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________________ टिप्पण १. पाप-श्रुत का प्रसंग (आसेवन) (पावसुयपसंगे) जो शास्त्र पाप या बंधन का उपादान होता है, उसे 'पापश्रुत' कहा जाता है। उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति' में 'प्रसंग' का अर्थ 'आसक्ति' और समवायांग की वृत्ति' में उसका अर्थ 'आसेवन' किया है। पापश्रुत का प्रसंग उनतीस प्रकार का है १. भौम-भूकंप आदि का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । २. उत्पात- स्वाभाविक उत्पातों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ३. स्वप्न-स्वप्न का शुभाशुभ फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ४. अन्तरिक्ष-आकाश में होने वाले ग्रह-युद्ध आदि का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ५. अंग-अंग-स्फुरण का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ६. स्वर-स्वर का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ७. व्यंजन-तिल, मसा आदि का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । ८. लक्षण- शारीरिक लक्षणों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र । इन आठों के तीन-तीन प्रकार होते हैं-सूत्र, वृत्ति और वात्तिक । २५. विकथानुयोग–अर्थ और काम के उपायों के प्रतिपादक ग्रन्थ । २६. विद्यानुयोग-विद्या-सिद्धि के प्रतिपादक ग्रन्थ । २७. मंत्रानुयोग-मंत्र-शास्त्र । २८. योगानुयोग-वशीकरण-शास्त्र । २६. अन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोग–अन्यतीथिकों द्वारा प्रवर्तित शास्त्र । समवायांग में पापश्रुत के जो उनतीस प्रकार बतलाए हैं, वे आवश्यकनियुक्ति की अवणि तथा उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति में उद्धृत दो गाथाओं में निर्दिष्ट उनतीस प्रकारों से भिन्न हैं। इनके आधार पर वे उनतीस प्रकार ये हैं १. दिव्य, २. उत्पात, ३. अंतरिक्ष, ४. भौम, ५. अंग, ६. स्वर, ७. लक्षण, ८. व्यंजन-इन आठों के सूत्र, वृत्ति ओर वात्तिक-ये तीन-तीन प्रकार हैं । २५. गन्धर्व, २६. नाट्य, २७. वास्तु, २८. आयुर्वेद और २६. धनुर्वेद । इन दोनों स्थलों के तुलनात्मक अध्ययन से समवायांग में निर्दिष्ट प्रकार प्राचीन प्रतीत होते हैं । अष्टांग निमित्त के प्रत्येक अंग के तीन-तीन प्रकार किए गए हैं--सूत्र, वृत्ति और वात्तिक । आवश्यकनियुक्ति की अवणि में दो गाथाएं उद्धृत हैं। उनके अनुसार अंग को छोड़कर शेष सात अंगों के सूत्र का ग्रंथमान एक हजार, वृत्ति का ग्रंथमान एक लाख और वात्तिक का ग्रंथमान एक करोड़ होता है। अंग के सूत्र का ग्रंथमान एक लाख, वृत्ति का ग्रंथमान १. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति पन्न ६१७ : पापोपादानानिब तानि पापत्र तानि, तेषु प्रसजनानि प्रसंगाः तयाविधासक्तिस्मा: पापभुतप्रसंगा:। २. समवायांगवृत्ति, पत्न ४७ : पापोपादानि तानि पापश्रुतानि, तेषां प्रसंग:-तथाजसेवनरूप: पापश्रुतप्रसंगः। ३. (क) आवश्यक नियुक्ति, पवचूर्णि, द्वितीय विभाग, पृ० १३६ : भटुनिमित्तंगाई दिन्वुप्पायंतलिक्खं भोमं च । अंग सरलक्खणवंजणं च तिविहं पुणोक्केक्कं ॥ सुत्तं वित्ती तह वित्तियं च पावसुर्य प्रउणतीसविहं । गंधवनट्टवत्थु माउं घणवेयसंजुतं ।। (4) उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति पत्र ६१७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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