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________________ समवाओ १८५ समवाय ३४ : सू० ३-६ ३. जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्त्रिशद् दीर्घवैता- ३. जम्बूद्वीप द्वीप में दीर्घवैताढ्य चौतीस दीहवेयड्डा पण्णत्ता। ढ्यानि प्रज्ञप्तानि । ४. जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपए जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्कृष्टपदे चतुस्त्रिंशत् ४. जम्बूद्वीप द्वीप में उत्कृष्टत: चौतीस चोत्तीसं तित्थंकरा समुप्पज्जति। तीर्थङ्कराः समुत्पद्यन्ते ।। तीर्थङ्कर उत्पन्न होते हैं। ५. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य ५. असुरेन्द्र असुरराज चमर के चौतीस चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा चतुस्त्रिशद् भवनावासशतसहस्राणि लाख भवनावास हैं । पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि । ६. पढमपंचमछट्ठीसत्तमासु-- चउसु प्रथमपञ्चमषष्ठीसप्तमीषु- चतसृषु ६. पहली, पांचवी, छठी और सातवीं पुढवोसु चोत्तीसं निरयावास- पृथ्वीषु चतुस्त्रिशद् निरयावासशत- इन चार पृथ्वियों में चौतीस लाख सयसहस्सा पण्णता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । नरकावास हैं। टिप्पण १. सूत्र १: इस आलापक की वृत्ति में वृत्तिकार दो स्थानों पर बृहद्वाचना का उल्लेख करते हुए मतान्तर की सूचना देते हैं। उनके अनुसार प्रस्तुत आलापक गत १६ वें और २० वें अतिशय के स्थान पर ये दो अतिशय हैं १. तीर्थंकर का निषीदन स्थान कालागुरु, प्रवरकंदुरुक्क आदि धूपों से अत्यन्त सौरभमय जैसा होता है । २. तीर्थंकरों के दोनों पावों में कड़े और भुजबंध पहने हुए दो यक्ष चामर डुलाते रहते हैं।' पचीसवें और छबीसवें अतिशयों के स्थान पर बृहद्वाचना में दूसरे दो अतिशय माने हैं । वे दो मान्य अतिशय कौन से हैं, इसका उल्लेख वृत्तिकार ने नहीं किया है। वृत्तिकार के अनुसार इनमें से २, ३, ४, ५-ये चार अतिशय जन्मजात होते हैं। इक्कीसवें अतिशय से चौतीसवें अतिशय तक तथा बारहवां अतिशय-ये पन्द्रह कर्मक्षय से उत्पन्न होते हैं। शेष पन्द्रह अतिशय (१, ६ से ११ तथा १३ से २०) देवकृत होते हैं। वृत्तिकार का अभिमत है कि ये अतिशय अन्यान्य ग्रंथों में दूसरे-दूसरे प्रकार से भी प्राप्त होते हैं । उसे मतान्तर मानना चाहिए।' प्रवचनसारोद्धार में निर्दिष्ट चौतीस अतिशयों तथा समवायांग में प्राप्त अतिशयों में अन्तर है। यहां क्रम-भेद का निर्देश नहीं किया गया है, केवल विषय-भेद बतलाया जा रहा है। वह इस प्रकार है ( ५) योजनमात्र क्षेत्र में करोड़ों लोग समा जाते हैं। (७) पूर्वभव के रोग उपशान्त हो जाते हैं। (१०) डमर-स्वचक्र और परचक्र कृत विप्लव नहीं होता। (२२) चतुर्मुखांगता। (२३) देवकृत तीन कोट। उभयो पासिं च .........."यक्षो देवाविति विशतितमः। १. समवायांगवृत्ति, पन्न ५८ : कालागुरुप्रवरकंदुरुक्क . . . . . . . . ."निषीदनस्थानमिति प्रक्रम इत्येकोनविंशतितमः। बृहद्वाचनायामनन्तरोक्तमतिशयद्वयं नाधीयते । २. समवायांगवृत्ति, पत्र ५६ : बृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमधीयते । ३. समवायांगवृत्ति, पन १८, ५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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