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________________ समवानो ३०८ प्रकीर्णक समवाय : सू० ३७-४५ ३७. बंभ-लंतएसु कप्पेसु विमाणा ब्रह्म-लान्तकयोः कल्पयोः विमानानि ३७. ब्रह्म और लान्तक कल्पों में विमान सत्त-सत जोयगसयाई उड्ढे सप्त-सप्त योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्च- सात सौ सात सौ योजन ऊंचे हैं । उच्चत्तेणं पण्णत्ता। त्वेन प्रज्ञप्तानि। ३८. समस्त णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त ३८. श्रमण भगवान् महावीर के सात सौ सत्त जिणसया होत्था । जिनशतानि आसन् । केवली थे। ३६. समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त ३६. श्रमण भगवान् महावीर के सात सौ वेउव्वियसया होत्था। वैक्रियशतानि आसन् । मुनि वैक्रियलब्धिसंपन्न थे। ४०. अरिट्रनेमी णं अरहा सत्त अरिष्टनेमिः अर्हन् सप्त वर्षशतानि ४०. अर्हत् अरिष्टनेमि कुछ न्यून' सात सौ वाससयाई देसूणाई केवलपरियागं देशोनानि केवलपर्यायं प्राप्य सिद्धः वर्षों तक केवल-पर्याय का पालन कर पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे बुद्धः मुक्तः अन्तकृतः परिनिर्वृतः सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिपरिणिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहोणे। सर्वदुःखप्रहीणः । निर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित ४१. महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ महाहिमवत्कूटस्य उपरितनात् ४१. महाहिमवत् कूट के उपरितन चरमान्त चरिमंताओ महाहिमवंतस्स चरमान्तात् महाहिमवतः वर्षधरपर्वतस्य से महाहिमवत् वर्षधर पर्वत के समवासहरपव्वयस्स समे धरणतले, समं धरणोतल, एतत् सप्तयोजनशतानि भूतल का व्यवधानात्मक अन्तर सात एस णं सत्त जोयणसयाई अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । सो योजन का है। अबाहाए अंतरे पण्णते। ४२. एवं रुप्पिकूडस्सवि। एवं रुक्मिकूटस्यापि । ४२. रुक्मीकूट के उपरितन चरमान्त से रुक्मी वर्षधर पर्वत के सम-भूतल का व्यवधानात्मक अन्तर सात सौ योजन का है। ४३. महालक्क - सहस्सारेसु – दोसु महाशुक्र-सहस्रारयोः-द्वयोः कल्पयोः ४३. महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में विमान कप्पेस विमाणा अट्र-(अट्र ?) विमानानि अष्ट- (अष्ट ?) जोयणसयाइ उड्ढं उच्चत्तेणं योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। ४४. इसीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे ४४. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम कांड में पढमे कंडे अट्रसु जोयणसएस काण्डे अष्टसु योजनशतेषु आठ सौ योजन तक वानमंतर देवों के वाणमंतर . भोमेज्जविहारा वानमन्तरभौमेयविहाराः प्रज्ञप्ताः । भौमेय विहार हैं। पण्णत्ता। ४५. समणस्स णं भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ४५. श्रमण भगवान् महावीर के अनुत्तरोप अट्रसया अणुत्तरोववाइयाणं अष्टशतानि अनुत्तरोपपातिकानां पातिक देवों में उत्पन्न होने वाले, देवाणं गहकल्लाणाणं ठिइकल्ला- देवानां गतिकल्याणानां स्थिति- कल्याणकारी गति वाले, कल्याणकारी णाणंआ गमेसिभहाणं उक्कोसिआ कल्याणानां आगमिष्यदभद्राणां उत्कृष्टा स्थिति वाले, आगामी जन्म में मोक्ष अणुत्तरोववाइयसंपया होत्या। अनुत्तरोपपातिकसम्पद् आसीत् । प्राप्त करने वाले (आगमिष्यद् भद्र) आठ सौ मुनियों की उत्कृष्ट अनुत्तरोप Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal use only
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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