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________________ समवायो ३८१ धम्मायरिया, णव णियाणभूमीओ, आयात, ऐरवते णव णियाणकारणा, आयाए, भणितव्याः । एरवए आगमिस्साए भाणियव्वा । प्रकोणक समवाय : सू० २६०-२६१ आगमिष्यन्त्यां और फिर मोक्षगमन होगा। ये सब आगामी काल में ऐरवत क्षेत्र में होंगे। २६०. एवं दोसुवि भाणियव्वा। आगमिस्साए एवं द्वयो रपि भणितव्याः । आगमिष्यन्त्यां २६०. इसी प्रकार आगामीकाल में दोनों क्षेत्रों (भरत और ऐरवत) में यह सब प्रतिपाद्य है। निक्खेव-पदं निक्षेप-पदम् निक्षेप-पद २६१. इच्चेयं एवमाहिज्जति, तं जहा- इत्येतत् एवमाहीयते, तद्यथा- २६१. इस प्रकार उक्त अर्थाधिकारों के कारण कूलगरवंसेतिय, एवं कुलकरवंश: इति च, एवं तीर्थकरवंश: प्रस्तुत सूत्र के निम्न नाम फलित होते तित्थगरवंसेति य, चक्कवाद । इति च, चक्रवर्तिवंश: इति च, दशारवंश हैं, जैसे -- कुलकरवंश, तीर्थङ्करवंश, व दसारवंसेति य, गणधरवंसेति इति च, गणधरवंश: इति च, ऋषिवंश: चक्रवर्तीवंश, दशारवंश, गणधरवंश, य, इसिवंसेति य, जतिवंसेति य, इति च, यतिवंश: इति च, मुनिवंश: ऋषिवंश, यतिवंश, मुनिवंश, श्रुत, मुणिवसेति य, सुतेति वा, सुतंगेति इति च, श्रुतं इति वा, श्रुतांग इति वा, श्रुतांग, श्रुतसमास, श्रुतस्कन्ध, समवाय वा, सुयसमासेति वा, सुयखंधेति श्रुतसमासः इति वा, श्रुतस्कन्धः इति और संख्या। वा, समाएति वा संखेति वा । वा, समवायः इति वा, संख्या इति वा। प्रस्तुत अंग समस्त तथा अध्ययनरूप में समत्तमंगमक्खायं अज्झयणं समस्तमङ्गमाख्यातं अध्ययनम् ।। आख्यात है।" -ति बेमि। - इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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