्ता, पुचि उक्खित्ता, माणुसेहि साहट्ठरोमकूवेहिं । माणुसेहिं साहट्ठरोमपुलएहिं । पच्छा वहति सीयं, पच्छा वहंति देवा, असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥ सुरअसुरगरुलणागिंदा ।। चलचवलकुंडलधरा, पुरओ सुरा वहंती, सच्छंदविउब्वियाभरणधारी। असुरा पुण दाहिणंमि पासंमि । सुरअसुरवंदियाणं, अवरे वहति गरुला, वहंति सीयं जिणिदाणं । णागा पुण उत्तरे पारे॥ पुरओ वहंति देवा, आ०भा०६८,६६ : नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि। पुब्धि उक्खित्ता, पच्चत्थिमेण असुरा, माणुसेहि साहट्ठरोमकूवेहि । गरुला पुण उत्तरे पासे ॥ पच्छा वहति सी असुरिंदसुरिंदनागिंदा ।। चलचवलभूसणधरा, सच्छंदविउब्विआभरणधारी । देविंददाणविंदा, वहति सी जिणिदस्स ॥ २२५ आ०नि० २२६ २२६ आ०नि० २२७ पइण्णग २२७ आ०नि० २२४,२२५ समवाओ प्रव० ३८३,३८४ आ०नि० २२८ आ०नि० ३२७-३२६ : २२६ : सिज्जंस बंभदत्ते, सेज्जंसे बंभदत्ते, सुरेंददत्ते य इंददत्ते । सुरिंददत्ते य इंददत्ते य । पउमे अ सोमदेवे, तत्तो य धम्मसीहे, महिंद तह सोमदत्ते अ॥ सुमित्त तह धम्ममित्ते य। पुस्से पुणव्वसू पुण नंद पुस्से पुणव्वसू पुण्णणंद सुनंदे जए अ विजए य। सुणंदे जये य विजये य। तत्तो अ धम्मसीहे, पउमे य सोमदेवे, सुमित्त तह वग्घसीहे अ॥ महिंददत्ते य सोमदत्ते य ॥ अपराजिअ विस्ससेणे, १. मल्लिस्त्रिभिः शतैः सह व्रतमाहीत्, अन्न च मल्लिस्वामी स्त्रीणां पुरुषाणां च प्रत्येकं त्रिमिस्त्रिभिः शतैः सह प्रबजित: ततो मिलितानि षट् शतानि भवन्ति, यत्तु सूत्रे विभि: शत रित्युक्तं तत्र केवला: स्त्रियः पुरुषा वा गृहीता:, द्वितीयः पुनः पक्षः सन्नपि न विवक्षित इति सम्प्रदायः, स्थानाङ्गटीकायामप्युक्तं “मल्लिजिनः स्त्रीशतरपि विभि" रिति । वृत्ति पत्र १६ । स्थानाङ्गटीकायामीदृशः पाठो लभ्यते-तथा विभिः पुरुषशतैः बाह्यपरिषदा विभिश्च स्त्रीशतरभ्यन्तरपरिषदाऽसो संपरिवृतः परिवजित इति ज्ञातेषु श्रूयत इति, उक्तं च-"पासो मल्ली तिहि तिहिं सएहि" ति [पाोमल्ली च विभिस्त्रिभिः शतः] एवमन्येष्वपि विरोधाभासेषु विषयविभागाः सम्भवन्तीति निपुणर्गवेषणीयाः। वृत्ति पत ३८० । अपरातिय वीससेणे, वीसइमे होइ बंभदत्ते अ। वीसतिमे होइ उसभसेणे य। दिण्णे वरदिण्णे पुण, दिण्णे वरदत्ते, धण्णे बहुले अ बोद्धवे ॥ धन्ने बहुले य आणुपुव्वीए ॥ सप्त० १६३-१६५ त्रि पु० पइण्णग २३० : आ०नि० ३१६,३२०,३२१ : समवाओ संवच्छरेण भिक्खा, संवच्छरेण भिक्खा, लद्धा उसभेण लोगणाहेण । लद्धा उसभेण लोगनाहेण । सेसेहिं बीय दिवसे, सेसेहिं बीयदिवसे, लद्धाओ पढमभिक्खाओ। लद्धाओ पढमभिक्खाओ। उसभस्स पढमभिक्खा, उसभस्स उ पारणए, खोयरसो आसि लोगणाहस्स। इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं, सेसाणं परमण्णं, अमयसरसोवमं आसि ॥ अमयरसरसोवम आसी॥ सम्वेसिपि जिणाणं,, सब्वेहिपि जिणेहि, जहियं लद्धाओ पढमभिक्खातो। जहि लद्धाओ पढमतहियं वसुधाराओ, भिक्खाओ। सरीरमेत्तीओ वुढाओ॥ तहिअं वसुहाराओ, २३१: वुट्ठाओ पुप्फवुट्टीओ॥ णग्गोह-सत्तिवण्णे सप्त० १८६,१८७ : साले पियए पियंगु छत्ताहे। नग्गोह सत्तवन्नो, सिरिसे य णागरुक्खे, साल पिआलो पियंगु माली य पिलंखुरुक्खे य॥ छत्ताहे। तेंदुग पाडल जंबू, सिरिसो नागो मल्ली, आसोत्थे खलु तहेव दधिवण्णे । पिलुंख तिदुयग पाडलया ॥ गंदीरक्खे तिलए य, जंबू असत्य दहिवन्न अंबयरुक्खे असोगे या नंदि तिलगा य अंबंग असोगो। चंपय वउले य तहा, चंपग बउलो वेडस वेडसिरुक्खे धायईरुक्खे । धाइअ सालो अनाणतरू॥ साले य वड्डमाणस्स, त्रि० पु० चेइयरुक्खा जिणवराण ॥ न्यग्रोध, सप्तच्छद, साल, प्रियाल, प्रियंगु, वट, शिरीष, पुन्नाग, मालूर, प्लक्ष, अशोक, पाटला, जंबू, अशोक, दधिपर्ण, नंदिवृक्ष, तिलक, सहकार अशोक, चंपक, बकुल, वेतस, न्यग्रोध, शाल । पइण्णग २३१ : सप्त०१८८ : समवाओ बत्तीसई धणूई, ते जिणतणुबारगुणा, चेइयरुक्खो य बद्धमाणस्स। चेइअतरुणो वि नवरि वीरस्स। २२८ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ४१० परिशिष्ट १ णिच्चोउगो असोगो, सप्त० चेइअतरुवरि सालो, ओच्छण्णो साल रुक्खेणं॥ एगारसधणुहपरिमाणो ।। तिण्णे व गाउयाई, चेयरुक्खो जिणस्स उसभस्स । सेसाणं पुण रुक्खा, सरीरतो बारसगुणा उ॥ पइण्णग २३२ : प्रव० ३०४-३०६ : समवाओ पढमेत्थ उसभसेणे, सिरिउसभसेण पहु सीहसेण, बीए पुण होइ सीहसेणे उ। चारु वज्जनाहक्खा। चारू य वज्जणाभे, चमरो पज्जोय वियब्भ, चमरे तह सुब्बते विदब्भे ॥ दिण्णपहवो वराहो य ।। दिण्णे वाराहे पुण पहुनंद कोत्थुहावि य, आणंदे गोथुभे सुहम्मे य। सुभोम मंदर जसा अरिटो य । मंदर जसे अरिठे, चक्काउह संबा कुंभ, चक्काउह सयंभु कुंभे य॥ भिसय मल्ली य सुंभो य ।। भिसए य इंदे कुंभे, वरदत्त अज्जदिन्ना, वरदत्ते दिण्ण इंदभूती य । तहिंदभूई गणहरा पढमा। उदितोदितकुलवंसा, सिस्सा रिसहाईणं, विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया। हरंतु पावाइं पणयाणं ॥ तित्थप्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सा जिणवराणं ।। सप्त० २१४,२१५ : पुंडरिअ सीहसेणा चारूरू वज्जनाह चमरगणी। सुज्ज विदब्भो दिन्नो वराहओ नंद कुच्छुभ सुभूमा ॥ मंदरु जसो अरिठ्ठो चक्काउह संब कुंभ भिसओ अ। मल्ली सुंभो वरदत्त अज्जदिन्नि दभूइगणी॥ त्रि० पु० ऋषभसेन, सिंहसेन, चारु, वज्रनाभ, चमर, सुव्रत, विदर्भ, दत्त, वराह, आनंद, गोशुभ, सूक्ष्म, मंदर, यश, अरिष्ट, चक्रायुद्ध, स्वयंभू, कुंभ, भिषगइन्द्र, कुंभ, वरदत्त, आर्यदत्त, इन्द्रभूति । २३३ : प्रव० ३०७-३०६: बंभी फग्गू सम्मा, बंभी फग्गु सामा, अतिराणी कासवी रई __ अजिया तह कासवी रई सोमा। सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा, सुमणा वारुणि सुजसा, धारणि धरणी य धरणिधरा ॥ धारिणी धरिणी धरा पउमा।। पउमा सिवा सुई अंजू, अज्जा सिवा सुहा दामणी य, भावियप्पा य रक्खिया। रक्खी य बंधुमइनामा। बंधू-पुप्फवती चेव, पुफ्फवई अनिला जक्खदिन्न अज्जा धणिला य आहिया ॥ तह पुप्फचूला य ॥ जक्खिणी पुप्फचूला य, चंदण सहिया उ पवत्तिणीओ चंदणऽज्जा य आहिया। चउवीसजिणवरिंदाणं। उदितोदितकुलवंसा, दुरियाई हरंतु सया, विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया॥ सत्ताणं भत्तिजुत्ताणं ।। तित्थप्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सी जिणवराणं सप्त० २१६, २१७ : बंभी फग्गुणि सामा, अजिआ तह कासवी रई सोमा। सुमणा वारुणि सुजसा, धारिणी धरणी धरा पउमा । अज्जसिवा सुइ दामिणि, रक्खिअ बंधुमइ पुप्फवइअनिला जखदिन्न पुप्फचूला, चंदणबाला पवत्तणिया ॥ आ०नि० ३६६, ४०० वि०० आ०नि० ३९८ त्रिपु० ठाणं ४१६ आ०नि० ४११ २३६ आ०नि०४०६ आ०नि०४१० २४७: आ०नि० ४१३, ४१५, ४१४ : एक्को य...... एगो य...... अणिदाण...... अनियाण...... अळंतकडा रामा, अठठंतकडा रामा, एगो पुण बंभलोयकप्पमि । एगो पुण बंभलोगकप्पमि । एक्का से गब्भवसही, उववन्नु तओ चइउं, सिज्झिस्सइ आगमेस्साणं ॥ सिज्झिस्सइ भारहे वासे ।। २४८ : प्र०सा० २६६-२६६ : चंदाणणं सुचंदं च, बालचंदं सिरिसिचयं, अग्गिसेणं च नंदिसेणं च। अग्गिसेणं च नंदिसेणं च । इसिदिण्णं वयहारि, सिरिदत्तं च वयधरं, वंदिमो सामचंदं च ॥ सोमचंद जिणदीहसेणं च ।। वंदामि जुत्तिसेणं, वंदे सयाउ सच्चइ, अजियसेणं तहेव सिवसेणं ।। जूत्तिस्सेणं जिणं च सेयंस । २४० Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४११ परिशिष्ट १ बुद्धं च देवसम्म, सीहसेणं सयंजल, सययं निक्खित्तसत्थं च ॥ उवसंतं देवसेणं च ।। असंजलं जिणवसह, महविरिय पास मरुदेव, वंदे य अणतयं अमियणाणि। सिरिहरं सामिकुटुमभिवंदे । उवसंतं च धुयरयं, अग्गिसेणं जिणमग्गदत्तं, वंदे खलु गुत्तिसेणं च सिरिवारिसेणं च ॥ अतिपासं च सुपासं, इय संपइजिणनाहा, देवेसर-वंदियं च मरुदेवं ।। एरवए कित्तियासणामेहिं ।। णिव्वाणगयं च धरं, खीणदुहं सामकोळं च ॥ जियरागमग्गिसेणं, वंदे खीणरयमगिउत्तं च । वोक्कसियपेज्जदोसं, च वारिसेणं गयं सिद्धि ।। पइण्णग २४६ समवाओ २५०: ठाणं ७।६४ १०११४४ विमलवाहणे सीमंकरे, सीमंकरे सीमंधरे, सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे।। खेमंकरे खेमंधरे विमल वाहणे । दढधणू दसधणू, संमुती पडिसुते, सयधणू पडिसूई संमुइ त्ति ।। दढधणू दसधणू सतधणू ॥ २५१: प्र०सा० २६३-२६५ : महापउमे सूरदेवे, जिणपउमनाह सिरिसुरदेव, सुपासे य सयंपभे। सुपास सिरिसयंपभयं । सव्वाणुभूई अरहा, सव्वाणुभूइ देवसुय, देवउत्ते य होक्खति ।। उदय पेढाल मभिवंदे ॥ उदए पेढालपुत्ते य, पोट्टिल सयकित्तिजिणं, पोट्टिले सतएति य। मुणिसुब्वय अमम निक्कसायं च । मुणिसुव्वए य अरहा, जिणनिप्पुलाय सिरिनिममत्तं, सव्वभावविदू जिणे ॥ जिणचित्तगुत्तं च ॥ अममे णिक्कसाए य, पणमामि समाहिजिणं, निप्पुलाए य निम्ममे। संवरय जसोहरं विजय मल्लि । चित्तउत्ते समाही य, देवजिण ऽणंतविरियं, आगमिस्साए होक्खइ ।। भद्दजिणं भाविभरहंमि ॥ संवरे अणियट्टी य, विजए विमलेति य। देवोववाए अरहा, अणंतविजए तिय ।। एए वुत्ता चउवीसं, भरहे वासम्मि केवली। आगमेस्साण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा। २५२ : प्र०सा० ४५८-६६ सेणिय सुपास उदए, पढमं च पउमनाहं, पोटिल अणगारे तह दढाऊ य। सेणियजीवं जिणेसरं नमिमो । कत्तिय संखे य तहा, बीयं च सूरदेवं, नंद सुनंदे सतए य बोद्धव्वा ।। वंदे जीवं सुपासस्स ।। देवई च्चेव सच्चइ, तइयं सुपासनामं, तह वासुदेव बलदेवे । उदायिजीवं पणटुभववासं । रोहिणि सुलसा चेव, वंदे सयंपभजिणं, तत्तो खलु रेबई चेव ॥ पुट्टिलजीवं चउत्थमहं ॥ तत्तो हवइ मिगाली, सव्वाणुभूइनाम, बोद्धव्वे खलु तहा भयाली य। दढाउजीवं च पंचमं वंदे । दीवायणे य कण्हे, छठें देवसुयजिणं, तत्तो खलु नारए चेव ॥ वंदे जीवं च कित्तिस्स ।। अंबडे दारुमडे य, सत्तमयं उदयजिणं, साई बुद्धे य होइ बोद्धव्वे । वंदे जीवं च संखनामस्स उस्सप्पिणी आगमेस्साए, पेढालं अट्ठमयं, तित्थगराणं तु पुन्वभवा ।। आणंदजियं नमसामि ॥ पोट्रिल जिणं च नवम, सुरकयसेवं सुनंदजीवस्स। सयकित्तिजिणं दसम, वंदे सयगस्स जीवंति ॥ एगारसमं मुणिसुब्वयं च, वंदामि देवईजीयं । बारसमं अममजिणं, सच्चइजीवं जयपईवं ॥ निकसायं तेरसम, वंदे जीवं च वासुदेवस्स । बलदेवजिणं वंदे, चउदसमं निप्पुलायजिणं ॥ सुलसाजीवं वंदे, पन्नरसमं निम्ममत्तजिणनाम। रोहिणिजीवं नमिमो, सोलसमं चित्तगुत्तंति ॥ सत्तरसमं च वंदे, रेवइजीवं समाहिनामाणं । संवरमट्ठारसम, सयालिजीवं पणिवयामि ॥ दीवायणस्स जीवं, जसोहरं वदिमो इणुगवीस । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो पइण्णग २५८ : समवाओ सुमंगले य सिद्धत्थे, णिव्वाणे य महाजसे । धम्मज्झए य अरहा, आगमिस्साण होक्खइ ॥ सिरिचंदे पुप्फकेऊ, महाचंदेय केवली । सुयसागरेय अरहा, आगमिस्सा होक्ख || सिद्धत्थे पुण्णघोसे य महाघोसे य केवली । कण्हजियं गतं, desi विजयमभिवंदे ॥ वंदे इगवीसइमं, नारयजीवं च मल्लनामाणं । देवजिणं बावीसं प्रवचनसारोद्धार - सप्ततिशतस्थान प्र० सा० २६६-३०२ : अंबजीवस्स वंदेहं || अमरजियं तेवीसं, अनंत विरियाभिहं जिणं वंदे । तह साइबुद्धजीवं चवीसं भद्दजिणनाम || आ० नि० - आवश्यक निर्युक्ति त्रि० पु० - त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र प्रव० सप्त० ४१२ अहुणा भाविजिणिदे, नियामेहि पकिमि || सिद्धत्थं पुन्नघोसं जमघोसं सायरं सुमगंलयं । सव्वट्टसिद्ध निव्वाणसामि, वंदामि धम्मधयं || तह सिद्धसेण महसेण, नाह रविमित्त सच्च सेणजिणे । सिरिचंद दढकेउ, महिदयं दीपासं च || सच्चसेणेय अरहा आगमिस्सा होक्ख ॥ सूरसेणेय अरहा, महासेणेय केवली । सव्वाणंदेय अरहा, देवउत्ते य होक्खइ ।। सुपासे सुव्वए अरहा, अरहेकोले । अरहा अनंत विजय, आग मिस्सा होक्ख || विमले उत्तरे अरहा, अरहाय महाबले । देवानंदे य अरहा, आगमिस्साण होक्खइ ॥ एए बुत्ता चउव्वीसं, एरवयम्म केवली । आगमिस्साण होक्खति, धम्म तिस्स्स देगा | परिशिष्ट १ सुब्वय सुपासनाहं, सुकोसलं जिणवरं अनंतस्थं । विमलं उत्तर मरिद्धि, देवयानंदयं वंदे ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अइबल अइर अइरा अंकलवी अंग अंगुल अंजण अंजणगपव्वय अंजु अंड अंतगडदसा अंतलिक्ख अंतोसल्लमरण अंबड अंबय रुक्ख अकंपिय अकाममर णिज्ज अक्ख अक्खरपुट्ठिया अग्गिउत्त अग्निभूति erforderer अग्गिसप्पभा अग्गिसेण अग्गेणीय अजित अज्ज अट्टालय अटूट्ठपय वर्ग व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति लिपि लौकिक-ग्रन्थ भूमि- मान धातु पर्वत व्यक्ति ग्रन्थ- विभाग ग्रन्थ लौकिक-ग्रन्थ मरण व्यक्ति वनस्पति व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग भूमिमान लिपि व्यक्ति व्यक्ति काल शिबिका व्यक्ति ग्रन्थ व्यक्ति कला गृहवगं ग्रन्थ प्रमाण प्र० २५६।१ प्र० २३५।१ प्र० २२१।२ १८/५ २६/१ परिशिष्ट २ विशेषनामानुक्रम ६/३-८; प्र० १६० प्र० ६६ प्र० ८४|५ प्र० २३३।२ १६/१ १२ प्र० ८८ ६ २६।१ १७/६ प्र० २५२/४ प्र० २३१।२ ११/४ ७८२ ३६।१ ६६॥७ १८/५ प्र० २४८।५ १११४; ४७/२; ७४ । १ ३०/३ प्र० २२४।२ प्र० २४८ । १, ५ १४ | २ | १ ० ११२; ११४ २३।३,४; २४ । १ ७१३; ६० २ ६४/२ ० २१ ४८ ७२/७ प्र० १४४ प्र० १०२; १०३ शब्द अट्ठावय अट्ठिजुद्ध अनंत जोग अण्णविहि अण्णाणियवाइ अणतय अनंत विजय अनंतसेण अणगारमग्ग अणाहपव्वज्जा अणिगण ग्रन्थ अणुओ अणुत्तरोववाइयदसा ग्रन्थ अणुराहा नक्षत्र अण्णउत्थिय अन्य तीर्थिक अतिथियपवत्ताणु- लौकिक-ग्रन्थ अतिपास अतिराणी अत्थिणत्थि पवाय अद्दा अद्धभरह अद्धमागही अपराइय अपराइया अपराजिया अपरातिय अप्पमाय अभयकरी अभिइ वर्ग कला कला व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग ग्रन्थ- विभाग वनस्पति कला अन्य तीथिक व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ नक्षत्र जनपद-ग्राम भाषा व्यक्ति व्यक्ति शिबिका व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग शिबिका नक्षत्र प्रमाण ७२/७ ७२/७ २३ ३,४; २४ । १ ५०।२ प्र० २४५।३ प्र० २५११४; २५८ ५ प्र० २१७।१ ३६।१ ३६।१ १०1८ प्र० १००, १२६ १२ प्र० ८८ ६७ ४७ ७ १०; ८६ ३४।१ २६/१ ७२।७ प्र० ६० प्र० २४८|४ प्र० २३३।१ १४/२/१ प्र०११२, ११६ ११२६; १० ७ १५२४ प्र० २४१ ३४।१ प्र० २४२ । ३; २५७।१ प्र० २४०।१ प्र० २२४।१ प्र० २२६।३ ३६।१ प्र० २२४/३ २७२ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४१४ परिशिष्ट : २ आजीविय अन्य-तीथिक २२।२; ८८१२;प्र०१०६७ अभिचंद अभिणंदण व्यक्ति व्यक्ति प्र० ३५; २१८१ २३॥३,४२४११प्र०१५; २२२ ३०१३ आणंद व्यक्ति काल प्र० २३२।२, २४१।२। २५६०२ ३०१३ ३१०४ अभियंद अभिवडिय अभीजि अमम अमावसा अम्मया काल नक्षत्र व्यक्ति तिथि व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति आणंद आतव आभरणविहि आयंतियमरण आयंसलिवी आयप्पवाय काल काल कला मरण लिपि ग्रन्थ अयल अयलभाय अर ७२।७ १७१६ १८.५ १४।२।२, १६०५ प्र० ११२; ११६ ३०३१२४, २५, प्र०६८ ११२, १८४ २५; ५७११८५१ प्र०५८ २६ आयरिय आयार ग्रन्थ अरि? अरिदृणेमि ३१६; ६५,६ प्र०२५१२३ ६२।१ प्र० २३६१ ५०३; प्र० २४१।२ ११।४; ७२।४ २३॥३, ४, २४१) प्र० २२२, २३६।१ प्र० २३२२२ १०१४, १८१२; २३॥३,४, २४११; ४०१ ५४१२, प्र० १०:४०% ४७, ६१, २२२ प्र०२२५२१ प्र० २२४१२ १४।२।३; प्र० ११२, व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ ५७१ आयारचूलिया आवध आवासपब्वय काल पर्वत अरिवरणेमि अरुणप्पभा अवंझ व्यक्ति शिबिका ग्रन्थ १२३ अवरकंका असंखय असंजल असलेसा असि ३०१३ १७१४; ४२।