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समवाश्र
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समवाय ११ : टिप्पण
दो विद्वान् कोल्लाग सन्निवेश से आए । एक का नाम था व्यक्त और दूसरे का सुधर्मा । व्यक्त का गोत्र था भारद्वाज और सुधर्मा का गोत्र था अग्नि वैश्यायन । इनके भी पांच-पांच सौ शिष्य थे ।
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दो विद्वान् मौर्यसन्निवेश से आए। एक का नाम था मंडित और दूसरे का नाम था मौर्यपुत्र । मंडित का गोत्र था वाशिष्ट और मोर्य पुत्र का गोत्र था काश्यप । इनके साढ़े तीन सौ साढ़े तीन सौ शिष्य थे ।
अकंपित मिथिला से अचल भ्राता कौशल से मेतार्य तुंगिक से और प्रभास राजगृह से आए। इनमें पहले का गोत्र गौतम, दूसरे का हारित और शेष दोनों का कौडिन्य था। इनके तीन-तीन सौ शिष्य थे ।
ये ग्यारह विद्वान् और इनके ४४०० शिष्य सोमिल की यज्ञवाटिका में उपस्थित थे ।
हजारों लोगों को एक ही दिशा में जाते देख उन सबके मन में कुतूहल उत्पन्न हुआ । लोकयात्रा का कारण जानकर इन्द्रभूति अपने शिष्यों को साथ ले महावीर को पराजित करने समवशरण में आए।
उन्हें जीव के अस्तित्व के विषय में संदेह था । भगवान् ने उनके प्रश्न को स्वयं सामने ला रखा । इन्द्रभूति सहम गए । उन्हें सर्वथा प्रच्छन्न अपने विचार के प्रकाशन पर अचरज हुआ। उनकी अन्तर्-आत्मा भगवान् के चरणों में झुक गई ।
इन्द्रभूति की घटना सुन दूसरे दस पंडितों का क्रम बंध गया। सभी अपनी-अपनी शिष्य संपदा के साथ भगवान् के समवशरण में आए। उन सबके एक-एक संदेह था
१. इन्द्रभूति - जीव है या नहीं ?
२. अग्निभूति - कर्म है या नहीं ?
३. वायुभूति - शरीर और जीव एक है या भिन्न ?
४. व्यक्त - पृथ्वी आदि भूत हैं या नहीं ?
५. सुधर्मा - यहां जो जैसा है वह परलोक में भी वैसा होता है या नहीं ?
६. मंडितपुत्र- बन्ध-मोक्ष है या नहीं ?
७. मौर्यपुत्र - देव है या नहीं ?
८. अकम्पित-नरक है या नहीं ?
8. अचल भ्राता - पुण्य ही मात्रा भेद से सुख-दुःख का कारण बनता है या पाप उससे पृथक् है ?
१०. मेतार्य - आत्मा होने पर भी परलोक है या नहीं ?
११. प्रभास - मोक्ष है या नहीं ?
भगवान् उनके प्रच्छन्न सन्देहों को प्रकाश में लाते गए और वे उनका समाधान पा अपने को समर्पित करते गए । इस प्रकार पहले प्रवचन में ही भगवान् की शिष्य-संपदा समृद्ध हो गई । चवालीस सौ शिष्य बन गए ।
भगवान् ने इन्द्रभूति आदि ग्यारह विद्वान् शिष्यों को गणधर पद पर नियुक्त किया ।
भगवान् ने श्रमण संघ की सुदृढ़ व्यवस्था की। उन्होंने श्रमण संघ को ग्यारह या नौ भागों में विभक्त किया । पहले सात गणधर सात गणों के, आठवें तथा नौवें गणधर आठवें गण के तथा दसवें और ग्यारहवें गणधर नौवें गण के प्रमुख थे 1 इनमें नौ गणधर भगवान् महावीर के जीवन काल में ही परिनिर्वृत हो गए । शेष दो गणधर इन्द्रभूति (गौतम) और सुधर्मा महावीर के निर्वाण के बाद परिनिर्वृत हुए । '
३. ग्यारह भाग हीन ( एक्कार सभागपरिहीणे )
इसका तात्पर्य यह है कि मेरु पर्वत भूमितल पर दस हजार योजन चौड़ा है और ६६ हजार योजन ऊंचा है। वहां से प्रत्येक अंगुल की ऊंचाई पर उसकी चौड़ाई १/११ अंगुल की हानि होती है । इस प्रकार ग्यारह अंगुल की ऊंचाई में एक अंगुल की चौड़ाई कम हो जाती है। इसी न्याय से ग्यारह योजन में एक योजन, ग्यारह हजार योजन में एक हजार योजन तथा ६६ हजार योजन की ऊंचाई पर नौ हजार योजन की चौड़ाई कम हो जाती है। इसलिए शिखर पर मेरु पर्वत की चौड़ाई एक हजार योजन ( १०००० - ६००० = १०००) रह जाती है ।
१. आवश्यकचूर्णि पृष्ठ ३३४-३३६ ।
२. समवायांगवृत्ति, पन २० ।
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