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समवायो
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समवाय ११ : टिप्पण
कुछ आचार्यों ने इन्हें क्रमश: जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक भी कहा है। जैन-धर्म में गृहस्थ के लिए चार श्रेणियां निश्चित की गई हैं--भद्रक, सम्यक्-दर्शनी, व्रती, प्रतिमाधारी। भद्रक श्रावक वह होता है, जो केवल धर्म के प्रति अनुराग रखता है, न वह सम्यक्-दर्शनी होता है और न व्रती। जब उसका अनुराग विकसित होता है, तब वह सम्यक्-दर्शनी होता है। यह अवस्था उसके धर्मानुराग को दृढ़ करती है । तत्पश्चात् वह पांच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों को स्वीकार कर बारह व्रती श्रावक बनता है। जब वह बारह व्रती के रूप में कई वर्षों तक साधना कर चुकता है और जब उसके मन में साधना की तीव्र भावना उत्पन्न होती है, तब वह गृहस्थ की प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। प्रायः वे लोग इनका स्वीकरण करते हैं
१. जो अपने आपको श्रमण बनने के योग्य नहीं पाते, किन्तु जीवन के अन्तिमकाल में श्रमण-जैसा जीवन बिताने
के इच्छुक होते हैं। २. जो श्रमण-जीवन बिताने का पूर्वाभ्यास करते हैं। आनन्द श्रावक भगवान् का प्रमुख उपासक था। उसने चौदह वर्षों तक बारहवती का जीवन बिताया । पन्द्रहवें वर्ष के अन्तराल में एक दिन उसके मन में धर्म-चिन्ता उत्पन्न हुई और वह आत्मा या सत्य की खोज तथा उसके लिए समर्पित जीवन बिताने के लिए कृतसंकल्प हुआ। दूसरे दिन उसने अपने ज्येष्ठपुत्र को घर का भार सौंपकर भगवान् महावीर के पास उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार कर लीं। इनके प्रतिपूर्ण पालन में साढ़े पांच वर्ष लगे । तत्पश्चात् उसने अपश्चिममारणांतिक-संलेखना की और अन्त में एक मास का अनशन किया। उपासक आनन्द के इस वर्णन से यही फलित होता है कि उपासक को ग्यारह प्रतिमाओं का स्वीकरण जीवन के अन्तिम भाग में किया जाता था। उसकी पूर्वभूमिका के रूप में वर्षों तक बारह व्रतों का पालन करना होता था । और ये प्रतिमाएं भावी अनशन के लिए भी पृष्ठभूमि बनती थीं। ऐसे उल्लेख भी प्राप्त होते हैं कि ये प्रतिमाएं जीवन में अनेक बार स्वीकार की जाती थीं। यद्यपि प्रस्तुत सूत्र में इन प्रतिमाओं का कालमान निर्दिष्ट नहीं है फिर भी आनन्द श्रावक के वर्णन से यह फलित होता है कि इनकी संपूर्ण साधना में छासठ मास लगते थे। पहली प्रतिमा के लिए एक मास, दूसरी के लिए दो मास, इसी प्रकार क्रमशः प्रतिमा की संख्या के अनुपात से मास की वृद्धि होती है। आनन्द ने बारह-व्रती के रूप में चौदह वर्ष बिताए और वीस वर्ष बीतने पर अपश्चिम-मारणांतिक-संलेखना की। इसके अन्तराल में उसने ग्यारह प्रतिमाओं का वहन किया।
यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बारह-व्रती श्रावक जब सम्यक्-दर्शनी और व्रती होता ही है तब फिर पहली और दूसरी प्रतिमा में सम्यक्-दर्शनी और व्रती बनने की बात क्यों कही गई है ? इसका समाधान यही है कि बारह व्रत सअपवाद होते हैं, जबकि प्रतिमाओं में कोई अपवाद नहीं होता। दर्शन और व्रत-गत गुणों का यहां निरपवाद परिपालन और उत्तरोत्तर विकास किया जाता है।
२. ग्यारह गणधर [एक्कारस गणहरा]
प्रत्येक तीर्थंकर के गणधर होते हैं। उनकी संख्या एक नहीं है। प्रस्तुत आलापक में महावीर के ग्यारह गणधरों का उल्लेख है । गणधरवाद, आवश्यकनियुक्ति, चूणि, टीका में इनका विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है । संक्षेप में इनका वर्णन इस प्रकार है
भगवान् महावीर वैशाख शुक्ला एकादशी को मध्यम पावा पहुंचे। वे वहां महासेन उद्यान में ठहरे।'
पावा में सोमिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उसे संपन्न करने के लिए ग्यारह यज्ञविद् विद्वान् आए।
इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति-ये तीनों सगे भाई थे। इनका गोत्र था गौतम । ये मगध के गोबर गांव में रहते थे। इनके पांच-पांच सौ शिष्य थे।
१. सागारधर्म, अध्ययन ३, श्लोक ३, टिप्पण :
आद्यास्तु षड् जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनुनयः । शेषौ द्वावृत्तमावुक्ती, जैनेष् जिनशासने ॥ २. पावश्यकचूणि, पृष्ठ ३२४॥
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