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समवायो
समवाय ५: टिप्पण
१. अनशन
७. प्रायश्चित्त २. ऊनोदरी
८. विनय ३. भिक्षाचरी
६. वैयावृत्य ४. रस-परित्याग १०. स्वाध्याय ५. कायक्लेश
११. ध्यान ६. प्रतिसंलीनता १२. व्युत्सर्ग ।
इनमें प्रथम छह बाह्य तप के और शेष छह आभ्यन्तर तप के प्रकार हैं ।
प्रस्तुत आलापक में निर्जरा के जो पांच प्रकार बताए हैं, वे इनसे सर्वथा भिन्न हैं। वृत्तिकार का कथन है कि ये पांचों स्थान आंशिक कर्म-निर्जरा के कारण हैं। ये पांचों स्थान जब 'सर्व' शब्द से जुड़ते हैं तब इनकी संज्ञा महाव्रत हो जाती है (देखें-सूत्र संख्या २), और जब ये स्थूल शब्द से जुड़ते हैं तब इनकी संज्ञा 'अणुव्रत' हो जाती है। ये पांचों निर्जरा के सर्व साधारण स्थान हैं, इसलिए इनका यहां ग्रहण किया गया है।'
प्रस्तुत आलापक का संवादी आलापक स्थानांग ५/१२८ में है। उसकी भाषा यह है कि जीव प्राणातिपात विरमण आदि पांच स्थानों से कर्मों का वमन (निर्जरण) करता है।
प्रश्न होता है कि विरमण या विरति निर्जरा का कारण कैसे बनती है ? विरति संवर है। यहां दोनों स्थानों में उसे निर्जरा का हेतु या निर्जरा माना है। इसकी संगति क्या है ?
जब व्यक्ति विरति या प्रत्याख्यान करता है, उस क्षण की प्रवृत्ति निर्जरा का हेतु बनती है। उस प्रवृत्ति-क्षण के पश्चात् वह विरमण संवर की कोटि में चला जाता है। इसी प्रवृत्ति-क्षण की अपेक्षा से यहां 'विरमण' को निर्जरा माना है।
इस विषय पर आचार्य भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य ने बहुत प्रकाश डाला है।
देखें-नव पदार्थ की चौपई, सटिप्पण संस्करण । ६. समितियां (समिईओ)
समिति का अर्थ है-सम्यक् प्रवर्तन । सम्यक् और असम्यक् का मापदंड है-अहिंसा। जो प्रवृत्ति अहिंसा से संवलित है वह समिति है।
हरिभद्र के अनुसार आत्मा के एकाग्र परिणाम से की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहा जाता है। समितियां पांच
१. ईर्यासमिति -गमन और आगमन में अहिंसा का विवेक । इसकी भावना यह है कि यान-वाहनों से आकीर्ण पथ पर तथा
शून्य और प्रासुक मार्गों पर चलते समय भी मुनि युगप्रमित भूमि को देखकर चले । २. भाषा समिति-भाषा संबंधी अहिंसा का विवेक । इसका तात्पर्य यह है कि मुनि हितकारी, परिमित और असंदिग्ध अर्थ
वाली अर्थात् स्पष्ट भाषा बोले । ३. एषणा समिति-जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक उपकरणों-आहार-वस्त्रों आदि के ग्रहण और उपभोग संबंधी अहिंसा का
विवेक । भिक्षाचर्या के लिए गया हुआ मुनि सम्यग् उपयोग रखता हुआ नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा की
एषणा करे, ग्रहण करे। ४. आदानमाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति-दैनिक व्यवहार में आने वाले पदार्थों के व्यवहार संबंधी अहिंसा का विवेक ।
उपकरण तथा पात्र आदि लेते समय सावधानी पूर्वक प्रवर्तन करना । ५. उच्चारप्रस्रवणक्ष्वेडसिंघाणजल्लपरिस्थापनिका समिति-उत्सर्ग संबंधी अहिंसा का विवेक । मल, मूत्र, कफ, श्लेष्म, मैल
आदि के परिस्थाएन में संयत चेष्टा करना।'
१. समवायांगवृत्ति, पत्र १०:
निजरा-देशत: कर्मक्षपणा तस्या: स्थानानि-प्राश्रया: कारणानीति यावनिर्जरास्थानानि--प्राणातिपातविरमणादीनि, एतान्येव च सर्वशब्दविशेषितानि
महावतानि भवन्ति, तानि च पूर्वसूत्राभिहितानि स्थूलशब्दविशेषितानि अणुव्रतानि भवन्ति, निर्जरास्थानत्वं पुनरेषां साधारणमिति तदिहेषामभिहितम् । २. आवश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ८४ :
सम्—एकोभावेनेति: समितिः, शोभनकायपरिणामचेष्टेत्यर्थः । ३. देखें-प्रावश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ८४, ८५; तथा उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन २४ का पामुख तथा मूल ।
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