SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवायो १८४ समवाय ३४ : सू०२ २३. वह भाष्यमाण अर्द्धमागधी भाषा सुनने वाले आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग (वन्य-पशु), पशु (ग्राम्य-पशु), पक्षी, सरीसृप आदि की अपनी-अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है। २३ सावि य णं अद्धमागही भासा सापि च अर्द्धमागधी भाषा भाष्यमाणा भासिज्जमाणी तेसि सव्वेसि तेषां सर्वेषां आर्यानार्याणां द्विपदआरियमणारियाणं दुप्पय- चतुष्पद- मृग- पशु-पक्षि - सरोसृपाणां चउप्पय - मिय-पसु-पक्खि-सिरी- आत्मनः हित-शिव-सुखदभाषात्वेन सिवाणं अप्पणो हिय-सिव- परिणमति । सुहदाभासत्ताए परिणमइ। २४. पुव्वबद्धवेरावि य णं पूर्वबद्धवैरा अपि च देवासुर-नाग-सुपर्णदेवासुर - नाग • सुवण्ण - जक्ख- यक्ष-राक्षस-किन्नर-किंपुरुष-गरुड-गंधर्वरक्खस - किन्नर - किंपुरिस-गरुल- महोरगाः अर्हत: पादमूले प्रशान्तचित्तगंधव्व-महोरगा अरहओ पायमूले मानसाः धर्म निशाम्यन्ति । पसंतचित्तमाणसा धम्म निसामंति। २४. पूर्वबद्ध वैर वाले तथा देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व और महोरग अर्हन्त के पास प्रशांत चित्त और प्रशान्त मन वाले होकर' धर्म सुनते हैं। २५. अण्णउत्थिय - पावणियावि अन्ययथिकप्रावनिका अपि च आगताः यण मागया वंदंति। वन्दन्ते। २५. अन्यतीथिक प्रावनिक भी पास में आने पर भगवान् को बन्दन करते २६. अर्हत के सम्मुख वे निरुत्तर हो जाते हैं। २६. आगया समाणा अरहओ आगताः सन्तः अर्हतः पादमूले निष्प्रतिपायमूले निप्पडिवयणा हवंति। वचनाः भवन्ति । २७ जओ जओवि य णं अरहंतो यत्र यत्रापि च अर्हन्तो भगवन्तो भगवंतो विहरंति तओ तओवि विहरन्ति, तत्र तत्रापि च योजनपञ्चय णं जोयणपणवीसाएणं ईतो न विंशत्यां ईतिर्न भवति । भवइ। २८. मारो न भवइ। मारी न भवति। २७. अर्हत् भगवान् जहां-जहां विहार करते हैं, वहां-वहां पचीस योजन में ईति (धान्य आदि का उपद्रव-हेतु) नहीं होती। २८. मारी नहीं होती। २६. सचक्कं न भवइ। स्वचक्र न भवति। २६. स्वचक्र (अपनी सेना का विप्लव) नहीं होता। ३०. परचक्कं न भवइ। परचक्रं न भवति। ३०. परचक्र (दूसरे राज्य की सेना से होने वाला उपद्रव) नहीं होता। ३१. अइबुट्ठी न भवइ। अतिवृष्टिर्न भवति । ३१. अतिवृष्टि नहीं होती। ३२. अणावुट्ठी न भवइ। अनावृष्टिर्न भवति । ३२. अनावृष्टि नहीं होती। ३३. दुन्भिक्खं न भवइ । दुभिक्षं न भवति । ३३. दुर्भिक्ष नहीं होता। ३४. पुव्वुप्पण्णावि य णं उप्पाइया पूर्वोत्पन्ना अपि च औत्पातिकाः व्याधयः ३४. पूर्व उत्पन्न औत्पातिक व्याधियां' वाही खिप्पामेव उवसमंति। क्षिप्रमेव उपशाम्यन्ति। शीघ्र ही उपशान्त हो जाती हैं। २. जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्त्रिंशत् चक्रवर्ति- २. जम्बूद्वीप द्वीप में चक्रवर्ती के विजय चक्कट्टिविजया पण्णत्ता, तं विजयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-द्वात्रिंशद चौतीस हैं, जैसे-महाविदेह में बत्तीस, जहा बत्तीसं महाविदेहे, दो महाविदेहे, द्वौ भरतैरवतयोः । भरत में एक और ऐरवत में एक। भरहेरवए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy