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मवानो
समवाय ११ : टिप्पणे
आदि साधु-धर्मों का अनुपालन करता हुआ विचरण करता है। वह भिक्षा के लिए गृहस्थों के घरों में प्रवेश कर 'प्रतिमा-सम्पन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो'-ऐसा कहता है। यदि कोई उसे पूछे कि तुम कौन हो ? तो वह यह कहता है कि मैं प्रतिमा-सम्पन्न श्रमणोपासक हूं। समवायांग के वृत्तिकार ने यहां 'पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना' -इस रूप में मतान्तरों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार प्रतिमाओं का क्रम यह है'१. दर्शनश्रावक
७. दिवा ब्रह्मचारी तथा रात्री में परिमाणकृत २. कृतव्रतकर्म
८. दिन और रात दोनों काल में ब्रह्मचारी, स्नान-वर्जन तथा केश, रोम और ३. कृतसामायिक
नखों का अपनयन करना ४. पोषधोपवासनिरत ६. आरम्भ और प्रेषण का परित्याग ५. रात्रिभक्त-परित्याग १०. उद्दिष्टभक्त वर्जन
६. सचित्त-परित्याग ११. श्रमणभूत । कहीं-कहीं आरम्भ-परित्याग को नौवीं, प्रेष्यारम्भ-परित्याग को दसवीं और उद्दिष्टभक्तवर्जन तथा श्रमणभूत को ग्यारहवीं प्रतिमा माना गया है। प्रवचनसारोद्धार में प्रतिमाओं का विशद विवेचन है। उसके वृत्तिकार का कथन है कि आवश्यक चूणि में ये प्रतिमाएं कुछ क्रम-परिवर्तन के साथ प्राप्त होती हैं । उसमें रात्रिभक्त-प्रतिज्ञा पांचवीं, सचित्ताहारप्रतिज्ञा छठी, दिवा ब्रह्मचारी और रात्री में अब्रह्मचर्य का परित्याग करना सातवीं, दिन और रात में ब्रह्मचारी रहना, स्नान न करना तथा केश, श्मश्रु, रोम और नखों का अपनयन करना आठवीं, सारम्भ प्रतिज्ञा नौवीं, प्रेष्यारम्भ प्रतिज्ञा दसवीं और उद्दिष्ट वर्जन तथा श्रमणभूत ग्यारहवीं प्रतिज्ञा है। दिगम्बर मान्यता के अनुसार प्रतिमाओं का क्रम यह है१. दर्शन ५. सचित्त-त्याग
६. परिग्रह-त्याग २. व्रत
६. रात्रिभुक्ति-त्याग १०. अनुमति-त्याग ३. सामायिक ७. ब्रह्मचर्य
११. उद्दिष्ट-त्याग ४. पोषध
८. आरम्भ-त्याग वसुनन्दि श्रावकाचार की प्रस्तावना (पृष्ठ ५४) में पण्डित हीरालालजी जैन ने ग्यारह प्रतिमाओं का आधार चार शिक्षाव्रतों को माना है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह अपूर्ण लगता है । दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार इन प्रतिमाओं का आधार सम्यग-दर्शन और प्रथम ग्यारह व्रत हैं। प्रथम प्रतिमा का आधार सम्यग-दर्शन है। दूसरी प्रतिमा का आधार पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत हैं। तीसरी प्रतिमा का आधार सामायिक और देशावकाशिक (प्रथम दो शिक्षाव्रत) हैं। चौथी प्रतिमा का आधार प्रतिपूर्ण पोषधोपवास है। शेष प्रतिमाओं में इन्हीं व्रतों का उत्तरोत्तर विकास किया गया है। दिगम्बर आचार्यों ने ग्यारह प्रतिमाधारियों को तीन भागों में विभक्त किया है-गृहस्थ, वर्णी या ब्रह्मचारी तथा भिक्षुक । प्रारम्भ की छह प्रतिमाओं को धारण करने वाले गृहस्थ, सातवी, आठवीं और नौवीं प्रतिमाओं को धारण करने वाले वर्णी
और अन्तिम दो प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षुक कहलाते हैं।' १. समवायांगवृत्ति, पत्र २०: पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना-दसणसावए प्रथमा, कयवयकम्मे द्वितीया, कयसामाइए तृतीया, पोसहोववासनिरए चतुर्थी, राइभत्तपरिणाए पंचमी, सचित्तपरिणाए षष्ठी, दियाबंभयारी राम्रो परिमाणकडे सप्तमी, दियावि रामोवि बंभयारी असिणाणए यावि भवति बोस?केसरोमनहे अष्टमी, प्रारंभपरिणाए पेसणपरिणाए नवमी, उदिट्ठभत्तवज्जए दशमी, समणभूए यावि भवइत्ति समणाउसो एकादशीति. क्वचित्त प्रारम्भपरिज्ञात इति नवमी, प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी, उद्दिष्टभक्तवर्जक: श्रमणभुतश्चैकादशीति । २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६८०-६३३ । ३. वही, वृत्ति, पत्र २६६। ४. वसुनन्दि श्रावकाचार, गाथा ४ : दसणवय सामाइय, पोसह सचित्त राइभसे य । बंभारंभ परिम्गह, मणुमण उद्दिट्ट देसविरम्मि ।। ५. उपासकाध्ययन, कल्प , श्लोक ८५६ : पडन गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युब्रह्मचारिणः । भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टी, ततः स्यात् सर्वतो यतिः ॥
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