२, ४३३३ ५२।२, ५७१२, ५८३ ८७।१-४, ८८॥३-६; ६२।३,४६७१६८२ १७१६ १४१७ ७२।७ प्र० २२०१३ १८८२६१ प्र०२३११२ १५।५, ३६।४ मरण चक्रवर्ति-रल कला व्यक्ति १६०२ ३६१ प्र० २४८।३ आवीइमरण आसरयण आससिक्खा आससेण आसाढ आसोत्थ आसोय आहत्तहिय इंगिणि-मरण ग्रंथ-विभाग ग्रन्थ-विभाग व्यक्ति नक्षत्र आयुध नक्षत्र चक्रवति-रत्न मास प्र०६८ ३।११ असिणि वनस्पति मास ग्रन्थ-विभाग मरण व्यक्ति व्यक्ति कला ७२।७ ६८ ३४११; प्र. २३११२,४ प्र०२४२।३ प्र०२४६३१ प्र० २३४११ १७७ प्र०२३२३ ११४१; ६२।२; प्र. २३२।३ असिरयण असिलक्षण असिलेसा असोग असोगललिय अस्सग्गीव अस्ससेण अस्सिणी अस्सेसा अहोरत्त आइच्च आइण्ण आगासपय इंदभूति नक्षत्र वनस्पति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति नक्षत्र नक्षत्र काल काल ग्रन्थ-विभाग ग्रन्थ १०७ ३०१३; ६३।३ ३१०५ १६२ प्र०१०२-१०८ इत्थिपरिणा इत्थीरयण इत्थीलक्खण इसिदिण्ण ईसस्थ ईसर ईसाण उक्खित्तणाय ग्रंथ-विभाग चक्रवर्ति-रत्न कला व्यक्ति कला पातालकलश काल ग्रंथ-विभाग १४१७; प्र०२५५, २५६ ७२।७ प्र० २४८११ ७२२७ ७६२ ३०१२ १६१ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४१५ परिशिष्ट २ उग्ग ग्रन्थ प्र० २२७२ १८५ एगगुण एगट्ठियपय एरवय ग्रन्थ शिबिका ४५३ जनपद-ग्राम प्र०१०२-१०८ प्र० १०२, १०३ ७.५ १४१६; ३४१२ ५४११; प्र० २४८ २५८, २५८७ ४६।२; प्र० २२४।३ ४६२ २५६ ग्रन्थ प्र० १०१ १०५ ३६१ ६६।२ २१५ २७ ४18 १६२ प्र० २५१०२, २५२।१ ओगाहणसेणियापरिकम्म ओवारियालेण ओस प्पिणी गृहवर्ग कालचक्र ३४१ उच्चत्तरिया लिपि उड्डुविमाण उत्तरकुरा शिबिका उत्तरकुरु जनपद-ग्राम उत्तरज्झयण ग्रन्थ उत्तरड्डमणुस्सखेत्त जनपद-ग्राम उत्तराफग्गुणी नक्षत्र उत्तराभद्दवया नक्षत्र उत्तरासाढ नक्षत्र उदगणाय ग्रन्थ-विभाग उदय व्यक्ति उप्पल वनस्पति उप्पाय लौकिक-ग्रन्थ उप्पायपव्वय पर्वत उप्पायपुव्व उमा व्यक्ति उरम्भिज्ज ग्रन्थ-विभाग उवझाय उवसंत व्यक्ति उवसंपज्जणसेणिया- ग्रन्थ परिकम्म उवसग्गपरिण्णा ग्रन्थ-विभाग सवसम काल उवासगदसा ग्रन्थ उसभ व्यक्ति २०१७, २११३, २३६२, ३; ४२१६; ५४३१॥ ८६१, २; प्र०२१६ २१८, २२०-२२२ २२३।४:२३४-२३६) २३८-२४१, २४८, २५० २६१ १७१७,८ १४।२।१,प्र० ११२, ११३ प्र०२३६१ ग्रन्थ ३०११०२४, २५ प्र० २४८।३ प्र०१०१, १०६ ओहिमरण कंचणगपव्वय कक्कसेण कडगच्छेज्ज कडिसुत्तग कणग मरण पर्वत व्यक्ति कला आभूषण धातु कणग कणगवत्थु कण्ह आयुध जनपद-ग्राम व्यक्ति ३६।१ ३०१३ १२२; प्र०८८; १५ ६३।१; ८३।४; ८४१२, १६, १७, ८६१ प्र० २५; २२२; २२४; २२५२१, २२६।२; २३०११, २,२३१३५ २३४११ प्र० ८७ ८४११७; प्र० २२९।३; २३२।१ ३९।२; ६६१ १७६ ५०1७,१००1८ प्र०२१७१ ७२।७ प्र० २४१ प्र० १४६ प्र०२४१ प्र० २४४१ १०१५; प्र० २४१।१ २४३११, २४७११ २५२२३ प्र० २३७४१ प्र० २३४१ २६।४।३७१५,४०७ प्र०२५२।१ उसभसिरि उसभसेण व्यक्ति व्यक्ति कण्हसिरि कत्तवीरिय कत्तिय कत्तिय कत्तिया कप्प कम्मपगडी कम्मप्पवाय व्यक्ति व्यक्ति मास व्यक्ति नक्षत्र ग्रन्थ ग्रन्थ-विभाग ग्रन्थ २६१ पर्वत उसुकार उसुकारिज्ज उस्सप्पिणी ग्रन्थ-विभाग १४।२।२; प्र०११२; १२० प्र० २२०१२ कालचक्र कयवम्म व्यक्ति कला ७२२७ २०१७; २११४; ४२११० ५४।१; प्र० २१७; २४६; २५१, २५२; २५३; २५४; २५६ प्र०२४१ गृहवर्ग कला कवाड काकणिलक्षण कागिणिरयण ८७; प्र० १४४ ७२।७ १४१७ एकावलि कला चक्रवति-रत्न आभूषण Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ४१६ परिशिष्ट २ कला धूपन कायंदी कालागुरु कालोय काविलिज्ज कासवी किरियावादि किरियाविसाल कुंडल ७२७ ७२।२ प्र० २२०१से३२२७।२ १८०५ १८५ कला कुल लिपि लिपि ग्रन्थ-विभाग सुरक्षा-साधन व्यक्ति व्यक्ति वस्त्र प्र०१४४ प्र० २५०११ प्र० २५०11 व्यक्ति गंगा नदी ग्रन्थ ग्रन्थ-विभाग कला कुक्कुडलक्खण कुडभी काल लिपि पर्वत कुरुमई प्राणी जनपद-प्राम प्र० २४४१ खंधावारनिवेस प्र०१४४ खंधावारमाण समुद्र ४२।२६११२ खत्तिय ग्रन्थ-विभाग खरसा हिया व्यक्ति प्र०२३३३१ खरोट्ठिया अन्य-तीथिक प्र०६० खलुंकिज्ज ग्रन्थ १४।२।३; प्र० ११२; १२५ खात आभूषण प्र० २२४।६; २४१ खेमंकर व्यक्ति २३।३,४; २४।१; ३२॥३; खेमंधर ३५।२; ३७१ खोम ८१२; ११३; गंगदत्त ६५।३; प्र० २२२; २३६१ गंडियाणुओम धूपन प्र०१४४ गंथ व्यक्ति प्र० २२०१३; २३२।२,३ गधजुत्ति कला ७२।७ गंधव्व गृहवर्ग "पताका" ३४१ गंधव्वलिवी ग्रन्थ-विभाग १९११ गंधमादण व्यक्ति प्र. २३७।१ गंधहत्थि कुल प्र०६८ २२०१४; गणधर २३२।३:२३३१३; २४१ ग्रन्थ-विभाग वनस्पति ३४११, प्र० २४१ वनस्पति ८.५ पातालकलश ७६२ गृहवर्ग 'ध्वजा' प्र० २४१ गणिपिडग ५२२३,५८/४ प्र०१०२-१०८ गणिय पर्वत ५७३ गणियलिवी ग्रन्थ प्र०१०२-१०८ व्यक्ति प्र० २३६१ गय मरण १०१२! १७६ गया व्यक्ति प्र० २५७।१ गयलक्खण जलाशय प्र०६९ गरुल प्राणी प्र० २४१ गृहवर्ग प्र० १४४ गव व्यक्ति प्र० २३६१ गहचरिय प्राणी २११ गाउय जनपद-ग्राम प्र० २४४११ प्र० २४१ ५०१६ प्र० २४२११,२४३६१ १४१८; २४१५, २५७ प्र० १२७; १२६ १६१ ७२।७ ३०१३ १८५ प्र० २७ १२२; प्र०६७ ८८; १११४; ३७१, ४८१२; ५४।४; ५६।२; ६२।२, ६६।३; ७४११; ८३२२८४११६,८६।१; ६०२,३,६३।१६५।१; प्र. ९२; १२८, २१५ १।२; ५७११; प्र०५८ १२; १३१-१३४ पद कुसीलपरिभासिय कुसुम कूडसामली ग्रन्थ पर्वत ग्रन्थ ७२।७ कला लिपि प्राणी गद्दभ प्राणी आयुध कला केउक के उभूय केउय के उभूयपरिग्गह केकई केवलिमरण केसरि केसरिदह कोंच कोट्य कोरव्य कोलावास कोसंबी कोसेय खंडगप्पवायगुहा प्राणी १८.५ ३०।१।१३ प्र० १६% २४१ प्र० २४१ ७२।७ ३४.१; प्र० २२४१७; २३१६६ ३०।१।१३; प्र० १५० ७२१७ ४१३; २५॥३, ७, ८; १००१६,७,८; प्र०५; १७; १८; २३; २७; ५६:५८, १६१॥ २३११५ प्राणी कला भूमि-मान वस्त्र गुफा Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो परिशिष्ट २ गाम वसति के प्रकार ३०।१।१६,६६।१% प्र०१६६ प्र०२४५२१ गावी ७२१७ गाहा गाहा गाहावइरयण गिद्ध गिद्धपिट्ठमरण प्राणी ग्रन्थ-विभाग कला चक्रवति-रत्न प्राणी मरण कला १४७ चंद (संवच्छर) चंदकता चंदचरिय चंदजसा चंदणा चंददिण चंदप्पह काल व्यक्ति कला व्यक्ति व्यक्ति काल व्यक्ति गीय व्यक्ति गुत्तिसेण गूढदंत गेहागार गोउर गोणलक्षण ३०११।१२ १०६ ७२।७ प्र०२४८।३ प्र०२५४११ १०८ प्र०१४४ ७२।७ व्यक्ति वनस्पति गृहवर्ग कला पर्वत चंदप्पभा चंदसंवच्छर चंदाणण चंदिया चंपय चक्क शिबिका काल व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग वनस्पति आयुध गोथुभ व्यक्ति गोथुभ गोथुभ गोधुभ रत्न चक्कजोहि चक्करयण योद्धा चक्रवति-रत्न पर्वत चक्कलक्खण कला चक्कवट्टि राजा-प्रकार ७२।५; प्र० १४१ १४३, १४६ ५६१ प्र०२१६ ७२।७ प्र०२१६ प्र०२३३२३ २६८ ३।२१:२३॥३,४,२४१३ ६३।१; प्र० २२२ २२४१२,३ ७१।१ प्र०२४८।१ १६१ प्र०२३११३ ३४११; प्र० २४१, २४६।२ प्र० २४६; २५७ १४१७ ७२१७ १।२; १४१७; २३।४ ३४।२; ४८।१; ५४११ ६४१६; ६८।३, ६ ७१।४; ७२।६, ७७१, ८३१५; ८६०३,६६१ ६७।४; प्र० २२; २६; ८१; २३४; २२४१२; २३५-२३७, २५४; २५५; २५८ प्र०६२ प्र०२३२।२ प्र०८२ प्र० २१६१ प्र. २१८१ प्र० २३२॥१ ३३०२ १४७ ७२।७ ३६१ प्र०१४४ ३६।१ गोयम ८७. १८८३,६२३; ९७१; ६८२ प्र०२३२२२ प्र०२४१ ४२।२; ४३३; ५२।२; ५७।२५५३ ६७१३;प्र०१४१:१४३; १४४; १४६; १४८१५१; १५३-१५६; १५८-१६०; १६२, १६४-१६७; १६६; १७२-१७७; १७६; १८१; १८३; १८४; १८६-१८८; १९० १९६-१९८; २०६२११ व्यक्ति राजा-प्रकार व्यक्ति राजा-प्रकार व्यक्ति गोयमकेसिज्ज गोयमदीव गोसीस घणोदहि घर चउप्पय चंद ग्रन्थ-विभाग द्वीप विलेपन समुद्र व्यक्ति गृहवर्ग प्राणी ६६२ प्र० १४४ २०१३; ७६।३; ८६।३ प्र०६० ३४१ ८।६; 81५, ६, १२३; ३२।२; ४२।४; ४५७; ५६।१ ६२।