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________________ समवायो १५५ समवाय २६ : टिप्पण एक करोड़ और वात्तिक का ग्रंथमान अपरिमित है।' आचार्य अभयदेवसूरी ने विकथानुयोग की व्याख्या में अर्थशास्त्र के रूप में 'कामन्दक' और कामशास्त्र के रूप में वात्स्यायन के कामसूत्र 'कामशास्त्र' का उल्लेख किया है। योगानुयोग की व्याख्या में उन्होंने वशीकरण शास्त्र के रूप में 'हरमेखला' का उल्लेख किया है।' सूत्रकृतांग २/२/१८ में अनेकविध पापश्रुत अध्ययनों का निर्देश है । उनकी संख्या चौसठ है। उनमें प्रथम आठ वे ही हैं जो यहां निर्दिष्ट हैं । विशेष जानकारी के लिए देखें-सूत्रकृतांग २/२/१८ का टिप्पण। २. अन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोग (अण्णतिथियपवत्ताणुजोगे) ____ अन्यतीथिक शास्त्रों को पाप-श्रुत इसलिए नहीं माना गया कि वे 'स्व-समय' (जैनधर्म) से भिन्न विचारों के प्रतिपादक हैं, किन्तु उन्हें पाप-श्रुत इस दृष्टि से कहा गया है कि उनमें हिंसा, युद्ध आदि की प्रेरणा है। इसका फलितार्थ यह है कि जिन शास्त्रों में हिंसा आदि पापकर्म की प्रेरणा है, वे पाप-श्रुत हैं। ३. आषाढ़ (आसाढे) आषाढ़ आदि छह महीनों में कृष्णपक्ष में एक तीथि का क्षय होता है। चन्द्रमास २६.३२ दिन का होता है और ऋतमास ३० दिन का। इस प्रकार चन्द्रमास से ऋतुमास - दिन अधिक होता है। इसका फलित यह हुआ कि प्रत्येक अहोरात्र में 2 दिन चन्द्रमास में कम होता जाता है। इस प्रकार ६२ चन्द्रदिनों से ६१ अहोरात्र होते हैं। इसलिए साधिक दो महीनों में एक तिथि का क्षय होता है।' ४. चन्द्रमास का दिन (चंददिणे) ___ चन्द्रमास २४.३३ दिन का होता है । इसके २६.३२४३० मुहूर्त हुए । इसको ३० से विभाजित करने पर (२६.३२४३०५-३०) २८३३ मुहूर्त होंगे।' ५. उनतीस प्रकृतियां (एगणतोसं उत्तरपगडीओ) ___ उनतीस प्रकृतियां ये हैं-देवगतिनाम, पंचेन्द्रियजातिनाम, वैक्रिय द्वय-वैक्रियशरीरनाम और वैक्रियमिश्रशरीरनाम, सशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम, समचतुरस्रसंस्थाननाम, वर्णनाम, गंध नाम, रसनाम, स्पर्शनाम, देवानुपूर्वीनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, पराघातनाम, उच्छवासनाम, प्रशस्तविहायोगतिनाम, वसनोम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, प्रत्येकनाम, स्थिरनाम और अस्थिरनाम (दोनों में से एक), शुभनाम और अशुभनाम (दोनों में से एक), सुभगनाम, सुस्वरनाम, आदेयनाम और अनादेयनाम (दोनों में से एक), यशःकीत्तिनाम और अयशःकीत्तिनाम (दोनों में से एक), निर्माणनाम और तीर्थकरनाम । १ आवश्यकनियुक्ति, प्रवचूणि, द्वितीय विभाग, पृ० १३७ः दिम्बाईण सरूवं अंगविवज्जाण होइ सत्तण्हं । सुतं सहस्सलक्खो म वित्ती तह कोहि वक्खाणं ॥ अंगस्स सयसहस्सं सुत्तं वित्ती म कोडि विन्नेमा । वक्खाणं अपरिमिनं एमेव य वत्तियं जाण ।। २ समवायांगवृत्ति, पत्र ४७ : विकयानयोग–अर्थकामोपायप्रतिपादनपराणि कामन्दकवात्स्यायनादीनि भारतादीनि शास्त्राणि वा। ३. वही, पन ४७ : योगानुयोगो-वशीकरणादियोगाभिधायकानि हरमेखलादि शास्त्राणि 1. वही, पत्र ४७, ४८। ५.बहो, पत्र ४८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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