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________________ समवाश्रो ३. वह कितने आवतों' से शुद्ध होता है ? ४. वह कितने दोषों से विप्रमुक्त होता है ? ५. वह किसके प्रति किया जाता है ? ६६ प्रस्तुत सूत्र के साथ जो गाथा संलग्न हुई है, उसमें द्वादश आवर्त्तो की व्याख्या नहीं है, किन्तु कृतिकर्म के पचीस प्रकारों का संग्रह है । आवश्यक निर्युक्ति की निम्न गाथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है बारसावयं । ऐगनिक्खमणं ॥ बारसेव उ । दो ओणयं अहाजायं, किइकम्मं चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं अवणामा दुन्नऽहाजाय, आवत्ता सीसा चत्तारि गुत्तीओ, तिन्नि दो य एगनिक्खमणं चेव, पणवीसं आवतेहि परिसुद्धं किइकम्मं जेहि कृतिकर्म के पचीस प्रकार ये हैं १ से २ - दो अवनमन ३– एक यथाजात ४ से १५ - बारह आवर्त्त १६ से १९ - चतुः शिर पवेसणा ॥ वियाहिया । कीरई ॥ Jain Education International २० से २२ – त्रिगुप्त २३ से २४ - द्वि-प्रवेश २५ - एक निष्क्रमण । समवाय १२ : टिप्पण दो अवनमन समवायांग की वृत्ति के अनुसार अवग्रह की अनुज्ञा के लिए 'अणुजाणह मे मिउग्गह- इस सूत्रोच्चारण के साथ प्रथम बार अवनमन किया जाता है। इसी प्रकार दूसरी बार भी अवग्रह की अनुज्ञा के लिए अवनमन किया जाता है। मूलाचार की टीका में दो अवनमन का अर्थ बहुत स्पष्ट किया है । पञ्च नमस्कार के मंत्र के पाठ की आदि में पहली अवनति (भूमि स्पर्श) की जाती है । चतुर्विंशतिस्तव के पाठ की आदि में दूसरी अवनति ( शरीर - नमन) की जाती है। * धवला और जयधवला के अनुसार अवनमन का अर्थ है - भूमि पर बैठकर नमस्कार करना । अवनमन तीन होते हैं(१) जब जिनेन्द्र देव के दर्शन मात्र से शरीर रोमांचित हो जाता है, तब भूमि पर बैठकर नमस्कार करना - यह पहला अवनमन है । (२) जिनेन्द्र देव की स्तुति कर भूमि पर बैठकर नमस्कार करना - यह दूसरा अवनमन है। (३) सामायिक दण्डक से आत्मशुद्धि कर, कषाय और शरीर का त्याग कर जिनदेव के अनन्त गुणों का ध्यान कर तथा चौवीस तीर्थंकरों की वन्दना कर जिन-जिनालय और गुरु की स्तुति करने के पश्चात् भूमि पर बैठकर नमस्कार करना - यह तीसरा अवनमन है । " १. मावश्यकनियुक्ति की अवचूर्णि प्रकाशित है। उसमें 'कइहिं च श्रावस्तएहि परिसुद्ध' - पाठ मुद्रित है, किन्तु मूलाचार ( ७ / ८० ) में प्रावश्यक निर्युक्ति के समान ही गाथा उपलब्ध है : कदि श्रोणदं कदि सिरं, कदिए प्रावत्तगेहि परिसुद्धं । कदि दोसविप्यमुक्क, किदियम्मं होदि कायव्वं ॥ इस गाथा में 'श्रावस्सएहि परिसुद्ध' के स्थान में श्रावत्तगेहि परिसुद्ध' पाठ है। अर्थ की दृष्टि से यह संगत लगता है, क्योंकि 'आवश्यकपरिशुद्ध' की कोई व्याख्या प्राप्त नहीं हैं। मूलाचार (वृत्ति पत्र ४४१ ) में 'द्वादश प्रावर्शयुक्त कृतिकमं प्रावर्त्तशुद्ध होता है - इस प्रकार आवशुद्ध की व्याख्या प्राप्त है। प्रावश्यक नियुक्ति की १२१८ तथा १२२० – दोनों गाथाथों में 'श्रावस्सग परिसुद्ध' पाठ मुद्रित हुआ है। अवचूर्णिकार ने 'पचीस प्रावश्यकों से परिशुद्ध' - ऐसा प्रथं किया है, किन्तु वह संगत नहीं है, क्योंकि १११७वीं गया में 'कइम्रोणदं कइसिरं' ये दो प्रश्न 'कइहि च श्रावस्सएहि परिसुद्ध - इस प्रश्न से स्वतंत्र हैं। प्रत तीसरे प्रश्न के साथ प्रथम दो प्रश्नों को सम्मिलित कैसे किया जा सकता है ? इससे स्पष्ट होता है कि 'भावसहि परिसुद्ध' के स्थान में लिपिदोष के कारण 'श्रावस्तएहि परिसुद्ध' पाठ हो गया। २. श्रावश्यक निर्युक्ति, गाथा १२१६-१२१८ । ३. समवायांगवृत्ति पत्र २३ । ४. मूलाचार ७ / १०४, वृत्ति, पृ० ४५६ । ५. कसायपाहुड भाग १. पृ० ११६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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