३, ६६३१, २ चक्कहर चक्काउह चक्कि चक्खुकंता चक्खुम चमर चमरचंचा चम्मरयण चम्मलक्खण चरणविहि चरिय चाउरंगिज्ज व्यक्ति जनपद-ग्राम चक्रवति-रत्न ग्रह . कला ग्रन्थ-विभाग गृहवर्ग ग्रन्थ-विभाग For Private & Personal use only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्रो चार चारु चित्तउत्त चित्तग चित्तकूट चित्तरस चित्तसंभूय चित्ता नक्षत्र चुयाचुय सेणियापरिकम्म ग्रन्थ चुलणी व्यक्ति चुल्ल हिमवंत पर्वत चूलिया चेइयरुक्ख चेत्त छउमत्थमरण छत्तरयण छत्तलक्खण छत्ताह छरुप्पराय जंत जंबु जंबुद्दीव जंबूदीप जक्खिणी जणपय जणवाय जण्णविज्ज मईय जमग कला व्यक्ति व्यक्ति वनस्पति पर्वत वनस्पति ग्रन्थ-विभाग ग्रन्थ वनस्पति मास मरण चक्रवति रत्न कला वनस्पति कला आयुध वनस्पति द्वीप द्वीप व्यक्ति वसति प्रकार कला ग्रन्थ-विभाग ग्रन्थ-विभाग पर्वत ७२/७ प्र० २३२।१ प्र० २५१३ १०१८ प्र० ५७ १०/८ ३६।१ १।२७; ८; १०१७ प्र० १०१, १०८ प्र० २३५।१ ७१४; २४।२; १००१७; प्र० ३२ प्र० १०० १३० ८३; प्र० २३१; २३१।३-६; २५३ १५।५; ३६/४ १७/६ १४।७ ७२।७ प्र० २३१।१ ७२/७ प्र० १४४ ८४० २३१ २ ४१८ १।२२; ८६ 15; ११।३; १२ ७ १४१८; १६१२,४; २३।२-४; ३४।२-४; २७/२; ४२।२; ४३१३; ५६।१ ; ६५ | १, ७६ ४ ८० ७; ८२ ।१ ० ६ २१६२१८; २२०-२२२; २३४-२३६; २३८ २४१; २४८-२५१; २५४; २५६; २५८ १२ ७ प्र० ७६; ८२ प्र० २३३।३ प्र० ६३ ७२/७ ३६।१ १६।१ प्र० ५६ जयंत जयंती जयंती जय जया जरासंध जलयर जवणालिया जस जसम जसवती जाला जियसत्तु जियारि जीवाजीवविभत्ती जुग जुग जुगबाहु जुत्तिसेण जुद्ध जुद्धातिजुद्ध जय जूय क जेट्ठा जोइ जोगाणुजोग जोयण व्यक्ति शिबिका व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति प्राणी लिपि व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग काल भूमिमान व्यक्ति व्यक्ति कला कला कला पातालकलश नक्षत्र नक्षत्र वनस्पति लौकिक-ग्रन्थ भूमि- मान परिशिष्ट २ प्र० २५६।२ प्र० २२४ । १ प्र० २४०।१ प्र० २२६ २ २३६।२ प्र० २२१।१; २३७।१ प्र० २४६।१ १३/५ १८/२ प्र० २२३।२; २४१ प्र० २१८ ।१ प्र० २३५।१ प्र० २३५।१ प्र० २२०।१ प्र० २२०११ ३६।१ ६१।१; ६२1१; ६७।१; ६ ६ प्र० २२३२ प्र० २४८।२ ७२/७ प्र० २४१ ७२/७ ७२/७ ७६१२ ६८/७ ३८, १६, १५४ १०१८ २६/१ १।२२-२५; ४।६; ८१३-६, १७, १०१ १०१३; १११२,३; १२४ ६,७,१०१ १३१३,८१ १४/६ १६।६,७१ १७१३-८१ १८/७१ १६/२; २०१३; २४१२; २५ ३; २७१४; ३१।२, ३ ३३१३,४; ३४११; ३५/५; ३६।२; ३७/२, ३; ३८।२,३; ४०१२; ४२।२; ४३ | ३; ४५/१, ५०१४,६,७६५२१२१ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो परिशिष्ट २ काल तट्टव तब्भवमरण तरुणीपडिकम्म तवणिज्ज तवोमग्ग तारय तिगिछिकूड तिगिछिद्दह तिगिच्छ तिगुण तिट्ठ तित्थंकर तित्थकर मरण कला धातु ग्रन्थ-विभाग व्यक्ति पर्वत जलाशय जलाशय ग्रन्थ ५३३१,२,५५।२;५७।२, ५; ५८।३; ६१।२; ६४।४; ६७।२, ३, ६९२; ७३।१; ७४१२; ७६१, ३,४; ८०१५, ७; ८२।३; ८४१७-१०; ८५।२,४; ८६।३; ८७।१-४,६; ८८।३-६; ६०१५; ६१२;६२।३; १४।१; ६५२; ६७१ १८।१,२,४; ६६१-७; १००७,८; प्र. ५) ८; ११, १७, १८, २३, २४, २७-३२; ३८; ४१; ४३; ४४; ४६; ४८; ४६; ५२; ५३; ५५; ५६; ५८; ५६; ६३; ६४; ६७७०; ७२-७७; ७६; ८०, ८२,१४१,१४३; १४४; १४८-१५०, १६० काल ३०३ १७8 ७२।७ प्र०१४६ ३६१ प्र०२४६११ १७१७ ७४।२ प्र०६६ प्र०१०२-१०८ ३०१३ ३४१४ १२; १९४५:२३।३,४; २४। १ ५४११; प्र० ८६, ६२ ६७; ६८; २२०-२२२; २२३।४; २२४; २२४॥ १; २२६; २३१-२३३; २४८, २५१, २५२; २५२।४; २५३; २ण तिमिस्सगुहा तिरीड तिलय तिलय तिलय ठाण ग्रन्थ ११२,५७११, प्र०८८% गुफा आभूषण आभूषण वनस्पति व्यक्ति व्यक्ति ८१ प्र० २४१ प्र० १४६; २४१ प्र० २३११२ प्र० २५७।१ ८००२, ४ ८४१५; प्र० २४१।१; २५६।२ प्र० २२१२२ डाय णद वनस्पति व्यक्ति व्यक्ति तिविठ्ठ णंदण तिसला तुंब व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग वनस्पति णंदिरुक्ख वनस्पति णक्खत्तमास काल धूपन णग्गोह वनस्पति ३३।१ प्र० २५२।१; २५६१ ३५।४; प्र० २२३।४; २४१।२२५६०२ प्र०२३१२ २७३, ६७।१ प्र० २३११ ३२१६; ७२।७ प्र० ६११ १५।२,२३॥३,४,२४।१; ३९।१,४१११; प्र०२२२ प्र०२२४१२ प्र०२३१११ प्र० ८८; ६४ प्र० २२४१३ प्र०६६ तुडिअंग तुरुक्क तेंदुग तेत्तली तेरासिय वनस्पति ग्रंथ-विभाग अन्य-तीथिक कला जलाशय व्यक्ति णदी णमि तोरण थूभिअग्ग थूभियाग गृहवर्ग गृहवर्ग १०१ प्र०१४४ प्र० २३१०२ १६२ २२१४; ८८।२; प्र० १०६; १११ प्र० १४४, २३११६ १२।१० प्र०१४६ ३०१२; ४७।२; ६५२२; ७२।२; ७४११; ७८।२३ ८३३३; ६२।२; ६५ १००५ गृहवर्ग णागदत्ता णागरुक्ख णायाधम्मकहा णिव्वुतिकरी शिबिका वनस्पति ग्रन्थ शिबिका थेर धातु Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४२० परिशिष्ट २ दंड दंडजुद्ध दंडरयण दंडलक्षण दगमट्टिय दढधणु दढरह दढाउ भूमिमान कला चक्रवति-रत्न कला कला व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति देवउत्त देवकुरु देवकुरु देवसम्म देवाणंद व्यक्ति जनपद-ग्राम शिबिका व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति देवी दत्त दोभाकर दोसऊरिया धणदत्त धणिट्ठा धणिला धणु कला लिपि व्यक्ति नक्षत्र व्यक्ति भूमि-मान दधिमुह दधिवण्ण दसधणु दसरह पर्वत वनस्पति व्यक्ति व्यक्ति प्र० २५१११, २५८।४ ४६।२, ५३।१ प्र० २२४१३ प्र०२४८१२ प्र० २५८।६ प्र०२२२२, २३५१ २३७११ ७२।७ १८५ प्र०२४२।१ ५२१३ प्र० २३३।२ १०।४-६; १५।२; २०१२;२५।२; ३०।४; ३५।२-४; ४०।३; ४५।५; ५०।२, ३; ६०१३;७०।३; ८०१३; ६०११; ६६।४; १००।३; प्र० १,४; ७६; १३, १५, १६; २१, २२, २५, २६, ३५; ५१; २३११४ ७२।७ प्र० २२६।३ ग्रन्थ लिपि दसा दामिली दार दारुमड दावद्दव दाहिणड्डभरह दाहिणड्डमणुस्सखेत्त दिदिवाय ९६३ ७२।७ १४७ ७२।७ ७२।७ प्र० २५०।१ प्र० २१७ प्र० २५२।१ ३५३; प्र० २४१११; २४६१ ६४१४ प्र० २३११२ प्र० २५०।१ प्र० २१७११, २२०% २३८१ २६३१ १८५ प्र० १४४ प्र०२५२१४ १६२ प्र०७४ ६६३१ १।२; २२।२; ४६।१; ८८।२;प्र०८८; १००, ११३ प्र० २२३।२; २२६।३; २३२।२, ३ १०८ प्र०२५२।३ प्र० २५४११ प्र० २२३।२; २५६।१ २५।३; १००६ प्र० १०२-१०८ ३४।१ प्र०२४३०१ ३६.१ २२; प्र० ८८६२; १३१-१३४ प्र० २४१।१; २५६।२ प्र० २२६।१ प्र० २३६।१; २५२।२ गृहवर्ग व्यक्ति ग्रंथ-विभाग जनपद-ग्राम जनपद-ग्राम ग्रंथ धणुव्वेय धन्न दिण्ण व्यक्ति दीव दीवायण दीहदंत वनस्पति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति पर्वत धम्मज्झय धम्ममित्त धम्मसीह धम्मसेण धर धरणि धरणिधरा धातुपाग धायईसंड कला व्यक्ति ग्रंथ-विभाग व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति कला जनपद-ग्राम दोहबाहु दीहवेयड्डपव्वय दुगुण ग्रंथ ૪૨ प्र० २२३३१, २२९१ प्र० २२३३१, २२६३१ प्र० २४२।३ प्र० २२०११; २४८४ प्र०२३३६१ प्र० २३३।१ ७२।७ ६८११, २, ८५२ प्र०७६; ८२ प्र०२३११३; प्र०२३३।१ १५॥३ प्र० १४४ प्र० २४१ २६६० दुप्पय दुमसेण दुमपत्तय दुवालसंग प्राणी व्यक्ति ग्रंथ-विभाग ग्रंथ धायइरुक्ख धारणी धुवराहु धूव वनस्पति व्यक्ति ग्रह धूपन दुविठ्ठ दूस व्यक्ति वस्त्र व्यक्ति नंदग आयुध देवई नंदण पर्वत Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ४२१ परिशिष्ट २ वन व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति शिबिका प्र०२३४१२ प्र०२२४२ १८१ वन पंचवण्णा पंचवण्णा पंडयवण पंडितमरण पक्ख पक्खि ग्रंथ नंदणवण नंदमित्त नंदा नंदावत नंदिसेण नंदीफल नगर नगरनिवेस नगरमाण नमिपव्वज्जा १७३ मरण काल प्राणी ग्रन्थ वसति-प्रकार पच्चक्खाण पट्टण पडागा गृहवर्ग नयन व्यक्ति ग्रंथ-विभाग वसति-प्रकार कला कला ग्रन्थ-विभाग राज-कर्मकर नदी ग्रन्थ व्यक्ति ग्रन्थ व्यक्ति व्यक्ति नदी भूमिमान कला पडिचार पडिदुवार पडिरूवा पडिवूह ८५।४६८।१६६।२,३ प्र० २५६।१ प्र०२२१११ प्र० १०२-१०८ प्र०२४८११ १६२ प्र० ६४-६७; ६६; १४८ ७२।७ ७२।७ ३६१ ३०।१।१० १४८ १४।२।