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________________ समवानो १०६ समवाय १८ : सू० १५-१८ १५. जे देवा कालं सुकालं महाकालं ये देवाः कालं सुकालं महाकालं अञ्जनं १५. काल, सुकाल, महकाल, अञ्जन, रिष्ट, अंजणं रिठे सालं समाणं दुमं रिष्टं शालं समानं द्रुमं महाद्रुमं विशालं शाल, समान, द्रुम, महाद्रुम, विशाल, महादुमं विसालं सुसालं पउमं सुशालं पद्म पद्मगुल्मं कुमुदं कुमुदगुल्मं सुशाल, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुद, कुमुदपउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्म नलिणं नलिनं नलिनगुल्मं पुण्डरीकं पुण्डरीक- गुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पुंडरीक, नलिणगुम्मं पुंडरीनं पुंडरीयगुम्मं गुल्मं सहस्रारावतंसकं विमानं देवत्वेन पुंडरीकगुल्म और सहस्रारावतंसक सहस्सारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उपपन्नाः, तेषां देवानां (उत्कर्षेण?) विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले उववण्णा, तेसि णं देवाणं अष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः देवों की (उत्कृष्ट ?) स्थिति अठारह (उक्कोसेणं?) अट्ठारस सागरोव- प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। माइं ठिई पण्णत्ता। १६. ते णं देवा अट्ठारसहिं अद्धमासेहिं ते देवा अष्टादशभिः अर्द्धमासैः आनन्ति १६. वे देव अारह पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नोससंति वा। निःश्वसन्ति वा।। १७. तेसि णं देवा णं अट्ठारसहि तेषां देवानां अष्टादशभिर्वर्षसहस्र- १७. उन देवों के अठारह हजार वर्षों से वाससहस्सेहिं आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते। भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १८. कुछ भव-सिद्धिक जीव अठारह वार अट्ठारसहि भवग्गहोहं अष्टादशभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिज्झिस्संति बुझिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। टिप्पण १. क्षुल्लक और व्यक्त (सखुड्डुयविअत्ताणं) : क्षुल्लक का अर्थ है-अवस्था और श्रुत से अपरिपक्व और व्यक्त का अर्थ है-अवस्था और श्रुत से परिपक्व । २. अठारह स्थानों का (अट्ठारस ठाणा) : आचार के अठारह स्थान हैं-पांच महाव्रत, रात्रीभोजनविरमण, षट्काय के प्रति संयम तथा अकल्प, गृहस्थपात्र, पर्यक, निषद्या, स्नान और शोभा-इनका वर्जन । इन अठारह स्थानों में बारह आसेवनीय हैं और छह वर्जनीय हैं। दशवकालिक ६/७ में 'दस अटु य ठाणाई'-में इन अठारह स्थानों का ग्रहण किया गया है। प्रस्तुत आलापक में जो संग्रहणी की गाथा उद्धृत है वह दशवकालिक की नियुक्ति गाथा (२६८) है। इन स्थानों का हमने दशवकालिक में विस्तार से विमर्श किया है। देखें-दशवेआलियं [द्वितीय संस्करण पृष्ठ ३०८ । दशवैकालिक के छठे अध्ययन में इन अठारह स्थानों का निम्न श्लोकों में प्रतिपादन है१. अहिंसा ८.६.१० २. सत्य ११-१२ ३. अचौर्य १३-१४ ४. ब्रह्मचर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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