SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवाश्रो ११७ समाधि के दो प्रकार हैं १. द्रव्य समाधि --- पदार्थों से होने वाली तुष्टि या समाधान । २. भाव समाधि - ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अविसंवादिता । प्रस्तुत आलापक में बीस असमाधि स्थानों का निर्देश है। शिष्य प्रश्न करता है कि क्या असमाधि के स्थान बीस ही हैं ? आचार्य कहते हैं - यह तो एक निर्देश मात्र है । जिन-जिन आचरणों से असमाधि उत्पन्न होती है, वे सब असमाधिस्थान हैं । जैसे—— दवदवचारिता -जल्दबाजी से चलना ही असमाधि का स्थान नहीं है । जो जल्दबाजी में बोलता है, जल्दबाजी से प्रतिलेखन करता है या जल्दबाजी में भोजन करता है-वे सब असमाधि स्थान हैं । एक शब्द में कहा जा सकता है कि जितने असंयम के स्थान हैं, उतने ही स्थान असमाधि के हैं। वे असंख्य हैं । अथवा मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान - ये सारे असमाधि के स्थान हैं । ' असमाधि के बीस स्थानों में से कुछेक की व्याख्या इस प्रकार है (४) यहां शय्या का अर्थ है --वसति और आसन का अर्थ है -पाट, बाजोट आदि । जब ये प्रमाणातिरिक्त होते हैं, तब असमाधि के कारण बनते हैं। क्योंकि जहां शय्या -स्थान की अतिरिक्तता हो और कार्यटिकादिक अन्यतीर्थिक आ जाने पर उन्हें न दिया जाए तो वह कलह का हेतु हो सकता है। इसी प्रकार पाट, बाजोट आदि की याचना करने पर न दिए जाएं तो वे कलह के कारण बनते हैं । " (११) समवायांग के वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं १. शंकायुक्त अर्थ का निःशंक होकर प्रतिपादन करना । २. दूसरों के गुणों का अपहरण करना, जैसे – अदास को दास और अचोर को चोर कहना । हरिभद्रसूरी ने भी इसके दो अर्थ किए हैं* - १. तिरस्कार करने वाली भाषा बोलना, जैसे तुम दास हो, तुम चोर हो । २. शंकित बात को निःशंकित रूप में कहना, यह ऐसे ही है । (१२) अधिकरण के दो अर्थ हैं कलह और यंत्र । नए-नए कलहों को उत्पन्न करना भी असमाधि का कारण बनता है और नए-नए यंत्रों का निर्माण करना, स्थापना करना भी अधिकरण-हिला का कारण बनता है ।" समवाय २० : टिप्पण हरिभद्रसूरी ने भी इस आलापक के दो अर्थ किए हैं १. दूसरों को लड़ाना । २. यंत्रों का निर्माण करना । (१६) इस आलापक के दो अर्थ हैं— Jain Education International १. स्वयं कलह करना । २. ऐसे कार्य करना जिनसे कलह उत्पन्न हो । " १. दशा, तस्कंध चूर्णि पृष्ठ ६७ । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ३६ । ३. समवायांगवृत्ति पत्र ३६, ३७ : शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्यैवमेवायमित्येवं वक्ता, अववाऽवहारयिता परगुणानामपहा दकारी, यथा प्रदाखादिकमपि परं भणति दासस्त्वं चौरस्त्वमित्यादि । ५. समवायांगवृत्ति, पत्र ३७ । तथा अधिकरणानां कलहानां यन्त्रादीनां वोत्पादयिता । ४. आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११० : भीक्ष्णमणधारक इति प्रभीक्ष्णमवधारिणी भाषां भाषते, यथा दासस्त्वं चौरोवेति यद्वा शंकितं तत् निःशंकित भणत, एवमेवेति । ६. आवश्यक, हारिभद्वीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११० : मधिकरणकर उदीरक: अधिकरणानि करोति अन्येषां कलयतीति भणितं भवति, यन्त्रादीनि वोदीरयति । ७. वही, वृत्ति भाग २ पृष्ठ ११० : कलकर इति आत्मना कलहं करोति, तत्करोति येन कलहो भवति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy