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________________ समवाश्रौ १०८ समवाय १८ : टिप्पण तक भारत की समस्त लिपियां ब्राह्मी के नाम से कही जाती थीं।' प्रज्ञापना में 'अंतक्खरिया' ( अन्ताक्षरिका ) लिपि का उल्लेख है, वह समवायाङ्ग में उल्लिखित नहीं है । समवायाङ्ग में 'उच्चत्तरिया' लिपि का उल्लेख है, वह प्रज्ञापना में उल्लिखित नहीं है । समवायाङ्ग में 'खरसाहिया' लिपि का उल्लेख है । प्रज्ञापना में इसके स्थान में ' पुक्खरसारिया' पाठ मिलता है । समवायाङ्ग के कुछ आदर्शों में 'पुक्करसाविया' पाठ प्राप्त है। लिपियों के अपरिचय के कारण इतना पाठपरिवर्तन हो गया कि ठीक पाठ का निर्धारण करना बहुत जटिल बन गया है। समवायाङ्ग में 'जवणालिया' पाठ है । किन्तु इसकी अपेक्षा प्रज्ञापना का 'जवणाणिया' पाठ अधिक संगत है। भूवलय में अठारह लिपियों के नाम कुछ प्रकारभेद से मिलते हैं - ( १ ) ब्राह्मी (२) यवनांक (३) दोषउपरिका ( ४ ) विराटिका (वराट ) ( ५ ) सर्वजे ( खरसापिका ) (६) वरप्रभारात्रिका (७) उच्चतारिका (८) पुस्तिकाक्षर ( 8 ) भोग्यवत्ता (१०) वेदनतिका ( ११ ) निन्हतिका (१२) सरमालांक (१३) परमगणिता (१४) गान्धर्व (१५) आदर्श (१६) माहेश्वरी ( १७ ) दामा (१८) बोलिंदी | ग्रन्थकार ने इन सबको अंकलिपि माना है । ललितविस्तार ( पृ० १२५ ) में चौसठ लिपियों का उल्लेख है । उपदेशपद में हरिभद्रसूरी ने कुछ लिपियों के नाम गिनाए हैं। इनमें एक नाम 'उड्डी' । यह संभवत: 'उड़िया' लिपि का सूचन तथा यह 'दोसउरिया' के 'उरिया' शब्द के बहुत निकट है। इसमें पारसी लिपि का भी उल्लेख है, जो कि प्रज्ञापता और समवायाङ्ग में नहीं है । लिपियों के अनेक नामों की शोध के लिए और अधिक प्राचीन स्रोतों की आवश्यकता है । उनके अभाव में इनका ठीक-ठीक विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं ।" १. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति भने लेखनकला, पृ० ६ । २. भूवलय, ५/ १४६-१५६ ३. वही, ५ / १४६- १६०, पृ० ७७ : दशनमाडलन्माचार्य वांग्मय । परियलि ब्राह्मिय् व य दे । हिरियलादुदरिन्द मोदलिन लिपियंक । एरडनेयदु यवनांक ॥। १४६ ।। प्रलिद दोषउपरिका मृदु । वराटिका नारूकने अंक | सर्व जे खरसापिका लिपि इदंक वरप्रमारात्रिका आरुम् ।।१४७।। सर उच्चतारिका एलुम् ।। १४८ || सर पुस्तिकाक्षर एन्ट ॥ १४६ ॥ वरद भोगयवत्ता नवमा (घोंबतु ) || १५० ॥ सर वेदनतिका हत्तु ।। १५१ ।। सिरि निन्हतिका हन्नों ।। १५२|| सर माले अंक हन्नेरहु ॥ १५३ || परम गणित हृदिमूरु || १५४ || सर हृदिनात्कु गान्धवं ॥ १५५॥ | सरि हदिनयदु प्रादर्श || १५६ || वर माहेश्वरि हृदिनारु ॥ १५७ ॥ ave दामा हदिने ।।१५ ८ || गुरुवु बोलिदि हदिनेन्दु || १५ || ४. उपदेशपद, वैनयिकीबुद्धि प्रकरण, गाथा : हंसलिवी भलिवी, जक्खी तह रक्खसी य बोधम्वर । उड्डी जवणी फुडक्की, कोबी दविडीय सिधविया ।। मालवियो नड नागरि, लाडलिवी पारसीय बोधम्या | तह प्रनिमित्ता णेया, चाणक्की मूलदेवी य ॥ भूवलय (५/१०१-११८) में ये नाम कुछ भिन्नता से प्राप्त होते हैं। वहां 'उड्डी' के स्थान पर 'उरिया' ( उड़ीया), 'फुडुक्की' के स्थान पर 'तुकिय' 'कोडी' के स्थान पर 'कोरिय' तथा 'प्रनिमित्ता' के स्थान पर 'मिलिक' शब्द प्रयुक्त हैं। लगता है कि भूवलयगत नाम शुद्ध हैं और उपदेशपद में उनका कुछ रूपान्तरण हो गया है। ५. कर्नाटक यूनिवर्सिटी के पुरातत्व विभाग के प्रध्यक्ष प्रो० डा० पी० बी० देखाई से इन लिपियों के विषय में पूछा गया था। उन्होंने तत्सम्बन्धी निम्नप्रकार से कुछ जानकारी दी - ब्राह्मी - यह भारतवर्ष की सबसे प्राचीन लिपि है और उत्तरवर्ती सभी लिपियों का विकास इसी से हुआ है । यवनी - सम्भवतः यह ग्रीक लिपि हो । भारत का ग्रीक के साथ बहुत प्राचीन काल से संबंध रहा है। बरोष्ट्रिका - इसे 'खरोष्टी' के नाम से पहचाना जाता है। सम्राट् अशोक के काल से यह लिपि प्रचलित रही है प्रोर इसकी उत्पत्ति पसिया या ईरान से हुई है। 'दोष उरिया - यह 'उरिया' (Orissa) की लिपि रही है । खरसाहिया-यह खरोष्ठी लिपि से सम्बन्धित लिपि लगती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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