१, प्र० ११२, प्र०२१८११ श२ प्र० २५२।३ प्र० २४१४१ १४८ ६६५ ७२।७ ७२।७ ७२।७ १८.५ प्र०२५१०३ प्र०२५१३ १६.१ ७४, ६३।३, ७४१२, ६४।१, प्र० १७, १८, कला गृहवर्ग व्यक्ति कला व्यक्ति पडिसूइ ग्रन्थ नरकंता नाणप्पवाय नाभि नायधम्मकहा नारय नारायण नारिकता नालिया नालियाखेड्ड निजुद्ध निज्जीव निण्हइया निप्पुलाय निम्मम निरयविभत्ती निसढ ग्रन्थ पण्हावागरण पण्हावागरणदसा पत्तगच्छेज्ज पत्तच्छेज्ज पति कला कला लिपि व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग पर्वत पभावई पभास पमायठाण पयावती परिकम्म परीसह पलंब पवत्तिणी कला कला परिवार-सदस्य व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग व्यक्ति ग्रन्थ ग्रन्थ-विभाग काल पद प्राणी व्यक्ति लिपि कला मरण ३४|१ १४।२।२; प्र० ११२,१२ ४८१ ३४।१; प्र० १४८; १४६; २०२; १३१६६ ७२।७ प्र० १४४ प्र० २५०।१ ७२।७ प्र० २५०११ ११२; प्र० ८८८ प्र०६८ ७२१७ ७२।७ प्र०२१६१ प्र० २२११२ ११४ ३६१ प्र०२३८१ प्र० १००; १०१, १०६ ३६१ ३०३ प्र० १२८ ६।१,२, २५६१, ३४११ प्र० २४६।१; २५७।१ १८.५ ७२।७ १७॥ ३७१३; प्र०११ प्र० २३१२ प्र०१०२-१०८ ७२।२ १४।२।३; प्र० ११२ १२७ ३०।११३,२० ३४११ पसु निसहकूड निसुंभ नीलवंत पर्वत व्यक्ति पहराय पहराइया पहेलिया पाओवगमणमरण पर्वत पउम व्यक्ति सुरक्षा-साधन वनस्पति प्र० ४६ प्र० २४६।१ ७४, ६३।४, प्र० १७, १८, ५४ प्र० २२६।२, २४१।२, २५४।२, २५६।२ प्र०६४ २३३-४, २४।१, प्र० ७, २२२ प्र०२४७११ प्र०२२११२, २३३३२ प्र०२३४२ पागार पाउल पाढ पाणविहि ग्रन्थ पउमद्द पउमप्पभ जलाशय व्यक्ति कला पाणाउ ग्रन्थ पउमसिरि पउमा पउमुत्तर व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति पाणि पायव प्राणी वनस्पति Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानों ४२२ परिशिष्ट २ यान पालय पावसमणिज्ज पास ग्रन्थ-विभाग व्यक्ति पुरोहियरयण पुतगय पुव्व चक्रवति-रत्न ग्रन्थ ग्रन्थ १४१७ प्र० १००; ११२; १२६ १३।६; १२६ १६।५; १८१६; २०१६; २५।६; प्र० ११-१२६ २।४ नक्षत्र नक्षत्र नक्षत्र २१६ ४८ नक्षत्र पियंगु पियदसण पियमित्त पियय पियर वनस्पति व्यक्ति व्यक्ति वनस्पति परिवार-सदस्य पुज्वाफग्गुणी पुव्वाभद्दवय पुवासाढ पुस्स पेढालपुत्त पोंडरीय पोंडरीय पोक्खरकणिया पोट्टिल व्यक्ति ग्रंथ-विभाग वनस्पति गृहवर्ग व्यक्ति जनपद-ग्राम पोयण पोरिसी काल पिलखुरुक्ख पुंडरीय वनस्पति वनस्पति ११२४ ३६।१ ८८; १४; १६।४; २३।३,४; २४११; ३०।६; ३८।१; ७०१२; १००।४; प्र० १४; ३४; ६२, ६३, ६६; ७८, २२२; २२७।१; २२८१ प्र०२३१११ १६।३३१ प्र० २४२११ प्र०२३१११ प्र०६४-६७; १९ २२०१४; २३४; २३८; २५३; २५५, २५६; २५६ प्र०२३१११ १८।१५; २३।१; प्र० १४६; २४१; २४१।१ प्र०६४ ७२१७ ७२१५ प्र० १०१; १०४ प्र० २२६; २४२।१ ५।१० प्र०२५८३ प्र० २२६२ ४०१६ ४०१७; ६२१ ३४११ प्र०२५८१ प्र०२३३२ ७५।१;८६।१; १००३ प्र०२३३२ प्र० २४१ ७२।७ पोरेकव्व पोलिंदी कला लिपि मास व्यक्ति पुंडरीयद्दह पुक्खरगय जलाशय कला पोस फग्गु पुक्खरद्ध द्वीप मास फग्गुण फल फलिह बंधु २०१७ प्र०२५११२ १६२ ११२; प्र०६५ प्र० १४४ प्र० ८६; २५१।२; २५२।१ प्र० २४४११ २७१६,३६।४,३७५ ४०१६ ७२।७ १८.५ १८१८ २९५ प्र० २३३१ २६।६; ४०१६ ३०।११६ प्र. १४४ प्र०२३३१२ ३०१३ प्र० २३८।१ प्र०२२६१% २३६२ ८८ १८।५; ४६।२ ८४१३; प्र०२३३१२ प्र० २३४।२ प्र० २६) ६० १०१६; १२।५,३५।४ ५११४; ५४।१,६८।३, ६, ७३।२; ८०३ प्र० २३०; २४०१ २४२।१; २५२।२! २५६; २५७, २५६ प्र०२५६१ पुटठसेणियापरिकम्म ग्रन्थ पुणब्बसु व्यक्ति पुणब्बसु नक्षत्र पुण्णघोस व्यक्ति पुण्णणंद व्यक्ति पुण्णमासिणी तिथि पुणिमा तिथि पुप्फ वनस्पति पुप्फकेउ व्यक्ति पुप्फचूला व्यक्ति पुप्फदंत व्यक्ति व्यक्ति पुरिसपुंडरीय व्यक्ति पुरिसलक्षण पुरिसविज्जा ग्रन्थ-विभाग पुरिससीह व्यक्ति पुरिसुत्तम व्यक्ति पुरिसोत्तम व्यक्ति बंभ बंभ बंभदत्त बंभयारि बंभी बंभी वनस्पति सुरक्षा-साधन व्यक्ति काल व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति लिपि व्यक्ति व्यक्ति पर्वत व्यक्ति बम्ह बलकूड बलदेव पुप्फवंती कला ३६१ प्र० ८५; २४१३१ प्र०२४१ ५०१२ बलभद्द व्यक्ति Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो बलि बहुल बहुलपक्ख बारवई बहुसुयपूया बालपंडितमरण बालमरण बाहुजुद्ध बाहुबलि बुद्ध B भज्जा भत्तपच्चखाणमरण – རྨ भद्दवय भयाली भरणि भरह भवण भाणु भारह भारिया भावियप्पा भिंग भिसय भीम भीमसेण भुयपरिसम्प भूमइ भाग भोगवइया भोम भोम मंगला मंडलियपव्वय मंडलियराय मंडिय मंडियपुत्त व्यक्ति व्यक्ति पक्ष जनपद-ग्राम ग्रंथ - विभाग मरण मरण कला व्यक्ति व्यक्ति परिवार - सदस्य मरण व्यक्ति मास व्यक्ति व्यक्ति नक्षत्र व्यक्ति गृहवर्ग व्यक्ति जनपद-ग्राम परिवार सदस्य काल वनस्पति व्यक्ति कुल व्यक्ति व्यक्ति काल प्राणी लिपि गृहवर्ग लौकिक-ग्रंथ व्यक्ति पर्वत राजा प्रकार व्यक्ति व्यक्ति प्र० २४६ । १ प्र० २२६।३ १५/३; ६२/३ प्र० २२५।१ ३६।१ १६६ १७/६ ७२।७ ८४ | ३ प्र० २४८।२ प्र० २४५|२ १७/६ प्र० २४१२ २५६।२ २६/३ प्र० २३५ | १ ; २३७।१ ; २४०।१ प्र० २५२/३ ३।१२ ७७|१; ८३|५; ८४ | ३ ; प्र० २६; ८१ २५४ । १ प्र०६१।१; १४४ प्र० २२०१२ २३ २ ० २१६-२१८; २२०; २२१ प्र० २१६ ३०/३ १०१८ प्र० २३२/३ प्र० प्र० २५७।१ प्र० २५७११ ४२।५ ३०/३ ४२३ प्र० २२७/२ १८/५ ६६; ३३।२; ६५/३ २६/१ प्र० २२१।१ ८५|३ २३१४ ११।४ २०१२; ८३1३ मंडुक्क मंतगय मंता जोग मग्ग मघव मच्छ मणि मणिअंग मणिपाग मणिरयण मणिलक्खण मसखेत्त मणुस्ससेणियापरिकम्म ग्रंथ प्राणी मणूस मणोरमा मोहरा मत्तंगय मधुसित्थ मरण मरुतवसभ मरुदेव मरुदेवा मरुदेवी मल्लि मल्लि महसिह महसेण महाघोस महाचंद महाजस महा महापउम महापउम महापुंड महाबल महाबाहु ग्रंथ - विभाग कला लौकिक-ग्रंथ ग्रंथ-विभाग व्यक्ति प्राणी रत्न वनस्पति कला चक्रवर्ति-रत्न कला जनपद-ग्राम शिबिका शिबिका वनस्पति कला मरण प्राणी व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति ग्रंथ - विभाग व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति नक्षत्र जलाशय व्यक्ति जलाशय व्यक्ति व्यक्ति १६/२ ७२/७ २६/१ १६।१ परिशिष्ट २ प्र० २३६ । १ £15 ६४ | ६ ; प्र० ८ १४६ 2015 ७२/७ १४/७ ७२/७ प्र० १६६ प्र० १०१, १०३ १५ ७४७११ प्र० २२४ | ३ प्र० २२४ | ३ १०/८ ७२/७ १७/६८६११, २१ प्र० ६३ ६४ ६६ प्र० २४१ प्र० २१८ ।१ २४८ | ४ प्र० २२१।१ प्र० २१६।१ २३३, ४ २४५१; २५|२ ; ५५।१ ; ५७३४; ५६ ३; प्र० २२२ २२७|१; २२८।१ १६/१ प्र० २३८।१ प्र० २२०११ प्र० २१६।१; २५८ । ३ प्र० २५८।२ प्र० २५८ ।१ ७७ प्र० ६७ प्र० २३६।२; २५१।१; २५४|२ प्र० ६७ प्र० २५६।१ २५८ ।१ प्र० २५६।१ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाश्री महाभद्द महाभीम महाभीमसेण महाविदेह महाविमाण महावीर महावीरत्थु महासेण महाहरि महाहिमवंत महिददत्त म महुरा माउयापय मागंदी माहिया माणुसुत्तर मायर मालि मास माहिंद महिंदर माहेसरी मिढयलक्खण व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति जनपद-ग्राम शिबिका व्यक्ति ग्रंथ - विभाग व्यक्ति व्यक्ति पर्वत व्यक्ति व्यक्ति जनपद-ग्राम ग्रन्थ ग्रन्थ-विभाग कला पर्वत परिवार सदस्य वनस्पति काल काल व्यक्ति लिपि कला १६।१३ प्र० २५७।१ प्र० २१७।१ ७१५; ३३३ ३४५२ १॥२५; १२1१०; ३३।११; ५३।३ ११२; ७१३; १४५४; १८।३; ३०१७; ३३।११; ३६/३; ४२|१ ; ५३।३ ; ५४|३ ; ५५|४; ७०११ ७२/३ ८२२; ८३१; ४२४ २०१२ २०; ३८ ३६ ४५ ८६; ८७ १६।१ प्र० २५८।४ प्र० २३४।२ ७ ४ ५३ २ ५७ ५; ८२/३ ८७।६ प्र० ५; ४१ प्र० २२६/२ प्र० २४६ । १ प्र० २४४ । १ प्र० १०१; १०३ १६।१ ७२/७ १७/३ प्र० २२१; २३५; २३९; २४०; २४०११ ; २५३; २५५ २५६; २५६ प्र० २३१।१ १५५; १८१८ २१।