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________________ समवाश्रो १७१ १२. ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहि ते देवा: द्वात्रिंशता अर्द्धमासै: आनन्ति आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा ऊससंति वा नीससंति वा । निःश्वसन्ति वा । १३. तेसि णं देवाणं बत्तीसाए वाससहस्सेहि आहार समुप्पज्जइ । १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे बत्तीसाए भवग्गहणेह सिज्झि स्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । करिस्सति । तेषां देवानां द्वात्रिशता वर्षसहस- १३. उन देवों के बत्तीस हजार वर्षों से राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । Jain Education International सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये द्वात्रिंशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति टिप्पण १. योग-संग्रह बत्तीस हैं (बत्तीस जोगसंगहा पण्णत्ता ) जैन परंपरा में 'योग' शब्द मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होता है । प्रस्तुत प्रसंग में 'योग' शब्द समाधि का वाचक है। यहां जिन बत्तीस योगों का संग्रहण किया है, वे सब समाधि के कारणभूत हैं । इसे हम 'समाधि सूत्र' भी कह सकते हैं । उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में इनमें से अनेक सूत्रों का उल्लेख है, जैसे - संवेग, अनुप्रेक्षा, आलोचना, तितिक्षा, आर्जव, योग- प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संवर, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, अलोभ आदि सूत्र अर्थबोध तथा तात्पर्य की दृष्टि से अवश्य द्रष्टव्य हैं । बत्तीस योग-संग्रह ये हैं १. आलोचना - अपने प्रमाद का निवेदन करना । २. निरपलाप - आलोचित प्रमाद का अप्रकटीकरण । समवाय ३२ : सू० १२-१४ १२. वे देव बत्तीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । ३. आपत्काल में दृढधर्मता - किसी भी प्रकार की आपत्ति में दृढधर्मी बने रहना । ४. अनिश्रितोपधान दूसरों की सहायता लिए बिना तपः कर्म करना । ५. शिक्षा-सूत्रार्थ का पठन-पाठन तथा क्रिया का आचरण । ६. निष्प्रतिकर्मता - शरीर की सार-संभाल या चिकित्सा का वर्जन । १४. कुछ भव-सिद्धिक जीव बत्तीस बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ७. अज्ञातता - अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन या प्रख्यापन नहीं करना । ८. अलोभ निर्लोभता का अभ्यास करना । ११. शुचि - पवित्रता, सत्य, संयम आदि का आचरण । १२. सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दर्शन की शुद्धि । १३. समाधि - चित्त - स्वास्थ्य | ६. तितिक्षा - कष्ट - सहिष्णुता, परीसहों पर विजय पाने का अभ्यास करना । १०. आर्जव - सरलता । १६. धृतिमति-धैर्ययुक्त बुद्धि, अदीनता । १७. संवेग संसार - वैराग्य अथवा मोक्ष की अभिलाषा । १४. आचार - आचार का सम्यक् प्रकार से पालन करना, उसमें माया न करना । १५. विनयोपग - विनम्र होना, अभिमान न करना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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