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________________ समवाश्रो १३. आरणे कप्पे देवाणं जहष्णेणं वीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १४. जे देवा सातं विसातं सुविसातं सिद्धत्थं उप्पलं रुइलं तिगिच्छं दिसासोत्थिय - वद्धमाणयं पलंबं पुष्कं सुपुष्कं पुप्फावत्तं पुप्फपभ्रं पुप्फकंतं पुप्फवण्णं पुप्फलेसं पुष्कज्यं पुफसिंगं पुप्फसिट्ठ पुप्फकडं पुप्फुत्तरवडेंसगं विमाणं देवताए उबवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वोसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १५. ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आमंति वा पाणमंत वा ऊससंति वा नीससंति वा । ११६ आरणे कल्पे देवानां जघन्येन विशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ये देवाः सातं विसातं सुविसातं सिद्धार्थं उत्पलं रुचिरं तिगिच्छं दिशासौवस्तिकं वर्द्धमानकं प्रलम्ब पुष्पं सुपुष्पं पुष्पावर्त्तं पुष्पप्रभं पुष्पकान्तं पुष्पवर्ण पुष्पलेश्यं पुष्पध्वजं पुष्पशृङ्गं पुष्पसृष्टं पुष्पकूटं पुष्पोत्तरावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः तेषां देवानामुत्कर्षेण विशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । ते देवाः विंशतेः अर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । १६. तेसि णं देवाणं वीसाए वास सहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ । १७. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये वीसाए भवग्गहणेह सिज्भि - विंशत्या भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते स्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानापरिनिव्वाइस्सं ति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करिस्सति । Jain Education International जिस आचरण से स्वयं के या दूसरे के, स्थान अथवा असमाधि-पद कहा जाता है। # तेषां देवानां विंशत्या वर्षसहस्रैराहारार्थः १६. उन देवों के बीस हजार वर्षों से भोजन समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है । टिप्पण १. धावश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २ पृष्ठ १०६ : समाधानं समाधिः चेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽव स्थितिः । २. भावश्वक हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २ पृष्ठ १०९ : न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि - प्राश्रया भेदाः पर्यायाः । ३. दशाश्रुतस्कघचूर्णि पत्र ४ । समवाय २० सू० १३-१७ १३. आरणकल्प के देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम की है । १४. सात विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, रुचिर, तिगिच्छ, दिशासौवस्तिक, वर्द्धमानक, प्रलंब, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावर्त, पुष्पप्रभ, पुष्पकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पशृङ्ग, पुष्पसृष्ट, पुष्पकूट और पुष्पोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की है। १. असमाधि के स्थान (असमाहिठाणा) समाधि के तीन अर्थ हैं - समाधान, मानसिक स्वस्थता और मोक्ष मार्ग में अवस्थिति । प्रस्तुत आलापक में सूत्रकार ने ऐसे बीस स्थानों का निर्देश किया है, जिनसे मानसिक अशांति या असमाधि उत्पन्न होती है। ऐसे और अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु मुनि के जीवन व्यवहार में इन कारणों के उपस्थित होने की संभावना अधिक होती है । यहां असमाधि स्थान का तात्पर्य है - असमाधि के आश्रय, भेद या पर्याय । १५. वे देव बीस पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं । For Private & Personal Use Only १७. कुछ भव- सिद्धिक जीव बीस बार जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । इहलोक में, परलोक में या उभयलोक में असमाधि होती है उसे असमाधि www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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