१; २६/२-७; ३१।४,५; ३६ ४ ७०११ ८८७, ८८६ प्र० १८१ ३३॥३ प्र० २२३।२ १८७ ७२/७ मिगचारिया मिगसर मिगालि मित्त मित्तदाम मियावई महिलपुरी मुट्ठिजुद्ध मुणिसुन्वय मुत्ता मुत्तालि मुसल मुसल मुसुंढि मुहुत्त मूल मूल पढमाणुओग तज्ज मेरय मेरा मेरु मेह मेहरह मोक्खमग्गगई मोरियपुत्त रई रक्खस रक्खिया रत्तवत्ती रत्ता रम्मयवास ग्रन्थ-विभाग नक्षत्र व्यक्ति काल व्यक्ति व्यक्ति जनपद-ग्राम कला व्यक्ति रत्न आभूषण भूमिमान आयुध आयुध काल नक्षत्र ग्रन्थ व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति पर्वत व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग व्यक्ति व्यक्ति काल व्यक्ति नदी नदी जनपद-ग्राम परिशिष्ट २ ३६।१ ३।६ प्र० २५२।३ ३०/३ प्र० २१६।१ प्र० २३६।१ प्र० २४४।१ ७२।७ २०१२; २४|११ प्र० २२२ २५१/२ ६४।६ २५७,८७४/२ ૬૬ प्र० १४४; १४१ प्र० १४४ ६।५; १५४४,५; १८१८ २३१२; २६१८; ३०१३ ४५/७६०११; ७७४; ८८७,८ २३।३,४; ५०/१; १८५६ प्र० १७६; १८३ १०१३,७१ १२३६, ७, १००१८) प्र० २४६।१ प्र० २३५।१ १६।३।१ १११५; ५०/४; प्र० २४; २८ ५६ ५८ ५६ प्र० १२७ १२८ ११1४ प्र० २२०।१ प्र० २२३१३ ३६।१ ११/४ ६५ २ ५५ प्र० २३३।१ ३०/३ प्र० २३३|१ १४१८ २४ ६ २५८ १४/८ २४।६; २५६ ६३/३ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ४२५ परिशिष्ट २ रयणि रहनेमिज्ज रहस्सगय राइण्ण राम भूमि-मान ग्रन्थ-विभाग कला कुल व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति समुद्र कला ग्रन्थ-विभाग प्र० २३७।१; २३६१ प्र०२२३१२ प्र० २४२११ १४।८3; ६५।२,३ ७२१७ लेह कला रामा राय व्यक्ति राजा-प्रकार ग्रन्थ व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति मास वनस्पति लौकिक-ग्रन्थ पर्वत रायगिह रायललिय रायहाणी जनपद-ग्राम व्यक्ति वसति-प्रकार वट्टखेड्ड ७२७ १४।२।३; प्र० १२२ प्र०२५७११ प्र०२५७११ प्र० १२२।३ २६/७ प्र० २३१३ २६१ प्र०१८; २३, २७, २८ प्र २३२।१ ७२।७ २०१५, प्र०५८ १४१७ प्र० २०३, २१२ प्र०२५६०२ ७२।७ ७२७ २३॥३, ४, २४११३ प्र०८७, २२२॥ २३११४ व्यक्ति कला पर्वत चक्रवर्ति-रत्न वनस्पति ७।३; ६।४; प्र० १६६ लच्छिमई ३६१ लट्ठबाहु ७२।७ ललियमित्त प्र० २२७।२ लवणसमुद्द १०१६; १२५ लेणविहि प्र० २४१; २४१।२; लेसज्झयण २४७।२,३; २५६; २५६ प्र०२२१११ लोगबिंदुसार १४१७; १७१८२०१४; लोहजंघ ४८११; ६४१३,६; वइरजंघ ७११४; ७२।६; ७७१, वइरणाभ २; ८३१५; ८६३ वइसाह ६६।१६७/४;प्र०२२; वउल २६; ८१, ६४-६७; वंजण १६; २१०१३; २३४।२; वक्खारपव्वय २४१ प्र० २४४११ वज्जणाभ प्र० २४२।३ १२।४; ३३१२; ३७।३; वट्टवेयड्डपव्वय ६८११,४ बड्डइरयण प्र०२४६११ वणप्फइ वहि ७२।७ ३०१३ वत्थुनिवेस १४८ वत्थुमाण ७।४; ५३१२; ५७/५; वद्धमाण प्र०५ प्र० २२३३३ १७८ २५ वरदत्त ७२१७ वरुण ३२।५ प्र० १५१०२ वलायमरण ३०१३ ववहार प्र० २३८१ वसट्टमरण १४१८ वसिट्ठ १४१८ वसुंधरा १४% वसुदेव प्र०२४०११, २५२।२।। वसुपुज्ज ५९ वाइय २६१ वाउ प्र०२२१११ वामा रावण राहुचरिय रिसभ रुप्पकूला रुप्पि कुल व्यक्ति कला काल नदी पर्वत कला कला व्यक्ति हप्पि वप्पा स्यगिंद रुयय व्यक्ति पर्वत पर्वत कला नक्षत्र व्यक्ति रूव प्र. २२१०२, २३॥ प्र० २२६, २३२॥३ ३०१३ ७६१ १७४६ वड वलयामुह रेवई काल व्यक्ति व्यक्ति काल पातालकलश मरण ग्रन्थ मरण व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति २६१ रोहिअंसा रोहिअंसा रोहिया रोहिणी रोहिणी लक्षण व्यक्ति नदी नदी नदी व्यक्ति नक्षत्र लौकिक-ग्रन्थ व्यक्ति १७६ ८८ प्र०२३७११ प्र०२३८१ प्र० २२०१२ ७२७ कला काल व्यक्ति लक्खणा ३०१३ ५।१६) प्र० १४६ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४२६ परिशिष्ट २ विदन्भ विप्पजहणसेणिया- व्यक्ति ग्रंथ प्र० २३२।१ प्र० १०१; १०६ परिकम्म वायावच्च वायुभूति वाराह वारिसेण वारुणी वासधरपव्वय काल व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति पर्वत विपुलवाहण विमल व्यक्ति व्यक्ति विमलघोस विमलवाहण व्यक्ति व्यक्ति वासुदेव व्यक्ति ३०॥३ प्र०२३२२२, २४२।३ प्र० २३२।२; २४२।३ प्र०२४८५ प्र०२३३११ २४।२; ५३।२; ५७१५ ६६।१; ७४१२; ८८।३; १००।७, प्र०५; १७, १८, ३२, ४१% ४६%3 ५३ १०१५; ३५॥३; ५०।३; ५४।१; ६८३;, ६; ८०।२, ४, ८४।५; ६०४; प्र० ८५; २३८; २३६; २४२२४६; २५२, २५६; २५७; २५६ २३॥३,४; २४११; ६२।२; ७०।३; प्र० ३६; २२२; २२६३१% २२८।१ १०४ २६१ शिबिका विमला वियाह वियाहपण्णत्ति प्र०२५४ २३॥३, ४; २४११ ४४।२; ५६।२; ६०१३; ६८७? प्र० २२२; २२३।१; २५११४; २५८६ प्र०२१६२ प्र०५१; २१८।१; २२३।१; २५०।१; २५४।२ प्र०२२४१२ प्र०६३ १।२; ८१॥३, ८४१११; प्र०८८ १२; प्र० ८८, ९६ प्र० २४२।२ प्र० २२४१३ ५११२ प्र० २४२।१ प्र० २२०।२; २३४१ प्र०२२७११ १४।२।१; प्र० ११२; ११५ ग्रंथ वासुपुज्ज व्यक्ति विवागसुय विसनंदी विसाला विसाहा विस्सभूइ विस्ससेण ग्रंथ व्यक्ति शिबिका नक्षत्र व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति विअत्त विकहाणुजोग विचित्तकूट विजय व्यक्ति लौकिक-ग्रन्थ पर्वत व्यक्ति वीर वीरिय वीससेण वीससेण विजय विजया विजया काल जनपद-ग्राम व्यक्ति ७३।२; प्र० २२०॥३; २२९।३; २३४।२; २४१।२; २५११४; २५६०२ ३०१३ १२।४ प्र० २२१।१; २३७।१; २४०११ प्र०२२४११ ७२।७ २६१ १४।२।३; प्र० ११२; वेजयंती वेजयंती वेडस विजया विज्जागय विज्जाणुजोग विज्जाणुप्पवाय शिविका कला लौकिक-ग्रन्थ व्यक्ति काल कला शिबिका व्यक्ति वनस्पति अन्य-तीथिक लिपि ग्रंथ-विभाग काल मरण कला व्यक्ति व्यक्ति आयुध प्र० २२६३ ३०३ ७२।७; प्र०६० प्र० २२४११ प्र०२४०१ प्र० २३११३ प्र०६० १८५ १६३१ ३०१३ १७६ ७२।७ प्र०२५६२ प्र० २२३।४; २५२।१ प्र० २४१ वेणइयवाइ वेणइया वेयालिय वेसमण वेहायसमरण सउणरुय संकरिसण संख संख ग्रन्थ १२२ पर्वत प्र०२७ विज्जुप्पभ विणयसुय विणीया ग्रन्थ-विभाग जन्पद-ग्राम व्यक्ति ३६।१ प्र० २२५११ प्र० २२०१२, २२१११ विह Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ४२७ परिशिष्ट : १९१ सयंभु व्यक्ति संघाड संजइज्ज संभूत ३६१ ग्रंथ-विभाग ग्रंथ-विभाग व्यक्ति व्यक्ति ग्रंथ संमुइ प्र०२४३११ प्र० २५०११ प्र० १०२; १०८ ३०।३ सयणविहि सयधणु सयभिसय संसारपडिग्गह सच्च ६०४; प्र० २३२।२ २४१२१ ७२१७ प्र०२५०१ १००१२ प्र० २४८०२ प्र०२१७११ कला व्यक्ति नक्षत्र व्यक्ति व्यक्ति लौकिक-ग्रन्थ काल सयय सच्चइ सच्चप्पवाय व्यक्ति ग्रन्थ प्र०२५२।२ १४।२।२; प्र० ११२ सयाउ सर २९१ सरगय कला ७२१७ नक्षत्र सच्चसेण सज्जीव सणंकुमार सतय सतिग्ध सतरह सतरिसभ व्यक्ति कला व्यक्ति व्यक्ति आयुध व्यक्ति काल तिथि आयुध वनस्पति कला ग्रन्थ-विभाग प्र०२५८।३ ७२।७ प्र० २३६।१ प्र० २५११२; २५२।१ प्र० १४४ प्र०२१७।१ ३०१३ २७१६; ३७१५ प्र०२४१ प्र० २३१।१ ७२।७ ३६१ प्र०७२।७ सवण सव्वट्ठसिद्ध सव्वाणंद सव्वाणुभूइ सहदेवी साइबुद्ध सागर सागरदत्त सागरदत्ता साति सामकोट्ट सामचंद सामा सामायारी साल सत्तत सत्ति काल व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति शिविका नक्षत्र व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति ग्रन्थ-विभाग वनस्पति व्यक्ति मास कला सत्तिवण्ण सभास सभिक्खुग समताल समय समयखेत समवाय समाहिट्ठाण समाही ससिती सालरुक्ख ग्रन्थ-विभाग जनपद-ग्राम ग्रन्थ ग्रन्थ-विभाग ग्रन्थ-विभाग ग्रन्थ-विभाग ३९।२; ४५।१; ६६१ १२२, ३; प्र० ८८,६२ ३६१ सावण ३०१३ प्र०२५८।४ प्र०२५११ प्र०२३५१ प्र०२५२१४ प्र० २४३६१ प्र० २४२।३ प्र०२२४१३ १।२८ प्र०२४८४ प्र०२४८।१ प्र०२२११ ३६१ प्र०२३१११ प्र०२३११४ २७६ प्र० २४४।१ १४१८; २४।५; २५७ प्र०२२०१३;२५८।१,३ प्र०२२१११ प्र०२२४११ प्र० १०१, १०८ प्र०१.२; १०८ प्र० २३५१ प्र०२५४११ प्र० २१६१ प्र०२५८।२ प्र० २५४।