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________________ ६८ समवाय १२ : टिप्पण जयधवला के अनुसार सामायिक तथा 'त्थोस्सामि' दंडक के आदि अन्त में शिर नमाकर नमस्कार करना - ये चार शिरोनतियां हैं। त्रिगुप्त समवाश्र २ इसका अर्थ है - मनोगुप्त वचनगुप्त और कायगुप्त होना । मूलाचार में इसके स्थान में 'तिसुद्ध' (सं० त्रिशुद्ध ) शब्द है । उसका अर्थ है— मनः शुद्ध, वचनशुद्ध और कायशुद्ध ।' द्वि-प्रवेश अवग्रह की अनुज्ञा के लिए प्रथम प्रवेश किया जाता है तथा उस स्थान से निष्क्रमण कर अवग्रह की अनुज्ञा के लिए द्वितीय प्रवेश किया जाता है ।" एक निष्क्रमण प्रथम प्रवेश के बाद अवग्रह से वहीं आचार्य के पादमूल में प्रणत होकर सूत्र का समापन किया जाता है ।" एक दिन में चौदह कृतिकर्म किए जाते हैं-चार प्रतिक्रमण के समय और तीन स्वाध्याय के समय । ये सात पूर्वाह्न ( दिन के पूर्व भाग में ) किए जाते हैं और सात अपराह्न ( दिन के पश्चिम भाग) में किए जाते हैं ।" प्रतिक्रमण के समय किए जाने वाले चार कृतिकर्म १. आलोचना के समय । २. क्षामणा के समय । ३. आचार्य आदि के आश्रयण-निवेदन के समय । ४. प्रत्याख्यान के समय स्वाध्याय के समय किए जाने वाले तीन कृतिकर्म १. स्वाध्याय प्रस्थापन के समय । २. स्वाध्याय प्रवेदन के समय । ३. स्वाध्याय के पश्चात् । आवश्यक अवचूर्णि के अनुसार ये चौदह कृतिकर्म अभक्तार्थिक ( उपवासी) के नियतरूप से होते हैं । भक्तार्थिक प्रत्याख्यान के समय कृतिकर्म करता है, इसलिए उसके वे अधिक हो जाते हैं। ' मूलाचार में कृतिकर्म को संख्या यही है । उसके टीकाकार के अनुसार प्रतिक्रमण सम्बन्धी चार कृतिकर्म इस प्रकार हैं" १. आलोचना भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग । २. प्रतिक्रमण भक्तिकरण के समय किया जाने वाला कायोत्सर्ग । १. कसायपाहुड भाग १, पृ० ११८ । २. समवायांगवृत्ति, पत्र २३ । ३. मूलाचार ७ / १०४, वृत्ति पृ० ४५६ । ४. समवायांगवृत्ति, पत्र २३ । निष्क्रमण किया जाता है। दूसरी बार अवग्रह से निष्क्रमण नहीं किया जाता, किन्तु ५. वही, पन २३ । ६. श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा १२१५ प्रवचूर्णि द्वितीय विभाग, पृ० ४५ : चत्तारि पडिक्कमणे किकम्मा तिन्नि हुति सम्झाए । पुग्वण्हे प्रवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति || ७. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति पत्र, १८४ । ८. श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा १२१५, अवचूर्णि द्वितीय विभाग, पृ० ४५ : एतानि ध्रुवाणि प्रत्यहं चतुर्दश भवन्ति अभक्तार्थिकस्य इतरस्य (तु) प्रत्याख्यान वन्दनेनाधिकानि स्युः । ६. मूलाचार, ७ /१०३: चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिष्णि होंति सम्झाए । पुण्वण्हे वरण्हे किदियम्मा चोहसा होंति ॥ १०. वही, वृत्ति, पू० ४५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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