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समवाप्रो
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समवाय १२ : टिप्पण
यथाजात
श्रमण-वेष (रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक) युक्त अथवा उपकरण रहित होने पर भी अंजलि-संपुट को शिर से सटाकर कृतिकर्म किया जाता है, इसलिए उसे यथाजात कहा गया है।'
मूलाचार की टीका में 'यथाजात' का अर्थ जातरूपतुल्य-क्रोध, मान, माया आदि से रहित-किया है।' बारह आवर्त
अभयदेवसूरि ने आवर्त की व्याख्या "सूत्रोच्चारण युक्त कायिक व्यापार" की है। उनके अनुसार बारह आवर्त्त यतिजनों में प्रसिद्ध हैं, इसलिए उन्होंने इसका कोई स्पष्ट अर्थ प्रतिपादित नहीं किया । आवश्यक अवचूणि के अनुसार छह आवर्त प्रथम प्रवेश में और छह आवर्त द्वितीय प्रवेश में किए जाते हैं।'
मूलाचार की वृत्ति के अनुसार बारह आवर्त ये हैंपञ्च नमस्कार मंत्र के पाठ की आदि में मन-संयमन, वचन-संयमन और काय-संयमन-ये तीन आवर्त होते हैं।
पञ्च नमस्कार मंत्र के पाठ की समाप्ति में फिर ये तीनों आवर्त होते हैं। इसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव की आदि और समाप्ति के समय ये तीन-तीन आवर्त होते हैं। इनका योग करने पर बारह आवर्त होते हैं।
आवर्तों का एक दूसरा विकल्प भी किया गया है। तीन बार की प्रदक्षिणा में प्रत्येक बार चारों दिशाओं में चार प्रणाम किये जाते हैं । इनका योग करने पर आवर्त बारह हो जाते हैं।
जयधवला के अनुसार सामायिक दण्डक के प्रारम्भ और अन्त में मन, वचन, और काया की विशुद्धि की अपेक्षा से कर आवत्तं होते हैं और 'स्थोस्सामि' दंडक के प्रारम्भ और अन्त में मन, वचन और काया की विशुद्धि की अपेक्षा से छट आat होते हैं।
चतुःशिर
प्रथम प्रवेश के समय क्षामणाकाल में शिष्य और आचार्य के दो शिर होते हैं। इसी प्रकार द्वितीय प्रवेश के समय भी शिष्य और आचार्य के दो शिर होते हैं।
प्रवचनसारोद्धार की वत्ति में इसकी स्पष्ट व्याख्या प्राप्त होती है। चतुःशिर का अर्थ है-शिर से चार बार अवनमन करना । प्रथम बार शिष्य–'खामेमि खमासमणो ! 'देवसियं वइक्कम'-कहता हुआ आचार्य को शिर नमाता है। आचार्य भी 'अहमवि खामेमि तुम' कहकर शिर नमाते हैं-ये दो शिरोनमन हुए। इसी प्रकार पुनः प्रविष्ट होकर क्षामणाकाल में शिष्य और आचार्य के दो शिरोनमन होते हैं।
वहीं एक दूसरी परम्परा का भी उल्लेख हुआ है। उसके अनुसार चारों शिरोनमन शिष्य से सम्बन्धित हैं। प्रथम प्रवेश में शिष्य का संस्पर्शनमन और क्षामणानमन-ये दो शिरोनमन होते हैं। इसी प्रकार द्वितीय प्रवेश में भी ये दो शिरोनमन होते हैं।'
मुलाचार की वत्ति के अनुसार पञ्च नमस्कार मंत्र के पाठ की आदि और अन्त में तथा चतूविशतिस्तव के आदि और अन्त में जुड़े हुए हाथ शिर से सटाना-ये चार शिर होते हैं।"
१. समवायांगवृत्ति, पन २३॥ २. मूलाचार ७/१०४, वृत्ति, पृ. ४५६ । ३ समवायांगवृत्ति, पत्र २३ :
द्वादशावता:-सूवाभिधान गर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा। ४. प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा १२१६, अवचूर्णि, द्वितीय विभाग, पृ० ४५ :
द्वादश भावर्ता प्रथम प्रविष्टस्य षट् पुनः प्रविष्टस्यापि षट् । ५. मूलाचार 0/101, वृत्ति प.० ४५६ । ६. वही, ७/१०४, वृत्ति प. ४५६ । ७. कसायपाहुड भाग १, पृ० ११८ । ८. समवायांगवृत्ति, पन्न २३ । ६. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र २२ । १०. मुलाचार ७/१०४, वृत्ति, पृ.० ४५६ ।
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