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समवायो
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समवाय १८ : टिप्पण
५. अपरिग्रह
१७-२१ ६. रात्रिभोजन-विरमण
२२-२५ ७-१२. षट्काय संयम
२६-४५ १३. अकल्प-वर्जन
४६-४६ १४. गृहिभाजन-वर्जन
५०-५२ १५. पर्यक-वर्जन
५३-५५ १६. गृहान्तरनिषद्या-वर्जन
५६-५६ १७. स्नान-वर्जन
६०-६२ १८. विभूषा-वर्जन
इन श्लोकों में आसेवनीय और अनासेवनीय के कारणों तथा लाभ-अलाभ का स्पष्ट निर्देश है। ३. पद-परिमाण अठारह हजार (अट्ठारस पयसहस्साइं पयग्गेणं) :
समवायांग' तथा नंदी' सूत्र में आचारांग के दो श्रुतस्कंध, पच्चीस अध्ययन, पिचासी उद्देशन-काल, पिचासी समुद्देशनकाल और अठारह हजार पद बतलाए गए हैं। नंदी की चूणि तथा उसकी हारिभद्रीया' वृत्ति में तथा समवायांग की वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरी' ने लिखा है कि यहां पद-परिमाण केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध का निर्दिष्ट है । प्रस्तुत समवाय की व्याख्या में भी अभयदेव सूरी ने यही उल्लेख किया है । आचारांग के नियुक्तिकार का भी यही अभिमत है। ___आचारांग की चूलिकाओं की रचना आचारांग के उत्तरकाल में हुई थी । आगमों के विवरण में आचारांग और उसकी चूलाओं के अध्ययन, उद्देश और समुद्देश-काल की गणना संयुक्तरूप से की गई है। किन्तु पद-गणना केवल आचाराङ्ग की ही की गई है। इसका कारण यह हो सकता है कि पद-परिमाण की व्यवस्था सब अंगों की सापेक्ष है-पहले अंग से दूसरे अंग का पद-परिमाण दूना है। यदि आचार-चूला का पद-परिमाण मूल आचार के साथ निर्दिष्ट किया जाता तो इस प्राचीन व्यवस्था का भंग हो जाता । इसलिए पद-परिमाण केवल मूल आचाराङ्ग का ही निरूपित किया गया है।
प्रस्तुत सूत्र में 'सचूलियाय' विशेषण का कोई प्रयोजन बुद्धिगम्य नहीं होता । आचाराङ्ग और आचारचूला की एकसूत्रता के प्रख्यापन के लिए ही 'सचूलियाय' विशेषण रखा गया हो-ऐसा अनुमान किया जा सकता है। ४. ब्राह्मी लिपि (बंभीए णं लिवीए):
प्रज्ञापना [१/९८] में ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार के लेख-विधानों का उल्लेख किया गया है । इससे यह ज्ञात होता है कि लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि के आधार पर हुआ है । मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार ई० पू० ५००-३००
१. समवायांग, समवाय ८८। २. नंदी, सू..। 1. नंदी चुणि, पृ. ६२। ४. नंदी, हारिभद्रीया वृत्ति, पृ.७६ । ५. समवायांगवृत्ति, पत्र १०१ :
ननु यदि द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनान्यष्टादशपदसहस्राणि पदाग्रेण भवन्ति तत यद् भणितं 'नवबंभचेरमहनो मट्ठारसपदसहस्सिमो वेउ' ति तत्कथं विरुध्यते ? उच्यते यत् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितं, यत् पुनरष्टादश पदसहस्राणि तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणं, विचित्रार्थबद्धानि च सूत्राणि गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति । ६. वही, पत्र ३४: प्राचारस्य प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य-चूडासमन्वितस्य, तस्य पिण्डेषणाद्या: पञ्च चूला: द्वितीयथ तस्कन्धात्मिकाः स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकप्रथमच तस्कन्धरूपः, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानां, यदाह-"नवबंभचेरमइयो अट्ठारस पयसहस्सीपो वेग्रो। हवइ य सपंचचलो बहुबहुतरमो पयग्गेणं ।।१॥" त्ति, यच्च सचूलिकाकस्येति विशेषणं तत्तस्य चुलिकासत्ताप्रतिपादनार्य, न तु पदप्रमाणाभिधानार्थम् । ७. पाचारांग नियुक्ति, गा० ११: ।
णवबंभचेर मइयो पट्ठारसपयसहस्सिमो वेनो। ८. पण्णवणा १/१८: बंभीए णं लिबीए पद्वारसविहे लेखविहाणे पण्णते, तं जहा-बभी जवणाणिया दोसापुरिया खरोट्ठी पुक्खरसारिया भोगवईया पहराईयामो य अंतक्खरिया मक्खरपुट्ठिया वेणइया निण्हइया अंकलिवी गणितलिवी गंधवलिवी भायंसलिवी माहेसरी वामिली पोलिंदी।
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