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________________ समवायो १५३ समवाय २६ : सू०६-१८ ६. जीवे णं पसत्यज्झवसाणउत्ते जीवः प्रशस्ताध्यवसानयुक्तः भव्यः ६. प्रशस्त अध्यवसाय वाला सम्यगदृष्टि भविए सम्मदिट्ठी तित्थकरनाम- सम्यग्दृष्टिः तीर्थकरनामसहिताः नाम्नो भविक जीव तीर्थङ्कर नामसहित नामसहियाओ नामस्स कम्मस्स णियमा कर्मण: नियमात एकोनत्रिशदूत्तर- कर्म की उनतीस प्रकृतियों' का एगणतीप्तं उत्तरपगडीओ प्रकृती: निबध्य वैमानिकेषु देवेषु निश्चित रूप से बंध कर वैमानिक निबंधित्ता बेमाणिएसु देवेसु देवत्वेन उपपद्यते । देवों में देवरूप में उत्पन्न होता है। देवत्ताए उववज्जइ। १०. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवोए अस्यां रत्नप्रभायां पथिव्यां अस्ति एकेषां १०. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगणतोसं नरयिकाणां एकोनत्रिशत पल्योपमानि की स्थिति उनतीस पल्योपम की है। पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ११. अहे सत्तमाए पुढवोए अत्येगइयाणं अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ११. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नेरइयाणं एगणतीस सागरोवमाइं नैरयिकाणां एकोनत्रिशत सागरोपमाणि नैरयिकों की स्थिति उनतीस सागरोपम ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। की है। १२. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकुमाराणां देवानां अस्ति एकेषां १२. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति एगूणतोसं पलिओवमाइं ठिई एकोनत्रिंशत् पल्योपमानि स्थितिः उनतीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। १३. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु देवाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोः देवानां अस्ति १३. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों अत्थेगइयाणं एगणतीसं पलिओव- एकेषां एकोनत्रिंशत पल्योपमानि की स्थिति उनतीस पल्योपम की है। माइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १४. उवरिम - मज्झिम -गेवेज्जयाणं उपरितन-मध्यम-वेयकाणां देवानां १४. तृतीय त्रिक की द्वितीय श्रेणी के ग्रैवेयक देवाणं जहणणं एगणतासं सागरो- जघन्येन एकोनत्रिशत सागरोपमाणि देवों की जघन्य स्थिति उनतीस वमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १५. जे देवा उवरिम-हेटिम - गेवेज्जय- ये देवा उपरितन-अधस्तन-प्रेवेयक- १५. तृतीय त्रिक की प्रथम श्रेणी के अवेयक विमाणेसु देवताए उववण्णा, तेसि विमानेष देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले णं देवाणं उक्कासेणं एगूणतीसं देवानामुत्कर्षण एकोनत्रिशत देवों की उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १६. ते गं देवा एगगतोसाए अद्धनासेहि ते देवाः एकोनत्रिशता अर्द्धमासैः १६. वे देव उनतीस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा ऊपसंति आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। वा नीससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १७. तेसि णं देवाणं एगूणतोसाए वास- तेषां देवानां एकोनत्रिंशता वर्षसहस्र- १७. उन देवों के उनतीस हजार वर्षों से सहस्सेहिं आहारठे समुपज्जइ। राहारार्थः समुत्पद्यते।। भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। १८. संतेगइया भवसिद्धिया जोवा, सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १८. कुछ भव-सिद्धिक जीव उनतीस बार जे एगूणतीसाए भवग्गहहिं एकोनत्रिशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिज्झिस्संति बुझिस्सांति मुच्चि- भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का स्तंति परिनिव्वाइस्राति सव्व- सर्वदःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। दुक्खाणमंतं करिस्संति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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