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समवायो
समवायो १२ : टिप्पण
मर्यादा निश्चित की गई है। इन व्यवस्थाओं का अतिक्रमण करने पर समानकल्पी साधु का सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया जाता। उदाहरण के लिए उपधि-संभोग की व्यवस्था प्रस्तुत की जा रही है____ कोई साधु उपधि की मर्यादा का अतिक्रमण कर उपधि ग्रहण करता है। उस समय दूसरे साधुओं द्वारा सावधान करने पर वह प्रायश्चित्त स्वीकार करता है तो उसे विसांभोगिक नहीं किया जाता । इस प्रकार दूसरी और तीसरी बार भी सावधान करने पर वह प्रायश्चित्त स्वीकार करता है तो उसे विसांभोगिक नहीं किया जाता । किन्तु चौथी बार यदि वह वैसा करता है तो उसे विसांभोगिक कर दिया जाता है । जो मुनि अन्यसांभोगिक साधुओं के साथ शुद्ध या अशुद्ध-किसी भी प्रकार से उपधि ग्रहण करता है और सावधान करने पर वह प्रायश्चित्त स्वीकार नहीं करता तो उसे प्रथम बार ही विसांभोगिक किया जा सकता है और यदि वह प्रायश्चित्त स्वीकार कर लेता है तो उसे विसांभोगिक नहीं किया जा सकता। चौथी बार वैसा कार्य करने पर पूर्वोक्त की भांति उसे विसांभोगिक कर दिया जाता है। यह उपधि के आधार पर संभोग और विसंभोग की व्यवस्था है।'
इसी प्रकार श्रुत आदि की व्यवस्था का भंग करने पर भी सांभोगिक को विसांभोगिक कर दिया जाता था।
संभोग की व्यवस्था भाष्य और चूणि-काल में सर्वसम्मत थी। वर्तमान में इस व्यवस्था का सर्वाङ्गीण प्रयोग नहीं हो रहा है। सभी जैन सम्प्रदायों में अपने-अपने ढंग से इसका रूपान्तरण हो गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहुत महत्त्व है,
इसलिए इसका संक्षिप्त सार यहां प्रस्तुत किया गया है। निशीथ भाष्य और चूणि में इसका और अधिक विशद विवेचन है। ३. कृतिकर्म के बारह आवर्त होते हैं (दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते)
__ 'दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते'-मूल पाठ इतना ही प्रतीत होता है। आगे जो गाथा है, वह बाद में जोड़ी गई है। वह वृत्तिकार से पहले जोड़ी गई थी, यह निश्चित है, क्योंकि वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या की है।
कृतिकर्म से सम्बन्धित यह गाथा किसी प्रति-लेखक ने प्रसंगवश पाठ के साथ लिख दी और उत्तरवर्ती प्रतियों में वह अनुकृत होती गई, ऐसा प्रतीत होता है । दशवकालिक के आदर्शों में भी ऐसा हुआ है । छठे अध्ययन में 'वयछक्कं कायछक्क' यह नियुक्तिगत श्लोक है, किन्तु उत्तरवर्ती प्रतियों में वह मूल में प्रविष्ट हो गया।
प्रस्तुत गाथा मूलतः आवश्यक नियुक्ति की है। इस गाथा का सम्बन्ध प्रस्तुत पाठ के साथ केवल 'बारसावयं' (द्वादशावत्त) इतना सा है । वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि प्रस्तुत रूपक में द्वादशावर्त का अनुवाद (कथित का पुनः कथन) और कृतिकर्म के शेष धर्मों का निरूपण है।'
कृतिकर्म वन्दना-काल में की जाने वाली क्रिया-विधि है। इसका प्रचलन प्राचीनकाल में समग्र जैन-परम्परा में रहा है । दिगम्बर और श्वेताम्बर–दोनों परम्पराओं के साहित्य में इस विषय की जानकारी प्राप्त होती है। जयधवला के अनुसार 'कृतिकर्म' एक प्रकीर्णक है। उसमें कृतिकर्म के विधान और फल का वर्णन किया गया है।"
आवश्यक नियुक्ति के तृतीय अध्ययन (वन्दना अध्ययन) में कृतिकर्म का विस्तृत वर्णन मिलता है। चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म---ये सब वन्दना के पर्यायवाची नाम हैं। नियुक्तिकार ने कृतिकर्म के विषय में पांच प्रश्न प्रस्तुत किए हैं
१. कृतिकर्म के अवनमन कितने होते हैं ?
२. उसमें शिरोनमन कितने होते हैं ? १. निशीथ चूणि (निशीथ सूत्र, द्वितीय विभाग) पृ० ३४२ । २ मावश्यक नियुक्ति, गाथा १२१६, प्रवचूणि, द्वितीय विभाग, पृ० ४५ :
दोमोणयं प्रहाजाय, किइकम्मं बारसावयं ।
चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ 1. समवायांगवृत्ति, पत्न २३ : द्वादशावर्त्ततामेवास्यानुवदन शेषांश्च तद्धर्मानभिधित्सु : रूपकमाह। ४. कसायपाइड, भाग १, प०११८ : जिण-सिद्धाइरियत्वहुसुदेसु बंदिज्जमाणेसु ज कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम । तस्स प्रादाहीण-तिक्खुत्तपदाहिण
तिमोणद-चदुसिर-बारसावत्तादिलवखणं विहाणं फलं च किदियम्म वण्णेदि । ५. पावश्यक नियुक्ति, गा० १११६, अवणि, द्वितीय विभाग, पृ० १६ : बंदणचिइकिइकम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । ६ वही गाथा १११७, प्रवर्णि, द्वितीय विभाग, पृ० १६ :
कइपोणयं कइसिरं कहहिं च प्रावस्सएहि परिसुद्धं । कहदोसविप्पमुक्कं किइकम्म कोस कीरइ वा ? ॥
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