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समवाश्रो
१८. प्रणिधि - अध्यवसाय की एकाग्रता ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'मायाशल्य' किया है और उसका आचरण न करने का निर्देश दिया है।' आवश्यकवृत्ति में
भी 'ही' का अर्थ माया किया है और उसे न करने की बात कही है। किन्तु दशवैकालिक ( ८ / १ ) के 'आयारपणिहि लद्ध” – इस वाक्य के संदर्भ में 'पणिहि' - प्रणिधान का अर्थ चित्त की निर्मलता या समाधि होना चाहिए। अवधान, समाधान और प्रणिधान – ये तीनों समाधि के पर्यायवाची शब्द हैं । राग-द्वेष-मुक्त भाव में चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास प्रणिधि है | इसके दो भेद होते हैं - दुष्प्रणिधि और सुप्रणिधि' । यहां सुप्रणिधि विवक्षित है ।
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१९. सुविधि - सद् अनुष्ठान ।
२०. संवर-- आस्रवों का निरोध ।
२१. आत्मदोषोपसंहार - अपने दोषों का उपसंहरण ।
२२. सर्वकामविरक्तता - समस्त विषयों से विमुखता ।
२३. प्रत्याख्यान - मूलगुण विषयक त्याग ।
२४. प्रत्याख्यान - उत्तरगुण विषयक त्याग ।
२५. व्युत्सर्ग— शरीर, भक्तपान, उपधि तथा कषाय का विसर्जन ।
२६. अप्रमाद - प्रमाद का वर्जन ।
२७. लवालव -- सामाचारी के पालन में सतत जागरूक रहना । 'लव' शब्द कालवाची है । इसका अर्थ है - क्षण । 'लवालव' अर्थात् प्रतिक्षण अप्रमाद की साधना करना । यथालंदक मुनि निरंतर अप्रमाद की साधना करते हैं । वे क्षणभर के लिए भी प्रमाद नहीं करते और यदि कभी प्रमाद आ जाता है तो उसका तत्काल प्रायश्चित्त कर लेते हैं ।
२८. ध्यानसंवरयोग - महाप्राण ध्यान की साधना करना ।
आवश्यक नियुक्ति में 'झाणसंवरयोग' का अर्थ 'सूक्ष्म ध्यान किया है।' अवचूर्णिकार ने इसको समझाने के लिए एक घटना का उल्लेख किया है - 'सिम्बवर्द्धनपुर में मुडम्बिक ( मुण्डिकाक ) नाम का राजा राज्य करता था । आचार्य पुष्यभूति ने उसे श्रावक बनाया। उनका बहुश्रुत गीतार्थ शिष्य पुष्यमित्र खिन्न होकर कहीं अन्यत्र विहरण करने लगा । समीप आने वाले शिष्य अगीतार्थ थे । आचार्य ने एक बार पुष्यमित्र को बुला भेजा और सारी जानकारी दे 'सूक्ष्म ध्यान' की साधना में संलग्न हो गए । वे एक कमरे के भीतर निश्चेष्ट अवस्था में मृतवत् लेटे हुए थे । पुष्यमित्र द्वार पर बैठा रहता था। कमरे में प्रवेश निषिद्ध था। एक बार एक शिष्य ने छिपकर कमरे के भीतर झांका और उसने देखा कि आचार्य भूमि पर निश्चेष्ट पड़े हैं। उसने अन्य साधर्मिक साधुओं से कहा - आचार्य दिवंगत हो गए हैं। यह संवाद राजा तक जा पहुंचा । वह आचार्य का परम श्रद्धालु श्रावक था । उसने वहां आकर पूछताछ की। पुष्यमित्र ने सारी बात बताते हुए कहा कि आचार्य ध्यान संलग्न हैं, मृत नहीं। किसी ने भी उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। अनेक शिष्यों ने कहा'पुष्यमित्र सर्व - लक्षण - संपन्न आचार्य के देह से वेताल को साध रहा है।' सबको यह बात यथार्थ लगी । आचार्य के मृतदेह को श्मशान ले जाने के लिए शिविका तैयार की गई । पुष्यमित्र कमरे के भीतर गया और आचार्य के द्वारा पूर्व संकेतित अंगुष्ठ को दबाया । आचार्य सचेत हुए और बोले - 'आर्य ! तुमने मेरे ध्यान में व्याघात क्यों डाला ?' उसने शिष्यों द्वारा प्रचारित बात उन्हें कह सुनाई । '
२६. मारणांतिक उदय - मारणांतिक वेदना का उदय होने पर भी क्षुब्ध न होना, शांत और प्रसन्न रहना । ३०. संग- परिज्ञा- आसक्ति का त्याग ।
१. समवायांगवृत्ति, पत्र ५५ :
पणिहि त्तिप्रणिधि: --- मायाशल्यं न कार्यमित्यर्थः ।
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३१. प्रायश्चित्तकरण - दोष-विशुद्धि का अनुष्ठान करना ।
३२. मारणांतिक आराधना - मृत्यु-काल में आराधना करना ।
२. श्रावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११६ :
पणिहि त्तिप्रणिधिस्त्याज्या, माया न कार्येत्यर्थः ।
३. देखें - ठाणं ४ / १०४ १०६ ।
४. धावश्यकनियुक्ति, गा० १३३१, भवचूर्णि द्वितीय विभाग, पू० १५९ ।
५. मावश्यकनियुक्ति, भवचूर्णि द्वितीय विभाग, पृ० १५६,
समवाय ३२ : टिप्पण
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