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________________ समवायो समवाय ५: टिप्पण स्थानांग की वृत्ति में इसके ये दो अर्थ हैं१. मैथुन-इच्छा उत्पन्न करनेवाले पुद्गल । २. इच्छा उत्पन्न करने वाले पुद्गल । ३. आस्रव-द्वार (आसवदारा) आस्रव का अर्थ है कर्म को आकृष्ट करनेवाली आत्मा की अवस्था। वह जीव की अवस्था है अतः जीव है। आस्रव के पांच प्रकार हैं१. मिथ्यात्व –विपरीत दृष्टिकोण, विपरीत तत्त्वश्रद्धा। २. अविरति -अत्याग वृत्ति । पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा । ३. प्रमाद -धर्म के प्रति अनुत्साह । योग आस्रव और प्रमाद आस्रव में यही अन्तर है कि प्रमाद आस्रव नरन्तरिक है। यह आत्म प्रदेशवर्ती अनुत्साह है। योग आस्रव नैरन्तरिक नहीं होता। ४. कषाय --आत्मा का राग-द्वेषात्मक उत्ताप । ५. योग - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति। योग आस्रव के दो भेद हैं--शुभयोग आस्रव और अशुभ योग आस्रव ___ शुभ योग से निर्जरा होती है, इस अपेक्षा से वह आस्रव नहीं है किन्तु उससे शुभ कर्म का बंध होता है, इसलिए वह आस्रव है। विशेष विवरण के लिए देखें- उत्तरज्झयणाणि भाग २, पृष्ठ २१६ । ४. संवर-द्वार (संवरदारा) कर्म का निरोध करनेवाली आत्मा की अवस्था का नाम है संवर। यह आस्रव की विरोधी अवस्था है। आस्रव कर्मग्राहक अवस्था है और संवर कर्म-निरोधक अवस्था है । इसके भी पांच प्रकार हैं१. सम्यक्त्व संवर-विपरीत श्रद्धान का त्याग करना सम्यक्त्व संवर है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी त्याग किए बिना सम्यक्त्व संवर नहीं हो सकता। २. व्रत संवर -व्यक्त, अव्यक्त आशा का परित्याग । सम्यक्त्व संवर और व्रत संवर-ये दोनों संवर त्याग करने से होते हैं, अन्यथा नहीं। ३. अप्रमाद संवर-आत्मिक अनुत्साह का क्षय हो जाना। ४. अकषाय संवर-राग-द्वेष से निवृत्ति । ५. अयोग संवर -प्रवृत्ति निरोध । अप्रमाद संवर, अकषाय संवर और अयोग संवर-ये तीन संवर परित्याग करने से नहीं होते, किन्तु तपस्या आदि साधनों के द्वारा आत्मिक उज्ज्वलता संपादित होने पर ही होते हैं।' ५. निर्जरा के स्थान (निज्जरढाणा) तपस्या आदि के अनुष्ठान से कर्मों की क्षीणता होती है और उससे आत्मा की निर्मलता संपादित होती है। यही निर्जरा है । यद्यपि निर्जरा एक ही प्रकार की होती है, फिर भी कारण को कार्य मानकर उसके बारह प्रकार किए जाते हैं। वे बारह प्रकार तपस्या के भेद हैं। तपस्याओं के भेद से निर्जरा भी बारह प्रकार की कही जाती है। वे बारह प्रकार ये १. स्थानांगवृत्ति, पन २७७ : कामगुणत्ति कामस्य-मदनाभिलाषस्य अभिलाषमानस्य वा संपादकाः गुणा-धर्माः पुद्गलानां, काम्यन्त इति कामाः ते च ते गुणाश्चेति वा कामगुणा इति । २. नवपदार्थ, संवर, ढाल १, गाथा ६ : प्रमाद आस्रव ने कषाय योग मानव, ये तो नहीं मिटे कियां पच्चक्खाण । ये तो सहजे मिटे छ कर्म अलगा हुयां, तिण री अंतरंग कीजो पहिचाण ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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