SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवायो ११८ समवाय २०: टिप्पण समवायांगवृत्ति में इसका एक ही अर्थ है-कलह का हेतुभूत कार्य करने वाला।' (१७) वृत्तिकार ने "शब्दकर" के दो अर्थ किए हैं १. रात्रि में जोर-जोर से बोलना या स्वाध्याय आदि करना । २. गृहस्थ की भाषा बोलना (अपशब्दों का प्रयोग करना)। दशाश्रुतस्कंध की वृत्ति में इसके तीन अर्थ किए हैं' १. लोगों के सो जाने पर, प्रहर रात्रि के बाद जोर-जोर से बोलना या स्वाध्याय आदि करना। २. गृहस्थ की भाषा बोलना।। ३. वैरात्रिक काल-ग्रहण के समय जोर से बोलना। सूत्रकार को इस शब्द से क्या अर्थ अभिप्रेत था-इस विषय में वृत्तिकार भी स्वयं निश्चित नहीं हैं, यह उन द्वारा कृत अनेक विकल्पों से ज्ञात होता है। यदि निश्चित अर्थ ज्ञात होता तो वे दो या तीन विकल्प प्रस्तुत नहीं करते । आगमों में "सद्दकरे, झंझकरे, कलहकरे, तुमंतुमे”—ये शब्द प्रायः कलह आदि करने के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । स्थानांग सूत्र में "अप्पसद्दे" की व्याख्या में वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने इसका अर्थ “विगतराटीमहाध्वनयः”-कलहकृत महाध्वनि से रहित किया है। इन दृष्टियों से तथा प्रस्तुत सूत्र के प्रकरण से भी "शब्दकर" का यहां वृत्तिकारों द्वारा मान्य दूसरा अर्थ--गृहस्थ की भाषा बोलना ही समीचीन प्रतीत होता है। (१६) सूर्यप्रमाणभोजी वह होता है जो सूर्य को प्रमाण मानकर, सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता रहता है। वह स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त नहीं होता। स्वाध्याय के लिए प्रेरित करने पर वह कुपित और रुष्ट हो जाता है । अत्यधिक खाने से उसके अजीर्ण आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं और तब उसे असमाधि का अनुभव होता है। (२०) जो ऐषणा समिति में उपयुक्त नहीं होता, वह अनेषणा का परिहार नहीं कर सकता। जो व्यक्ति अनेषणा का परिहार नहीं करता वह हिंसा से युक्त होता है । दूसरे मुनि उसे जब सावधान करते हैं तब वह उनसे झगड़ने लग जाता है। यह स्थान स्वयं की तथा दूसरे की असमाधि का कारण बनता है। स्थानांग १०/१४ से दस असमाधि-स्थानों का निर्देश है। वे इन बीस असमाधि-स्थानों से सर्वथा भिन्न हैं। वहां पांच "अ-महाव्रतों" तथा पांच "असमितियों" को असमाधि-स्थान कहा है। इन दसों स्थानों में प्रस्तुत आगमोक्त बीस स्थानों का समावेश किया जा सकता है। १. समवायांगवृत्ति, पत्र ३७ : कलहकरः कलहहेतुभूतकर्त्तव्यकारी। २. समवायांगवृत्ति, पन्न ३७। ३. दशाश्रुतस्कन्धवृत्ति (हस्तलिखित प्रादर्श) ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१६ । ५. मावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति भाग २, पृष्ठ ११०: सूर्यप्रमाणभोजीति सूर्य एवं प्रमाणं तस्योदय मावादारब्धः यावत् नास्तमनति तावत् भुनक्ति स्वाध्यायादि न करोति प्रति चोदितो रुष्यति, अजीर्णत्वावि चासमाधिरुत्पद्यते। ६. समवायांगवृत्ति, पन्न ३७: एषणाप्रसमितश्चापि भवति, अनेषणां न परिहरति, प्रेरितश्चासौ साधुभि: कलहायते, तथाऽनेपणीयमपरिहरन् जीवोपरोधे वर्तते, एवं चात्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानमिदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy