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समवानो
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समवाय ५ : सू० १६-२२ १९. जे देवा वायं सुवायं वातावत्तं ये देवा वातं सुवातं वातावत्तं वातप्रभं १६. वात, सुवात, वातावर्त्त, वातप्रभ, वात
वातप्पभं वातकंतं वातवण्णं वातकान्तं वातवर्ण वातलेश्यं वातध्वज कान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातलेसं वातज्झयं वातसिंगं वातशृङ्गं वातसृष्टं वातकूटं वातोत्तरा- वातशृङ्ग, वातसृष्ट, वातकूट और वातसिळं वातकुडं वाउत्तरवडेंसगं वतंसकं सूरं सुसूरं सूरावर्त सूरप्रभं सूर- वातोत्तरावतंसक तथा सूर, सुसूर, सूरासूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं कान्तं सूरवर्णं सूरलेश्यं सूरध्वजं सूर- वर्त, सूरप्रभ, सूरकान्त, सूरवर्ण, सूरसरकतं सूरवणं सरलेसं सूरज्झयं शृङ्गं सूरसष्टं सूरकूटं सुरोत्तरावतंसकं लेश्य, सूरध्वज, सूरशृङ्ग, सूरसृष्ट, सूरसिंगं सूरसिठं सूरकूडं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवाना- सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक विमानों सूरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए मुत्कर्षेण पञ्च सागरोपमाणि स्थितिः में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उववण्णा, तेसि णं देवाणं प्रज्ञप्ता।
उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम की है। उक्कोसेणं पंच सागरोवमाइं ठिई
पण्णत्ता। २०. ते णं देवा पंचण्हं अद्धमासाणं ते देवाः पञ्चानामर्द्धमासानां आनन्ति २०. वे देव पांच पक्षों से आन, प्राण,
आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्व- उच्छवास और निःश्वास लेते हैं।
ऊससंति वा नीससंति वा। सन्ति वा। २१. तेसि णं देवाणं पंचहि वाससह- तेषां देवानां पञ्चभिर्वर्षसहाराहारार्थः २१. उन देवों के पांच हजार वर्षों से भोजन स्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते।
करने की इच्छा उत्पन्न होती है। २२. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २२. कुछ भव-सिद्धिक जीव पांच बार जन्म
जे पंचहि भवग्गहणेहि सिज्झि- पञ्चभिर्भवग्रहणः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइसंति सव्वदुक्खाण- मन्तं करिष्यन्ति ।
अन्त करेंगे। मंतं करिस्संति।
टिप्पण
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१. क्रिया (किरिया)
क्रियाओं का विशद वर्णन सूत्रकृतांग २/२/२ तथा स्थानांग सूत्र के २/२-३७ तथा ५/११२-१२२ आलापकों में आया हआ है। वहां विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख है। प्रस्तुत आलापक में जो पांच क्रियाओं का उल्लेख है वह स्थानांग ५/११५ में है।
इन सबकी तुलनात्मक जानकारी के लिए देखें, सूत्रकृतांग २/२/२ के टिप्पण तथा ठाणं २/२-३७ के टिप्पण, पृष्ठ ११३-११६ । २. कामगुण (कामगुणा)
वृतिकार ने 'काम' का अर्थ-अभिलाषा और 'गुण' का अर्थ- शब्द आदि पुद्गल किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप में कामवासना को उत्तेजित करने वाले शब्द आदि को 'कामगुण' माना है। इसका सामान्य अर्थ है इन्द्रियों के विषय तथा काम को उद्दीप्त करने वाले साधन-शब्द आदि।
१. समवायांगवृत्ति, पत्र १०:
काम्यन्ते-अभिलष्यन्ते इति कामास्ते च ते गुणाश्च–पुद्गलधर्माः शब्दादय इति कामगणाः, कामस्य वा-मदनस्योद्दीपका गुणा: कामगुणा:-शब्दादय इति ।
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