१ प्र०२२११२ प्र० २३११ प्र० २५४१ सावस्थि जनपद-ग्राम सिंधु नदी जलाशय सिद्धत्थ सिद्धत्था सिद्धत्था सिद्धसेणियापरिकम्म सिद्धावत्त सिरि सिरिउत्त सिरिकता सिरिचंद समुद्द समुद्ददत्त समुद्दपालिज्ज समुद्दविजय समोसरण सयंजल सयंपभ ३६।१ १६५७; १७१५; ४२।४, ७; ६०।२; ७२१७; ६१२२; प्र०७४, ७७; ८०; ६११६३ प्र० २४३।१ प्र० २४२११ ३६१ प्र० २२०१३; २३४११ १६१ प्र०२१७१ प्र०२१६।१, २४६।११ २५१४१ व्यक्ति व्यक्ति ग्रंथ-विभाग व्यक्ति ग्रंथ-विभाग व्यक्ति व्यक्ति शिबिका ग्रन्थ ग्रन्थ व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति वनस्पति व्यक्ति सिरिभूइ व्यक्ति व्यक्ति सिरिया सिरिस सिरिसोम Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाना ४२८ परिशिष्ट २ सुदाम व्यक्ति सिरीसिव सिलोग सुद्धदंत सिव प्राणी कला व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति सुनंद व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति सुपास सिवसेण सिवा सिहरि पर्वत सीओदा सीता सुपीय सुप्पभ काल व्यक्ति सीतल व्यक्ति सुप्पभा सुप्पभा सुप्पसिद्धा सुबंधु सुभद्द सुभद्दा सुभूम सीमंकर सीमंधर सीसग सीह सीहगिरि सीहरह सीहसेण सुइ व्यक्ति व्यक्ति धातु प्राणी व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति ३४११ ७२।७ प्र० २३८१ प्र० २४८।२ प्र०२३३ ७।४; २४।२; १००।७; प्र३३ १४।८%७४।२; प्र० ३३ १४१८;७४१३; प्र० ३३; १२८; १७२।१, २२४३१, ३-६; २३९।१ २३।३,४; २४११; ७५।२; ८३६२, ६०११; प्र० २२२ प्र० २५०११ प्र० २५०११ प्र०६६ १।२; प्र० २४१ प्र० २२३।३ प्र० २२३।२ प्र. २२०१२; २३२।१ प्र० २२३३२ प्र० २२३३२ प्र० २२३३२ ८४१३ १९२ प्र० २५८१५ १५॥३; ६२।३ प्र० २२०१२; २५७११ प्र० २१६।१ प्र०२४८१ प्र० २२११२ प्र० २३७११ प्र० १००; १०१, १११ ७२।७ प्र० २२०१३ २२३।३, ४; २३४११, २४३११; २५६।२ ८।४ प्र० २२४३१ प्र० २४०१ शिविका व्यक्ति शिविका व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति सुमंगल सुमंगला सुमणा सुमति प्र०२१६१ प्र० २५४११ प्र० २५२।१ २३।३,४; २४११; ८६।२; ६५।१; प्र०४; २१६।१; २२२; २४८४ २५१११ २५८।५ ३०३ ५११४; प्र० २४१२ २४६।१; २५६३१ प्र० २२४११ प्र०२४०१ प्र० २२११ २४२।३, २४६१ २४३११ २३७४१, २४०१ प्र० २३६।१, २४६।१ प्र० २५८.१ प्र०२३५१ प्र० २३३।१ २३॥३,४; २४११; प्र०९; २२२; २२८।१ २६।१ प्र० २२०१३; २३३।१; २२।१ प्र०२३४१ प्र० २५८२ प्र. २२६१ प्र० २१९१ प्र० २३३।१; २५२।२ १४१८ ७२।७ २३३३,४२४।१;७५।११ ८६।१% १००३ प्र० २२२ प्र. २३२१ प्र० २२१२ प्र०२२१०२ १४; १००% प्र. २३२।२ सुंदर व्यक्ति व्यक्ति सुमिण सुमित्त लौकिक-ग्रन्थ व्यक्ति सुंदरबाहु सुंदरी सुंसुमा सुकोसल सुक्कपक्ख सुग्गीव ग्रन्थ विभाग व्यक्ति पक्ष व्यक्ति व्यक्ति सुघोस सुचंद सुमित्तविजय सुयसागर सुरिंददत्त सुरुवा सुलसा सुवण्णकूला सुवण्णपाग सुविहि व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति नदी कला. व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति सुजसा सुणंद व्यक्ति ग्रन्थ कला व्यक्ति सुत्तखेड्ड सुदंसण सुदंसणा सुब्बत सुब्बया सुसीमा सुहम्म व्यक्ति व्यक्ति ब्तक्ति व्यक्ति वनस्पति शिविका व्यक्ति सुदंसणा सुदंसणा Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ४२६ परिशिष्ट २ सुहुम सूयगड व्यक्ति ग्रन्थ प्र० २४६१ १।२ ५७११; प्र०८८ सूरचरिय व्यक्ति कला व्यक्ति शिविका व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति व्यक्ति नक्षत्र जनपद-ग्राम चक्रवति-रत्न कला कला नदी पर्वत ग्रंथ-विभाग सूरदेव सूरप्पभा सोमदेव सोमा हत्थ हत्थिणपुर हत्थिरयण हत्थिसिक्खा हयलक्खण हरि हरि हरिएसिज्ज हरिकंता हरिवास प्र०२२६२ प्र०२३३११ ५।११ प्र० २४४११ १४१७ ७२७ ७२१७ १४१८ प्र० २८; ५६ ३६३१ प्र०२३४११ ७२१७ प्र० २५१११ प्र०२२४१२ प्र०२३७११ प्र०२५८४ २३।३,४,२४११; ६६।३; ८०१3 ८ ४१४; प्र० २२२; २२६१ प्र० २२१११ ३०११११८ १४१७ प्र०२५२११ ३०१३ प्र०२४३०१ सूरसिरि सूरसेण सेज्जस नदी १४८ जनपद-ग्राम सेणा सेणावइ सेणावइरयण हरिसेण व्यक्ति सेणिय हरिस्सिह सेत हल व्यक्ति राज-कर्मकर चक्रवति-रल व्यक्ति काल व्यक्ति ग्रंथ-विभाग व्यक्ति व्यक्ति कला व्यक्ति पर्वत व्यक्ति हलहर हार हिरण्णपाग पर्वत आयुध राजा-प्रकार आभूषण कला सेयंस सेल सेवाल सेसवती सोभाकर सोम सोमणस सोमदत्त ७५; ६३।२; ७६।१ ६४।६; प्र०७३ ८९॥३,६७४ प्र० २३६।२ प्र०२८; ५६ प्र० २४१ प्र०६२ २५७,८; ६४१६; ७४। ७२।७ ७१११ ७१५, ३७१२; ३८२ ६७४२ ७५ हेमंत ऋतु जनपद-ग्राम हेमवत प्र०२४२११ प्र०२२६१ ७२७ प्र०२३८१ प्र० २७ प्र० २२६।२ हेरणवत जनपद-ग्राम Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ विशेषनाम-वर्गानुक्रम १. अन्य-तोथिंक ४. ऋतु छरुप्पगय जणवाय हेमंत अण्णाणियवाइ आजीविय किरियावाइ तेरासिम वेणइवाइ मागहिया मिढयलक्षण मुट्ठिजुद्ध रहस्सगय राहुचरिय जुद्धातिजुद्ध जूय ५. कला पट्ट रूव लेणविहि अभियंद अभिवड्डिय अहोरत्त आइच्च आणंद भातव आवध ईसाण उवसम उस्सप्पिणी ओसप्पिणी गंधव्व चंदसंवच्छर चंददिण लेह २. आभूषण एकावलि कडिसुत्तग कुंडल तिरीड तिलय वट्टखेड्ड वत्थु-निवेस वत्थुमाण वाइय विज्जागय सउणस्य सज्जीव मुत्तावलि णक्खत्तमास सभास ३. आयुध अज्ज अट्ठावय अछि जुद्ध अण्णविहि असिलक्खण आभरणविहि आससिक्खा इत्थीलक्खण ईसत्थ कडगच्छेज्ज काकणिलक्खण कुक्कुडलक्षण खंधावार-निवेस खंधावारमाण गंधजुत्ति गणिय गयलक्खण गहचरिय गाहा गीय गोणलक्षण चंदचरिय चक्कलक्खण चम्मलक्षण चार छत्तलक्खण तरुणीपडिकम्म दंडजुद्ध दंडलक्खण दगमट्टिय दोभाकर धणुव्वेय धातुपाग नगर-निवेस नगरमाण नालियाखेड्ड निजुद्ध निज्जीव पडिचार पडिवह पत्तच्छेज्ज पत्तगच्छेज्ज पहेलिया पाणविहि पुक्खरगय पुरिसलक्खण पोरेकव्व बाहुजुद्ध मंतगय मणिपाग मणिलक्षण मधुसित्थ समताल सयणविहि सरगय सिलोग सुत्तखेड्ड सुवण्णपाग तट्ठव तिट्ठ पलंब पलिओवम पोरिसी असि कणग बंभ गया चक्क सूरचरिय भावियप्पा भूमह माहिंद मित्त जत सोभाकर हत्थिसिक्खा हयलक्खण हिरण्णपाग मुहुत्त नंदग मुसल मुसुंढि संख सतग्धि सत्ति हल रक्खस रिसभ रोद्द वाउ ६.काल अग्गिवेसायण वायावच्च Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाम्रो ४३१ परिशिष्ट ३ पोक्खरकण्णिया भवण भोम विजय वीससेण वेसमण सच्च सतरिसभ सव्वट्ठसिद्ध सागरोवम सुपीय १०. ग्रन्थ पुटुसेणियापरिकम्म पुव्व गंथ लेसज्झयण विणयसुय वीरिय वेयालिय संघाड संजइज्ज सभिक्खुग समय समाहिठाण समाही समिती समुद्दपालिज्ज समोसरण सामायारी संसुमा सेलम हरिएसिज्ज ७. कुल अंतगडदसा अग्रणीय अट्ठपय अणुओग अणुतरोववाइयदसा अत्थिणत्थिप्पवाय अवंझ आगासपय आयप्पवाय आयार आयारचूलिका उत्तरज्झयण उप्पायपुव्व उवसंपज्जणसेणियापरिकम्म उवासगदसा एगगुण एगट्ठियपय ओगाहणसेणियापरिकम्म उग्ग खत्तिय भोग राइण्ण वहि ८. गुफा १२. ग्रह खंडप्पवायगुहा तिमिस्सगुहा पच्चक्खाण उवसग्गपरिणा पण्हावागरणदसा उसुकारिज्ज परिकम्म कम्मपगडी पाद काविलिज्ज पाणायु कुम्म कुसीलपरिभासिय खलुंकिज्ज पुव्वगय माउयापय गाहा मूलपढमाणुओग गोयमकेसिज्ज लोगबिंदुसार चंदिमा ववहार चरणविहि विज्जाणुप्पवाय चाउरंगिज्ज विप्पजहणसेणियापरिकम्म चित्तसंभूय वियाह जण्णइज्ज वियाहपण्णत्ति जमईय विवागसुय जीवाजीवविभत्ती वीरिय तवोमग्ग संसारपडिग्गह तुंब सच्चप्पवाय तेत्तली समवाय दावद्दव सिद्धसेणियापरिकम्म सिद्धावत्त धम्म सुत्त नंदीफल सूयगड नमिपव्वज्जा निरयविभत्ति ११. ग्रन्थ-विभाग पमायठाण परीसह पावसमणिज्ज अकाममरणिज्ज पुरिस विज्जा अणगारमग्ग पोंडरीय अणाहपव्वज्जा बहुसुयपूया अप्पमाय मंडुक्क अवरकंका मग्ग असंखय मल्लि आइण्ण महावीरत्थुई आहत्तहिय मागंदी इत्थिपरिण्णा मिगचारिया उक्खित्तणाय मोक्खमग्गगई उदगणाय रहनेमिज्ज उरम्भिज्ज चंद धुवराहु दुमपत्तयं सूर ६. गृहवर्ग कप्प १३. चक्रवति-रत्न अट्टालय ओवारियालेण कवाड कुडभी केउ कोट्ठय अंड किरियाविसाल के उभूय केउभूयपरिग्गह गंडियाणुओग गणिपिडग चुयाचुयसेणियापरिकम्म चूलिया ठाण णायाधम्मकहा खंभ गोउर घर असिरयण आसरयण इत्थीरयण कागिणिरयण गाहावईरयण चक्करयण चम्मरयण छत्तरयण दंडरयण पुरोहियरयण मणिरयण वड्डइरयण सेणावइरयण हत्थिरयण चरिय तिगुण तोरण दसा दुगुण दुवालसंग थूभिअग्ग थूभियाग दार पडागा पडिदुवार नंदावत्त नाणप्पवाय नायधम्मकहा रोहिणी Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो १४. जनपद-ग्राम अद्धभरह उत्तरकुरु उत्तर मणुसखेत्त एरवय कणगवत्थु कायंदी कोसंबी चमरचंचा दाहिणभरह दाहिणड्डूमणुस्खेत्त देवकुरु धायइसंड पुक्ख रद्ध पोयण बारवई भारह माणुसखेत्त महाविदेह महुरा मिहिलपुरी रम्मयवास रायगिह विजया विणीया समयखेत्त सावत्थि हरिवास हेमवत हेरण्यवत १५. जलाशय केसरिदह दी तिर्गिच्छ तिगिछद्दह पउमद्दह पुंडरीयद्दह महापउम महापुंडरीयद्दह समुद्द १६. तिथि अमावसा पुण्णिमा पुण्णमासिणी सत्तमी १७. द्वीप गोयमदीव जंबुद्दीव जंबूदीव १८. धातु अंजण कणग तउ तवणिज्ज १६. धूपन कालागुरु कुंदुरुक्क तुरुक्क ध्रुव २०. नक्षत्र अणुराहा अद्दा अभीजि असलेसा असिणि असिलेसा अस्सिणी अस्सेसा उत्तराफग्गुणी उत्तराभद्दवया उत्तरासाढ कत्तिया चित्ता जेट्ठ जेट्ठा धणिट्ठा ४३२ पुणव्वसु पुव्वाफग्गुणी पुव्वाभद्दवया पुव्वासाढ पुस्स भरणि महा मिगसर मूल रेवइ रोहिणी विसाहा सय भिसया सवण साति हत्थ २१. नदी गंगा नरकंता नारिकंता रत्तवती रत्ता रुष्पकूला रोहिअंसा रोहिया सिंधु सिओदा सीता सुवण्णकूला हरि हरिकंता २२. पक्ष बहुलपक्ख सुक्क पक्ख २३. पद आयरिय उवज्झाय गणधर तिथंकर थेर पवत्तिणी २४. परिवार सदस्य पति पियर भज्जा भारिया मायर २५. पर्वत अंजणगपव्वय आवासपव्वय उप्पायपव्वय उसुकार कंचणगपव्वय केउक के उय गंधमादण गोथूभ चित्तकूट चुल्ल हिमवंत जमग तिगच्छकूट दधिमुह दीपव्य नंदण निसक नीलवंत बलकूड मंडलियपव्वय महाहिमवंत माणुसुत्तर मेरु रुप्पि रुयगिंद रुयय वक्खारपव्वय वट्टवेयङ्कपव्वय वासधरपव्वय विचित्तकूट विज्जुप्पभ सिहरि सोमणस हरि हरि सह २६. प्राणी कुम्म परिशिष्ट ३ कोंच कोलावास गंधहत्थ गद्दभ गय गरुल 734344 गव गावी गिद्ध चउप्पय जलयर दुप्पय पक्खि पसु पाणि भूयपरिसप्प मच्छ माणूस मरुतवसभ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो परिशिष्ट ३ ४३३ सिरीसिव ३०. मास ३५. लिपि ३८. वनस्पति सीह वणप्फ वेडसिरुक्ख सत्तिवण्ण साल २७. भाषा आसाढ आसोय कत्तिय चेत्त अद्धमागही सालरुक्ख सिरिस सुदंसणा पोस २८. भूमि-मान ३६. वसति-प्रकार अंकलिवी अक्खरपुट्ठिया आयंसलिवी उच्चत्तरिया खरसाहिया खरोटिया गंधव्वलिवी गबियलिवी जवणालिया दामिली दोसउरिया निण्हइया पहाराइया पोलिंदी फागुण भद्दवय मास वइसाह सावण अंगुल अक्ख गाम जणपय नगर गाउय ३१. योद्धा जोयण दंड रायहाणी अंबयरुक्ख সত্যি असोग आसोत्थ उप्पल कुसुम कूडसामली गेहागार चंपय चित्तंग चित्तरस चेइयरुक्ख छत्ताह जंबू जोइ डाय मंदिरुक्ख णग्गोह जागरुक्ख तिलय तुडिअंग तेंदुग दधिवण्ण दीव धाय ईरुक्ख पाडल पायव चक्कजोहि धणु बंभी ४०. वस्त्र नालिया मुसल रयणि ३२. रत्न भोगवइया महिसरी वेणइया कोसेय खोम २९. मरण-प्रकार गोथुभ मणि मुत्ता ३६. लौकिक-ग्रन्थ ४१. विलेपन ३३. राज-कर्मकर गोसीस नयव सेणाव ४२. व्यक्ति अंग अंतलिक्ख अण्ण-तिथिय-पवत्ताणुजोग उपाय जोगाणुजोग भोम मंताणुजोग लक्खण ३४. राजा-प्रकार पियंगु अंतोसल्लमरण आयंतियमरण आवीइमरण इंगिणिमरण ओहिमरण केवलिमरण गिद्धपिट्ठमरण छउमत्थमरण तब्भवमरण पंडितमरण पाओवगमणमरण बालपंडितमरण बालमरण भत्तपच्चक्खाणमरण मरण वलायमरण वसट्टमरण वेहायसमरण चक्कवट्टि चक्कहर वंजण पियय पिलखुरुक्ख पुंडरीय अइबल अइर अइरा अंजु अंबड अकंपिय अग्गिउत्त अग्गिभूति चक्कि विकहाणुजोग विज्जाणुजोग सर पुप्फ बलदेव मंडलियराय राय वासुदेव हलहर सुमिण अग्गिसेण पोंडरीय फल भिंग मणिअंग मत्तंगय मालि बउल अजित ३७. वन अणंत नंदनवण पंडयवण अणंतय अणंतविजय Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायो ४३४ परिशिष्ट ३ कुरुमई भद्दा तिलय तिविठ्ठ केकई केसरि भयाली भरह तिसला दढधण अणंतसेण अतिपास अतिराणी अपराइय अपराइया अपरातिय अभिणंदण अभिचंद पउमप्पभ पउमसिरि पउमा पउमुत्तर पडिरूवा भाणु भिसय दढरह दढाऊ पडिसूइ कोरव्व खेमकर खेमंधर गंगदत्त गुत्तिसेण गूढदंत गोथुभ दत्त पभावई पभास पयावती पहराय अमम अम्मया अयल गोयम पास अयलभाय पियदंसण पियमित्त पुणब्वसु पुण्णघोस पुण्णनंद अर अरि? अरिटुनेमि अरिदृवरणेमि असंजल असोगललिय अस्सगीव अस्ससेण आणंद आससेण पुप्फकेउ पुप्फचूला चंदकता चंदजसा चंदणा चंदप्पभ चंदाणण चक्काउह चक्खुकंता चक्खुम चमर चारु चित्तउत्त चुलणी जक्खिणी जयंत जयंती दसधणु दसरह दारुमड दिण्ण दीहदंत दीहबाहु दुमसेण दुविठ्ठ देवई देवउत्त देवसम्म देवाणंद देवी धणदत्त धणिला धन्न धम्मज्झय धम्ममित्त धम्मसीह धम्मसेण धर धरणि धरणिधरा धारणी नंदमित्त पुप्फदंत पुष्फवती पुरिस-पुंडरीय पुरिससीह पुरिसुत्तम पुरिसोत्तम पुस्स पेढालपुत्त पोट्टिल्ल भीम भीमसेण मंगला मंडिय मंडियपुत्त मघव मरुदेव मरुदेवा मरुदेवी मल्लि महसिह महसेण महाघोस महाचंद महाजस महापउम महाबल महाबाहु महाभद्द महाभीम महाभीमसेण महावीर महासेण महाहरि महिंददत्त महुकेतव माहिंदर मिगाली मित्तदाम मित्तवाहण मियावई मुणिसुव्वय मेतज्ज मेरय मेरा जय बंधु बंभ इंदभूति इसिदिण्ण उदय उमा उवसंत उसभ उसभसिरि उसभसेण कक्कसेण कण्ह कण्ह (दीवायण) कण्हसिरी कत्तवीरिय कत्तिय कयवम्म कासवी जया जरासंध जस जसम जसवती जाला बंभदत्त बंभयारि नंदा बंभी जियसत्तु जियारी जुगबाहु जुत्तिसेण बम्ह बलदेव बलभद्द बलि नंदिसेण नाभि नारय नारायण निप्पुलाय निम्मभ निसुंभ पउम णंद बहुल बाहुबलि कुंथु णंदण णमि तारय कंभ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवानो ४३५ परिशिष्ट ३ मेहरह मोरियपुत्त सिरिचंद सिरिभूइ सिरिया सिरिसोम सुयसागर सुरिंददत्त सुरूवा रक्खिया सुलसा सिव सुवण्णकूला सुविहि विमलघोस विमलवाहण विसनंदी विस्सभूइ विस्ससेण वीर वीरसेण वेजयंती संकरिसण संख संभव संभूत सुव्वत मणोरमा मनोहरा महाविमाण विजया विमला विसाला वेजयंती सागरदत्ता सिद्धत्था सुदसणा सुप्पभा सुप्पसिद्धा सूरप्पभा सुव्वया सुसीमा सुहम्ह सुहम सिवसेण सिवा सीतल सीमंकर सीमंधर सीहगिरि सीहरह सीहसेण सुइ सुंदर सुंदरबाहु सुंदरी सुकोसल सुग्गीव सुघोस संमुइ सूरदेव सूरसिरि सच्चइ सच्चसेण सणंकुमार ४४ समुद्र सूरसेण सेज्जंस सतय सेणा सेणिय सतरह कालोय घणोदहि लवणसमुह समुद्द रामा रायललिय रावण रुप्पि रेवई रोह रोहिणी लक्खणा लच्छिमई लट्ठबाहु ललियमित्त लोहजंघ वइरजंघ वइरणाम वज्जणाभ वद्धमाण वप्पा वरदत्त वसिट्ठ वसुंधरा वसुदेव वसुपुज्ज वामा वायुभूति वाराह वारिसेण वारुणी वासुदेव वासुपुज्ज विअत्त सुचंद ४५ सुरक्षा-साधन सुजसा सेयंस सेवाल सेसवती सोम सोमदत्त सोमदेव सोमा हरिसेण सुणंद सुदंसण खात पागार फलिह सुदंसणा सुदाम सुद्धदंत सुनंद ४३. शिबिका समुद्ददत्त समुद्दविजय सयंजल सयंपभ सयंभु सयधणु सयय सयाउ सव्वाणंद सव्वाणुभूइ सहदेवी साइबुद्ध सागर सागरदत्त सामकोछ सामचंद सामा सिद्धत्थ सिद्धस्था सुपास सुप्पभ सुप्पभा सुबंधु सुभद्द सुभद्दा सुभूम सुमंगल सुमंगला विजय अग्गिसप्पभा अपराजिया अभयकरी अरुणप्पभा उडुविमाण उत्तरकुरा चंदप्पभा जयंती णागदत्ता णिन्वुतिकरी देवकुरु पंचवण्णा विजया विण्हु सुमणा सिरि सुमति विदब्भ विपुलवाहण सिरिउत्त सिरिकता सुमित्त विमल सुमित्तविजय Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- _