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________________ समवानो २२ समवाय ५ : टिप्पण उत्तराध्ययन में पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों का संयुक्त नाम 'समिति' दिया है। ७. अस्तिकाय (अत्थिकाया) अस्तिकाय का अर्थ है-प्रदेश प्रचय । अस्तिकाय पांच हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव । ये तिर्यक् प्रचय स्कन्ध रूप में हैं, इसलिए इन्हें अस्तिकाय कहा जाता है । धर्म, अधर्म, आकाश और एक जीव एक स्कन्ध हैं। इनके देश या प्रदेश-ये विभाग काल्पनिक हैं। ये अविभागी हैं। पुद्गल विभागी है। उसके स्कन्ध और परमाणु-ये दो मुख्य विभाग हैं । परमाणु उसका अविभाज्य भाग है। लोक-अलोक की व्यवस्था पर दृष्टिपात करने से भी धर्म और अधर्म के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। आचार्य मलयगिरि ने इनका अस्तित्व सिद्ध करते हुए लिखा है-'इनके बिना लोक-अलोक की व्यवस्था नहीं होती। जिसमें जीव आदि सभी द्रव्य होते हैं वह लोक है। जहां केवल आकाश का ही अस्तित्व है, वह अलोक है। अलोक में जीव और पुद्गल नहीं होते। इसका कारण है कि वहां गति और स्थिति के हेतुभूत द्रव्य-धर्म और अधर्म नहीं हैं। इसलिए ये दोनों द्रव्य लोक-अलोक के विभाजक बनते हैं। भगवती सूत्र में इन पांचों अस्तिकायों के विषय में सुन्दर प्रतिपादन प्राप्त होता है। गौतम ने पूछा-'भगवन् ! गति सहायक तत्त्व (धर्मास्तिकाय) से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने कहा-गौतम ! गति का सहारा नहीं होता तो कौन आता और कौन जाता ? शब्द की तरंगें कैसे फैलती? आंख कैसे खुलती? कौन मनन करता? कौन बोलता? कौन हिलता-डुलता? यह विश्व अचल ही होता। जो चल है, उन सबका आलम्बन गति सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय ही है। गौतम-भंते ! अधर्मास्तिकाय (स्थिति सहायक द्रव्य) से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् गौतम ! स्थिति का सहारा नहीं होता तो खड़ा कौन रहता ? कौन बैठता ? सोना कैसे होता? कौन मन को एकाग्र करता? मौन कौन करता? कौन निस्पन्द बनता? निमेष कैसे होता? यह विश्व चल ही होता। जो स्थिर हैं, उन सबका आलंबन स्थिति-सहायक तत्त्व ही है। गौतम-भंते ! आकाश तत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहां होते ? ये धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहां व्याप्त होते ? काल कहां बरतता? पुद्गल का रंगमंच कहां बनता? यह विश्व निराधार ही होता। गौतम-भंते ! जीवास्तिकाय से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान्—गौतम ! जीव का लक्षण है उपयोग । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल-इन पांचों ज्ञानों के अनंतअनंत पर्याय, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग अज्ञान के अनन्त-अनन्त पर्याय तथा चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन के अनन्त-अनन्त पर्याय-इन सबका उपयोग जीव में होता है। गौतम-भंते ! पुद्गल से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान गौतम ! जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण-ये पांचों शरीर तथा पांचों इन्द्रियां और मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा श्वासोच्छवास-ये सारे पुद्गल से ही संचालित होते हैं। पुद्गलास्तिकाय का लक्षण है ग्रहण करना। पुद्गल में संयोजक और वियोजक-दोनों शक्तियां हैं। यदि उसमें वियोजक शक्ति नहीं होती तो सब अणुओं का एक पिण्ड बन जाता और यदि संयोजक शक्ति नहीं होती तो एक-एक अणु अलग-अलग रहकर कुछ नहीं कर पाते। प्राणी जगत् के प्रति परमाणु का जितना भी कार्य है, वह सब परमाणुसमुदायजन्य है, अनन्त परमाणु-स्कन्ध ही प्राणी जगत् के लिए उपयोगी होते हैं। १. उत्तरज्झयणाणि २/३ : एयामो पट्ठ समिईमो " २. प्रज्ञापना पद १ वृत्ति लोकालोकव्यवस्थानुपपत्तेः। ३. भगवई, १३/५५-६० । ४. जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, पृष्ठ २०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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