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________________ टिप्पण १. सूत्र १ : ___ यहां दंड का अर्थ है -दुष्प्रवृत्ति ।' २. गुप्तियों (गुत्तीओ) गुप्ति का अर्थ है-अशुभ प्रवृति का निरोध और शुभ प्रवृत्ति का प्रवर्तन । गुप्ति में असम्यक् की निवृत्ति और सम्यक् की प्रवृत्ति-दोनों गृहीत हैं। देखें-ठाणं ३/२१ का टिप्पण नं० ११, पृष्ठ २६४ । ३. शल्य (सल्ला) जो चुभता रहता है वह शल्य है। उसके दो प्रकार हैंद्रव्य शल्य-कांटा आदि, भावशल्य-माया आदि। भावशल्य तीन प्रकार का होता हैमायाशल्य-माया का शल्य अर्थात् अतिचार आदि का सेवन करने के पश्चात् उसे माया से छिपाना, उसका प्रायश्चित्त न करना। निदानशल्य-निदान का अर्थ है-दिव्य ऋद्धि को देखकर या सुनकर उसकी प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प करना । मिथ्यादर्शनशल्य-मोहकर्म के उदय से होने वाला मिथ्या दृष्टिकोण । ४. गौरव (गारवा) गौरव का अर्थ है-गुरुता। इसके दो प्रकार हैंद्रव्य गौरव-वज्र आदि की गुरुता। भाव गौरव-अभिमान, लोभ आदि से होने वाली अशुभ भाव की गुरुता। यह कर्म-बंधन का कारण और संसार-परिभ्रमण का हेतु है। भाव गौरव तीन प्रकार का है--- ऋद्धि गौरव-विभिन्न प्रकार की ऋद्धि-पूजा आदि की प्राप्ति से अभिमानग्रस्त होना और अप्राप्त ऋद्धि के लिए निरन्तर चिन्तन करते रहना ऋद्धि गौरव है। रस गौरव - इष्ट वस्तुकी प्राप्ति से अभिमान-ग्रस्त होना, और अप्राप्त के लिए लोभाकुल होना-रस गौरव है। सात गौरव-सात का अर्थ है सुख । प्राप्त सुख का गर्व करना और अप्राप्त की प्राप्ति के लिए निरन्तर अभिलाषा करते रहना। संबंधित कथानकों के लिए देखें-आवश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति भाग २, पृष्ठ ६० । ५. विराधना (विराहणाओ) विराधना का अर्थ है-खंडित करना, भंग करना । प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना का उल्लेख है। ज्ञान-विराधना ज्ञान की विराधना करना, उसमें तुच्छता आपादित करना ज्ञान-विराधना है। उसके पांच प्रकार हैं१. ज्ञान-प्रत्यनीकता--ज्ञान की निंदा करना, जैसे(क) आभिनिबोधिक ज्ञान अशोभन है, क्योंकि उसके द्वारा जाना गया तथ्य कभी यथार्थ होता है और कभी अयथार्थ । (ख) श्रुतज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि श्रुतज्ञान से संपन्न व्यक्ति भी शील-विकल होता है। (ग) अवधिज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि वह अरूपी द्रव्यों को साक्षात् नहीं कर सकता। (घ) मनःपर्यवज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि वह भी एक सीमा में प्रतिबद्ध होता है। (ढ) केवलज्ञान भी अशोभन है, क्योंकि वह भी निरन्तर नहीं होता, एक समय में केवलज्ञान और एक समय में केवल दर्शन होता है। २. ज्ञान-निन्हवण -ज्ञान का अपलाप करना, गुरु के नाम का अपलाप करना। किसी गुरु से ज्ञान ग्रहण करना और पूछने पर दूसरे का नाम बताना । ३. ज्ञान-अत्याशातना-शास्त्रों की आशातना करना । १. समवायांगवत्ति, पत्न८: दण्ड्यते-चारित्रेश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डा: ---दुष्प्रयुक्तमन :। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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